Tuesday 24 December 2019

आज मदर-इंडिया का जन्मदिन है...


मेरी मदर-इंडिया डॉक्टर उषा रानी सिंह का आज जन्मदिन है। लखनऊ वाले आवास पर माँ ने जिद कर शमी का पौधा लगवाया था। एक सितम्बर 2014 को मदर-इंडिया हमें छोड़ कर चली गईं... जब मैं खोखला होकर पटना से वापस लखनऊ लौटा तो शमी के पौधे में यह फूल उगा था। चटख रंग के साथ ऐसा फूल बस एक ही बार खिला... शमी के पौधे ने भी माँ को जैसे अपनी आखिरी श्रद्धांजलि दी थी। मैंने उस फूल की फोटो खींच कर उसे माँ को अर्पित कर दिया। माँ फूल तोड़ने के सख्त खिलाफ थीं। शमी का पौधा अब भी है। पर उसमें अब फूल नहीं खिलते... शमी अब भी है, पर उसमें वह खिलखिलाहट नहीं... माँ के जाने के बाद शमी जैसे मेरे जीवन की ही असलियत खोलता हो... क्या कहूं इसके आगे..! मेरा अस्तित्व, मेरी शब्द-आराधना और मेरी कठोर नैतिक शक्ति सब उन्हीं परम् विदुषी देवी सरस्वती सरीखी माँ डॉक्टर उषा रानी सिंह के कारण है...
तुम्हारी अस्थियों के साथ मैं भी बह गया दरिया समद में,
खो गया अस्तित्व, कुछ रह नहीं मेरा गया बाकी सनद में...
- प्रभात रंजन दीन

राजनीतिक इतिहास का अटल व्यक्तित्व


प्रभात रंजन दीन
सत्य का संघर्ष सत्ता से / न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है / किरण अंतिम अस्त होती है…
अटल जी की कविता की ये चार पंक्तियां देश की उत्तर-आजादी-काल की राजनीतिक-सामाजिक वास्तविकता का परिचय देने के लिए काफी हैं। वाकई, यह शिद्दत से महसूस होता है कि अटल बिहारी वाजपेयी के जाने से भारतवर्ष में नैतिक, ईमानदार, मानवीय, दंभहीन, विनम्र और विद्वान राजनीतिक शख्सियत की आखिरी किरण भी अस्त हो गई। संत कबीर कहते हैं कि वे हद और अनहद के बीच खड़े हैं... अटल जी के व्यक्तित्व पर समग्र दृष्टि डालें तो आपको साफ-साफ दिखेगा कि अटल भी हद और अनहद के बीच ही खड़े रहे! अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस तरह विराट हृदय वाली राजनीति की धारा चलाई, उस पर चलना या उसका अनुकरण करना बड़ी तपस्या और अटल की कवित्व-भाषा में दधीचि की हड्डियां गलाने जैसे त्याग से ही संभव है। कहने से थोड़े ही होता है कि ‘मैं अटल जी के रास्ते पर चल रहा हूं’, उस तरह बनने का योग और जतन करना पड़ता है। 25 दिसम्बर को अटल जी की जयंती है, फिर सुनिएगा नेताओं की बड़ी-बड़ी बातें और अटल-प्रतिबद्धता के लंबे-लंबे व्याख्यान... और थाह लीजिएगा कथनी और करनी का गहरा फर्क।
देखिए, शब्द-ब्रह्म और शब्द-व्यायाम में मौलिक फर्क है, जिसे अटल जी का व्यक्तित्व रेखांकित करता है। मेधा, ज्ञान और तपस्या के सुंदर समन्वय से ही शब्द-ब्रह्म प्रकट होता है। यह प्रकृति का उपहार है। शब्द-व्यायाम तो भौतिक कसरत है, उसमें आत्मा नहीं होती। अटल जी के शब्दों में ब्रह्म की झलक प्रकृति के उसी अनमोल उपहार की अभिव्यक्ति थी। दो विपरीत छोर वाली राजनीतिक धारा के बीच अटल जी संतुलन-सेतु की तरह काम करते थे। दोनों के बीच ‘बैलेंसिंग-बीम’ बनने में स्वार्थ नहीं बल्कि सौहार्द समाहित था। दक्षिणपंथी और वामपंथी राजनीतिक विचारधाराओं के बीच समझदार सेतु के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी अटल खड़े रहे, ठीक वैसे ही जैसे संत कबीर हद और अनहद के बीच निर्लिप्त और निस्पृह भाव से खड़े रहते हैं। ऐसे ही व्यक्तित्व के लिए दुश्मन देश का प्रधानमंत्री भी कह उठता है, ‘अटल जी पाकिस्तान में भी इतने पसंद किए जाते हैं कि वे यहां भी चुनाव लड़ें तो जीत जाएं।’ शांति का संदेश लेकर 19 फरवरी 1999 को बस से लाहौर गए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के पाकिस्तान में हुए अभूतपूर्व स्वागत और अटल जी के प्रति पाकिस्तानियों का प्रेम देख कर तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा था, 'वाजपेयी साहब, आप पाकिस्‍तान में भी चुनाव जीत सकते हैं।'
आपने देखा ही है कि कश्मीर के आम लोग, नेता और यहां तक कि अलगाववादी विचारधारा रखने वाले लोग भी अटल जी को कितना पसंद करते थे। यह दुर्लभ बात है कि भारतीय जनता पार्टी के धुर (एक्सट्रीम) विरोधी भी अटल जी के प्रशंसक थे और उनसे जुड़ा महसूस करते थे। कोई तो हो जो आलोचना करे..! ऐसा कोई नहीं मिलता... न राजनीतिक जीवन में रहते हुए और न जीवन से मुक्त होने के बाद। हिंदूवादी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की कट्टर मुस्लिम जमातें हों या धुर वामपंथी या विपक्षी दल, सब में अटल जी की स्वीकार्यता अटल जी को महापुरुषों की श्रेणी में खड़ा करती है।
खुर्राट वामपंथी ईएमएस नम्बूदरीपाद रहे हों या वामपंथी पुरोधा ज्योति बसु या ईके नयनार, सब अटल बिहारी वाजपेयी के प्रशंसक थे। वामपंथी नेताओं से अटल जी की निकटता को अखबार वाले कभी-कभार संदेहास्पद भी बना देते थे। एक बार तो बंगाल में अखबार वालों ने यह भी लिख डाला कि ज्योति बसु अटल बिहारी वाजपेयी से ‘गुपचुप’ मिलते रहते हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाले ‘जन मोर्चा’ का विजयोत्सव जब वामराज वाले पश्चिम बंगाल में मनाया गया तो अटल जी उसमें शरीक हुए थे। कलकत्ता के शहीद मीनार मैदान में आयोजित उस विजयोत्सव में वीपी सिंह, ज्योति बसु के साथ बैठे अटल जी की वह पुरानी तस्वीर आप भी देखें और यह जानते चलें कि इसी तस्वीर को लेकर कांग्रेस और बाद में तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा और वाम दलों के बीच ‘खिचड़ी पकने’ का आरोप लगा कर निकृष्ट सियासत की थी। वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब ‘माई लाइफ, माई कंट्री’ में लिखा है कि वाम दलों और भाजपा के सहयोग से केंद्र में बनी नेशनल फ्रंट की सरकार के दौरान अटल जी और ज्योति बसु की गोपनीय मीटिंग हुई थी, जिसमें आडवाणी खुद भी शामिल थे। यह बैठक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने बीरेन साहा के आवास पर हुई थी। ज्योति बसु ने भी ऐसी दो गोपनीय बैठकों के बारे में स्वीकारोक्ति दी थी, इसमें एक बैठक लालकृष्ण आडवाणी के घर पर हुई थी। ज्योति बसु ने कहा था कि आडवाणी की रथ-यात्रा रोकने के लिए वह बैठक हुई थी, राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए बैठक नहीं हुई थी। वाजपेयी जी की केरल के धुरंधर कम्युनिस्ट नेता ईके नयनार से भी खूब अंतरंगता थी। निकटता का यह आलम था कि एक बार केरल हवाई अड्डे पर प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों ने मजाक में अटल जी से पूछ दिया था कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में क्या ईके नयनार भी शामिल होंगे? अटल हंसने लगे थे और नयनार किनारे बैठे केरल भाजपा के अध्यक्ष ओ राजगोपाला की तरफ उंगली से इशारा कर रहे थे, जैसे कह रहे हों, ‘मैं नहीं, वो बनेंगे...’
अटल का ज्ञान और उनकी भाषण-शैली में झलकने वाली ओजस्विता ने उन्हें विश्व के पटल पर शीर्ष स्थान दिया है। 80 के दशक में ही ‘टाइम’ मैगजिन ने आचार्य रजनीश और अटल बिहारी वाजपेयी को सबसे प्रभावशाली वक्ताओं में शुमार किया था। उनकी ओजस्विता और उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि महज एक वोट से राजनीतिक कुचक्र का शिकार हुए अटल अगले ही चुनाव में कांग्रेस जैसी उस समय की सशक्त पार्टी को धकेल कर केंद्र की सत्ता पर आरूढ़ हुए और पूरे पांच वर्ष देश को स्थिर सरकार दी। भारतीय जनता पार्टी को अटल के चेहरे का भरोसा रहा... तब भी और अब भी। अटल की जब भी उपेक्षा हुई भाजपा चुनाव हारी। अटल उपेक्षा से विचलित नहीं होते, राजनीतिक बयानबाजी नहीं करते, किसी तिकड़म में नहीं उतरते... बस कविता लिख कर रख लेते, ‘अपनी ही छाया से बैर / गले लगने लगे हैं गैर / कलेजे में कटार गड़ गई / दूध में दरार पड़ गई...’ अटल जी की कविताएं बहुत कुछ कहती हैं, ‘कौरव कौन, कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है / दोनों ओर शकुनि का फैला कूटजाल है…’ अटल जी और देश के अन्य नेताओं में मर्यादा का यही फर्क है। यह विशाल फर्क है। अपने विद्वत और मधुर अंदाज में अटल जी की चुटकियां और मुस्कुराहट विरोधियों को भी भीतर तक बेध जाती थीं। विरोधियों पर अमर्यादित टिप्पणियां करने और आत्मप्रशंसा में लगे नेताओं को अब भी अटल जी से सीख लेनी चाहिए। चाहे वह भाजपा के नेता हों या किसी अन्य राजनीतिक दल के। इसी अटल व्यक्तित्व की तो सीख थी कि प्रधानमंत्री रहते हुए अटल जी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, ‘शासक के लिए प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता, न जन्म के आधार पर, न जाति के आधार पर और न सम्प्रदाय के आधार पर… मुझे विश्वास है कि नरेंद्र भाई यही कर रहे हैं।’ उस समय नरेंद्र मोदी भी अटल जी के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद थे।
अटल जी के विशाल व्यक्तित्व का वह पहलू बार-बार ध्यान में आता है। वर्ष 2001 में लखनऊ के राजभवन में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित थी। राजभवन का सभा कक्ष पत्रकारों से भरा था। अटल जी आए। अभी प्रेस कॉन्फ्रेंस शुरू भी नहीं हुई थी कि मैंने अटल जी से पूछा कि दो दिन पहले गुजरात में आए भूकंप में तकरीबन एक लाख लोग मरे, अधिकांश बच्चों की मौत हुई जो गणतंत्र दिवस समारोह मनाने स्कूल गए थे, क्या हजारों बच्चों की मौत पर राष्ट्रीय शोक की घोषणा नहीं होनी चाहिए थी..? क्या राष्ट्रीय शोक पर केवल नेताओं का एकाधिकार है..? मेरे इस सवाल पर सामने बैठे कुछ ‘गरिष्ठ’ पत्रकार हंस पड़े थे। अटल जी ने चुटकी लेने वाले अंदाज में कहा, ‘आपसे मुलाकात नहीं हुई, नहीं तो घोषणा हो जाती।’ हास में बात को विलीन करने के अटल जी के इस प्रयास पर कुछ ‘विद्वत’ पत्रकार फिर हंसे। मैंने पूछा, ‘प्रधानमंत्री जी, क्या यह विषय मजाक का है..?’ मेरे यह कहने पर अटल जी की मुख-मुद्रा अचानक गंभीर हो गई थी, उन्होंने बड़ी गंभीरता से बस इतना ही कहा, ‘चूक तो हो गई।’ देश के प्रधानमंत्री के बतौर अटल जी ने बहुत बड़ी बात कही, लेकिन न तो नेताओं ने इसे गंभीरता से लिया और न पत्रकारों ने। खैर, आप यह सोचें कि अटल जी की इस एक पंक्ति की स्वीकारोक्ति उन्हें कहां से कहां ऊपर उठा कर रख देती है। आज कोई प्रधानमंत्री इस तरह क्या अपनी गलती सार्वजनिक रूप से कबूल कर सकता है..? आज तो स्थिति यह है कि ऐसे सवाल पूछने वाले पत्रकार को धक्के मार कर कक्ष से बाहर निकाल दिया जाएगा। उसे गिरफ्तार करने की स्थिति भी आ सकती है। यह अटल के राजनीतिक युग और वर्तमान युग के बीच का चारित्रिक-संस्कारिक फर्क है। अटल जी का ऐसा ही ऊंचा चरित्र और संस्कार था जो जनता पार्टी की सरकार के धराशाई होने के बाद लोकनायक जयप्रकाश से माफी मांगने से नहीं हिचकता। अटल जी ने लिखा था, ‘क्षमा करो बापू तुम हमको, वचन भंग के हम अपराधी / राजघाट को किया अपावन, मंज़िल भूले, यात्रा आधी / जयप्रकाश जी! रखो भरोसा, टूटे सपनों को जोड़ेंगे / चिताभस्म की चिंगारी से, अंधकार के गढ़ तोड़ेंगे।’
परमाणु परीक्षण से लेकर करगिल युद्ध का इतिहास अटल के योद्धा चरित्र की सनद देता है। एक तरफ विनम्रता तो दूसरी तरफ शौर्य, इन दो विलक्षण पहलुओं का सम्मिश्रण थे अटल जी। वे अटल ही थे जो एक तरफ कहते थे, ‘धमकी, जेहाद के नारों से, हथियारों से कश्मीर कभी हथिया लोगे, यह मत समझो / हमलों से, अत्याचारों से, संहारों से भारत का भाल झुका लोगे, यह मत समझो…’ दूसरी तरफ अटल ही थे जो ‘इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ की पुरजोर हिमायत करते थे। अटल जी के ये तीन शब्द कश्मीरियों के दिल में बसते हैं और पूरी दुनिया इन तीन शब्दों को ही ‘अटल डॉक्टरिन’ की संज्ञा देती है। 

कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने भाजपाई अटल के जरिए बचाई थी देश की इज्जत

तब देश में नरसिम्हा राव की सरकार थी। अटल बिहारी वाजपेयी विपक्ष के नेता था। कांग्रेस सरकार के प्रस्ताव पर अटल जी ने पार्टी लाइन से ऊपर उठकर कश्मीर मसले पर फंसी नरसिम्हा राव सरकार का साथ दिया और उन्हें उबारा। नरसिम्हा राव ने अटल जी को संयुक्त राष्ट्र भेजे गए प्रतिनिधिमंडल में न केवल शामिल किया बल्कि उसे नेतृत्व करने का दायित्व सौंपा। तब पाकिस्‍तान ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ मानवाधिकार उल्‍लंघन का आरोप लगाया था। पाकिस्तान ने ‘ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन’ (ओआईसी) के जरिए प्रस्ताव रखवाया और भारत के खिलाफ कुचक्र रचा। अटल जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व ने सारे विरोधियों का पटाक्षेप कर दिया। अटल जी ने इस मसले पर उदार इस्लामिक देशों से सम्पर्क स्थापित किया और अपनी मुहिम में कामयाब हुए। कामयाबी भी ऐसी हासिल हुई कि पाकिस्तान के प्रस्‍ताव पर संयुक्त राष्ट्र में इस्लामी देशों ने भारत का साथ दिया और पाकिस्‍तान को समर्थन देने वाले मुस्लिम देशों ने प्रस्‍ताव के पक्ष में मतदान करने से इन्कार कर दिया। इंडोनेशिया और लीबिया ने ओआईसी के प्रस्ताव से ही खुद को अलग कर लिया। सीरिया ने भी पाकिस्तान के प्रस्ताव से दूरी बना ली और ईरान ने प्रस्ताव को संशोधित करने को कह दिया। तब चीन ने भी भारत का साथ दिया था। आखिरकार विवश होकर पाकिस्तान को वह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। 

Monday 23 December 2019

किसी मुगालते में न रहें मुसलमान..!


