Wednesday 30 April 2014

सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना

प्रभात रंजन दीन
एक मई को श्रम दिवस है। इसमें कुछ भी नया नहीं है। हर साल आता है। हर साल इस दिन के पहले वाली शाम को मजदूरी करती महिलाएं या पुरुषों की फोटो फाइल होती है। हम उसे छापते हैं और श्रम दिवसों के विभिन्न आयोजनों में 'हम होंगे कामयाब एक दिन' गाते हुए अपने आप को गाली देते हुए घर लौट आते हैं। हम ऐसे ही श्रमिक हैं। या कुछ ऐसे भी छद्मी श्रमिक हमारी जमात में शामिल हैं, जो सत्ता-पूंजी-पीठों के दलाल हैं, उन्हीं का खाते हैं, उन्हीं का गाते हैं और हमें भरमाते हैं। हमारे सपने मर रहे हैं, सबसे चिंताजनक बात यही है। आज वोट डालते समय एक मजदूर किस्म का आदमी काफी देर होने पर झुंझला कर बोल पड़ा, 'देर हो रही है, काम नहीं हुआ तो खाएंगे क्या आज, वोट तो हर साल देते हैं, वोट ही देते-देते तो आज खाने खाने को मोहताज हो गए। क्या मिलेगा वोट डालने से। बस कुछ लोगन के चक्कर में आ जाते हैं। अब तो बंद कर देंगे वोट डालना, अगर कुछ भी नहीं बदलना है तो वोट क्यों डालना?' एक  श्रमिक की बोली यह संदेश दे रही थी कि अब देश के श्रमिकों का सपना मर रहा है। पत्रकार भी खुद को श्रमजीवी कहते हैं, गंदे रास्ते से अगर पत्रकारों के वित्तीय स्रोत बंद हो जाएं तो उनकी भी दशा उसी मजदूर की तरह है, जिसे अब सपने देखना भी गवारा नहीं। श्रम दिवस की पूर्व संध्या पर श्रमिक के मरते स्वप्न पर हृदय से श्रद्धांजलि देता हूं। आज के सम्पादकीय में बस श्रद्धांजलि के इन्हीं कुछ शब्दों के साथ महान कवि अवतार सिंह पाश की वह कविता आपके सामने रखता हूं, जो जब तक जिया सपनों के मुरदा होने के खिलाफ जीता रहा और युवा अवस्था में ही जिसे मौत के घाट उतार दिया गया। आप वह कविता भी पढ़ें और हम सब जतन करें कि हमारे सपने जिंदा रहें, ताकि कभी तो हम हों कामयाब एक दिन..!
...मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना- बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना- बुरा तो है
पर सबसे खतरनाक नहीं होता
कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना- बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढऩा- बुरा तो है
मुट्ठियां भींचकर बस वक्त निकाल लेना - बुरा तो है
सबसे खतरनाक नहीं होता
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे खतरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नजर में रुकी होती है
सबसे खतरनाक वो आंख होती है
जो सबकुछ देखती हुई जमी बर्फ होती है
जिसकी नजर दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीजों से उठती अंधेपन की भाप पर ढुलक जाती है
जो रोजमर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है
सबसे खतरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में मिर्चों की तरह नहीं गड़ता
सबसे खतरनाक वो गीत होता है
आपके कानो तक पहुंचने के लिए
जो मरसिए पढ़ता है
आतंकित लोगों के दरवाजों पर
जो गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे खतरनाक वह रात होती है
जो जिंदा रूह के आसमानों पर ढलती है
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते और हुआं हुआं करते गीदड़
हमेशा के अंधेरे बंद दरवाजों-चौखठों पर चिपक जाते हैं
सबसे खतरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती ।
सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना...

Tuesday 29 April 2014

'शो-बाज' लोकतंत्र का 'रोड-शो'...

प्रभात रंजन दीन
फैशन की दुनिया की खूबसूरत बालाएं जो आम तौर पर आम रास्तों पर नहीं दिखतीं, फिल्म की दुनिया की खूबसूरत हस्तियां जो आम तौर पर आम रास्तों पर नहीं दिखतीं, सियासत की दुनिया की नायाब हस्तियां जो आम तौर पर आम रास्तों पर नहीं दिखतीं, ये सब अपने-अपने खास मौकों पर अपनी-अपनी शब्दावली में रैम्प पर उतरती हैं। ठुमके लगाती आती हैं, हाथ हवा में उछालती हैं और मटकती हुई विलुप्त हो जाती हैं। ये नेताओं के जो 'रोड-शो' होते हैं, कुछ ऐसी ही जुगुप्सा के भाव भरते हैं। मॉडलों और हीरो-हीरोइनों की नकल पर नेताओं ने जबसे 'रोड-शो' करना शुरू कर दिया है, आम लोगों का श्रृंगार-भाव खटास से भर गया है।
सोमवार को लखनऊ में नेताओं के 'रोड-शो' का आखिरी दिन था। लेकिन इस आखिरी दिन ने भी लखनऊ के लोगों को यह फिर से जताया कि सत्ताशाही के तमाम चोंचले से लबालब 'रोड-शो' ही अब भारतीय लोकतंत्र की असलियत है। यह 'रोड-शो' शब्दावली ही अलोकतांत्रिक और अराजक है। 'शो-बाजी' से सवा सौ करोड़ लोगों के देश की लोकतांत्रिक प्रणाली का क्या लेना-देना? जिस चुनाव प्रक्रिया की शुरुआत 'शो-बाजी' से होती हो और समापन भी 'शो-बाजी' से होता हो तो स्वाभाविक है देश का नेता भी 'शो-बाज' ही होगा। ...इसीलिए तो भारतीय लोकतंत्र महज 'शो-पीस' बन कर रह गया है। 'रोड-शो' पर तत्काल प्रतिबंध लग जाना चाहिए। लेकिन यह चुनाव आयोग को नहीं दिखता और न ही हर बात में जनहित-याचिका लेकर अदालत की तरफ दौड़ पडऩे वाले जनहित-किराना-स्टोर के मालिकों का ध्यान इस ओर जाता है। 'ज्यूडिशियल एक्टिविज्म' का भारत में रिकार्ड बना रही अदालतें भी जन-सुविधा-विरोधी, लोक-तंत्र-विरोधी और कार्य-संस्कृति-विरोधी ऐसे 'रोड-शो' पर प्रतिबंध नहीं लगातीं। जब प्रदेश का मुख्यमंत्री ही घंटों 'रोड-शो' करेगा और नौकरशाही 'रोड-शो' की कामयाबी के लिए 'रोड' पर बिछ जाएगी, तो यह सवाल कौन पूछेगा कि सरकार काम कब कर रही थी? यह सवाल कोई तो पूछेगा कि चुनाव के दरम्यान आखिर सरकार ने क्या काम किया? जब शासन का मुखिया प्रचार में व्यस्त था। जब तमाम विभागों के मुखिया मंत्री अपने-अपने क्षेत्र में चुनाव दायित्व सम्भाल रहे थे तो संवैधानिक-प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन कैसे हो रहा था? सरकार काम कब कर रही थी? प्रशासन काम कब कर रहा था? पुलिस काम कब कर रही थी? प्रशासन का काम क्या सड़क पर लोगों के लिए असुविधाएं बिछाना और नेताओं के लिए वोट की गिनतियां बिछाना रह गया है?
सोमवार को चुनाव प्रचार का आखिरी दिन था। सत्ताधारी दल क्या, सत्ता के लिए मार कर रही सारी पार्टियां लखनऊ के लोगों का दम निकालने पर आमादा थीं। जितने प्रत्याशी थे सब के सब बाहर निकल आए थे। दृश्य कुछ ऐसा ही था कि जैसे वोट की लूट मची हुई हो और सारी पार्टियां एक साथ लूटने के लिए सड़क पर कूद पड़ी हों। फूहड़ फैशन शो की तरह प्रायोजित हो रहे ऐसे 'रोड-शो' से न जनता प्रभावित होने वाली और न जनता वोट डालने वाली है। जनता भीड़ के जुटने-जुटाने का मर्म जानती है। जनता जानती है कि गांव-कस्बों से विलुप्त हो गई नौटंकी कला नेताओं की रगों में किस कदर अपने भौंडे शक्ल में घुस गई है। 'रोड-शो' जैसे आयोजन नेताओं के नौटंकीबाज दिमाग का ही घटिया उत्पाद हैं। नौटंकीबाजों को आखिर यही तो चाहिए! जुटी या जुटाई गई भीड़, भीड़ की तालियां और मुर्दा मुंह से जिंदाबाद के नारे! राजनीति के नौटंकीबाजों को मंच मिल जाता है, रैम्प मिल जाता है, भीड़ मिल जाती है, तालियां मिल जाती हैं तो उसे सर्वस्व मिल जाता है। उसे वह वोट में दिखता है। और हर वोट में नेता को भविष्य का नोट दिखता है, जिसे लूट कर उसे खाना होता है। नेताओं से सफल नौटंकीबाज कोई नहीं। स्वाभाविक तरीके से रटे रटाए डायलॉग बोलना, मुखड़े को कथानक के अनुरूप थिरकाना, हावभाव दिखाना, प्रदर्शन-हड़ताल-समर्पण-पलायन सबका एक साथ स्वांग रचना, सार्वजनिक मंचों पर जन-सरोकारों का अपने भांडों से ढोल बजवाना और अपने चेहरे पर ईश्वर का भाव लाते हुए हाथ हिलाते हुए अंतरध्यान हो जाना... नौटंकी कला की नेताओं की ये सारी योग्यताएं चुनाव के समय प्रदर्शित हो जाती हैं और नागरिकों का प्राण हर लेती हैं।
सोमवार को पूरा शहर 'पैक्ड' था। कोई इधर से उधर हिल नहीं सकता था। लोग नेताओं और प्रायोजित समर्थकों को केवल हिलता हुआ देख सकते थे। चाहे जितना भी जरूरी काम रहा हो, चाहे जितनी भी आपातकालीन स्थिति रही हो, चाहे जितने भी आप बीमार रहे हों, नेताओं को तो वोट चाहिए। उसे लोगों के काम, लोगों की जरूरत, लोगों की सुविधा और लोगों के स्वास्थ्य से क्या लेना-देना! नेता को तो केवल वोट चाहिए। ...लेकिन वोट के लिए हिंस्र और हया की हदें लांघ रहे नेताओं के आश्वासनों की मीठी बोलियां सुनिए तो अचानक नागार्जुन की कुछ पंक्तियां याद आने लगेंगी, 'आश्वासन की मीठी वाणी भूखों को भरमाती / मौसम की गरमी से ज्यादा उनकी बोली है गरमाती / नेताजन को आडम्बर प्रिय है, प्रिय है उसको नाटक / खोल दिए हैं तुमने कैसे इंद्रसभा के फाटक / अब तो बंद करो हे देवी, यह चुनाव का प्रहसन...!'

