Wednesday 22 November 2017

चीनी मिल बिक्री घोटाले की एक और जांचः ताकि आंच और जांच से बची रहें मायावती

प्रभात रंजन दीन
चीनी मिल बिक्री घोटाले की आंच और सीबीआई जांच से मायावती को बचाने के लिए केंद्र सरकार नए-नए पैंतरे आजमा कर रही है. मायावती के कार्यकाल में कुछ खास पूंजी घरानों को प्रदेश की 21 चीनी मिलें कौड़ियों के भाव बेचे जाने के मामले में अब फिर से नया मोड़ आ गया है. इस नए मोड़ की खास वजहें हैं. इसे जानने के लिए पहले हम यह रुटीन सूचना प्राप्त करते चलें कि दो उन कंपनियों के खिलाफ पिछले दिनों लखनऊ के गोमती नगर थाने में मुकदमा दर्ज कराया गया, जो चीनी मिलों की खरीद में शामिल थीं. जबकि चीनी मिलें खरीदने में सबसे अधिक धांधली विवादास्पद पूंजीपति पौंटी चड्ढा (अब दिवंगत) की कंपनियों ने प्रदेश के शीर्ष नेतृत्व और नौकरशाहों से साठगांठ कर मचाई थी. अब आप याद करें कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सत्ता-ग्रहण के बाद ही चीनी मिल खरीद घोटाले की सीबीआई से जांच कराने की मंशा जाहिर की थी. इसके फौरन बाद अरुण जेटली के कॉरपोरेट अफेयर मंत्रालय ने इस मामले में कानूनी बाधा डालने की कोशिश की. जेटली के मंत्रालय के तहत आने वाले राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग (कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया) ने मायावती को फौरन क्लीन-चिट दे दी और कहा कि यूपी की चीनी मिलों की बिक्री में कोई गड़बड़ी नहीं हुई. आयोग ने अपने ही डीजी (इन्वेस्टिगेशन) की जांच रिपोर्ट दबा दी और ‘दबाव’ में मायावती को बेदाग करार देते हुए चरित्र-प्रमाण-पत्र जारी कर दिया. ‘चौथी दुनिया’ ने आयोग के डायरेक्टर जनरल (इन्वेस्टिगेशन) की वह जांच रिपोर्ट छाप दी, जिसमें चीनी मिलों की बिक्री में घनघोर अनियमितताएं किए जाने की आधिकारिक पुष्टि की गई थी. ‘चौथी दुनिया’ में रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद आयोग की घिघ्घी बंध गई और इस प्रकरण में केंद्र सरकार के राजनीतिक तिकड़म और केंद्र व राज्य के राजनीतिक विरोधाभास की कलई खुल गई.
शीर्ष राजनीतिक स्तर से मायावती को ‘छत्र’ देने की कोशिशें उजागर होते ही केंद्र सरकार को अपने पैर पीछे खींचने पड़े. फिर केंद्र ने एक नया कानूनी पैंतरा अख्तियार किया. इस नई पैंतरेबाजी का भी मजा देखिए... अरुण जेटली के जिस कॉरपोरेट अफेयर मंत्रालय के एक महकमे ‘सीसीआई’ ने मायावती को बेदाग बताया, उसी मंत्रालय के एक अन्य विभाग ‘सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस’ (सीआईएफओ) को चीनी मिलों की बिक्री की जांच सौंप दी गई. मंत्रालय के ही अधिकारी कहते हैं कि यह जांच ‘बलि का बकरा’ तलाशेगी और मायावती को बचाएगी. आप यह जानते हैं कि चीनी मिलों की बिक्री में बरती गई अनियमितताएं महालेखाकार (कैग) की जांच में पहले ही पकड़ी जा चुकी हैं. इसके बाद कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया के महानिदेशक (अनुसंधान) ने भी अपनी जांच में अनियमितताएं पकड़ीं. यह अलग बात है कि आयोग ने अपने महानिदेशक (अनुसंधान) की जांच रिपोर्ट का ध्यान नहीं रखकर मायावती का ध्यान रखा. जब दो-दो जांचें चीनी मिलों की बिक्री में घोटाले की पुष्टि कर चुकी थीं, फिर तीसरी जांच की क्या जरूरत थी? इस सवाल का जवाब देते हुए आयोग के ही एक अधिकारी ने कहा कि सीबीआई से मामले की जांच न हो, इसके लिए सारी पेशबंदियां की जा रही हैं. मायावती भविष्य की भाजपाई सियासत का तुरुप का पत्ता बनने वाली हैं, केंद्र सरकार की इन हरकतों से यही साबित हो रहा है. मायावती सीबीआई जांच के चपेटे में न आ जाएं, इसके लिए जांच, प्रति-जांच और प्रति-प्रति-जांच का नियोजित घनचक्कर चलाया जा रहा है. चीनी मिलों की बिक्री प्रकरण की सीबीआई से जांच कराने के बजाय उसकी जांच कॉरपोरेट अफेयर मंत्रालय के ‘सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस’ को क्यों और कब दी गई? सरकार ने इस पर गोपनीयता क्यों बरती? जब कॉरपोरेट अफेयर मंत्रालय के ही कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया ने मायावती को क्लीन-चिट दे दी थी, फिर उसी मंत्रालय के दूसरे विभाग को जांच क्यों दी गई? अगर सीसीआई की क्लीन-चिट गलत थी तो केंद्र सरकार ने उसके चेयरमैन और अन्य सम्बद्ध सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की? इन बेहद जरूरी सवालों पर राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों अपने मुंह पर पट्टा बांधे हुई है.

चीनी मिल बिक्री-घोटाले की एक और जांच का ‘सीरियस-फ्रॉड’
दिलचस्प यह है कि ‘सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस’ (सीएफआईओ) ने अपनी जांच में दो कम्पनियों को फर्जी पाया. चीनी मिल बिक्री प्रकरण का यह अपने आप में ‘सीरियस-फ्रॉड’ है. मायावती के शासनकाल के दरम्यान वर्ष 2010-11 में 10 चालू चीनी मिलें और 11 बंद पड़ी चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में शामिल अधिकतर कंपनियों ने सिंडिकेट बना कर घपला किया. लेकिन सीएफआईओ ने केवल नम्रता मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड और गिरियाशो कंपनी प्राइवेट लिमिटेड को अलग (सिंगल आउट) किया. नम्रता मार्केटिंग ने देवरिया, बरेली, लक्ष्मीगंज (कुशीनगर) और हरदोई की चीनी मिलें खरीदने का दावा किया था और गिरियाशो कंपनी प्राइवेट लिमिटेड ने रामकोला, छितौनी और बाराबंकी की चीनी मिलों को खरीदने का दावा पेश किया था. इन दोनों कम्पनियों के निदेशकों की ओर से हस्ताक्षरित बैलेंस शीट दावे के साथ संलग्न की गई थी. उसी आधार पर सरकार ने दोनों कंपनियों को नीलामी प्रक्रिया में शामिल होने के योग्य घोषित किया था. इसके बाद बिक्री प्रक्रिया पूरी हुई और कंपनियों को चीनी मिलें बेच दी गईं. अब ‘सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस’ ने अपनी जांच में इन दो कंपनियों की धांधली पकड़ी. यानि, ‘बलि का बकरा’ किसे बनाया जाएगा, यह तय हो रहा है. इस जांच के आधार पर राज्य चीनी निगम लिमिटेड के प्रधान प्रबंधक एसके मेहरा ने आनन-फानन गोमतीनगर थाने जाकर एफआईआर दर्ज करा दी. मेहरा ने नम्रता मार्केटिंग कंपनी के निदेशक दिल्ली के रोहिणी निवासी राकेश शर्मा, गाजियाबाद के इंदिरापुरम निवासी धर्मेंद्र गुप्ता, सहारनपुर के साउथ सिटी निवासी सौरभ मुकुंद, सहारनपुर के मिर्जापुर पोल-3 निवासी मोहम्मद जावेद, दिल्ली के रोहिणी निवासी सुमन शर्मा, सहारनपुर के तहसील बेहट निवासी मोहम्मद नसीम अहमद और मोहम्मद वाजिद अली के खिलाफ धोखाधड़ी का मुकदमा दर्ज कराया.
आप जैसे-जैसे खबर के विस्तार में जाएंगे, ‘सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस’ की जांच के पीछे के नियोजित षडयंत्र की परतें अपने आप खुलती दिखेंगी. महालेखाकार से लेकर सीसीआई के डीजी (अनुसंधान) की जांच में भी यह तथ्य खुल कर सामने आ चुका है कि चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में शामिल तमाम कंपनियां पूंजीपति पौंटी चड्ढा से ही जुड़ी थीं. कुछ अन्य कंपनियां भी एक-दूसरे से जुड़ी छद्म कंपनियां थीं. लेकिन ‘सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस’ के जांच अधिकारियों को केवल दो कंपनियों का ही फर्जीवाड़ा दिखा. नम्रता और गिरियाशो जैसी दो कंपनियों के खिलाफ गोमती नगर थाने में जैसे ही एफआईआर दर्ज हुई, वैसे ही पूर्व आईएएस अफसर सूर्य प्रताप सिंह ने बेसाख्ता कहा कि यह एफआईआर ही धोखा है. सरकार को अगर ठोस कार्रवाई करनी है तो उन नौकरशाहों पर करे, जिन्होंने चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में ‘सक्रिय’ भूमिका निभाई थी.

सत्ता की हांडी, सीसीआई की खिचड़ी और सीएफआईओ का रायता
मायावती के कार्यकाल में चीनी मिलों को औने-पौने भाव में बेचे जाने के मामले की जांच की घोषणा योगी सरकार ने सत्तारूढ़ होने के महीनेभर बाद ही अप्रैल महीने में कर दी थी. अगले ही महीने चार मई 2017 को कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) ने मायावती सरकार को बेदाग बता दिया. जबकि महालेखाकार (सीएजी) की जांच रिपोर्ट पहले ही यह कह चुकी थी कि चीनी मिलों की बिक्री में घनघोर अनियमितताएं की गईं. सीसीआई के डायरेक्टर जनरल (इन्वेस्टिगेशन) नितिन गुप्ता ने भी अपनी छानबीन में पौंटी चड्ढा की कंपनी के साथ नीलामी में शामिल अन्य कंपनियों की साठगांठ की पुष्टि की थी. गुप्ता ने जांच में यह पाया कि नीलामी में शामिल कई कंपनियां पौंटी चड्ढा की ही मूल कंपनी से जुड़ी हैं, जबकि नीलामी की पहली शर्त ही थी कि एक मिल के लिए एक ही कंपनी निविदा-प्रक्रिया में शामिल हो सकती है. राज्य चीनी निगम लिमिटेड की 10 चालू चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में पहले 10 कंपनियां शरीक हुईं, लेकिन आखिर में केवल तीन कंपनियां वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड, पीबीएस फूड्स प्राइवेट लिमिटेड और इंडियन पोटाश लिमिटेड ही रह गईं. 10 चालू चीनी मिलों को खरीदने के लिए आखिर में बची तीन कंपनियों में ‘गजब’ की समझदारी पाई गई. जिन मिलों को खरीदने में पौंटी चड्ढा की कंपनी ‘वेव’ की रुचि थी, वहां अन्य दो कंपनियों ने कम दर की निविदा (बिड-प्राइस) भरी और जिन मिलों में दूसरी कंपनियों को रुचि थी, वहां ‘वेव’ ने काफी दम दर की निविदा दाखिल की. इस तरह की मिलीभगत से पांच चीनी मिलें इंडियन पोटाश लिमिटेड ने और चार चीनी मिलें वेव इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड ने खरीदीं.
दसवीं चीनी मिल की खरीद में और रोचक खेल हुआ. बिजनौर की चांदपुर चीनी मिल की नीलामी के लिए इंडियन पोटाश लिमिटेड ने 91.80 करोड़ की निविदा दर (बिड प्राइस) कोट की. पीबीएस फूड्स ने 90 करोड़ की प्राइस कोट की, जबकि इसमें ‘वेव’ ने महज 8.40 करोड़ की बिड-प्राइस कोट की थी. बिड-प्राइस के मुताबिक चांदपुर चीनी मिल खरीदने का अधिकार इंडियन पोटाश लिमिटेड को मिलता, लेकिन ऐन मौके पर पोटाश लिमिटेड नीलामी की प्रक्रिया से खुद ही बाहर हो गई. लिहाजा, चांदपुर चीनी मिल पीबीएस फूड्स को मिल गई. नीलामी प्रक्रिया से बाहर हो जाने के कारण इंडियन पोटाश की बिड राशि जब्त हो गई, लेकिन पीबीएस फूड्स के लिए उसने पूर्व-प्रायोजित-शहादत दे दी. सीसीआई की जांच में यह भी तथ्य खुला कि पौंटी चड्ढा की कंपनी वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड और पीबीएस फूड्स प्राइवेट लिमिटेड, दोनों के निदेशक त्रिलोचन सिंह हैं. त्रिलोचन सिंह के वेव कंपनी समूह का निदेशक होने के साथ-साथ पीबीएस कंपनी का निदेशक और शेयरहोल्डर होने की भी आधिकारिक पुष्टि हुई. इसी तरह वेव कंपनी की विभिन्न सम्बद्ध कंपनियों के निदेशक भूपेंद्र सिंह, जुनैद अहमद और शिशिर रावत पीबीएस फूड्स के भी निदेशक मंडल में शामिल पाए गए. मनमीत सिंह वेव कंपनी में अतिरिक्त निदेशक थे तो पीबीएस फूड्स में भी शेयर होल्डर थे. इस तरह वेव कंपनी और पीबीएस फूड्स की साठगांठ और एक ही कंपनी का हिस्सा होने का दस्तावेजी तथ्य सामने आया. यहां तक कि वेव कंपनी और पीबीएस फूड्स द्वारा निविदा प्रपत्र खरीदने से लेकर बैंक गारंटी दाखिल करने और स्टाम्प पेपर तक के नम्बर एक ही क्रम में पाए गए. आयोग के डीजी ने अपनी जांच रिपोर्ट में लिखा है कि दोनों कंपनियां मिलीभगत से काम कर रही थीं. चालू हालत की 10 चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में शामिल होकर आखिरी समय में डीसीएम श्रीराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड, द्वारिकेश शुगर इंडस्ट्रीज लिमिटेड, लक्ष्मीपति बालाजी शुगर एंड डिस्टिलरीज़ प्राइवेट लिमिटेड, पटेल इंजीनियरिंग लिमिटेड, त्रिवेणी इंजीनियरिंग एंड इंडस्ट्रीज लिमिटेड, एसबीईसी बायोइनर्जी लिमिटेड और तिकौला शुगर मिल्स लिमिटेड जैसी कंपनियों के भाग खड़े होने का मामला भी रहस्य के घेरे में है.

सत्ता अलमबरदारों के होठ सिले हुए हैं, सब मिले हुए हैं
चीनी एवं गन्ना विकास निगम लिमिटेड की बंद पड़ी 11 चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में भी यही हुआ. नीलामी में कुल 10 कंपनियां शरीक हुईं, लेकिन आखिरी समय में तीन कंपनियां मेरठ की आनंद ट्रिपलेक्स बोर्ड लिमिटेड, वाराणसी की गौतम रियलटर्स प्राइवेट लिमिटेड और नोएडा की श्रीसिद्धार्थ इस्पात प्राइवेट लिमिटेड मैदान छोड़ गईं. जो कंपनियां रह गईं उनमें पौंटी चड्ढा की कंपनी वेव इंडस्ट्रीज के साथ नीलगिरी फूड्स प्राइवेट लिमिटेड, नम्रता, त्रिकाल, गिरियाशो, एसआर बिल्डकॉन व आईबी ट्रेडिंग प्राइवेट लिमिटेड शामिल थीं. इनमें भी खूब समझदारी थी. नीलगिरी फूड्स ने बैतालपुर, देवरिया, बाराबंकी और हरदोई चीनी मिलों के लिए निविदा दाखिल की थी, लेकिन आखिर में बैतालपुर चीनी मिल के अलावा उसने बाकी पर अपना दावा छोड़ दिया. इसमें उसे जमानत राशि भी गंवानी पड़ी. बैतालपुर चीनी मिल खरीदने के बाद नीलगिरी ने उसे कैनयन फाइनैंशियल सर्विसेज लिमिटेड के हाथों बेच डाला. इसी तरह त्रिकाल ने भटनी, छितौनी और घुघली चीनी मिलों के लिए निविदा दाखिल की थी, लेकिन आखिरी समय में जमानत राशि गंवाते हुए उसने छितौनी और घुघली चीनी मिलों से अपना दावा हटा लिया. वेव कंपनी ने भी बरेली, रामकोला और शाहगंज की बंद पड़ी चीनी मिलों को खरीदने के लिए निविदा दाखिल की थी. लेकिन उसने बाद में बरेली और रामकोला से अपना दावा छोड़ दिया और शाहगंज चीनी मिल खरीद ली. बाराबंकी, छितौनी और रामकोला की बंद पड़ी चीनी मिलें खरीदने वाली कंपनी गिरियाशो और बरेली, हरदोई, लक्ष्मीगंज और देवरिया की चीनी मिलें खरीदने वाली कंपनी नम्रता में वही सारी संदेहास्पद-समानताएं पाई गईं जो वेव इंडस्ट्रीज़ और पीबीएस फूड्स लिमिटेड में पाई गई थीं. यह भी पाया गया कि गिरियाशो, नम्रता और कैनयन, इन तीनों कंपनियों का दिल्ली के सरिता विहार में एक ही पता है. बंद पड़ी 11 चीनी मिलें खरीदने वाली सभी कंपनियां एक-दूसरे से जुड़ी हुई पाई गईं, खास तौर पर वे पौंटी चड्ढा की वेव इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड से सम्बद्ध पाई गईं. ‘सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस’ ने अपनी जांच में इन सारे तथ्यों की अनदेखी कर केवल दो कंपनियों नम्रता मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड और गिरियाशो कंपनी प्राइवेट लिमिटेड पर निशाना साधा. यह सारा प्रहसन केवल मायावती को बचाने के लिए खेला जा रहा है. 