प्रभात रंजन दीन
‘मित्रों के चेहरे वाली किताब’ (फेसबुक) में शामिल मेरे एक दोस्त हैं शाहनवाज हसन... मेरे लेख ‘मुसलमानों को आप नासमझ समझते हैं क्या?’ पर ये अकेले मुस्लिम साथी हैं, जिनकी थोड़ी सी सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली। शाहनवाज भाई को मेरे कुछ शब्दों पर आपत्ति थी और उन्हें इस बात पर भी आपत्ति थी कि मैंने राहुल गांधी पर निशाना क्यों साधा। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि राहुल से उनकी कोई सहानुभूति नहीं है। शाहनवाज हसन भारतीय हैं, भारतीय की तरह सोचते हैं और एक भारतीय की तरह ही उनमें भी देश में चल रही बेमानी हिंसा को लेकर पीड़ा है। शाहनवाज हसन उन हिन्दुओं से बहुत बेहतर हैं जो हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसी समुदाय के लोगों के हित की बात करने वाले को संघी या भाजपाई करार देने लगते हैं और मुस्लिम-हित की बात करने वाले को धर्म-निरपेक्ष। ऐसा करके वे खुद को ‘प्रगतिशील’ समझने का ‘आत्मरत्यानंद’ लेते रहते हैं। यह शब्द भारी लगेगा, लेकिन इसका संधि-विच्छेद (आत्म-रति-आनंद) कर लें तो इसका अर्थ स्पष्ट हो जाएगा। ऐसे ‘धर्म-निरपेक्ष’ और ‘प्रगतिशील’ बेहूदा लोगों को बेहूदा न कहा जाए तो क्या कहा जाए शाहनवाज भाई..? इन्हें बेहूदा शब्द क्यों बुरा लगता है..? इन्होंने तो ‘इश्क कमीना’, ‘भाग बोस डीके’, ‘पप्पू कांट डांस साला’, ‘चोली के पीछे क्या है’, ‘हलकट जवानी’ जैसे तमाम बेहूदे गीतों के दु-र्बुद्धिजीवी रचनाकारों और उस पर फिल्में बनाने वाले विकृत लोगों को बौद्धिक-आइकॉन पहले से बना रखा है। जो रचनाकार ‘गंदी बात गंदी बात’ से अपनी रचना शुरू करे ऐसे लोगों की जमात से आप ‘अच्छी बात’ की उम्मीद कैसे कर सकते हैं..? ऐसों को बेहूदा न कहें तो क्या कहें..? ऐसे ही दु-र्बुद्धिजीवी लोग पुरस्कार भी लौटाते हैं और प्रधानमंत्री को नैतिकता की सीख देने वाला पत्र भी लिखते हैं। इन्हें शर्म भी नहीं आती ऐसा करते हुए।
खैर, शाहनवाज हसन की कुछ जिज्ञासाओं का जवाब, जवाब के निर्धारित खाने में समा नहीं रहा था, इसलिए इसे अलग किया, लेकिन यह हम सब लोगों के लिए पढ़ने और मंथन करने के लिए है, खास कर मुसलमान साथियों के लिए। शाहनवाज भाई, आपकी बातें मुझे भावुक करती हैं। मेरे जिन शब्दों पर आपको आपत्ति है, वे शब्द थोड़े सख्त जरूर हैं, लेकिन आप जैसे सदाशय, संवेदनशील, समझदार और सरल लोगों के लिए थोड़े ही हैं। वे शब्द तो उन लोगों के लिए हैं जो बेमानी हिंसा कर रहे हैं, जो बेमानी हिंसा करा रहे हैं और जो बेमानी हिंसा को जन-आंदोलन और छात्र-आंदोलन की परिभाषा के फ्रेम में कसने का बौद्धिक-षडयंत्र कर रहे हैं। शाहनवाज भाई, आप believe करें, नागरिकता संशोधन कानून पर मेरे दो लेख आने के बाद मेरे चारों फेसबुक अकाउंट पर ढेर सारे मुस्लिम साथियों और बहनों के फ्रेंड्स रिक्वेस्ट आए हैं। उन सब को मैं अलग-अलग अकाउंट्स में समायोजित कर रहा हूं। मेरे मुसलमान मित्रों की एक लंबी कतार है... और आपसे बातें करते हुए मुझे इतना सुकून मिल रहा है कि आपसे क्या कहूं... मुझे रौशनी दिखाई दे रही है। फ्रेंड्स रिक्वेस्ट आ रहे थे, तब मुझे अच्छा तो लग रहा था लेकिन इस प्रायोजित हिंसा के खिलाफ कोई मुखर होकर सामने नहीं आ रहा था। धर्म तो सच बोलने की हिम्मत देता है न शाहनवाज भाई..! धर्म का गलत-सलत इंटरप्रेटेशन करके लोगों को मानसिक तौर पर पंगु बनाया जा रहा है। सभी धर्मों में ऐसे 'एक्सट्रीमिस्ट-इंटरप्रेटरिस्ट' अपनी बेहूदा हकरतें करते रहते हैं, लेकिन ऐसे तत्वों को हमें अपने ऊपर हावी नहीं होने देना है, बल्कि हमें उन पर हावी होना है। इसीलिए तो मैंने बिल्कुल सोच-समझ कर लिखा कि मुझे जिस दिन लगा कि हिन्दू धर्म में ऐसे 'एक्सट्रीमिस्ट-इंटरप्रेटरिस्ट' तत्व निर्णायक तौर पर हावी हो रहे हैं, उसी दिन मैं हिन्दू धर्म त्याग कर अलग हो जाऊंगा। मैं एक व्यक्ति के रूप में धरती पर आया हूं... धार्मिक के रूप में नहीं। धर्म को व्यक्ति ने बनाया है, व्यक्ति को धर्म ने नहीं बनाया है। जबतक धर्म, व्यक्तित्व (personality) बनाने में सहायक हो, तभी तक धर्म को स्वीकार करिए, अन्यथा नहीं।
मेरे लेख में आपको मेरे कुछ शब्दों पर आपत्ति है... आपसे आग्रह है कि आप उसे एक बार फिर पढ़ें... इस बार मुस्लिम होकर नहीं पढ़ें। जैसे आपने एक सच्चे भारतीय की तरह अपनी भावना मुखर होकर व्यक्त की... वैसे ही। जहां तक राहुल पर टार्गेट करने का प्रसंग है, मैं यह कह दूं कि राहुल-सोनिया तो सिम्बॉलिक-नेम हैं। जैसा आपको लेख में भी बताया कि राहुल गांधी ब्रिटिश नागरिक हैं। ब्रिटिश कंपनी ‘बैकोप्स लिमिटेड’ के डायरेक्टर के रूप में उन्होंने जो रिटर्न दाखिल किया उसमें राहुल ने खुद को ब्रिटिश नागरिक बताया है। कंपनी के निदेशक से हटने के लिए उन्होंने जो आवेदन दिया, उसमें भी खुद को उन्होंने ब्रिटिश नागरिक ही बताया है। ब्रिटेन, इटली, स्वीडन के साथ-साथ कई अन्य देशों में राहुल गांधी की अकूत सम्पत्तियां हैं, उनका पूरा ब्यौरा ईडी के पास आ चुका है। ब्रिटिश नागरिकता के सवाल पर केंद्र सरकार द्वारा दी गई नोटिस पर अब राहुल गांधी के जवाब का इंतजार है। जैसा आपको बताया कि उनकी ब्रिटिश नागरिकता के सवाल पर संसद की एथिक्स कमेटी वर्ष 2016 में ही उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी कर चुकी है, जिसका भी जवाब राहुल ने नहीं दिया है। राहुल ने जवाब दिया तो ताश के पत्ते से सजी ऊंची मीनार भरभरा कर गिर जाएगी। राहुल को यह तय करना होगा कि वे कहां के नागरिक हैं... फिर उन्हें यह भी बताना होगा कि विदेशों में अर्जित अकूत सम्पत्ति उन्होंने आय के किन स्रोतों से हासिल की। ऐसे तमाम नेताओं की लंबी लिस्ट है, जिनके विदेशों में फैले धंधे और घर का भेद अब खुलने ही वाला है, वे तो चाहेंगे ही कि हिंसा फसाद हो और वे किसी तरह बच पाएं। यह जो सड़क पर