जिन क्षेत्रों में 30 अप्रैल को चुनाव होना है, उन जगहों पर नेताओं के चुनाव-पूर्व प्रहसन का दौर तो समाप्त हुआ। बाकी बची नौटंकियों का मंचन भी अब जल्दी ही पूरा होना वाला है। चुनाव भी हो जाएगा और सत्ता भी बन जाएगी। लेकिन आम नागरिक को क्या मिल जाएगा! फिर से नेता देने लगेंगे मोबाइल लैपटॉप और आश्वासन। भूख और अनाज के सवाल फिर से अनुत्तरित ही रह जाएंगे। फिर मन में उठेंगे सवाल कि शुद्ध हवा और शुद्ध पानी तक इस लोकतंत्र में मुहाल है, अभी तो आजादी का छियासठवां ही तो साल है। वोट डालने जो सब अपने-अपने गांव आए हैं, वे उंगली में लोकतंत्र का दाग लगवा कर फिर भागेंगे दिल्ली मुम्बई पंजाब और कोलकाता। भात खाने के लिए फिर से खाएंगे लात। फसल उगने से पहले किसानों को मरना होगा फिर से! गन्ने की फसलें आग के हवाले और भूख का भविष्य चीनी मिल मालिकों के हवाले होगा फिर से! अपनी धरती अपने गांव में सिर्फ रह जाएंगे पागल और बुड्ढे। घरनियां रह जाएंगी देहरी और चौखट पकड़े हुए राह देखती अपने कमाऊ पूत और पति की। यही तो होगा फिर से चुनाव के बाद! हेलीकॉप्टरों पर उड़ते स्वप्न देखने के बाद आश्वासनों की तपती रेत पर नंगे पैर ही तो सफर करना होगा चुनाव के बाद फिर से!

Sunday 27 April 2014

बड़े बुजुर्गों के अपमान का आयोग न बनाएं बिष्ट जी!

प्रभात रंजन दीन
कैसे लोकतंत्र चलेगा बिष्ट जी! पत्रकार आम लोगों के लिए प्रतिबद्ध होने का दावा तो करता है लेकिन सत्ता जैसे ही किसी पत्रकार को अपने तंत्र में शामिल कर लेती है, पत्रकार नेताओं से ज्यादा सत्तादंभी हो जाता है। नेताओं ने यही कुचक्र तो किया है। पत्रकार समुदाय को विधिक रूप से समाज में स्थापित करने के बजाय उसने पत्रकारों को व्यक्तिगत रूप से उपकृत किया और इस उपकार की वजह से समाज का भारी नुकसान और संविधान का भीषण अपमान हो रहा है। अरविंद सिंह बिष्ट उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग के एक आयुक्त चुने गए हैं। पुराने पत्रकार रहे हैं। जब पत्रकार थे तब मित्र भी थे। ऐसे पत्रकारों के सरकारी तंत्र में आने से सरकार में चारित्रिक परिवर्तन की सम्भावना बननी चाहिए, लेकिन होता उल्टा है। पत्रकार में ही सरकारी चरित्र ठाठें मारने लगता है और मूल उद्देश्य नैतिक होने के बजाय 'नेताइक' हो जाता है। सूचना आयुक्त बनना तो एक अवसर था बिष्ट साहब, कि इतिहास में आपका नाम दर्ज हो जाता। सूचना का संवैधानिक अधिकार चाहने वाले आम लोगों की भीड़ आपका नाम सम्मान से लेती, लेकिन आपमें जन-सम्मान पाने की वह धार्यता नहीं है। मैं कभी भी कोई लेख व्यक्तिपरक नहीं लिखता, लेकिन आपने बुजुर्ग आरटीआई ऐक्टिविस्ट अशोक कुमार गोयल को जिस तरह अपमानित कर उन्हें जेल भिजवाया वह संवैधानिक-धर्म-चरित्र की घोर अवहेलना है और इसके खिलाफ पूरे समाज को खड़े होने की आवश्यकता है। एक बुजुर्ग समाजसेवी का अपमान व्यक्ति-केंद्रित नहीं, समाज केंद्रित है, लिहाजा एक सामान्य नागरिक का संवैधानिक दायित्व निभाते हुए मैं यह तकलीफ लिख रहा हूं। श्री गोयल ने सूचना ही तो मांगी थी! अगर सरकार से जुड़ी सूचनाएं आम लोगों तक नहीं पहुंचाने के लिए ही आप कटिबद्ध थे तो सूचना आयुक्त बनने के लिए इतने उत्साहित क्यों थे! या सरकार के उपकार का आप इसी तरह प्रति-उपकार सधाना चाह रहे हैं? बिष्ट जी! अभी ज्यादा दिन भी नहीं बीते हैं। घंटों दफ्तर में बैठ कर मेरे साथ आप सामाजिक सरोकारों पर बातें करते थे, आमजन की समस्याओं पर लिखी खबरों पर आप खास तौर पर बधाई देते थे। अब वो क्या आप ही हैं बिष्ट साहब? अशोक कुमार गोयल जब अखबार के दफ्तर में आते हैं तो हम पत्रकार कुर्सी से खड़े होकर उनका सम्मान करते हैं। समाज के दुख-दर्द के प्रति गोयल साहब इतने संजीदा हैं कि हम पत्रकार उनके सामने खुद को बहुत ही छोटा महसूस करें। ऐसे सज्जन सम्मानित व्यक्ति को धक्के मार कर कक्ष से बाहर निकाल देने का फरमान आपने कौन सा बिष्ट होते हुए जारी किया होगा, यह समझने में मैं असमर्थ नहीं हूं। आपने कभी आम आदमी की तरह समाज में गलियों-नुक्कड़ों पर आम सुविधाओं के लिए धक्के खाए हैं? कभी भी? अगर एक-दो धक्के भी खाए होते तो धक्के खा-खाकर उम्र के हाशिए पर जा चुके गोयल साहब को धक्का मार कर बाहर कर देने का आदेश देने वाले अरविंद सिंह तुगलक आप न बने होते। ...और सामाजिक संस्कारों की सीख भी अगर ध्यान में हो तो किसी बुजुर्ग ने थोड़ा तल्खी से कह भी दिया तो क्या पिता को हम धक्के मार कर घर से बाहर कर देंगे? बिष्ट जी, सत्ता अधैर्य देती है, इसीलिए तो चरित्रहीन मानी जाती है। सूचना आयुक्त की संवैधानिक पीठ पर बैठे व्यक्ति का सत्ता-अधैर्य अशोभनीय और क्षोभनीय दोनों है। आपने तो गोयल साहब को धक्के मार कर अपने कक्ष से बाहर निकलवा दिया और देर रात में भारी पुलिस-फौज भेजकर उन्हें घर से भी उठवा लिया। रातभर उन्हें हजरतगंज कोतवाली में बिठाए रखा गया। ऐसा क्या गोपनीय था कि इस 'महान-गिरफ्तारी' के बारे में एसएसपी से भी छुपाया गया? बुजुर्ग गोयल साहब अचानक रातोरात इतने बड़े अपराधी कैसे बन गए कि पुलिस ने तमाम संगीन धाराओं के साथ-साथ 'क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऐक्ट' के तहत भी उनपर मुकदमा ठोक दिया? आपने और कुछ पुलिस अधिकारियों ने मिल कर पूरे प्रदेश को क्या अपनी जमींदारी समझ ली है? बिष्ट जी, आप जब पत्रकार थे तब आपने भी लिखा ही होगा पुलिस की ऐसी बेहूदा हरकतों के खिलाफ! तब और अब में व्यवहार का नजरिया कैसे बदल गया कि आपने यह महसूस भी नहीं किया कि 'हाई ब्लड प्रेशर' और 'ब्लड शुगर' के मरीज बुजुर्ग को पुलिस ने रात भर दवा भी नहीं लेने दी तो उन पर क्या गुजरी होगी! इसे श्री गोयल की सुनियोजित हत्या की कोशिश क्यों नहीं माना जाए? आप आज पत्रकार होते तो क्या आप यह सामाजिक कोण अपनी दृष्टि में नहीं रखते? अभी भी वक्त है बिष्ट जी, विचार करिए, बुजुर्गों के सम्मान का समाज को संस्कारिक संदेश दीजिए और बड़े हो जाइये...  

Thursday 24 April 2014

इस हृदयहीन युद्ध में खो गया है बुद्ध...

प्रभात रंजन दीन
एक बार बुद्ध ने अपने प्रवचन में कहा, जागो, समय हाथ से निकला जा रहा है। इस संदेश का सब ने अपने अपने तरीके और अपनी-अपनी समझ से मतलब निकाला। नर्तकी ने अपने तरीके से, डकैत ने अपने तरीके से और वृद्ध ने अपनी समझ से बुद्ध के उस संदेश का अर्थ निकाला... बुद्ध ने बाद में अपने शिष्य से कहा कि जिसकी जितनी झोली होती है, उतना ही वह समेट पाता है। झोली बड़ी हो इसके लिए मन का शुद्ध होना बहुत जरूरी है। ...और सारी बात इसी एक बात पर आकर टिक जाती है। जिसकी आत्मा शुद्ध हो, उसी की झोली बड़ी हो सकती है, वही बुद्ध को समझ सकता है। सारे सामाजिक सरोकार इसीलिए तो संकट में हैं, क्योंकि सारे सम्बन्ध अशुद्ध हैं, सारे भाव अशुद्ध हैं, सारे ताव अशुद्ध हैं। केवल आडम्बर है छाया हुआ। केवल अवसरवाद है हर तरफ रंभाया हुआ। इसीलिए तो न कहीं शुद्ध है, न कहीं बुद्ध है। इस पर कई बार बात हो चुकी। इस पर कई बार सम्पादीय लिखे जा चुके। इस पर कई बार और बार-बार लेख लिखे जाते रहे, लेकिन किसने लिख कर किसके मन को धो दिया? किसने अक्षर उकेर कर किसमें शुद्ध प्रेम का भाव भर दिया? किसने बोल कर किसकी झोली बड़ी कर दी? क्या बुद्ध ने कर दी? फिर क्यों हर तरफ वही सब है जिसे बुद्ध ने नहीं चाहा? जिसे कबीर ने नहीं चाहा? जिसे तमाम सूफी संतों ने नहीं चाहा? क्यों हर हाथ में चाकू है और हर आंख को पीठ की तलाश है? क्यों हर व्यक्ति दूसरे को मरी हुई सीढ़ी समझता है, इस्तेमाल करता है और ऊंचा चढ़ कर उसी सीढ़ी को हेयता की नजर से देखता है? हेलीकॉप्टर मिल गया तो क्या वह कभी जमीन पर उतरेगा ही नहीं? हेलीकॉप्टर उड़ाने वाला कहां आसमान पर सफलताओं को टिका देगा और घर बना देगा? अगर जमीन और जमीन पर टिकी सीढिय़ों की उपेक्षा कर आसमान पर सफलताओं के आशियाने बनते होते तो हेलीकॉप्टर उड़ाने वालों या हेलीकॉप्टर से उडऩे वालों के तमाम कामयाबियों के आशियाने आकाश पर छा नहीं गए होते? कितना सटीक कहा गया, 'जिसकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी'... लेकिन हम आधुनिक लोग कहावतों की लाइनें उठा कर इस्तेमाल तो करते हैं लेकिन आचरण में भावना के बजाय केवल सम्भावना तलाशते हैं। लोगों ने सीखा है केवल अपने उस्तुरे पैने करना और दूसरे के पंख तलाशना। अब तो सब तरफ व्यापार है बुद्ध का, शुद्ध का, युद्ध का। अब तो सब तरफ व्यापार है प्रेम का, शांति का, सच्चाई का। अब तो सब तरफ व्यापार है सियासत का, नफासत का, सदारत का। अब तो सब तरफ व्यापार है जिंदों का, मुर्दों का और दोनों के बीच की कौमों का, जो न जिंदा हैं और न मरे हुए।