Tuesday 14 November 2017

अपने ही 'रॉ' एजेंटों को धोखा देती है सरकार

प्रभात रंजन दीन
छोटे से सीलन भरे कमरे से आने वाली चीख और सिसकियों की आवाजें किसकी हैं? दर्द से मुक्ति पाने की छटपटाहट के बेचैन स्वर किसके हैं? देर रात लोगों को परेशान करने वाले बेमानी शब्द-शोर से भरी पागल आवाजें किसकी हैं? किसकी सुनाई पड़ती हैं किसी बच्चे को फुसलाने जैसी कातर ध्वनियां? आप यह न समझें कि यह किसी खूंखार जेल के बंद सेल से आने वाली दुखी-प्रताड़ित कैदियों की आवाजें हैं. यह उन देशभक्तों का यथार्थ आर्तनाद है, जिन्होंने अपने देश के लिए पाकिस्तान में जासूसी करते हुए जीवन खपा दिया, लेकिन आज अपने देश में दिहाड़ी मजदूर या उससे भी गलीज हालत में हैं. उन्हें कोई ‘राष्ट्रभक्त’ पूछता नहीं. ‘राष्ट्रभक्त’ सरकार को देशभक्त जासूस की कोई चिंता नहीं. अब संकेत में नहीं, सीधी बात पर आते हैं. लखनऊ में एक शख्स मिले जो भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड अनालिसिस विंग’ (‘रॉ’) के जासूस थे. उन्होंने अपने बेशकीमती 21 वर्ष पाकिस्तान के अलग-अलग इलाकों में सड़कों पर खोमचा घसीटते हुए, मुल्ला बन कर मस्जिद में नमाज पढ़ाते हुए, संवेदनशील सरकारी महकमों पर महीनों नजरें रखते हुए, पाकिस्तानी सेना द्वारा पोषित आतंकियों से दोस्ती गांठते हुए, जान की परवाह न कर वहां की सूचनाएं भारत भेजते हुए और आखिर में बर्बर यातनाओं के साथ जेल काटते हुए बिताए. बड़ी मुश्किल से पाकिस्तान की जेल से छूट कर भारत पहुंचे ‘रॉ’ एजेंट मनोज रंजन दीक्षित का जीवन अपने देश आकर और दुश्वार हो गया. उनकी पत्नी शोभा दीक्षित को कैंसर हो गया. कीमोथिरेपी और दुष्कर इलाज के क्रम में शोभा मां नहीं बन सकीं. वे मानसिक तौर पर विक्षिप्त हो गईं. रात-रात को उस छोटे से कमरे से आने वाली चीखें और सिसकियां उन्हीं की हैं. दर्द से छटपटाने की आवाजें उन्हीं की हैं. विक्षिप्तता में होने वाली हरकतें और पति को नोचने-खसोटने-मारने की आवाजें शोभा की ही हैं. पत्नी को बच्चे की तरह मनाने की कातर कोशिश करने वाले वही शख्स हैं... ‘रॉ’ एजेंट मनोज रंजन दीक्षित उर्फ मोहम्मद इमरान.
दीक्षित की तरह ऐसे अनगिनत देशभक्त हैं, जिनका जीवन देश के लिए जासूसी करते हुए और जान को जोखिम में डालते हुए बीत गया. जब वे अपने वतन वापस लौटे तो अपना ही देश उन्हें भूल चुका था. सरकार को भी यह याद नहीं रहा कि भारत सरकार का प्रतिनिधि होने के नाते ही वह पाकिस्तान में प्रताड़नाएं झेल रहा था. कुलभूषण जाधव तो सुर्खियों में इसलिए हैं कि उनसे सरकार का राजनीतिक-स्वार्थ सध रहा है. यह सियासत क्या कुलभूषण के जिंदा रहने की गारंटी है? अगर गारंटी होती तो रवींद्र कौशिक, सरबजीत सिंह जैसे तमाम देशभक्त पाकिस्तान की जेलों में क्या सड़ कर मरते? फिर सरकार का उनसे क्या लेना-देना, जो देशभक्ति में खप चुके, पर आज भी जिंदा हैं! ऐसे खपे हुए देशभक्तों की लंबी फेहरिस्त है, जो अपनी बची हुई जिंदगी घसीट रहे हैं. इन्होंने देश की सेवा में खुद को मिटा दिया, पर सरकार ने उन्हें न नाम दिया न इनाम. पूर्व ‘रॉ’ एजेंट मनोज रंजन दीक्षित का प्रकरण सुनकर केंद्रीय खुफिया एजेंसी के एक आला अधिकारी ने कहा कि मोदी सरकार बदलाव की बातें तो करती है, लेकिन विदेशों में काम कर रहे ‘रॉ’ एजेंट्स को स्थायी गुमनामी के अंधेरे सुरंग में धकेल देती है. विदेशों में हर पल जान जोखिम में डाले काम कर रहे अपने ही जासूसों की हिफाजत और देश में रह रहे उनके परिवार के लिए आर्थिक संरक्षण का सरकार कोई उपाय नहीं करती. जबकि देश के अंदर काम करने वाले खुफिया अधिकारियों की बाकायदा सरकारी नौकरी होती है. वेतन और पेंशन उन्हें और उनके परिवार वालों को ठोस आर्थिक संरक्षण देता है. इसके ठीक विपरीत ‘रॉ’ के लिए जो एजेंट्स चुने जाते हैं, सरकार उनकी मूल पहचान ही मिटा देती है. उनका मूल शिक्षा प्रमाणपत्र रख लेती है और किसी भी सरकारी या कानूनी दस्तावेज से उसका नाम हटा देती है. मनोज रंजन दीक्षित इसकी पुष्टि करते हैं. दीक्षित कहते हैं कि नजीबाबाद स्थित एमडीएस इंटर कॉलेज से उन्होंने स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी और रुहेलखंड विश्वविद्यालय के साहू-जैन कॉलेज से उन्होंने ग्रैजुएशन किया था. ‘रॉ’ के लिए चुने जाने के बाद उनसे स्कूल और कॉलेज के मूल प्रमाणपत्र ले लिए गए. जब वे 21 साल बाद अपने घर लौटे तो उनकी पूरी दुनिया बदल चुकी थी. उन्हें बताया गया कि सरकारी मुलाजिमों का एक दस्ता वर्षों पहले उनके घर से उनकी सारी तस्वीरें ले जा चुका था. राशनकार्ड से मनोज का नाम हट चुका था. सरकारी दस्तावेजों से मनोज का नाम ‘डिलीट’ किया जा चुका था. भारत सरकार ऐसी घिसी-पिटी लीक पर क्यों चलती है? भारतीय खुफिया एजेंसी के अधिकारी ही यह सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि अमेरिका, चीन, इजराइल, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे कई देश अपने जासूसों की हद से आगे बढ़ कर हिफाजत करते हैं और उनके परिवारों का ख्याल रखते हैं. यहां तक कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई तक अपने एजेंटों को सुरक्षा कवच और आर्थिक संरक्षण देती है, लेकिन भारत सरकार इस पर ध्यान नहीं देती, क्योंकि सत्ता-सियासतदानों को इसमें वोट का फायदा नहीं दिखता.
वर्ष 1984 में ‘रॉ’ के टैलेंट हंट के जरिए चुने गए मनोज रंजन दीक्षित की अकेली आपबीती देश के युवकों को यह संदेश देने के लिए काफी है कि वे ‘रॉ’ जैसी खुफिया एजेंसी के लिए कभी काम नहीं करें. मेजर रवींद्र कौशिक से लेकर ऐसे तमाम ‘रॉ’ एजेंटों की बेमानी गुमनाम-शहादतों के उदाहरण भरे पड़े हैं. खुफिया एजेंसियों के अफसर ही यह कहते हैं कि पाकिस्तान या अन्य देशों में तैनात ‘रॉ’ एजेंट के प्रति आंखें मूंदने वाली सरकार भारत में रह रहे उनके परिवार वालों को लावारिस क्यों छोड़ देती है, यह बात समझ में नहीं आती. ऐसे में देश का कोई युवक ‘रॉ’ जैसी खुफिया एजेंसी के लिए काम करने के बारे में क्यों सोचे? मनोज रंजन दीक्षित को ‘रॉ’ के टैलेंट फाइंडर जीतेंद्रनाथ सिंह परिहार ने चुना था. एक साल की ट्रेनिंग के बाद दीक्षित को जनवरी 1985 में भारत-पाकिस्तान सीमा पर मोहनपुर पोस्ट से ‘लॉन्च’ किया गया. दीक्षित के साथ एक गाइड भी था जो उन्हें पाकिस्तान के पल्लो गांव होते हुए बम्बावली-रावी-बेदियान नहर पार करा कर लाहौर ले गया और उन्हें वहां छोड़ कर चला गया. उसके बाद से दीक्षित का जासूसी करने का सारा रोमांच त्रासद-कथा में तब्दील होता चला गया. 23 जनवरी 1992 को सिंध प्रांत के हैदराबाद शहर से गिरफ्तार किए जाने तक दीक्षित ने जासूसी के तमाम पापड़ बेले, खोमचे घसीटे, लाहौर, कराची, मुल्तान, हैदराबाद, पेशावर जैसे तमाम शहरों में आला सैन्य अफसरों से लेकर बड़े नेताओं की जासूसी की और दुबई, कुवैत, कतर, हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर जैसी जगहों पर बैठे ‘रॉ’ अफसरों के जरिए भारत तक सूचना पहुंचाई. ‘रॉ’ ने हैदराबाद के आमिर आलम के जरिए दीक्षित को अफगानिस्तान भी भेजा जहां जलालाबाद और कुनर में उन्हें अहले हदीस के चीफ शेख जमीलुर रहमान के साथ अटैच किया गया. वहां के सम्पर्कों के जरिए दीक्षित पेशावर में डेरा जमाए अरब मुजाहिदीन के सेंटर बैतुल अंसार पहुंच गए और जेहादी के रूप में ग्रुप में शामिल हो गए. दीक्षित बताते हैं कि बैतुल अंसार पर ओसामा बिन लादेन और शेख अब्दुर्रहमान जैसे आतंकी सरगना पहुंचते थे और सेंटर को काफी धन देते थे. 23 जनवरी 1992 को दीक्षित को सिंध प्रांत के हैदराबाद से गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के बाद दीक्षित की यंत्रणा-यात्रा शुरू हुई. पहले उन्हें हैदराबाद में आईएसआई के लॉकअप में रखा गया फिर उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस की 302वीं बटालियन में शिफ्ट कर दिया गया. हैदराबाद से उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस की दूसरी कोर के कराची स्थित मुख्यालय भेजा गया. पूछताछ के दौरान दीक्षित को बर्बर यातनाएं दी जाती रहीं. पिटाई के अलावा उन्हें सीधा बांध कर नौ-नौ घंटे खड़ा रखा जाता था और कई-कई रात सोने नहीं दिया जाता था. करीब एक साल तक उन्हें इसी तरह अलग-अलग फौजी ठिकानों पर टॉर्चर किया जाता रहा और पूछताछ होती रही. इस दरम्यान दीक्षित के हबीब बैंक के हैदराबाद और मुल्तान ब्रांच के अकाउंट भी जब्त कर लिए गए और उसमें जमा होने वाले धन के स्रोतों की गहराई से छानबीन की गई. 21 दिसम्बर को उन्हें कराची जेल शिफ्ट कर दिया गया. पांच महीने बाद जून 1993 से दीक्षित पर पाकिस्तानी सेना की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ और उन्हें कराची जेल से 85वीं एसएंडटी कोर (सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट कोर) को हैंड-ओवर कर दिया गया. इस दरम्यान दीक्षित को पाक सेना की 44वीं फ्रंटियर फोर्स (एफएफ) के क्वार्टर-गार्ड में बंद रखा गया. वर्ष 1994 में दीक्षित 21वीं आर्मर्ड ब्रिगेड के हवाले हुए और उन्हें 51-लांसर्स के क्वार्टर-गार्ड में शिफ्ट किया गया. इस बीच मेजर नसीम खान, मेजर सलीम खान, लेफ्टिनेंट कर्नल हमीदुल्ला खान और ब्रिगेडियर रुस्तम दारा की फौजी अदालतों में मुकदमा (कोर्ट मार्शल) चलता रहा. दीक्षित कहते हैं कि कोई कबूलदारी और सबूत न होने के कारण पाकिस्तान सेना ने उन्हें सिंध सरकार के सिविल प्रशासन के हवाले कर दिया. सिंध सरकार ने वर्ष 2001 में ही दीक्षित को भारत वापस भेजने (रिपैट्रिएट करने) का आदेश दे दिया था, लेकिन वह चार साल तक कानूनी चक्करों में फंसता-निकलता आखिरकार मार्च 2005 में तामील हो पाया. मनोज रंजन दीक्षित को 22 मार्च 2005 को बाघा बॉर्डर पर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के सुपुर्द कर दिया गया. ‘रॉ’ के मिशन पर पाकिस्तान में 21 वर्ष बिताने वाले मनोज रंजन दीक्षित 13 साल से अधिक समय तक जेल में बंद रहे. भारत लौटने पर भारत सरकार के एक नुमाइंदे ने उन्हें दो किश्तों में एक लाख 36 हजार रुपए दिए और उसके बाद फाइल क्लोज कर दी. पाकिस्तान की जेल से निकल कर दीक्षित भारत के अधर में फंस गए. जीने के लिए उन्हें ईंट भट्टे पर मजदूरी करनी पड़ी. फिलहाल वे लखनऊ की एक कंसट्रक्शन कंपनी में मामूली मुलाजिम हैं. पत्नी कैंसर से पीड़ित हैं. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में कीमोथिरैपी और ऑपरेशन के बाद भी इलाज का क्रम जारी ही है. लखनऊ के ही नूर मंजिल मानसिक रोग चिकित्सालय में उनकी मानसिक विक्षिप्तता का इलाज चल रहा है. अल्पवेतन में बीमार पत्नी के साथ जिंदगी की गाड़ी खींचना दीक्षित को मुश्किलों भरा तो लगता है, लेकिन वे कहते हैं, ‘पाकिस्तान की यंत्रणाएं झेल लीं तो अपने देश की त्रासदी भी झेल ही लेंगे’. दीक्षित कभी प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हैं तो कभी मुख्यमंत्री को. सारे पत्र वे अपने साथ संजो कर रखते हैं और उन्हें दिखा कर कहते हैं, ‘जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से हम सब मर-मर के जीते हैं, वो सुबह कभी तो आएगी..!’

‘रॉ’ एजेंट्स की लंबी जमातः पाकिस्तान में हुए कुर्बान, भारत ने मिटा दी पहचान
‘रॉ’ के लिए जासूसी करने के आरोप में पकड़े गए नौसेना कमांडर कुलभूषण जाधव का पहला मामला है जब केंद्र सरकार ने उनकी रिहाई के लिए पुरजोर तरीके से आवाज उठाई और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक गुहार लगाई. लेकिन इसके पहले मेजर रवींद्र कौशिक से लेकर सरबजीत सिंह और सरबजीत से लेकर तमाम नाम, अनाम और गुमनाम जासूसों की हिफाजत के लिए भारत सरकार ने आज तक कोई कदम नहीं उठाया. कुलभूषण जाधव का मसला ही अलग है. उन्हें तो तालिबानों ने ईरान सीमा से अगवा किया और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथों बेच डाला. जर्मन राजनयिक गुंटर मुलैक अंतरराष्ट्रीय फोरम पर इसे उजागर कर चुके हैं. पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में बंद सरबजीत की रिहाई के मसले में भी सामाजिक-राजनीतिक शोर तो खूब मचा लेकिन भारत सरकार ने कोई कारगर दबाव नहीं बनाया. आखिरकार, दूसरे पाकिस्तानी कैदियों को उकसा कर कोट लखपत जेल में ही सरबजीत सिंह की हत्या करा दी गई.
पाकिस्तान में मिशन पूरा कर या जेल की सजा काट कर वापस लौटे कई ‘रॉ’ एजेंटों ने केंद्र सरकार से औपचारिक तौर पर आर्थिक संरक्षण देने की गुहार लगाई है, लेकिन उस पर कोई सुनवाई नहीं की गई. यहां तक कि भारत सरकार ने उन्हें सरकारी कर्मचारी मानने से ही इन्कार कर दिया. सरकार ने अपने पूर्व ‘रॉ’ एजेंटों को पहचाना ही नहीं. ऐसे ही ‘रॉ’ एजेंटों में गुरदासपुर के खैरा कलां गांव के रहने वाले करामत राही शामिल हैं, जिन्हें वर्ष 1980 में पाकिस्तान ‘लॉन्च’ किया गया था. पहली बार वे अपना मिशन पूरा कर वापस लौट आए, लेकिन ‘रॉ’ ने उन्हें 1983 में फिर पाकिस्तान भेज दिया. इस बार 1988 में वे मीनार ए पाकिस्तान के नजदीक गिरफ्तार कर लिए गए. करामत 18 साल जेल काटने के बाद वर्ष 2005 में वापस लौट पाए. करामत की रिहाई भी पंजाब के उस समय भी मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह के हस्तक्षेप और अथक प्रयास से संभव हो पाई. देश वापस लौटने के बाद करामत ने ‘रॉ’ मुख्यालय से सम्पर्क साधा, लेकिन ‘रॉ’ मुख्यालय के आला अफसरों ने धमकी देकर करामत को खामोश कर दिया. भारत सरकार की इस आपराधिक अनदेखी के खिलाफ करामत ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली, लेकिन अदालत भी कहां ‘नीचा’ सुनती है!
इन मामलों में सम्बन्धित राज्य सरकारें भी ‘रॉ’ एजेंटों के प्रति आपराधिक उपेक्षा का ही भाव रखती हैं. ‘रॉ’ एजेंट कश्मीर सिंह का मामला अपवाद की तरह सामने आया जब 35 साल पाकिस्तानी जेल की सजा काट कर लौटने के बाद पंजाब सरकार ने उन्हें जमीन दी और मुआवजा दिया. वर्ष 1962 से लेकर 1966 तक कश्मीर सिंह सेना की नौकरी में थे. उसके बाद ‘रॉ’ ने उन्हें अपने काम के लिए चुना और पाकिस्तान ‘लॉन्च’ कर दिया. 1973 में वे पाकिस्तान में गिरफ्तार कर लिए गए. उन्हें पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में घुमाया जाता रहा और प्रताड़ित किया जाता रहा. 17 साल तक उन्हें एक एकांत सेल में बंद रखा गया. चार मार्च 2008 को वे रिहा होकर भारत आए, लेकिन इस लंबे अंतराल में कश्मीर सिंह जिंदगी से नहीं, पर उम्र से शहीद हो चुके थे.
गुरदास के डडवाईँ गांव के रहने वाले सुनील मसीह दो फरवरी 1999 को पाकिस्तान के शकरगढ़ में गिरफ्तार किए गए थे. आठ साल के भीषण अत्याचार के बाद वर्ष 2006 में वे अत्यंत गंभीर हालत में भारत वापस लौटे, लेकिन केंद्र सरकार ने उनके बारे में कोई ख्याल नहीं किया. उन्हीं के गांव डडवाईं के डैनियल उर्फ बहादुर भी पाकिस्तानी रेंजरों द्वारा 1993 में गिरफ्तार किए गए थे. चार साल की सजा काट कर वापस लौटे. अब पूर्व ‘रॉ’ एजेंट डैनियल रिक्शा चला कर अपना गुजारा करते हैं. पाकिस्तान की जेल में तकरीबन तीन दशक काटने के बाद छूट कर भारत आने वाले पूर्व ‘रॉ’ एजेंटों में सुरजीत सिंह का नाम भी शामिल है. ‘रॉ’ ने सुरजीत सिंह को वर्ष 1981 में पाकिस्तान ‘लॉन्च’ किया था. वे 1985 में गिरफ्तार किए गए और पाकिस्तान के खिलाफ जासूसी करने के आरोप में उन्हें फांसी की सजा दी गई. 1989 में उनकी सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई. वर्ष 2012 में पाकिस्तान की कोट लखपत जेल से सजा काटने के बाद सुरजीत रिहा हुए. सुरजीत ने भी ‘रॉ’ के अधिकारियों से सम्पर्क साधा लेकिन नाकाम रहे. सुरजीत अपनी पत्नी को यह बोल कर पाकिस्तान गए थे कि वे जल्दी लौटेंगे लेकिन 1981 के गए हुए 2012 में वापस लौटे. जब लौटे तब वे 70 साल के हो चुके थे. भारत सरकार ने उनके वजूद को इन्कार कर दिया, जबकि वापस लौटने पर सुरजीत ने पूछा कि भारत सरकार ने उन्हें पाकिस्तान नहीं भेजा तो वे अपनी मर्जी से पाकिस्तान कैसे और क्यों चले गए? सुरजीत मिशन के दरम्यान 85 बार पाकिस्तान गए और आए. पाकिस्तान में गिरफ्तार हो जाने के बाद भारतीय सेना की तरफ से उनके परिवार को हर महीने डेढ़ सौ रुपए दिए जाते थे. सुरजीत पूछते हैं कि अगर वे लावारिस ही थे तो सेना उनके घर पैसे क्यों भेज रही थी? सुरजीत ने भी न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट में शरण ले रखी है.
गुरदासपुर जिले के डडवाईं गांव के ही रहने वाले सतपाल को वर्ष 1999 में पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था. तब भारत पाकिस्तान के बीच करगिल युद्ध चल रहा था. पाकिस्तान में सतपाल को भीषण यातनाएं दी गईं. पाकिस्तान की जेल में ही वर्ष 2000 में उनकी मौत हो गई. विडंबना यह है कि पाकिस्तान सरकार ने सतपाल का पार्थिव शरीर भारत को सौंपने की पेशकश की तो भारत सरकार ने शव लेने तक से मना कर दिया. सतपाल का शव लाहौर अस्पताल के शवगृह में पड़ा रहा. पंजाब में स्थानीय स्तर पर काफी बावेला मचने के बाद सतपाल का शव मंगवाया जा सका. शव पर प्रताड़ना के गहरे घाव और चोट के निशान मौजूद थे. तब भी भारत सरकार को उनकी शहादत की कीमत समझ में नहीं आई. सतपाल के बेटे सुरेंदर पाल आज भी अपने पिता के लिए न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं. पंजाब सरकार ने सतपाल के बेटे सुरेंदर पाल को सरकारी नौकरी का आश्वासन भी दिया, लेकिन यह आश्वासन भी ढाक के तीन पात ही साबित हुआ.
विनोद साहनी को 1977 में पाकिस्तान भेजा गया था, लेकिन वे जल्दी ही पाकिस्तानी तंत्र के हाथों दबोच लिए गए. उन्हें 11 साल की सजा मिली. सजा काटने के बाद विनोद 1988 में वापस लौटे. ‘रॉ’ ने विनोद को सरकारी नौकरी देने और उनके परिवार को सुरक्षा प्रदान करने का आश्वासन दिया था, लेकिन लौटने के बाद ‘रॉ’ ने उन्हें पहचानने से भी इन्कार कर दिया. विनोद अब जम्मू में ‘पूर्व जासूस’ नामकी एक संस्था चलाते हैं और तमाम पूर्व जासूसों को जोड़ने का जतन करते रहते हैं.
रामराज ने 18 साल तक भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’  की सेवा की. 18 सितम्बर 2004 को उन्हें पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया. करीब आठ साल जेल काटने के बाद रिहा हुए रामराज को भारत आने पर उसी खुफिया एजेंसी ने पहचानने से इन्कार कर दिया. ऐसा ही हाल गुरबक्श राम का भी हुआ. एक साल की ट्रेनिंग देकर उन्हें वर्ष 1988 को पाकिस्तान भेजा गया था. उनका मिशन पाकिस्तान की सैन्य युनिट के आयुध भंडार की जानकारियां हासिल करना था. मिशन पूरा कर वापस लौट रहे गुरबक्श को पाकिस्तानी सेना के गोपनीय दस्तावेजों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें सियालकोट की गोरा जेल में रखा गया. 14 साल की सजा काट कर वर्ष 2006 में वापस अपने देश लौटे गुरबक्श को अब सरकार नहीं पहचानती. रामप्रकाश को प्रोफेशनल फोटोग्राफर के रूप में ‘रॉ’ ने वर्ष 1994 में पाकिस्तान में ‘प्लांट’ किया था. 13 जून 1997 को भारत वापस आते समय रामप्रकाश को गिरफ्तार कर लिया गया. सियालकोट की जेल में नजरबंद रख कर उनसे एक साल तक पूछताछ की जाती रही. वर्ष 1998 में उन्हें 10 साल की सजा सुनाई गई. सजा काटने के बाद सात जुलाई 2008 को उन्हें भारत भेज दिया गया. सूरम सिंह तो 1974 में सीमा पार करते समय ही धर लिए गए थे. उनसे भी सियालकोट की गोरा जेल में चार महीने तक पूछताछ होती रही और 13 साल सात महीने पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में प्रताड़ित होने के बाद आखिरकार वे 1988 में रिहा होकर भारत आए. बलबीर सिंह को 1971 में पकिस्तान भेजा गया था. 1974 में बलबीर गिरफ्तार कर लिए गए और 12 साल की जेल की सजा काटने के बाद 1986 में भारत वापस लौटे. भारत आने के बाद उन्हें जब ‘रॉ’ से कोई मदद नहीं मिली तो उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया. दिल्ली हाईकोर्ट ने मुआवजा देने का आदेश दिया, लेकिन ‘रॉ’ ने हाईकोर्ट के आदेश पर भी कोई कार्रवाई नहीं की.
‘रॉ’ एजेंट देवुत को पाकिस्तान की जेल में इतना प्रताड़ित किया गया कि वे लकवाग्रस्त हो गए. देवुत को 1990 में पाकिस्तान भेजा गया था. जेल की सजा काटने के बाद वे 23 दिसम्बर 2006 को लकवाग्रस्त हालत में रिहा हुए. लकवाग्रस्त केंद्र सरकार ने भी उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया और उनकी पत्नी वीणा न्याय के लिए दरवाजे-दरवाजे सिर टकरा रही हैं और मत्था टेक रही हैं. ‘रॉ’ ने तिलकराज को भी पाकिस्तान ‘लॉन्च’ किया था, लेकिन उसका कोई पता ही नहीं चला. ‘रॉ’ ने भी पाकिस्तान में गुम हुए तिलकराज को खोजने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. तिलकराज के वयोवृद्ध पिता रामचंद्र आज भी अपने बेटे के वापस लौटने का इंतजार कर रहे हैं. ‘रॉ’ ने इसी तरह ओमप्रकाश को भी वर्ष 1988 में पाकिस्तान भेजा, लेकिन ओमप्रकाश का फिर कुछ पता नहीं चला. कुछ दस्तावेजों और कुछ कैदियों की खतो-किताबत से ओमप्रकाश के घर वालों को उनके पाकिस्तान की जेल में होने का सुराग मिला. इसे ‘रॉ’  को दिया भी गया, लेकिन ‘रॉ’ ने कोई रुचि नहीं ली. बाद में ओमप्रकाश ने अपने परिवार वालों को चिट्ठी भी लिखी. 14 जुलाई 2012 को लिखे गए ओमप्रकाश के पत्र के बारे में ‘रॉ’ को भी जानकारी दी गई, लेकिन सरकार ने इस मामले में कुछ नहीं किया. ‘रॉ’ एजेंट सुनील भी पाकिस्तान से अपने घर वालों को चिट्ठियां लिख रहे हैं, लेकिन उनकी कोई नहीं सुन रहा.