प्रायोजित हिंसा दिख रही है, उसके पीछे किन नेताओं की क्या मंशा है, उसे तो बताना ही पड़ेगा न शाहनवाज भाई..! आपने अपनी प्रतिक्रिया की शुरुआत में ही कहा कि आपकी राहुल गांधी से कोई सहानुभूति नहीं है। मैं भी तो यही कहता हूं कि मैं जब हिन्दू-सिख-जैन-पारसी-ईसाई-बौद्ध हित की बात करता हूं तो मैं भाजपाई या संघी नहीं होता। मैं जब मुस्लिम-हित की बात लिखता हूं तब मैं मुस्लिम-लीग का सदस्य नहीं होता। एक स्वतंत्र दिमाग वाले व्यक्ति को जिस तरह सोचना चाहिए उस तरह सोचता हूं, उसी तरह लिखता हूं और बोलता हूं। मैं किसी भी राजनीतिक दल या धार्मिक संस्था का न तो सदस्य हूं और न दलाल। और बेबाकी से लिखने-बोलने में यह मनोवैज्ञानिक भय भी नहीं रखता कि कोई मुझे संघी कह देगा कि अकाली दल का सदस्य या लीगी... मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसी मनोवैज्ञानिक भय के कारण तो पूरा समाज पिछले सत्तर साल से बेहूदे-प्रगतिशीलों और मक्कार-धर्मनिरपेक्षों के षडयंत्र का शिकार होता रहा... कि मुझे कोई क्या कह देगा। इसी आभासी डर की दुनिया से तो बाहर निकलना है और छद्मी परिभाषाएं गढ़ने वाले षडयंत्रकारियों के खिलाफ समवेत रूप से वैचारिक लोहा लेना है। इस लड़ाई में हिन्दू-मुसलमान समेत उन सभी धर्मावलंबियों को शामिल होना होगा, जो अपने धर्म को मानवधर्म से जोड़ कर देखते हैं, पीड़ा का धार्मिक-विभाजन नहीं करते और रक्तपात को हिकारत की नजर से देखते हैं, धार्मिक-पुण्य के भाव से नहीं...
शाहनवाज भाई, आपने लिखा कि मुसलमानों को CAA एवं NRC के नाम पर भयभीत कर राजनीतिक रोटी सेंकी जा रही है। ज़रूरत है मुसलमानों से संवाद क़ायम कर भ्रांतियों को दूर किया जाए। आपने यह भी लिखा कि जाने-अनजाने मेरा लेख उन तत्वों को ही ईंधन देने का कार्य करेगा।
भाई, मैं एक स्वाभाविक लेखक हूं, बनावटी लेखक नहीं हूं... मैं आपसे विनम्र असहमति रखता हूं कि मुसलमानों को भयभीत कर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। उग्र हिंसा, भय का परिचायक थोड़े ही होती है। सरकारी-गैर सरकारी वाहनों में आग लगाना, तोड़-फोड़ मचाना, शहीद स्मारक ध्वस्त करना, महापुरुषों की मूर्तियां तोड़ना, पुलिस पर हिंसक हमला करना, मीडिया वालों के साथ हिंसक बर्ताव करना क्या मुसलमानों के भय का परिचायक है। अगर यह भय है तो फिर आपराधिक-दुस्साहस क्या होता है..? भय जानना हो तो मुस्लिम बहुल इलाकों में रह रहे गैर-मुस्लिमों से पूछिए और सुख जानना हो तो हिन्दू बहुल इलाकों में रहने वाले मुसलमानों से पूछिए। धर्म के नाम पर बने इस्लामिक देशों में जो भीषण अंदरूनी मारकाट मची हुई है, वह क्या भय या डर के कारण है..? ऐसा नहीं है। हमारे तवे पर कोई रोटी तभी सेंक पाएगा जब हम इसकी इजाजत देंगे और हमारा तवा गर्म होगा। मैं इसीलिए बार-बार कहता हूं कि नागरिकता संशोधन कानून तो महज एक बहाना है... लक्ष्य है राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लागू नहीं होने देना, क्योंकि एनआरसी लागू हो गया तो भारत में घुस कर अवैध रूप से रह रहे करोड़ों बांग्लादेशियों, पाकिस्तानियों और रोहिंगियाओं की आधिकारिक तौर पर शिनाख्त हो जाएगी। भारत का अधिसंख्य मुसलमान धर्म के नाम पर उन्हें बचाने का अधर्म रच रहा है। अगर धार्मिक आबादी का गुणा-गणित छोड़ कर विचार करें तो पाएंगे कि बांग्लादेश, पाकिस्तान और रोहिंगिया आबादी मुसलमानों के लिए ही भारी पड़ने वाली है। संख्या-बल के बूते धर्म के नाम पर देश बांट लेने के कबीलाई चरित्र से कब उबरेगा मुसलमान..? फिर पाकिस्तान और बांग्लादेश लेकर क्यों नहीं निश्चिंत हो गए..? फिर क्यों भागने लगे भारत की ही तरफ..? क्या धर्म के नाम पर देश बांट कर दरिद्रता और भिक्षा का पात्र बनना ही धार्मिक उपलब्धि और जेहाद है..? किस दुनिया में जी रहे हैं मुसलमान..? इनके दिमाग का ढक्कन कौन खोलेगा..? दकियानूसी बंद दिमाग की खिड़कियां खुलें और खुली ताजा हवा आ-जा सके इसके लिए शाहनवाज हसन जैसे लोगों को ही आगे आना होगा न। कब तक मुल्लों-मौलवियों और बहकाने वाले धार्मिक तत्वों के चक्कर में रहेंगे..? जब मुसलमानों में ही चिंगारी भड़काने वाले तत्वों की भरमार लगी हो तो मेरे लेख पर क्यों कहते हैं कि यह ईंधन देने का कार्य करेगा..? इस सोच से बाज आना होगा कि हम जो भी बेजा हरकतें करें उसे ठीक बताएं और उसके खिलाफ यदि कोई अपना विचार दे तो उसे आग में ईंधन देने वाला कह दें। सच यह है शाहनवाज भाई कि तीन तलाक पर पाबंदी लगने, अनुच्छेद-370 हटने और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता खुलने से जो गुस्सा मुसलमानों के अंदर-अंदर दहक रहा था, नागरिकता संशोधन कानून के बहाने वह फूट पड़ा। दरअसल, ईंधन वहीं था, जहां आग लगी थी।
इसलिए कोई भय-वय नहीं है मुसलमानों में। केवल गुस्सा है... वह भी धार्मिक अंधता की वजह से। नागरिकता संशोधन कानून भारत के मुसलमानों के लिए नहीं है, यह बात देश के अनपढ़ गंवार लोगों को भी पता है। सबको पता है कि यह कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा सताए गए वहां के अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता देने से सम्बन्धित है। सबको पता है कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में उन्हीं लोगों का नाम दर्ज होगा जो भारत के वास्तविक नागरिक हैं। जो भारत का नागरिक है, उसे यदि एनआरसी से भय हो तो इस भय के पीछे कोई खास वजह है। बांग्लादेशी-पाकिस्तानी-रोहिंगियाई मुसलमानों के निकाले जाने का भय भारत के अधिसंख्य भारतीय मुसलमानों को सता रहा है। शाहनवाज भाई जैसे मुसलमान भारतीयों को ही आगे आना होगा मुसलमानों के दिमाग से आबादी के लाभ-लोभ वाली सड़ियल ‘थ्योरी’ को निकालने के लिए... अब आबादी के बूते धर्म के नाम पर देश को कोई बांट नहीं पाएगा, किसी मुगालते में न रहें मुसलमान। भारत के नागरिक की तरह रहें और मौज करें... 

