Wednesday 26 February 2014

मैंने चाहा था कि मस्जिद नहीं टूटे... तो क्या मैं गलत था?

खास बातचीत में मुलायम सिंह यादव बोले
प्रभात रंजन दीन
चुनाव का समय हो, राजनीतिक खींचतान गरम हो और सब तरफ समीकरणों पर ही बहस हो, ऐसे समय मुलायम सिंह यादव जैसा कद्दावर नेता राष्ट्र, राज्य, पीढिय़ां, संस्कार और भविष्य जैसे मसलों पर बातचीत करता हो, अपनी चिंता जताता हो, तो राजनीतिक शामियाने में सामाजिक सरोकार के सुगबुगाने की नायाब घटना घटती हुई दिखती है। मुलायम के लखनऊ स्थित आवास में सोमवार की दोपहर टीवी चैनल वालों और अखबार वालों का जमावड़ा लगा रहता है, सब अपने क्रम से अंदर जाते हैं, तय समय सीमा में विद्वत राजनीतिक प्रश्न-प्रतिप्रश्न और उत्तर-प्रतिउत्तर बटोर कर सब अपने-अपने दफ्तर की तरफ दौड़ते हैं...
अचानक सारे क्रम टूट जाते हैं। समय की सीमा 'सीलिंग' से बाहर चली जाती है। राजनीतिक प्रश्नों पर आधारित साक्षात्कार का अनुत्पादक बोझिल माहौल धीरे-धीरे छंटने लगता है। देश-समाज के प्रति उत्पादक चिंता मुलायम के उस कक्ष में अपनी जगह बना लेती है। इस बातचीत में न कहीं मोदी होते हैं और न वोट। घंटेभर से अधिक समय तक मुलायम बात करते हैं, कभी भावुक हो जाते हैं, कभी प्रसन्न, कभी तल्ख तो कभी फ्लैशबैक में खोने लगते हैं। मुलायम सिंह यादव से यह बातचीत लोकतांत्रिक भावनाओं के आत्मिक स्पर्श से भरा संग्रहणीय संस्मरण है। उसकी कुछ झलक आपके लिए भी...
मुलायम के कक्ष से अभी-अभी कुछ पत्रकार उनका इंटरव्यू करके बाहर निकले हैं। कक्ष में एसआरएस यादव नेताजी को किसी कार्यक्रम के बारे में समझा रहे हैं। नेताजी के बगल वाले सोफे पर टेलीफोन विराजमान है। दायीं तरफ पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ नेता किरणमय नंदा और बायीं तरफ रंजना वाजपेयी बैठी हैं। सामने कुछ और नेता बैठे हैं। नेताजी के बगल वाले सोफे से टेलीफोन उठा कर मैंने सामने वाले टेबुल पर रख दिया और साधिकार उनके बगल में जा बैठा। नेताजी मुस्कुराए, हाथ पर हाथ से छुआ और मेरे उस अधिकार-भाव को जैसे मान्यता दे दी। बात भी यहीं से शुरू हुई... यह आत्मिक छुअन का भाव नेताओं से क्यों गायब हो गया है? क्यों आप इन लोकतांत्रिक मूल्यों के आखिरी वाहक राजनेता साबित हो रहे हैं?
नेताजी अचानक दूसरी ही धारा में आ जाते हैं। कहते हैं, 'नेताओं में सहृदयता का बिल्कुल अभाव हो गया है। नेताओं में देशभक्ति की भावना कम हो रही है। यह घनघोर चिंता की बात है।' ऐसा कहते हुए मुलायम धारा में बहने लगते हैं। 'किसी को समाज की चिंता ही नहीं रही। पढ़ाई-लिखाई से भी राष्ट्रभक्ति, संस्कार, महापुरुष सब विलुप्त हो गए। मैं करहल में टीचर था। विधायक भी था तब भी बच्चों को पढ़ाता था। एक बार प्रिंसिपल ने औचक निरीक्षण किया। मुझसे पूछा कि विषय से अलग हट कर बच्चों को क्या पढ़ा रहे थे? मैंने कहा कि बच्चों को सम्पूर्ण शिक्षा की जरूरत है। ऐसी शिक्षा जो बच्चों को शिक्षित भी करे और संस्कारित भी करे। उसे सम्पूर्ण व्यक्तित्व से भरा नागरिक बनाए। तभी तो समाज समृद्ध हो सकेगा! प्रिंसिपल ने तब मुंह बनाया था। बाद में महाकवि दिनकर कॉलेज के एक समारोह में आए। दिनकर जी ने कहा बच्चों को सम्पूर्ण शिक्षा की जरूरत है, जो व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाए। तब जाकर मेरे प्रिंसिपल को एहसास हुआ कि मैं क्या कह रहा था उस दिन। शिक्षक वही है जो बच्चों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण के लिए चिंतित रहता हो।'
पूरा प्रदेश अखिलेश यादव को भी मुलायम होता हुआ देखना चाहता है। मुलायम की तरह का आदर्श और मुलायम की तरह का इंसान, जिसके व्यक्तित्व पर पद का भार या दंभ रत्तीभर भी न दिखता हो। ऐसे छोटे मुलायम के निर्माण के लिए एक शिक्षक मुलायम क्या करते हैं?
बातचीत में से ही निकल आए इस अत्यंत प्रासंगिक सवाल पर नेताजी मेरी तरफ गहरी नजर से देखते हैं, फिर उनकी नजरें शून्य में टिक जाती हैं, जैसे कहीं किसी पृष्ठभूमि से उत्तर निकाल रही हों। मुलायम कहना शुरू करते हैं, 'शिक्षण-प्रशिक्षण तो एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। चलती ही रहती है। एक पिता के नाते और पार्टी के अभिभावक के नेता मेरा दायित्व चलता रहता है। एक बेटे के नाते और एक मुख्यमंत्री के नाते अखिलेश अपने दायित्व पूरी करते रहते हैं, सीखते भी रहते हैं। पूर्ववर्ती शासनकाल की अराजकताओं और कुशासन के बीच संघर्षशील नेता के रूप में परिपक्व होते हुए भी मैंने अखिलेश को देखा है और सबको साथ लेकर चलने वाले लीडर को भी अखिलेश में शक्ल लेते हुए देखा है। यह शिक्षण-प्रशिक्षण की निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया का ही तो प्रतिफल है! इन्हीं समेकित-सामूहिक संस्कारों का ही तो नतीजा है विधानसभा चुनाव की अभूतपूर्व सफलता!'
देश-समाज के प्रति संजीदगी और सदाशयता का भाव रखने वाले मुलायम के बारे में कभी जातिवादी तो कभी तुष्टीकरणवादी जैसी संज्ञायें क्यों दी जाती हैं? ये सम्बोधन कभी आपको दुखी करते हैं कि नहीं..?
इस सवाल पर नेताजी थोड़ा तल्ख होते हैं। कहते हैं, 'बताइये, मैं अगर किसी पीडि़त व्यक्ति या पीडि़त समुदाय की मदद के लिए मानवीयता के आधार पर आगे आता हूं तो क्या गलती करता हूं? मैंने ब्राह्मण समुदाय के लोगों की आगे बढ़ कर मदद की। मैंने राजपूत समुदाय के लोगों के लिए किया। मैंने दलितों-पिछड़ों के लिए क्या-क्या नहीं किया। उसे लोग क्यों नहीं याद रखते? मैंने मुस्लिम समुदाय के भी दुखी-पीडि़त लोगों की मदद के लिए हाथ बढ़ाया तो तुष्टीकरण कहा जाने लगा! मैंने तो चाहा था कि बाबरी मस्जिद नहीं टूटे। क्या गलत चाह लिया था? अयोध्या से मेरे पास फोन आ रहे थे। एसपी पूछ रहे थे, क्या करें। मैंने कहा कि गोली चलाओ। गुम्बद तोड़ रहा एक युवक पुलिस की गोली से मारा गया तो आप ही लोगों में से एक अखबार ने लिख दिया कि सौ लोग मारे। खून की नदियां बहा दीं। सरयू नदी लाल हो गई। जहां अन्याय हुआ मैं वहां खड़ा हुआ। लेकिन ये साजिश करने वाले लोग हैं जो इस तरह की फालतू बातें करते रहते हैं।'
नेताजी, आपके ऐसे विचार के बरक्स मुजफ्फरनगर दंगे का जो विरोधाभास सामने आया, उसने भी तो लोगों को कहने या ताना देने का मौका दिया?
'हां, मौका दिया। लेकिन लोग तो सरकार और सरकार चलाने वाली पार्टी की मंशा और कार्रवाई देखेंगे न! केंद्र मुजफ्फरनगर को लेकर राजनीति तो करता रहा, लेकिन दंगा पीडि़तों की मदद में क्यों पीछे रह गया? उत्तर प्रदेश सरकार ने जो रुपए-पैसे और बंदोबस्त के जरिए लोगों की मदद की उसकी तुलना में केंद्र कहीं नहीं टिका। यह तो आधिकारिक तथ्य है। इसका पता लगा लीजिए। मैं तो कहता हूं कि मुजफ्फरनगर की घटना दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन राजनीति ने इसे और भी दुर्भाग्यपूर्ण बना दिया। अब धीरे-धीरे वहां के लोग यह महसूस कर रहे हैं। मिलजुल कर रहने की भावना फिर से कायम हो रही है। जो पीडि़त हुए उन्हें सरकार ने भरपूर मदद दी। सरकार यही तो कर सकती है। सरकार दोषियों पर कार्रवाई ही तो कर सकती है। वह कर रही है।'
खैर, तेलंगाना को लेकर आपका स्टैंड सबके सामने आया। आपने और आपकी पार्टी ने आंध्र प्रदेश के विभाजन पर विरोध जताया। लेकिन उत्तर प्रदेश भी तो बंटा था? उत्तर प्रदेश को और कई टुकड़ों में बांटने का षडयंत्र भी तो चल रहा है? मायावती इसके लिए आमादा हैं। यह क्या दुर्भाग्यपूर्ण नहीं होगा?
सवाल अब खालिस सामाजिक सरोकारों की धुरि से हट कर सामाजिक-राजनीतिक होने लगा। नेताजी ने कहा, 'हम हमेशा से बड़े राज्यों के पक्षधर रहे हैं। छोटे-छोटे राज्य बना कर क्या हासिल हो गया? उत्तराखंड बना, छत्तीसगढ़ बना, झारखंड बना। राजनीतिक फायदा तो उठा लिया गया लेकिन विकास में ये छोटे राज्य और पीछे ही चलते चले गए। हमने आंध्र प्रदेश के विभाजन का विरोध किया। राज्यों का विभाजन जनता में क्लेश पैदा करता है। तेलंगाना में ही देखिए क्या हो रहा है। अभी राज्य बना नहीं लेकिन अभी ही वहां से लोगों को खदेड़ा जाने लगा। नौकरियां छीनी जाने लगीं। आंध्र प्रदेश राज्य को कितने अमानवीय परिणाम पर पहुंचा दिया विभाजन की राजनीति करने वालों ने! जहां तक उत्तर प्रदेश को और विभाजित करने का प्रश्न है, ऐसा हमलोग कभी नहीं होने देंगे। मायावती के कहने से या उनके चाहने से यूपी थोड़े ही टुकड़ों में बंट जाएगा! इसे एक रखना हम सब लोगों का परम कर्तव्य है। यह देशभक्ति जैसा ही मसला है।'
कई मुद्दों पर असहमतियों के बावजूद केंद्र में कांग्रेस पार्टी को सरकार बनाए रखने में आप मदद करते रहे। कभी सोनिया से आपकी तल्खी भी लोगों ने देखी है तो राजीव गांधी से आपके सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध भी याद रहते हैं। इसे थोड़ा साफ करें, ताकि पहेली जैसा न रहे।
इस सवाल पर नेताजी बोले, 'देखिए कांग्रेस को समर्थन देने में कोई पहेली नहीं है। मेरा विरोध और समर्थन मुद्दों पर होता है। सबसे बड़ा मुद्दा है देश में साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता तक पहुंचने से रोकना। देश में प्रेम और सौहार्द बनाए रखने के लिए यह अत्यंत जरूरी है। इसके आगे सारी प्राथमिकताएं गौण हैं। कांग्रेस का समर्थन इसी सोच और सिद्धांत पर टिका रहा है। राजीव गांधी से मेरे सम्बन्ध अच्छे रहे हैं। यहां तक कि चंद्रशेखर जी के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद भी मैंने राजीव जी से कहा था कि देश के लिए अभी चंद्रशेखर की सरकार का रहना जरूरी है। तो राजीव जी ने मुझसे वादा किया था कि चंद्रशेखर जी से इस्तीफा वापसी की घोषणा करा दें, उनकी सरकार को कांग्रेस का समर्थन जारी रहेगा और मैं मतभेद समाप्त होने की घोषणा कर दूंगा। मैं चंद्रशेखर जी के पास गया, लेकिन वे इस्तीफा वापस लेने को तैयार नहीं हुए और उनकी सरकार जाती रही। मेरे हृदय में ऐसी जाने कितनी बातें दफ्न हैं जिसे दुनिया नहीं जानती।'
इसे आप लिखें या आप विस्तार से बताएं तो हम लोग लिखें! इस पर मुलायम ने कहा, 'मैंने एक बार मधु लिमये से भी कहा था कि मैं अपने इन सारे संस्मरणों को किताब की शक्ल में लिखना चाहता हूं। तब लिमये जी ने मुझे किताब लिखने से रोक दिया था। कहा था कि अभी आपको लम्बे समय तक राजनीति में रहना है। किताब लिख दिया तो कई साथ वाले ही दुश्मन हो जाएंगे। मधु लिमये की सलाह पर मैंने फिर किताब लिखने का ध्यान त्याग दिया।' तो क्या तीसरे मोर्चे के निर्माण की पहल या प्रक्रिया में वो 'दुश्मन' भी शरीक होंगे..? नेताजी मुस्कुराए, फिर बोले, 'सारी दुश्मनी और मतभेद भुलाकर गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई दल तीसरा मोर्चा बनाएंगे। हम मजबूत सत्ता विकल्प तैयार करने की तरफ अग्रसर हैं।'
इतना समय देने के लिए आभार जताते हुए जाने की इजाजत मांगी तो नेताजी खुद उठे, पोर्टिको तक आए, अपने कर्मचारियों के प्रति थोड़ी नाराजगी भी दिखाई कि गाड़ी पोर्टिको तक क्यों नहीं आई? ...ऐसा सद्व्यवहार नेताजी को कहां छोटा बना गया? मैं, छायाकार सुरेश वर्मा और रितेश सिंह उनसे विदा लेते हुए पोर्टिको से बाहर आ गए। लेकिन उनके व्यक्तित्व के विशाल अभिभावकीय पक्ष की परिधि से हम कभी बाहर नहीं आ पाएंगे...