केंद्र की बेजा नीतियों और ‘रॉ’ की साजिश से मारे गए कौशिक
पाकिस्तानी की सेना में मेजर के ओहदे तक पहुंच गए मेजर नबी अहमद शाकिर उर्फ रवींद्र कौशिक भारत सरकार की बेजा नीतियों और खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ की साजिश के कारण मारे गए. ‘रॉ’ के अधिकारियों ने सोचे-संमझे इरादे से इनायत मसीह नामके ऐसे ‘बेवकूफ’ एजेंट को पाकिस्तान भेजा जिसने वहां जाते ही रवींद्र कौशिक का भंडाफोड़ कर दिया. कर्नल रैंक पर तरक्की पाने जा रहे रवींद्र कौशिक उर्फ मेजर नबी अहमद शाकिर गिरफ्तार कर लिए गए. ‘रॉ’ के सूत्र कहते हैं कि पाकिस्तानी सेना में रवींद्र कौशिक को मिल रही तरक्की और भारत में मिल रही प्रशंसा (उन्हें ब्लैक टाइगर के खिताब से नवाजा गया था) से जले-भुने ‘रॉ’ अधिकारियों ने षडयंत्र करके कौशिक की हत्या करा दी. कौशिक को पाकिस्तान में भीषण यंत्रणाएं दी गईं. पाकिस्तान की जेल में ही उनकी बेहद दर्दनाक मौत हो गई. भारत सरकार ने कौशिक के परिवार को यह पुरस्कार दिया कि रवींद्र से जुड़े सभी रिकॉर्ड नष्ट कर दिए और चेतावनी दी कि रवींद्र के मामले में चुप्पी रखी जाए. रवींद्र ने जेल से अपने परिवार को कई चिट्ठियां लिखी थीं. उन चिट्ठियों में उन पर ढाए जा रहे अत्याचारों का दुखद विवरण होता था. रवींद्र ने अपने विवश पिता से पूछा था कि क्या भारत जैसे देश में कुर्बानी देने वालों को यही सिला मिलता है? राजस्थान के रहने वाले रवींद्र कौशिक लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र थे, जब ‘रॉ’ के तत्कालीन निदेशक ने खुद उन्हें चुना था. 1965 और 1971 के युद्ध में मार खाए पाकिस्तान के अगले षडयंत्र का पता लगाने के लिए ‘रॉ’ ने कौशिक को पाकिस्तान भेजा. कौशिक ने पाकिस्तान में पढ़ाई की. सेना का अफसर बना और तरक्की के पायदान चढ़ता गया. कौशिक की सूचनाएं भारतीय सुरक्षा बलों के लिए बेहद उपयोगी साबित होती रहीं और पाकिस्तान के सारे षडयंत्र नाकाम होते रहे. पहलगाम में भारतीय जवानों द्वारा 50 से अधिक पाक सैनिकों का मारा जाना रवींद्र की सूचना के कारण ही संभव हो पाया. कौशिक की सेवाओं को सम्मान देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें ‘ब्लैक टाइगर’ की उपाधि दी थी. लेकिन ऐसे सपूत को ‘रॉ’ ने ही साजिश करके पकड़वा दिया और अंततः उनकी दुखद मौत हो गई.

भीषण अराजकता और बदइंतजामी का शिकार है ‘रॉ’
केंद्रीय खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड अनालिसिस विंग’ (रॉ) में भीषण अराजकता व्याप्त है. ‘रॉ’ की जिम्मेदारियां (अकाउंटिबिलिटी) कानूनी प्रक्रिया के तहत तय नहीं हैं. एकमात्र प्रधानमंत्री के प्रति उत्तरदायी होने के कारण ‘रॉ’ के अधिकारी इस विशेषाधिकार का बेजा इस्तेमाल करते हैं और विदेशी एजेंसियों से मनमाने तरीके से सम्पर्क साध कर फायदा उठाते रहते हैं. ‘रॉ’ के अधिकारियों कर्मचारियों के काम-काज के तौर तरीकों और धन खर्च करने पर अलग से कोई निगरानी नहीं रहती, न उसकी कोई ऑडिट ही होती है. ‘रॉ’ के अधिकारियों की बार-बार होने वाली विदेश यात्राओं का भी कोई हिसाब नहीं लिया जाता. कौन ले इसका हिसाब? प्रधानमंत्री या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार छोड़ कर कोई अन्य अधिकारी ‘रॉ’ से कुछ पूछने या जलाब-तलब करने की हिमाकत नहीं कर सकता. ‘रॉ’ के अधिकारी अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड और यूरोपीय देशों में बेतहाशा आते-जाते रहते हैं. लेकिन दक्षिण एशिया, मध्य-पूर्व और अफ्रीकी देशों में उनकी आमद-रफ्त काफी कम होती है. जबकि इन देशों में ‘रॉ’ के अधिकारियों का काम ज्यादा है. ‘रॉ’ के अधिकारी युवकों को फंसा कर पाकिस्तान जैसे देशों में भेजते हैं और उन्हें मरने के लिए लावारिस छोड़ देते हैं. प्रधानमंत्री भी ‘रॉ’ से यह नहीं पूछते कि अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे आलीशान देशों में ‘रॉ’ अधिकारियों की पोस्टिंग अधिक क्यों की जाती है और पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका या अन्य दक्षिण एशियाई देशों या मध्य पूर्व के देशों में जरूरत से भी कम तैनाती क्यों है? इन देशों में ‘रॉ’ का कोई अधिकारी जाना नहीं चाहता. लेकिन इस अराजकता के बारे में कोई पूछताछ नहीं होती. ‘रॉ’ में सामान्य स्तर के कर्मचारियों की होने वाली नियुक्तियों की कोई पारदर्शी प्रक्रिया नहीं है. कोई निगरानी नहीं है. ‘रॉ’ के कर्मचारियों का सर्वेक्षण करें तो अधिकारियों के नाते-रिश्तेदारों की वहां भीड़ जमा है. सब अधिकारी अपने-अपने रिश्तेदारों के संरक्षण में लगे रहते हैं. तबादलों और तैनातियों पर अफसरों के हित हावी हैं. यही वजह है कि जिस खुफिया एजेंसी को सबसे अधिक पेशेवर (प्रोफेशनल) होना चाहिए था, वह सबसे अधिक लचर साबित हो रही है.
‘रॉ’ में सीआईए वह कुछ अन्य विदेशी खुफिया एजेंसियों की घुसपैठ भी गंभीर चिंता का विषय है. ‘रॉ’ के डायरेक्टर तक सीआईए के लिए जासूसी करने के आरोप में जेल की हवा खा चुके हैं. इसी तरह एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जिसे आईबी का निदेशक बनाया जा रहा था, उसके बारे में पता चला कि वह दिल्ली में तैनात महिला सीआईए अधिकारी हेदी अगस्ट के लिए काम कर रहा था. तब उसे नौकरी से जबरन रिटायर किया गया. भेद खुला कि सीआईए ही उस आईपीएस अधिकारी को आईबी का निदेशक बनाने के लिए परोक्ष रूप से लॉबिंग कर रही थी. ‘रॉ’ में गद्दारों की लंबी कतार लगी है. ‘रॉ’ के दक्षिण-पूर्वी एशिया मसलों के प्रभारी व संयुक्त सचिव स्तर के आला अफसर मेजर रविंदर सिंह का सीआईए के लिए काम करना और सीआईए की साजिश से फरार हो जाना भारत सरकार को पहले ही काफी शर्मिंदा कर चुका है. रविंदर सिंह जिस समय ‘रॉ’ के कवर में सीआईए के लिए क्रॉस-एजेंट के बतौर काम कर रहा था, उस समय भी केंद्र में भाजपा की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. वर्ष 2004 में केंद्र में कांग्रेस की सरकार आने के बाद रविंदर सिंह भारत छोड़ कर भाग गया. अराजकता का चरम यह है कि उसकी फरारी के दो साल बाद नवम्बर 2006 में ‘रॉ’ ने एफआईआर दर्ज करने की जहमत उठाई. मेजर रविंदर सिंह की फरारी का रहस्य ढूंढ़ने में ‘रॉ’ को आधिकारिक तौर पर आजतक कोई सुराग नहीं मिल पाया. जबकि ‘रॉ’ के ही अफसर अमर भूषण ने बाद में यह रहस्य खोला कि मेजर रविंदर सिंह और उसकी पत्नी परमिंदर कौर सात मई 2004 को राजपाल प्रसाद शर्मा और दीपा कुमारी शर्मा के छद्म नामों से फरार हो गए थे. उनकी फरारी के लिए सीआईए ने सात अप्रैल 2004 को इन छद्म नामों से अमेरिकी पासपोर्ट जारी कराया था. इसमें रविंदर सिंह को राजपाल शर्मा के नाम से दिए गए अमेरिकी पासपोर्ट का नंबर 017384251 था. सीआईए की मदद से दोनों पहले नेपालगंज गए और वहां से काठमांडू पहुंचे. काठमांडू में अमेरिकी दूतावास में तैनात फर्स्ट सेक्रेटरी डेविड वास्ला ने उन्हें बाकायदा रिसीव किया. काठमांडू के त्रिभुवन हवाई अड्डे से दोनों ने ऑस्ट्रेलियन एयरलाइंस की फ्लाइट (5032) पकड़ी और वाशिंगटन पहुंचे, जहां डल्स इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर सीआईए एजेंट पैट्रिक बर्न्स ने दोनों की अगवानी की उन्हें मैरीलैंड पहुंचाया. मैरीलैंड के एकांत आवास में रहते हुए ही फर्जी नामों से उन्हें अमेरिका के नागरिक होने के दस्तावेज दिए गए, उसके बाद से वे गायब हैं. पीएमओ ने रविंदर सिंह के बारे में पता लगाने के लिए ‘रॉ’ से बार-बार कहा लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला, जबकि ‘रॉ’ प्रधानमंत्री के तहत ही आता है. इस मसले में ‘रॉ’ ने कई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के निर्देशों को भी ठेंगे पर रखा. रविंदर सिंह प्रकरण खुलने पर ‘रॉ’ के कई अन्य अधिकारियों की भी पोल खुल जाएगी, इस वजह से ‘रॉ’ ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया.
विदेशी एजेंसियों के लिए क्रॉस एजेंसी करने और अपने देश से गद्दारी करने वाले ऐसे कई ‘रॉ’ अधिकारी हैं, जो पकड़े जाने के डर से या प्रलोभन से देश छोड़ कर भाग गए. मेजर रविंदर सिंह जैसे गद्दार अकेले नहीं हैं. ‘रॉ’ के संस्थापक रहे रामनाथ काव का खास सिकंदर लाल मलिक जब अमेरिका में तैनात था तो वहीं से लापता हो गया. सिकंदर लाल मलिक का आज तक पता नहीं चला. मलिक को ‘रॉ’ के कई खुफिया प्लान की जानकारी थी. बांग्लादेश को मुक्त कराने की रणनीति की फाइल सिकंदर लाल मलिक के पास ही थी, जिसे उसने अमेरिका को लीक कर दिया था. मलिक की उस कार्रवाई को विदेश मामलों के विशेषज्ञ एक तरह की तख्ता पलट की कोशिश बताते हैं, जिसे इंदिरा गांधी ने अपनी बुद्धिमानी और कूटनीतिक सझ-बूझ से काबू कर लिया.
मंगोलिया के उलान बटोर और फिर इरान के खुर्रमशहर में तैनात रहे ‘रॉ’ अधिकारी अशोक साठे ने तो अपने देश के साथ निकृष्टता की इंतिहा ही कर दी. साठे ने खुर्रमशहर स्थित ‘रॉ’ के दफ्तर को ही फूंक डाला और सारे महत्वपूर्ण और संवेदनशील दस्तावेज आग के हवाले कर अमेरिका भाग गया. विदेश मंत्रालय को जानकारी है कि साठे कैलिफोर्निया में रहता है, लेकिन ‘रॉ’ उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया. ‘रॉ’ के सीनियर फील्ड अफसर एमएस सहगल का नाम भी ‘रॉ’ के भगेड़ुओं में अव्वल है. लंदन में तैनाती के समय ही सहगल वहां से फरार हो गया. टोकियो में भारतीय दूतावास में तैनात ‘रॉ’ अफसर एनवाई भास्कर सीआईए के लिए क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. वहीं से वह फरार हो गया. काठमांडू में सीनियर फील्ड अफसर के रूप में तैनात ‘रॉ’ अधिकारी बीआर बच्चर को एक खास ऑपरेशन के सिलसिले में लंदन भेजा गया, लेकिन वह वहीं से लापता हो गया. बच्चर भी क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. ‘रॉ’ मुख्यालय में पाकिस्तान डेस्क पर अंडर सेक्रेटरी के रूप में तैनात मेजर आरएस सोनी भी मेजर रविंदर सिंह की तरह पहले सेना में था, बाद में ‘रॉ’ में आ गया. मेजर सोनी कनाडा भाग गया. ‘रॉ’ में व्याप्त अराजकता का हाल यह है कि मेजर सोनी की फरारी के बाद भी कई महीनों तक लगातार उसके अकाउंट में उसका वेतन जाता रहा. इस्लामाबाद, बैंगकॉक, कनाडा में ‘रॉ’ के लिए तैनात आईपीएस अधिकारी शमशेर सिंह भी भाग कर कनाडा चला गया. इसी तरह ‘रॉ’ अफसर आर वाधवा भी लंदन से फरार हो गया. केवी उन्नीकृष्णन और माधुरी गुप्ता जैसे उंगलियों पर गिने जाने वाले ‘रॉ’ अधिकारी हैं, जिन्हें क्रॉस एजेंसी या कहें दूसरे देश के लिए जासूसी करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सका. पाकिस्तान के भारतीय उच्चायोग में आईएफएस ग्रुप-बी अफसर के पद पर तैनात माधुरी गुप्ता पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी के साथ मिल कर भारत के ही खिलाफ जासूसी करती हुई पकड़ी गई थी. माधुरी गुप्ता को 23 अप्रैल 2010 को गिरफ्तार किया गया था. इसी तरह अर्सा पहले ‘रॉ’ के अफसर केवी उन्नीकृष्णन को भी गिरफ्तार किया गया था. पकड़े जाने वाले ‘रॉ’ अफसरों की तादाद कम है, जबकि दूसरे देशों की खुफिया एजेंसी की साठगांठ से देश छोड़ कर भाग जाने वाले ‘रॉ’ अफसरों की संख्या कहीं अधिक है. 

