Tuesday 18 February 2014

मठ वाले अधीशों के खिलाफ महाभारत की मुनादी है...

प्रभात रंजन दीन
आप कैसे तय करेंगे कि कौन सा शब्द ब्रह्म है और कौन सा शब्द यम! आप यह कैसे तय करेंगे कि कौन सा शब्द पूर्ण सच है और कौन सा शब्द पूर्ण भ्रम! आप यह कैसे तय करेंगे कि कौन सा शब्द देवात्मिक है और कौन सा शब्द दुष्टात्मिक! शब्द के शोर में, शब्द के जोर में, शब्द की भीड़ में, शब्द के बाजार में जब ब्रह्म पर भ्रम, सच्चाई पर ढिठाई और मर्यादा पर निर्लज्जता आरोहित हो जाए तो सात्विक मौन का सृजन होता है। आंतरिक मौन। इसीलिए शायद मौन को सबसे सशक्त माना है ध्यानियों ने। सबके जीवन में कभी न कभी कोई ऐसा आंदोलन घटता है, जो जीवन को चमत्कृत भी कर देता है और सार्थक भी। ऐसा आंदोलन भोथरी आंखों को भौतिक दिखता है लेकिन मन की आंखों से देखने-समझने वालों के लिए ऐसा आंदोलन ईश्वर के पुरस्कार की तरह घटता है, बिल्कुल प्राकृतिक, नितांत नैसर्गिक, कैक्टस के फूल की तरह जो एक-डेढ़ दशक में कभी-कभार अचानक ही ईश्वर के प्रकट हो जाने की तरह खिलता है और देखने वाले को रोमांच से भर देता है। कांटों से भरे जीवन के कैक्टस में इसी तरह का फूल खिला है दो-ढाई दशक की लम्बी ध्यान-यात्रा के बाद। सृजनात्मक आंदोलन जैसा घटित हो गया एक पल में। पत्रकारीय प्रतिष्ठा और सिद्धांतों को भौतिक धरातल पर उतारने और उसे जीवन-व्यवहार में लाने के मसले पर सम्पादक से स्वीपर तक एक साथ मुट्ठियां बांध ले, ऐसा कभी सुना है आपने! सम्पादक से लेकर स्वीपर तक के सारे भेद प्रकृति एकबारगी मिटा दे, तीन दर्जन लोगों की संख्या एक बृहत्तर शून्य में तब्दील हो जाए, कौन किस पद का, कौन किस वर्ग का, कौन किस जाति का, कौन किस धर्म का... यह भेद एक-दूसरे में विलीन हो जाए, कभी सुना है आपने ऐसा! ऐसे ही बृहत्तर शून्य की शक्ति से पत्रकारीय संसार का एक छोटा सा हिस्सा अपने अस्तित्व को झंकृत होते हुए देखने का गवाह बन बैठा। यह शून्य की ही तो यात्रा थी कि छोटे-छोटे हित और तुच्छ स्वार्थों को साधने की विधा की विशेषज्ञता के चकाचौंधी वर्चस्व का मोह ठोकरों से ठुकरा कर सब एकबारगी शून्य में आ गए! प्रकृति एक तरफ कुछ और करा रही थी और दूसरी तरफ कुछ और रच रही थी। भौतिक दुनिया में जो लोग व्यक्तिपरक सुविधाएं और निजी हित-लक्ष्य साधने में लगे रहते हैं, उनके लिए यह आत्मचिंतन, विश्लेषण और शेष के लिए शोध का विषय है कि जिसने भी दूसरों के हित अपने हितों के साथ समायोजित किया, प्रकृति तत्क्षण उस समग्र हित-चिंता को अपने साथ समाहित कर लेती है। यही वजह है कि प्रकृति एक दिशा में ऊर्जा को संगठित कराने का जतन कर रही थी तो दूसरी तरफ उसका विघटन करा रही थी। उत्तर प्रदेश के ऊर्जावान पत्रकारों की एक बड़ी टीम प्रकृति की इसी प्रक्रिया से गुजरते हुए 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' में