Monday 24 February 2014

सहारा ने 10 लाख कर्मचारियों को 'बैक डेट' में निवेशक बनाया

सहारा ने उलझा दी 24 हजार करोड़ रुपए की गुत्थी
प्रभात रंजन दीन
सहारा समूह के निवेशकों को 24 हजार करोड़ रुपए लौटाने का मसला सहारा-सेबी-सुप्रीमकोर्ट के बीच फंसा हुआ है। लम्बे अरसे से तमाम पेचीदगियों में उलझा सहारा प्रकरण अब सहारा प्रमुख सुब्रत राय सहारा और सहारा समूह के तीन निदेशकों वंदना भार्गव, अशोक रायचौधरी व रविशंकर दुबे को व्यक्तिगत तौर पर 26 फरवरी को शीर्ष अदालत में हाजिर होने के सख्त निर्देश पर पहुंचा है। सुप्रीम कोर्ट ने सफाई देने के लिए सहारा समूह के अभिभावक समेत इन चार अलमबरदारों को कोर्ट में तलब किया है, लेकिन आप उस विषम स्थिति की कल्पना करें जब दस लाख से भी अधिक लोगों को कोर्ट में बुला कर सफाई लेने की वीभत्स परिणति पर इस मामले को ले जाया जाएगा। सहारा प्रबंधन इसी कोशिश में लगा है। सहारा समूह ने अपने दस लाख से अधिक कर्मचारियों-कार्यकर्ताओं को विवादास्पद प्रकरण में घसीटने का उपक्रम शुरू कर दिया है। सहारा समूह के अंदर ही अंदर यह तैयारी तीव्र गति से चल रही है। आनन-फानन सारे कर्मचारियों से पुरानी तिथियों में निवेश के फॉर्म भरवाए गए हैं। कर्मचारियों को निवेशक बनाने की आपाधापी में सहारा प्रबंधन अपने ही कर्मचारियों को 15 प्रतिशत का प्रतिमाह रिटर्न देने की गारंटी पर तीन-तीन लाख रुपए वसूल रहा है। सारी अद्यतन स्थितियों से सुब्रत राय सहारा को अवगत भी कराया जा रहा है और सहाराश्री खुद इसकी निगरानी भी रख रहे हैं।
सहारा के कर्मचारियों को यह भी समझाया जा रहा है कि 'किसी भी एजेंसी द्वारा कार्यकर्ता से पूछे जाने पर कि संस्था में एडवांस के रूप में आपने धनराशि क्यों दी, तो कार्यकर्ता को यह कहना होगा कि विगत काफी समय से वह संस्था से जुड़े हैं और उनके परिवार का जीविकोपार्जन यहां से अर्जित आय पर ही निर्भर है। अत: अपने परिवार की बेहतरी के लिए एडवांस में धनराशि देकर संस्था की भावी योजनाओं के लिए सहयोग दिया है।' इस तरह की तमाम पेशबंदियां सहारा समूह में युद्ध-स्तर पर चल रही हैं। ...'किसी भी एजेंसी द्वारा कार्यकर्ता से पूछे जाने पर'... का संकेत ही यही है कि सहारा समूह को अंदेशा है कि यह मामला सीबीआई या किसी अन्य केंद्रीय जांच एजेंसी को छानबीन के लिए दे दिया जाएगा। लिहाजा, उससे निपटने की तैयारियां पहले से रखी जा रही हैं।
जो कर्मचारी मई 2012 के पहले सहारा समूह में नियुक्त हो चुके थे, उनसे ही निवेश के फॉर्म भरवाए जा रहे हैं। निवेश के लिए कार्यकर्ताओं का सहारा क्रेडिट कोऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड का मई 2012 के पहले का सदस्य होना जरूरी है। लेकिन सहारा प्रबंधन ने यह भी जुगाड़ लगाया है कि जो कार्यकर्ता मई 2012 के पहले के सदस्य नहीं हैं उन्हें भी निवेशक बना लिया जाए। इसके लिए उन्हें यह सख्त निर्देश दिया गया है कि वे नॉमिनल मेम्बरशिप फॉर्म भरते समय दिनांक का उल्लेख न करें। साफ है कि उस पर बाद में अनुकूल तारीख भर ली जाएगी। सहारा ने अपने कार्यकर्ताओं को यह भी निर्देश दिया है कि एडवांस में उनसे राशि लिए जाने के लिए 'सहारा यू गोल्डन फॉर्म' भरा जाएगा लेकिन उसमें भी दिनांक का जिक्र नहीं किया जाएगा।
सहारा पैराबैंकिंग के एक्जेक्यूटिव डायरेक्टर वर्कर डीके श्रीवास्तव ने सहारा के सारे कर्मचारियों और फील्ड वर्करों को निवेशक के रूप में जोडऩे का बीड़ा उठाया है। सहारा प्रबंधन फूंक-फूंक कर कदम उठा रहा है और निर्देश जारी कर रहा है। डीके श्रीवास्तव की ओर से भेजे गए निर्देश के पहले उन्हीं का एक 'कवरिंग लेटर' सहारा के सारे फ्रेंचाइजी, सेवा केंद्रों, सेक्टर, रीजन, एरिया और मंडल प्रमुखों के पासदौड़ा। सहारा प्रबंधन की ओर से बरती जा रही अतिरिक्त सतर्कता डीके श्रीवास्तव के 'कवरिंग लेटर' से उजागर होती है। आप भी उसकी बानगी देखिए... 'आपको अवगत कराना है कि कमांड कार्यालय में इंटरनेट व्यवस्था बाधित होने के कारण इस पत्र के साथ-साथ दो पन्ने का संलग्नक किसी व्यक्तिगत मेल द्वारा भेजा जा रहा है, जिसके अनुसार अग्रिम कार्यवाही सुनिश्चित करें। मेल की प्रामाणिकता हेतु आप हमसे दूरभाष से सम्पर्क कर सकते हैं। मेल में दिए गए (w) के आकार की मुहर अविलम्ब तैयार कराएं और किसी भी फॉर्म पर मुहर लगाना न भूलें।' आपका ध्यान दिलाते चलें कि दो पेजों के संलग्नक में भी सारे गोपनीय निर्देशों के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्द (w) जैसी आकृति की मुहर लगाने की विशेष ताकीद की गई है।
सहारा समूह के सूत्रों ने बताया कि सहारा के कर्मचारियों और फील्ड वर्करों को निवेशक बनाने वाले फॉर्म भरवाकर जमा भी हो गए हैं। 26 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में हाजिर होने तक यह प्रक्रिया बिल्कुल फिट कर ली जाएगी। दस लाख से अधिक कर्मचारियों को निवेशक बनाने की प्रक्रिया में भारतीय रिजर्व बैंक के प्रावधानों का पालन किया गया कि नहीं, 49 हजार रुपए से अधिक के सारे 'ट्रांजैक्शन' चेक के जरिए हुए कि नहीं, नॉमिनल मेम्बरशिप फॉर्म पर 'अनुकूल तारीख' भरते समय आयकर की तत्कालीन सूचनाओं का ख्याल रखा गया कि नहीं..? जैसे कई सवाल सामने आएंगे। इन सवालों का संतोषजनक जवाब नहीं मिलने पर सहारा के उन सारे कर्मचारियों पर कर चोरी के अलावा षडयंत्र में शामिल होने (धारा 120-बी) का मामला भी बन सकता है।
गहरे वित्तीय विवादों में घिरे सहारा समूह के शीर्ष प्रबंधन की बौखलाहट अंदरूनी औपचारिक पत्र-व्यवहार से भी अभिव्यक्त होने लगी है। सहारा प्रबंधन यह भी एहतियात नहीं बरत रहा कि पत्र की भाषा देश की सर्वोच्च अदालत का मान-मर्दन करने वाली न हो। सहारा पैरा बैंकिंग के एक्जेक्यूटिव डायरेक्टर वर्कर जैसे शीर्ष पद पर आसीन डीके श्रीवास्तव अपने कर्मचारियों का हौसला बनाए रखने के लिए जो औपचारिक पत्र लिखते हैं, वह सर्वोच्च न्यायालय की मर्यादा का कितना मखौल उड़ा रहा है, उसकी एक बानगी देखिए... 'जैसा कि आप सभी को विदित है कि उच्चतम न्यायालय में सहारा-सेबी प्रकरण की जो सुनवाई चल रही है उसमें संस्था द्वारा वास्तविक तथ्यों के साथ तार्किक रूप से अपने पक्ष को प्रस्तुत किया जा रहा है। इसी क्रम में इस बार नौ जनवरी को सहारा के वकील सीए सुंदरम, जो बहुत ऊंचे कद के वकील हैं, ने न्यायाधीशों को खुल कर दोषारोपित किया कि हम आपके रवैये से बहुत ही अचम्भित और बहुत ही असंतुष्ट हैं। यह उल्लेखनीय है कि कोई भी वकील अमूमन न्यायालय में न्यायाधीश के समक्ष इस तरह की बात नहीं करते हैं...'। आप यह समझ सकते हैं कि खुदमुख्तारी की यह भाषा अदालत की मर्यादा का कितना हनन करती है। मीडिया के बारे में भी सहारा प्रबंधन की यही राय है। डीके श्रीवास्तव अपने उसी पत्र में कहते हैं, 'जहां तक मीडिया का सवाल है, वे पूरी तौर से दिग्भ्रमित हैं और केवल किसी बात को जबरदस्त बतंगड़ बना कर पेश करने पर ही इनको स्वांत: सुखाय होता है। दरअसल मीडिया देश का दुश्मन बन गया है...'। सहारा खुद भी मीडिया हाउस का मालिक है, लेकिन मीडियाकर्मियों के लिए उसकी इतनी ऊंची धारणा, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए इस्तेमाल किए गए ऊंचे शब्दों से काफी सामंजस्य रखती है।
हम एक बार फिर से याद करते चलें कि सुप्रीम कोर्ट ने अदालत की अवमानना करने के मामले में सहारा प्रमुख सुब्रत राय सहारा के खिलाफ समन जारी कर 26 फरवरी को अदालत में पेश होने के आदेश दिया है। सहारा के तीन निदेशकों को भी पेश होने का निर्देश दिया गया है। न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति जेएस केहर की खंडपीठ ने सुब्रत राय सहारा के साथ ही सहारा इंडिया रियल इस्टेट कारपोरेशन लिमिटेड और सहारा इंडिया हाउसिंग इन्वेस्टमेन्ट कारपोरेशन लिमिटेड के निदेशक रवि शंकर दुबे, अशोक रायचौधरी और वंदना भार्गव को भी 26 फरवरी को न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से हाजिर रहने को कहा है। सहारा ने यह दावा किया था कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक उसने निवेशकों के 24 हजार करोड़ रुपए में से 90 फीसदी रकम वापस कर दिए हैं। सेबी के पास सहारा समूह के 5,120 करोड़ रुपए पहले से जमा हैं। निवेशकों को किए गए भुगतान का सहारा से ब्यौरा देने को कहा गया तो उसने कहा कि सारा भुगतान नकद किया गया। इतनी बड़ी राशि के नकद भुगतान पर सवाल उठने पर सहारा ने कहा था कि उसकी शाखाओं के विशाल नेटवर्क की वजह से इतने बड़े पैमाने पर नकदी का लेनदेन सम्भव हो सका। सहारा समूह का कहना था कि शाखाओं व बैंकों के बीच धन ले जाते समय उसके कर्मचारियों के साथ छिनैती, लूट, चोट और यहां तक कि हत्या के सैकड़ों घटनाओं के सामने आने के बाद सहारा ने नकदी की नीति बनाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने सेबी से यह पता लगाने के लिए भी कहा है कि कम्पनी कानून और भारतीय रिजर्व बैंक के दिशा-निर्देशों के तहत क्या इतनी बड़ी रकम का नकद लेन-देन किया जा सकता है? खैर, इतनी विशाल रकम को बचाने-पचाने-चुकाने की गुत्थियां इस कदर उलझा दी गई हैं कि अब न सेबी को ठीक से याद आता है कि उसने क्या-क्या ब्यौरा लिया और समझा और न अदालत ही इस पेचोखम से बाहर निकल पा रही है। यह सहारा की सोची-समझी रणनीति हो सकती है। इस गुत्थी को और उलझा देने के लिए ही अब उसने दस लाख से अधिक कर्मचारियों को अपने निवेशकों की फौज में खड़ा कर लिया है। आखिर कितने लोगों को समन करेंगे और कितने लोगों को गिरफ्तार करेंगे, यह बड़ा कानूनी सवाल सुप्रीम कोर्ट के समक्ष खड़ा होने ही वाला है। धन की व्यवस्था के बारे में सहारा प्रबंधन का तर्क 'इस घर का माल उस घर में और उस घर का माल इस घर में' के नियोजित घालमेल पर टिका हुआ है। सहारा रियल इस्टेट को सहारा क्रेडिट के हाथों बेच कर 16637 करोड़ रुपए पा लिए कि सहारा इंडिया हाउसिंग को सहारा क्यू शॉप को बेच कर 3228 करोड़ रुपए हासिल कर लिए, या कर्मचारी-निवेशकों से बड़ी धनराशि जुटा ली, यह उतना अहम नहीं है। अब यह भी महत्वपूर्ण नहीं रहा कि भुगतान की रकम दिखाने में यह कभी 24 हजार करोड़ रुपए हो जा रही है कि कभी 39 हजार करोड़ रुपए। ताजा स्थितियों में अब अहम है इन सारे ट्रांजैक्शन (लेन-देन) का ठोस कानूनी ब्यौरा जिसे लेन-देन के समय रिजर्व बैंक और रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज़ को देना अनिवार्य होता है। सुप्रीम कोर्ट भी यही जानना चाहती है, यही जांचना चाहती है...