Friday 10 November 2017

लड़ाई के लिए तैयार हो रहे हैं किसान

प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश में जुझारू किसान आंदोलन की चिंगारी सुलग रही है. गन्ना मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी करके उत्तर प्रदेश सरकार ने यूपी के किसानों को और भड़का दिया है. आलू, गेहूं और धान खरीद के नाम पर योगी सरकार की धोखाधड़ी से प्रदेश के किसान पहले से बेहाल और नाराज थे, उस पर गन्ना मूल्य के नाम पर किसानों के साथ मजाक कर सरकार ने मामले को अत्यंत गंभीर बना दिया है. जगह-जगह गन्ने फूंके जा रहे हैं और आलू सड़कों पर फेंके जा रहे हैं. यूपी के किसान संगठनों के साथ देशभर के किसान संगठन बैठकें कर रहे हैं और इन सबकी कोशिश है कि यूपी का किसान आंदोलन इस बार ठोस परिणाम लेकर ही माने. इस बार के किसान आंदोलन का हश्र महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश या राजस्थान की तरह न हो. भाजपा सरकार ने जिस तरह महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान के किसान आंदोलनों की जड़ में मट्ठा डाला, इस बार उससे सतर्क रहने की जिद है. कई राजनीतिक दलों से जुड़े किसान संगठनों ने यूपी में शुरू किए जाने वाले किसान आंदोलन को राजनीति से अलग रखने का संकल्प लिया है. सब यह मान रहे हैं कि राजनीति बहुत हो गई, अब ठोस परिणाम की लड़ाई जरूरी हो गई है. यूपी की राजधानी लखनऊ से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक बैठकों का सिलसिला चल रहा है. दिल्ली में किसानों का जन-संसद आयोजित करने की जोरदार तैयारी चल रही है.
अभी हाल-हाल तक गन्ना मूल्य साढ़े तीन सौ रुपए और चार सौ रुपए किए जाने की मांग करती रही भाजपा ने सत्ता पर सवार होते ही ऐसे उड़ान भरनी शुरू कर दी कि उसे जमीन का एहसास ही नहीं रहा. प्रदेश के गन्ना विकास मंत्री सुरेश राणा ने पिछले दिनों बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला कर गन्ना मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी करने की हास्यास्पद घोषणा की. ये वही सुरेश राणा हैं जो विधानसभा में यह मांग उठाते रहे हैं कि गन्ना मूल्य चार सौ रुपए प्रति क्विंटल किया जाए. समाजवादी पार्टी की सरकार ने जब गन्ना मूल्य की घोषणा की थी तब थानाभवन के भाजपा विधायक सुरेश राणा ने उसे किसानों के साथ धोखा बताया था और सरकार से चार सौ रुपए प्रति क्विंटल गन्ना मूल्य घोषित करने की मांग की थी. राणा के सुर में सुर मिलाते हुए शामली के भाजपा विधायक पंकज मलिक ने भी विधानसभा में गन्ना मूल्य का मुद्दा उठाकर सपा सरकार को आड़े हाथों लिया था और गन्ना मूल्य कम से कम साढ़े तीन सौ से चार सौ रुपए प्रति क्विंटल करने की मांग की थी. सुरेश राणा ने सपा सरकार को खूब कोसा था और उसे किसान विरोधी बताया था. सत्ता मिलते ही नेता के सुर कैसे बदलते हैं, सुरेश राणा की गन्ना विकास मंत्री के रूप में की गई घोषणा, इसका सटीक उदाहरण है. जब तत्कालीन सपा सरकार ने 2016-17 के पेराई सत्र के लिए गन्ना मूल्य में 25 रुपए प्रति क्विंटल की बढ़ोत्तरी की थी तब भाजपा ने इसपर नाराजगी जताते हुए कहा था कि इससे फसल की लागत भी नहीं निकल पा रही है. भाजपा ने चीनी के बढ़े दामों के सापेक्ष गन्ना मूल्य निर्धारित करने की मांग की थी. तब इन्हीं सुरेश राणा (जो आज प्रदेश के गन्ना विकास राज्य मंत्री हैं) ने कहा था कि गन्ना मूल्य में 25 रुपए की बढ़ोत्तरी किसानों के साथ धोखा है. राणा ने विधानसभा में 2011 में बसपा शासनकाल के दरम्यान शिवपाल यादव द्वारा गन्ना मूल्य 350 रुपए किए जाने की मांग का हवाला देते हुए सपा शासनकाल को आड़े हाथों लिया था और कहा था कि सपा सरकार किसान विरोधी है.  सुरेश राणा के हास्यास्पद और फूहड़ व्यवहार से प्रदेश के लोगों को यह समझ में आ गया कि असल में कौन किसान विरोधी है.
उल्लेखनीय है कि यूपी में गन्ने का राज्य परामर्शित मूल्य (एसएपी) वर्ष 2011 से लेकर 2015 तक 280 रुपए था. आखिरी दौर में सपा सरकार ने एसएपी में 25 रुपए की बढ़ोत्तरी कर उसे 315 रुपए प्रति क्विंटल किया था. उसे भाजपा ने धोखा बताया था. वर्ष 2014 से लेकर यूपी के विधानसभा चुनाव तक प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों से कई बार वादा किया कि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट शीघ्र लागू की जाएगी और किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना मूल्य निर्धारित किया जाएगा. लेकिन मोदी ने इसे लागू नहीं किया. किसानों को एकजुट करने में लगे राष्ट्रीय किसान मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष विनोद सिंह कहते हैं कि किसानों को लागत का दो गुना मूल्य मिलना चाहिए, लेकिन मोदी ने जो घोषणा की और जो वादा किया उसे ही वे लागू करें. सिंह कहते हैं कि गन्ना का सम्मानजनक और पोषणीय समर्थन मूल्य घोषित करने के नाम पर सरकार ‘लीचड़बाजी’ करती है, चीनी बाजार में महंगी बिकती है लेकिन गन्ना कौड़ियों में खरीदा जाता है. यह तो सीधा-सीधा मानवाधिकार हनन है. सरकार खुद किसानों को आत्महत्या करने के लिए विवश करती है, उकसाती है. जब तक कच्चा माल और उत्पाद के लाभ का बंटवारा बराबर नहीं किया जाएगा, तब तक किसानों की स्थिति नहीं सुधरेगी. और ऐसा करने में सरकार को परेशानी क्या है? यह सरकारों का षडयंत्र है कि कच्चा माल मुहैया करने वाला किसान लागत मूल्य नहीं पाता और उसी के माल से व्यापारी और बिचौलिया मालामाल होता रहता है. दूसरी तरफ सरकार किसानों के लिए सब्सिडी भी कम करती जा रही है. कर्ज माफी की सरकारी घोषणाएं समस्या का समाधान नहीं हैं, बल्कि वह और नासूर की तरह किसानों को ग्रसता जा रहा है.
इन्हीं मुद्दों पर विचार करने और किसानों को जागरूक और सतर्क करने के लिए राष्ट्रीय किसान मंच ने बीते 16 से 18 सितम्बर तक वाराणसी में तीन दिवसीय राष्ट्रीय किसान परिसंवाद का आयोजन किया था. इस परिसंवाद में शरीक हुए ‘चौथी दुनिया’ के प्रधान संपादक संतोष भारतीय ने भी कहा था कि आज की सबसे बड़ी जरूरत किसानों को उपज का सही मूल्य मिलने की है. बाजार की ताकतों की साजिश है कि पैदावार बाजार में आते ही दाम इतने कम कर दिए जाते हैं कि किसान उन्हें सड़कों पर फेंकने को मजबूर हो जाते हैं. किसान अगर इस शिकंजे से निकल जाएं तो उन्हें उनकी उपज का बेहतर मूल्य मिल सकता है. इसके लिए स्थानीय स्तर पर अनाज के भंडारण की व्यवस्था और उसे सही कीमत पर बेचने की सुविधा सुनिश्चित करनी होगी. पंचायत और ब्लॉक स्तर पर खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों और अन्य कृषि उद्योगों की स्थापना बेहद जरूरी है, जो सरकार की मदद के बिना भी हो सकती हैं. लेकिन इसके लिए एकजुट पहल करनी होगी. श्री भारतीय ने कहा कि दरअसल मर्म पर चोट ही नहीं हो रही. विभिन्न प्रदेशों में जो किसान आंदोलन चले, वे स्वतःस्फूर्त हैं. इनका नेतृत्व कोई स्थापित नेता या राजनीतिक दलों से सम्बद्ध किसान संगठन नहीं कर रहे हैं. अब किसानों से जुड़े मसलों पर समग्र रूप से विचार करने और उसे संगठित राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने की जरूरत है. इसके लिए सभी किसान संगठनों को एकजुट होना होगा. संतोष भारतीय ने राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक किसान एकता का आधार पुख्ता करने की आवश्यकता पर जोर दिया.
उत्तर प्रदेश गन्ना किसान संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष शिवाजी राय कहते हैं कि गन्ना मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी किसानों के साथ क्रूर मजाक है. ऐसा करके प्रदेश के किसानों को चिढ़ाया गया है. प्रदेश की हालत यह है कि चीनी मिल मालिक गन्ना किसानों का पैसा नहीं दे रहा है और सरकार उन्हें राहत पर राहत दिए जा रही है. चीनी मिलों को बिना ब्याज का अरबों का राहत पैकेज मिलता है, यानि, गन्ना किसानों के बकाये का जो भी थोड़ा-बहुत भुगतान हो रहा है, वह सरकार ही परोक्ष रूप से दे रही है. दूसरी तरफ किसानों को जो ऋण दिया जाता है उसे बेहद क्रूरता पूर्वक ब्याज सहित वसूलता जाता है. शिवाजी राय ने कहा कि सरकारों ने पूर्वांचल के पूरे अर्थशास्त्र को तबाह कर डाला. हम कहते हैं कि हमें ट्रेनें नहीं, उद्योग चाहिए. लेकिन सरकार बंद पड़े उद्योग खोलने के बजाय उसे बंद रखने में रुचि रखती है ताकि पूंजीपतियों के विभिन्न ट्रेड सेंटरों पर सस्ता मजदूर मिल सके. किसानों को गिरमिटिया मजदूर बना कर रख दिया गया है. ट्रेनें उन्हीं मजदूरों को ढोने का काम कर रही हैं. सरकारों ने पूंजिपतियों के ट्रेड सेंटरों को मजबूती दी और उसे ही विकास नाम दे दिया. किसानों को सस्ता मजदूर बना कर उन्हीं पूंजिपतियों को उपलब्ध करा दिया. पूर्वी क्षेत्र के आर्थिक स्वावलंबन को साजिश करके तोड़ा गया. पूर्वी क्षेत्र का उद्योग धंधा और उत्पादन कृषि आधारित था. चीनी मिल चलाने के लिए किसानों ने अपनी-अपनी जमीनें लीज़ पर दी थीं. लखनऊ से आप पूरब की तरफ रेल से चलें तो सारे स्टेशन चीनी मिलों के कारण स्थापित हुए थे. ट्रेनें पहले गन्ना ढोने का काम करती थीं, जो आज मजदूर ढोने का काम कर रही हैं. लखनऊ से रेल से चलें तो मैजापुर (बाराबंकी), जरवल रोड (बहराइच), कुंदरखी (गोंडा), बभनान (बस्ती), गोविंद नगर (बस्ती), मुंडेरवा (बस्ती), बस्ती, खलीलाबाद (संत कबीर नगर), सरदार नगर (गोरखपुर), गौरीबाजार (देवरिया), बैतालपुर (देवरिया), देवरिया, भटनी (देवरिया), प्रतापपुर (देवरिया) से होते हुए बिहार के सीवान स्टेशन और उससे आगे सुदूर उत्तरी बिहार तक चीनी मिलों के कारण ही तमाम स्टेशन अस्तित्व में आए. पूरा पूर्वी क्षेत्र गन्ना आधारित उद्योग-धंधों के कारण फल-फूल रहा था. रेलवे ट्रैक के किनारे-किनारे चीनी मिलों की कतारें आप देख सकते हैं. जिनमें से अधिकांश मिलें आज बंद हालत में भूतहा खंडहर की तरह दिखती हैं. गन्ना आधारित उद्योगों के विकसित होने के कारण पूर्वी क्षेत्र में हथकरघा उद्योग भी खूब विकसित हुआ. भदोही, वाराणसी, मऊ, गोरखपुर, संत कबीर नगर, बस्ती, मगहर, टांडा, खलीलाबाद गन्ना आधारित उद्योगों के साथ-साथ हथकरघा, कालीन, साड़ी के बेहतरीन उत्पादन के लिए विश्व स्तर पर जाना गया. पूर्वी क्षेत्र में ठोस आर्थिक स्वावलंबन और स्वायत्तता स्थापित थी, लेकिन नेताओं ने पूंजीपतियों के साथ साठगांठ करके इस क्षेत्र की पूरी इकोनॉमी को ध्वस्त कर दिया. केवल इसलिए कि पूंजीपति विकसित हो और उसके लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराया जा सके और धीरे-धीरे किसानों की जमीनें भी छीन कर पूंजीपतियों को कारपोरेट फार्मिंग दी जा सकें. आज पूर्वी क्षेत्र के गांव के गांव खाली हैं. निम्नवर्गीय तबका तो छोड़िए, मध्यवर्गीय जमात तक महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब के विभिन्न पूंजी उत्पाद केंद्रों पर मजदूरी करने के लिए जा चुकी है. इन राज्यों में पूर्वी क्षेत्र के लोग सस्ता श्रम भी देते हैं और अपमानित भी होते हैं. गन्ने की खेती तेजी से बंद होती जा रही है. पूर्वांचल के किसान सुनियोजित षडयंत्र का शिकार हुए हैं. किसानों की समस्या स्वाभाविक नहीं है. यह समस्या साजिश करके उत्पन्न की गई है.
उत्तर प्रदेश के किसानों के बीच अब ये मुद्दे उग्र रूप लेते जा रहे हैं. किसान खुद को ठगा महसूस कर रहा है. किसानों के विरोध प्रदर्शनों और बैठकों का सिलसिला पश्चिम से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक तेज गति से चल रहा है. पिछले दिनों लखनऊ में विभिन्न किसान संगठनों की बैठक हुई जिसमें अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा के अध्यक्ष धरमपाल सिंह, महासचिव हीरालाल, किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष शिवाजी राय, जन जागरूकता अभियान के संयोजक सीवी सिंह, भूमिहीन किसान संघर्ष समिति के नेता अरविंद मूर्ति, अखिल भारतीय क्रांतिकारी किसान सभा के अध्यक्ष बचाऊ राम और स्वराज अभियान के अखिलेंद्र प्रताप समेत किसान संग्राम समिति, खेत मजदूर किसान संग्राम समिति, अखिल भारतीय किसान सभा हरदोई, मानववादी जनमंच, जनवादी किसान सभा व कई अन्य किसान संगठनों के नेता शरीक थे. इस सभा में यह मसला पुरजोरी से उठा कि सभी सरकारें बड़े उद्योगपतियों को टैक्स में छूट देती हैं, उन्हें बिना ब्याज का पैकेज देती हैं, उनके कर्ज माफ करती हैं और बकाया नहीं वसूलतीं, लेकिन किसानों के प्रति सरकारों का रवैया बिल्कुल नकारात्मक और उत्पीड़नात्मक रहता है. पिछले वर्ष ही केंद्र सरकार ने उद्योगपतियों को छह लाख करोड़ के टैक्स की छूट दी. पिछले पांच साल का रिकॉर्ड देखा जाए तो छूट की रकम 25 लाख करोड़ रुपए से अधिक होती है. जबकि देश के किसानों पर कुल ऋण 12 करोड़ 60 लाख रुपए है, जिसे ब्याज सहित क्रूरतापूर्वक वसूला जा रहा है. किसानों को दिया गया ऋण खेती-किसानी के काम में और बैंकों के अधिकारियों-कर्मचारियों को घूस देने में ही खर्च होता है. स्वामीनाथन आयोग ने किसानों को उनकी फसलों की लागत का डेढ़ गुना देने की सिफारिश की थी, लेकिन उसे आज तक लागू नहीं किया गया. किसानों की सभा में यह सवाल भी उठा कि जब सिफारिशें लागू नहीं होतीं, तो आयोग बनाए ही क्यों जाते हैं? फसलों के लागत-मूल्य का डेढ़ गुना अधिक समर्थन मूल्य तय करने के अलावा किसानों से जुड़े कई अन्य मसलों पर भी चर्चा हुई और आंदोलन की रूपरेखा तय की गई. इसके बाद बागपत के भड़ल में और 14 अक्टूबर को दिल्ली में किसान संगठनों की बैठक हुई, जिसमें देशभर के 187 किसान संगठनों ने हिस्सा लिया. भड़ल की सभा में किसान अधिकार समन्वय मंच बना जो देशभर के किसान संगठनों के साथ समन्वय बनाएगा. दिल्ली बैठक में 167 विभिन्न किसान संगठनों का प्रतिनिधित्व लेकर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति गठित की गई. दिल्ली बैठक में यूपी, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, कर्नाटक और तमिलनाडु तक के किसान संगठन शामिल हुए. दिल्ली बैठक में यह तय हुआ कि उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन तेज करने के पहले दिल्ली में 20 नवम्बर से धरना और भूख हड़ताल शुरू की जाएगी.
गन्ने का समर्थन मूल्य 10 रुपए बढ़ा कर सरकार ने आग में घी डालने का काम किया है. सरकार के इस फैसले के खिलाफ राजधानी लखनऊ से लेकर पूरे प्रदेशभर में किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया और गन्ने की फसलें फूंकीं. भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने सरकार की इस मजाकिया घोषणा को चीनी मिलों और सरकार की मिलीभगत का नतीजा बताया. टिकैत ने कहा कि भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में उचित और लाभकारी मूल्य देने की बात कही थी लेकिन मिल मालिकों के दबाव में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार गन्ना किसानों को लागत और श्रम पर आधारित मूल्य दिलाने में भी नाकाम रही. राष्ट्रीय किसान मंच के प्रदेश अध्यक्ष रिंकू तिवारी ने कहा कि डीजल, बिजली, कीटनाशक, खाद वगैरह के दाम बढ़ने से गन्ना किसानों की लागत भी काफी बढ़ गई है. विडंबना यह है कि उत्तर प्रदेश में गन्ना मूल्य तय करने को लेकर आयोजित बैठक में भी किसानों ने अपनी लागत का आंकड़ा गन्ना विभाग को दिया था. लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. स्पष्ट है कि सरकार चीनी मिल मालिकों के साथ खड़ी है. राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी अनिल दुबे ने घोषित गन्ना खरीद मूल्य को किसानों के साथ विश्वासघात बताया और कहा कि सत्ता में आने से पहले खुद भाजपा ने प्रदेश के किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने का वादा किया था. भाजपा ही 350 रुपए प्रति क्विंटल गन्ना मूल्य देने की मांग करती रही है, फिर सत्ता में आते ही चरित्र कैसे बदल लिया? यह साबित हो गया कि  भाजपा के एजेंडे में किसानों और मजदूरों के लिए कोई स्थान नहीं है. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि भाजपा सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी थोपकर देश की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी और किसानों को बदहाल-बेहाल कर दिया. सरकार ने आलू किसानों को गुमराह किया. गन्ना किसान को भाजपा ने पुराने मूल्य से 10 रुपए की बढ़त दी, जबकि समाजवादी सरकार ने 40 रुपए की एकमुश्त बढ़त की थी. अखिलेश ने विधानसभा के समक्ष गन्ना किसानों के प्रदर्शन और गन्ना फूंक कर विरोध दर्ज कराए जाने को सही बताया और उनके प्रति अपना समर्थन जताया. सपा के मुख्य प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा कि भाजपा सरकार ने पेराई सत्र 2017-18 के लिए गन्ना खरीद का राज्य परामर्शित मूल्य 10 रुपए प्रति क्विंटल बढ़ा कर किसानों के साथ घोर अन्याय किया है. भाजपा सरकार की किसानों के साथ धोखाधड़ी का यह कोई पहला मामला नहीं है. कर्जमाफी के मामले में भी वह किसानों के साथ विश्वासघात कर चुकी है. चौधरी ने कहा कि भाजपा पूंजीघरानों की पोषक पार्टी रही है. किसान, गरीब, गांव कभी उसकी प्राथमिकता में नहीं रहे हैं. गरीब किसान का एक लाख तक कर्ज माफ करने में उसने हेराफेरी की जबकि बड़े व्यापारिक घरानों के करोड़ों रुपए के कर्ज माफ कर दिए गए. किसानों को उनकी फसल का उचित और लाभप्रद मूल्य देने में आनाकानी से भाजपा का किसान विरोधी चरित्र उजागर हो गया है. भारतीय किसान यूनियन के मंडल अध्यक्ष हरिनाम सिंह वर्मा ने भाजपा सरकार की घोषणा को किसानों के साथ कुठाराघात बताया और गन्ने का मूल्य 450 रुपए प्रति क्विंटल, धान का मूल्य 2500 रुपए प्रति क्विंटल और आलू का मूल्य हजार रुपए प्रति क्विंटल करने की मांग की. वर्मा ने कहा कि योगी सरकार ने ऐसा नहीं किया तो प्रदेश के किसान सरकार को उचित और करारा जवाब देंगे.
गन्ना मूल्य को लेकर यूपी सरकार की घोषणा के बाद प्रदेशभर में धरना-प्रदर्शन तेज हो गया है. पश्चिमी यूपी के गाजियाबाद, मेरठ, बुलंदशहर, इटावा, आगरा, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, बागपत, एटा, कासगंज, बरेली, कानपुर से लेकर पूर्वांचल के चंदौली, देवरिया, वाराणसी, कुशीनगर, गोरखपुर, गाजीपुर, महराजगंज, बलिया, बस्ती, गोंडा और राजधानी लखनऊ के साथ-साथ हरदोई, शाहजहांपुर, पीलीभीत, सीतापुर और लखीमपुर खीरी में किसानों की सभाएं और प्रदर्शन तेजी से शुरू हुए हैं. प्रदेशभर में किसानों को एकजुट करने का काम सक्रियता से हो रहा है. मुजफ्फरनगर के किसानों ने तो फैसला कर लिया है कि गन्ना मूल्य साढ़े चार सौ रुपए प्रति क्विंटल निर्धारित नहीं किया गया तो 2019 के लोकसभा चुनाव में वे भाजपा को वोट नहीं देंगे. राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के जिलाध्यक्ष सुमित मलिक ने किसानों के साथ जोरदार प्रदर्शन किया और यह घोषणा की. उन्होंने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को इस आशय का ज्ञापन भी दिया, जिसे सिटी मजिस्ट्रेट को सौंपा गया. संभल क्षेत्र के किसानों ने भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से गन्ना मूल्य साढ़े चार सौ या कम से कम चार सौ रुपए करने की मांग की. समाज हित संरक्षण समिति के अध्यक्ष महंत भगवानदास शर्मा ने इस सिलसिले में मुख्यमंत्री को पत्र भी लिखा है. भारतीय किसान यूनियन ने सरकार के फैसले के खिलाफ बिजनौर में भी गन्ने की होली जलाई और गन्ने का भाव 450 रुपए प्रति क्विंटल करने की मांग की. भाकियू नेता नरेश प्रधान ने कहा कि भाजपा सरकार ने मात्र दस रुपए का रेट बढ़ाकर गन्ना किसानों के साथ धोखा किया है. भाकियू नेता दिगम्बर सिंह और धर्मवीर सिंह धनकड़ ने गन्ने का भाव कम से कम 450 रुपए प्रति क्विंटल करने की मांग की. रालोद के जिला अध्यक्ष अशोक चौधरी ने कहा कि बाजार में चीनी का भाव अच्छा है लेकिन गन्ने का भाव अत्यंत कम. यह किसानों के साथ अपराध है. आजाद किसान यूनियन के नेता राजेंद्र सिंह और वीरेंद्र सिंह ने सरकार द्वारा घोषित गन्ना मूल्य को ऊंट के मुंह में जीरा बताया. सपा के जिला अध्यक्ष अनिल यादव ने कहा कि भाजपा सरकार किसान विरोधी है. बसपा के जिला अध्यक्ष सरजीत सिंह ने कहा कि किसानों के लिए भाजपा सरकार की कथनी और करनी का भेद उजागर हो गया है.
कैथल में भी किसानों ने सरकार के फैसले के खिलाफ व्यापक संघर्ष छेड़ने और चीनी मिल घेरने की घोषणा कर दी है. कैथल के किसानों की बैठक में गन्ना संघर्ष समिति और भारतीय किसान संघ के सदस्यों ने बाकायदा कैथल शुगर मिल परिसर में बैठक की. बैठक की अध्यक्षता प्रधान गुल्तान सिंह नैना ने की. भारतीय किसान संघ के प्रदेश प्रवक्ता रणदीप सिंह आर्य, श्रीराम मोहना, दीपक वालिया, नरेंद्र राणा, अमरदीप सहारण, कुलदीप नैना, मियां सिंह, महेंद्र सिंह, गौरव नैन, कृष्ण वालिया, मग्गर सिंह, पाला राम, विक्रम सिंह, अरुण वालिया वगैरह बैठक में मौजूद थे. इस मसले पर गाजियाबाद में भी भाकियू ने धरना-प्रदर्शन किया और व्यापक आंदोलन छेड़ने की मुनादी की. सरकार द्वारा की गई गन्ना मूल्य वृद्धि के विरोध में किसानों ने गाजियाबाद तहसील पर जोरदार धरना दिया जिसकी अध्यक्षता बिजेन्द्र सिंह ने की और संचालन वेदपाल मुखिया ने किया. भाकियू के प्रदेश उपाध्यक्ष राजवीर सिंह, जयकुमार मलिक, ब्रजवीर सिंह, सुंदरपाल, अशोक कुमार, चन्द्रपाल, सतवीर सिंह, राजेन्द्र समेत बड़ी तादाद में किसान मौजूद थे. भारतीय किसान यूनियन (अराजनैतिक) ने भी जिलाध्यक्ष राजबहादुर सिंह यादव के नेतृत्व में कलेक्ट्रेट पर प्रदर्शन किया और गन्ने की होली जलाई. जनप्रतिनिधियों को कोसा. सरकार के खिलाफ नारेबाजी कर नाराजगी जताई. सरकार के फैसले के खिलाफ बागपत के चौगामा क्षेत्र के किसानों ने पंचायत की और सरकार को चेतावनी दी कि यदि गन्ना मूल्य नहीं बढ़ा तो व्यापक आंदोलन किया जाएगा. बागपत के किसानों की दोघट, दाहा, पुसार में पंचायतें हुईं. किसानों की दोघट पंचायत की अध्यक्षता करने वाले बलबीर सिंह लंबरदार ने कहा कि प्रदेश सरकार ने साबित किया है कि वह किसान मजदूर विरोधी है. चौगामा किसान क्लब दाहा और राष्ट्रीय मजदूर किसान पार्टी के अध्यक्ष डॉक्टर रणबीर राणा ने कहा कि किसानों के साथ किया गया मजाक सरकार पर भारी पड़ेगा. प्रदेश के किसान लोकसभा चुनाव में हिसाब-किताब चुकता कर देंगे.

