Wednesday 9 April 2014

हम खुद को क्यों नहीं थप्पड़ मारते?

प्रभात रंजन दीन
कुछ दिनों पहले, आपको याद ही होगा कि महाराष्ट्र के भ्रष्ट किन्तु कद्दावर नेता शरद पवार को किसी ने थप्पड़ मारा था। कद्दावर इसलिए कहा कि भारतीय लोकतंत्र में जो भ्रष्ट वही कद्दावर। थप्पड़ की जो चटाख आवाज गूंजी तो अन्ना हजारे ने कहा था, 'बस एक थप्पड़'! अन्ना जैसे बुजुर्ग गांधीवादी को भी लगा कि शरद पवार जैसे व्यक्ति को एक थप्पड़ मारने से कैसे काम चलेगा! मंगलवार को अरविंद केजरीवाल पर भी थप्पड़ चला। शरद पवार और अरविंद केजरीवाल के थप्पड़ में मौलिक अंतर है। शरद पावर पर जिसने थप्पड़ चलाया उसे पवार समर्थकों ने खूब धुना लेकिन केजरीवाल को थप्पड़ मारने वाले ने केजरीवाल के हाथों फूलों का गुलदस्ता पाया। थप्पड़ मारने वाले के घर जाकर अरविंद केजरीवाल ने उससे मुलाकात की और उसे फूल भेंट दिए। बदले में उस ऑटो चालक ने केजरीवाल को भगवान की उपाधि दी और केजरीवाल की बुद्धिमानी कह लें या चालाकी या धूर्तता या तीनों का 'कॉम्बिनेशन', यह स्थापित हुई। कम से कम लोकतांत्रिक नजरिए से या गांधीवादी 'एक थप्पड़ के बदले में दूसरा गाल' का फार्मूला ज्यादा मुफीद साबित तो हुआ। लेकिन थप्पड़ को जरा जनता के एंगल से भी देखिए। लोग अब इतने त्रस्त हैं कि उन्हें कोई रास्ता नहीं दिख रहा। अरविंद केजरीवाल से लोगों ने ज्यादा उम्मीदें लगा ली थीं, लिहाजा उसके प्रति गुस्सा भी ज्यादा अभिव्यक्त हो रहा है। यह थप्पड़ जनता की उम्मीदों की अभिव्यक्ति है। इसे इस कोण से भी देखा जाना चाहिए। गुस्से की इन अभिव्यक्तियों से नेताओं को सीख लेनी चाहिए कि अब ज्यादा दिन नहीं हैं जब वे जनता को बेवकूफ बनाते चलें और थप्पड़ न खाएं। सुरक्षा चाहे जितनी भी रख लें। कालिख पोतने से लेकर जूते फेंकने और थप्पड़ चलाने की घटनाएं कहां रुक रही हैं! रुकने के बजाय बढ़ती ही चली जा रही हैं। ...और केवल नेता ही क्या, अब तो समाज के जितने भी गैरजिम्मेदार तत्व सियासत में, नौकरशाही में, न्यायालय में, स्कूल-कॉलेजों में, दफ्तरों में, बैंकों में, थानों-चौकियों में और मीडिया में मिलेंगे वे थप्पड़ खाएंगे। अभी ही सब को चेत जाना चाहिए और थप्पड़ के चलन को अपना काम दिखा कर कम कर लेना चाहिए। अगर यही थप्पड़ कहीं और प्रगाढ़ होने के रास्ते पर अग्रसर हुआ तो आप समझ लें क्या-क्या मुश्किलें सामने आने वाली हैं। मौजूदा स्थिति यह है कि देश में एक भी ऐसा नेता नहीं बचा जिस पर लोगों का भरोसा बचा हो। एक भी नेता ऐसा नहीं है जिस पर लोगों को यह यकीन हो कि वह उनकी बात सुन सकता है, या उनके कोई काम आ सकता है। सारी पार्टियां नासमझ क्षुद्र स्वार्थों से भरे नेताओं के कब्जे में हैं। देश में कोई जन नेता नहीं बचा जिसके पीछे देश चल दे। भारतीय राजनीति और भारतीय समाज नेतृत्व की दरिद्रता से गुजर रहा है। ऐसे में जनता में गुस्सा, मोहभंग और क्षोभ समेकित शक्ल लेगा ही और थप्पड़ की तरह अभिव्यक्त होगा ही। लेकिन थप्पड़ से अपनी नाराजगी को अभिव्यक्ति देने वालों के समक्ष भी यह सवाल तो है ही कि देश में महंगाई बढ़ाने वाले, भ्रष्टाचार बढ़ाने और भ्रष्टाचार करने वाले कितने नेताओं पर थप्पड़ चला है आज तक? देश के सैनिकों का शीश काट ले जाने या भारतीय सीमा में घुस कर भारतीय सैनिकों को गोलियों से भून डालने की कार्रवाई के बावजूद नपुंसकता ओढ़े रहने वाले नेताओं पर कितने थप्पड़ चले? थप्पड़ का लोकतांत्रिक संतुलन होना चाहिए, यह अलोकतांत्रिक और अराजकता की अभिव्यक्ति नहीं होना चाहिए। दुर्नीतियों, भ्रष्टाचार, महंगाई और देश की बदहाली के खिलाफ एक जुझारू थप्पड़ सत्याग्रह शुरू होना चाहिए। हम घरों से निकलें और सांकेतिक रूप से खुद को थप्पड़ मारें। इसकी गूंज दुनिया को सुनने दें, ताकि पूरे विश्व को पता चले कि भारतवर्ष की बदहाली के लिए और कोई नहीं, देश की जनता ही जिम्मेदार है, अपराधी है, दोषी है...

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