Saturday 22 February 2014

आएं हम पीएम-पीएम खेलें...

प्रभात रंजन दीन
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने पिछले दिनों मुंगेरी लाल की तरह एक हसीन सपना देखा। उन्होंने सपना देखा कि केंद्र में साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता पर आने से रोकने के लिए गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई राजनीतिक दल साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। करात ने यह सपना देखा भी और मुजफ्फरनगर की एक सभा में इस स्वप्न को उजागर भी कर दिया। अब इस स्वप्न के कार्यरूप में उतरने की सम्भावनाओं पर विचार करें। लेकिन इसके लिए आपको किसी घटिया 'हॉरर फिल्म' की यंत्रणा से गुजरना होगा। कौन-कौन पार्टियां इस बात के लिए तैयार होंगी कि एक साथ चुनाव लड़ें! और क्यों तैयार होंगी! लोकसभा चुनाव आते ही सारी एकताएं नजर आने लगीं, इसके पहले जनता से जुड़े मसलों पर बृहत्तर एकता कायम करने और निर्णायक संघर्ष छेडऩे की जरूरत पर क्यों नहीं ऐसी पहल हुई? प्रकाश करात हों या ऐसी मौसमी एकता की बातें करने वाला कोई भी ऐसा नेता, सब उसी टोकरी में बैठे हैं जहां सारी महत्वाकांक्षाएं मेढ़क की शक्ल में एक साथ बैठी हैं। अभी चुनावी बारिश आने वाली है, सभी टर्र टर्र कर रहे हैं। बारिश आएगी, सत्ता-रानी दिखेगी और सारे मेढ़क उछाल मार-मार कर निकल पड़ेंगे। ऐसा ही होता आया है और ऐसा ही फिर होगा। किसी भी पार्टी या किसी भी नेता में कोई राष्ट्रीय चरित्र दिखता हो, तो इस एकता की थोड़ी उम्मीद की जा सकती है। ज्योति बसु जैसे अगरधत्त वाम नेता को इन्हीं लोगों ने देश का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। वामपंथियों के अंदर भी क्षूद्र महत्वाकांक्षाओं की इतनी कुंठाएं कुंडली मार कर बैठी हुई हैं कि उन्हें ज्योति बसु का प्रधानमंत्री बनना गवारा नहीं हुआ। इनमें प्रकाश करात भी शामिल रहे हैं, और आज बृहत्तर एकता की बात कर रहे हैं। खुद में इतनी एकता का भाव नहीं कि अपनी ही पार्टी और अपनी ही विचारधारा का संवाहक देश का प्रधानमंत्री बने। ज्योति बसु अगर उस समय देश के प्रधानमंत्री बन जाते तो आज वो सारी स्थितियां जो विद्रूप दृश्य दिखा रही हैं, कदाचित होती ही नहीं। लेकिन वामपंथियों ने ऐसा होने नहीं दिया। साफ है कि देश का हित वामपंथियों के लिए भी सरोकार का विषय नहीं है। वे भी ऐसे ही हैं जैसे दूसरे। एक साथ लोकसभा चुनाव लडऩे या तीसरा मोर्चा बनाने के विषय में 25 फरवरी को दिल्ली में बैठक भी बुलाई गई है। सारे महत्वाकांक्षी स्वप्न 25 फरवरी को दिल्ली में टकराने वाले हैं। कितने सुर टकराएंगे, कितने गर्दभ राग गाए जाएंगे, कितने दादुर टर्राएंगे, कितने हुआं-हुआं होंगे, आप बस देखते जाइये। इस देश की केंद्रीय सत्ता में जितने मंत्री होते हैं, उतने ही प्रधानमंत्री होते या उतने ही प्रधानमंत्री होने की बस गारंटी हो जाए तो सारे नेता एक साथ लोकसभा चुनाव लड़ जाएं। पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल प्रधानमंत्रियों से भरा हो। सारे विभाग के प्रधानमंत्री... कितना अच्छा कॉन्सेप्ट है! यह नेताओं के हाथ लग जाए तो आप निश्चित मानिए कि सारे नेता इसे आजमाने में लग जाएंगे। देश का कोई भी नागरिक दिल्ली जाए और उसे जिस विभाग में काम हो उस विभाग के प्रधानमंत्री से मिल ले। आम आदमी भी खुश और नेता भी खुश। सबको मनोवैज्ञानिक खुशी ही तो चाहिए। आम नागरिक खुश कि प्रधानमंत्री से मिल लिए और नेता खुश कि प्रधानमंत्री हो लिए। वित्त मंत्रालय का प्रधानमंत्री, गृह मंत्रालय का प्रधानमंत्री, जितने मंत्रालय उतने प्रधानमंत्री। भारतीय लोकतंत्र को नेताओं की क्षूद्र महत्वाकांक्षाओं से बचाना है तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के पद को हर तरफ रायते की तरह फैला दें... फिर देश प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री फोबिया से बच जाए। नेताओं की हवस पर अंकुश लग जाए। फिर ऐसा सम्भव हो सकता है कि सारे प्रधानमंत्री मिल कर देश के बारे में सोचें। पद विलीन हो गया तो महत्वाकांक्षाएं विलीन हो सकती हैं। ऐसा सम्भव है, एक प्रयोग किया जा सकता है। वैसे भी भारतवर्ष में तो प्रयोग के नाम पर दुष्प्रयोग ही होते आए हैं। इन दुष्प्रयोगों का ही नतीजा है कि देश के सारे महत्वपूर्ण पदों ने अपना औचित्य खो दिया है। देश के सारे नेताओं ने अपना औचित्य खो दिया है। देश के सारे राजनीतिक दलों ने अपना औचित्य खो दिया है। ऐसी अनौचित्यता से भरे देश में आएं हम सब पीएम-पीएम, सीएम-सीएम खेलें। नेता सब मिल कर जो देश से खेल रहे हैं, उससे तो अच्छा है कि हम पीएम-पीएम खेलें...

Wednesday 19 February 2014

सच का तो 'राम नाम सत्य' है...

