Saturday 27 January 2018

यूपी की राजनीति से जनता के मुद्दे गायब

प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश में जनता से जुड़े मसले सत्ता की राजनीति से गायब हैं. विपक्ष की राजनीति से भी जनता के मसले गायब हैं. भारतीय जनता पार्टी जिन मुद्दों पर चुनाव जीत कर सत्ता तक पहुंची, वे सारे मुद्दे अनछुए रह गए और अब लोकसभा चुनाव भी आने वाला है. विपक्ष की राजनीति बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोपों तक सिमट गई है. जन-मुद्दों पर सड़कों पर आंदोलन और उनमें आम जनता की भागीदारी अब बीते दिनों की बातें रह गई हैं. मुख्यमंत्री आवास के सामने या विधानसभा के सामने आलू बिखेर देने भर से किसानों का भला नहीं होने वाला, यह बात समझते हुए भी समाजवादी पार्टी इससे आगे नहीं बढ़ पा रही. अन्य विपक्षी दल तो इससे भी गए. विपक्षी दलों को रंग की राजनीति खूब भा रही है. खुद सत्ता में रहते हैं तो अपने रंग से खेलते हैं और दूसरे जब सत्ता में आकर अपना रंग दिखाते हैं तो इन्हें वह नहीं सुहाता. हरा नीला खेलने वालों को आज भगवा से एलर्जी हो रही है. पूरी राजनीति रंग के ही आगे-पीछे चक्करघिन्नी है. विपक्ष में किसी भी मुद्दे पर कोई एकता नहीं दिख रही है. विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साथ तालमेल करके मैदान में उतरी थी, लेकिन आज कांग्रेस मैदान से गायब है. सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव संयुक्त बैठक बुलाते हैं तो उसमें भी कांग्रेस शरीक नहीं होती. बसपा तो नहीं ही रहती. अब दूरियां फिर से पूर्वकालिक हो गई हैं और यह लगभग तय हो गया है कि सपा-कांग्रेस गठजोड़ आने वाले लोकसभा चुनाव में कायम नहीं रहेगा. 2019 के चुनाव में विपक्ष पूरी एकता से भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करेगा, यह केवल मंचीय सच है, जमीनी सच नहीं है. अगर विपक्षी दल एकता से चुनाव लड़ते तो यह अराजक दृश्य नहीं दिखता. सारे विपक्षी दल एक दूसरे पर अपना वर्चस्व स्थापित करने, दबाव में रखने और मोलभाव की भंगिमा बनाने में समय नहीं गंवाते. इन रवैयों को देखते हुए समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को कहना पड़ा कि लोकसभा चुनाव में सपा कांग्रेस के साथ तालमेल नहीं करेगी. उन्होंने पार्टी की एक अंदरूनी बैठक में कहा कि तालमेल करना होता तो कांग्रेस और सपा मिल कर स्थानीय निकाय का चुनाव लड़ती. अखिलेश यह भी मानते हैं कि विधानसभा चुनाव में तालमेल का कोई फायदा नहीं हुआ. लब्बोलुबाव यह है कि सारी विपक्षी पार्टियां अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग साधने में लगी हैं. बसपा कांग्रेस और सपा को कहीं नहीं बख्शती. अभी पिछले ही दिनों बसपा नेता मायावती ने संविधान से छेड़छाड़ के मसले पर भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस पर भी निशाना साधा. उन्होंने कहा कि संविधान और बाबा साहेब अम्बेडकर के प्रति कांग्रेस की आस्था भी भाजपा जैसी ही है. मायावती अब भी दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण समीकरण पुख्ता करने में लगी हैं. उत्तर प्रदेश में सपा कांग्रेस और बसपा की परस्परविरोधी राजनीति ने प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य और जनता को भ्रमित कर रख दिया है. लोकसभा चुनाव में जनता के समक्ष अब बिखरे विपक्ष और भाजपा में कोई एक विकल्प चुनने की विवशता है. आम लोग खुलेआम कहते हैं कि विपक्षी दलों को जनता का मसला उठाना चाहिए था, लेकिन इसके बजाय सब भगवा रंग में ही फंसे हुए हैं. पहले तो मुख्यमंत्री सचिवालय का भगवा रंग मुद्दा बना फिर ट्रांसपोर्ट की बसें, साइन बोर्ड और अब हज हाउस की चारदीवारी का भगवा रंग विपक्षी पार्टियों का मुद्दा बन गया. हालांकि बाद में हज हाउस की चारदीवारी का रंग बदला भी गया और नीचे के स्तर पर प्रशासनिक कार्रवाई भी हुई, लेकिन इससे सियासत पर चढ़ा भगवा रंग कम नहीं हुआ. सपा और बसपा इस रंग-प्रयोग पर अधिक हाय-हाय कर रही है. हालांकि प्रदेश के लोग बसपा और सपा काल के रंग-प्रयोग भूले नहीं हैं. यही वजह है कि विपक्ष की इस नासमझ सियासत का फायदा भाजपा को ही मिल रहा है. लोगों को यह पहले का अनुभव है कि सरकार बदलते ही प्रदेश में रंगों की सियासत शुरू हो जाती है. सपा और बसपा सरकारों में भी रंगारंग कार्यक्रम खूब चला. बसपा के कार्यकाल में सड़क के किनारे लगी दीवारें, ग्रिल, सरकारी डायरी और कैलेंडर तक नीले रंग से रंग दिए गए थे. सपा सरकार के कार्यकाल में भी सब तरह हरा-हरा दिखने लगा था. बसपा काल में ट्रांसपोर्ट की बसें नीली तो सपा काल में हरे रंग में रंग दी गई थीं. भाजपा ने भी सपा और बसपा की नकल पर भगवा रंग से रंगवा दिया.
सभी राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों के जरिए जनता से किस्म-किस्म के वादे करते हैं. सत्‍ता में आने के बाद उन वादों को पूरा करने का वि‍श्‍वास दिलाते हैं और वोट ठगते हैं. जनता हर बार चुनाव में ठगी जाती है. विकल्प के अभाव के कारण वोट देने और ठगे जाने की प्रक्रिया जारी रहती है. चुनाव आयोग भी कह चुका है कि अव्यवहारिक और झूठे वायदे पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है. लेकिन अभी तक ऐसी कोई कार्रवाई नहीं हुई. शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, बिजली, पानी, सड़क, रोजगार, सुरक्षा जैसी मूलभूत जरूरतें मुहैया कराने में राजनीतिक दल फेल ही साबित होते हैं. सत्ता मिलते ही आम जनता की सुविधा या उसके अधिकार पर कोई बात नहीं होती. लोकसभा चुनाव आता है तो देश के विकास की बात होती है, विधानसभा चुनाव आता है तो राज्य के विकास की बात होती है, निकाय और पंचायत चुनाव आता है तो निकायों और ग्राम पंचायतों के विकास की बात होती है. लेकिन इन चुनावों के बाद सारी बातें ताक पर चली जाती हैं और धोखाधड़ी और लूट शुरू हो जाती है. संविधान प्रशासन में जनता की सीधी भागीदारी तय करता है, लेकिन असलियत क्या है, इसे हम सब जानते हैं और भुगतते हैं. लोकतंत्र की सबसे निचली इकाई हमारी पंचायतें उत्‍तर प्रदेश में सबसे अधिक कमजोर हैं. यूपी की पंचायतें भ्रष्टाचार की सबसे प्राथमिक इकाई बन कर रह गई हैं. राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के खिलाफ केवल बातें करते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर पसरा भ्रष्टाचार उन्हें दिखाई नहीं पड़ता.

किसानों का मसला सबसे अहम, लेकिन सबसे अधिक उपेक्षित किसान
केवल उत्तर प्रदेश ही क्या पूरे देश में सबसे महत्वपूर्ण मसला किसानों का है. आजादी के बाद से ही किसानों की लगातार उपेक्षा होती आ रही है, लेकिन सियासत की रोटियां भी इन्हीं के बूते सिंकती रही हैं. किसान आयोग के गठन का मसला हो या स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को अक्षरशः लागू करने का. किसी भी सरकार ने इसे लागू करने की कोई पहल नहीं की. आम बजट से कृषि बजट को अलग करने की मांग ठोस शक्ल पकड़ती उसके पहले केंद्र सरकार ने रेल बजट को भी आम बजट में ही विलीन कर दिया. लागत के मुताबिक कृषि उत्पाद का मूल्य निर्धारित नहीं किया गया और किसान बर्बाद होता चला गया. कितने किसानों ने आत्महत्या की, इसका भारी आंकड़ा दोहराने की आवश्यकता नहीं. 30 दिसम्बर 2016 को जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आधिकारिक आंकड़े के अनुसार कर्ज के बोझ, सूदखोरी, सूखा, आर्थिक तबाही और सरकार की किसान विरोधी नीतियों के चलते साल 2015 में 12,602 किसानों और खेत मज़दूरों ने आत्महत्या की थी. यह संख्या साल 2014 में हुई आत्महत्याओं में दो प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दिखा रही थी. इसके बाद तो 2017 भी बीत गया. इसका आधिकारिक आंकड़ा आना अभी बाकी है. इन मौतों के बावजूद किसानों के कृषि उपज की बिक्री का कोई समुचित बंदोबस्त नहीं किया जा सका और न उचित बाजार का निर्माण ही हो सका. कृषि उपज के भंडारण और वितरण का प्रदेश में कोई इंतजाम नहीं है और न भारतीय खाद्य निगम की भंडारण क्षमता में वृद्धि के कोई ठोस उपाय किए जा रहे हैं. कृषि उपज की खरीद में बिचौलियों और दलालों का दबदबा है और खाद, बीज, तेल की बढ़ती कीमतों से किसान बुरी तरह से दबा जा रहा है. विडंबना यह है कि इन समस्याओं के निपटारे में सरकारों की कोई रुचि नहीं है. लेकिन विभिन्न राजनीतिक दलों के लोकसभा या विधानसभा चुनाव के समय जारी हुए घोषणापत्रों पर गौर करें तो किसानों से जुड़े ये सारे मुद्दे आपको कागज पर मिल जाएंगे. कांग्रेस न्यूनतम ब्याज पर कृषि ऋण देने, कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ाने और कृषि उत्पाद को पेशेगत तरीके से बाजार देने की बातें करती रही. लेकिन जब तक केंद्र में उसकी सरकार रही, इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं हुई. समाजवादी पार्टी किसानों को लागत से डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देने, कर्ज न चुकाने पर किसानों की जमीन नीलाम नहीं करने, बेकार पड़ी जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए सिंचाई की व्यवस्था करने और नदियों को जोड़ने जैसे वादे अपने घोषणा पत्र में शामिल करती रही, लेकिन सत्ता में आई तो किसानों से किए गए इन वादों को ताक पर रख दिया. भाजपा ने भी अपने घोषणा पत्र (संकल्प-पत्र) में बड़ी-बड़ी बातें कहीं. मसलन, किसानों को लागत का 50 फीसदी लाभ सुनिश्चित किया जाएगा, खाद्य प्रसंस्करण के साथ-साथ एग्रो फूड प्रोसेसिंग क्लस्टर की स्थापना होगी, गेहूं खरीदा जाएगा, धान खरीदा जाएगा, आलू खरीदा जाएगा वगैरह, वगैरह. लेकिन हिसाब लें, तो भाजपा ने सत्ता में आने के बाद इस दिशा में कुछ नहीं किया. किसानों के गन्ना बकाये के भुगतान की दिशा में सरकार आगे बढ़ी, लेकिन गन्ने के समर्थन मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी करके अपनी ही किरकिरी करा ली. प्रदेश के गन्ना विकास मंत्री सुरेश राणा ने अभी कुछ ही दिन पहले गन्ना मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी करने की हास्यास्पद घोषणा की थी. ये वही सुरेश राणा हैं जो विधानसभा में यह मांग उठाते रहे हैं कि गन्ना मूल्य चार सौ रुपए प्रति क्विंटल किया जाए. समाजवादी पार्टी की सरकार ने जब गन्ना मूल्य की घोषणा की थी तब राणा ने उसे किसानों के साथ धोखा बताया था. सत्ता मिलते ही नेता के सुर कैसे बदलते हैं, सुरेश राणा की गन्ना विकास राज्य मंत्री के रूप में की गई घोषणा, इसका सटीक उदाहरण है. जब तत्कालीन सपा सरकार ने 2016-17 के पेराई सत्र के लिए गन्ना मूल्य में 25 रुपए प्रति क्विंटल की बढ़ोत्तरी की थी, तब भाजपा ने इसपर नाराजगी जताते हुए कहा था कि इससे फसल की लागत भी नहीं निकल पा रही है. भाजपा ने चीनी के बढ़े दामों के सापेक्ष गन्ना मूल्य निर्धारित करने की मांग की थी. भाजपा सत्ता में आ गई तो सारी बातें तहखाने में डाल दी. हालत यह है कि प्रदेश की चीनी मिलों पर पिछले पेराई सत्र 2016-17 का हजार करोड़ से अधिक अभी भी बकाया है. गन्ने के राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) में महज 10 रुपए प्रति क्विंटल का इजाफा चीनी मिल मालिकों को रियायत देने के लिए किया गया, ताकि चीनी मिल मालिकों के सिर से गन्ना बकाये का बोझ कम किया जा सके. सामान्य किस्म के गन्ने की कीमत 2017-18 सत्र में 310 से बढ़ कर 315 रुपए प्रति क्विंटल हो जाएगी. प्रदेश के किसान लगातार बढ़ती लागत के मद्देनजर गन्ने की कीमत बढ़ाने की मांग कर रहे थे, लेकिन चीनी मिल मालिकों के अड़ंगे के कारण गन्ना मूल्य नहीं बढ़ सका.