आधी रात के भी घंटे डेढ़ घंटे बाद जब अखबार छूटता है, अंधेरी रात को तब सन्नाटा सड़क पर साथ-साथ चलता है। लेकर चलता है साथ में और दिखाता है बोझिल सपनों के खंडहरों के तमाम स्मारक। थोपे हुए महापुरुषों की रात में खड़ी पथराई लाशों के आदमकद भूतों के डेरे से गुजरते हुए अपना बबूल सा व्यक्तित्व बहुत चुभने लगता है। सूखी हुई गंधाती गोमती बहुत रुलाती है, पर वह उल्टे सांत्वना भी देती है कि अकेले तुम ही नहीं हो, मैं भी हूं। जिस जीवित के जीवंत बहने पर कफ्र्यू है, जिसकी धारा पर धारा 144 है और जिसकी कृषकाया पर देखो कैसे विशालकाय पुल जीवन के आलीशान छद्म की तरह धड़धड़ाता हुआ गुजरता है। जैसे गोमती की उपेक्षा करता यह नया पुल न हो, नया कुल हो, जो अपनी सारी धारा को, आत्मा को 'री-साइकिल बिन' में डाल देता है, उसे यह समझ में नहीं आता कि जीवन के इस 'डस्ट बिन' में 'री-साइकिल' कुछ भी नहीं होता। विश्वास ही नहीं होता कि जीवन इस तरह की भी हृदयहीन आकृति लेता है! यकीन ही नहीं होता कि सत्य की यह भी आकृति होती है, सत्य का यह भी स्वरूप होता है! क्या यही सत्य है जो मुझे जन्मों जन्मों से भरमाए है और मैं गहरे तेज घूमते भंवर सा भ्रमित हूं जन्म जन्मांतर से! अब तो सारे भ्रम छोड़ कर मैंने अपनी व्यस्त और बदहवास जिंदगी की जेबों से निकाल निकाल कर पुरानी चीजें फेंकनी शुरू कर दी हैं। आधुनिक संवेदनहीन भाषा में कहें तो मैंने अपनी सारी स्मृतियां जीवन रहते 'डिलीट' करनी शुरू कर दी हैं। अरे क्या हैं उनमें! वही पुराने तुड़े मुड़े सिमटे लुग्दी हो चुके कागज उम्मीदों के, जुड़ाव की स्मृतियों के और सुकून के टूटे हुए कुछ बटन जो जीवन की शेरवानी पर कभी संवर कर टंक न सके, ये मेरे उसी बदनुमा-बदशक्ल जीवन की जेब से मिले हैं... टूटे हुए काज वाले बटन... 

Saturday 19 April 2014

'दि इन्टेंशनल प्रेस कॉन्फ्रेंस फॉर एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' The Intentional Press Conference for Accidental Prime Minister

प्रभात रंजन दीन
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब ने कांग्रेस की रही सही कसर पूरी कर दी। बारू ने मनमोहन सिंह क्या, पूरी कांग्रेस को ही सत्ता-झंझटों से उबार दिया। सारा झंझट ही खत्म। पहले तो कांग्रेस ने बारू की किताब को आसानी से लिया था, लेकिन जब पूरे देश ने इसे गम्भीरता से ले लिया तब कांग्रेस होश में आई। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को लग गया कि संजय बारू की किताब ने तो काम लगा दिया। फिर इसकी 'रिपेयरिंग' के तरीके फार्मूले ईजाद किए जाने लगे। ऐसी किसी 'क्राइसिस' में पड़ी किसी ऊंची हस्ती या ऊंचे प्रतिष्ठान को मीडिया ही उबारता है। तो इस बार मनमोहन सिंह के मौजूदा मी
डिया सलाहकार पंकज पचौरी उन्हें उबारने के लिए सामने आ गए। सामने आए तो कई पत्रकार बिछ गए। रीढ़ को घर पर छोड़ कर प्रेस क्लब में पचौरी के साथ कंधे से कंधा मिला कर बैठ गए और लगे सफाई देने कि नहीं, नहीं, प्रधानमंत्री तो काम के आदमी हैं। बारू ने कैसे कह दिया कि नाकाबिल हैं! पंकज पचौरी क्षतिपूर्ति कर रहे थे और बाकी पत्रकार उनकी हां में हां और उनकी ना में ना मिला रहे थे। पचौरी ने कहा कि आर्थिक आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि पिछले दशक में देश का अभूतपूर्व विकास हुआ है। यह सुनते ही पूरा देश हंस पड़ा। यह अलग बात है कि प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्टेनो-टाइपिस्ट बने पत्रकारों को हंसी नहीं आई। फिर पचौरी ने हास्य रस को और आगे बढ़ाते हुए कहा कि देश का यह विकास प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कमजोर होने पर असम्भव होता। पचौरी ने दूसरा चुटकुला भी छोड़ा कि लोगों को सरकार की उपलब्धियों के सभी पहलुओं की जानकारी नहीं हो रही है। इसके लिए उन्होंने उन्हीं मीडियाकर्मियों को कोसा जो वहीं उनके पास बैठे खीसें निपोर रहे थे। यह कहते हुए पंकज पचौरी को केंद्र सरकार का सूचना और प्रसारण मंत्रालय याद नहीं आया, जो दो-दो कौड़ी की सरकारी खबरों और उपलब्धियों का ढिंढोरा पिटवाता है लेकिन मनमोहन के विकास-कार्यों का प्रचार नहीं कर पाया। मीडिया का आदमी जब दलाली पर उतरता है तो उसका कोई सानी नहीं होता, उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। पंकज का पूरा आचरण एक सधे हुए मंजे हुए दलाल की तरह दिख रहा था। उसकी यह योग्यता देखिए कि उसने न केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बेहद योग्य कहा बल्कि यह भी कह डाला कि मनमोहन के प्रधानमंत्रित्व में देश ने अभूतपूर्व प्रगति की है। पचौरी की प्रेस कॉन्फ्रेंस जैसे लाफ्टर चैलेंज शो का सोलो आयोजन था। इस पर तो तब और मजा आया जब पचौरी ने देश के विकास का आंकड़ा भी सामने रख दिया। यह आंकड़ा वैसे ही था जैसे मनमोहन के ज्ञानवान योजनाकारों को 32 और 25 रुपए की समृद्धि दिख रही थी और मनमोहन की पार्टी के लोगों को 15 और पांच रुपए में भरपेट भोजन दिख रहा था। संजय बारू की पुस्तक 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह' के जवाब में नई दिल्ली के प्रेस क्लब में शुक्रवार को आयोजित हुई 'इन्टेंशनल प्रेस कॉन्फ्रेंस फॉर द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर मनमोहन सिंह' में एनडीटीवी से जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार पंकज पचौरी ने विजुअल मीडिया की खूब खिल्ली उड़ाई। पचौरी ने ही कहा कि विजुअल चैनल वालों की प्राथमिकता हल्की-फुल्की खबरें और मनोरंजन तलाशने में रहती है, लिहाजा उन्हें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की गम्भीरता में प्राथमिकता नजर नहीं आती। पंकज ने मनमोहन सिंह को उबारने की तो कोशिश की लेकिन कांग्रेस को नहीं उबार पाए। संजय बारू द्वारा उठाए गए सवाल वहीं के वहीं रह गए। उनमें से कुछ एक सवालों के जवाब भी संतोषजनक तरीके से पंकज पचौरी दे पाते तो शुक्रवार की उनकी 'इन्टेंशनल प्रेस कॉन्फ्रेंस फॉर दि एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' थोड़ी बहुत भी अपनी सार्थकता दर्ज कर पाती। मसलन, पीएमओ की फाइलें सोनिया गांधी क्यों देखती थीं और पास करती थीं और मनरेगा जैसी योजनाओं का श्रेय मनमोहन सिंह के बजाय राहुल गांधी को देने का दबाव क्यों बनाया जाता था, दस साल की चोरी-बटमारी पर रोक क्यों नहीं लगाई, चोरी की भरपाई के लिए जनता पर महंगाई क्यों लाद दी गई, और इन पर मनमोहन की चुप्पी क्यों सधी रह गई पूरे दस साल? लोकसभा चुनाव सामने है और सामने हैं ये ज्वलंत सवाल... 

सीरत में गद्दारी है...