प्रभात रंजन दीन
सत्य गिरफ्त में है। सच्चाई को अपना सच साबित करने के लिए सबूत जुटाना है, सच्चाई को कठघरे में खड़े होना है, सच्चाई को झूठ की अदालत में फांसी पर लटक जाना है। पूरी व्यवस्था इसी की है। पूरा आयोजन इसी बात का है कि सच्चाई को दबोच लिया जाए और उसे बांध कर लटका दिया जाए। न रहे बांस, न बाजे बांसुरी। रहे ही न तो झंझट ही खत्म। फिर केवल झूठ ही झूठ रहे। झूठ ही झूठ लड़े और झूठ ही झूठ पर स्थापित हो जाए। सच्चाई के रास्ते पर चल रहे किसी भी व्यक्ति का बस एक सिरा पकड़़ लीजिए। मसलन उसने देर तक मफलर क्यों बांधे रखा, या वह खांसा क्यों, उसके पास कोई सूचना या संदेश क्यों और कैसे पहुंचा? बस उसकी सच्चाई झूठों की अदालत में इजलास पर चढ़ गई। मफलर बांधना झूठ को ढंकना है। खांसना सत्य को ठुकराना है। संदेश मिलना मिलीभगत है। बस अब वह सबूत तलाशे और सत्य साबित करे। दरअसल सत्य साबित कराना व्यवस्था का मकसद नहीं, व्यवस्था का मकसद है ऐसे व्यक्ति को तोड़ डालना, वह टूटे तो आत्मसमर्पण कर दे, और नहीं तो मर जाए। अरविंद केजरीवाल तो एक सांकेतिक नाम है। उसकी जगह कोई और नाम चुन लें, क्या फर्क पड़ता है। मसला यह है कि जिसने भी सच चुना, वह दुश्मन हुआ, भले ही वह अपना नाम, कोई गांधी या कोई यादव क्यों न चुन ले। अब तो नारा चलना चाहिए जो करने चलेगा, वो मरने चलेगा। जो सच बोलेगा, उसका 'राम नाम सत्य'। केजरीवाल-टीम कुछ करना चाहती थी तो देखा न उन्हें कैसे लोगों ने घेर लिया! सारे झूठे एक तरफ हो गए और घेरेबंदी बना ली। हालत ऐसी हो गई कि अब केजरीवाल और उनकी टीम ही यह सफाई दे कि वे सच कैसे हैं या वे सच क्यों हैं? किसी ने यह नहीं पूछा या यह नहीं बोला कि बात तो वे सही कह रहे हैं। कहने और करने का अंदाज अलग हो सकता है। और अलग होगा क्यों नहीं! अलग हैं तभी तो  अलग से आग में कूद पड़े। अलग हैं तभी तो सारा संकट है! अलग नहीं होते तो सब उनके दुश्मन थोड़े ही होते! अब तो हाल यह है कि सच्चाई घर से लेकर समाज और समाज से लेकर देश दुनिया तक घेरे में है। मक्कारी और मुंहजोरी की ताकतवर गोलबंदी है। सब न्यायाधीश हैं और सब जल्लाद हैं। मफलर बांध कर फांसी का फंदा बंधने की तैयारी न रखें तो क्या करें! कुछ पंक्तियां बड़ी माकूल हैं, आप भी सुनें और उसे याद रखें। ...कठघरे में खड़े मुजरिम से पूछते हैं न्यायाधीश / तो, आखिर सच क्या है? / सच का सबूत देने के लिए कठघरे में खड़ा मुजरिम कहता है / अपने मन से पूछो सच का सत / मुझसे पूछते हो तो कान खोल कर सुनो / मिथ्या है मखमली चादर पर सलवटें लेता तुम्हारा मन / कठोर जमीन को बिस्तर बना कर नींद बुनना है असली सच / चोर-बटमार नेताओं के हाथों लुट जाने के बाद / राहत के फेंके जाते खाने के पैकेट लेने को जूझते हजारों हाथ हैं असली सच / झूठा है न्याय का पहना हुआ तुम्हारा कनटोपा / उससे तो अच्छा है मेरे गले में बंधी हुई गांती का सच / साहब सोने सा चमकता तुम्हारा न्यायदंड सच नहीं है / सच हैं वे हाथ जो उन्हें चमकाने में काले पड़ गए हैं / झूठ को चमकाने में मटमैला हो गया है हमारा सच / अब तो शरीर पर सिले पैबंदों को उघाड़ कर देखिए तो दिख जाएगा आपके उत्पादित सच से आच्छादित पूरा इतिहास / जिसने सत्य के शरीर का पूरा भूगोल ही बदल डाला है...

Tuesday 18 February 2014

मठ वाले अधीशों के खिलाफ महाभारत की मुनादी है...

प्रभात रंजन दीन
आप कैसे तय करेंगे कि कौन सा शब्द ब्रह्म है और कौन सा शब्द यम! आप यह कैसे तय करेंगे कि कौन सा शब्द पूर्ण सच है और कौन सा शब्द पूर्ण भ्रम! आप यह कैसे तय करेंगे कि कौन सा शब्द देवात्मिक है और कौन सा शब्द दुष्टात्मिक! शब्द के शोर में, शब्द के जोर में, शब्द की भीड़ में, शब्द के बाजार में जब ब्रह्म पर भ्रम, सच्चाई पर ढिठाई और मर्यादा पर निर्लज्जता आरोहित हो जाए तो सात्विक मौन का सृजन होता है। आंतरिक मौन। इसीलिए शायद मौन को सबसे सशक्त माना है ध्यानियों ने। सबके जीवन में कभी न कभी कोई ऐसा आंदोलन घटता है, जो जीवन को चमत्कृत भी कर देता है और सार्थक भी। ऐसा आंदोलन भोथरी आंखों को भौतिक दिखता है लेकिन मन की आंखों से देखने-समझने वालों के लिए ऐसा आंदोलन ईश्वर के पुरस्कार की तरह घटता है, बिल्कुल प्राकृतिक, नितांत नैसर्गिक, कैक्टस के फूल की तरह जो एक-डेढ़ दशक में कभी-कभार अचानक ही ईश्वर के प्रकट हो जाने की तरह खिलता है और देखने वाले को रोमांच से भर देता है। कांटों से भरे जीवन के कैक्टस में इसी तरह का फूल खिला है दो-ढाई दशक की लम्बी ध्यान-यात्रा के बाद। सृजनात्मक आंदोलन जैसा घटित हो गया एक पल में। पत्रकारीय प्रतिष्ठा और सिद्धांतों को भौतिक धरातल पर उतारने और उसे जीवन-व्यवहार में लाने के मसले पर सम्पादक से स्वीपर तक एक साथ मुट्ठियां बांध ले, ऐसा कभी सुना है आपने! सम्पादक से लेकर स्वीपर तक के सारे भेद प्रकृति एकबारगी मिटा दे, तीन दर्जन लोगों की संख्या एक बृहत्तर शून्य में तब्दील हो जाए, कौन किस पद का, कौन किस वर्ग का, कौन किस जाति का, कौन किस धर्म का... यह भेद एक-दूसरे में विलीन हो जाए, कभी सुना है आपने ऐसा! ऐसे ही बृहत्तर शून्य की शक्ति से पत्रकारीय संसार का एक छोटा सा हिस्सा अपने अस्तित्व को झंकृत होते हुए देखने का गवाह बन बैठा। यह शून्य की ही तो यात्रा थी कि छोटे-छोटे हित और तुच्छ स्वार्थों को साधने की विधा की विशेषज्ञता के चकाचौंधी वर्चस्व का मोह ठोकरों से ठुकरा कर सब एकबारगी शून्य में आ गए! प्रकृति एक तरफ कुछ और करा रही थी और दूसरी तरफ कुछ और रच रही थी। भौतिक दुनिया में जो लोग व्यक्तिपरक सुविधाएं और निजी हित-लक्ष्य साधने में लगे रहते हैं, उनके लिए यह आत्मचिंतन, विश्लेषण और शेष के लिए शोध का विषय है कि जिसने भी दूसरों के हित अपने हितों के साथ समायोजित किया, प्रकृति तत्क्षण उस समग्र हित-चिंता को अपने साथ समाहित कर लेती है। यही वजह है कि प्रकृति एक दिशा में ऊर्जा को संगठित कराने का जतन कर रही थी तो दूसरी तरफ उसका विघटन करा रही थी। उत्तर प्रदेश के ऊर्जावान पत्रकारों की एक बड़ी टीम प्रकृति की इसी प्रक्रिया से गुजरते हुए 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' में संगठित हो गए। प्रकृति ने इस आंदोलन के लिए आंदोलन को स्वर देने वाले अखबार 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' को चुना। एक आंदोलन दूसरे आंदोलन के साथ समाहित होकर विषद सृजनात्मक शक्ति के साथ संघर्ष यात्रा पर निकल पड़ा। जिसे अंधे सुरंग में गिरने के लिए उद्धत कदम बताए जाने का शोर था, वह शून्य-शक्ति के प्रभावकारी उत्पादक परिणाम के रूप में अभिव्यक्त होकर बाहर आ गया, उसके लिए जवाबी शोर की जरूरत थोड़े ही थी! पत्रकारिता के इतिहासमें... या हम इतिहास-भूगोल के चक्कर में क्यों पड़ें, बस यह दुर्लभ आंदोलन घट गया और स्थापित कर गया कि सकारात्मक ऊर्जा प्रकृति के अभिभावकत्व में संरक्षित रहती है। जिसने इस घटना को भोथरी आंखों से देखा और आंका, उसके जीव-शरीर की अवधि अभी शेष है। ...और जिसने इसका सात्विक भाव पहचाना, वह उसी सकारात्मक ऊर्जा का अंश है, वह चाहे कहीं भी, किसी भी कर्म में ध्यानस्थ हो। हम उस जमात का हिस्सा नहीं जो दुर्नीति पर चलते हैं और नीति पर बहस चलाए रखते हैं। दुराचार करते हैं और सदाचार की चर्चा चलाए रखते हैं। हम तो उस जमात के हैं जो सांस लेनेभर के लिए भी सख्त से सख्त चट्टानें तोड़ कर हवा बना देते हैं। वैन गॉग कहते थे कि हम जो करते हैं उसे ईश्वर देखता है, कोई और देखे या न देखे, इससे क्या फर्क पड़ता है। ...हम भी शब्दरचनाधर्मिता के संसार के सक्रिय सदस्य हैं और अपनी कला ईश्वर को सुपुर्द कर देते हैं, कोई और देखे या न देखे, इससे क्या फर्क पड़ता है। निजी सुख-सुविधाओं का ईंट-गारा तो हम भी लगा कर मठ बना लेते। जिंदगी की तरह स्वभाव को भी तम्बू बना लेने और जब मर्जी आए इसे उखाड़ कर कहीं और ले जाने का हठ... उन तमाम मठ वाले अधीशों के आगे महाभारत की मुनादी है।
...मैं भी चाहता तो बच सकता था / मगर कैसे बच सकता था / जो बचेगा / कैसे रचेगा? / न यह शहादत थी / न यह उत्सर्ग था / न यह आत्मपीड़न था / न यह सजा थी / किसी के भी मत्थे मढ़ सकता था / मगर कैसे मढ़ सकता था / जो मढ़ेगा / कैसे गढ़ेगा...? 
मित्रो! यह विचित्र काल है या कहें कि यह अकाल है, जिसके हम साक्षी तो हैं, लेकिन उसका बंधुआ होने से हम इन्कार करते हैं। हम आखिरी समय तक अपने सपने के फूल अपनी चैतन्यता के गमले में सींचते रहेंगे, उसे मुरझाने नहीं देंगे। अपने अस्तित्व-यंत्र में ऊर्जा का उत्पाद जारी रखेंगे। रग-रग में, शिरा-शिरा में आंदोलन का गर्म लहू दौड़ाते रहेंगे। अपने हृदय के तलघर में निरंतर चल रहे प्रिन्टिंग प्रेस में नैतिक उम्मीदों के परचे छापते रहेंगे और आपसे बांटते रहेंगे... जो भी इस आंदोलन की धारा के हैं वे साथ दें... 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' अखबार नहीं, आपका प्रवक्ता होगा, यह ऐलान करता हूं...