Saturday 21 December 2019

मुसलमानों को नासमझ समझते हैं क्या..?


प्रभात रंजन दीन 
तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का शहर लखनऊ... अरे छोड़िए सब बेकार बातें हैं। देश, संविधान और शहर का जब अपने स्वार्थ में इस्तेमाल करना हो तो सारे अच्छे-अच्छे शब्द और संबोधन... लेकिन जब स्वार्थ नहीं सधे, तब देखिए लखनऊ को बदतमीजी और असभ्यता का शहर बनाने में थोड़ी भी देर नहीं लगती। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हिंसा के जरिए देश को जिस विद्रूप स्थिति में बदलने की कोशिशें हो रही हैं, उसके लिए विकृत-दिग्भ्रमित मानसिकता का मुसलमान, मक्कार दिमाग के नेता, एकपक्षीय-धर्मनिरपेक्षता की मनोवैज्ञानिक आत्मरति के लती (एडिक्ट) लोग और मूर्ख-मीडिया जिम्मेदार है। मैं पूरी जिम्मेदारी, जानकारी, अनुभव और हिंसा फैलाने वाली भीड़ में घुस कर उनकी आपसी बातें सुन-समझ कर लिख रहा हूं। इसमें मैं धर्मनिरपेक्षता की आत्मरति के ‘एडिक्ट’ लोगों को थोड़ा अलग इसलिए रखता हूं, क्योंकि ये बीमार हैं, रोग-ग्रस्त हैं, ‘हैलूसिनेशन’ (hallucination) में जीने वाले लोग हैं... ये अलग एक ‘मेडिकल-केस’ हैं। इन्हें पता ही नहीं कि ये देश-समाज का कितना नुकसान कर रहे हैं। इन्हें न पढ़ने से मतलब है न समझने से। इनसे बातें करिए, इनकी प्रतिक्रियाएं देखिए, आपको साफ-साफ लगेगा कि इनकी अपनी कोई मौलिकता नहीं है। इनकी आंख बस देख रही है... देखने का इनके दिमाग से कोई लेना-देना नहीं। दृश्य को सामने रख कर उसे समझने और उसका सिरा और छोर तलाशने की इनकी क्षमता नष्ट हो चुकी है। छद्म धर्मनिरपेक्ष, छद्म प्रगतिशील, छद्म बुद्धिजीवी और छद्म मानवाधिकारवादी जमात असलियत में आदमखोरों (Cannibal Apocalypse) की जमात में तब्दील हो चुकी है। यह मानसिक तौर पर बीमार और विकृत लोगों की भीड़ है जो अपने ही देश को खा रही है। यह प्रजाति खुद को राजनीति से अलग बताती है, लेकिन एक खास राजनीतिक दिशा में ही जाती दिखती है। ‘धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील-बुद्धिजीवी-कलाकार’ जैसी शब्दावलियां रच कर राजनीतिक दलों के मक्कार नेता 70 साल से अपने हित में इनका इस्तेमाल कर रहे हैं। Zombies का यह जत्था एक खास राजनीतिक दिशा की तरफ जाता दिखता है... लेकिन यह केवल जाता हुआ दिखता है। इनके विचार नहीं होते। विचार से ये वामपंथी दिखने की कोशिश करते हैं, लेकिन असल में ये होते हैं पोंगापंथी जो कभी कांग्रेस तो कभी समाजवादियों के झुंड में भी दिख जाते हैं। आप बताइए न कौन सा वामपंथी देश है जिसने बेहूदा (रैडिकल) तत्वों के लिए अपने देश को बिखरने दिया..? चीन इसका सबसे तगड़ा उदाहरण है। चीन के नाम पर हमारे देश में माओवादी-परजीवी-बुद्धिजीवी पलते हैं और जंगल से लेकर शहर तक वैचारिक प्रदूषण फैलाते हैं। जिस चीन का तमगा टांग कर अति-वामपंथी या वामपंथी अपनी दुकान चला रहे हैं, उस चीन ने अपने देश में बेहूदा धार्मिक तत्वों और बेहूदा धर्मनिरपेक्षों की हरकतें क्या चलने दीं..? चीन के शिनजियांग प्रांत में क्या उइगुर मुसलमानों की अलगाववादी-आतंकवादी गतिविधियां चलने दी गईं..? बेहूदा धार्मिक और बेहूदा धर्मनिरपेक्षी तत्वों ने अलग-अलग देशों से चीन पर भारी दबाव डालने की कोशिश की, लेकिन क्या वे सफल हुए..? चीन में उइगुर मुसलमानों की अलगाववादी-आतंकवादी हरकतों को सख्ती से कुचले जाने पर क्या भारत के किसी वामपंथी नेता ने कभी आवाज उठाई..? एक भी वामपंथी नेता का नाम बताएं जिसने चीन के मुसलमानों की धार्मिक गतिविधियों को घर की चारदीवारी के अंदर पाबंद कर दिए जाने के खिलाफ एक शब्द भी बोला हो..? ये नेता जब कश्मीरी पंडितों और लद्दाखी बौद्धों पर हुए अत्याचार पर कुछ नहीं बोले तो अपने फंडदाता आका चीन के खिलाफ मुंह खोलने की उनकी क्या औकात है..! पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में वहां के अल्पसंख्यकों पर हुए सिलसिलेवार अत्याचार पर इन तथाकथित वामपंथियों ने आज तक एक शब्द नहीं बोला। ऐसे ही दोगले नेता आज भारत में हिंसा फैलाने वाले मुसलमानों के पीछे खड़े हैं और उन्हें उकसा रहे हैं। या फिर सोनिया गांधी या राहुल गांधी जैसे नेता इनके पीछे हैं जिनकी खुद की नागरिकता सवालों के घेरे में है। वे यह जानते हैं कि एनआरसी से सबसे अधिक खतरा उन्हें ही है। ...तो क्यों न मुसलमानों को भड़काया जाए..! आपको स्मरण दिलाता चलूं कि इसी साल अप्रैल महीने में गृह मंत्रालय ने राहुल गांधी को नोटिस जारी कर उनसे उनकी नागरिकता पूछी थी। आठ महीने पहले जारी हुई नोटिस का राहुल गांधी ने अब तक कोई जवाब नहीं दिया है। अब राहुल क्या जवाब देंगे..! क्या वे बता देंगे कि वे ब्रिटेन के नागरिक हैं..? तब उनकी राजनीतिक दुकान का क्या होगा..? वास्तविकता यही है कि राहुल गांधी ब्रिटिश कंपनी ‘बैकोप्स लिमिटेड’ के डायरेक्टर हैं और कंपनी के वर्ष 2006 के एनुअल रिटर्न में राहुल गांधी ने खुद को ब्रिटिश नागरिक बता रखा है। वर्ष 2009 में राहुल ने ‘बैकोप्स लिमिटेड’ के निदेशक पद से खुद को अलग करने का आवेदन दिया, उस आवेदन में भी उन्होंने खुद को ब्रिटिश नागरिक ही बताया। वैसे, आपको यह भी बता दूं कि संसद की आचार-समिति (एथिक्स कमेटी) ब्रिटिश नागरिकता के सवाल पर वर्ष 2016 में ही राहुल गांधी को नोटिस जारी कर चुकी है। राहुल ने अब तक कोई जवाब नहीं दिया है। संसद की ‘एथिक्स कमेटी’ के समक्ष दो ही मामले लंबित हैं... एक राहुल गांधी का और दूसरा विजय माल्या का। है न रोचक तथ्य..! अब राहुल अधर में हैं कि भारत की नागरिकता बताई तो विदेश की अकूत सम्पत्ति हाथ से गई। अगर विदेश की नागरिकता बताई तो राजनीति और सांसदी गई। इसके अलावा राहुल को यह भी बताना होगा कि विदेश का धन उन्होंने किन स्रोतों से हासिल किया..? अब ये दोनों तरफ से गए। राहुल और सोनिया की सांस इसी कानूनी नुक्ते पर अंटकी हुई है... इसका एक ही समाधान इन्हें दिखता है, वह है ‘केऑस’... पूरा देश भीषण अराजकता में घिर जाए, देश रसातल में चला जाए, किसी तरह से वे बचे रहें। ...और भारत के बेहूदा रैडिकल तत्व पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और बर्मा (म्यांमार) से यहां आकर गैर कानूनी रूप से रह रहे करोड़ों मुसलमानों को बचाने के लिए इस अराजकता का फायदा उठाना चाह रहे हैं। मुसलमानों का लक्ष्य नागरिकता संशोधन कानून उतना नहीं, जितना राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस) है। नागरिकता संशोधन कानून तो बस एक जरिया है। इस पर इतना बवाल कर दो कि एनआरसी का मसला अपने आप शिथिल हो जाए।
दरअसल, विक्षिप्त मुसलमानों के कंधे पर बंदूक रख कर एक साथ कई निशाने साधे जा रहे हैं। राहुल-सोनिया की बेचैनी के बारे में आपको बताया। आप जानते ही हैं कि पी. चिदम्बरम को दिल्ली हाईकोर्ट मनी लॉन्ड्रिंग के धंधे का सरगना बता चुकी है। इसके अलावा कई वामपंथी नेताओं ने विदेश की दहलीज थाम रखी है। हवाला और मनी लॉन्ड्रिंग के जरिए कई वामपंथी नेताओं के बड़े-बड़े बिजनेस में पैसे लगे हैं। उनके बच्चे दक्षिणपंथी पूंजीपति देशों में आलीशान खर्चीले शिक्षण संस्थानों में पढ़ रहे हैं या नौकरी कर रहे हैं। कश्मीर के अलगाववादी नेताओं का भी यही हाल है। कई बड़े चैनल कांग्रेस-वाम नेताओं के संदेहास्पद धन-स्रोतों से चल रहे हैं। कई चैनलों में धनी इस्लामिक देशों का पैसा लगा है। इस ‘कला’ में कांग्रेसी और वामपंथी माहिर हैं, उनका सत्तर सालाना अनुभव है। इन सब नेताओं को अपने बचने की फिक्र है। समाजवादी पार्टी भी इन्हीं पार्टियों का ‘बगलबच्चा’ है। परिवार-केंद्रित और स्वार्थ-केंद्रित पार्टी का स्वयंभू अध्यक्ष अपने घर की टोटियां तक उखाड़ ले जाता हो, कभी कांग्रेस की गोद तो कभी बसपा की गोद तलाशता हो, भ्रष्टाचार के मामलों में कानूनी कार्रवाई से बचे रहें इसके लिए अपने पिता से भाजपाई सत्ताधीशों की खुशामदें कराता हो, तो ऐसे विचारहीन अवसरवादी नेता से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वह जनता के व्यापक हितों के प्रति संवेदनशील और भावुक होगा..? ऐसा नेता समाजवाद के सिद्धांतों के बारे में कोई गंभीर और सार्थक समझ रखता होगा..? इसे लेकर मुसलमान भी किसी गलतफहमी में नहीं हैं। एक-दूसरे के कंधे का इस्तेमाल कर दोनों अपना-अपना फायदा उठाने की जुगत में हैं। इसीलिए मुसलमानों और सपाइयों के प्रभाव वाले इलाकों में हिंसा फैलाने का साझा कार्यक्रम चल रहा है। आप जरा गौर तो करिए..!