प्रभात रंजन दीन
गुरुवार को अचानक मौसम बदल गया। तेज आंधी चलने लगी, चारो तरफ धूल ही धूल, पेड़ उखडऩे लगे, फसलें उजडऩे लगीं, बिजली के तार टूटने लगे, दीवारें गिरने लगीं, लोग मरने लगे, जख्मी होने लगे, थोड़ी देर में सब शांत हो गया। प्रकृति जैसे अपनी नाराजगी जता कर कहीं चली गई। झूठ और लफ्फाजी का जो चरम है भारतवर्ष में अभी, उससे लोग भले ही नाराज न होते हों, प्रकृति तो संवेदनशील है, उसे नाराजगी हो जाती है और वह उसे अभिव्यक्त भी कर देती है। लेकिन हम लोग अपनी नाराजगी अभिव्यक्त नहीं कर पाते, हम लोग तो अब नाराज भी नहीं हो पाते। यथास्थितिवाद को हमने स्वीकार कर लिया है। नाराज होते तो यह व्यवस्था थोड़े ही रहती। हम भी तूफान की तरह आते और नेताओं और उनकी लफ्फाजियों को धूल की तरह उड़ा कर फेंक देते। लेकिन हम में वह ताकत कहां। या हमें अपनी ही ताकत का एहसास कहां। बुजुर्गों ने कहा कि क्रोध विनाश का कारण है। यह बात जब कही गई, तब काल और परिस्थिति तब जैसी थी। आज स्थिति बदल गई है। आज विनाश ही जरूरी हो गया है। इसलिए क्रोध जरूरी हो गया है। किसी भी काल खंड में जिसे क्रोध नहीं आया या अब नहीं आता उसके जिंदा होने में संदेह है। जो जिंदा है वह ठहाके लगाएगा, वह रोएगा, वह प्रेम करेगा, वह गुस्सा होगा, वह प्रकृति की धारा में बहेगा। जो मुर्दा होगा या जो मुर्दा होने की प्रक्रिया में रहेगा वह हंसेगा नहीं, रोएगा नहीं, प्रेम नहीं करेगा, वह गुस्सा नहीं करेगा, वह सारे कृत्य करेगा जो प्रकृति के विपरीत हों, मसलन झूठ बोलेगा, धोखा देगा, सम्बन्धों में मक्कारी करेगा, चेहरे पर कई किस्म के चेहरे लगा कर घूमेगा, कोई जरूरी नहीं कि वह पहले नेता ही हो जाए, हां, जब सारे अप्राकृतिक आचरण उसके व्यक्तित्व में समाहित हो जाएंगे तो वह एकबारगी नेता के रूप में खिल कर सामने आएगा। जब तक सत्ता में रहेगा देश को लूटेगा और नागरिकों को चूसेगा। जब विपक्ष में रहेगा तो सत्ता के लिए तिकड़म करेगा, माहौल सड़ाएगा। जब मंच पर चढ़ेगा तो उसके चेहरे पर जैसे सारी इंसानियत और सारा देवत्व एक साथ चढ़ आएगा। जब जरूरत पड़ी तो खीसें निपोरेगा और काम निकल गया तो देखेगा भी नहीं। स्वार्थसिद्ध वाला कोई भी दिख गया तो अपने किसी सगे को भी नहीं पहचानेगा। सारी नकली मासूमियत और सारी असली जानवरीयत जिस एक ही देह में आकार लेती हो, ऐसा उत्पाद भारतीय लोकतंत्र में ही हो सकता है। सूरत में कुछ और... सीरत में बिल्कुल कुछ और। इन सूरतों के मारे हुए उजड़े हुए घरों को देखिए तो पूरा लोकतंत्र गिरे हुए पेड़ों के खौफनाक मंजर की तरह दिखता है। सारे जंगल जब शहर के कानून में बसा दिए गए तो स्वाभाविक है सारे सांप शहर में ही आ कर बस गए। इन्हीं सांपों का अभी मौसम है। इन्हीं सांपों को अभी दूध पिलाने का मौसम है। फिर शुरू होगा उनका मौसम, वे लहूं पीएंगे और हम उन्हीं का जहर।
...शोर मचाया लफ्जों ने, थोथे सब्र बंधाए खूब / बातें उनकी, वादे उनके, उजड़े-उजड़े सूखे दूब / चेहरे पर जो भाव लिखा सब लफ्फाजों पर भारी है / सूरत में है यारी जिसकी, सीरत में गद्दारी है... 

Friday 18 April 2014

जब मौन जीवन में उतर आए...

प्रभात रंजन दीन
यह सवाल एक व्यक्ति क्या पूरी मानव सभ्यता को ही बार-बार कुरेदता रहा है कि हमारे ही बीच के लोग अचानक मौन क्यों साध लेते हैं। अचानक चुप्पी के संसार में क्यों चले जाते हैं। बोलने के प्रति अचानक कोई आकर्षण क्यों नहीं रह जाता। इस पर तमाम बहसें चलती हैं। तमाम बौद्धिकियां होती हैं। दिमाग खपाए जाते हैं, फिर भी कोई आखिरी निष्कर्ष नहीं निकलता, फिर भी बहस चलती ही रहती है, फिर भी निरर्थक वाक-उत्पाद होता ही रहता है, और फिर भी जीवन में रहते हुए ही मौन साध लेने का अभ्यास भी चलता रहता है। इतने भाषण, इतनी बोलियां, इतनी घोषणाएं, इतने वायदे, इतने आश्वासन, इतने नारे, इतने सिद्धांत, इतनी नैतिकताएं, इन सबका इतना शोर-गुल, फिर भी ये सब असलियत में कहीं नहीं। असल में केवल छद्म। असम में केवल अवसरवाद। असल में केवल एक दूसरे को धोखा। बोली से भी। आचरण से भी। क्या इन्हीं वजहों से लोग मौन साधते रहे! क्या इसी वजह से भगवान बुद्ध ने भी कभी चुप रहने का संकल्प ले लिया था! क्या इन्हीं वजहों से कभी चाणक्य ने मौन को सबसे अधिक प्राथमिकता दी थी! क्या इन्हीं वजहों से रमन्ना महर्षि समेत तमाम संत-फकीरों ने शेष जीवन में मौन ही साध लिया! चाणक्य का संस्कृत में एक श्लोक है। पिता भोजन करने के समय चुप रहने की सीख देते हुए यह श्लोक सुनाया करते थे। बिना अर्थ जाने बालहट में श्लोक को रट भी लिया था, 'ये तु संवत्सरं पूर्ण नित्यं मौनेन भुंजते। युगकोटिसहस्त्रं तु स्वर्गलोके महीयते... पिता ने उसका अर्थ भी बताया था, लेकिन समय रहते अर्थ कहां पता चलता है, कहां समझ में आता है, कहां आत्मसात हो पाता है! बहुत दिनों के बाद इसका अर्थ जान पाया। वह है, 'जो मनुष्य एक वर्ष तक मौन रहकर भोजन करता है, वह अवश्य ही जीवन में मान सम्मान प्राप्त करने के अतिरिक्त जीवन काल के बाद भी स्वर्ग भोगता है।' मृत्यु के बाद तो जीव-शरीर यह नहीं जानता कि क्या होता होगा, लेकिन मौन रहने से अगर इसी जीवन में शांति मिले, तो इसका अभ्यास तो करना ही चाहिए। चाणक्य ने जीवनपर्यंत मौन को प्राथमिकता दी। भोजन के वक्त चुप रहने को तो उन्होंने अनिवार्य बताया था। चाणक्य के दर्शन से प्रभावित अंग्रेज दार्शनिकों ने भी कहा 'साइलेंस इज़ गोल्ड'। अब तो आधुनिक चिकित्साशास्त्री भी खाते वक्त चुप रहने को स्वास्थ्यप्रद बताते हैं। प्रकृति ने मनुष्यों को बुद्धि और विवेक की असीमित शक्ति दी है। नतीजा यह हुआ कि उस ताकत ने मनुष्य में अहंकार और अवसरवाद का भाव भी खूब भर दिया। अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए उसे बोली मिल गई तो वह इसका अनाप-शनाप उपयोग करने लगा। बोलने के लिए जीभ का इस्तेमाल है और सुनने के लिए कान हैं। लेकिन दोनों का कोई संतुलन नहीं। सुनने से तो कोई वास्ता ही नहीं। सुनना भौतिक लाभ नहीं देता। बोलना त्वरित लाभ देता है। बस देखिए, सब अपनी-अपनी बात कर रहे हैं। कोई किसी की सुन नहीं रहा है। सब अपनी-अपनी बात बोले चला जा रहा है। कुछ भी पा लेने की इतनी आपाधापी है कि बस हम अपनी कह दें और दूसरा सुन ले। एक दूसरे से सब कुछ छीन लेने के मौकापरस्त शोर में मौन पर कोई कुछ लिखे तो बड़ा अटपटा लगता है। मौन साधना बड़ा कष्ट देता है, बड़ी छटपटाहट देता है, बड़ी बेचैनी देता है। जुबान चुप रहती है, लेकिन मन बोलता ही रहता है। मन भी जब चुप हो जाए तब समझिए जीवन में मौन उतरा। यह जैसे ही उतरा, जीवन का सारा झंझट ही समाप्त। फिर इससे क्या फर्क पड़ता कि किसने किसका दिल दुखा दिया, किसने किस रिश्ते को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर लिया, किसने जीवंतता को मृत्युता में तब्दील करने में क्षणभर भी संकोच नहीं किया! मौन उतरा तो फिर संसार देखने का कोण ही बदल जाएगा। शब्दहीनता सूक्ष्म स्पंदन की तरह शरीर में सितार बजाएगी। प्रकृति का अस्तित्व अलग से रूप में सांसों से उतरेगा। कुरूप कुछ भी नहीं दिखेगा, शील स्वरूप वातावरण पर आच्छादित हो जाएगा, सत्य की गुनगुनी धूप तन-मन में मुस्काएगी। फिर आप बुद्ध की शरण में जाने की घोषणा किए बगैर उसमें आत्मसात हो जाएंगे, चुपचाप, बिल्कुल मौन...