संत और संसद! वाह-वाह...

प्रभात रंजन दीन
संत थप्पड़ चलाए और संसद महापुरुषों का असम्मान करे... यह भारतवर्ष में ही हो सकता है। हम तो संस्कृति संस्कारों वाले देश के हैं, इसीलिए हमारे संत नुक्कड़छाप हरकतें करते हैं और हमारी संसद देश का खुलेआम अपमान करती है। स्वरूपानंद सरस्वती खुद को शंकराचार्य कहते हैं लेकिन उनके आचरण अभद्राचार्य वाले हैं। ऐसे लोगों के नाम के साथ सरस्वती का जुड़ा होना भी अनुचित है, लिहाजा ऐसे लोगों का चारित्रिक रूप जैसा हो उसे वैसा ही सम्बोधन मिलना चाहिए। अभद्राचार्य स्वरूपानंद। ऐसे संत के लिए अलग शब्दावली बननी चाहिए। 'फंत' शब्द ठीक रहेगा। अभद्राचार्य फंत स्वरूपानंद को गुस्सा क्यों आया! नरेंद्र मोदी का नाम लेते ही उनका गुस्सा फट पड़ा। किसी पत्रकार ने उनसे सवाल पूछ लिया तो उस पर थप्पड़ चला दिया! अभद्राचार्य स्वरूपानंद के रक्त में सोनिया के प्रति चाटुकारभाव इतना भर गया है कि उन्हें नरेंद्र मोदी का नाम सुनते ही गुस्सा आने लगता है। ऐसे फंतों का मर्यादा से लेना-देना होता तो ये क्या सत्ता के भांड होते! संतों का सत्ता से क्या लेना देना? फूहड़ आचरण रखने वाला, बात-बात पर गुस्साने वाला, भौतिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रहने वाला, मठों-मंदिरों पर कब्जा कराने वाला, नुक्कड़छाप आचार-विचार रखने वाला व्यक्ति अगर संत हो जाए तो फिर माफियाओं को क्या कहा जाए! ऐसे संत राष्ट्र और राष्ट्र की संस्कृति का अपमान हैं, वे चाहे जिस भी धर्म के संत हों। फंत के थप्पड़ प्रकरण का मजेदार पहलू देखिए। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने फौरन ही अभद्राचार्य स्वरूपानंद के समर्थन में अपना मुखारबिंद खोलना शुरू कर दिया। एक तरफ स्वरूपानंद तो दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह। रामायण में कहा गया, 'को बड़ छोट कहत अपराधू, सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू॥ देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ज्ञान नहिं नाम बिहीना... इनका भावार्थ भी समझते चलें, 'इनमें कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुणों का तारतम्य सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेंगे। रूप नाम के अधीन ही देखे जाते हैं, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता॥' ...तो साधु पुरुषो! असाधुजनों के कृत्य देखते हुए आप भी यह तय नहीं कर पा रहे होंगे कि इनमें कौन बड़ा है और कौन छोटा। नाम, रूप और कर्म का क्या अंतरसम्बन्ध है, इस पर ऊपर चर्चा हो ही चुकी है। तो इतिश्री फंत कथा...
दूसरी कथा भी कम वेदनागाथा नहीं है। गुरुवार को ही महान क्रांतिकारी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर पूरा देश नतमस्तक था, उन्हें नमन कर रहा था। लेकिन राष्ट्र की शीर्ष संवैधानिक पीठ संसद में आसीन होने वाले सांसदों को इससे कोई लेना-देना नहीं था। संसद में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर कार्यक्रम आयोजित था, लेकिन इस कार्यक्रम में एकमात्र सांसद लालकृष्ण आडवाणी मौजूद थे। आडवाणी के अतिरिक्त तीन पूर्व सांसद इस कार्यक्रम में शरीक हुए। पूर्व सांसदों के मन में नेताजी के प्रति सम्मान का भाव इतना था कि वे संसद पहुंचे लेकिन देश के 774 सांसद इस कार्यक्रम से नदारद रहे। जो सांसद नदारद थे, वे देश का क्या काम कर रहे थे? एक भी सांसद अगर यह बता दे कि वह सुभाषचंद्र बोस के प्रति सम्मान जताने से अधिक कोई सार्थक काम कर रहा था तो फिर आगे लिखने से परहेज की मुनादी कर दी जाए। लेकिन जनप्रतिनिधियों के कृत्य सब जानते-समझते हैं। आप खुद ही यह समझ सकते हैं कि सांसदों-विधायकों की इस देश में क्या उत्पादकता रह गई है। राजनीति, तिकड़म और बटमारी से फुर्सत मिले तब तो नेताजी याद आएं! इसीलिए तो इस देश से सारे महापुरुष तिरोहित होते चले गए। सारा गौरवबोध विलुप्त होता चला गया। अब देश को ही विलुप्त करने की तैयारी है। अब तो हम सब मिल कर यही जपें, 'संत और संसद! वाह-वाह'...

मेले का मोह त्यागें और अकेले चल पड़ें...