धान और आलू में मारा गया किसान, गेहूं में भी बर्बाद करने की तैयारी
गेहूं का समर्थन मूल्य 1450 रुपए प्रति क्विंटल किए जाने से किसानों में भीषण नाराजगी है. इस वर्ष किसानों को गेहूं खरीद पर बोनस भी नहीं मिलेगा. गन्ना, आलू, धान के गिरते दाम के बाद अब किसानों को गेहूं से भी लागत निकाल पाना मुश्किल होगा. किसान गेहूं का मूल्य 1550 रुपए प्रति क्विंटल करने और बोनस देने की मांग कर रहे हैं. किसानों का कहना है कि सरकार किसानों की परेशानी पर ध्यान नहीं दे रही है, इसके जवाब में वे आगामी चुनाव में भाजपा पर ध्यान दे देंगे. किसानों का कहना है कि धान और आलू के कारण वे पहले ही मर चुके हैं और गेहूं उन्हें और मार डालेगा. उनका आरोप है कि भाजपा सरकार किसान विरोधी नीतियों पर चल रही है. योगी सरकार ने बड़े प्रचार-प्रसार से 50 लाख मीट्रिक टन धान खरीदने की घोषणा की थी, लेकिन जमीन पर वह घोषणा सफेद झूठ साबित हुई. सरकार ने यह भी कहा था कि सामान्य धान न्यूनतम समर्थन मूल्य 1550 प्रति क्विंटल पर और ग्रेड धान 1590 प्रति क्विंटल के भाव से खरीदा जाएगा और 72 घंटे के भीतर किसानों का भुगतान कर दिया जाएगा. धान की खरीद पर किसानों को बोनस दिए जाने की भी बात कही गई थी. लेकिन नतीजा यह निकला कि भ्रष्ट अफसरों और दलालों ने पीडीएस सिस्टम के तहत मिलने वाले निकृष्ट स्तर के चावल को धान खरीदा दिखा कर पूरा पैसा हड़प लिया. इस तरह धान की खरीद का पूरा मामला ही फर्जीवाड़ा साबित हुआ. सरकारी धान खरीद केंद्र सूने पड़े रहे और कागजों पर धुआंधार खरीद हो गई. आढ़तियों और राइस मिलरों ने जो धान किसानों से सीधे खरीदा था, उसे ही सरकारी केंद्रों पर हुई खरीद दिखा दिया गया. क्रय केंद्रों पर अपनी फसल लेकर पहुंचे किसानों को फसल में नमी होने या दाना न होने का आरोप लगा-लगा कर वापस लौटा दिया गया तो मजबूरी में किसानों को हजार रुपए क्विंटल के भाव से अपना धान बेच कर घर लौटना पड़ा. किसानों की मजबूरी का फायदा आढ़तियों ने उठाया जिसे सरकारी अफसरों की शह मिली हुई थी. किसानों के नाम से फर्जी खाते तक खुलवाए गए और उनके खातों में भुगतान भेज दिया गया, वे खाते मंडी के व्यापारियों और राइस मिलर्स द्वारा संचालित किए जा रहे थे. योगी सरकार ने राज्य में पांच हजार खरीद केंद्रों के जरिए 80 लाख टन गेहूं खरीदने की घोषणा की थी. लेकिन वह घोषणा भी टांय-टांय-फिस्स साबित हुई थी. सरकार ने गेहूं की तर्ज पर 3500 क्रय केंद्रों के जरिए 50 लाख मीट्रिक टन धान खरीदने की घोषणा की लेकिन धान खरीद में भी सरकार फ्लॉप रही और बिचौलियों का बोलबाला बना रहा. यूपी के पूरे धान बेल्ट में धान की खरीद का सरकारी दावा बेमानी साबित हुआ है. बिचौलियों के जरिए मनमानी कीमत पर धान खरीदा गया और सरकार के नुमाइंदे बिचौलियों को ही अपना सहयोग देते रहे. बदायूं, पीलीभीत और तराई के विस्तृत धान पट्‌टी क्षेत्र के किसानों में इससे भीषण नाराजगी है.
आलू को लेकर भी योगी सरकार ने ऐसे ही बड़े-बड़े वायदे किए थे, लेकिन आलू ने किसानों को बुरी तरह से मारा. विवश किसानों ने सड़कों पर आलू फेंकना अधिक श्रेयस्कर समझा. मुख्यमंत्री आवास और विधानसभा के सामने आलू फेंका गया तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बुरा मान गए. लखनऊ में विधानभवन के सामने, मुख्यमंत्री आवास के पास और कुछ अन्य महत्वपूर्ण मार्गों पर काफी संख्या में आलू बिखरा पाया गया. इसे लेकर राजनीति अचानक गरमा गई. योगी सरकार के विरोध में किसानों की नाराजगी सड़क पर आलू के जरिए जाहिर हुई. नाराज किसानों ने मुख्यमंत्री आवास और विधानसभा के बाहर आलू फेंककर प्रदर्शन किया. सुबह के समय विधानसभा के सामने की मुख्य सड़क पर आलू ही आलू नजर आ रहे थे. प्रशासन आलू हटाने में लगा था. ऐसा केवल लखनऊ में ही नहीं हुआ, पूरे प्रदेश में आलू किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया. पिछले साल आलू की रिकॉर्ड पैदावार होने से किसानों ने आलू कोल्ड स्टोरेज में रखवा दिया था, लेकिन पुराने आलू की मांग कम होने के कारण स्टोरेज मालिकों और किसानों के पास इसे सड़क पर फेंकने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था. रिकॉर्ड आलू पैदा करने वाले फर्रुखाबाद जिले के ही करीब 70 कोल्ड स्टोरेज आलू से भरे पड़े हैं. अब कोई भी कोल्ड स्टोर आलू रखने की स्थिति में नहीं है. किसान भी कोल्ड स्टोरेज में ही आलू छोड़ कर चला गया. फर्रुखाबाद के तकरीबन 34 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में आलू की फसल बोई गई थी. आलू के रिकॉर्ड उत्पादन का नतीजा यह निकला कि वह या तो कौड़ियों के मोल बिका या कूड़े की तरह रास्तों पर फेंका सड़ता हुआ नजर आया. प्याज और टमाटर के बढ़ते दामों के बीच आलू किसानों के लिए सरकार की तरफ से कोई भी घोषणा नहीं की गई. उल्टा, सड़क पर आलू फेंकने के आरोप में लखनऊ पुलिस ने कुछ सपाइयों को पकड़ लिया और जेल के अंदर कर दिया. जिस आलू के कारण किसानों के मरने की नौबत आ गई, उस पर विरोध जताने का लोकतांत्रिक अधिकार भी सरकार छीन लेने पर आमादा है. पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि आलू खरीदा नहीं गया इसीलिए यह राजधानी की सड़कों पर दिखाई दे रहा है. जमीनी स्थिति यही रही कि आलू खरीद केंद्र खुले ही नहीं, जहां आलू खरीदे जाते. किसानों की आम शिकायत थी कि सरकार ने आलू का समर्थन मूल्य तो घोषित कर दिया लेकिन खरीद केंद्र खोले नहीं, किसान आलू कहां बेचते! ऐसा कई साल से हो रहा है. सपा के शासनकाल में भी आलू किसानों के साथ ऐसा ही हुआ था. आलू का सही दाम नहीं मिलने से किसानों की कमर टूट चुकी है. बाजार में आलू की कीमत चार-चार रुपए प्रति किलो तक आ गई. इस स्थिति में किसानों के पास आलू फेंकने के अलावा कोई चारा नहीं बचा. किसानों का कहना है कि आलू की कीमत कम से कम 10 रुपए प्रति किलो पर तय कर दी जाए, लेकिन सरकार सुनती ही नहीं.
आलू फेंकने पर सपाइयों के पकड़े जाने पर पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने किसानों और पार्टी कार्यकर्ताओं से मुलाकात की और सरकार द्वारा की गई कार्रवाई की निंदा की. अखिलेश ने कहा कि आलू की फसल की बर्बादी किसानों के प्रति भाजपा सरकार की उपेक्षा नीति का नतीजा है. उन्होंने योगी सरकार से पूछा कि किसानों और गरीबों के पक्ष में आवाज उठाना क्या अपराध है? उन्होंने यह भी पूछा कि योगी सरकार ने आलू किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने का वादा किया था उसका क्या हुआ? अखिलेश ने कहा कि भाजपा सरकार ने किसानों से धोखा किया है और अब उन्हें अपमानित भी कर रही है. किसानों की आवाज उठाने वालों का उत्पीड़न कर उन्हें झूठे केसों में फंसाया जा रहा है. पुलिस अपराधी पकड़ नहीं पा रही, लेकिन आलू फेंकने पर त्वरित कार्रवाई कर सपाइयों को गिरफ्तार कर ले रही है. अखिलेश ने कहा कि ऐसी त्वरित कार्रवाई करने वाले लखनऊ के पुलिस अधीक्षक को यश भारती पुरस्कार दिया जाना चाहिए.