Thursday 17 April 2014

...तो जीवन के सरोकार जघन्य बन ही जाएंगे

प्रभात रंजन दीन
जब समय हाथ से निकलता हुआ दिखता है तो दर्शन खूब दिखता है। दर्शन का मतलब ही है दिखना। जीवनभर यह कहां दिखता है। जब उम्र और ऊर्जा जोर पर रहती है तो कामनाएं ठाठें मारती है, तब दर्शन कहां और शास्त्र कहां। तब यह नहीं समझ में आता कि जीवन का यही शास्त्र एक दिन दर्शन की ताकत देगा। जब यह ताकत आएगी तभी यह समझ में आएगा कि जीवन की क्या अनिवार्यताएं हैं और जीवन की क्या वर्जनाएं हैं। अब तो वर्जनाएं ही सब अनिवार्यताएं हो गई हैं। अब तो छोटी-छोटी कामनाएं पूरी हो जाएं उसके लिए बड़े-बड़े प्रगाढ़ सम्बन्ध लाश बन जाएं, क्या फर्क पड़ता है। कामनाओं की इस आपाधापी में कब वक्त मिलता है कि यह सोच भी सकें कि जीवन में जो किया उसमें क्या भला था और क्या बुरा! जब से होश आता है, लेकिन होश आता कहां है, यह तो केवल मुगालता है। होश आने का मुगालता। होश में आने का मुगालता और अधिक तेजी से बेहोशी में ले जाता है। वह इसी मुगालते वाले होश में देखता है कि दुनिया के बाजार में हर एक व्यक्ति एक दूसरे को भुलाने में और भुनाने में लगा है। सब अपनी-अपनी ले और अपनी-अपनी दे में लगा है। फिर वह भी उसी रेले में बहना शुरू कर देता है। भीतर के भावों से फिर मतलब नहीं रहता। फिर उसे कहां पता रहता है कि अनिवार्यताएं क्या हैं और वर्जनाएं क्या! तब कहां दिखता है कि जीवन का बाजार जितना भड़कीला और रंग-रंगीला था वह केवल रंग-बिरंगी चकाचौंधी चुनरियों में लिपटी वर्जनाएं थीं। तब परहेज नहीं किया, अब तो उसकी लत लग चुकी है। अब तो हृदय से हृदय का राग नहीं, अब सारी सफेदी में दाग ही दाग हैं और जिसके हाथ में जो मिला उसे लेकर ही भागमभाग है। कौन क्या सोचेगा, किसकी आंख में क्या खटकेगा, किसके मन में क्या सीधा जा कर चुभ जाएगा और आंखों से खून रिसाएगा, इसकी परवाह किसे है? और परवाह क्यों रहे? सब तो यही सुनता आया है कि सब अकेला आया है और अकेला जाएगा, फिर वह सिर्फ अकेले की ही क्यों न सुने? फिर वह अपने ही इर्द-गिर्द क्यों न नाचे? फिर क्यों न वह अपनी ही देह-गाथा बांचे? 1984 के सिख विरोधी दंगे की एक विचित्र घटना हमेशा याद रहती है। दंगा मचा था। लूटपाट मची थी। मुहल्ले का एक लड़का एक टायर लुढ़काता हुआ चला जा रहा था। पूछा तो कहा कि टायर की दुकान में लूट हुई थी वहीं से एक टायर मिल गया। दो कौड़ी का टायर। मिल गया तो उसे ही उठा लिया। छोटा सा टायर मिल गया तो सारी वर्जनाएं समाप्त। बड़ा मिल जाए तो खुद का अस्तित्व दे दे। अब टायर ही जीवन का फलसफा बन गया। हम सब उसी टायर-फलसफे के शिकार हैं। हमारा शास्त्र अवसर पाते ही टायर लूट लेना है, तो हमारा दर्शन बड़ा कैसे हो सकता है। लूट के फलसफे पर टिका जीवन कभी छोटा टायर लूट लेगा तो कभी बड़ा हवाई जहाज। लूट तो लूट ही है, लूट तो त्यज्य ही है, कामना तो हेय ही है, क्षुद्र महत्वाकांक्षाएं तो क्षुद्र ही हैं, यह विचार जीवन के दर्शन में कहां! यह जीवन-दर्शन कहां कि 'अपना तो अस्तित्व सजग है, यह सोच बड़ी-बड़ी चट्टानों से जा टकराना'! अब तो जीवन-दर्शन है, मंत्री ने कंधे पर हाथ रख दिया तो जीवन धन्य। औकात वाले ने मुस्कुरा कर पूछ दिया तो धन्य-धन्य। हम इतने ही हैं मूर्धन्य। ...तो जीवन के सारे सरोकार जघन्य बन ही जाएंगे।

Wednesday 16 April 2014

यूबीआई के जरिए 'कॉल मनी' का भी धंधा करता है सहारा

यूबीआई के ऋण घोटाले की खबर छपते ही कई प्रमुख उद्योगपतियों ने अखबार से सम्पर्क साधा
प्रभात रंजन दीन
ऋण के बंटवारे में यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया का घोटाला उजागर करते हुए हमने 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' के अगले अंक में यूबीआई और सहारा के आपसी 'मेलजोल' से भी पर्दा उठाने की बात कही थी। यूबीआई और सहारा समूह का रिश्ता इतना प्रगाढ़ रहा है कि यूबीआई के अधिकारी सहारा समूह के लिए किए गए काम को अपने बायोडाटा में शामिल करते हुए गर्व करते हैं। यह गर्व उन्हें अपने प्रतिष्ठान में काम करते हुए होता है कि नहीं, इस पर संदेह ही है। सहारा फाइनैंस यूबीआई के जरिए 'कॉल मनी' और 'नोटिस मनी' का धंधा भी करता है। 'कॉल मनी' के धंधे से हजारों करोड़ रुपए का 'ट्रांजैक्शन' एक ही दिन में हो जाता है।
'कॉल मनी' के धंधे की प्रक्रिया भी आप जानते चलें। मुद्रा बाजार मुख्यत: बैंक और प्राथमिक डीलर (पीडीएस) जैसी संस्थाओं के बीच धन उधार देने और उधार लेने की प्रक्रिया को सुलभ बनाता है। बैंक और पीडीएस अपनी निधियों की स्थिति के असंतुलन को दूर करने के लिए रातभर के लिए अथवा अल्प अवधि के लिए उधार लेते और देते हैं। यह उधार लेना और देना गैर-प्रतिभूत आधार पर होता है। एक दिन के लिए निधियां उधार लेने अथवा देने को 'कॉल मनी' कहा जाता है। जब दो दिन से 14 दिन के बीच की अवधि के लिए धन उधार लिया अथवा दिया जाता है तो उसे 'नोटिस मनी' कहा जाता है। 14 दिन से अधिक की अवधि के लिए निधियां उधार लेने या देने को 'टर्म मनी' कहा जाता है। ...तो यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया के जरिए सहारा फाइनैंस 'कॉल मनी' का बड़ा धंधा कर रहा है। यूबीआई सूत्रों ने ही बताया कि सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत रॉय के बहनोई अशोक रॉयचौधरी कभी यूबीआई के कर्मचारी रहे हैं और उस समय के रिश्ते अब तक बने हुए हैं। ऋण-घोटाले में खुद को फंसता देख कर स्वैच्छिक अवकाश लेकर परिदृश्य से गुम हो जाने वाली यूबीआई की चेयरमैन सह प्रबंध निदेशक अर्चना भार्गव के भी सहारा प्रबंधन से मधुर रिश्ते रहे हैं। इस नजदीकी रिश्ते के कारण ही यूबीआई के शीर्ष अधिकारी भी अपने बायोडाटा में सहारा के लिए काम करने का विशेष जिक्र करते हैं। महाप्रबंधक स्तर की अधिकारी रही सीमा सिंह भी उन अधिकारियों में से एक हैं जिनके व्यक्तिगत विवरण में सहारा फाइनैंस के लिए किए गए काम का बड़े गौरव से जिक्र आता है।

खैर, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया के ऋण घोटाले की कहानी में आपने कल देखा कि कैसे हेलीकॉप्टर खरीदने के लिए महज आठ लाख रुपए की प्रदत्त-पूंजी वाली कम्पनी हिंद इन्फ्रा सिटी प्राइवेट लिमिटेड यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया से सौ करोड़ से अधिक का ऋण लेकर फुर्र हो जाती है और बैंक प्रबंधन न वसूली की कार्रवाई करता है और न ही उसे 'नॉन परफॉर्मिंग ऐसेट' (एनपीए) के खाते में ही डालता है। फर्जी कम्पनी को ऋण जारी करने में सीएमडी अर्चना भार्गव और लखनऊ स्थित चीफ रीजनल मैनेजर विनोद बब्बर की सक्रिय भूमिका थी। दूसरी तरफ स्थिति यह है कि लोन लेने के लिए जो वाजिब लोग हैं उन्हें दौड़ा-दौड़ा कर थका दिया जाता है। हार कर वह अधिकारियों की शर्त मान कर ऋण प्राप्त कर पाता है। विनोद बब्बर को इस काम में विशेषज्ञता हासिल है। वाराणसी के एक उद्योगपति की 60 लाख की कैश-क्रेडिट-लिमिट के बावजूद उन्हें ऋण मंजूर नहीं किया जा रहा है। 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' में यह खबर प्रकाशित होने के बाद मंगलवार को गोरखपुर क्षेत्र के भाजपा के क्षेत्रीय मंत्री व पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रमुख उद्योगपति अजय सिंह ने सम्पर्क साधा। अजय सिंह ने बताया कि उनकी फर्म शक्ति इंडस्ट्रीज को यूबीआई से 34 लाख की कैश-क्रेडिट-लिमिट मिली हुई है, लेकिन विनोद बब्बर 50 लाख का ऋण देने के लिए पिछले एक वर्ष से दौड़ा रहा है। बस्ती में यूबीआई की जिगना ब्रांच से अनगिनत बार शक्ति इंडस्ट्रीज को ऋण जारी करने की सिफारिश की गई लेकिन चीफ रीजनल मैनेजर अपनी शक्ति का बेजा इस्तेमाल कर रहा है। श्री सिंह ने कहा कि खबर प्रकाशित होने के बाद उन्हें यह उम्मीद जगी है कि ऋण का उनका आवेदन अब कहीं स्वीकृत हो जाए। 

पांच दिन तक क्यों गायब थे पुलिस अधीक्षक?

पुलिस के भ्रष्टाचार निवारण संगठन में चल रही है संदिग्ध गतिविधियां
प्रभात रंजन दीन
प्रदेश सरकार के एक महत्वपूर्ण महकमे का पुलिस अधीक्षक अचानक गायब हो गया। चार-पांच दिनों तक गायब रहा। नौकरशाही के शीर्ष गलियारे में पांच दिनों तक सनसनी मची रही। पुलिस अधीक्षक की पत्नी ने भी बवाल मचा दिया। एसपी की तलाशी में लखनऊ पुलिस को लगाया गया। खुफिया यूनिट लगाई गई। फोन सर्विलांस पर डाला गया। लेकिन कुछ पता नहीं चला। मंगलवार को वह अफसर अचानक अवतरित हो गया और बड़े आराम से ड्यूटी सम्भाल ली। पुलिस प्रशासन भी इस मसले को ऐसे ले रहा है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। प्रदेश की नौकरशाही में अराजकता इस कदर है कि घोर अनुशासनहीनता के मामले में कार्रवाई करने के बजाय उस अधिकारी से 'बैक डेट' में छुट्टी का आवेदन ले लिया गया। शीर्ष अधिकारी तक इसे 'पर्सनल मैटर' बताने की धृष्टता कर रहे हैं। इस घटना ने यह साबित कर दिया है कि सरकार का अपने ही अफसरों पर कोई नियंत्रण नहीं है। कोई भी किसी भी संदेहास्पद गतिविधि में बेखौफ लिप्त हो सकता है।
पुलिस के भ्रष्टाचार निवारण संगठन के मुख्यालय में अपर पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात सुशील कुमार शुक्ला बुधवार नौ अप्रैल की शाम को अचानक गायब हो गए। शुक्ला की खोज-खबर ली जाने लगी तो उनका सीयूजी नम्बर और उनका व्यक्तिगत नम्बर दोनों बंद पाया गया। देर शाम तक घर नहीं पहुंचने पर उनकी पत्नी इंदिरा भवन स्थित एंटी करप्शन ऑर्गेनाइजेशन के मुख्यालय पहुंच गईं। एसपी की गुमशुदगी इतनी रहस्यमय थी कि दफ्तर के बाहर उनके इंतजार में खड़े ड्राइवर को भी पता नहीं चला कि साहब लापता हो गए हैं। ड्राइवर ने कहा कि वह साहब का इंतजार कर रहा है।
सुशील कुमार शुक्ला के देर रात तक घर नहीं पहुंचने पर उनकी पत्नी ने रात के करीब डेढ़ बजे दफ्तर पर फिर धावा बोल दिया। खूब हंगामा मचाया। फिर पुलिस महानिदेशक आनंद लाल बनर्जी, एसीओ के एडीजी गिरीश प्रसाद शर्मा, डीआईजी राकेश प्रधान और लखनऊ के एसएसपी प्रवीण कुमार को खबर दी गई। लखनऊ पुलिस का कंट्रोल रूप घनघनाने लगा। सारे थाने अलर्ट किए गए। लेकिन एसपी का कोई पता नहीं चला। तब एसपी की गुमशुदगी की बाकायदा रिपोर्ट दर्ज कराई गई। अगले दिन एलआईयू भी लगा दी गई और एसपी के सारे फोन सर्विलांस पर दे दिए गए। लेकिन शुक्ला का कुछ पता नहीं चला।
काफी जद्दोजहद के बाद सर्विलांस के जरिए जो कहानी सामने आई वह रोचक तो है, पर रहस्यमय ज्यादा है। एसपी साहब नौ अप्रैल की शाम को सबकी निगाह से खुद को बचाते हुए सीधे लखनऊ एयरपोर्ट पहुंचे और हवाई जहाज से दिल्ली चले गए। यहां लखनऊ में उनके परिवार की सांस अंटकी रही और शुक्ला दिल्ली में रहस्यमय मौन साधे पड़े जाने क्या करते रहे। उत्तर प्रदेश पुलिस के भ्रष्टाचार निवारण संगठन के एसपी गैर-जिम्मेवाराना तरीके से गुम होकर दिल्ली में क्या कर रहे थे? उनके वापस लौट आने के बाद भी किसी अधिकारी ने उनसे यह नहीं पूछा। अनुशासन के मसले पर जैसे किसी को कोई चिंता ही नहीं। आला अधिकारियों को सूचना दिए बगैर गायब हो जाने के बारे में शुक्ला से न कोई 'शो-कॉज' मांगा गया और न कोई विभागीय कार्रवाई ही शुरू हुई। ड्यूटी से गायब होकर एक महत्वपूर्ण महकमे का पुलिस अधीक्षक दिल्ली में क्या कर रहा था, इसकी स्वतंत्र जांच होनी चाहिए थी, लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