प्रभात रंजन दीन
जीवन में कुछ भी आखिरी नहीं होता और न जीवन में कुछ प्रारम्भ होता है। ये अंत और प्रारम्भ, सब मनोवैज्ञानिक झमेला है। प्रकृति का चक्र इतना भरमाता है कि कभी अंत और प्रारम्भ का अंतर दिखता है तो कभी अंत और प्रारम्भ एक-दूसरे में विलीन हो जाता है। यही कभी मेला लगता है तो कभी झमेला। 1950 में एक फिल्म आई थी 'मेला'। बाद की पीढिय़ों ने भी वह फिल्म देखी और उस फिल्म का गीत सबकी जुबान पर रहा, 'ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे'। दरअसल संगीतकार नौशाद अथक संघर्षों के बाद जब मुम्बई की फिल्मी दुनिया में स्थापित हो गए तब वे अपने घर लखनऊ लौटे तो उनका पुराना लखनऊ उन्हें गायब मिला। यहां तक कि जिस मेले को देख-देख कर नौशाद बड़े हुए थे, वह मेला भी गायब था। किसी ने उन्हें बताया कि अब मेला नहीं लगता। उन्हें बेहद अफसोस हुआ। तब उन्होंने 'मेला' फिल्म के लिए खास तौर पर वह गीत चुना और उसकी धुन बनाई। फिल्म में मेले के दृश्य में एक गरीब इकतारा बेचने वाले के मुंह से वह गीत गवाया...'ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे'। 'मेला' फिल्म की कथा भी नौशाद ने ही लिखी थी, जो उन्होंने अपनी जिंदगी के अनुभवों और संस्मरणों की स्याही से लिखी थी। ...अब वे तो नौशाद साहब थे, महान संगीतकार। संगीत में तो ईश्वर बसता है, वे तो उस पहुंच के व्यक्तित्व थे। लेकिन फिल्मों को तो बाजार में चलाना होता है, लिहाजा उसका भौतिक पक्ष होता है। फिल्मों को बिकना होता है। इसलिए बाजार में बिकने के लिए खड़े किसी उत्पाद को यह तो कहना ही पड़ेगा कि जिंदगी के मेले दुनिया में ऐसे ही चकाचौंध चलते रहें और नई पीढिय़ों को उन रौशन मेलों में शरीक रहने का उत्साह बढ़ाते रहें। लेकिन असली सीख तो यही है न कि हम मेले में मुब्तिला ही न हों कि हमें कोई अफसोस हो! कि उस चकाचौंध में खुद के नहीं होने पर अफसोस जताने की नौबत ही न आए। आप दुनिया पर नजर डालें। अलग-अलग, किस्म-किस्म के मेले ही तो चल रहे हैं हर तरफ। वोट का मेला, नोट का मेला, चोट का मेला, खोट का मेला... क्या आप या कोई भी, इन मेलों में खुद को लिप्त करना चाहेंगे? जो सत्य के पक्ष में खड़ा होगा, वह इन मेलों से दूर खड़ा होगा। तो वह भला क्यों रोएगा 'अफसोस हम न होंगे'? आप सोचें तो मेला और भीड़ आपको एक जैसा ही लगेगा। भीड़ के बिना मेला नहीं और मेले में भीड़ नहीं तो मेला क्या! इससे कुछ भी सार्थक नहीं पाया जा सकता। इससे बस राजनीति पाई जा सकती है। पॉकेटमारी पाई जा सकती है। पैसा पाया जा सकता है। दुकान चलाई जा सकती है। हमारे नेता से लेकर हमारे पूंजी प्रतिष्ठान और हमारा समाज तक चाहता है कि हम सब मेले में लिप्त रहें। हम अपनी अलग पगडंडी न बनाएं। जो अकेला चलता है तो बाकी सब उससे नाराज हो जाते हैं। सब भेड़-बकरियों को पसंद करते हैं क्योंकि भेड़-बकरियों पर आसानी से कब्जा हो जाता है। सिंह अकेला चलता है। उस पर कोई स्वाभाविक नियंत्रण नहीं कर सकता। सिंह पर नियंत्रण करने के लिए सिंहत्व आवश्यक होता है। अपने पथ पर अकेले चलने वाले सिंहों-शेरों को यह थोड़े ही महसूस होता है कि हाय मेरा मेला छूट गया, कि हाय मुझे इसका अफसोस है! जे कृष्णमूर्ति का नाम तो आप सबने सुना ही होगा। उन्होंने कहा था, 'असत्य को असत्य जान लेना सत्य को जानने की भूमिका पैदा कर लेना होता है।' हम मेले का असत्य जान लें तो अफसोस से उबरने का सत्य पैदा होने लगता है, लेकिन इस काम में मुश्किल बहुत है। यूनान में एक बड़े चित्रकार-मूर्तिकार थे। बड़े कमाल के कलाकार थे। उनकी कृतियां असली को मात देती थीं। उन्होंने सुन रखा था कि मौत आती है तो कोई यम आकर उठा कर ले जाता है। तो उन्होंने अपनी ही दस मूर्तियां और बना लीं। कोई फर्क नहीं कर सकता था कि कौन असली कौन नकली। मौत आई। पर असली मूर्तिकार कौन, पहचान नहीं पाई। सब एक जैसे थे। कौन असली है, पता करना मुश्किल था। मौत लौट गई। परमात्मा को जाकर कहा कि बहुत मुश्किल है। ग्यारह आदमी एक जैसे हैं। हे ईश्वर आपने तो कभी एक जैसे दो आदमी नहीं बनाए। लेकिन वहां तो ग्यारह लोग एक ही जैसे हैं। परमात्मा हंसे और मौत के कान में एक सूत्र बुदबुदाए। मौत वापस लौटी। वह आकर कमरे में खड़ी हुई। उसने चारों तरफ नजर डाली और बोली, सब तो ठीक है, पर एक भूल रह गई। मूर्तिकार बोल उठा, 'कौन सी'? बस, मौत ने कहा, 'यही कि तुम अभी अपने आप को नहीं भूले हो। चलो अब बाहर निकलो और मेरे साथ चलो।' ...हम अगर मिट जाने का बोध ले आएं तो हमें मौत भी झांसा नहीं दे पाएगी। हम मेले में रहें कि झांसे में, एक ही बात है। मेले का मोह त्यागें और जीवन पथ को अकेले रौंदने के लिए बस चल पड़ें...

संसद शर्मसार न कभी पहले हुई न अब...

प्रभात रंजन दीन
तेलंगाना बिल को लेकर लोकसभा में गुरुवार को जो दृश्य दिखा, वह नागवार तो था, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं था। जिस तरह के या जिस स्तर के सांसद या विधायक चुन कर आ रहे हैं या हम जिस स्तर के जनप्रतिनिधि चुन कर संसद या विधानसभाओं में भेजते हैं, उनसे और क्या उम्मीद कर सकते हैं! हम सब कहते रहें कि सांसदों की ऐसी हरकत से लोकसभा शर्मसार हो गई या पूरा देश ही शर्म से दोहरा हो गया। लेकिन यह सब लिखने और कहने की बातें हैं। कोई संसद इन हरकतों से नहीं शरमाई और कोई देश इससे नहीं शरमाया। जबसे संसद का गठन हुआ और जबसे विधानसभाएं बनीं, तबसे आज तक जिस तरह की हरकतें जनप्रतिनिधियों ने की हैं, उससे जब देश नहीं शरमाया तो मिर्च का पाउडर छिड़कने से क्या शरमाएगा! संसद या विधानसभाएं जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार, चोरी-चकारी, अनैतिक आचरण और घटिया तिकड़मों से नहीं शरमाईं और मिर्च पाउडर से शरमा गईं... यह बात भी बहुत शर्मनाक है। पिछले दस साल का ही उदाहरण हम सामने रखें, कितने दिन प्रधानमंत्री को शर्म आई, जब संचार, खेल, कोयला, हेलीकॉप्टर जैसे तमाम घोटालों की झड़ी लगी रही? इन घोटालों पर केंद्र सरकार चलाने वाली कांग्रेस पार्टी को कितनी बार शर्म आई? ऐसी करतूतों पर विपक्षी दलों को कितनी शर्म आई? सांसदों को कितनी शर्म आई? ...