अपना जिला छोड़ कर दूसरे जिलों का गन्ना खरीद लेती है चीनी मिल
फैजाबाद के सोहावल तहसील में मसौधा स्थित केएम शुगर मिल की धांधली भी अजीबोगरीब है. केएम शुगर मिल प्रबंधन जिले का गन्ना न खरीद कर सस्ते में गन्ना बेचने के लिए उद्धत दूसरे जिलों के किसानों से गन्ना खरीद लेता है. जिले का किसान अपनी फसल लिए मिल के बाहर लाइन लगाए कई-कई दिन खड़ा रहता है जबकि दूसरे जिले का गन्ना सीधे मिल के अंदर पहुंच जाता है. इसे लेकर फैजाबाद जिले के किसानों में गहरी नाराजगी है. पिछले दिनों राष्ट्रीय किसान मंच ने इस समस्या पर स्थानीय किसानों के साथ बैठक की और आंदोलन का तानाबाना बुना. किसान मंच के प्रदेश अध्यक्ष देवेंद्र तिवारी उर्फ रिंकू ने बताया कि छतिरवां गांव के किसानों की पंचायत में केएम शुगर मिल की धांधलियों का मसला उठा. किसानों ने कहा कि सर्वे में जिले के किसानों की जो सूची बनती है, उसे ताक पर रख कर मिल प्रबंधन दूसरे जिलों के किसानों का गन्ना खरीद लेता है. कतार में खड़े स्थानीय किसानों की फसल को पुराना या खराब बता कर लौटा दिया जाता है. किसान मंच फैजाबाद के अध्यक्ष विनीत सिंह ने कहा कि मिल प्रबंधन के इस रवैये के कारण किसान कई-कई दिनों अपना गन्ना तौल केंद्र पर रखने के लिए मजबूर हो जाते हैं. समय से तौल नहीं होने के कारण गन्ना सूख जाता है. इसकी शिकायत पर मिल प्रबंधन से लेकर प्रशासन तक कोई ध्यान नहीं देता. किसानों के इस उत्पीड़न के खिलाफ मिल घेरने और गन्ना खरीद की प्रक्रिया को ठप्प कर देने की तैयारी चल रही है.

गेहूं, आलू और धान में भी मारा गया किसान
उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए गेहूं, आलू, धान और अब गन्ना, चारों फसलें भारी नुकसान का जरिया साबित हुईं. गेहूं और आलू की रिकॉर्ड पैदावार ने किसानों को और बर्बाद ही किया है. योगी सरकार ने आलू का समर्थन मूल्य 467 रुपए प्रति क्विंटल कर यूपी के किसानों से एक लाख मिट्रिक टन आलू खरीदने की घोषणा की थी. लेकिन परिणाम यह निकला कि किसानों को अपनी फसल सड़क पर फेंकनी पड़ी या कोल्ड स्टोरेज में आलू छोड़ देना पड़ा. उत्तर प्रदेश में आलू की खेती करने वाले किसान इस बार बर्बाद हो गए. कोल्ड स्टोरेज में आलू रखने के कारण भी किसानों को करोड़ों का नुकसान हुआ. योगी सरकार की आलू खरीद नीति पूरी तरह ढकोसला साबित हुई. आलू उगाने से लेकर उसे मंडी तक पहुंचाने का महंगा भाड़ा देने और कोल्ड स्टोरेज का किराया चुकाने में किसानों की टेंट ढीली हो गई है. जबकि उनका आलू कौड़ियों के भाव बिकने पर आ गया. सरकार ने केवल घोषणा की, किसानों का आलू नहीं खरीदा. सरकार ने आलू खरीदने के मानक ऐसे तय कर दिए कि सारे आलू उस मानक पर रिजेक्ट कर दिए गए. विवश किसानों को अपना आलू फेंक देना पड़ा. इससे आलू किसानों की आर्थिक रीढ़ टूट गई. किसान कहते हैं कि आलू बोने से अच्छा है खेत को खाली छोड़ देना. आलू उत्पादन के गढ़ फर्रुखाबाद में तो आलू किसानों के बुरे दिन हैं. किसान सड़क के किनारे आलू फेंक रहे हैं. जिले के करीब 70 कोल्ड स्टोरेज आलू से भरे पड़े हैं. अब कोई भी कोल्ड स्टोर आलू रखने की स्थिति में नहीं है. किसान भी कोल्ड स्टोरेज में ही आलू छोड़ कर चला गया. फर्रुखाबाद के तकरीबन 34 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में आलू की फसल बोई गई थी. आलू के रिकॉर्ड उत्पादन का नतीजा यह निकला कि वह या तो कौड़ियों के मोल बिका या कूड़े की तरह रास्तों पर फेंका सड़ता हुआ नजर आया. यही हाल गेहूं और धान का भी हुआ. योगी सरकार ने राज्य में पांच हजार खरीद केंद्रों के जरिए 80 लाख टन गेहूं खरीदने की घोषणा की थी. लेकिन यह घोषणा भी टांय-टांय-फिस्स साबित हुई. सरकार ने गेहूं की तर्ज पर 3500 क्रय केंद्रों के जरिए 50 लाख मीट्रिक टन धान खरीदने की घोषणा की लेकिन धान खरीद में भी सरकार फ्लॉप रही और बिचौलियों का बोलबाला बना रहा. स्वराज अभियान की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य अजित सिंह यादव कहते हैं कि यूपी के पूरे धान बेल्ट में धान की खरीद का सरकारी दावा बेमानी साबित हो रहा है. बिचौलियों के जरिए मनमानी कीमत पर धान खरीदा गया और सरकार के नुमाइंदे बिचौलियों को ही अपना सहयोग देते रहे. बदायूं, पीलीभीत और तराई के विस्तृत धान पट्टी क्षेत्र के किसानों में इससे भीषण नाराजगी है.

इस बार किसान मांगेंगे अलग पूर्वांचल
किसान आंदोलन की सुगबुगाहटों में इस बार अलग पूर्वांचल की मांग भी शामिल है. अलग पूर्वांचल की किसानों की मांग राजनीतिक पार्टियों की मांग से अलग है. किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष शिवाजी राय कहते हैं कि आर्थिक तौर पर स्वावलंबी रहे पूर्वांचल को जिस तरह षडयंत्र करके ध्वस्त किया गया, उसका अब एक ही उपाय बचा है, या तो केंद्र सरकार पूर्वांचल के लिए एक लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज अलग से घोषित करे या पूर्वांचल को अलग राज्य के रूप में घोषित करे. पूर्वांचल के किसान राजनीतिक तौर पर नहीं, आर्थिक तौर पर विभाजन चाहते हैं, क्योंकि राजनीतिक दलों ने पूर्वांचल को दूसरे और तीसरे दर्जे का क्षेत्र बना कर रख दिया है. विभिन्न सरकारों ने पश्चिम में निवेश कराया और पश्चिम के विकास पर ही सारा ध्यान दिया. पूरब के विकास की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया, जबकि पूर्वांचल ने कृषि विकास और लघु उद्योगों के विकास के साथ-साथ शैक्षणिक विकास का भी प्रतिमान स्थापित किया है. काशी हिंदू विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पूर्वांचल विश्वविद्यालय, आचार्य नरेंद्र देव विश्वविद्यालय जैसे शैक्षणिक प्रतिष्ठान पूरब में ही स्थापित हुए. शिवाजी राय ने कहा कि पूर्वांचल के लोगों और खास तौर पर यहां के किसानों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस रवैये से गहरी निराशा है कि वे सांसद तो वाराणसी के हैं, लेकिन सारा ध्यान गुजरात पर देते हैं. गुजरात की छह करोड़ की आबादी के लिए मोदी लाखों करोड़ रुपए का ऋण लेकर बुलेट ट्रेन चलाने का करार कर सकते हैं लेकिन पूर्वांचल की नौ करोड़ की आबादी के विकास के लिए एक लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज नहीं दे सकते. लिहाजा, पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान यह मांग कर रहे हैं कि उन्हें उनकी पुरानी समृद्ध विरासत लौटाएं या पूर्वांचल राज्य अलग करें...

सरकार का एक ही फंडा, फहराता रहे मिल मालिकों का झंडा
चीनी मिल मालिकों के हित सर्वोपरि हैं. गन्ना किसानों की जिंदगी के कोई मायने नहीं. किसान मरता है तो सरकार कहती है कि घरेलू कलह से मर गया. पूरा देश नेताओं की कलह और तिकड़म से आक्रांत है. गन्ने की कीमत में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी पर एक बुजुर्ग किसान ने कहा कि देश का पेट भरने वाले किसानों की जो उपेक्षा करेगा उसे प्रकृति अभिशाप देगी. फिर वह देखेगा कि किसानों को लूट कर, किसानों को धोखा देकर और किसानों की लाशों पर कमाया हुआ धन उसकी कितनी हिफाजत कर पाता है. उत्तर प्रदेश में किसानों की स्थिति भयावह है. सरकारें आलू, गेहूं और गन्ना उपजाने वाले किसानों को मरने या खेती छोड़ने के लिए विवश कर रही हैं.
किसानों को तबाह कर उनकी जमीनें 'कारपोरेट फार्मिंग के लिए बड़े औद्योगिक घरानों को देने की साजिश चल रही है. इसीलिए 'माल किसी और का, दाम किसी और का' के गैर-कानूनी, गैर-नैतिक और गैर-नैसर्गिक तौर-तरीके से किसानों को मारा जा रहा है. फसलें तैयार करने में लागत चाहे जो आए, उसकी कीमत सरकार तय करेगी पर उसकी डोर किसी और के हाथों से संचालित होगी. गेहूं, धान और गन्ना ही नहीं आलू व अन्य सब्जियों तक के दाम तय करने में उत्पादक किसानों का कोई अधिकार नहीं. अभी हम गन्ना की बात करें. गन्ना मौजू है. अभी भी गन्ने का बकाया हजारों करोड़ रुपए का है. उस पर सरकार गन्ना मूल्य 10 रुपए बढ़ा रही है. किसान कर्ज और ब्याज के बोझ से दबा आत्महत्याएं कर रहा है, लेकिन इन आत्महत्याओं के लिए दोषी कौन है? इस पर उत्तर प्रदेश सरकार मौन है. किसी भी सत्ता के लिए कितनी लानत की बात है कि कौड़ियों में फसल बेचने से अच्छा किसान उसे सड़क पर फेंक देना अधिक मुनासिब समझ रहा है. अपनी ही फसलें इस तरह बर्बाद होती देख कर किसान आत्महत्या कर ले रहा है. किसानों के हित की सरकार होती तो अब तक साढ़े चार सौ रुपए गन्ना मूल्य निर्धारित हो चुका होता. मोदी के वादे के मुताबिक फसल की लागत का डेढ़ गुना अधिक समर्थन मूल्य देने का सिद्धांत तय हो चुका होता. लेकिन किसान प्राथमिकता पर हैं ही नहीं. प्राथमिकता पर कारपोरेट हित है. चीनी मिल मालिकों और उद्योगपतियों का अपना 'सिंडिकेट' है, लेकिन किसानों का अपना कोई ताकतवर संगठन नहीं. किसानों के अलग-अलग संगठन और अलग-अलग राग हैं. सबमें राजनीति की घुसपैठ है. पूंजी सिंडिकेट और सरकारें मिल कर किसानों को उनकी जमीनों से खदेड़ भगाने के लिए सारा षडयंत्र कर रही हैं. खेत से कुछ नहीं मिलेगा तो मजदूरी करके गुजारा होगा. इससे खेतों को कारपोरेट फार्मिंग में बदलने में आसानी होगी. ये स्पेशल इकोनॉमिक जोन (एसईजेड), स्पेशल डेवलपमेंट जोन (एसडीजेड) और कारपोरेट फार्मिंग वगैरह आम लोगों के कितने हित और खास लोगों के कितने हित के हैं, इसे समझने के लिए कोई अतिरिक्त बुद्धि की जरूरत नहीं है. किसानों को राजनीतिक दलों ने बड़े शातिराना तरीके से मारा है. कभी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान खुशहाल थे. गन्ने की फसल और चीनी मिलों से प्रदेश के गन्ना बेल्ट में कई अन्य उद्योग धंधे भी फल-फूल रहे थे. गन्ने की राजनीति करके नेता तो कई बन गए लेकिन उन्हीं नेताओं ने गन्ना किसानों को बर्बाद कर दिया. गन्ना क्षेत्र से लोगों का भयंकर पलायन शुरू हुआ और उन्हें महाराष्ट्र और पंजाब में अपमानित होते हुए भी पेट भरने के लिए रुकना पड़ा. उत्तर प्रदेश में 125 चीनी मिलें थीं, जिनमें 63 मिलें केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश में थीं. इनमें से अधिकतर चीनी मिलें बेच डाली गईं और कुछ को छोड़ कर सभी मिलें बंद हो गईं. सरकार ने चीनी मिलें बेच कर भी पूंजीपतियों को ही फायदा पहुंचाया. चीनी मिलों के परिसर की जमीनें पूंजी-घरानों को कौड़ियों के भाव बेच डाली गईं, जिस पर अब महंगी कॉलोनियां बनाने का कुचक्र हो रहा है. चीनी मिलों को किसानों ने गन्ना समितियों के जरिए अपनी जमीनें लीज़ पर दी थीं. लेकिन उन किसानों के मालिकाना हक की चिंता किए बगैर अवैध तरीके से उन जमीनों को बेचा जा रहा है. सरकारों ने 1989 के बाद से प्रदेश में नकदी फसल का कोई विकल्प नहीं खड़ा किया. गन्ना ही किसानों का अस्तित्व बचाने की एकमात्र नकदी फसल थी. चीनी मिलों के खेल में कोई एक पार्टी शामिल नहीं,  बल्कि जो दल सत्ता में आया, उसने खूब हाथ धोया. भाजपा की सरकार ने हरिशंकर तिवारी की कम्पनी 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' को चार मिलें बेची थीं. 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' ने इन्हें चलाने के बजाए मशीनों को कबाड़ में बेच कर ढांचा सरकार के सुपुर्द कर दिया. फिर समाजवादी पार्टी की सरकार ने प्रदेश की 23 चीनी मिलें अनिल अम्बानी को बेचने का प्रस्ताव रखा. लेकिन तब अम्बानी पर चीनी मिलें चलाने के लिए दबाव था. सपा सरकार ने उन चीनी मिलों को 25-25 करोड़ रुपए देकर उन्हें चलवाया भी, लेकिन मात्र 15 दिन चल कर वे फिर से बंद हो गईं. तब तक चुनाव आ गया और फिर बसपा की सरकार आ गई. मुख्यमंत्री बनी मायावती ने सपा कार्यकाल के उसी प्रस्ताव को उठाया और चीनी मिलों को औने-पौने दाम में बेचना शुरू कर दिया. मायावती ने पौंटी चड्ढा की कम्पनी और उससे जुड़ी अन्य कम्पनियों को 21 चीनी मिलें बेच डालीं. देवरिया की भटनी चीनी मिल महज पौने पांच करोड़ में बेच दी गई. जबकि वह 172 करोड़ की थी. इसके अलावा देवरिया चीनी मिल 13 करोड़ में और बैतालपुर चीनी मिल 13.16 करोड़ में बेच डाली गई. बरेली चीनी मिल 14 करोड़ में बेची गई, बाराबंकी चीनी मिल 12.51 करोड़ में, शाहगंज चीनी मिल 9.75 करोड़ में, हरदोई चीनी मिल 8.20 करोड़ में, रामकोला चीनी मिल 4.55 करोड़ में, घुघली चीनी मिल 3.71 करोड़ में, छितौनी चीनी मिल 3.60 करोड़ में और लक्ष्मीगंज चीनी मिल महज 3.40 करोड़ रुपए में बेच डाली गई. ये तो बंद मिलों का ब्यौरा है. जो मिलें चालू हालत में थीं उन्हें भी ऐसे ही कौड़ियों के मोल बेचा गया. अमरोहा चीनी मिल महज 17 करोड़ में बेच डाली गई. सहारनपुर चीनी मिल 35.85 करोड़ में और सिसवां बाजार चीनी मिल 34.38 करोड़ में बिक गई. बुलंदशहर चीनी मिल 29 करोड़ में, जरवल रोड चीनी मिल 26.95 करोड़ में और खड्डा चीनी मिल महज 22.65 करोड़ में बेच डाली गई. महालेखाकार (कैग) ने इस घोटाले का पर्दाफाश भी किया. लेकिन उसे सरकारों ने लीपपोत दिया. अखिलेश सरकार ने लीपा. अब भाजपा सरकार लीपने-पोतने में सक्रिय है. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने चीनी मिल बिक्री घोटाले की जांच कराने की घोषणा की तो केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कम्पीटिशन कमीशन ऑफ इंडिया के जरिए पूरे मामले को लीपपोत दिया और तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती को बेदाग घोषित कर दिया. दूसरी तरफ आजादी के बाद गठित गाडगिल समिति से लेकर मनमोहन सरकार के कार्यकाल में गठित रंगराजन समिति तक ने चीनी उद्योग पर अपनी सिफारिशें दीं, लेकिन सरकारों ने उन सिफारिशों की तरफ झांका भी नहीं, वे सब ऐसे ही सत्ता के तहखाने में धूल फांक रही हैं. गन्ना किसानों की सुध लेने के लिए सरकारें रुचि नहीं ले रहीं, क्योंकि सरकारों की रुचि और निगाह किसानों की जमीनों पर है.
देश के सबसे बड़े गन्ना उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान केंद्र और राज्य सरकार दोनों से ही निराश और हताश हो चुके हैं. चीनी मिलों के मालिक गन्ना किसानों का हक मार कर अकूत लाभ कमा रहे हैं. इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (आईएसएमए) के नाम पर सिंडिकेट बना कर चीनी मिलों के मालिक सरकारों को ब्लैकमेल करते रहते हैं. इस पूंजी सिंडिकेट की पहुंच इतनी है कि गन्ना मूल्य तय करने के सरकार के अधिकार को भी एक बार अदालत ने खारिज कर दिया था. लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद गन्ने का समर्थन मूल्य तय करने के सरकार के अधिकार को बहाल किया जा सका. इसके बावजूद गन्ने पर मक्कारी भरी राजनीति जारी है. गन्ने का समर्थन मूल्य न बढ़े इसके लिए चीनी मिल मालिकों का सिंडिकेट बड़े सुनियोजित तरीके से पेशबंदी करता है. चीनी मिलों को भीषण घाटे में बताया जाता है. जबकि असलियत यह है कि चीनी मिल जबरदस्त फायदे में चल रही हैं. चीनी मिलों के मालिक केवल चीनी की बात बताते हैं, लेकिन गन्ने के प्रति-उत्पादों (बाई प्रोडेक्ट्स) से होने वाले फायदे की बात नहीं करते. एक क्विंटल चीनी से करीब दस किलो चीनी बनती है. इसके आलावा पांच किलो शीरा निकलता है. बैगास तीस किलो निकलती है. पांच किलो मैली निकलती है. खोई से बिजली बनती है और करोड़ों की बिजली बेची जाती है. निजी मिल मालिक अपना लाभ केवल चीनी की बिक्री से होने वाली आय में दिखाते हैं और प्रति-उत्पाद (बाई-प्रोडक्ट्स) से होने वाली करोड़ों की आय को ‘गोल’ कर जाते हैं. चीनी मिलों की अपनी डिस्टिलरी होती है, जहां अल्कोहल एथनॉल बनता है. चीनी मिलों में बिजली बनाई जाती है जो अपने उपयोग के अलावा बाहर बेची जाती है. खोई से गत्ते बनते हैं. मैली भी खाद के रूप में बेच दी जाती है. डिस्टिलरी से ही इतना लाभ होता है कि चीनी मिल मालिक कभी घाटे में नहीं रहते. घाटे का सुनियोजित झूठ सरकारों से ब्लैकमेलिंग का तरीका है. सरकारें भी इस झूठ को जानती हैं, लेकिन इस प्रहसन में नेता भी बराबर का किरदार निभाता है. इस प्रहसन के मंच पर सिंडिकेट (इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन) का कोई अधिकारी आकर कहता है, ‘चीनी उद्योग संकट के दौर से गुजर रहा है, इसलिए गन्ने का दाम नहीं बढ़ाया जाए.’ इस डायलॉग के डेलिवर हो जाने के बाद सत्ता प्रतिनिधि मंच पर अवतरित होता है और ‘चीनी उद्योग के संकट’ पर गुरु-गंभीर मुद्रा बना कर गन्ना मूल्य नहीं बढ़ाने या किसानों को 10 रुपए की भीख देने की घोषणा करने की संजीदगी दिखाने की ऐक्टिंग करता है. फिर नेपथ्य से सत्ता-स्वर गूंजता है और ‘संकटग्रस्त चीनी उद्योग’ को उबारने के लिए अरबों रुपए के ‘राहत-पैकेज’ की घोषणा होती है. कथित तौर पर घाटा झेल रही चीनी मिलों को ‘सांस’ लेने के लिए सरकार ‘ऑक्सीजन’ मुहैया कराती है. केंद्र सरकार ‘घाटे से घिरी’ चीनी मिलों को किसानों के बकाये का भुगतान करने के लिए बिना ब्याज का ऋण उपलब्ध कराती है और बेशकीमती बाई-प्रोडक्ट एथनॉल के उत्पादन पर लगने वाला केंद्रीय उत्पाद शुल्क भी हटा लेती है. इसी तरह के कई प्रदेशीय और केंद्रीय ‘ऑक्सीजन’ (रियायतों) से चीनी मिलें फलती-फूलती रहती हैं. गन्ना किसानों के बैंक खातों में उत्पादन सब्सिडी जमा कर भी सरकार चीनी उद्योगों को राहत देती है. लेकिन इसी तरह से किसानों को राहत देने बारे में सरकारें कभी नहीं सोचतीं. लोकतंत्र का प्रहसन ऐसे ही चलता रहता है और किसान फांसी पर झूलता रहता है.