पुलिस अधीक्षक शुक्ला अचानक मंगलवार को आए और ड्यूटी सम्भाल ली। जैसे सब सामान्य हो। बैक डेट में उनसे छुट्टी का आवेदन लेकर मामला रफा-दफा कर दिया गया। किसी भी शीर्ष अधिकारी ने मामले की संवेदनशीलता समझने की जहमत नहीं उठाई, उल्टा बातचीत में मजाकिया लहजे में बातें करते रहे। पुलिस अधीक्षक सुशील कुमार शुक्ला ने कहा, 'छुट्टी का एप्लिकेशन देकर गया था। हां मोबाइल स्विच ऑफ था। एप्लिकेशन में यह जिक्र नहीं किया था कि कहां गए थे।' शुक्ला की बोली से यह साफ कर गया कि उन्होंने लौटने के बाद छुट्टी का आवेदन दिया है। शुक्ला ने एक बात और कही, 'कुछ व्यक्तिगत कारण भी तो होता है।' एसीओ के डीआईजी राकेश प्रधान की सुनिए वे क्या कहते हैं। श्री प्रधान ने कहा, 'इसमें कार्रवाई क्या होनी है! वे आए और छुट्टी की एप्लिकेशन दे दी। अब उनकी पत्नी क्या कहती हैं, यह तो उनका पर्सनल मैटर है।' अब देखिए विभागीय मुखिया का बयान। एंटी करप्शन ऑर्गेनाइजेशन के अपर महानिदेशक (एडीजी) गिरीश प्रसाद शर्मा इस प्रकरण पर कहते हैं, 'इसमें विभागीय कार्रवाई क्या होगी? उनकी छुट्टी की एप्लिकेशन आ गई। उनकी पत्नी की अगर कोई शिकायत है तो उसमें जिला पुलिस कार्रवाई करेगी।' इस पर लखनऊ जिला पुलिस के वरिष्ठ अधीक्षक प्रवीण कुमार ने माकूल जवाब दिया। उन्होंने कहा, 'लखनऊ पुलिस शुक्ला की मिसिंग रिपोर्ट दर्ज कर अपनी छानबीन कर रही थी। अब वो आ गए हैं तो जिला पुलिस का काम खत्म। बिना अधिकारियों को बताए वे दफ्तर से गायब थे तो 'अन-ऑथराइज्ड ऐबसेंस' के खिलाफ विभागीय कार्रवाई होनी चाहिए।'

यूबीआई के जरिए 'कॉल मनी' का भी धंधा करता है सहारा

यूबीआई के ऋण घोटाले की खबर छपते ही कई प्रमुख उद्योगपतियों ने अखबार से सम्पर्क साधा
प्रभात रंजन दीन
ऋण के बंटवारे में यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया का घोटाला उजागर करते हुए हमने 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' के अगले अंक में यूबीआई और सहारा के आपसी 'मेलजोल' से भी पर्दा उठाने की बात कही थी। यूबीआई और सहारा समूह का रिश्ता इतना प्रगाढ़ रहा है कि यूबीआई के अधिकारी सहारा समूह के लिए किए गए काम को अपने बायोडाटा में शामिल करते हुए गर्व करते हैं। यह गर्व उन्हें अपने प्रतिष्ठान में काम करते हुए होता है कि नहीं, इस पर संदेह ही है। सहारा फाइनैंस यूबीआई के जरिए 'कॉल मनी' और 'नोटिस मनी' का धंधा भी करता है। 'कॉल मनी' के धंधे से हजारों करोड़ रुपए का 'ट्रांजैक्शन' एक ही दिन में हो जाता है।
'कॉल मनी' के धंधे की प्रक्रिया भी आप जानते चलें। मुद्रा बाजार मुख्यत: बैंक और प्राथमिक डीलर (पीडीएस) जैसी संस्थाओं के बीच धन उधार देने और उधार लेने की प्रक्रिया को सुलभ बनाता है। बैंक और पीडीएस अपनी निधियों की स्थिति के असंतुलन को दूर करने के लिए रातभर के लिए अथवा अल्प अवधि के लिए उधार लेते और देते हैं। यह उधार लेना और देना गैर-प्रतिभूत आधार पर होता है। एक दिन के लिए निधियां उधार लेने अथवा देने को 'कॉल मनी' कहा जाता है। जब दो दिन से 14 दिन के बीच की अवधि के लिए धन उधार लिया अथवा दिया जाता है तो उसे 'नोटिस मनी' कहा जाता है। 14 दिन से अधिक की अवधि के लिए निधियां उधार लेने या देने को 'टर्म मनी' कहा जाता है। ...तो यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया के जरिए सहारा फाइनैंस 'कॉल मनी' का बड़ा धंधा कर रहा है। यूबीआई सूत्रों ने ही बताया कि सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत रॉय के बहनोई अशोक रॉयचौधरी कभी यूबीआई के कर्मचारी रहे हैं और उस समय के रिश्ते अब तक बने हुए हैं। ऋण-घोटाले में खुद को फंसता देख कर स्वैच्छिक अवकाश लेकर परिदृश्य से गुम हो जाने वाली यूबीआई की चेयरमैन सह प्रबंध निदेशक अर्चना भार्गव के भी सहारा प्रबंधन से मधुर रिश्ते रहे हैं। इस नजदीकी रिश्ते के कारण ही यूबीआई के शीर्ष अधिकारी भी अपने बायोडाटा में सहारा के लिए काम करने का विशेष जिक्र करते हैं। महाप्रबंधक स्तर की अधिकारी रही सीमा सिंह भी उन अधिकारियों में से एक हैं जिनके व्यक्तिगत विवरण में सहारा फाइनैंस के लिए किए गए काम का बड़े गौरव से जिक्र आता है।

खैर, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया के ऋण घोटाले की कहानी में आपने कल देखा कि कैसे हेलीकॉप्टर खरीदने के लिए महज आठ लाख रुपए की प्रदत्त-पूंजी वाली कम्पनी हिंद इन्फ्रा सिटी प्राइवेट लिमिटेड यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया से सौ करोड़ से अधिक का ऋण लेकर फुर्र हो जाती है और बैंक प्रबंधन न वसूली की कार्रवाई करता है और न ही उसे 'नॉन परफॉर्मिंग ऐसेट' (एनपीए) के खाते में ही डालता है। फर्जी कम्पनी को ऋण जारी करने में सीएमडी अर्चना भार्गव और लखनऊ स्थित चीफ रीजनल मैनेजर विनोद बब्बर की सक्रिय भूमिका थी। दूसरी तरफ स्थिति यह है कि लोन लेने के लिए जो वाजिब लोग हैं उन्हें दौड़ा-दौड़ा कर थका दिया जाता है। हार कर वह अधिकारियों की शर्त मान कर ऋण प्राप्त कर पाता है। विनोद बब्बर को इस काम में विशेषज्ञता हासिल है। वाराणसी के एक उद्योगपति की 60 लाख की कैश-क्रेडिट-लिमिट के बावजूद उन्हें ऋण मंजूर नहीं किया जा रहा है। 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' में यह खबर प्रकाशित होने के बाद मंगलवार को गोरखपुर क्षेत्र के भाजपा के क्षेत्रीय मंत्री व पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रमुख उद्योगपति अजय सिंह ने सम्पर्क साधा। अजय सिंह ने बताया कि उनकी फर्म शक्ति इंडस्ट्रीज को यूबीआई से 34 लाख की कैश-क्रेडिट-लिमिट मिली हुई है, लेकिन विनोद बब्बर 50 लाख का ऋण देने के लिए पिछले एक वर्ष से दौड़ा रहा है। बस्ती में यूबीआई की जिगना ब्रांच से अनगिनत बार शक्ति इंडस्ट्रीज को ऋण जारी करने की सिफारिश की गई लेकिन चीफ रीजनल मैनेजर अपनी शक्ति का बेजा इस्तेमाल कर रहा है। श्री सिंह ने कहा कि खबर प्रकाशित होने के बाद उन्हें यह उम्मीद जगी है कि ऋण का उनका आवेदन अब कहीं स्वीकृत हो जाए। 

Tuesday 15 April 2014

यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया की पूर्व सीएमडी और मौजूदा सीआरएम का कारनामा