आप मूर्ख-मीडिया के चक्कर में न पड़ें। आप यह कतई न समझें कि मुसलमान नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) का फर्क नहीं जानता। वह बिना समझे-बूझे हिंसा पर उतारू है। ऐसा नहीं है। वह ‘इन्नोसेंट’ नहीं है। वह ‘सीएए’ और ‘एनआरसी’ का फर्क बखूबी जानता है। मुसलमान यह बखूबी जानता है कि ‘सीएए’ भारत के लोगों के लिए नहीं बल्कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में सताए गए अल्पसंख्यकों मसलन; हिन्दू, सिख, बौद्ध, पारसी, ईसाई और जैनियों को नागरिकता देने से सम्बन्धित है। आप इस गलतफहमी में न रहें कि नागरिकता संशोधन कानून के जरिए महज 31,313 गैर-मुस्लिमों को भारत की नागरिकता दिए जाने से मुसलमान बौखलाए हुए हैं। मुसलमान यह अच्छी तरह जानते हैं कि इससे कहीं अधिक, बहुत बड़ी तादाद में पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, अफगानी और रोहिंगिया मुसलमान भारतवर्ष में रह रहे हैं। आधिकारिक तथ्यों पर गौर फरमाते चलें, ताकि आपको सारी स्थिति साफ-साफ दिखने लगे। वर्ष 2011 की जनगणना में यह तथ्य आधिकारिक तौर पर सामने आया कि 55 लाख बांग्लादेशी और पाकिस्तानी भारत में रह रहे हैं। इस संख्या का 42 प्रतिशत हिस्सा बांग्लादेशी मुसलमानों का है और 12.7 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तानी मुसलमानों का। शेष अफगानिस्तान के मुसलमान हैं। यह आधिकारिक संख्या उन पाकिस्तानियों और बांग्लादेशियों की है, जो वर्ष 2011 के थोड़ा पहले भारत में दाखिल हुए। सिर्फ 2011 में बांग्लादेश के करीब 25 हजार लोग भारत में घुसे और पाकिस्तान से करीब 10 हजार लोग भारत में घुसे। यह तो बात हुई आधिकारिक आंकड़े की। जबकि जमीनी वास्तविकता यह है कि अनधिकृत तौर पर करोड़ों बांग्लादेशी और पाकिस्तानी मुसलमान भारत में अवैध रूप से रह रहे हैं। वर्ष 2000 में ही यह आकलन था कि भारत में 12.5 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए रह रहे हैं। हर साल तीन लाख बांग्लादेशियों की देश में आमद हो रही थी। घुसपैठियों को धड़ल्ले से वोटर बनाया जा रहा था। बंगाल में सत्ताधारी वामपंथी दल कर रहे थे और शेष भारत में कांग्रेस। कांग्रेस शासन के समय 14 जुलाई 2004 को तत्कालीन गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने संसद में बयान दिया था कि भारत में दो करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए अवैध रूप से रह रहे हैं, जिसमें 50 लाख 70 हजार बांग्लादेशी अकेले पश्चिम बंगाल में रह रहे हैं। जब केंद्र में भाजपा की सरकार आई तब केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने संसद में कहा कि अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की तादाद दो करोड़ 40 लाख है। यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है। आधिकारिक तथ्य है कि वर्ष 2001 की जनगणना में 30 लाख, 84 हजार 826 अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों के भारत में रहने की जानकारी मिली थी। आप हैरत करेंगे कि 1981-1991 के दशक का इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट का पुराना आधिकारिक रिकॉर्ड है कि उन 10 वर्षों में हर साल करीब एक लाख बांग्लादेशी घुसपैठिए भारत में दाखिल होते रहे। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश के निर्माण के दरम्यान जिन एक करोड़ बांग्लादेशियों को भारतवर्ष में घुसने दिया गया, वह संख्या इसके अलग है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आज इनकी संख्या कहां पहुंच चुकी होगी और यह भारत की मूल आबादी में कितना इजाफा कर रही होगी। इस संख्या में अवैध पाकिस्तानियों, अफगानियों और रोहिंगियाओं की तादाद भी जोड़ कर देखें तो आपको भयावह दृश्य दिखेगा...
बर्मा से भाग कर आए रोहिंगिया मुसलमानों को भी भारतवर्ष में मुसलमानों ने घुसाया। जहां-जहां घनी मुस्लिम आबादी है, आप वहां जाकर देखें आपको बांग्लादेशी और रोहिंगिया मुसलमान मिलेंगे। धीरे-धीरे रोहिंगिया मुसलमान कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैल गए। कश्मीर में तो संवेदनशील सीमा क्षेत्र में पूरी रणनीति से रोहिंगियाओं को बसाया गया है, ताकि समय पर ये पाकिस्तान की मदद में खड़े हो सकें। देश के बड़े-बड़े शहरों में रोहिंगिया मुसलमान रिक्शा चला रहे हैं, मजदूरी कर रहे हैं, कूड़ा-कचरा बीन रहे हैं, उनकी महिलाएं घरों में नौकरानी का काम कर रही हैं और सड़कों-चौराहों पर बच्चा टांगे भीख भी मांग रही हैं। यह सब खुलेआम हो रहा है, लेकिन प्रशासन चुप है। हम-आप भी चुप हैं... हमें घर में काम करने के लिए नौकरानी मिल गई है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में ही करीब 10 लाख अवैध बांग्लादेशियों और रोहिंगियाओं के रहने की शिनाख्त हुई है। यही रोहिंगिया चोरी-चकारी से लेकर नशीली दवाओं के धंधे के पेडलर का काम कर रहे हैं और आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हैं। रोहिंगिया महिलाएं दूसरे जरायम धंधों में भी खूब मुब्तिला हैं। दि सेंटर फॉर वोमेन एंड चिल्ड्रेन स्टडीज़ की रिपोर्ट है कि भारतवर्ष में वेश्यावृत्ति का धंधा करने वाली 10 फीसदी महिलाएं बांग्लादेशी घुसपैठिया हैं। सीईडीएडब्लू की रिपोर्ट है कि अकेले कोलकाता में 27 प्रतिशत वेश्याएं बांग्लादेशी घुसपैठिया हैं। इस धंधे में रोहिंगियाओं के शामिल हो जाने से यह प्रतिशत और बढ़ गया है। ऐसे रोहिंगियाओं को भारतवर्ष में आधार-कार्ड, वोटर आइडेंटिटि कार्ड और पासपोर्ट तक दिलवा दिया गया है। भारतवर्ष के मुसलमान रोहिंगियाओं को पाल-पोस रहे हैं और उन्हें संरक्षण दे रहा है प्रशासन और पुलिस। नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपनी राजनीति में लगे रहें। प्रशासन और पुलिस पैसे के लिए वेश्या बन चुकी है। यह एक कठोर असलियत है। पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों में कोई गैरत नहीं। धन चाहे देश को तबाह करने के लिए मिल रहा हो, प्रशासन और पुलिस को धन मिलना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या इस तरह गेट खोल कर अपने देश में घुसपैठियों को घुसाया जाता..? आप सोचिए कि उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के नगर निगम में हजारों सफाई कर्मी अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं। इस बारे में यूपी के एंटी टेररिस्ट स्क्वैड (एटीएस) ने बाकायदा नगर निगम से पूछा, लेकिन एटीएस की चिट्ठी भी भारतवर्ष की भ्रष्टाचार की मुख्यधारा में कहीं बह गई। जबकि इसी साल यूपी पुलिस के मुखिया डीजीपी ओपी सिंह अवैध बांग्लादेशियों