Tuesday 31 October 2017

सरकारी वकीलों की नियुक्ति ले डूबी योगी सरकार की साख...

प्रभात रंजन दीन
सरकारी वकीलों की नियुक्ति में ईमानदारी, पारदर्शिता, नैतिकता और न्यायप्रियता की मंच पर खूब नौटंकी हुई और पर्दे के पीछे इन नैतिक-शब्दों को खूब फाड़ा गया. भाजपा के संगठन मंत्री सुनील बंसल ने अपने गुर्गों के साथ मिल कर सपाई शासनकाल के अधिकांश सरकारी वकीलों को योगी सरकार के मत्थे जड़ दिया और यूपी सरकार के कानूनी पक्ष का बंटाधार करके रख दिया. बंसल की सांगठनिक प्रतिबद्धता की यह मिसाल बेमिसाल है. इसके बाद जब विवाद ने तूल पकड़ा तब प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दायित्व से पल्ला झाड़ लिया. प्रदेश के कानून मंत्री बृजेश पाठक ने अनभिज्ञ बता कर खुद को ‘इन्नोसेंट’ साबित करने का प्रहसन खेला. महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह इस नियोजित-नौटंकी के सबसे चतुर-सुजान पात्र निकले. उन्होंने अपने लोगों की नियुक्ति भी करा ली और यह भी कह दिया कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति में उन्हें पूछा ही नहीं गया. फिर बड़े ही नियोजित तरीके से इस मामले को हाईकोर्ट पहुंचाया गया और हाईकोर्ट ने उसी अपेक्षा के मुताबिक तल्ख टिप्पणियां कीं, सरकारी वकीलों की नियुक्ति को रेवड़ी-वितरण प्रक्रिया बनाने पर सरकार की खिंचाई की और लिस्ट पर शीघ्र पुनर्विचार कर पुनर्नियुक्ति करने का फरमान जारी किया. हाईकोर्ट ने पुनर्नियुक्ति के लिए एक तरफ सरकार (महाधिवक्ता) को सख्त समय-सीमा में बांधने का उपक्रम किया लेकिन दूसरी तरफ सरकार को समय भी खूब दिया. महेंद्र सिंह पवार की जिस जनहित याचिका पर हाईकोर्ट त्वरित सुनवाई कर रही थी, उस कोर्ट ने याचिकाकर्ता से यह नहीं पूछा कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के लिए वे खुद आवेदक थे या नहीं? यदि यह सवाल उसी समय पूछ लिया जाता तो जनहित याचिका स्वीकृत होने के पहले ही कानून की कसौटी पर ढेर हो जाती. खैर, यह नौबत ही नहीं आने दी गई. सारा स्टेज जैसे पहले से सेट था. बड़े इत्मिनान से सारे गोट-बिसात, दांव-पेंच सोच समझ कर बिछाए गए और सरकारी वकीलों की पुनर्विचारित सूची फिर से जारी की गई. इस पुनर्विचारित सूची ने भ्रष्टाचार-गुटबाजी-भाई-भतीजावाद को पुनर्स्थापित कर दिया. अब हाईकोर्ट भी मौन है. जबकि सारी कवायद ही बेमानी साबित हुई है. पुरानी सूची को फिर से जारी किया गया. पसंद के खास-खास नए नाम शामिल किए गए. नापसंद के खास-खास नाम हटाए गए. अयोग्यों को ऊंचे पद दिए गए और योग्य से ऊंचे पद छीन लिए गए. व्यक्तिगत रंजिशें साधी गईं और अदालत को घटिया राजनीति का नुक्कड़ बना दिया गया. अदालत-क्षेत्र में आप यह चर्चा सरेआम सुनेंगे कि योगी सरकार के सरकारी वकील बंसल-राघवेंद्र प्राइवेट-लिमिटेड के मुलाजिम हैं. यह बंसल और राघवेंद्र की सांगठनिक प्रतिबद्धता का ही ‘कमाल’ है कि कांग्रेस पार्टी के प्रदेश मंत्री सुनील बाजपेयी और कांग्रेस के कट्टर कार्यकर्ता जगदीश प्रसाद मौर्य को अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता बना दिया जाता है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अवाक देखते रह जाते हैं!
सरकारी वकीलों के नियुक्ति-प्रकरण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो ढक्कन हो गया. संघ का यह मुगालता दूर हुआ कि सरकार संघ के बूते चलती है. संघ से जुड़े अधिवक्ता परिषद ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति और पुनर्नियुक्ति में भ्रष्टाचार और गुटबाजी की आधिकारिक शिकायत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से की है. अधिवक्ता परिषद ने कहा है कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के दुष्प्रयोग के कारण महत्वपूर्ण कानूनी मामलों में सरकार हार रही है और उसे शर्मिंदगी झेलनी पड़ रही है. महाधिवक्ता द्वारा की गई अवमानना के मामले से उबरने के लिए सरकार को लाखों रुपए खर्च करने पड़े. अदालत में सरकार का पक्ष लेने के बजाय महाधिवक्ता सरकार के विरोध में खड़े होकर अपनी योग्यता का परिचय देते हैं और सरकार की नाक कटवाते हैं. अधिवक्ता परिषद ने मुख्यमंत्री से कहा है कि महाधिवक्ता ने अपने ही जूनियर से रिट दाखिल करवाकर सरकारी वकीलों की नियुक्ति का एकाधिकार हासिल करने का रास्ता निकाला और कर्मठ कार्यकर्ताओं और योग्य अधिवक्ताओं को मनमाने ढंग से हटाकर अपमानित किया. अधिवक्ता परिषद का आरोप है कि महाधिवक्ता ने ‘बार’ के चुनाव में उनका समर्थन न करने या उनकी चाटुकारिता नहीं करने वाले वकीलों को सरकारी अधिवक्ता के पदों से हटाया. इसके अलावा उन्होंने मुख्यमंत्री को अंधेरे में रख कर सपा और बसपा के कार्यकाल में सरकारी वकील रह चुके अधिवक्ताओं की टीम बनाकर अपना गुट खड़ा कर लिया. महाधिवक्ता के इस आचरण के खिलाफ प्रदेशभर में संघ और संगठन के कार्यकर्ता अधिवक्ताओं में काफी नाराजगी है और वे प्रदेशभर में व्यापक आंदोलन शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं. इससे सरकार की छवि भी धूमिल हो रही है और न्यायालय में काम करने का माहौल भी नष्ट हो रहा है. अधिवक्ता परिषद का कहना है कि राघवेन्द्र सिंह ऐसे नायाब महाधिवक्ता हैं जिन्हें हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अवमानना की नोटिस देकर व्यक्तिगत रूप से उपस्थित कराया गया और अटॉर्नी जनरल के माफी मांगने के बाद ही छोड़ा गया.
बहरहाल, तमाम विवाद और बदनामियों के बावजूद सरकारी वकीलों की जो पुनरीक्षित सूची जारी की गई, वह पुरानी सूची से और भी गई-गुजरी है. प्रदेश सरकार ने पिछले दिनों 234 सरकारी वकीलों की पुनरीक्षित सूची जारी की, उसमें भी सपा ओर बसपा सरकारों में सरकारी वकील रहे अधिवक्ताओं की भरमार है. नई सूची में तो उन्हें और भी महिमामंडित किया गया और उन्हें तरक्की दी गई. अधिवक्ता परिषद के प्रदेश कोषाध्यक्ष एवं योग्य अधिवक्ता श्रीप्रकाश सिंह को मुख्य स्थाई अधिवक्ता (प्रथम) के पद से हटा दिया गया और उन्हें सूची में कहीं भी जगह नहीं दी गई. इसी तरह संघ और अधिवक्ता परिषद से जुड़े नितिन माथुर, विनोद कुमार शुक्ला, अमरेंद्र प्रताप सिंह, अनिल चौबे और अमर बहादुर सिंह को एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल के पद से डिमोट कर स्टैंडिंग काउंसिल बना दिया गया. दिनेशचंद्र त्रिपाठी, सर्वेश मिश्रा और मनोज कुमार त्रिवेदी को स्टैंडिंग काउंसिल के पद से डिमोट करके ब्रीफ होल्डर बना दिया गया. कई ऐसे नामों को फिर से सूची में स्थान दे दिया गया, जिन्हें (सात जुलाई को बनी) पिछली लिस्ट से हटा दिया गया था. भाजपा और संघ की विचारधारा से सम्बद्ध दर्जनों सरकारी वकीलों को पुनरीक्षण के नाम पर हटा दिया गया और कुछ लोगों को अपमानित कर नीचे के पदों पर खिसका दिया गया. नई सूची में तीन मुख्य स्थाई अधिवक्ता, 32 अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, 58 स्टैंडिंग काउंसिल, 99 वाद धारक सिविल मामलों और 42 वाद धारक क्रिमिनल मामलों के लिए नियुक्त किए गए हैं. मुख्य स्थाई अधिवक्ता के तीन पदों में विनय भूषण को शामिल किया गया है. वे सपा सरकार में अपर स्थाई अधिवक्ता थे. इसके अलावा अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता के 32 पदों पर आधे से अधिक सपा या बसपा के समय रहे सरकारी वकीलों को जगह दी गई है. इनमें अभिनव एन त्रिपाठी, रणविजय सिंह, पंकज नाथ, देवेश चंद्र पाठक, विवेक शुक्ला, दीपशिखा, अजय अग्रवाल, अमिताभ कुमार राय, आलोक शर्मा, मंजीव शुक्ला, एचपी श्रीवास्तव, जगदीश प्रसाद मौर्या, हेमेंद्र कुमार भट्ट, शत्रुघ्न चौधरी, पंकज खरे और राहुल शुक्ला वगैरह शामिल हैं. इन नामों पर भाजपा और संघ में घोर विरोध था, लेकिन महाधिवक्ता ने इसे दरकिनार कर इन्हें नियुक्त कर दिया.
स्टैंडिंग काउंसिल के पद पर पहले की सरकारों में तैनात रहे अनिल कुमार चौबे, प्रत्युश त्रिपाठी, अखिलेश कुमार श्रीवास्तव, आनंद कुमार सिंह, पारुल बाजपेयी, शोभित मोहन शुक्ला, मनु दीक्षित, मनीष मिश्रा, अनुपमा सिंह, आशुतोष सिंह, कमर हसन रिजवी, संजय सरीन, विनायक सक्सेना, विनय कुमार सिंह, प्रफुल्ल कुमार यादव, शरद द्विवेदी, पुष्कर बघेल, ज्ञानेंद्र कुमार श्रीवास्तव और अनिल कुमार सिंह विशेन को फिर जगह दी गई है. वाद धारक (ब्रीफ होल्डर) के पद पर भी काफी संख्या में उन्हीं वकीलों को जगह मिली जो पिछली सरकार में सरकारी वकील थे. उल्लेखनीय है कि योगी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद जुलाई महीने में जब सरकारी वकीलों की नियुक्ति हुई थी तब ‘चौथी दुनिया’ ने उन वकीलों के नाम प्रकाशित किए थे, जो समाजवादी पार्टी सरकार में सरकारी वकील थे या समाजवादी पार्टी के सक्रिय समर्थक थे. दूसरी बार ‘चौथी दुनिया’ ने फिर उन नामों को प्रकाशित किया जो यूपी के महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह की चौकड़ी के सदस्य थे. महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह के लोगों के नाम का प्रकाशन इसलिए भी जरूरी था क्योंकि वे यह आधिकारिक तौर पर कह चुके थे कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के बारे में उन्हें कुछ नहीं पता था. नियुक्ति प्रकरण के तूल पकड़ने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय में जब महाधिवक्ता तलब किए गए थे, तब उन्होंने क्षेत्रीय प्रचारक शिवनारायण के समक्ष यही कहा था कि उन्हें नियुक्तियों के बारे में कुछ नहीं पता.
पुनरीक्षण के बाद जो नई सूची बनी उसमें भी राघवेंद्र के लोग भरे हुए हैं. महाधिवक्ता के तीन खास लोग तो एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल के पद पर स्थापित किए गए हैं. इनमें रणविजय सिंह, प्रदीप कुमार सिंह और डॉ. उदयवीर सिंह शामिल हैं. पक्षपात का कानूनीकरण इस कदर किया गया कि रणविजय सिंह, जो पहली सूची में स्थाई अधिवक्ता (स्टैंडिंग काउंसिल) नियुक्त हुए थे, उन्हें इन्हीं तीन महीने के अंदर तरक्की देकर एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल बना दिया गया. चतुर खिलाड़ी राघवेंद्र सिंह ने इसका खास तौर पर ध्यान रखा कि रणविजय सिंह प्रदेश सरकार के अपर विधि परामर्शी (एडिशनल एलआर) रणधीर सिंह के सगे भाई हैं. लिहाजा, यह ‘गोट’ राघवेंद्र के लिए जरूरी था. इस प्रभाव-वाद में कानूनी प्रक्रिया और प्रावधानों की इस कदर धज्जियां उड़ाई गईं कि पुनरीक्षण कमेटी का सदस्य नहीं होने के बावजूद रणविजय सिंह को सारी बैठकों में शामिल किया जाता रहा. जबकि महाधिवक्ता की अध्यक्षता वाली पुनरीक्षण कमेटी में न्याय विभाग के प्रमुख सचिव उमेश कुमार, गृह विभाग के प्रमुख सचिव अरविंद कुमार और मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव एसपी गोयल सदस्य थे.
नव-नियुक्त सरकारी वकीलों की लिस्ट में शुमार शैलेंद्र कुमार सिंह मुख्य स्थाई अधिवक्ता (तृतीय), रामप्रताप सिंह चौहान अपर मुख्य स्थाई अधिवक्त, राजेश तिवारी स्थाई अधिवक्ता, आनंदकुमार सिंह स्थाई अधिवक्ता, कुलदीप सिंह स्थाई अधिवक्ता, देवी प्रसाद सिंह स्थाई अधिवक्ता, राजेश कुमार सिंह स्थाई अधिवक्ता, अनुपमा सिंह स्थाई अधिवक्ता, आशुतोष सिंह स्थाई अधिवक्ता, जयवर्धन सिंह वाद-धारक (ब्रीफ-होल्डर), संजय कुमार सिंह वाद-धारक, सोमा रानी वाद-धारक, वीरेंद्र सिंह वाद-धारक, दीपक कुमार सिंह वाद-धारक, संतोष कुमार सिंह वाद-धारक, शिशिर सिंह चौहान वाद-धारक, धीरज राज सिंह वाद-धारक, सभाजीत सिंह वाद-धारक, श्याम बहादुर सिंह वाद-धारक और अंशुमान वर्मा वाद-धारक प्रदेश के महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह के कोटे वाले सरकारी अधिवक्ता हैं. महाधिवक्ता ने अपने खास आदमी उदयवीर सिंह को स्थाई अधिवक्ता से पद से प्रमोट करते हुए उन्हें अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता बना दिया, जबकि उदयवीर सिंह की योग्यता पर अदालत परिसर में चुटकुले चला करते हैं. भाजपा लीगल सेल के कुलदीप पति त्रिपाठी सरकारी वकीलों की नियुक्ति के लिए संगठन की तरफ से लिस्ट बनाने के काम में लगे थे, वे खुद अपर महाधिवक्ता बन बैठे. कुलदीप पति त्रिपाठी पर वकीलों ने घूस लेने और घूस की रकम संदीप बंसल तक पहुंचाने के आरोप लगाए हैं. 2001 बैच के वकील कुलदीप पति त्रिपाठी को इतने महत्वपूर्ण पद पर बिठाए जाने का कोई न कोई ठोस कारण तो रहा ही होगा. सरकारी वकीलों की पहली सूची में शामिल रहीं शिखा सिन्हा को महज इसलिए हटा दिया गया कि वे महाधिवक्ता की चाटुकार-चौकड़ी में शामिल नहीं थीं. सपा सरकार के समय से तैनात अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता राहुल शुक्ला, अभिनव एन. त्रिपाठी, देवेश पाठक, पंकज नाथ और विवेक शुक्ला को ताजा सूची में भी जारी रखा गया है. स्टैंडिंग काउसिंल के पदों पर भी सपा सरकार के समय से तैनात सरकारी वकीलों को फिर से जारी रखा गया है. इनमें शोभित मोहन शुक्ला, नीरज चौरसिया, मनु दीक्षित वगैरह के नाम प्रमुख हैं. ब्रीफ होल्डर के पद पर भी सपाई वकीलों को जारी रखा गया है. आपको याद ही होगा कि रामजन्म भूमि मुकदमे से जुड़ी वकील रंजना अग्निहोत्री ने बंसल-राघवेंद्र गठजोड़ के खिलाफ सरकारी वकील के पद से इस्तीफा दे दिया था. भाजपा की प्रदेश मीडिया प्रभारी रह चुकीं अनीता अग्रवाल ने भी सरकारी वकील के पद पर अपनी ज्वाइनिंग देने से इंकार कर दिया था. उन्होंने कहा था कि वे भाजपा से पिछले 30 साल से जुड़ी रही हैं. उनकी उपेक्षा कर उनसे काफी जूनियर वकीलों को अपर महाधिवक्ता बना दिया गया है. ऐसे में वह स्टैंडिग काउंसिल के पद पर कार्य नहीं कर सकतीं. अधिवक्ता परिषद की डॉ. दीप्ति त्रिपाठी ने भी परिषद के वकीलों और महिला वकीलों की अनदेखी किए जाने के कारण सरकारी वकील का पद अस्वीकार कर दिया था.
सरकारी वकीलों की नियुक्ति में जज-आश्रितों को किस तरह आश्रय दिया गया, उसका ब्यौरा भी देखते चलें. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अशोक भूषण के भाई विनय भूषण को मुख्य स्थाई अधिवक्ता (द्वितीय) बनाया गया. विनय भूषण समाजवादी पार्टी के शासनकाल में अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता थे. अब इन्हें तरक्की देकर स्थाई अधिवक्ता नियुक्त कर दिया गया है. इसी तरह जस्टिस बीके नारायण के बेटे एनके सिन्हा नारायण और बहू आनंदी के नारायण दोनों को सरकारी वकील नियुक्त कर दिया गया. इनके अलावा जस्टिस केडी शाही के बेटे विनोद कुमार शाही को अपर महाधिवक्ता बनाया गया है. जस्टिस आरडी शुक्ला के बेटे राहुल शुक्ला अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, स्व. जस्टिस एएन त्रिवेदी के बेटे अभिनव त्रिवेदी अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, जस्टिस रंगनाथ पांडेय के रिश्तेदार देवेश चंद्र पाठक अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, जस्टिस शबीहुल हसनैन के रिश्तेदार कमर हसन रिजवी अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, जस्टिस एसएन शुक्ला के रिश्तेदार विवेक कुमार शुक्ला अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, जस्टिस रितुराज अवस्थी के रिश्तेदार प्रत्युष त्रिपाठी स्थाई अधिवक्ता और जस्टिस राघवेंद्र कुमार के पुत्र कुमार आयुष वाद-धारक नियुक्त किए गए हैं. नई सूची में जस्टिस यूके धवन के बेटे सिद्धार्थ धवन और जस्टिस एसएस चौहान के बेटे राजीव सिंह चौहान को एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल बनाया गया है. पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी के बेटे नीरज त्रिपाठी को इलाहाबाद हाईकोर्ट का अपर महाधिवक्ता बनाया गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले के बेटे करन दिलीप भोसले को अखिलेश सरकार ने नियुक्त किया था, योगी सरकार ने भी उसे जारी रखने की ‘अनुकम्पा’ कर दी. ऐसे उदाहरण कई हैं. सरकारी वकीलों की नियुक्ति से सरकार की साख इतनी गिर गई है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के दोनों परिसरों (इलाहाबाद और लखनऊ) में जजों के रिश्तेदारों को जज-आश्रित कह कर बुलाया जाता है और तमाम कटाक्ष हो रहे हैं. नियुक्ति प्रसंग में जज भी खूब रुचि ले रहे थे. सरकारी वकीलों की लिस्ट में जज-आश्रितों की खासी संख्या इस बात की आधिकारिक सनद है.
आपको फिर से याद दिलाते चलें कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के लिए योग्य वकीलों की लिस्ट बनाने का जिम्मा प्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री सुनील बंसल ने संभाली थी. उनका साथ दे रहे थे उन्हीं की टीम के खास सदस्य अशोक कटारिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से अलग से लिस्ट बनाई जा रही थी. अधिवक्ता परिषद की तरफ से भी योग्य वकीलों की लिस्ट बनाई जा रही थी. दूसरी तरफ कानून विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय भी रंगीन खिचड़ी पका रहे थे, किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी. लेकिन नियुक्ति के बाद जो लिस्ट बाहर आई उसने बंसल और प्रमुख सचिव की पोल खोल कर रख दी. यह उजागर हुआ कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति में पैरवी और घूसखोरी जम कर चली जिसका परिणाम यह हुआ कि संगठन और सरकार की प्रतिष्ठा को ताक पर रख कर तमाम पैरवी-पुत्रों, जज-आश्रितों, मंत्री और महाधिवक्ता के गुट के लोगों और समाजवादी सरकार के समय के अधिकांश सरकारी वकीलों को फिर से नियुक्त कर दिया गया. योग्यता का मापदंड बहुत पीछे छूट गया. सरकारी वकीलों की लिस्ट में जजों के बेटे और नाते-रिश्तेदारों को शामिल कर कानून विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय खुद जज बन गए और बड़ी बुद्धिमानी से पर्दे के पीछे चले गए. अधिवक्ता सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव ने रंगनाथ पांडेय की करतूतों का पूरा कच्चा चिट्ठा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भेजा था. इसकी प्रतिलिपि इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के अलावा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भी भेजी गई थी. पीएमओ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस मामले की गहराई से जांच कराने को भी कहा था. लेकिन यह सब ढाक के तीन पात ही साबित हुआ. श्रीवास्तव की शिकायत में यह स्पष्ट लिखा है कि विधि विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय पद का दुरुपयोग कर और विधाई संस्थाओं को अनुचित लाभ देकर हाईकोर्ट के जज बने हैं. पांडेय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट और लखनऊ बेंच में सरकारी वकीलों की नियुक्ति को अपनी तरक्की का जरिया बनाया. नियुक्ति प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मानकों की पूरी तरह अनदेखी की. खुद जज बनने के लिए सारी सीमाएं लांघीं. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के रिश्तेदारों को सरकारी वकीलों की लिस्ट में शामिल किया और एवज में जज का पद पा लिया. रिश्वतखोरी की यह नायाब घटना है.
जिस तरह सरकारी वकीलों की नियुक्ति चर्चा और विवादों में है, उसी तरह प्रदेश का महाधिवक्ता चुनने में भी तमाम किस्म की सियासी नौटंकियां हुई थीं. प्रदेश सरकार का उहापोही चरित्र महाधिवक्ता के चयन में उजागर हो गया था. कभी शशि प्रकाश सिंह यूपी के महाधिवक्ता बनाए जा रहे थे तो कभी महेश चतुर्वेदी. अंदर-अंदर राघवेंद्र सिंह भी लगे थे और उन्होंने सुनील बंसल को पकड़ रखा था. एक समय तो यह भी आया, जब राज्य सरकार ने आधिकारिक तौर पर कह दिया कि हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के वरिष्ठ अधिवक्ता शशि प्रकाश सिंह प्रदेश के महाधिवक्ता होंगे. 27 मार्च 2017 को यह फैसला हुआ और कहा गया कि 28 मार्च को इसकी बाकायदा घोषणा होगी. तमाम अखबारों में शशि प्रकाश सिंह के महाधिवक्ता बनने की खबरें और उनकी तस्वीरें भी छप गईं. लेकिन सरकार ने औपचारिक घोषणा नहीं की. शशि प्रकाश सिंह को संघ का समर्थन प्राप्त था. वे संघ के अनुषांगिक संगठन अधिवक्ता परिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और परिषद की यूपी इकाई के अध्यक्ष रहे हैं. लेकिन महाधिवक्ता की नियुक्ति में भी संघ की नहीं चली. विधानसभा चुनाव लड़ना चाह रहे पूर्व सांसद राघवेंद्र सिंह को पार्टी ने विधायकी का टिकट नहीं दिया था. सुनील बंसल ने इसके एवज में उन्हें प्रदेश का महाधिवक्ता बनाने में भूमिका अदा की. इसीलिए अधिवक्ता जगत में चर्चा है कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति सुनील बंसल और राघवेंद्र सिंह की आपसी समझदारी और साठगांठ से हुई है. महाधिवक्ता पद के लिए कतार में खड़े महेश चतुर्वेदी और रमेश कुमार सिंह जैसे वरिष्ठों को अपर महाधिवक्ता का पद लेकर संतुष्ट होना पड़ा. महेश चतुर्वेदी बसपा सरकार में मुख्य स्थाई अधिवक्ता थे. रमेश सिंह राजनाथ सिंह के शासनकाल में प्रदेश के अपर महाधिवक्ता थे.