और अगर मंत्रियों के ऐसे निकृष्ट आचरणों पर शर्म आई तो इतने दिन संसद कैसे चली? शर्मो-हया की बातें बेकार हैं, कम से कम संसद और विधानसभाओं पर यह लागू नहीं होती। कोई मिर्ची पाउडर पर लगा पड़ा है तो कोई तेलंगाना पर तो कोई 13 की तारीख को ही मनहूस बताने पर तुला पड़ा है। इन 'तेरहवादियों' का कहना है कि संसद में मिर्च पाउडर उछालने की घटना 13 फरवरी को हुई। संसद पर हमला 13 दिसम्बर को हुआ था। भाजपा की एक बार की सरकार 13 दिन चली थी, वगैरह वगैरह। मूल मुद्दे से किसी का वास्ता ही नहीं। कोई पूछ नहीं रहा कि देश को क्यों तोड़ रहे हो भाई? क्यों इसके टुकड़े-टुकड़े करने पर आमादा हो? सत्ता का उपभोग करने के लिए राज्यों को केक समझ रखा है क्या आपने कि उसे लगातार काटते और खाते चले जा रहे हैं? एक तो सत्ता का उपभोग करने के लिए तथाकथित आजादी दिलाने के नाम पर देश को तोड़ डाला गया। उसके बाद राज्यों के विलय और एकता के प्रयास हुए, लेकिन राजनीति की घटिया नस्लीय उत्पाद ने उन राज्यों को भी छोटे-छोटे हिस्सों में बांटना शुरू कर दिया। आप सबको पता ही होगा कि जिस समय देश आजाद हुआ या ऐसा भी कह सकते हैं कि जब अपना देश दो हिस्सों में बंटा तब 1947 में देश में 500 से अधिक छोटी-बड़ी रियासतें थीं जिनका सरदार पटेल ने भारत में विलय कराया। हैदराबाद का देश में विलय 17 सितम्बर 1948 को हुआ। 1952 में पोट्टी श्रीरामुलू ने आंध्रप्रदेश के लिए व्रत रखा और शहीद भी हो गए। इस उत्सर्ग के आगे झुकते हुए जवाहर लाल नेहरू ने 19 दिसम्बर को आंध्रप्रदेश राज्य के गठन की घोषणा की। 1956 में राज्यों के भाषाई आधार पर पुनरगठन में तेलुगू भाषी जिलों को मिलाकर आंध्रप्रदेश का गठन करके हैदराबाद को राजधानी बना दिया गया। खैर, राज्यों के विभाजन के पीछे यह तर्क दिया गया कि इससे विकास को गति मिलेगी। लेकिन साबित यह हुआ कि इससे राज्यों का विकास तो नहीं ही हुआ, नेताओं का विकास जरूर हो गया। हाल में उत्तर प्रदेश को तोड़ कर बने उत्तराखंड, मध्यप्रदेश को खंडित कर बने छत्तीसगढ़ और बिहार को तोड़ कर बनाए गए झारखंड का क्या हुआ? नेताओं की तिजोरियां भरती गईं और उन राज्यों का हाल और भी बदतर होता चला गया। छोटे राज्यों से विकास और सुशासन की धारणा कभी पूरी ही नहीं हो पाई, यह केवल नेताओं की सत्ता लिप्सा और अर्थ लोलुपता की ही तुष्टि करने का माध्यम बनता रहा। ...और यह सिलसिला थमने का नाम भी नहीं ले रहा। उत्तर प्रदेश को और भी छोटे-छोटे टुकड़ों में तोडऩे की साजिशी-सियासत चल रही है। इस मामले में मायावती उत्तर प्रदेश की मौलिकता की कुछ अधिक ही शत्रु साबित हो रही हैं। थोड़ा पीछे जाएं तो आपको स्मरण हो आएगा कि 2004 में आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी ने तेलंगाना आंदोलन को करीब-करीब समाप्त ही कर दिया था। 2009 में चंद्र बाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी व चंद्रशेखर राव की तेलुगू राष्ट्र समिति की हार से भी समझा जा रहा था कि तेलंगाना मसला दम तोड़ चुका है। लेकिन राजशेखर रेड्डी के मरने के बाद चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना की मांग पर फिर से अनशन-आंदोलन शुरू कर दिया। केंद्र की कांग्रेस सरकार को भी सियासत सेंकने का मौका मिल गया और केंद्र सरकार ने अलग तेलंगाना बनाने की कानूनी प्रक्रिया भी शुरू कर दी। इसके लिए श्रीकृष्ण समिति भी गठित की गई और 6 जनवरी 2011 को इसकी रिपोर्ट आने के बाद तेलंगाना फिर से गरमा गया। आंध्रप्रदेश के लोगों का बड़ा तबका राज्य के बंटवारे के पक्ष में नहीं है। लेकिन कुछ लोग अलग तेलंगाना चाहते भी हैं। इस सियासत में कूदते हुए 30 जुलाई 2013 को कांग्रेस कार्यकारिणी ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करके केंद्र सरकार से तेलंगाना राज्य के गठन का अनुरोध किया और मनमोहन सिंह कैबिनेट ने पांच दिसम्बर 2013 को अलग तेलंगाना राज्य के विधेयक के प्रारूप को मंजूरी दे दी। इसी विधेयक को जब 13 फरवरी को संसद में पेश किया गया तो इसके विरोध में मिर्च का पाउडर उड़ा और अचानक पूरी संसद शर्म से दोहरी हो गई। जबकि विचार यह होना चाहिए कि अलोकतांत्रिक फैसले लेने वाली संसद देश को विघटन के कगार पर क्यों ले जा रही है? छोटे-छोटे राज्यों का गठन देशभर में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल सृजित करेगा। देशभर में हर राज्य से अलग राज्य की मांग उठने लगेगी। इसी तरह छोटे राज्यों का गठन होता गया तो वह दिन दूर नहीं जब देश का हर जिला एक राज्य के रूप में खड़ा हो जाएगा। भारतवर्ष को फिर से छोटे-छोटे कमजोर रजवाड़ों और सामंती कबीलों में तब्दील करने की यह साजिश है। यह देश नेताओं की बपौती नहीं है। इसे समझाने के लिए नागरिकों को संगठित होना होगा और ऐसी सत्याग्रही स्थिति ला देनी होगी कि कोई राजनीतिक दल या नेता ऐसी हरकत करने से बाज आए। नेता कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते चले गए और सत्ता का उपभोग करने के लिए वे राज्यों को छोटा से छोटा बांटते चले गए। राज्यों के बंटवारे से नेता, नौकरशाह, पूंजीपति और दलालों की तो लॉटरी खुल गई, जबकि आम आदमी और भी बदहाली की स्थिति में धंसता चला गया। आम नागरिक यह अच्छी तरह जानता-समझता है कि राज्य के टुकड़े क्यों किए जा रहे हैं। इसके पीछे नेताओं की मंशा क्या है। जितने राज्य उतने मुख्यमंत्री, उतने मंत्री, उतने अधिकारी और लूट का उतना ही अवसर। बस, राज्यों के बंटवारे के पीछे और कोई आधार नहीं। हम टूटते चले जाने के लिए तैयार रहें, या हम इसे रोकें, दोनों हमारे ही हाथ में है...