आठ लाख की कम्पनी हेलीकॉप्टर के लिए सौ करोड़ लेकर फुर्र
प्रभात रंजन दीन
आप हेलीकॉप्टर खरीदने का सपना देखते हों तो चिंता न करें, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया आपको ऋण देने के लिए तैयार है। बस आपको बैंक के सीएमडी और सीआरएम को पटाना होगा। सीएमडी और सीआरएम यानी चेयरमैन सह प्रबंध निदेशक और चीफ रीजनल मैनेजर... बस उनकी 'सेवा-भक्ति' करिए, हेलीकॉप्टर के लिए ऋण ले लीजिए। फिर आप कुछ भी खरीदिए। ऋण भी मत चुकाइये। बस मौज करिए। बैंक उस ऋण को बट्टे-खाते में भी नहीं डालेगी। मस्त रहिए। आपको यह लाइनें बहुत हल्की-फुल्की लग रही होंगी। हल्के-फुल्के तरीके से भारी-भरकम घोटाले हो रहे हैं। सीएमडी इस्तीफा देकर किनारे लग जाती है और सीआरएम को तरक्की देकर स्थानान्तरित कर दिया जाता है।
यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया की सीएमडी अर्चना भार्गव को 'स्वैच्छिक अवकाश' क्यों लेना पड़ा, इसका रहस्य अब तक बरकरार है। बताया गया कि उन्होंने निजी कारणों से 'स्वैच्छिक अवकाश' लिया। लेकिन यह अवकाश पूर्व नियोजित था और बैंक के शीर्ष प्रबंधन और सत्ता के शीर्ष गलियारे की इसमें सहमति थी। ऐसी भी खबर चली कि उनके इस्तीफे के पीछे लगातार बढ़ता हुआ वह ऋण था जिसकी वसूली नहीं की गई। दिसम्बर 2013 के अंत तक यूबीआई का वसूल न हो पाने वाला ऋण (एनपीए) रिकॉर्ड 8,546 करोड़ रुपए पर था। यह कौन सा ऋण था जिसकी वसूली नहीं की गई? वसूली क्यों नहीं की गई? या कुछ ऋणों को 'नॉन परफॉर्मिंग ऐसेट' वाले खाते में डालने से शातिराना तरीके से रोक लिया गया? इसी वजह से तो नहीं अर्चना भार्गव इस्तीफा देकर दृश्य से अचानक गायब हो गईं? अभी सत्ता कांग्रेस की है, लिहाजा अर्चना भार्गव के विभिन्न बैंकों में लिए गए 'विभिन्न' फैसलों या यूबीआई के ही खातों की सीबीआई से जांच नहीं हुई, नहीं तो ऐसे-ऐसे ऋण का भेद खुलेगा जिससे रॉबर्ट वाड्रा हों या पवन बंसल या सुब्रत राय सहारा जैसे लोग सबके बड़े-बड़े ऋण जो हल्के-फुल्के तरीके से 'बांट' दिए गए, सब सामने आ जाएंगे। हम भी उसे सामने लाएंगे लेकिन अभी हेलीकॉप्टर-ऋण पर बात कर रहे हैं।
लखनऊ में हिंद इन्फ्रा सिटी प्राइवेट लिमिटेड नामकी एक कम्पनी है। इस कम्पनी के 'मास्टर डाटा' के मुताबिक इसका पता 194/18/4, लक्ष्मण प्रसाद रोड, लखनऊ है। और सैयद रईस हैदर व राना रिजवी इस कम्पनी के डायरेक्टर हैं। इसमें राना रिजवी का पता तो कम्पनी वाला ही है, लेकिन रईस हैदर का पता हुंदरही, गंगौली, जिला गाजीपुर, यूपी लिखा है। इस कम्पनी की पेड-अप कैपिटल (प्रदत्त पूंजी) आठ लाख रुपए है। महज आठ लाख रुपए की पूंजी वाली कम्पनी को यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया ने सौ करोड़ से अधिक का ऋण दे दिया। इस ऋण को मंजूर करने की इतनी आपाधापी थी कि यूबीआई लखनऊ के चीफ रीजनल मैनेजर विनोद बब्बर ने प्रस्ताव को क्षेत्रीय स्तर पर स्वीकृत करते हुए उसे मुख्यालय भेज दिया और बैंक बोर्ड की आपत्ति के बावजूद अर्चना भार्गव ने चेयरमैन सह प्रबंध निदेशक होते हुए इस पर मंजूरी की मुहर लगा दी। चेयरमैन के इस एकतरफा फैसले के खिलाफ यूबीआई के 10 महाप्रबंधकों ने रिजर्व बैंक से शिकायत की। बाद में रिजर्व बैंक ने यूबीआई के ऋण अधिकारों में काफी कटौती भी की थी।
खैर, यूबीआई के सूत्रों ने कहा कि हिंद इन्फ्रा के ऋण लेने का कारण हेलीकॉप्टर खरीदना बताया गया था। इसकी आधिकारिक पुष्टि के लिए सीआरएम विनोद बब्बर को फोन किया तो पहले उन्होंने बड़ी तसल्ली से बात शुरू की। लेकिन जैसे ही हिंद इन्फ्रा सिटी प्राइवेट लिमिटेड के लोन के बारे में सवाल सुना वैसे ही बोले, 'मैं तो मीडिया से बात करने के लिए अधिकृत नहीं हूं। आप इस बारे में मुख्यालय से बात करिए।' लोन तो आपने सैंक्शन किया था, फिर उसकी वसूली में कोताही क्यों की गई? इस सवाल को भी उन्होंने कोलकाता मुख्यालय पर टालने की कोशिश की, लेकिन इतना तो बोल ही पड़े कि ये तो पुरानी कहानी हो गई। उनसे पूछा गया कि साल दो साल के दरम्यान जारी ऋण 'पुरानी कहानी' कैसे हो जाता है, जब उसके कारण ही सीएमडी को इस्तीफा देना पड़ जाए? ...और ऋण की वसूली की कार्रवाई नहीं हुई तो उसे एनपीए खाते में क्यों नहीं डाला गया? इस सवाल पर बब्बर को अचानक मीटिंग की याद आ गई। बोल पड़े, 'मैं जरूरी मीटिंग में हूं। अभी बात नहीं कर पाऊंगा।' ...और जैसा होता है, उन्होंने फोन काट दिया। बब्बर की तरक्की हो चुकी है। अब वे चीफ रीजनल मैनेजर से जीएम हो चुके हैं। उनका तबादला भी हो चुका है। कुछ ही दिन में वे भी चले जाएंगे। फिर यूबीआई की अमीनाबाद ब्रांच से उन्होंने हिंद इन्फ्रा को जो ऋण दिलवाया था, वह कहानी भी उन्हीं के शब्दों की तरह पुरानी हो जाएगी। बब्बर यह तो नहीं ही बता पाए कि सौ करोड़ का ऋण क्यों नहीं वसूला गया और उसकी किश्तें क्यों नहीं जमा हुईं। लेकिन ऋण से खरीदा गया हेलीकॉप्टर उड़ान भर रहा है, यही बता देते तो थोड़ी तसल्ली हो जाती। कम्पनी का कहीं कोई अता-पता नहीं, लेकिन उसके सौ करोड़ के ऋण का जरूरत पता है, जो बैंक के दस्तावेजों में दफ्न हो जाएगा। बब्बर कलाकार व्यक्ति हैं। यूबीआई की रायबरेली में दर्जनों शाखाओं का कई-कई बार उद्घाटन करा चुके हैं। जो राजनीतिक हस्ती दिखी, उसी से उद्घाटन करा दिया। फिर सोनिया गांधी आईं तो उनसे भी फीता कटवा दिया। लेकिन लोग कहते हैं कि शाखाएं बंद ही रहीं, उद्घाटन होते रहे। हिंद इन्फ्रा की आठ लाख की प्रदत्त पूंजी पर बब्बर ऋण देने के लिए सिर के बल खड़े हो जाते हैं, पर वाराणसी के एक उद्योगपति को 60 लाख क्रेडिट लिमिट के बावजूद ऋण के लिए दौड़ाते रहते हैं। ...यूबीआई-सहारा कांड कल... 

Saturday 12 April 2014

क्या मेसीडोनिया चला गया सुब्रत रॉय का परिवार!

प्रभात रंजन दीन
शीर्ष सत्ता गलियारे में अचानक यह सुगबुगाहट फैली है कि क्या सुब्रत रॉय के परिवार के कुछ खास सदस्य विदेश चले गए? विदेश जाना कोई खास खबर नहीं है, लेकिन मौजूदा समय में जब सहारा समूह के अभिभावक सुब्रत रॉय जेल में बंद हों और उनका परिवार विदेश चला जाए तो यह खबर है। शुक्रवार की देर रात दिल्ली से लेकर लखनऊ तक सत्ता और कानून के शीर्ष गलियारे में यह बात चल रही थी कि सहाराश्री का परिवार मेसीडोनिया चला गया। इस खबर की आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन सुब्रत रॉय परिवार के मेसीडोनिया स्थानान्तरित होने की खबर को सुब्रत रॉय के अपने घर में नजरबंद रखने के प्रस्ताव को सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज किए जाने के फैसले से जोड़ कर देखें तो कारण और तर्क दोनों स्पष्ट दिखता है। नौ अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने सुब्रत रॉय का प्रस्ताव नामंजूर किया और एक ही दिन बाद उनके परिवार के विदेश चले जाने की सनसनाहट फैल गई। सात अप्रैल को सुब्रत रॉय ने धन जमा करने वाला प्रस्ताव वापस ले लिया था। दो दिन के अंदर तेजी से बदले घटनाक्रम ने भी सुब्रत परिवार के 'विदेश प्रस्थान' का रहस्य गाढ़ा कर दिया है। सत्ता गलियारे में चर्चा चल रही थी कि सुब्रत रॉय सहारा की पत्नी स्वप्ना रॉय, बड़े बेटे सुशांतो रॉय और उनकी पत्नी ऋचा रॉय, छोटे बेटे सीमांतो रॉय और उनकी पत्नी चांदनी रॉय अपने बच्चों के साथ मेसीडोनिया 'शिफ्ट' हो गए। इन लोगों के विदेश जाने पर कोई मनाही भी नहीं थी और ये सामान्य तरीके से कहीं भी आ-जा सकते हैं, लेकिन अभी की असामान्य स्थिति के कारण अगर यह 'शिफ्टिंग' हुई है तो यह विचारणीय है।
सहारा समूह का लंदन, अमेरिका और कनाडा में कारोबार है। लंदन का सर्वाधिक प्रतिष्ठित होटल 'ग्रॉसवेनर हाउस' खरीदने का श्रेय भी सहारा समूह को ही प्राप्त है। न्यूयॉर्क के प्रतिष्ठित मैनहटन सेंट्रल पार्क स्थित होटल न्यूयॉर्क प्लाजा और ड्रीम न्यूयॉर्क भी सहारा समूह खरीद चुका है। लेकिन सहारा समूह का सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट छोटे यूरोपीय देश मेसीडोनिया में चल रहा है। मेसीडोनिया में सुब्रत रॉय की गिरफ्तारी को सदमे की तरह लिया गया था क्योंकि बहुत ही लघु आबादी वाले आर्थिक रूप से कमजोर इस देश को सहारा से बहुत उम्मीदें लग गई थीं। मेसीडोनिया के प्रधानमंत्री निकोला ग्रुवस्की और वित्त मंत्री ज़ोरान स्टावरस्की ने भी सुब्रत रॉय के मेसीडोनिया में स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मेसीडोनिया में सहारा के बृहद डेयरी प्रोजेक्ट और लेक ओहरिड के लुबनिस्ता गांव में विशाल होटल निर्माण पर काम हो रहा है और इस प्रोजेक्ट पर सुब्रत रॉय की गिरफ्तारी का कोई असर नहीं पड़ा है। सहारा समूह के खास सूत्र बताते हैं कि सुब्रत रॉय के बड़े बेटे सुशांतो रॉय अपने परिवार के साथ मेसीडोनिया में ही रह रहे हैं। अब तो उन्हें वहां की नागरिकता भी मिल चुकी है, ऐसा सहारा समूह के जानकार बताते हैं। सुशांतो मेसीडोनिया के स्कॉपी में अपने कार्यालय से प्रोजेक्ट का काम संचालित कर रहे हैं। सहारा के पारिवारिक सूत्र ने बताया कि सुशांतो रॉय नवरात्र पर मेसीडोनिया से लखनऊ आए थे और वापस चले गए। सहारा प्रबंधन से जुड़े जिन भी अधिकारी से इसकी आधिकारिक पुष्टि हो सकती थी, उनसे सम्पर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन स्वाभाविक है कि ऐसे मुद्दे पर प्रबंधन का कोई अधिकारी कुछ नहीं बोलेगा। सुब्रत रॉय के परिवार की विदेश में शिफ्टिंग की वजहें तो हैं ही। लोगों को इसकी प्रतीक्षा भी रही है। लेकिन सुब्रत रॉय की गिरफ्तारी के कारण ऐसी आशंका फिलहाल टल गई थी। आपको याद ही होगा कि पिछले साल 21 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने सुब्रत रॉय के विदेश जाने पर रोक लगा दी थी, जिसका सहारा ने पुरजोर विरोध किया था। 