नेता ही बंद कराते हैं मिलें और वही चालू कराने का वादा भी करते हैं
उत्तर प्रदेश की बंद पड़ी मिलें और कल कारखाने केवल चुनावी मुद्दा बनते हैं, लेकिन उन पर कोई काम नहीं होता. आधिकारिक तथ्य है कि महज 10 साल में उत्तर प्रदेश के करीब डेढ़ लाख छोटे और मध्यम उद्योग धंधे बंद हो गए. इनके बंद होने से लाखों लोग बेरोजगार हो गए और उनका पलायन हो गया. राज्य सरकार और नौकरशाही औद्योगिक सुधार के केवल दावे करती है, पर कोई काम नहीं करती. मध्यम और लघु उद्योग मंत्रालय की रिपोर्ट खुद ही कहती है कि उत्तर प्रदेश में ग्रामीण स्तर पर लघु और मध्यम उद्योगों की संख्या नगण्य रह गई है. महिला उद्यमियों की संख्या तो न के बराबर है. उद्योग खड़ा करने में दलितों की भागीदारी भी कम ही है. उद्यम में सबसे अधिक भागीदारी पिछड़ी जाति के लोगों की रही है, लेकिन वे भी अधिकांश हताश होकर अपना उद्योग बंद कर चुके. 30 प्रतिशत से अधिक उद्योग स्थाई रूप से बंद हो गए. इंडियन इंडस्ट्रीज़ एसोसिएशन का कहना है कि प्रदेश में उद्योगों को संचालित करने के लिए न तो मूलभूत सुविधाएं मिलती हैं और न ही उद्यमी यहां अपने आपको सुरक्षित समझते हैं. अकेले जीएसटी के कारण ही यूपी के कालीन उद्योग से जुड़े 20 लाख से अधिक बुनकर बेरोज़गार हो गए. पूरा कालीन उद्योग जीएसटी के बाद बर्बादी के कगार पर पहुंच गया. नोटबंदी के कारण कालीन उद्योग पहले से कराह रहा था. जीएसटी ने बाकी की कसर पूरी कर दी. कालीन निर्माताओं और निर्यातक संघों का कहना है कि जीएसटी के चलते लगभग पांच हजार इकाइयां बंद हो गईं और हजार करोड़ रुपए का निर्यात नुकसान में चला गया. कोई नया आर्डर नहीं दिया जा रहा है और नए आर्डर के लिए बुनाई पूरी तरह बंद हो गई है. केंद्र सरकार की भौंडी नीति और प्रदेश सरकार की उपेक्षा का फायदा चीन और तुर्की जैसे देशों को मिल रहा है. सरकार कॉरपोरेट प्रतिष्ठानों को फायदा पहुंचाने के इरादे से ऐसा कर रही है, ताकि मशीन-निर्मित कालीनों का बाजार चल निकले. उत्तर प्रदेश के कालीन उत्पादक क्षेत्र भदोही, मिर्जापुर, वाराणसी, घोसिया, औराई, आगरा, सोनभद्र, सहारनपुर, सहजनपुर, जौनपुर, गोरखपुर वगैरह बुनकरों के लिए तबाही का केंद्र बन चुके हैं. लेकिन इन पर न तो गोरखपुर के योगी आदित्यनाथ की निगाह जाती है और न विपक्ष की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों की.
योगी सरकार तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती की ‘कृपा’ से प्रदेश की बंद पड़ी चीनी मिलों में से कुछ मिलों को फिर से चलाने की बात कर रही है. ये कुछ मिलें पूर्वांचल की हैं. प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी पूर्वांचल (गोरखपुर) के हैं तो यहां के लोगों को उम्मीद है कि अगले चुनाव के पहले कहीं ये मिलें फिर से शुरू हो जाएं. यही उम्मीद कानपुर के लोगों को भी थी जिन्हें लगातार यह आश्वासन मिल रहा था कि कपड़ा उद्योग के कारण कभी पूरब का मैंचेस्टर कहे जाने वाले कानपुर को पुराने दिन लौटाए जाएंगे. कपड़ा उद्योग के लिए मशहूर मऊ के लोगों को भी यही भरोसा दिया गया था. लेकिन अब भाजपा सरकार के मंत्रियों के मुंह से उसकी भुनभुनाहट भी सुनाई नहीं पड़ती. योगी सरकार के कद्दावर मंत्री कानपुर निवासी सतीश महाना ने कहा था कि कानपुर की बंद पड़ी कपड़ा मिलों के ताले जल्दी ही खुलने वाले हैं. इससे कानपुर से तेजी से हो रहा श्रम-जगत का पलायन रुकेगा. महाना ने कहा था कि पिछली सरकारों की गलत नीतियों के चलते उद्योगपति कानपुर में उद्योग लगाने से डरते थे, लेकिन अब माहौल बदल गया है. केंद्र और योगी सरकार मिलकर उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर उद्योग धंधे शुरू करने के लिए रोडमैप तैयार कर रही है. महाना के मुताबिक मशहूर कपड़ा मिल लाल-इमली कांग्रेस के शासनकाल में बंद हुई थी. इसे चालू करने के लिए कपड़ा मंत्रालय से पैसा भी आया, नई मशीनें लाई गईं, लेकिन इसके बावजूद इसे चालू नहीं कराया जा सका. महाना ने कानपुर के लोगों को सपना दिखाया कि आने वाले समय में कानपुर में और भी नए-नए उद्योग लगेंगे. बड़ी-बड़ी कंपनियों से इस सिलसिले में बातचीत चल रही है. महाना ने दावा किया था कि कानपुर की बंद पड़ी कपड़ा मिलों को दोबारा चालू करने के बारे में उनकी केंद्रीय वित्त मंत्री और कपड़ा मंत्री से कई बार मुलाकात हो चुकी है. लेकिन उसका नतीजा क्या निकला, इसका लोग इंतजार ही कर रहे हैं. एल्गिन और लाल-इमली समेत अन्य बंद मिलों की चिमनियों से धुआं निकलना कब शुरू होगा, इसकी प्रतीक्षा में कई नस्लें बूढ़ी हो चुकी हैं. इन नस्लों को गुमान था कि कानपुर में कभी स्वदेशी, लाल इमली, एल्गिन समेत दर्जनों मशहूर कपड़ा मिलें थीं. कपड़े के कई अन्य छोटे-मोटे उद्योग भी थे. इन मिलों में लाखों की संख्या में लोग काम करते थे. कानपुर की पहचान ही इसकी औद्योगिक धाक के कारण थी. कानपुर के लोगों की घड़ियां मिलों के सायरन से ही चलती थीं. यहां के कपड़े की मांग विदेशों तक थी. लाल-इमली के कपड़े और कालीन का मांग पाकिस्तान से लेकर ईरान और ईराक तक थी. एल्गिन का बना कपड़ा अमेरिका, यूरोप और जापान के बाजारों तक पूछा जाता था. कानपुर सबसे ज्यादा कपड़े का उत्पादन करने वाला एशिया का अकेला शहर था. सत्तर के दशक के बाद कानपुर की कपड़ा मिलें धीरे-धीरे बंद होती चली गईं. मऊ की बंद कपड़ा मिलों को भी दोबारा खोलने की जुमलेबाजी लगातार हो रही है. हाल ही में योगी सरकार ने मऊ की मशहूर स्वदेशी कॉटन मिल और परदहां कॉटन मिल की बंदी पर अफसोस जताते हुए इसे चालू करने का आश्वासन दिया था. लेकिन यह आश्वासन और चिंता केवल जुबानी कसरत ही साबित हो रही है. स्वदेशी कॉटन मिल केंद्र सरकार का उपक्रम थी और परदहां कॉटन मिल उत्तर प्रदेश सरकार चलाती थी. मिल बंद होने से बेरोजगार हुए एक बुजुर्ग कारीगर कहते हैं कि सरकारों को सियासत की मिल चलाने से फुर्सत नहीं, बंद कारखाने कहां से खुलवाएगी! बुजुर्ग बताते हैं कि महज 64 करोड़ के घाटे के कारण परदहां कॉटन मिल को सरकार ने बंद कर दिया था. इस बंदी के कारण पांच हजार से अधिक कर्मचारी बेरोजगार हो गए थे. विडंबना यह है कि योगी सरकार बनने के 25 दिनों के भीतर इस मिल को फिर से चालू कराने की बात कही गई थी. अधिकारियों और इंजीनियरों की टीम ने बंद मिल का निरीक्षण करने की औपचारिकता भी पूरी कर ली, लेकिन सारी कवायद सतही सियासत ही साबित हो रही है. उल्लेखनीय है कि 15 जनवरी 1974 में शुरू हुई यह मिल वर्ष 2005 में महज 64 करोड़ के घाटे की वजह से बंद कर दी गई. तब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और मुलायम सिंह यादव प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे.

बंद में यूपी का नाम, चालू में कहीं नहीं
केंद्र सरकार की यह आधिकारिक स्वीकारोक्ति है कि देश की 682 बड़ी कपड़ा मिलें बंद पड़ी हैं. 1399 कपड़ा मिलें चल रही हैं. 30 जून 2017 तक की सूचना के मुताबिक देश में 1399 कपड़ा मिलें परिचालित हो रही हैं और 682 कपड़ा मिलें बंद हैं. बंद पड़ी कपड़ा मिलों में सबसे अधिक तमिलनाडु की 232 कपड़ा मिलें शामिल हैं. इसके अलावा महाराष्ट्र में 85, उत्तर प्रदेश में 60, गुजरात में 52 और हरियाणा में 42 कपड़ा मिलें बंद हैं. तमिलनाडु में 752 कपड़ा मिलें अब भी चल रही हैं. मध्य प्रदेश में 135 कपड़ा मिलें, महाराष्ट्र में 135, पंजाब में 97, गुजरात में 55 और राजस्थान में 41 कपड़ा मिलें परिचालित हो रही हैं, लेकिन इनमें उत्तर प्रदेश का नाम कहीं शामिल नहीं है. इन मुद्दों पर राजनीतिक दलों का कभी ध्यान नहीं जाता और यह व्यापक जन-आंदोलन का कारण बने, इस बारे में नेताओं की शातिराना चुप्पी सधी रहती है. 

Thursday 18 January 2018

मोदी सरकार का खतरनाक नसबंदी अभियान-2... स्वास्थ्य मंत्रालय और न्यूज़ चैनल दोनों की कलई खुली