तो आएं हम सब एक दूसरे पर थूकें...


प्रभात रंजन दीन
आओ आसमान पर थूकें... पुरानी कहावत है ये, लेकिन अब पूरी शिद्दत से लागू हो रही है। भारतीय समाज पर तो खूब ही चलन है इसका। हम अपना ये जो चेहरा बदनुमा बनाए हुए घूम रहे हैं, यह हमारा ही तो है जो हमने आसमान पर फेंका था और वापस हमारे ही चेहरे पर आ गिरा और स्थाई भाव से चस्पा हो गया! जिसे देखो वही आसमान पर थूक रहा है और खुद को आसमान से ऊंचा समझ रहा है। एक विचित्र मनोविज्ञान घर कर गया है दिमाग में कि ऊंचे पर थूको और ऊंचे हो जाओ। ऊंचाई का ऐसा स्खलन शायद कभी किसी और दौर में पहले न हुआ हो। 1947 से लगातार थूकते चले आ रहे हैं। उसके पहले भी थूकते ही रहे, तभी तो मुगलों के गुलाम रहे और फिर अंग्रेजों के दास हो गए! अपने सरोकारों पर थूकते, अपने चरित्र पर थूकते, अपनी संस्कृति पर थूकते हुए हम आगे बढ़े हैं। हमें अपने थूकने की मेधा पर गौरव है। इसी योग्यता के कायल होकर मुगलों ने हमारे देश, समाज और घर की ऐसी-तैसी की और उसके बाद अंग्रेजों ने बाकी की कसर पूरी की। हम इतना थूके कि अब पूरी दुनिया हम पर थूकने लगी। अब तो दुनिया घूम आएं, थूकने का आमंत्रण आपको भारतवर्ष में ही देखने को मिलेगा। गलियों और चौबारे थूक और पीक से सने तो मिलेंगे ही, आपको यत्र-तत्र-सर्वत्र ऐसे आदेश-आग्रह-मनुहार से भरे पोस्टर दरो-दीवार पर चस्पा नजर आएंगे जिसमें आपको बुलाया जाता है कि 'कृपया यहीं आकर थूकें'। लेकिन फिर भी हम यह मनुहार नहीं सुनते और कहते हैं कि हम तो अपने पर थूक ही रहे हैं, वहां आकर क्यों थूकें? अंग्रेजों के गए हुए भी अर्सा हो गया। जिन अंग्रेजों ने भारत पर राज किया उनकी संततियों ने सोचा कि अपने पुरखों के कब्जे में रहे देश का हाल देख कर आया जाए। तो कुछ फिरंगी भारत आए। सुबह पहुंचे और शाम होते-होते बेहाल हो गए। किसी ने पूछा कि यह बेहाली क्यों? उन्होंने कहा कि सुबह से शाम तक वे थूकते-थूकते परेशान हो गए। अब तो गला सूख गया है। अब तो थूक ही नहीं निकल रहा। तब पता चला कि माजरा क्या है। दरअसल वे जहां जाते, हर जगह लिखा मिलता 'कृपया यहां थूकें'। अब इतना मनुहार, तो वे कैसे नहीं थूकते। आधुनिक अंग्रेजों ने भी सोचा कि भारत की आधुनिक संस्कृति यही होगी। 'थूको संस्कृति'... तो थूको यत्र-तत्र-सर्वत्र। थूकते-थूकते गला दुख गया तो शाम को ही वे वापस इंग्लैंड रवाना हो गए, यह कहते हुए कि 'तुम्हें मुबारक तुम्हारा थूक।' ऐसे ही वाकयों के बाद शायद पूरी दुनिया में भारत के प्रति थू-थू बढ़ गई है। कहीं पढ़ रहा था कि भारत से कुछ लोग इसी एशियाई क्षेत्र के एक देश सिंगापुर घूमने गए। घूमने क्या गए, थूकने को तरस गए। कहां तो आदत थी सब तरफ थूकने की, और वहां सख्ती थी, कहीं नहीं थूकना है। तो जैसे अंग्रेज थूकने से आजिज होकर लौट गए थे, वैसे ही भारतीय नहीं थूकने से आजिज होकर वापस भारत लौट आए। जैसे ही भारत में एयरपोर्ट पर पग धरा... पच्च...। बड़ी राहत मिली। थूक मुंह से पिचकारी की तरह निकला और उसके बाद मुंह से ध्वनि उच्चरित हुई 'आह'। ऐसी राहत क्या कहीं और मिल सकती है! एशियाई देश में थूक से इतना परहेज तो अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय देशों में क्या होता होगा! कई देशों में थूको तो जुर्माना भरो। लेकिन अपना देश 'आह' और 'वाह' दोनों ही। यहां तो नहीं थूके तो आगे जुर्माना भरना होगा। नेता तो संसद और विधानसभा तक में थूकते हैं। थूको संस्कृति के कारण ही भारत में थूक पर कहावतें भी खूब गढ़ी गईं। मसलन, आसमान पर थूकना, थूक कर चाटना, हथेली पर थूकना, थाली में थूकना, उपकार पर थूकना, पैसे पर थूकना, खून थूकना, गुस्सा थूकना, थूक निगलना, थुक्कम फजीहत कराना वगैरह वगैरह...। तो आएं हम सब एक दूसरे पर थूकें, थोड़ा मुंह उठा कर थूकें और खुद को महान समझने का भाव भर लें और उसे भी किसी के व्यक्तित्व पर थूक दें...