Friday 11 April 2014

मध्य कमान ने नेताओं के आगे घुटने टेके छावनी के बंगलों पर 'बगुलों' का कब्जा

जी हां, सीएम के भाई का घर है यहां!
प्रभात रंजन दीन
सेना ने अपनी सम्पत्ति नेताओं के हाथ गिरवी रख दी है। संवेदनशील सैन्य क्षेत्र की कोठियां धड़ल्ले से बिक रही हैं या कब्जा की जा रही हैं, सेना के अधिकारी इस 'धंधे' में लिप्त हैं, इसलिए सब मस्त हैं। सेना की जमीन, कोठियां व अन्य सम्पत्ति रक्षा मंत्रालय की होती है और उनका प्रबंधन छावनी परिषदें देखती हैं। सेना का कानून कहता है कि उन सम्पत्तियों को बेचने या लीज़ पर देने के लिए रक्षा मंत्रालय का अनापत्ति प्रमाण पत्र अनिवार्य है, लेकिन सेना के आला अधिकारी ही सैन्य कानून को ताक पर रखे हुए हैं। इस बारे में इलाहाबाद हाईकोर्ट का भी सख्त निर्देश है। लेकिन उसका उल्लंघन हो रहा है। लिहाजा, यह सीधे तौर पर कहा जा सकता है कि सेना की मध्य कमान और छावनी परिषदें हाईकोर्ट की अवमानना की दोषी हैं। छावनी कानून कहता है कि सेना की कोठी या जमीन न कोई बेच सकता है और न कोई उसे गिरवी रख कर बैंक ऋण ले सकता है। इसके बावजूद सेना की अचल सम्पत्ति को चल बना कर चलता करने का धंधा बेतहाशा चल रहा है।
सेना ने नेताओं और धनपतियों के आगे किस तरह घुटने टेक रखे हैं, इसके कुछ नायाब उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत हैं। महात्मा गांधी मार्ग स्थित 223 नम्बर कोठी प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के भाई प्रतीक यादव की है। यह कोठी 1996 में ही ली गई थी। तब प्रतीक यादव नाबालिग थे और उनकी मां साधना गुप्ता अभिभावक थीं। तब से लेकर आज तक इस कोठी के लिए सेना से 'नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट' (एनओसी) नहीं लिया गया और सेना ने भी इसकी कोई चिंता नहीं की। सेना के 'एनओसी' के बगैर ही कोठी की रजिस्ट्री भी हो गई। यह कोठी पहले कैलाशनाथ एडवोकेट की थी। बाद में उनके बेटे रविनाथ, जो हाईकोर्ट के जज भी रहे, को इसका स्वामित्व मिला था। कोठी के चारो तरफ जंगल उग आए हैं। इस बियाबान कोठी पर एक कर्नल और एक किराएदार का दावा बरकरार है।
छावनी के कस्तूरबा गांधी मार्ग स्थित 24 नम्बर कोठी नरेश अग्रवाल की है। इस कोठी को गिरवी भी रख दिया गया था। बाद में मध्य कमान के जीओसी इन सी रहे लेफ्टिनेंट जनरल डीएस चौहान ने इसे खरीदने की कोशिश की, पर बात नहीं बन पाई। फिर सेना ने कोठी अपने कब्जे में ले ली। अब कोठी कानूनन सेना के पास है पर मालिकाना नरेश अग्रवाल का है। सेना के ही सूत्र कहते हैं कि नरेश अग्रवाल उस कोठी को बेचने की गुपचुप जुगाड़ सेट कर रहे हैं। महात्मा गांधी मार्ग की 225 नम्बर कोठी लालता प्रसाद वैश्य की थी। सेना ने गैर कानूनी तरीके से उस कोठी को केबिल टीवी चलाने के लिए 'ट्रांस वल्र्ड इलेक्ट्रॉनिक्स' को किराए पर दे दिया था। सुप्रीम कोर्ट को कोठी पर लगे बोर्ड की फोटो मुहैया कराई गई तो सेना को धंधा बंद करना पड़ा। लालता प्रसाद ने वह कोठी गुपचुप जगदीश अग्रवाल को बेच डाली। अब जगदीश अग्रवाल उसे बेचने की तैयारी में हैं। लेकिन कोठी के दस्तावेजों से सेना की आपत्ति या अनापत्ति दोनों लापता है।
कस्तूरबा रोड की 23 नम्बर कोठी की कहानी फर्जीवाड़े का रोचक एपिसोड है। यह कोठी मेहरुन्निसा के नाम पर थी। मेहरुन्निसा के मरने के बाद कोठी खाली पड़ी थी। मेहरुन्निसा के रिश्तेदार सदर स्थित पत्थर वाली गली में रहते थे। लेकिन सैयद सिद्दीकी को मेहरुन्निसा का रिश्तेदार बना कर खड़ा कर दिया गया और कोठी उनके नाम पर करा दी गई। इसमें सेना प्रशासन से जुड़े रहे कर्नल एसएफ हक खूब सक्रिय रहे। बाद में उन्हीं ने कोठी पर कब्जा जमा लिया। अब यह भी जानते चलें कि सैयद सिद्दीकी कौन हैं? सैयद सिद्दीकी मायावती के खास नसीमुद्दीन सिद्दीकी के रिश्तेदार हैं। दोनों सिद्दीकी साथ-साथ कभी जेल में भी रहे हैं। इस मदद के पुरस्कार में नसीमुद्दीन थिमैया रोड स्थित 12 नम्बर वाली घोर विवादास्पद कोठी पर काबिज हैं। सिद्दीकी की बेगम के नाम की नेमप्लेट उस कोठी की शोभा बढ़ा रही है। थिमैया रोड की 12 नम्बर कोठी का मालिकाना हक ही विवाद में है। उस पर लेफ्टिनेंट जनरल डीएस चौहान ने भी कब्जा करने की कोशिश की थी। इस कोशिश में उनकी बड़ी फजीहत भी हुई। अब वही कोठी नसीमुद्दीन सिद्दीकी के कब्जे में है।
महात्मा गांधी रोड स्थित 215 नम्बर की कोठी मेजर सेवा सिंह की थी। वह बिना सेना की इजाजत के बिक गई। इस कोठी को भी एक मेजर जनरल के नाम पर मरम्मत के लिए लिया गया और शालीमार बिल्डर्स वाले संजय सेठ कब्जा जमा कर बैठ गए। इसी तरह थिमैया रोड पर मेजर टीएस चिमनी की 16 नम्बर की कोठी गैर कानूनी तरीके से बिक गई और बनारस ग्लास हाउस के खालिद मसूद ने वह कोठी हथिया ली। सेना ने यह भी ध्यान नहीं दिया उसी कोठी पर गैरकानूनी ध्वंस का मुकदमा सेना ने ही ठोक रखा है। मुकदमा मेजर टीएस चिमनी पर चल रहा है और कोठी का मालिक कोई और बना बैठा है। महात्मा गांधी मार्ग की 213 नम्बर कोठी और 226 नम्बर कोठी, दोनों ही गुटखा बनाने वाली कम्पनी के मालिक ने खरीद रखी है। इसी कोठी में छापामारी भी हो चुकी है, और यह खाली पड़ी है। अटल रोड स्थित एक नम्बर कोठी शस्त्र व्यापारी पाली सरना की थी, लेकिन अब यह कोठी बसपा सांसद डॉ. अखिलेश दास की है। छावनी में डॉ. दास की यह दूसरी कोठी है। सरदार पटेल मार्ग पर तीन नम्बर की कोठी फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी एमवी नायर की थी। अयोध्या के कारण श्री नायर जीवनकाल में विवादों में रहे तो उनकी मृत्यु के बाद कोठी विवाद में आ गई। नायर के बेटे और डॉ. बीआर टंडन कोठी-विवाद जारी है। कोठी वीरान पड़ी है। लेकिन अंदर जाएं तो आपको डॉ. टंडन की वृद्धा मां अकेली जरूर मिल जाएंगी।
इस तरह की अनगिनत कोठियां हैं जो गैरकानूनी हैं। सेना क्षेत्र में कभी भी किसी बड़े हादसे के लिए आप तैयार रहें, क्योंकि सेना को ही नहीं पता कि कौन सी कोठी किसके स्वामित्व है और किसके कब्जे में है। अभी हाल ही 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' ने आपको बताया था कि मायावती ने अपनी कोठी किस तरह गुपचुप बेच डाली थी और रातोरात ट्रकों से सामान गायब कर दिया गया था। आज की कहानी में ऊपर जिन कोठियों का जिक्र किया गया ये तो सेना के भ्रष्टाचार की हांडी में पक रहे चावल के कुछ दाने थे, जो आपके सामने रखे गए। इस हांडी के साथ खास बात यह है कि इसमें चावल पकता रहता है, उतरता रहता है, फिर कच्चा चावल डलता रहता है, लेकिन हांडी कभी नहीं उतरती। अब हांडी के उतरने का वक्त आ गया है...