 
प्रभात रंजन दीन
गर्भधारण रोकने के लिए महिलाओं को ‘डिपो मेडरॉक्सी प्रोजेस्टेरोन एसिटेट’ (डीएमपीए) दवा इंजेक्ट की जा रही है. दुनिया के कई देशों में खतरनाक यौन अपराधियों की यौन ग्रंथी नष्ट करने के लिए उन्हें सजा के बतौर डीएमपीए दवा काइंजेक्शन दिया जाता है, जिसे मेडिको-लीगल शब्दावली में ‘केमिकल कैस्ट्रेशन’ कहते हैं. यह दवा पुरुषों और महिलाओं के शरीर को घातक रूप से नुकसान पहुंचाती है. ‘चौथी दुनिया’ के पास दुनियाभर के चिकित्सा विशेषज्ञों की सलाह और रिपोर्ट, चिकित्सा शोध संस्थाओं के रिसर्च पेपर्स, अंतरराष्ट्रीय स्तर के स्वास्थ्य एवं चिकित्सा प्रतिष्ठानों की रिपोर्ट्स, सामाजिक विशेषज्ञों की राय, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सामाजिक-अकादमिक फोरम पर रखे गए शोध-पत्रऔर दवा कंपनी की तकनीकी प्रोडक्ट रिपोर्ट्स हैं. इसके अलावा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का वह आधिकारिक ‘फ्रॉड’मूल-आधार है, जिसने ऐसे अमानुषिक कृत्य का पर्दाफाश करने का रास्ता खोला और ‘मिशन परिवार विकास’ के नाम पर महिलाओं की देह में जहर चुभोये जाने का सरकारी योजना का सच सामने आ सका. कुछ प्रमुख वेब-मीडिया संस्थानों ने इस खबर को देश के जरूरी मुद्दे की तरह उठाया. समाचार चैनल ‘न्यूज़-24’ ने ‘चौथी दुनिया’ की पूरी खबर दिखाई, उसे ‘वाइरल’ भी बताया और आखिर में एक ही झटके में उसे ‘झूठा’ घोषित कर दिया. ‘चौथी दुनिया’ की खबर की समीक्षा करते हुए ‘न्यूज-24’ ने केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे और दिल्ली के गंगाराम अस्पताल की गायनोकोलॉजिस्ट डॉ. माला श्रीवास्तव से एक झटके में बयान लिया और दूसरे झटके में खबर को ‘झूठा’ बता कर कार्यक्रम का शटर गिरा दिया. केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री और गायनोकोलॉजिस्ट ने क्या कहा, इसका हम तथ्यवार विवरण आपके समक्ष रख रहे हैं.
‘चौथी दुनिया’ने अपनी पिछली कवर स्टोरी (8 से 14 जनवरी 2018) में सात प्रमुख बिंदु सामने रखे थे. वे सात मुद्दे ‘चौथी दुनिया’ की कवर-स्टोरी के केंद्रीय तत्व हैं. समाचार चैनल ‘न्यूज-24’ ने इन तथ्यों को दिखाया जरूर, लेकिन अपनी तथाकथित छानबीन में इन सात केंद्रीय तत्वपर ध्यान केंद्रित नहीं किया. इन बिंदुओं पर न अपनी कोई जानकारी हासिल की, न कोई पढ़ाई की और न कोई शोध किया. चैनल ने महज दो लोगों (केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री और गायनोकोलॉजिस्ट) से फौरी तौर पर बयान लिया औरखबर के आधारभूत तथ्यों पर कोई पत्रकारीय सवाल-जवाब भी नहीं किया. उन्होंने जो कहा उसे ‘जजमेंट’ समझ लिया. केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने तो फिर भी सत्ता-चरित्र से जरा अलग हट कर थोड़ी ईमानदारी बरती. हालांकि उन्होंने एक सरकारी नुमाइंदे की तरह ही बयान दिया और सरकार के कृत्य को सही ठहराया, लेकिन यह भी कहा, ‘दवा के साइड-इफेक्ट्स हो सकते हैं, हम इसे खारिज नहीं करते’. दिल्ली के गंगाराम अस्पताल की गायनोकोलॉजिस्ट डॉ. माला श्रीवास्तव ने डीएमपीए दवा के बारे में बताने के बजाय उसे लगवाने के तौर-तरीके बताने शुरू कर दिए,फिर कहा कि डीएमपीए इंजेक्शन से माताओं के दूध पर कोई असर नहीं पड़ता. गायनोकोलॉजिस्ट ने माताओं के शरीर पर होने वाले नुकसान की कोई चर्चा नहीं की और न ‘न्यूज-24’ ने उनसे ये सवाल पूछे. जानकारी रहती तो सवाल पूछते. डॉक्टर ने दूध पर ही कहा और चैनल ने दूध पर ही कार्यक्रम रोक दिया. डीएमपीए इंजेक्शन माताओं के शरीर पर क्या-क्या घातक नुकसान करता है, इसके आधिकारिक विस्तार में जाने से पहले हम दूध पर ही बात कर लें. भोपाल गैस त्रासदी में सुप्रीमकोर्ट द्वारा गठित उच्चस्तरीय जांच और सलाहकार समिति की सदस्य रहीं राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की ख्यातिप्राप्त चिकित्साशास्त्री डॉक्टर सी. सत्यमाला कहती हैं कि डीएमपीए इंजेक्शन महिलाओं और उसकी आने वाली संतति के लिए बेहद खतरनाक (हैज़ार्डस) है. इसका एक इंजेक्शन भी लगवाना खतरनाक है. यह स्तन-पान कराने वाली महिलाओं के लिए और भविष्य में खुद स्वस्थ रह कर स्वस्थ बच्चे की मां बनने की चाहत रखने वाली मां के लिए अत्यंत नुकसानदेह है. डॉक्टर सत्यमाला का कहना है कि डीएमपीए के असर पर शोध में जो तथ्य हासिल हुए, वे इस दवा के इस्तेमाल को पूरी तरह खारिज करते हैं. डेविड वार्नर की चिकित्साशास्त्र की मशहूर किताब ‘व्हेयर देयर इज़ नो डॉक्टर’ में डीएमपीए पर पांच साल शोध करने के बाद तैयार किया गया डॉ. सी. सत्यमाला का शोध-पत्र प्रकाशित किया गया है, जिसने पूरी दुनिया के चिकित्साशास्त्रियों और वैज्ञानिकों का ध्यान खींचा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन और उसकी संस्था काउंसिल फॉर इंटरनेशनल ऑरगेनाइजेशन ऑफ मेडिकल साइंसेज़ की गाइडलाइंस-11 तो इससे आगे बढ़ कर कहती है कि स्तन-पान कराने वाली महिलाओं को डीएमपीए इंजेक्शन देना ही नहीं चाहिए. डब्लूएचओ की गाइडलाइंस कहती है कि डीएमपीए इंजेक्शन के कारण हड्डी से खनिज तत्वों का क्षरण होने लगता है, लिहाजा दूध बनने की प्रक्रिया बाधित होती है और ऐसे में महिलाओं को डीएमपीए इंजेक्शन दिया जाना गंभीर विपरीत नकारात्मक असर डाल सकता है. ऐसा किया जाना अंतरराष्ट्रीय नियमों और नैतिकता का उल्लंघन है. दूध पिलाने वाली महिलाओं के लिए डीएमपीए इंजेक्शन को ठीक बताने वाली गंगाराम अस्पताल की गायनाकोलॉजिस्ट डॉ. माला श्रीवास्तव को ‘इंडियन जरनल ऑफ मेडिकल एथिक्स’ में प्रकाशित उस रिपोर्ट को ध्यान में रखना ही चाहिए जिसमें आगाह किया गया है कि डीएमपीए इंजेक्शन से स्तन-कैंसर, रीढ़ की हड्डी के कैंसर जैसी तमाम घातक बीमारियों का खतरा बढ़ता है. क्या ऐसे स्तन का दूध नवजात शिशु को पिलाया जाना चाहिए जिसमें कैंसर जैसी बीमारी पल रही हो? ‘न्यूज-24’ को गंगाराम अस्पताल की गायनाकोलॉजिस्ट डॉ. माला श्रीवास्तव से यह सवाल पूछना चाहिए था. ‘इंडियन जरनल ऑफ मेडिकल एथिक्स’ में प्रकाशित रिपोर्ट में ही आप पाएंगे कि वर्ष 2001 में सुप्रीमकोर्ट के समक्ष भारत सरकार ने यह स्वीकार किया था कि डीएमपीए इंजेक्शन जैसी दवा का व्यापक स्तर (मास लेवल) पर प्रयोग उचित नहीं है. इसका इस्तेमाल किसी भी स्थिति में महिलाओं के लिए संघातक है. फिर ऐसा क्या हुआ कि 2017 में भारत सरकार ने इसे आनन-फानन लागू कर दिया? भारत सरकार ने क्या भारत के लोगों को खतरनाक रसायनिक प्रयोग करने के लिए ‘गिनी-पिग’ समझ रखा है? इस सवाल का जवाब आपको ‘इंडियन जरनल ऑफ मेडिकल एथिक्स’ में प्रकाशित रिपोर्ट में ही मिल जाएगा, जिसमें यह कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में गरीब महिलाओं को डीएमपीए इंजेक्शन देकर ‘जीवित-प्रयोगशाला’ बना दिया जाएगा. प्रमुख समाजशास्त्री एनबी सरोजिनी और महिला मामलों की विशेषज्ञ प्रख्यात पत्रकार लक्ष्मी मूर्ति का कहना है कि जनसंख्या नियंत्रण का लक्ष्य पूरा करने के लिए डीएमपीए जैसी दवा का प्रयोग देश की महिलाओं और आने वाली नस्लों के स्वास्थ्य को इतना घातक नुकसान पहुंचाएगा कि इसकी कभी भरपाई नहीं हो सकती. दवा बनाने वाली कंपनी ‘फाइज़र’ को भारत में फेज़-3 ट्रायल का कानूनी प्रावधान पूरा किए बगैर इसके इस्तेमाल की इजाजत दे दी गई. क्लिनिकल-ट्रायल की जरूरी औपचारिकता पूरी किए बगैर दवा कंपनी ने ‘पोस्ट मार्केटिंग सर्विलांस सर्वे’ भी कर लिया और इसकी रिपोर्ट भी सार्वजनिक नहीं की गई. रिपोर्ट में गलत तथ्यों के भरे जाने की पूरी आशंका है. ऐसे संदेहास्पद सर्वेक्षण और संदेहास्पद आंकड़े (डाटा) के आधार पर डीएमपीए को ‘सेफ’ घोषित कर दिया जाना पूरी तरह संदेहास्पद है. इसे देखते हुए ही महिला संगठनों, स्वास्थ्य संगठनों, मानवाधिकार संगठनों और तमाम विशेषज्ञों ने इस दवा पर पूर्ण पाबंदी लगाने की मांग की थी. लेकिन इसकी सुनवाई नहीं हुई. एनबी सरोजिनी और लक्ष्मी मूर्ति ने इस बारे में ‘इंडियन जरनल ऑफ मेडिकल एथिक्स’ में विस्तार से शोध-परक लेख भी लिखा है. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्युट्रिशन, हैदराबाद की पूर्व उप निदेशक डॉ. वीणा शत्रुघ्न कहती हैं कि सरकार ने महिलाओं पर जैसे निशानासाध रखा है.कोई यह ध्यान नहीं रखता कि डीएमपीए इंजेक्शन उसी महिला को लगाया जा सकता है जो पूरी तरह स्वस्थ हो और गर्भधारण नहीं करना चाहती हो. महिला की जागरूकता का मान्य स्तर और उसकी औपचारिक सहमति जरूरी है, क्योंकि इस इंजेक्शन के साइड इफेक्ट्स बहुत गहरे हैं, जिसका खामियाजा तो महिला को ही भुगतना पड़ता है. हमारे देश का हेल्थ-केयर सिस्टम इसके साइड-इफेक्ट्स को हैंडिल नहीं कर सकता. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टॉक्सिकोलॉजी रिसर्च के पूर्व असोसिएट प्रोफेसर एवं प्रिंसिपल टेक्निकल अफसर और संस्थान के जेनेटिक टॉक्सिकोलॉजी विभाग के मौजूदा सलाहकार डॉ. एल.के.एस. चौहान कहते हैं कि प्रतिष्ठित साइंस जरनल के संदर्भों को देखते हुए यह साबित होता है कि डीएमपीए इंजेक्शन स्तन कैंसर और यौन संक्रमण का खतरा बढ़ाता है. इस इंजेक्शन के इस्तेमाल से एचआईवी का भी खतरा बहुत बढ़ जाता है. यह दवा रोगों से लड़ने की स्वाभाविक क्षमता (इम्यूनिटी) को नष्ट करती है. जब किसी व्यक्ति के शरीर से इम्युनिटी ही खत्म हो जाएगी, तो वह सर्दी-जुकाम तक नहीं रोक पाएगा, फिर उसे गंभीर बीमारियां तो आसानी से पकड़ेंगी ही! ऐसी दवा को किस वैज्ञानिक और तकनीकी आधार पर मंजूरी दी जा सकती है, यह अपने आप में ही बड़ा सवाल है! डीएमपीए इंजेक्शन से होने वाले निर्बाध रक्तस्राव से ऑस्टियोपोरोसिस जैसी खतरनाक बीमारियां होने का भी अंदेशा रहता है. डॉ. चौहान कहते हैं कि अमेरिका के ‘फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन’ ने इस दवा को स्वास्थ्य के लिए खतरनाक घोषित कर रखा है. अमेरिका में डीएमपीए इंजेक्शन के पैकेट पर बाकायदा चेतावनी छपी रहती है. वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. चौहान कहते भी हैं कि गर्भधारण रोकने के जब दुनिया में कई सुरक्षित उपाय मौजूद हों तो फिर ऐसी खतरनाक दवा के इस्तेमाल का कोई तार्किक औचित्य नहीं बनता.
डीएमपीए दवा बनाने वाली कंपनी ‘फाइज़र’ इसके सांघातिक खतरे के बारे में आगाह करती है लेकिन भारत सरकार को इसकी कोई परवाह नहीं. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय जिस ‘अंतरा’ के नाम पर डिम्पा का इंजेक्शन लगवा रहा है, उसके पैकेट पर ऐसी कोई वार्निंग छपी हुई नहीं है. जबकि कानूनी प्रावधान है कि ऐसे किसी खतरे के बारे में दवा के पैकेट पर प्रमुखता से चेतावनी छापी जाए. डीएमपीए दवा बनाने वाली कंपनी ‘फाइज़र’ की टेक्निकल प्रोडक्ट रिपोर्ट देखें तो आपको हैरत होगी कि जिस दवा के इतने ढेर सारे खतरे खुद दवा बनाने वाली कंपनी बता रही हो, उसे भारत सरकार ने किस अंधत्व में स्वीकार कर लिया? केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा हों या स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे, वे किस आधार पर यह ऐलान कर देंगे कि दवा का कोई नकारात्मक असर नहीं होता? और कोई न्यूज़ चैनल किस नैतिकता के बूते ‘चौथी दुनिया’ में प्रकाशित खबर को झूठा बता देगा? ‘फाइज़र’ की टेक्निकल रिपोर्टवर्ष 2017 की अद्यतन रिपोर्ट है, जिसके खतरों के बारे में आप चार अलग-अलग लाल रंग के बॉक्स में विस्तार से देख सकते हैं. इन खतरों के बारे में ‘अंतरा’ के पैकेट्स पर चेतावनी क्यों नहीं छापी गई? इसका जवाब स्वास्थ्य मंत्रालय को देना ही चाहिए.
डिम्पा के खतरनाक खेल का बिंदुवार खुलासा-

1- महिलाओं में इंजेक्ट की जा रही है यौन-अपराधियों को सजा में दी जाने वाली दवा
अब हम इस सनसनीखेज प्रकरण का बिंदुवार दृश्य दिखाते हैं. ‘चौथी दुनिया’ ने अपनी कवर-स्टोरी में लिखा है कि अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों में खतरनाक यौन अपराधियों को सजा (केमिकल कैस्ट्रेशन) के बतौर डीएमपीए दवा इंजेक्ट की जाती है. अन्य देशों में मानव जीवन का इतना सम्मान है कि खूंखार यौन अपराधियों को केमिकल कैस्ट्रेशन की सजा में भी डीएमपीए जैसी खतरनाक दवा इंजेक्ट किए जाने का सामाजिक संगठनों द्वारा विरोध किया जा रहा है. जबकि भारत सरकार यह दवा महिलाओं में धड़ल्ले से इंजेक्ट कर रही है और इस घोर सामाजिक अपराध पर देश चुप्पी साधे है. अमेरिका के कई राज्यों में यौन अपराधियों को केमिकल कैस्ट्रेशन की सजा के बतौर डीएमपीए का इंजेक्शन दिया जाता है. जबकि डीएमपीए के घातक असर को देखते हुए अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने इसे ‘ब्लैक-बॉक्स’ में डाल रखा है. अमेरिकन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन शरीर पर नकारात्मक और घातक असर डालने वाली डीएमपीए जैसी दवा का यौन-अपराधियों पर भी इस्तेमाल किए जाने का विरोध कर रहा है. अमेरिका के अलावा इंगलैंड, जर्मनी और इजरायल जैसे देशों में भी जीर्ण (क्रॉनिक) यौन-अपराधियों को केमिकल कैस्ट्रेशन की सजा देने का प्रावधान है. केमिकल कैस्ट्रेशन में डीएमपीए के इस्तेमाल और उसके खतरनाक असर का संदर्भ ‘विकिपीडिया’ और ‘इंडियन अकादमी ऑफ फॉरेंसिक मेडिसिन’ के ‘जरनल ऑफ इंडियन अकादमी ऑफ फॉरेंसिक मेडिसिन’ में प्रकाशितशोध-पत्र से भी लिया जा सकता है.