और रोहिंगियाओं को आने वाले दिनों का बड़ा खतरा बता चुके हैं। लखनऊ के पॉश इलाके गोमती नगर में बांग्लादेशी और रोहिंगिया घुसपैठियों ने कई भीषण डकैतियां डालीं। यह तथ्य ऑन-रिकॉर्ड हैं, लेकिन कुछ नहीं हुआ। लखनऊ नगर निगम को सफाईकर्मी मुहैया कराने वाले ठेकेदार सस्ते में बांग्लादेशी घुसपैठियों से काम कराते हैं और इसके लिए सरकार से मिलने वाले धन का बड़ा हिस्सा खुद खा जाते हैं। इन्हें एहसास ही नहीं कि वे धन नहीं, देश खा रहे हैं। मुसलमान इसके लिए चिंतित नहीं हैं कि आप किसे नागरिक बनाने जा रहे हैं। मुसलमान इसलिए आग बबूला हैं कि करोड़ों अवैध मुसलमान भारत से बेदखल न हो जाएं। उनके लिए देश कोई प्राथमिकता नहीं। उन्हें धर्म के नाम पर बढ़ती कीड़े-मकोड़ों की संख्या से मतलब है, जिसके बूते वे फिर देश को तोड़ने का तानाबाना बुन रहे हैं। हैरत होती है कि भारत में घुसे रोहिंगियाओं को अवैध बताने पर सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल हो जाती है। मोहम्मद सलीमुल्ला याचिका दाखिल कर अदालत से कहता है, रोहिंगियाओं को वापस न भेजा जाए। कहां बर्मा में रोहिंगियाओं पर अत्याचार हुआ तो भारत में मुसलमानों ने मुंबई में शहीद स्मारक तोड़ डाला और लखनऊ में भगवान महावीर की मूर्ति ध्वस्त कर दी। वही मुसलमान जम्मू कश्मीर में कश्मीरी पंडितों और लद्दाखी बौद्धों के नरसंहार पर चुप्पी साध कर धार्मिक-पुण्य का मनोवैज्ञानिक-सुख लेता है और पड़ोसी देशों में वहां के अल्पसंख्यकों पर हो रहे जुल्म पर शातिराना चुप्पी साधे रहता है। उन लोगों को जब भारत में राहत देने की बात होती है तो यह बिलबिला उठता है और सड़क पर उत्पात मचाने लगता है। बेहूदा बुद्धिजीवी और फर्जी धर्मनिरपेक्ष तत्व इस नियोजित उत्पात को छात्र आंदोलन और जन आंदोलन करार देने का शातिराना षडयंत्र करता है। अब ताजा फैशन आया है बॉलीवुड के कुछ कलाकारों के भी ऐसी हरकतों में शामिल होने का। पिछली बार ‘लिंचिंग’ पर प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर सुर्खियां बटोर लीं और इस बार देशभर की सड़कों पर हो रहे मुसलमानों द्वारा किए जा रहे उत्पात पर फिर गोलबंद होकर पुलिस को ही उल्टा अत्याचारी साबित करने लगे। कभी सम्मान लौटाने तो कभी पत्र लिखने वाले लफंगे लोग ‘लिंचिंग’ पर ‘लिम्पिंग’ करते हैं, लेकिन उन्हें कश्मीर में सुरक्षा बलों की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती। उन्हें पश्चिम बंगाल की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती, उन्हें केरल, तमिलनाडु या देश के अन्य हिस्सों में इतर-धर्मियों की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती। उन्हें कभी कश्मीरी पंडितों और लद्दाखी बौद्धों की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखी। आप सोचिए कैसे दोगले हैं ये... मूर्ख मीडिया जिन्हें कलाकार या बुद्धिजीवी कह कर ‘परोसता’ रहता है, उनका नाम लेना भी अधःपतन है। एक फिल्म निदेशक अपराध और क्रिमिनल गैंग्स पर फिल्में बना-बना कर अपनी असली मनोवृत्ति अभिव्यक्त करता रहता है। फिल्मों में ऐसी गालियां इस्तेमाल करता है, जिसे आम जिंदगी में लोग मुंह पर लाने से हिचकते हैं। ऐसा आदमी कलाकार और बुद्धिजीवी..! और मीडिया द्वारा महिमामंडित..! ऐसे कलाकार जिनकी पिछली जिंदगी में झांकें तो आपको यौन-उत्तेजना भड़काने वाले उनके फिल्मी और गैर-फिल्मी कृत्यों की भरमार दिखेगी, मीडिया उसे समाज का आईकॉन बना कर पेश करता है। ऐसे इतिहासकार जिन्होंने जीवनभर भारतीय इतिहास के अध्यायों पर कालिख पोतने का काम किया, ऐसे समाजविरोधी-देशविरोधी तत्व मीडिया की निगाह में ‘इंटलेक्चुअल’ होते हैं। इन्हें ‘स्यूडो-इंटलेक्चुअल’ या छद्मी-बुद्धिजीवी कहना भी उचित नहीं। ये असलियत में समाज के सफेदपोश अपराधी (व्हाइट कॉलर्ड क्रिमिनल्स) हैं।
यह मूल बात समझ में नहीं आती कि क्या मानवीय करुणा धर्म का भेद करके आती है..? सिखों पर बर्बरता और दोगलेपन की देश में इंतिहा कर दी गई। किस ‘लफंगे-बौद्धिक‘ ने अपना अवॉर्ड लौटाया या प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी..? तत्कालीन कश्मीर के हिन्दुओं-सिखों-बौद्धों का कत्लेआम मचाया गया और उन्हें अपने ही घर से भगाया गया, इसके खिलाफ किस ‘प्रगतिशील-लफंगे’ ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी..? कश्मीरी पंडितों को उनके घर वापस दिए जाएं, इसके लिए किस ‘प्रायोजित-प्रगतिशील-जमात’ ने प्रधानमंत्री से गुहार लगाई..? पूर्वोत्तर राज्यों में बांग्लादेशियों द्वारा मचाए गए हिंसक-उत्पात के खिलाफ किस ‘कलाकार-बुद्धिजीवी’ ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा या सार्वजनिक रुदाली की..? इन ‘लफंगों’ की आंखों पर केवल एक चश्मा लगा है... इस चश्मे को उतारें तो इसमें आपको अरब की आंख दिखेगी, आपको चीन की आंख दिखेगी, आपको पाकिस्तान की आंख दिखेगी। आपको उन ताकतों की आंख दिखेगी जो भारतवर्ष में अस्थिरता (unrest) का भयानक मंजर खड़ा करना चाहते हैं। इनकी जेबों में देखें, आपको उन्हीं देशों और उन्हीं ताकतों का धन मिलेगा। जरा झांकिए तो, किन ताकतों के बूते बॉलीवुड चलता है और उन ताकतों के आगे किस तरह फिल्मी कलाकार भड़ुए बने फिरते हैं। जरा झांकिए तो, पाकिस्तानी आईएसआई का धन किस तरह भारत के वर्णसंकरों को पाकिस्तान-परस्त बना रहा है। जरा झांकिए तो, अरब का धन किस तरह पढ़े-अधपढ़े लोगों को ‘अति-इस्लामिक-व्याख्यावादी’ (Extremist-Islamist-Interpreterist) जमात में कनवर्ट कर रहा है। जरा झांकिए तो, चीन का धन किस तरह भारत में ‘कुलीनतावादी-माओवादी’ (एलिटिस्ट-माओइस्ट) पैदा कर रहा है, जो भोले-भाले अनपढ़ खेतिहर और शहरी मजदूरों के बीच ‘सर्वहारा के अधिनायकवाद’ का प्रवचन ठेलता है, समाज में जहर फैलाता है, अपने बच्चों को पश्चिमी देशों में आलीशान पूंजीवादी शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में पढ़वाता है और वसूला गया धन विदेश के चोर-बैंकों में जमा कराता है। कश्मीरी अलगाववादियों की असलियत तो आप जान चुके हैं। उनके अकूत धन के स्रोत वही पश्चिमी देश हैं, जहां उनके बच्चे पढ़ते हैं या नौकरी करते हैं और उन्हीं देशों में वे बम फोड़ने की साजिश भी करते हैं।
भारत को भारत के लोगों ने ही सड़ाया है। इसका क्रमिक विश्लेषण हम जरूर करेंगे, इतिहास के पन्नों से होते हुए हम आपस में विचार-विमर्श करेंगे। हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन या पारसी हित की बात कहने वाले को संघी बता कर उसे खारिज करने और मुस्लिम हित की बात कहने वाले को धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील बताने के बेहूदा चलन के खिलाफ समवेत खड़ा होना होगा। जो मुस्लिम-हित की बात करता है वह मुस्लिम लीग का सदस्य क्यों नहीं..? तो Alienation की ऐसी टैक्टिस अपनाने या किसी को दरकिनार कर मतलब साधने की धूर्तता से बाज आएं। सभी धर्म-सम्प्रदाय का हित हो, तभी समेकित रूप से देश का हित होगा। धर्म और राजनीतिक-वैचारिक पूर्वाग्रह से अलग होकर भारत के एक सामान्य नागरिक की तरह सोचें, फौरन महसूस होगा कि संविधान का अनुच्छेद 370 देश के लिए कितना घातक था, बांग्लादेश-पाकिस्तान-अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों में वहां के अल्पसंख्यकों पर हो रहे त्रासद अत्याचार के खिलाफ खड़ा होना मानवीय दृष्टिकोण से कितना जरूरी था और बांग्लादेशी-पाकिस्तानी-रोहिंगियाई घुसपैठियों की भारी भीड़ से मुक्त होना अपने देश और समाज के लिए कितना जरूरी है... 