मुख्यमंत्री के आदेश को भी ठेंगा दिखाने में कोई झिझक नहीं
महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आदेश की भी कोई परवाह नहीं की. मुख्यमंत्री का स्पष्ट आदेश था कि एचपी श्रीवास्तव को एडिशनल चीफ स्टैडिंग काउंसिल के पद से हटाया जाए. लेकिन इस आदेश को महाधिवक्ता ने ताक पर रख दिया और पुनरीक्षित सूची में भी एचपी श्रीवास्तव को एडिशनल चीफ स्टैडिंग काउंसिल के बतौर शामिल कर लिया. प्रदेश के कुछ महत्वपूर्ण कानूनी मामले में सरकार की किरकिरी कराने के कारण मुख्यमंत्री ने श्रीवास्तव को तत्काल प्रभाव से हटाने का आदेश दिया था. सत्ता गलियारे के शीर्ष सूत्र बताते हैं कि मुख्यमंत्री का आदेश सरकार के विधि परामर्शी (एलआर) के दफ्तर में दबा दिया गया है. यहां फिर से जिक्र करना जरूरी है कि यूपी सरकार के अपर विधि परामर्शी (एडिशनल एलआर) ) रणधीर सिंह के सगे भाई रणविजय सिंह को महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह ने एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल बना दिया है. स्वाभाविक है कि राघवेंद्र ने यह सब सोच-समझ कर ही किया होगा. राघवेंद्र और एचपी श्रीवास्तव के बड़े पुराने गहरे सम्बन्ध रहे हैं. सरकारी वकील होते हुए भी एचपी श्रीवास्तव अपने मित्र राघवेंद्र के लिए अपनी पेशेगत-प्रतिबद्धता को ताक पर रखते रहे हैं.

जब महाधिवक्ता ने भरी अदालत में कटाई योगी सरकार की नाक
उत्तर प्रदेश के महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह ने भरी अदालत में योगी सरकार की किरकिरी कराई तो उनकी योग्यता को लेकर तमाम सवाल उठने लगे. मामला वर्ष 2007 में गोरखपुर में हुए एक दंगे को लेकर था और खुद योगी आदित्यनाथ उसके घेरे में थे. इस मामले में सुनवाई के दौरान इलाहाबाद हाईकोर्ट में महाधिवक्ता की हरकतों के कारण प्रदेश सरकार की खूब फजीहत हुई.
सुनवाई के दौरान यह मुद्दा उठा था कि अगर सरकार किसी के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी देने से इंकार कर दे तो क्या सरकार के फैसले को दरकिनार कर कोई मजिस्ट्रेट मामले की सुनवाई कर सकता है? उत्तर प्रदेश के अपर महाधिवक्ता (एडिशनल एडवोकेट जनरल) मनीष गोयल और सरकार की तरफ से पैरवी के लिए आए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील अजय कुमार मिश्र सरकार के पक्ष में दलील दे रहे थे. बहस के दौरान ही महाधिवक्ता (एडवोकेट जनरल) राघवेंद्र सिंह खड़े हो गए और उन्होंने अपने ही सहयोगियों की दलील को काटना शुरू कर दिया. महाधिवक्ता के इस रवैये से पूरी कोर्ट सकते में आ गई. सुनवाई कर रहे न्यायाधीश कृष्ण मुरारी और एसी शर्मा भी हैरत में आ गए और उन्होंने महाधिवक्ता से पूछ ही लिया कि कोर्ट सरकार की तरफ से आए एडिशनल एडवोकेट जनरल और सुप्रीम कोर्ट के वकील की बात सही माने या फिर एडवोकेट जनरल की बात को सही माना जाए! हाईकोर्ट ने कटाक्ष करते हुए कहा, ‘आप दोनों पहले फैसला कर लें कि आप लोग कहना क्या चाहते हैं. आप लोग खुद ही एक राय नहीं हैं’. अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार के महाधिवक्ता को ‘महत्वपूर्ण और गंभीर मामले में’ अदालत में हाजिर नहीं रहने के लिए फटकार भी लगाई. हाईकोर्ट ने सरकार के वकीलों के बरताव से नाराज होते हुए कहा था, ‘हम एडवोकेट जनरल के खिलाफ रिस्ट्रेंट ऑर्डर पास कर रहे हैं. आपकी राय अपने सहयोगी वकीलों से अलग है, जबकि यह बेहद गंभीर मामला है. आप ज्यादातर समय लखनऊ में रहते हैं जबकि एडवोकेट जनरल का मुख्य कार्यालय इलाहाबाद में है’. अदालत ने इस बात को संज्ञान में लिया था कि यूपी सरकार के वकीलों के पास मूल याचिका में बदलाव के विरोध में कोई ‘ठोस सबूत’ नहीं है.

Thursday 5 October 2017

चीनी मिल घोटालाः मायावती के खिलाफ योगी की जांच, जेटली को क्यों लगी आंच..?