2. बिल गेट्स फाउंडेशन से साठगांठ कर स्वास्थ्य मंत्रालय कर रहा है घिनौना कारनामा
डीएमपीए का इस्तेमाल 1993-94 में कुछ खास प्राइवेट सेक्टर में हो रहा था. कई सामाजिक संस्थाएं इस इंजेक्शन के इस्तेमाल पर बैन लगाने की सुप्रीमकोर्ट से मांग कर रही थीं. 1995 में ड्रग्स टेक्निकल एडवाइज़री बोर्ड (डीटीएबी) और सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑरगेनाइजेशन ने खास तौर पर राष्ट्रीय परिवार नियोजन अभियान में डीएमपीए के इस्तेमाल को प्रतिबंधित कर दिया था. वर्ष 2001 में कई दवाएं प्रतिबंधित की गईं, लेकिन डीएमपीए को प्रमोट करने वाली लॉबी इतनी सशक्त थी कि वह बैन नहीं हुई, बस उसे प्राइवेट सेक्टर में सीमित इस्तेमाल की मंजूरी मिली.
डीएमपीए इंजेक्शन के इस्तेमाल को लेकर हो रही कानूनी और व्यापारिक खींचतान में बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के कूद पड़ने से डीएमपीए लॉबी मजबूत हो गई. फाउंडेशन ने वर्ष 2012 में ब्रिटिश सरकार को साधा और फिर विश्व के विकासशील और गरीब देशों में जनसंख्या नियंत्रण में सहयोग देने के बहाने अपना रास्ता साफ कर लिया. फाउंडेशन ने मोदी सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को साधा. स्वास्थ्य मंत्रालय ने परिवार कल्याण विभाग के जरिए ड्रग्स टेक्निकल एडवाइज़री बोर्ड (डीटीएबी) के पास प्रस्ताव भिजवाया कि डीएमपीए इंजेक्शन के इस्तेमाल पर लगी पाबंदी हटाई जाए. डीटीएबी ने उस समय इस प्रस्ताव को टाल दिया और कहा कि इंजेक्शन का कुप्रभाव और गहरा गया है. डीटीएबी ने परिवार कल्याण विभाग को यह सलाह दी कि इस पर विशेषज्ञों से राय ली जाए और इसकी गहन पड़ताल कराई जाए. स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया, उल्टा चारों तरफ से दबाव बढ़ा दिया और सम्बद्ध महकमों पर सरकार का घेरा कस गया. फिर दृश्य बदलता चला गया. परिवार कल्याण विभाग ने 24 जुलाई 2015 को एक सम्मेलन बुलाया और विशेषज्ञों से सुझाव लेने का प्रायोजित-प्रहसन खेला. उन संस्थाओं, विशेषज्ञों और समाजसेवियों को सम्मेलन में बुलाया ही नहीं गया, जो डीएमपीए के इस्तेमाल पर लगातार विरोध दर्ज कराते रहे और कानूनी लड़ाई लड़ते रहे. इस सम्मेलन के बहाने तुगलकी तरीके से यह तय भी कर लिया गया कि प्राइवेट सेक्टर में डीएमपीए इंजेक्शन का इस्तेमाल पहले से हो रहा है, इसलिए इसकी अलग से जांच की कोई जरूरत नहीं है और अब इसे सार्वजनिक क्षेत्र में भी आजमाना चाहिए. जबकि सबको पता है कि प्राइवेट सेक्टर में डीएमपीए के इस्तेमाल का आंकड़ा अत्यंत क्षीण है. दिलचस्प मोड़ तो यह आया कि अब तक विरोध दर्ज करते आ रहे डीटीएबी ने डीएमपीए इंजेक्शन का इस्तेमाल किए जाने की 18 अगस्त 2015 को मंजूरी भी दे दी. इस तरह मोदी सरकार ने मांओं को बांझ बनाने और भावी नस्ल को पंगु बनाने वाली दवा के अराजक इस्तेमाल की भूमिका मजबूत कर दी. डीएमपीए जैसी खतरनाक दवा के इस्तेमाल का विरोध करने वाले लोगों का मुंह बंद करा दिया गया और मीडिया के मुंह पर ‘ढक्कन’ पहना दिया गया, ताकि कोई शोर न मचे, कोई वितंडा न खड़ा हो.
मोदी सरकार के स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने जुलाई 2017 में ‘मिशन परिवार विकास’ की शुरुआत की और कहा कि इसके जरिए वे 2025 तक देश की जनसंख्या को काबू में ले आएंगे. बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की सह अध्यक्ष मेलिंडा गेट्स ने कहा कि बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए यह काम किया जा रहा है. गेट्स फाउंडेशन के फंड पर चलने वाले इस अभियान की मॉनिटरिंग फाउंडेशन का इंडिया हेल्थ एक्शन ट्रस्ट कर रहा है. बिल गेट्स और मेलिंडा गेट्स केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व अन्य सम्बद्ध राज्यों के मुख्यमंत्रियों से लगातार सम्पर्क में हैं. उनकी सौहार्द मुलाकातें लगातार हो रही हैं. मिशन की फंडिंग का ब्यौरा क्या है, मिशन के ऑपरेशन का खर्च कहां से आ रहा है, दवा कहां से आ रही है, इसकी कीमत क्या है, इस पर रहस्य बना कर रखा जा रहा है, कोई पारदर्शिता नहीं है. बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के आगे-पीछे सरकारें नाच रही हैं. फाउंडेशन के आगे विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था भी नतमस्तक रहती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन को फाउंडेशन ने 40 अरब डॉलर का फंड दे रखा है. इसके अलावा बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑरगेनाइजेशन) को हर साल तीन अरब डॉलर देता है, जो डब्लूएचओ के सालाना बजट का 10 प्रतिशत होता है. पूरी दुनिया के स्वास्थ्य-अर्थशास्त्र पर बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन और उसके ‘सिंडिकेट’ का बोलबाला है. फिरमोदी सरकार, योगी सरकार, नीतीश सरकार, रघुबर सरकार, सिंधिया सरकार, रमन सरकार, शिवराज सरकार और सोनोवाल सरकार क्या बला है! ये सरकारें भी फाउंडेशन की मुट्ठी में हैं. इसकी एक बानगी देखें, पूरा माजरा समझ में आ जाएगा. मिशन परिवार विकास के नाम पर चल रहे डीएमपीए इंजेक्शन अभियान को मॉनिटर कर रहा है बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन का इंडिया हेल्थ एक्शन ट्रस्ट. गेट्स फाउंडेशन ने यूपी कैडर के आईएएस अफसर विकास गोठवाल को इंडिया हेल्थ एक्शन ट्रस्ट का प्रमुख बना रखा है. गेट्स फाउंडेशन से प्रभावित रहे तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गोठवाल को बाकायदा छुट्टी देकर ट्रस्ट ज्वाइन करने की मंजूरी दी थी. गोठवाल का कार्यकाल वर्ष 2014-15-16 के लिए था. फिर योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने और उन्होंने गेट्स फाउंडेशन के त्वरित-प्रभाव में गोठवाल को अगले तीन साल के लिए भी ट्रस्ट में बने रहने की मंजूरी दे दी.

3. जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर सात राज्यों में शुरू हुआ गंदा खेल
4. देश की निम्न और निम्न-मध्यम वर्ग की महिलाओं को बांझ बनाने का कुचक्र
प्रजनन दर कम करने के लिए ‘मिशन परिवार विकास’ के नाम पर महिलाओं को ‘अंतरा’ के नाम से दिया जाने वाला इंजेक्शन ‘डिपो मेडरॉक्सी प्रोजेस्टेरोन एसिटेट’ उन्हें भीषण रोग की सुरंग में धकेल रहा है. इस दवा के इस्तेमाल के कुछ अर्से बाद महिलाएं फिर मां बनने लायक नहीं रह जातीं. अगर बनती भी हैं तो बच्चे इतने कमजोर होते हैं कि शीघ्र मौत का शिकार हो जाते हैं, जो बच जाते हैं वे विकलांग होकर रह जाते हैं. फार्माकोलॉजी विशेषज्ञों का कहना है कि डीएमपीए के इस्तेमाल से स्थायी तौर पर शारीरिक परिवर्तन हो जाता है और हड्डियां गलने लगती हैं. पुरुषों में इसका इस्तेमाल करने से उन्हें हृदयाघात और ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा रहता है. पुरुषों की छाती महिलाओं की तरह फूलने लगती है. इसका इस्तेमाल करने वाली महिलाओं का शारीरिक विन्यास विद्रूप हो जाता है, हड्डी के घनत्व (बोन-मास) में गलन और संकुचन होने लगता है, होठ का रंग बदलने लगता है, बाल झड़ने लगते हैं और मांसपेशियों का घनत्व भी गलने लगता है. डीएमपीए इंजेक्शन ऑस्टियोपोरोसिस और स्तन कैंसर होने में योगदान देता है और इसके इस्तेमाल से कालांतर में गर्भधारण करना मुश्किल हो जाता है. यह एचआईवी के संक्रमण का आसान मददगार बन जाता है. डीएमपीए इंजेक्शन का इस्तेमाल करने के एक वर्ष के अंदर 55 प्रतिशत महिलाओं के मासिक धर्म में अप्रत्याशित बदलाव देखा गया है और दो वर्ष के अंदर इस अप्रत्याशित घातक बदलाव ने 68 प्रतिशत महिलाओं को अपने घेरे में ले लिया. डीएमपीए इंजेक्शन का इस्तेमाल करने वाली महिलाएं बाद में जब गर्भधारण करना चाहती हैं तब पैदा होने वाला उनका बच्चा अत्यंत कम वजन का होता है और अधिकतर मामलों में ऐसे बच्चों की साल भर के अंदर मौत हो जाती है. दवा का इस्तेमाल करने वाली महिलाओं के कालांतर में गर्भधारण करने के बाद होने वाले बच्चों के यौन संक्रमित होने का खतरा अत्यधिक रहता है. इसका इस्तेमाल करने वाली महिलाओं के मस्तिष्क तंत्र पर भी बुरा असर पड़ता है. इस दवा से ब्रेस्ट कैंसर के अलावा सर्वाइकल (रीढ़ की हड्डी) का कैंसर होने का भी बड़ा खतरा रहता है. वर्ष 2006 का एक अध्ययन बताता है कि दवा के दो साल के प्रयोग से ऑस्टियोपोरोसिस होने की संभावना प्रबल हो जाती है. वर्ष 2012 के एक अध्ययन में यह पता चला कि 12 महीने या उससे अधिक समय तक डीएमपीए के उपयोग से आक्रामक स्तन कैंसर होने के कई केस सामने आए. डीएमपीए इंजेक्ट करने के पहले सम्बन्धित महिला को आगाह (कॉशन) करना जरूरी होता है. साथ ही डॉक्टर का यह दायित्व भी होता है कि वह इंजेक्शन लेने वाली महिला को डीएमपीए से होने वाले नुकसान के बारे में पहले ही बता दे. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. ‘अंतरा’ के पैकेट्स पर भी हिदायत या जोखिम की चर्चा नहीं है, यहां तक कि दवा निर्माता कंपनी का नाम भी दर्ज नहीं है. सामान्य तौर पर बच्चों को दिए जाने वाले टीके में भी चार हिदायतों के साथ टीका लगाया जाता है, लेकिन डिम्पा इंजेक्शन लगाने के पहले कोई हिदायत नहीं दी जा रही है. केंद्र सरकार का यह अभियान देश के निम्न वर्गीय, निम्न मध्यम वर्गीय ग्रामीण और गांव आधारित अशिक्षित, अर्ध-शिक्षित कस्बाई आबादी को टार्गेट कर रहा है. जिला स्वास्थ्य केंद्रों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में कौन महिलाएं जाती हैं और वे किस वर्ग से आती हैं, इसके बारे में सबको पता है. स्वास्थ्य केंद्रों को अधिकाधिक इंजेक्शन लगाने का लक्ष्य दिया गया है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर कोई डॉक्टर ही उपलब्ध नहीं रहता जो इंजेक्शन देने के पहले सम्बन्धित महिला का हारमोनल-असेसमेंट करे और उसे डीएमपीए इंजेक्शन के खतरों के प्रति आगाह करे. इंजेक्शन देने के पहले सम्बद्ध महिला से सहमति लेने की औपचारिकता केवल कागज पर पूरी की जा रही है. जिस वर्ग से महिलाएं आती हैं, उनकी जागरूकता का स्तर उन्हें इस काबिल नहीं बनाता कि वे लगने वाले इंजेक्शन के खतरों और जोखिम के बारे में कुछ जान पाएं. बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन दवा बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘फाइज़र’ और चिल्ड्रेन्स इन्वेस्टमेंट फंड फाउंडेशन के साथ मिल कर कई गरीब देशों में डीएमपीए को ही ‘सायाना-प्रेस’ नाम से बेच रहा है. डीएमपीए इंजेक्शन सिरिंज के जरिए दिया जाता है जबकि ‘सायाना-प्रेस’ के पाउच में सुई लगी होती है. सुई को शरीर में चुभोकर पाउच का सिरा दबा देने से दवा शरीर के अंदर इंजेक्ट हो जाती है. स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्र बताते हैं कि भारत में भी ‘सायाना-प्रेस’ को किसी दूसरे नाम से सीधे महिलाओं को देने की तैयारी चल रही है.