संगठित हो गए। प्रकृति ने इस आंदोलन के लिए आंदोलन को स्वर देने वाले अखबार 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' को चुना। एक आंदोलन दूसरे आंदोलन के साथ समाहित होकर विषद सृजनात्मक शक्ति के साथ संघर्ष यात्रा पर निकल पड़ा। जिसे अंधे सुरंग में गिरने के लिए उद्धत कदम बताए जाने का शोर था, वह शून्य-शक्ति के प्रभावकारी उत्पादक परिणाम के रूप में अभिव्यक्त होकर बाहर आ गया, उसके लिए जवाबी शोर की जरूरत थोड़े ही थी! पत्रकारिता के इतिहासमें... या हम इतिहास-भूगोल के चक्कर में क्यों पड़ें, बस यह दुर्लभ आंदोलन घट गया और स्थापित कर गया कि सकारात्मक ऊर्जा प्रकृति के अभिभावकत्व में संरक्षित रहती है। जिसने इस घटना को भोथरी आंखों से देखा और आंका, उसके जीव-शरीर की अवधि अभी शेष है। ...और जिसने इसका सात्विक भाव पहचाना, वह उसी सकारात्मक ऊर्जा का अंश है, वह चाहे कहीं भी, किसी भी कर्म में ध्यानस्थ हो। हम उस जमात का हिस्सा नहीं जो दुर्नीति पर चलते हैं और नीति पर बहस चलाए रखते हैं। दुराचार करते हैं और सदाचार की चर्चा चलाए रखते हैं। हम तो उस जमात के हैं जो सांस लेनेभर के लिए भी सख्त से सख्त चट्टानें तोड़ कर हवा बना देते हैं। वैन गॉग कहते थे कि हम जो करते हैं उसे ईश्वर देखता है, कोई और देखे या न देखे, इससे क्या फर्क पड़ता है। ...हम भी शब्दरचनाधर्मिता के संसार के सक्रिय सदस्य हैं और अपनी कला ईश्वर को सुपुर्द कर देते हैं, कोई और देखे या न देखे, इससे क्या फर्क पड़ता है। निजी सुख-सुविधाओं का ईंट-गारा तो हम भी लगा कर मठ बना लेते। जिंदगी की तरह स्वभाव को भी तम्बू बना लेने और जब मर्जी आए इसे उखाड़ कर कहीं और ले जाने का हठ... उन तमाम मठ वाले अधीशों के आगे महाभारत की मुनादी है।
...मैं भी चाहता तो बच सकता था / मगर कैसे बच सकता था / जो बचेगा / कैसे रचेगा? / न यह शहादत थी / न यह उत्सर्ग था / न यह आत्मपीड़न था / न यह सजा थी / किसी के भी मत्थे मढ़ सकता था / मगर कैसे मढ़ सकता था / जो मढ़ेगा / कैसे गढ़ेगा...? 
मित्रो! यह विचित्र काल है या कहें कि यह अकाल है, जिसके हम साक्षी तो हैं, लेकिन उसका बंधुआ होने से हम इन्कार करते हैं। हम आखिरी समय तक अपने सपने के फूल अपनी चैतन्यता के गमले में सींचते रहेंगे, उसे मुरझाने नहीं देंगे। अपने अस्तित्व-यंत्र में ऊर्जा का उत्पाद जारी रखेंगे। रग-रग में, शिरा-शिरा में आंदोलन का गर्म लहू दौड़ाते रहेंगे। अपने हृदय के तलघर में निरंतर चल रहे प्रिन्टिंग प्रेस में नैतिक उम्मीदों के परचे छापते रहेंगे और आपसे बांटते रहेंगे... जो भी इस आंदोलन की धारा के हैं वे साथ दें... 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' अखबार नहीं, आपका प्रवक्ता होगा, यह ऐलान करता हूं...

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