प्रभात रंजन दीन
मायावती के मसले पर उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार दोनों अलग-अलग स्टैंड पर खड़ी है. मायावती को कानून के शिकंजे में कसने की योगी कोशिश कर रहे हैं तो जेटली उसमें अड़ंगा डाल रहे हैं. इसे राजकीय भाषा में ऐसे कहें कि यूपी सरकार बसपाई शासनकाल के घोटालों की जांच कराने का निर्णय लेती है तो केंद्र सरकार उसे कानूनी तौर पर बेअसर कर देती है. मायावती और अरुण जेटली के बीच कोई रहस्यमय समझदारी है या केंद्र की मोदीनीत भाजपा सरकार भविष्य के लिए मायावती को ‘रिजर्व’ में रखना चाहती है? कहीं जेटली को आगे रख कर मोदी मायावती को बचाने की कोशिश तो नहीं कर रहे? भाजपाइयों को ही यह बात समझ में नहीं आ रही है. इस गुत्थी के निहितार्थ योगी के भी पल्ले नहीं पड़ रहे.
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी सरकार के छह महीने पूरे होने पर जारी श्वेत-पत्र में भी प्रदेश की करीब दो दर्जन चीनी मिलों को बेचे जाने में हुए अरबों रुपए के घोटाले का उल्लेख किया है. इसके पहले अप्रैल महीने में योगी ने चीनी मिलों के बिक्री-घोटाले की जांच कराए जाने की घोषणा की थी. लेकिन अरुण जेटली के कॉरपोरेट अफेयर मंत्रालय ने इस मामले में कानूनी रायता बिखेर दिया. आप यह जानते ही हैं कि जेटली वित्त के साथ-साथ कॉरपोरेट अफेयर विभाग के भी मंत्री हैं. नॉर्थ-ब्लॉक गलियारे के एक आला अधिकारी कहते हैं कि यूपी की चीनी-मिलों को कौड़ियों के मोल बेच डालने के मामले में सुप्रीम कोर्ट से आखिरी फैसला आना बाकी है, लेकिन कॉरपोरेट अफेयर मंत्रालय के राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग (कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया) ने जो कानूनी रोड़े खड़े किए हैं, उससे घोटाला साबित होने में मुश्किल होगी. चीनी मिल बिक्री घोटाले से मायावती को बेदाग बाहर निकालने की समानान्तर किलेबंदी कर दी गई है. योगी जी को ध्यान रखना होगा कि यह किलेबंदी उन्हीं की पार्टी की केंद्र में बैठी सरकार ने की है.
चीनी मिलों के विक्रय-प्रकरण का पिटारा खुलेगा तो भाजपा की भी संलिप्तता उजागर होगी. सपा की भूमिका से भी पर्दा हटेगा. भाजपा इस वजह से भी इस मामले को ढंके रहना चाहती है और योगी इस वजह से भी इसे उजागर करने में रुचि ले रहे हैं. चीनी मिलों को बेचने की शुरुआत भाजपा के ही शासनकाल में हुई थी. भाजपा सरकार ने ही चीनी-मिलों पर गन्ना किसानों और किसान समितियों की पकड़ कमजोर करने और बिखेरने का काम किया था. चीनी मिलें बेचने की शुरुआत तत्कालीन भाजपा सरकार ने की थी, सपा ने अपने कार्यकाल में इसे आगे बढ़ाया और बसपा ने इसे पूरी तरह अंजाम पर ला दिया. इसकी हम विस्तार से आगे चर्चा करेंगे. अभी यह बताते चलें कि मायावती के कार्यकाल में चीनी मिलों को औने-पौने भाव में कुछ खास पूंजी घरानों को बेचे जाने के मामले की जांच की घोषणा योगी सरकार ने सत्तारूढ़ होने के महीनेभर बाद ही अप्रैल महीने में कर दी थी. इस घोषणा से केंद्र सरकार फौरन सक्रिय हो गई और कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) ने अगले ही महीने यानि, मई महीने में ही अपना फैसला सुनाकर योगी सरकार को झटके में ला दिया. कमीशन ने साफ-साफ कहा कि मायावती सरकार ने उत्तर प्रदेश की सहकारी चीनी मिलों की बिक्री में कोई गड़बड़ी नहीं की. कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया, यानि राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग भारत की संवैधानिक अधिकार प्राप्त विनियामक संस्था है. आयोग ने चार मई 2017 को दिए अपने फैसले में कहा है कि ऐसा कोई भी सबूत नहीं मिला है जिसमें कहीं कोई गड़बड़ी पाई गई हो. चीनी मिलों की बिक्री में अपनाई गई प्रक्रिया आयोग की नजर में पूरी तरह पारदर्शी है. आयोग ने यह भी कहा है कि नीलामी से किसी भी पार्टी को रोका नहीं गया और न किसी को धमकी ही दी गई. इस फैसले पर राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग के चेयरमैन देवेंद्र कुमार सीकरी और सदस्य न्यायमूर्ति जीपी मित्तल, यूसी नाहटा और ऑगस्टीन पीटर के हस्ताक्षर हैं.
आप मजा देखिए, सियासत जिस जगह नाक घुसेड़ दे, वहां क्या हाल कर देती है. संवैधानिक अधिकार प्राप्त केंद्र सरकार की दो संस्थाएं चीनी मिल बिक्री घोटाले में मायावती की संलिप्तता को लेकर दो अलग-अलग परस्पर-विरोधी दिशा में खड़ी हैं. महालेखाकार (सीएजी) की जांच रिपोर्ट कहती है कि चीनी मिलों की बिक्री में घनघोर अनियमितता हुई, लेकिन प्रतिस्पर्धा आयोग कहता है कि बिक्री में कोई अनियमितता नहीं हुई. कैग की जांच रिपोर्ट पहले आ गई थी, आयोग का फैसला अभी हाल में आया है. दो परस्पर-विरोधी रिपोर्टें देख कर आम नागरिक क्या धारणा बनाए और किस जगह खड़ा हो! यह विषम स्थिति है. राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग का 103 पेज का फैसला ‘चौथी दुनिया’ के पास है. इस फैसले को पढ़ें तो यह अपने आप में ही तमाम विरोधाभासों से भरा पड़ा है.
राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग के डायरेक्टर जनरल (डीजी) नितिन गुप्ता ने उत्तर प्रदेश की 10 चालू और 11 बंद चीनी मिलों को बेचे जाने के मामले की गहराई से छानबीन की थी. इस छानबीन में भी चीनी मिलें खरीदने वाले पूंजीपति पौंटी चड्ढा की कंपनी के साथ नीलामी में शामिल अन्य कंपनियों की साठगांठ आधिकारिक तौर पर पुष्ट हुई. यह पाया गया कि नीलामी में शामिल कई कंपनियां पौंटी चड्ढा की ही मूल कंपनी से जुड़ी हैं, जबकि नीलामी की पहली शर्त ही यह थी कि एक मिल के लिए एक ही कंपनी नीलामी की निविदा-प्रक्रिया में शामिल हो सकती है. प्रतिस्पर्धा आयोग के डीजी ने अपनी छानबीन में पाया कि उत्तर प्रदेश राज्य चीनी निगम लिमिटेड की 10 चालू हालत की चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में पहले तो 10 कंपनियां शरीक हुईं, लेकिन आखिर में केवल तीन कंपनियां वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड, पीबीएस फूड्स प्राइवेट लिमिटेड और इंडियन पोटाश लिमिटेड ही रह गईं. चालू हालत की 10 चीनी मिलों को खरीदने के लिए आखिर में बचीं तीन कंपनियों में ‘गजब’ की समझदारी पाई गई. जिन मिलों को खरीदने में वेव की रुचि थी, वहां अन्य दो कंपनियों ने कम दर की निविदा (बिड-प्राइस) भरी और जिन मिलों में दूसरी कंपनियों को रुचि थी, वहां वेव ने काफी दम दर की निविदा दाखिल की. इस तरह बहराइच की जरवल रोड चीनी मिल, कुशीनगर की खड्डा चीनी मिल, मुजफ्फरनगर की रोहनकलां चीनी मिल, मेरठ की सकोती टांडा चीनी मिल और महराजगंज की सिसवां बाजार चीनी मिल समेत पांच चीनी मिलें इंडियन पोटाश लिमिटेड ने खरीदीं और अमरोहा चीनी मिल, बिजनौर चीनी मिल, बुलंदशहर चीनी मिल व सहारनपुर चीनी मिल समेत चार चीनी मिलें वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड को मिलीं. दसवीं चीनी मिल की खरीद में रोचक खेल हुआ. बिजनौर की चांदपुर चीनी मिल की नीलामी के लिए इंडियन पोटाश लिमिटेड ने 91.80 करोड़ की निविदा दर (बिड प्राइस) कोट की. पीबीएस फूड्स ने 90 करोड़ की प्राइस कोट की, जबकि इसमें वेव कंपनी ने महज 8.40 करोड़ की बिड-प्राइस कोट की थी. बिड-प्राइस के मुताबिक चांदपुर चीनी मिल खरीदने का अधिकार इंडियन पोटाश लिमिटेड को मिलता, लेकिन ऐन मौके पर पोटाश लिमिटेड नीलामी की प्रक्रिया से खुद ही बाहर हो गई. लिहाजा, चांदपुर चीनी मिल पीबीएस फूड्स को मिल गई. नीलामी प्रक्रिया से बाहर हो जाने के कारण इंडियन पोटाश की बिड राशि जब्त हो गई, लेकिन पीबीएस फूड्स के लिए उसने पूर्व-प्रायोजित-शहादत दे दी. राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग की जांच में यह भी तथ्य खुला कि पौंटी चड्ढा की कंपनी वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड और पीबीएस फूड्स प्राइवेट लिमिटेड, दोनों के निदेशक त्रिलोचन सिंह हैं. त्रिलोचन सिंह के वेव कंपनी समूह का निदेशक होने के साथ-साथ पीबीएस कंपनी का निदेशक और शेयरहोल्डर होने की भी आधिकारिक पुष्टि हुई. इसी तरह वेव कंपनी की विभिन्न सम्बद्ध कंपनियों के निदेशक भूपेंद्र सिंह, जुनैद अहमद और शिशिर रावत पीबीएस फूड्स के भी निदेशक मंडल में शामिल पाए गए. मनमीत सिंह वेव कंपनी में अतिरिक्त निदेशक थे तो पीबीएस फूड्स में भी शेयर होल्डर थे. इस तरह वेव कंपनी और पीबीएस फूड्स की साठगांठ और एक ही कंपनी का हिस्सा होने का दस्तावेजी तथ्य सामने आया. यहां तक कि वेव कंपनी और पीबीएस फूड्स द्वारा निविदा प्रपत्र खरीदने से लेकर बैंक गारंटी दाखिल करने और स्टाम्प पेपर तक के नम्बर एक ही क्रम में पाए गए. आयोग के डीजी ने अपनी जांच रिपोर्ट में लिखा है कि दोनों कंपनियां मिलीभगत से काम कर रही थीं, जो कम्पीटीशन एक्ट की धारा 3 (3) (ए) और 3 (3) (डी) का सीधा-सीधा उल्लंघन है. चालू हालत की 10 चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में शामिल होकर आखिरी समय में डीसीएम श्रीराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड, द्वारिकेश शुगर इंडस्ट्रीज लिमिटेड, लक्ष्मीपति बालाजी शुगर एंड डिस्टिलरीज़ प्राइवेट लिमिटेड, पटेल इंजीनियरिंग लिमिटेड, त्रिवेणी इंजीनियरिंग एंड इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड, एसबीईसी बायोइनर्जी लिमिटेड और तिकौला शुगर मिल्स लिमिटेड जैसी कंपनियों के भाग खड़े होने का मामला भी रहस्य के घेरे में ही है. हालांकि आयोग ने अपनी जांच में इस पर कोई टिप्पणी नहीं की.
उत्तर प्रदेश राज्य चीनी एवं गन्ना विकास निगम लिमिटेड की प्रदेश में बंद पड़ी 11 चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में भी ऐसा ही कुछ ‘खेल’ हुआ. नीलामी की औपचारिकताओं में कुल 10 कंपनियां शरीक हुईं, लेकिन आखिरी समय में तीन कंपनियां मेरठ की आनंद ट्रिपलेक्स बोर्ड लिमिटेड, वाराणसी की गौतम रियलटर्स प्राइवेट लिमिटेड और नोएडा की श्रीसिद्धार्थ इस्पात प्राइवेट लिमिटेड मैदान छोड़ गईं. जो कंपनियां रह गईं उनमें पौंटी चड्ढा की कंपनी वेव इंडस्ट्रीज़ के साथ नीलगिरी फूड्स प्राइवेट लिमिटेड, नम्रता, त्रिकाल, गिरियाशो, एसआर बिल्डकॉन व आईबी ट्रेडिंग प्राइवेट लिमिटेड शामिल थीं और इनमें भी आपस में खूब समझदारी थी. नीलगिरी फूड्स ने बैतालपुर, देवरिया, बाराबंकी और हरदोई चीनी मिलों के लिए निविदा दाखिल की थी, लेकिन आखिर में बैतालपुर चीनी मिल छोड़ कर उसने अन्य से अपना दावा वापस कर लिया. इसके लिए उसे जमानत राशि भी गंवानी पड़ी. बैतालपुर चीनी मिल खरीदने के बाद नीलगिरी ने उसे भी कैनयन फाइनैंशियल सर्विसेज़ लिमिटेड के हाथों बेच डाला. इसी तरह त्रिकाल ने भटनी, छितौनी और घुघली चीनी मिलों के लिए निविदा दाखिल की थी, लेकिन आखिरी समय में जमानत राशि गंवाते हुए उसने छितौनी और घुघली चीनी मिलों से अपना दावा हटा लिया. वेव कंपनी ने भी बरेली, रामकोला और शाहगंज की बंद पड़ी चीनी मिलों को खरीदने के लिए निविदा दाखिल की थी. लेकिन उसने बाद में बरेली और रामकोला से अपना दावा छोड़ दिया और शाहगंज चीनी मिल खरीद ली. बाराबंकी, छितौनी और रामकोला की बंद पड़ी चीनी मिलें खरीदने वाली कंपनी गिरियाशो और बरेली, हरदोई, लक्ष्मीगंज और देवरिया की चीनी मिलें खरीदने वाली कंपनी नम्रता में वही सारी संदेहास्पद-समानताएं पाई गईं जो वेव इंडस्ट्रीज़ और पीबीएस फूड्स लिमिटेड में पाई गई थीं. यह भी पाया गया कि गिरियाशो, नम्रता और कैनयन, इन तीनों कंपनियों का दिल्ली के सरिता विहार में एक ही पता है. बंद पड़ी 11 चीनी मिलें खरीदने वाली सभी कंपनियां एक-दूसरे से जुड़ी हुई पाई गईं, खास तौर पर वे पौंटी चड्ढा की वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड से सम्बद्ध पाई गईं. लेकिन विडंबना यह है कि राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने अपने ही डीजी की छानबीन को किनारे लगा दिया और फैसला सुना दिया कि यूपी की 21 चीनी मिलों की नीलामी प्रक्रिया में किसी तरह की गड़बड़ी और साठगांठ साबित नहीं पाई गई. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग के इस फैसले को अभी नहीं माना है. कानून के विशेषज्ञ कहते हैं कि आयोग के जरिए केंद्र सरकार ने कानूनी पचड़ा फंसाने की कोशिश तो की है, लेकिन आयोग के डीजी की छानबीन रिपोर्ट भी सुप्रीम कोर्ट की निगाह में है.

नौकरशाहों ने दलालों की तरह काम किया
एक तरफ प्रतिस्पर्धा आयोग कहता है कि चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में कोई अनियमितता नहीं हुई, दूसरी तरफ अगर दस्तावेज देखें तो धांधली साफ-साफ दिखाई देती है. चीनी मिलों की अरबों की चल-अचल सम्पत्ति को कौड़ियों के भाव बेच दिया जाना घोर भ्रष्टाचार की सनद देता है. महालेखाकार की छानबीन में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि चीनी मिलों की विक्रय-प्रक्रिया में शामिल नौकरशाहों ने पूंजी-प्रतिष्ठानों के दलालों की तरह काम किया. सीएजी का मानना है कि निविदा की प्रक्रिया शुरू होने के पहले ही यह तय कर लिया गया था कि चीनी मिलें किसे बेचनी हैं. निविदा में भाग लेने वाली कुछ खास कंपनियों को सरकार की बिड-दर पहले ही बता दी गई थी और प्रक्रिया के बीच में भी अपनी मर्जी से नियम बदले गए. मिलों की जमीनें, मशीनें और उपकरणों की कीमत निर्धारित करने में मनमानी की गई. बिक्री के बाद रजिस्ट्री के लिए स्टाम्प ड्यूटी भी कम कर दी गई. कैग का कहना है कि चीनी मिलें बेचने में सरकार को 1179.84 करोड़ रुपए का सीधा नुकसान हुआ. यानि, उत्तर प्रदेश राज्य चीनी निगम लिमिटेड की चालू हालत की 10 चीनी मिलों को बेचने पर सरकार को 841.54 करोड़ का नुकसान हुआ और उत्तर प्रदेश राज्य चीनी एवं गन्ना विकास निगम लिमिटेड की बंद 11 चीनी मिलों को बेचने की प्रक्रिया में 338.30 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ.

मायावती की करतूतों को अखिलेश ने लीपा पोता
चीनी मिल विक्रय घोटाला क्या, अखिलेश सरकार ने मायावती के कार्यकाल के सारे घपले-घोटालों को अपने कार्यकाल में खूब लीपा पोता. महालेखाकार की रिपोर्ट अखिलेश के कार्यकाल में ही विधानसभा के पटल पर रखी गई थी. लेकिन मुख्यमंत्री होने की अखिलेश ने अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई. मामला लोकायुक्त के पास चला गया, लेकिन सरकार की लापरवाही या दबाव के कारण लोकायुक्त की जांच किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई. अखिलेश सरकार ने लोकायुक्त के मत्थे ठीकरा फोड़ दिया. जबकि तत्कालीन लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा ने कहा कि छानबीन में सरकार कोई सहयोग नहीं कर रही है. सम्बद्ध नौकरशाहों से जवाब मांगा तो सिरचढ़े नौरशाहों ने लोकायुक्त को जवाब तक नहीं भेजा.

भाजपा ने ही शुरू की थी चीनी मिलों की बर्बादी, गन्ना किसानों की तबाही
किसानों को राजनीतिक दलों ने बड़े शातिराना तरीके से मारा है. इसके लिए समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी अकेले दोषी नहीं है. चीनी मिलों को बर्बाद करने और गन्ना किसानों को तबाह करने का सिलसिला सबसे पहले भाजपा के शासनकाल में ही शुरू हुआ था. थोड़ा पृष्ठभूमि में झांकते चलें. कभी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान खुशहाल थे. गन्ने की खेती और चीनी मिलों से प्रदेश के गन्ना बेल्ट में कई अन्य उद्योग धंधे भी फल-फूल रहे थे. चीनी मिलों और किसानों के बीच गन्ना विकास समितियां (केन यूनियन) किसानों के भुगतान से लेकर खाद, ऋण, सिंचाई के साधनों, कीटनाशकों के साथ-साथ सड़क, पुल, पुलिया, स्कूल और औषधालय तक की व्यवस्था करती थीं. गन्ने की राजनीति करके नेता तो कई बन गए लेकिन उन्हीं नेताओं ने गन्ना किसानों को बर्बाद भी कर दिया. नतीजतन गन्ना क्षेत्र से लोगों का भयंकर पलायन शुरू हुआ और उन्हें महाराष्ट्र और पंजाब में अपमानित होते हुए भी पेट भरने के लिए मजदूरी के लिए रुकना पड़ा. उत्तर प्रदेश में 125 चीनी मिलें थीं, जिनमें 63 मिलें केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश में थीं. इनमें से अधिकतर चीनी मिलें बेच डाली गई और कुछ को छोड़ कर सभी मिलें बंद हो गईं. सरकार ने चीनी मिलें बेच कर पूंजीपतियों को और खुद को फायदा पहुंचाया. चीनी मिलों के परिसर की जमीनें पूंजी-घरानों को कौड़ियों के भाव बेच डाली गईं, जिस पर अब महंगी कॉलोनियां बन रही हैं. जबकि चीनी मिलों को किसानों ने गन्ना समितियों के जरिए अपनी ही जमीनें लीज़ पर दी थीं. लेकिन उन किसानों के मालिकाना हक की चिंता किए बगैर अवैध तरीके से उन जमीनों को भी मिलों के साथ ही बेच डाला गया. 1989 के बाद से प्रदेश में नकदी फसल का कोई विकल्प नहीं खड़ा किया गया. गन्ना ही किसानों का अस्तित्व बचाने की एकमात्र नकदी फसल थी. चीनी मिलों के खेल में केवल समाजवादी पार्टी ही शामिल नहीं, अन्य दल भी जब सत्ता में आए तो खूब हाथ धोया. भाजपा की सरकार ने हरिशंकर तिवारी की कम्पनी 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' को चार मिलें बेची थीं. उस समय कल्याण सिंह यूपी के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, उनकी सरकार में हरिशंकर तिवारी मंत्री थे. 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' ने चीनी मिलों की मशीनें और सारे उपकरण बेच डाले. फिर समाजवादी पार्टी की सरकार आई तो उसने प्रदेश की 23 चीनी मिलें अनिल अम्बानी को बेचने का प्रस्ताव रख दिया. लेकिन तब अम्बानी पर चीनी मिलें चलाने के लिए दबाव था. सपा सरकार ने उन चीनी मिलों को 25-25 करोड़ रुपए देकर चलवाया भी, लेकिन मात्र 15 दिन चल कर वे फिर से बंद हो गईं. तब तक चुनाव आ गया और फिर बसपा की सरकार आ गई. मुख्यमंत्री बनी मायावती ने सपा कार्यकाल के उसी प्रस्ताव को आगे बढ़ाया और चीनी मिलों को औने-पौने दाम में बेचना शुरू कर दिया. मायावती ने पौंटी चड्ढा की कम्पनी और उसके गुट की कंपनियों को 21 चीनी मिलें बेच डालीं. देवरिया की भटनी चीनी मिल महज पौने पांच करोड़ में बेच दी गई. जबकि वह 172 करोड़ की थी. इसके अलावा देवरिया चीनी मिल 13 करोड़ में और बैतालपुर चीनी मिल 13.16 करोड़ में बेच डाली गई. अब उन्हीं मिलों की बेशकीमती जमीनों को प्लॉटिंग कर महंगी कॉलोनी के रूप में विकसित किया जा रहा है. बरेली चीनी मिल 14 करोड़ में बेची गई, बाराबंकी चीनी मिल 12.51 करोड़ में, शाहगंज चीनी मिल 9.75 करोड़ में, हरदोई चीनी मिल 8.20 करोड़ में, रामकोला चीनी मिल 4.55 करोड़ में, घुघली चीनी मिल 3.71 करोड़ में, छितौनी चीनी मिल 3.60 करोड़ में और लक्ष्मीगंज चीनी मिल महज 3.40 करोड़ रुपए में बेच डाली गई. ये तो बंद मिलों का ब्यौरा है. जो मिलें चालू हालत में थीं उन्हें भी ऐसे ही कौड़ियों के मोल बेचा गया. अमरोहा चीनी मिल महज 17 करोड़ में बेच डाली गई. सहारनपुर चीनी मिल 35.85 करोड़ में और सिसवां बाजार चीनी मिल 34.38 करोड़ में बिक गई. बुलंदशहर चीनी मिल 29 करोड़ में, जरवल रोड चीनी मिल 26.95 करोड़ में और खड्डा चीनी मिल महज 22.65 करोड़ में बेच डाली गई.
पूर्वांचल के जुझारू किसान नेता शिवाजी राय कहते हैं कि पहले यह व्यवस्था थी कि यूपी के किसान गन्ना की फसलें गन्ना समितियों को बेचते थे और गन्ना समितियां उसे चीनी मिलों को बेचती थीं. किसानों को पैसे भी समितियों के जरिए ही मिलते थे. सारा कुछ बहुत ही सीधी रेखा पर चल रहा था. लेकिन भाजपा सरकार ने इस प्रक्रिया को ऐसा घुमाया कि उसे नष्ट ही कर दिया. गन्ना किसानों के खाते में सीधे पैसे डालने की व्यवस्था लागू कर तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने केन यूनियनों को पंगु करने की शुरुआत की थी. उसके बाद न तो किसानों के खाते में पैसे पहुंचे और न केन यूनियनें ही फिर से ताकतवर हो पाईं.