5. आंकड़ों का ‘फ्रॉड’ कर स्वास्थ्य मंत्रालय ने 145 जिलों में पहुंचाया डीएमपीए जहर
6. स्वास्थ्य केंद्रों को दिया गया टार्गेट, अधिक से अधिक महिलाओं को दें डिम्पा इंजेक्शन
मिशन परिवार विकास लॉन्च करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने दावा किया था कि इस अभियान के जरिए वर्ष 2025 तक टोटल फर्टिलिटी रेट को 2.1 पर ले आया जाएगा. जबकि सच्चाई यह है कि देश का टोटल फर्टिलिटी रेट 1015-16 के सर्वेक्षण में ही 2.1 दर्ज किया जा चुका है. स्पष्ट है कि आधिकारिक आंकड़ों के फर्जीवाड़े में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा की सीधी मिलीभगत है. आंकड़ों का फर्जीवाड़ा करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण का वर्ष 2010-11 का पुराना डाटा उठा लिया और नेशनल टोटल फर्टिलिटी रेट 3.8 दिखा कर अधिक से अधिक जिलों को अपनी चपेट में लेने का कुचक्र रचा. केंद्रीय सत्ता के इस नियोजित ‘फ्रॉड’ में यूपी का फर्टिलिटी रेट 5 दिखाया गया और इस आधार पर यूपी के 57 जिलों में धंधा फैला लिया गया. राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) का ताजा आंकड़ा 2015-16 का है, जो यह बताता है कि देश का टोटल फर्टिलिटी रेट घट कर 2.1 पर आ चुका है. ताजा आंकड़े के मुताबिक उत्तर प्रदेश का फर्टिलिटी रेट 2.7 पर आ चुका है.

7. ‘मिशन परिवार विनाश’ साबित हो रहा है भारत सरकार का ‘मिशन परिवार विकास’
‘मिशन परिवार विकास’ विनाशकारी इसलिए भी है क्योंकि जिन प्राइवेट अस्पतालों और नर्सिंग होमों में सम्पन्न और धनाढ्य लोग इलाज कराने जाते हैं, वहां के डॉक्टर कुलीन महिलाओं को डीएमपीए इंजेक्शन प्रेसक्राइब नहीं करते. ‘चौथी दुनिया’ ने कई प्राइवेट अस्पतालों में तहकीकात की और प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले कई डॉक्टरों ने भी पूछताछ में कहा कि वे डीएमपीए इंजेक्शन प्रेसक्राइब नहीं करते. अधिकांश डॉक्टरों ने कहा कि महिलाएं गर्भधारण न करें इसके लिए वे पतियों को सलाह देते हैं और महिलाओं को बस गर्भनिरोधक गोली लेने की सलाह देते हैं. डॉक्टरों ने कहा कि डीएमपीए के साइड-इफेक्ट इतने ज्यादा हैं कि उसे संभाल पाना मुश्किल है, इससे क्लिनिक या अस्पताल की साख खराब होगी और व्यवसाय चौपट हो जाएगा. डीएमपीए इंजेक्शन को मंजूरी देने के खिलाफ कई सामाजिक संगठनों ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री को पत्र लिख कर उन्हें ऐसा करने से मना किया था. लेकिन उनकी एक नहीं सुनी गई. स्वास्थ्य मंत्रालय की योजना देश के निम्न और मझोले परिवारों के लिए विनाशकारी साबित हो रही है.

सरकार से उसकी पाशविकता के बारे में पूछा जाएगा कि नहीं..!
अंग्रेजी का एक सूत्र-वाक्य है, ‘where ignorance is bliss, it is folly to be wise.’ यानि, जहां अज्ञानता परमानंद हो, वहां ज्ञान ही मूर्खत्व है. मीडिया सार्वजनिक मंच है, हम जो बोलते हैं, लिखते हैं या प्रतिक्रिया देते हैं, उसकी व्यापक श्रवणीयता और पठनीयता है. बिना सोचे-समझे, बिना किसी सामाजिक-मानवीय सरोकार के, बिना कुछ जानकारी हासिल किए, बगैर कुछ पढ़े-लिखे हम किसी भी गंभीर मुद्दे पर प्रतिक्रिया देते हैं तो हम यह नहीं समझते कि हमारे ही व्यक्तित्व का हास्य-पतंग सामाजिक आकाश पर उड़ता है और यह चारों तरफ स्थापित करता है कि हमारी अज्ञानता ही हमारा परमानंद है. इस ‘परमानंद के भाव’ के प्रति हमें सतर्क रहना चाहिए.
अभी का प्रसंग वह खबर है जो ‘चौथी दुनिया’ में प्रकाशित हुई और जिसे सोशल मीडिया का भी हिस्सा बनाया गया, ताकि वह और व्यापक दायरे में फैले और समाज में बृहत्तर सकारात्मक बहस का मार्ग प्रशस्त कर सके. ‘चौथी दुनिया’ में प्रकाशित खबर अत्यंत संवेदनशील है. इस खबर पर पिछले पांच महीने से काम चल रहा था, जब ‘मिशन परिवार विकास’ शुरू करने की घोषणा हुई थी. स्वास्थ्य विभाग के एक आला अधिकारी ने तब ही कहा था कि केंद्र ने जिस ‘नेशनल फर्टिलिटी रेट’ के आधार पर देश के 145 जिलों में यह मिशन शुरू किया है, वह आंकड़ा 2010-11 का है. यानि, केंद्र सरकार ने 2015-16 का ‘नेशनल फर्टिलिटी रेट’ छुपा लिया और पिछला वाला अधिक फर्टिलिटी रेट बता कर अधिक जिलों को इस योजना के दायरे में ले लिया. आखिर केंद्र सरकार ने झूठ का सहारा क्यों लिया? क्या बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन से टेबुल के नीचे से मिलने वाले दो-तीन सौ करोड़ रुपए के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री झूठ परोसेंगे? यह सच है कि दुनिया के स्वास्थ्य-अर्थ (हेल्थ-इकोनॉमी) पर बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन का एकाधिपत्य है. लेकिन इस योजना के पीछे क्या केवल अर्थ (पैसा) है? या इसके पीछे कोई अनर्थ छुपा है? इन सवालों की छानबीन करने के क्रम में डीएमपीए पर ध्यान गया, जिसे ‘अंतरा’ के नाम से महिलाओं में इंजेक्ट किया जा रहा है. दवा के गुणधर्म को लेकर जांच-पड़ताल हुई और जो परिणाम सामने आया, उसने हिला कर रख दिया. फिर ‘डीएमपीए’ को लेकर दुनिया के कई महत्वपूर्ण मेडिकल जर्नल्स से लेकर चिकित्सकों, वैज्ञानिकों और मेडिको-लीगल एक्सपर्ट्स के मंतव्य और संदर्भ पढ़े गए. विशेषज्ञों से विस्तार से बात की गई. और तब यह लगा कि केंद्र सरकार की इस योजना के पीछे केवल धन की लोलुपता नहीं, बल्कि इसके पीछे कुछ और ही खतरनाक इरादा है. वह इरादा क्या हो सकता है, इसी पर तो समाज में बहस होनी चाहिए और लोकतांत्रिक दायित्वों के तहत सरकार से जवाब मांगा जाना चाहिए.
जो दवा खूंखार यौन अपराधियों को सजा के बतौर दी जाती है उसे अशिक्षित, अर्ध-शिक्षित महिलाओं में इंजेक्ट किया जा रहा है, महज इसलिए कि जनसंख्या कम हो सके? यह कैसी जघन्य बात है? और ऐसी जघन्य हरकतों पर इसी देश का कोई नागरिक यह बोले कि देश की विशाल जनसंख्या कम करने के लिए यह जरूरी है, या मीडिया सत्ता-सुर में रेंके... तो आप सोचेंगे न कि हम कैसे देशवासी हैं..! इस खबर को समाचार चैनल ‘न्यूज-24’ ने कह दिया कि फर्जी है तो दूसरी तरफ एक वरिष्ठ डॉक्टर ने बढ़ती जनसंख्या का हवाला देते हुए इसे जरूरी बता दिया. फिर अपनी बात सुधारते हुए कहा कि हर दवा के थोड़े साईड इफेक्ट तो होते हैं. कुछ लोगों ने इसे मुस्लिम-प्रेरित बताने का भी धर्म निभाया.
इन बेमानी बहसों में उलझने के बजाय सरकार की पाशविकता पर बहस होनी चाहिए थी. यह प्रामाणिक तथ्य है कि डीएमपीए का इंजेक्शन लेने वाली महिला अगर दो साल बाद मां बनना चाहे तो उसके गर्भधारण में तमाम बाधाएं आएंगी. डीएमपीए की तासीर है कि वह हड्डियां गलाएगी, शारीरिक विन्यास को विद्रूप करेगी, रासायनिक स्राव से कोख गंदा करेगी, मासिकधर्म को बाधित करेगी, स्तन कैंसर से लेकर रीढ़ की हड्डी में कैंसर का रोग बढ़ाएगी, महिला की देह को खतरनाक यौन-रोगों के संक्रमण का उपकरण बना देगी और ऐसी जर्जर महिलाओं से जो नस्ल पैदा होगी, वह विकलांग, मानसिक रूप से अर्ध विकसित और पंगु निकलेगी. बहस इस बात पर होनी चाहिए या इस बात पर कि जनसंख्या रोकने के लिए यह जरूरी कदम है? देश के जिन 145 जिलों को इसके लिए टार्गेट बनाया गया है, वहां का सामाजिक ढांचा देखेंगे तो आपको रोना आएगा. कोई शिक्षा नहीं, कोई जागरूकता नहीं, इन्हें क्या पता कि डीएमपीए का जहर उनकी नस्ल का नाश करने वाला है! ऐसी दवाओं के इस्तेमाल के लिए ऐसे ही पिछड़े इलाकों को क्यों चुना जाता है जहां जागरूकता का लेशमात्र भी प्रवेश नहीं! उन भोले-भाले ग्रामीणों को क्या पता कि जो दवा उनके परिवार की महिलाओं को इंजेक्ट किया जा रहा है, उस दवा का इस्तेमाल यौन अपराधियों की यौन-क्षमता नष्ट करने के लिए किया जाता है! तो क्या केंद्र सरकार से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि देश की महिलाओं की यौन क्षमता क्यों नष्ट की जा रही है? या कि अंधभक्तों की जमात में शामिल होकर हम लोकतंत्र को अपने ही पैरों तले कुचल दें..! क्या सरकार को यह बताना हमारी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी नहीं कि बढ़ती जनसंख्या को काबू में करने के और भी तरीके हैं, मानवीय से लेकर प्रशासनिक तक..! जनसंख्या को नौकरी से लेकर सुविधाओं तक जोड़ें, लोगों को दिमागी तौर पर यह समझाएं कि आबादी बढ़ाना अपना ही नुकसान है! ऐसा नहीं करके क्या जनसंख्या कम करने के लिए सरकार नरसंहार करेगी..? यह डीएमपीए का इंजेक्शन रसायनिक-नरसंहार नहीं है तो क्या है? सरकार से यह पूछा जाना चाहिए कि नहीं..?