Tuesday 17 December 2019

इस बौखलाहट की आहट सुनें..!


प्रभात रंजन दीन
नागरिकता संशोधन अधिनियम पर जिस तरह का व्याकुल शोर व्याप्त है, उसके निहितार्थ लोगों की समझ में आते हैं। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम- 2019 भारतीय संसद से पारित होते ही और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद उसके कानून बनते ही जो बेचैनियां सड़क पर अभिव्यक्त होने लगीं, उसे वास्तविक देशवासी फौरी और आकस्मिक समझने की भूल नहीं कर रहे हैं। वास्तविक देशवासी यह समझ रहे हैं कि हिंसक बौखलाहटें क्यों हैं। यह देश को किसी खास विद्रूप दिशा में ले जाने का षडयंत्र है। ऐसा ही षडयंत्र 1947 में हुआ था, जब धर्म के नाम पर देश तोड़ डाला गया था। ये जो समवेत हुआं-हुआं में संविधान की धारा-14, धर्मनिरपेक्षता, मानवतावाद, रोहिंगियावाद और सहिष्णुतावाद जैसी तमाम शब्दावलियां सुनाई पड़ रही हैं, वही जमातें जहां-जहां खुद को थोड़ा मजबूत समझती हैं, वहां-वहां हिंसा का रास्ता अख्तियार कर देश को चुनौतियां भी दे रही हैं। संविधान की धारा-14 में ‘विधि के समक्ष समता’ का प्रावधान है। यह धारा कहती है, ‘राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।’ इस संवैधानिक प्रावधान को अंग्रेजी में कहते हैं... ‘The State shall not deny to any person equality before the law or the equal protection of the laws within the territory of India.’
नागरिकता (संशोधन) अधिनियम पर रुदाली करने वाले लोगों को अपने ही देश के राज्यक्षेत्र (territory of India) में रहने वाले कश्मीरी पंडितों और लद्दाखियों के लिए संविधान की धारा-14 का औचित्य कभी नहीं समझ में आया। कश्मीरी पंडितों को सरेआम काटते, पीटते और कश्मीरी महिलाओं के साथ सरेआम बलात्कार करते समय जाहिल-जमातों को यह ख्याल नहीं रहा कि कश्मीरी पंडितों, सिखों, बौद्धों और वहां के अन्य अल्पसंख्यकों के भी समानता के अधिकार हैं। उनकी सम्पत्तियों पर कब्जा करके और उन्हें अपनी ही जमीन से भगाने वाली जमातें संविधानवादी थीं, धर्म-निरपेक्ष थीं, मानवतावादी थीं, सहिष्णुतावादी थीं और प्रगतिशील थीं..? क्या थी वह जमात..? उसी वहशियाना बद-दिमाग जमात के आज अलमबरदार बने बैठे हैं कई लोग जो 90 के दशक में अपने ही देश के निवासियों पर कहर ढा रहे थे। कश्मीरी पंडितों और लद्दाखियों को धर्म बदलने या ऐसा नहीं करने पर अपना स्थान छोड़ देने पर मजबूर कर रहे थे। यह करना क्या धर्म था..? फिर अधर्म क्या है..? जाहिल जमातों के साथ खड़े अपने ही देश के वर्णसंकर बुद्धिजीवियों और विकृत-चित्त (perverted) इतिहासकारों से पूछिए... उन करतूतों के वक्त क्यों नहीं पुरस्कार लौटाए थे और क्यों नहीं चिट्ठियां लिखी थीं..? ऐसे बुद्धिजीवी... और ऐसे इतिहासकार... धिक्कार है...
खुद की आबादी बढ़ाने की पशु-प्रतियोगिता में लगे लोग यह नहीं सोचते कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यक हिन्दुओं, सिखों, ईसाईयों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और चकमाइयों की तादाद कम से कमतर क्यों होती चली गई..? इन समुदायों का वहां कत्लेआम क्यों हुआ..? इन समुदायों की महिलाओं की इज्जत वहां क्यों तार-तार की गई..? रोहिंगियाओं पर रोने वाले लोगों को पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों पर रोना क्यों नहीं आता..? एक आवाज नहीं उठी आज तक..! पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों पर पिछले सात दशकों से हो रहे बर्बर अत्याचार के खिलाफ मुसलमानों की तरफ से एक आवाज नहीं उठी। आज जब उन देशों के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने की बात उठी तो चिल्ला पड़े। यह कैसी निहायत घटिया, बेईमान और अधर्मी सोच है..? इस घोर नीचता का कोई कारण समझ में आता है आपको..? धर्म तलवार नहीं जो आंखों में घुस जाए और अंधा कर दे। धर्म वह सीख नहीं देता जो मानवतावाद को उन्मादवाद में बदल दे। धर्म जानवर नहीं बनाता। धर्म इंसान बनने का आत्मिक माध्यम है। मैं यह लिख रहा हूं और पूरे आत्मबल से कहता हूं कि जिस दिन मेरा हिन्दू धर्म; मानव-सम्मान, स्त्री-सम्मान, प्राण-सम्मान और राष्ट्र-सम्मान की सनातन संस्कारिक परम्परा से विरत होकर सकल-धर्म-समभाव के बजाय एकल-धर्म के एंगल से देखने की सीख देगा, ऐसी सीख देने वाले हिन्दू धार्मिकों को धिक्कार भेज कर उसी दिन मैं हिन्दू धर्म से अलग हो जाऊंगा। क्या किसी मुसलमान साथी में है ऐसा आत्मबल..? क्या आपको आपके धर्म ने इतना आत्मबल सिखाया है..? अगर आपके धर्म ने आत्मबल और नैतिक-बल दिया होता तो अपने देश के जम्मू-कश्मीर में रहने वाले हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों और ईसाईयों पर जुल्म देख कर क्या आप चुप बैठते..? पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में वहां के अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार पर क्या आप चुप बैठते..? आप असलियत में धर्मनिरपेक्ष और इंसानियत से लबरेज होते तो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों के जख्म पर मरहम लगाए जाने से क्या चिढ़ते..? इतनी घृणा क्यों भरी हुई है आपमें..? यह कैसा धर्म है जो हृदय में प्रेम के बजाय घृणा भरता है..? कभी सोचा-विचारा है आपने..? आप में सद्-विचार की शक्ति होती तो क्या किसी दुखी-पीड़ित को मिलने जा रहे अर्ध-न्याय पर आपका कलेजा फटता..? केवल इसलिए कि वे मुसलमान नहीं हैं..? क्या सब कुछ आपको ही मिले..? एक बार तो ले ही लिया धर्म के नाम पर देश। सत्तर साल से तो ले ही रहे हैं धर्म के नाम पर रियायतों का दान। क्या चाहते हैं कि देश बार-बार बंटे..? आपके नाम पर लिख दिया जाए देश..? फिर हम सबको आप काटें या तलवार के बल पर मुसलमान बनने पर विवश करें..? मुसलमान बना कर क्या आप अपनी घृणा और हिंसा का भाव त्याग देते हैं..? यह सवाल खुद से पूछिए और जिस पाकिस्तान को आपने धर्म के नाम पर हासिल किया उसे सामने रख कर इस सवाल का जवाब पाइए। ...और पाकिस्तान क्या, धर्म के नाम पर स्थापित किसी भी देश को उठाइए और देखिए कि आप कितने मानवतावादी हैं। अपने धर्म का देश बना लिया और फिर अपने ही धर्म के लोगों को लगे काटने। यह कैसी धार्मिकता है भाई..? धर्म के नाम पर सब कुछ हासिल करने की कुत्सित लोलुपता क्यों नहीं त्यागते..? क्या हासिल कर लिया धर्म के नाम पर देश बांट कर..? हिंसा, नफरत, भिखमंगी और दरिद्रता को ही क्या आपकी जमात धार्मिक उपलब्धि मानती है..? कट्टर धार्मिक अहमन्यता से भरी सोच-समझ वाली जमात में यदि कुछ लोग फिर भी खुद को मानते हैं कि वे वास्तविक इंसान हैं, मानवतावादी हैं, धर्मनिरपेक्ष हैं तो सार्वजनिक फोरम से धिक्कार भेजिए उन लोगों के लिए जो नागरिकता संशोधन अधिनियम के बहाने देश में अराजकता फैलाने के सुनियोजित कुचक्र में लगे हैं। अगर आप में पढ़े-लिखे होने की निशानी बची है और आपने इस अधिनियम को थोड़ा पढ़ा समझा है तो अपनी जमात को थोड़ा शिक्षित-प्रशिक्षित कीजिए। उन्हें बताइये कि नागरिकता (संशोधन) अधिनियम- 2019, जिसे अंग्रेजी में Citizenship (Amendment) Act- 2019 कहते हैं, वह क्या है। यह भारत की संसद द्वारा पारित अधिनियम है, जिसके जरिए 1955 के नागरिकता कानून को संशोधित करके यह प्रावधान किया गया है कि 31 दिसम्बर 2014 के पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आए हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जाएगी। यह अधिनियम उक्त तीन पड़ोसी देशों के उन अल्पसंख्यकों के लिए लाया गया है, जो वहां धार्मिक प्रताड़नाओं के शिकार हुए हैं या हो रहे हैं। इस अधिनियम का वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के जो मुसलमान भारत की नागरिकता चाहते हैं, उन्हें जैसे पहले नागरिकता मिलती थी, वैसे ही अब भी मिलेगी। यह बुद्धि में क्यों नहीं घुस रहा..? नागरिकता संशोधन अधिनियम अब संविधान का हिस्सा है। संविधान की एक धारा आपको आपके मुफीद लगती है तो उसका सम्मान है... पूरा संविधान आपके अनुकूल नहीं लगता तो उसका सरेआम अपमान है। यह कैसी शिक्षा है और कैसा संस्कार है..!
नागरिकता संशोधन अधिनियम के बहाने देश में हिंसक माहौल बनाने वाली जमात और उसके पीछे के सूत्रधार राजनीतिकों की बुद्धि में सब कुछ घुस रहा है... दरअसल, सत्तर साल की लंबी अवधि के दरम्यान भारत में आकर बस चुके पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और अफगानिस्तानी मुसलमानों को राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण (एनआरसी) से बचाने के लिए यह सब उपक्रम हो रहा है। नागरिकता संशोधन अधिनियम पर विरोध और हिंसा असलियत में एनआरसी से बचने की पेशबंदी है। जिन लोगों का अस्तित्व ही अनैतिक और गैर-कानूनी जमीन पर खड़ा है, उन्हें आज समानता का अधिकार सूझ रहा है। जबकि समानता के कानून से उन्हें नफरत रही है, यह सत्तर साल से हम देख रहे हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के मुसलमान बहुत बड़ी संख्या में भारत की मुस्लिम आबादी में घुल-मिल कर रह रहे हैं। यह अवैध लोग यहां के वैध नागरिकों के रिश्तेदार बने बैठे हैं। यह अवैध लोग भारत में बाकायदा वोटर बन चुके हैं। कुछ राजनीतिक दल सत्तर साल से संजोया अपना वोट-बैंक जाता हुआ देख कर तिलमिलाए हैं। इसीलिए वे मुसलमानों को भड़काने में लगे हैं। अवैध रूप से भारत में रह रहे मुसलमानों को अब अपने पहचाने जाने और निकाले जाने का भय सताने लगा है। ‘देश में गृह युद्ध होगा’... कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं ने कुछ अर्सा पहले इस तरह के जो बयान दिए थे, उसे याद करते चलें और यह समझते चलें कि ऐसा माहौल सृजित करने की उनकी तैयारी कब से चल रही है। मुसलमान फिर उनके उपकरण (टूल) बन रहे हैं, क्योंकि इसमें उन्हें अपना हित दिखाई दे रहा है। धर्म के नाम पर अपने रिश्तेदारों को बचाने के लिए लोग देश को आग में झोंकने पर आमादा हैं। इसीलिए बहुत सोच-समझ कर नागरिकता संशोधन अधिनियम पर विरोध हो रहा है, ताकि राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण (National Register of Citizens; NRC) अभियान को ध्वस्त किया जा सके। आपको यह बता दें कि ऊपर-ऊपर विरोध प्रदर्शन और हिंसक हरकतें चल रही हैं तो दूसरी तरफ भीतर-भीतर मुसलमानों में एक कैम्पेन बहुत ही तेजी से चलाया जा रहा है। यह मैं आधिकारिक प्रमाण के साथ कह रहा हूं। इस कैम्पेन को ‘एनआरसी बेदारी मुहिम’ नाम दिया गया है। ‘एनआरसी बेदारी मुहिम’ के जरिए मुसलमानों के बीच यह संदेश तेज गति से चलाया जा रहा है कि वे खुद को भारत का पक्का नागरिक साबित करने वाले सारे दस्तावेज तैयार करके रख लें। दस्तावेज हासिल करने के लिए भारत की घूसखोर प्रशासनिक-धारा का खुल कर इस्तेमाल करने की अंदरूनी मौखिक सलाहें दी जा रही हैं, ताकि पैसे देकर पक्के कागजात हासिल कर लिए जाएं। आप ऊपर-ऊपर देखते होंगे कि मुसलमानों से एनआरसी का बायकॉट करने और कोई फॉर्म वगैरह नहीं भरने की बातें कही जा रही हैं, लेकिन यह छद्म है, असलियत यह है कि पक्के दस्तावेज बनवाने का काम अंदर-अंदर तीव्र गति से हो रहा है।
भारतवर्ष के अधिसंख्य मुसलमान परिवर्तित धर्मावलंबी हैं... यह मुसलमान जानते हैं। किसी धर्म का स्वीकारण किसी भी व्यक्ति का अधिकार और विवेक होता है, वशर्ते वह अपने स्व-विवेक और स्व-अधिकार से यह निर्णय ले। भारतवर्ष में तलवार की नोक पर धर्मांतरण की कुप्रथा कैसे आई और इसके पालन में इतर धर्मावलंबियों और उनके आस्था-केंद्रों के साथ किस तरह की वहशियाना कार्रवाइयों का सिलसिलेवार दौर साल दर साल चला और उस वहशियाना दौर के प्रति-उत्पाद किस तरह उसी नक्शेकदम पर चल रहे हैं, इस पर हम क्रमशः बात करेंगे। अभी इतना जरूर कहते चलें...
जब भीड़ फैसले लेती हो, तब बुद्धि कहां फिर चलती है?
द्वेष भरा हो नस-नस में, तब बुद्ध कहां फिर टिकता है?
झुंड बना कर फिरते हैं जो, इंसान नहीं, बस गिनती हैं वो,
सिर्फ गणन हो जहां कहीं भी, गुणन कहां फिर टिकता है..?
आंखों पर छाया हो मद, तो सत्य कहां फिर दिखता है?