Tuesday 2 January 2018

मोदी सरकार का खतरनाक नसबंदी अभियान

प्रभात रंजन दीन
जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए केंद्र सरकार देश की मांओं को बांझ बनाने की दवा चुभो रही है. राष्ट्रधर्मी मोदी सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के साथ मिल कर महिलाओं में वह जहर इंजेक्ट कर रहा है जो खूंखार यौन अपराधियों को ‘केमिकल कैस्ट्रेशन’ की सजा के तहत ठोका जाता है. बलात्कारियों और यौन अपराधियों की यौन-ग्रंथी नष्ट करने के लिए दी जाने वाली दवा ‘मिशन परिवार विकास’ के नाम पर महिलाओं में अनिवार्य रूप से इंजेक्ट की जा रही है, ताकि देश की जनसंख्या कम की जा सके. यह ‘मिशन परिवार विनाश’ अभियान है जो विदेशी कुचक्र और धन के कंधे पर चढ़ कर भारत के सात राज्यों के 145 जिलों में दाखिल हो चुका है. इनमें उत्तर प्रदेश के 57 जिले शामिल हैं. मोदी सरकार के ‘मिशन परिवार विनाश’ कार्यक्रम के लिए भाजपा शासित सात राज्य चुने गए हैं, जिससे धन और षडयंत्र का खेल निर्बाध रूप से खेला जा सके. उत्तर प्रदेश समेत बिहार, झारखंड, असम, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के 145 जिलों के जिला अस्पतालों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के जरिए महिलाओं को ‘डिपो मेडरॉक्सी प्रोजेस्टेरोन एक्सीटेट’ (डीएमपीए) इंजेक्शन अनिवार्य रूप से दिया जा रहा है. यही दवा कई देशों में खूंखार यौन अपराधियों की यौन-ग्रंथी नष्ट करने के लिए सजा के बतौर इंजेक्ट की जाती है.
अधिक जनसंख्या वाले सात भाजपा शासित राज्यों के अधिक से अधिक जिलों में ‘मिशन परिवार विनाश’ का धंधा फैलाने के लिए जेपी नड्डा के नेतृत्व वाले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने आधिकारिक आंकड़ों का सुनियोजित ‘फ्रॉड’ किया. आंकड़ों का फर्जीवाड़ा करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण का वर्ष 2010-11 का पुराना डाटा उठा लिया और नेशनल टोटल फर्टिलिटी रेट 3.8 दिखा कर अधिक से अधिक जिलों को अपनी चपेट में लेने का कुचक्र रचा. केंद्रीय सत्ता के इस नियोजित ‘फ्रॉड’ में यूपी का फर्टिलिटी रेट 5 दिखाया गया और इस आधार पर यूपी के 57 जिलों में धंधा फैला लिया गया. राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) का ताजा आंकड़ा 2015-16 का है, जो यह बताता है कि देश का टोटल फर्टिलिटी रेट घट कर 2.1 पर आ चुका है. ताजा आंकड़े के मुताबिक उत्तर प्रदेश का फर्टिलिटी रेट 2.7 पर आ गया है. अगर स्वास्थ्य मंत्रालय इस अद्यतन (करेंट) आंकड़े को आधार बनाता तो इंजेक्शन का कुचक्र बहुत कम जिलों में फैल पाता. लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय ने जानबूझ कर पुराने आंकड़े (एनएफएचएस-3) को आधार बनाया और अधिकाधिक जिलों का चयन कर लिया. ताजा आंकड़ों के आधार पर मिशन परिवार विकास का दायरा कम जिलों में ही केंद्रित होता, लेकिन अधिक स्थानों पर घुसने के लिए सरकार और गेट्स फाउंडेशन ने बढ़ा हुआ टीएफआर दिखा कर देशभर के 145 जिलों और यूपी के 57 जिलों में घुसपैठ बना ली. सुनियोजित फर्जीवाड़े की जमीन तैयार कर मांओं में जहर निरूपित करने और देश को बांझ बनाने का धंधा चल रहा है. यौन अपराधियों को सजा के बतौर दिया जाने वाला इंजेक्शन डीएमपीए सात राज्यों के 145 जिला अस्पतालों तक पहुंच चुका है और बड़ी तेजी से सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचने वाला है. अभी थोड़ा समय बचा है, जनता चाहे तो इसे समय रहते रोक सकती है. जिला, सामुदायिक और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और मददगार विभागों और संस्थाओं को बाकायदा यह टार्गेट दिया गया है कि वे अधिकाधिक संख्या में महिलाओं में डीएमपीए दवा इंजेक्ट करें.
‘अंतरा’ के नाम से दिया जाने वाला इंजेक्शन ‘डिपो मेडरॉक्सी प्रोजेस्टेरोन एक्सीटेट’ (डीएमपीए) महिलाओं को भीषण रोग की सुरंग में धकेल रहा है. इस दवा के इस्तेमाल के कुछ ही दिनों बाद महिलाएं फिर मां बनने लायक नहीं रह जातीं. अगर बनती भी हैं तो बच्चे इतने कमजोर होते हैं कि शीघ्र मौत का शिकार हो जाते हैं, जो बच जाते हैं वे विकलांग और पंगु होकर रह जाते हैं. विश्व के कई देशों में खतरनाक यौन अपराधियों की यौन ग्रंथि को रासायनिक विधि से नष्ट करने (केमिकल कैस्ट्रेशन) के लिए डेपो-प्रोवेरा (डीएमपीए) इंजेक्शन का इस्तेमाल किया जाता रहा है. फार्माकोलॉजी विशेषज्ञों का कहना है कि डीएमपीए के इस्तेमाल से स्थायी तौर पर शारीरिक परिवर्तन हो जाता है और हड्डियां गलने लगती हैं. पुरुषों में इसका इस्तेमाल करने से उन्हें हृदयाघात और ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा रहता है. पुरुषों की छाती महिलाओं की तरह फूलने लगती है. इसका इस्तेमाल करने वाली महिलाओं का शारीरिक विन्यास विद्रूप हो जाता है, हड्डी के घनत्व (बोन-मास) में गलन और संकुचन होने लगता है, होठ का रंग बदलने लगता है, बाल झड़ने लगते हैं और मांसपेशियों का घनत्व भी गलने लगता है. डीएमपीए इंजेक्शन ऑस्टियोपोरोसिस और स्तन कैंसर होने में योगदान देता है और इसके इस्तेमाल से कालांतर में गर्भधारण करना मुश्किल हो जाता है. यह एचआईवी के संक्रमण का आसान मददगार बन जाता है. चिकित्सा विशेषज्ञ कहते हैं कि डीएमपीए के मामले में स्थिति अत्यंत जटिल है. विडंबना है कि देश की मांओं में डीएमपीए दवा इंजेक्ट करने के लिए सरकार प्रायोजित ‘फ्रॉड’ तो हुआ, लेकिन इस खतरनाक दवा के कारण महिलाओं में होने वाले ऑस्टियोपोरोसिस और स्तन कैंसर जैसे तमाम जानलेवा रोगों को लेकर कोई सरकार प्रायोजित शोध नहीं हुआ. डीएमपीए इंजेक्शन का इस्तेमाल करने के एक वर्ष के अंदर 55 प्रतिशत महिलाओं के मासिक धर्म में अप्रत्याशित बदलाव देखा गया है और दो वर्ष के अंदर इस अप्रत्याशित घातक बदलाव ने 68 प्रतिशत महिलाओं को अपने घेरे में ले लिया. इसका इस्तेमाल करने वाली महिलाओं में एचआईवी और यौन संक्रमण (क्लैमाइडिया इन्फेक्शन) का खतरा अत्यधिक बढ़ जाता है. डीएमपीए इंजेक्शन का इस्तेमाल करने वाली महिलाएं बाद में जब गर्भधारण करना चाहती हैं तब पैदा होने वाला उनका बच्चा अत्यंत कम वजन का होता है और अधिकतर मामलों में ऐसे बच्चों की साल भर के अंदर मौत हो जाती है. दवा का इस्तेमाल करने वाली महिलाओं के कालांतर में गर्भधारण करने के बाद होने वाले बच्चों के यौन संक्रमित होने का खतरा अत्यधिक रहता है. इसका इस्तेमाल करने वाली महिलाओं के मस्तिष्क तंत्र पर भी बुरा असर पड़ता है. इस दवा से ब्रेस्ट कैंसर के अलावा सर्वाइकल (रीढ़ की हड्डी) का कैंसर होने का भी बड़ा खतरा रहता है. वर्ष 2006 का एक अध्ययन बताता है कि दवा के दो साल के प्रयोग से ऑस्टियोपोरोसिस होने की संभावना प्रबल हो जाती है. वर्ष 2012 के एक अध्ययन में यह पता चला कि 12 महीने या उससे अधिक समय तक डीएमपीए के उपयोग से आक्रामक स्तन कैंसर होने के कई केस सामने आए. डीएमपीए इंजेक्ट करने के पहले सम्बन्धित महिला को आगाह (कॉशन) करना जरूरी होता है. साथ ही डॉक्टर का यह दायित्व भी होता है कि वह इंजेक्शन लेने वाली महिला को डीएमपीए से होने वाले नुकसान के बारे में पहले ही बता दे. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. ‘अंतरा’ के पैकेट्स पर भी हिदायत या जोखिम की चर्चा नहीं है, यहां तक कि दवा निर्माता कंपनी का नाम भी दर्ज नहीं है. सामान्य तौर पर बच्चों को दिए जाने वाले टीके में भी चार हिदायतों के साथ टीका लगाया जाता है, लेकिन डिम्पा इंजेक्शन लगाने के पहले कोई हिदायत नहीं दी जा रही है. दिहाड़ी मजदूर मुकेशचंद्र की पत्नी का नाम महज एक उदाहरण के बतौर पेश किया जा रहा है, जिसे डिम्पा इंजेक्शन लगाया गया और उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. इंजेक्शन के पहले मुकेश की पत्नी पूरी तरह से स्वस्थ थी, लेकिन कुछ ही दिनों बाद हालत उनकी बिगड़ने लगी. 20 दिन में ही इतना रक्तस्राव हुआ कि एक निजी अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. डिम्पा इंजेक्शन लगाने वालों का कुछ पता नहीं चला. महिला की हालत गंभीर हुई तो महिला के पहले से ही बीमार होने का तोहमत मढ़ दिया गया. मुकेश की पत्नी की तरह के दर्जनों उदाहरण सामने आ चुके हैं, जो इंजेक्शन का नतीजा अपने शरीर और अपनी सीमित आर्थिक क्षमता पर भुगत रहे हैं. डीएमपीए इंजेक्शन महिलाओं को रोगग्रस्त कर भावी नस्लों को खराब करने की साजिश साबित हो रहा है.
केंद्र सरकार का यह अभियान देश के निम्न वर्गीय, निम्न मध्यम वर्गीय ग्रामीण और गांव आधारित अशिक्षित, अर्ध-शिक्षित कस्बाई आबादी को टार्गेट कर रहा है. जिला स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के जरिए ‘अंतरा’ के नाम से डीएमपीए दवा का इंजेक्शन महिलाओं में ठोका जा रहा है. जिला स्वास्थ्य केंद्रों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक कौन सी महिलाएं जाती हैं और वे किस वर्ग से आती हैं, इसके बारे में सबको पता है. स्वास्थ्य केंद्रों को अधिकाधिक इंजेक्शन लगाने का लक्ष्य दिया गया है. इन स्वास्थ्य केंद्रों पर तैनात डॉक्टरों को यह भी नहीं कहा गया है कि इंजेक्शन देने के पहले वे सम्बन्धित महिला का हारमोनल-असेसमेंट करें उसे डीएमपीए इंजेक्शन के खतरों के प्रति आगाह करें. इंजेक्शन के स्टरलाइजेशन और उसके रख-रखाव को लेकर कोई हिदायत नहीं है. यहां तक कि महिलाओं को खुद ही इंजेक्शन ले लेने की सलाह दी जा रही है. इंजेक्शन देने के पहले सम्बद्ध महिला से सहमति लेने की औपचारिकता केवल कागज पर पूरी की जा रही है. महिलाओं से बिना पूछे धड़ल्ले से इंजेक्शन ठोका जा रहा है. जिस वर्ग से महिलाएं आती हैं, उनकी जागरूकता का स्तर उन्हें इस काबिल ही नहीं बनाता कि वे लगने वाले इंजेक्शन के खतरों और जोखिम के बारे में कुछ जान पाएं. बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन दवा बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘फाइज़र’ और चिल्ड्रेन्स इन्वेस्टमेंट फंड फाउंडेशन के साथ मिल कर कई गरीब देशों में डीएमपीए को ही ‘सायाना-प्रेस’ नाम से बेच रहा है. डीएमपीए इंजेक्शन सिरिंज के जरिए दिया जाता है जबकि ‘सायाना-प्रेस’ के पाउच में सुई लगी होती है. सुई को शरीर में चुभोकर पाउच का सिरा दबा देने से दवा शरीर के अंदर इंजेक्ट हो जाती है. स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्र बताते हैं कि भारत में भी ‘सायाना-प्रेस’ को सीधे महिलाओं को देने की तैयारी चल रही है. 
डीएमपीए का इस्तेमाल 1993-94 में कुछ खास प्राइवेट सेक्टर में हो रहा था. कई सामाजिक संस्थाएं इस इंजेक्शन के इस्तेमाल पर बैन लगाने की सुप्रीमकोर्ट से मांग कर रही थीं. 1995 में ड्रग्स टेक्निकल एडवाइज़री बोर्ड (डीटीएबी) और सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑरगेनाइजेशन ने खास तौर पर राष्ट्रीय परिवार नियोजन अभियान में डीएमपीए के इस्तेमाल को प्रतिबंधित कर दिया था. बोर्ड ने कहा था कि विशेष स्थिति में यह इंजेक्शन उसी महिला को लगाया जाएगा, जो इसके खतरों और जोखिम के बारे में जानकारी के साथ बाकायदा सूचित रहेंगी. वर्ष 2001 में कई दवाएं प्रतिबंधित हुई, लेकिन डीएमपीए को प्रमोट करने वाली लॉबी इतनी सशक्त थी कि वह बैन नहीं हुई, बस उसे प्राइवेट सेक्टर में सीमित इस्तेमाल की मंजूरी मिली, इस हिदायत के साथ कि इंजेक्शन का इस्तेमाल उन्हीं महिलाओं पर किया जाएगा जिनकी पहले काउंसलिंग होगी और उन्हें खतरों के बारे में आगाह कर उनकी औपचारिक सहमति ली जाएगी.
डीएमपीए इंजेक्शन के इस्तेमाल को लेकर हो रही कानूनी और व्यापारिक खींचतान में बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के कूद पड़ने से डीएमपीए लॉबी मजबूत हो गई. फाउंडेशन ने पहले तो वर्ष 2012 में ब्रिटिश सरकार को साधा और फिर विश्व के विकासशील और गरीब देशों में जनसंख्या नियंत्रण में सहयोग देने के बहाने अपना रास्ता साफ कर लिया. फाउंडेशन ने मोदी सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को साधा और स्वास्थ्य मंत्रालय ने ‘सधते’ हुए परिवार कल्याण विभाग के जरिए ड्रग्स टेक्निकल एडवाइज़री बोर्ड (डीटीएबी) के पास प्रस्ताव भिजवाया कि डीएमपीए इंजेक्शन के इस्तेमाल पर लगी पाबंदी हटाई जाए. डीटीएबी ने उस समय इस प्रस्ताव को टाल दिया और कहा कि इंजेक्शन का कुप्रभाव और गहरा गया है. इसका इस्तेमाल करने वाली महिलाओं पर ओस्टिपोयोरोटिक-कुप्रभाव भीषण पड़ रहा है. लिहाजा, डीटीएबी ने परिवार कल्याण विभाग को यह सलाह दी कि डीएमपीए इंजेक्शन के इस्तेमाल के बारे में देश के नामी स्त्री रोग विशेषज्ञों (गायनाकोलॉजिस्ट) से राय ली जाए और इसकी गहन पड़ताल कराई जाए. डीटीएबी ने अमेरिका के फूड और ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा डीएमपीए को ‘ब्लैक-बॉक्स’ में रखे जाने का हवाला भी दिया. लेकिन लोकतांत्रिक मोदी सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया, उल्टा चारों तरफ से दबाव बढ़ा दिया गया और सम्बद्ध महकमों पर सरकार का घेरा कस गया. मंत्रालय के निर्देश पर परिवार कल्याण विभाग ने 24 जुलाई 2015 को विशेषज्ञों का सम्मेलन बुलाया और इस मसले पर विशेषज्ञों से सलाह-सुझाव लेने का प्रायोजित-प्रहसन खेला. इस सम्मेलन में उन संस्थाओं, विशेषज्ञों और समाजसेवियों को बुलाया ही नहीं गया, जो डीएमपीए जैसी खतरनाक दवा के इस्तेमाल पर लगातार विरोध दर्ज कराते रहे और कानूनी लड़ते रहे हैं. एक हजार से अधिक संगठनों की साझा संस्था जन स्वास्थ्य अभियान, सहेली, सामा जैसी तमाम संस्थाओं को इस सम्मेलन में प्रवेश नहीं करने दिया गया. इस सम्मेलन ने यह तय भी कर लिया कि प्राइवेट सेक्टर में डीएमपीए इंजेक्शन का इस्तेमाल पहले से हो रहा है, इसलिए इसकी अलग से जांच कराने की कोई जरूरत नहीं है और अब इसे सार्वजनिक क्षेत्र में भी आजमाना चाहिए. दिलचस्प मोड़ यह आया कि अब तक विरोध दर्ज करते आ रहे ड्रग्स टेक्निकल एडवाइज़री बोर्ड ने सामुदायिक स्वास्थ्य प्रणाली (पब्लिक हेल्थ सिस्टम) में डीएमपीए इंजेक्शन का इस्तेमाल किए जाने की 18 अगस्त 2015 को मंजूरी दे दी. इस तरह मोदी सरकार ने देश की मांओं को बांझ बनाने वाली और भावी नस्ल को पंगु और विकलांग पैदा करने वाली दवा के अराजक इस्तेमाल की भूमिका मजबूत कर दी. डीएमपीए जैसी खतरनाक दवा के इस्तेमाल का विरोध करने वाले लोगों का मुंह बंद करा दिया गया और मीडिया के मुंह पर ‘ढक्कन’ पहना दिया गया, ताकि कोई शोर न मचे, कोई वितंडा न खड़ा हो.
मोदी सरकार के ताकतवर और हठी स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने जुलाई 2017 में ‘मिशन परिवार विकास’ के नाम पर ‘मिशन परिवार विनाश’ अभियान की शुरुआत कर दी. नड्डा ने खुलेआम कहा कि इसके जरिए वे 2025 तक देश की जनसंख्या को काबू में ले आएंगे. कैसे काबू में लाएंगे, अब तक तो आप इसे समझ ही चुके होंगे. नड्डा ने यह भी दावा किया था कि इस परियोजना की पहल उन्होंने ही की है. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के सचिव सीके मिश्रा ने इस परियोजना के पक्ष में लंदन से अपना संदेश दिया. इस पर बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की सह अध्यक्ष मेलिंडा गेट्स ने कहा कि बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए यह काम किया जा रहा है. मिशन परिवार विकास लॉन्च करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने दावा किया कि इस अभियान के जरिए वर्ष 2025 तक टोटल फर्टिलिटी रेट को 2.1 पर ले आया जाएगा. जबकि सच्चाई यह है कि देश का टोटल फर्टिलिटी रेट 1015-16 के सर्वेक्षण में ही 2.1 दर्ज किया जा चुका है. स्पष्ट है कि आधिकारिक आंकड़ों के फर्जीवाड़े में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा की सीधी मिलीभगत है. बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के फंड पर चलने वाले इस अभियान की मॉनिटरिंग गेट्स फाउंडेशन का इंडिया हेल्थ एक्शन ट्रस्ट कर रहा है. इस सिलसिले में बिल गेट्स और उनकी पत्नी मेलिंडा गेट्स केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व अन्य सम्बद्ध राज्यों के मुख्यमंत्रियों से लगातार सम्पर्क में हैं. उनकी सौहार्द मुलाकातें भी लगातार हो रही हैं. मिशन की फंडिंग का ब्यौरा क्या है, मिशन के ऑपरेशन का खर्च कहां से आ रहा है, दवा कहां से आ रही है, इसकी कीमत क्या है, इस पर रहस्य बना कर रखा जा रहा है, कोई पारदर्शिता नहीं है. बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के आगे-पीछे सरकारें नाच रही हैं. फाउंडेशन के आगे विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था भी नतमस्तक रहती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन को फाउंडेशन ने 40 अरब डॉलर का फंड दे रखा है. इसके अलावा बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑरगेनाइजेशन) को हर साल तीन अरब डॉलर देता है, जो संगठन के सालाना बजट का 10 प्रतिशत होता है. पूरी दुनिया के स्वास्थ्य-अर्थशास्त्र पर बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन और उसके ‘सिंडिकेट’ का बोलबाला है, फिर मोदी सरकार, योगी सरकार, नीतीश सरकार, रघुबर सरकार, सिंधिया सरकार, रमन सरकार, शिवराज सरकार और सोनोवाल सरकार क्या बला है..!

जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर किया जा रहा है महिलाओं का केमिकल-कैस्ट्रेशन
भारत में निर्भया कांड के बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने यौन अपराधियों को केमिकल कैस्ट्रेशन की सजा देने की तैयारी की थी, लेकिन फिर यह ठंडे बस्ते में चला गया. कांग्रेस ने यह प्रस्ताव न्यायमूर्ति जेएस वर्मा आयोग को सौंपने का फैसला किया था, लेकिन बाद में इसे हटा लिया. जब कांग्रेस ने वर्मा आयोग को अपने सुझाव सौंपे तब उसमें केमिकल कैस्ट्रेशन का प्रस्ताव शामिल नहीं था. कांग्रेस सरकार ने बलात्कारियों को 30 साल तक की सजा देने, फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने और आयु सीमा घटाकर जुवेनाइल एक्ट को नए सिरे पारिभाषित करने की सिफारिश की थी. कांग्रेस की वरिष्ठ नेता और तत्कालीन मंत्री रेणुका चौधरी ने बलात्कारियों को केमिकल कैस्ट्रेशन की सजा देने की मांग की थी. बलात्कारियों को केमिकल कैस्ट्रेशन की सजा देने के कांग्रेसी विचार को भाजपा सरकार ने ठीक विपरीत तरीके से देश में लागू कर दिया. भाजपा सरकार जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर देश की महिलाओं का केमिकल कैस्ट्रेशन करा रही है.

भाजपा सरकार का सोचा-समझा अमानुषिक कृत्य और सोची-समझी चुप्पी
संसार के कई देशों में खूंखार यौन अपराधियों को भी केमिकल कैस्ट्रेशन की सजा देने का विरोध हो रहा है, लेकिन भारत सरकार केमिकल कैस्ट्रेशन में इस्तेमाल आने वाली दवा भारतवर्ष की आम महिलाओं में धड़ल्ले से इंजेक्ट करने का अमानुषिक कृत्य कर रही है. इस घनघोर सामाजिक अपराध के खिलाफ पूरा देश चुप्पी साधे है. न सामाजिक संगठन सड़क पर आ रहे हैं और न बुद्धिजीवी और मानवाधिकारकर्मी. धुआं और सड़क जाम पर इजलास सजा कर बैठ जाने वाली अदालतें भी इतने गंभीर मामले में चुप हैं. आप भी यह जानकारी हासिल करते चलें कि वर्ष 1966 में ही अमेरिका में एक कुख्यात यौन अपराधी पर मेड्रॉक्सी प्रोजेस्टेरोन एक्सीटेट दवा का केमिकल कैस्ट्रेशन के लिए इस्तेमाल किया गया था. इस दवा का आधार-तत्व (बेस इन्ग्रेडिएंट) वही है जो डीएमपीए में है, जिसे भारत की महिलाओं में ठोका जा रहा है. इस दवा के इस्तेमाल का विरोध करते हुए अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने इसे खारिज कर दिया था. कैलिफोर्निया पेनल कोड (धारा 365) केवल बाल-यौन अपराधियों को डीएमपीए के जरिए केमिकल कैस्ट्रेशन की इजाजत देता है. फ्लोरिडा में बाल-यौन अपराध दोहराने वाले अपराधी के लिए इस सजा का प्रावधान है. जॉर्जिया, लूसियाना, मोंटाना, टेक्सस और विसकॉन्सिन में भी यौन अपराध दोहराने वाले अपराधी को डीएमपीए के जरिए केमिकल कैस्ट्रेशन की सजा देने का कानूनी प्रावधान है. अमेरिकन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन शरीर पर नकारात्मक और घातक असर डालने वाली डीएमपीए दवा का यौन-अपराधियों पर भी इस्तेमाल किए जाने का विरोध कर रहा है. अमेरिका के अलावा इंगलैंड, जर्मनी और इजरायल जैसे देशों में भी जीर्ण (क्रॉनिक) यौन-अपराधियों को केमिकल कैस्ट्रेशन की सजा देने का प्रावधान है. भारत सरकार ठीक इसका उल्टा कर रही है.

नियुक्ति देकर आईएएस अफसरों को खरीद लेता है गेट्स फाउंडेशन
वंश-नाश के इंजेक्शन अभियान को यूपी में मॉनिटर कर रहा है बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन का इंडिया हेल्थ एक्शन ट्रस्ट. विचित्र किंतु सत्य यह है कि गेट्स फाउंडेशन ने एक आईएएस अफसर को इंडिया हेल्थ एक्शन ट्रस्ट का प्रमुख बना रखा है. उत्तर प्रदेश कैडर के आईएएस अफसर विकास गोठवाल इंडिया हेल्थ एक्शन ट्रस्ट के प्रमुख हैं. सरकारी तंत्र में बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की गहरी पैठ का यह नायाब उदाहरण है. गेट्स फाउंडेशन से प्रभावित रहे तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने आईएएस अफसर विकास गोठवाल को बाकायदा छुट्टी देकर इंडिया हेल्थ एक्शन ट्रस्ट ज्वाइन करने की मंजूरी दी थी. गोठवाल का कार्यकाल वर्ष 14-15-16 के लिए था. फिर योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने और उन्होंने गेट्स फाउंडेशन के त्वरित-प्रभाव में गोठवाल को अगले तीन साल के लिए भी इंडिया हेल्थ एक्शन ट्रस्ट में बने रहने की मंजूरी दे दी. अब विकास गोठवाल इंडिया हेल्थ एक्शन ट्रस्ट के प्रमुख के पद पर 2020 तक बने रहेंगे. फिलहाल वे लंदन में रहकर शैक्षणिक-अवकाश का आनंद ले रहे हैं और वहीं से ट्रस्ट के यूपी-ऑपरेशंस को मॉनिटर भी कर रहे हैं. पूंजी संस्थाओं ने सत्ता के राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र दोनों को अपनी मुट्ठी में कर रखा है. शीर्ष सत्ता और उसके तंत्र तक धनपशु संस्था के आधिपत्य की ये कुछ अकाट्य बानगियां आप देख रहे हैं.