Friday 4 November 2022
यूपी का 'सौर' भ्रष्टाचार के 'ठौर'...
Friday 26 August 2022
अभिमन्यु अपने ‘रिश्तेदारों’ के चक्रव्यूह में फंस गया है
(हिंदी दैनिक 'शुभ-लाभ' के हैदराबाद और बंगलुरू संस्करण में प्रकाशित)
- केसीआर, ओवैसी और भाजपा के हाथ मिले हुए हैं -- अभिमन्यु अपने ‘रिश्तेदारों’ के चक्रव्यूह में फंस गया है -
- टी. राजा सिंह की दोबारा गिरफ्तारी से उठे गंभीर सवाल: शासन, प्रशासन, संविधान और कानून किसका है..?
प्रभात रंजन दीन
तेलंगाना राज्य के गोशामहल विधानसभा क्षेत्र को प्रतिनिधित्व देने वाले भाजपा विधायक टी. राजा सिंह को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के आदेश और उनके करीबी असदुद्दीन ओवैसी के दबाव में अदालत के जमानत-आदेश की उपेक्षा करके राजा सिंह को दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया। इस देश और प्रदेश में संविधान और कानून की इज्जत का सच यही है। ओवैसियों के दबाव पर राजा सिंह को दोबारा गिरफ्तार करने के लिए पुलिस ने पुराने मामले निकाले और उस पर प्रिवेंटिव-डिटेंशन (पीडी) एक्ट का भारी-भरकम मुलम्मा चढ़ा कर उन्हें अंदर कर दिया।
इस बात का पूरा अंदेशा है कि केसीआर के आदेश और ओवैसी के दबाव के पीछे भाजपा का प्रभाव काम कर रहा है। भाजपा आलाकमान पर हावी एक नेतृत्व-वर्ग टी. राजा सिंह के तेजी से बढ़ते कद को पचा नहीं पा रहा था, इसलिए राजा सिंह के राजनीतिक भविष्य को नष्ट करने की साजिशी-सियासत चल रही थी। 2023 में तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होने हैं। सोच-समझ कर और पूरी तैयारी से टी. राजा सिंह को दोबारा गिरफ्तार करने के लिए बाकायदा व्यूह-रचना की गई। इसी व्यूह-रचना के तहत राजा सिंह पर प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट लादा गया। इस एक्ट में गिरफ्तार हुए व्यक्ति को एक साल तक जमानत नहीं दिए जाने का प्रावधान है। वर्ष 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं। तेलंगाना सरकार राजा सिंह को रिहा नहीं होने देगी और भाजपा राजा सिंह को टिकट नहीं लेने देगी। अभिमन्यु अपने ‘रिश्तेदारों’ के ही चक्रव्यूह में फंस गया है।
बहरहाल, टी. राजा सिंह के जिस वीडियो को लेकर पाकिस्तान परस्त तत्वों ने बवाल मचा रखा है, उस वीडियो को क्या आपने देखा-सुना है? भाजपा के शीर्ष नेताओं ने भी उसे सुना है, ओवैसियों ने भी सुना है और देश-प्रदेश के तमाम लोगों ने भी सुना है। षडयंत्रकारियों के लिए राजा सिंह का वीडियो एक मौका था। अस्थिरतावादी शक्तियों के लिए वह ईश-निंदा का औजार था और आम जन के लिए वह एक नागरिक का स्वाभाविक गुस्सा था। उस वीडियो में हास्य कलाकार मुनव्वर फारूकी के प्रति राजा सिंह का गुस्सा अभिव्यक्त हो रहा है। फारूकी के खिलाफ राजा सिंह असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल भी कर रहे हैं, लेकिन उसके पीछे के आशय को भी समझना उतना ही जरूरी है। मुनव्वर फारूकी हिंदू देवी-देवताओं का खुलेआम मजाक उड़ाता है, उस पर गुस्सा आना स्वाभाविक है। टी. राजा सिंह के मुंह से वह गुस्सा अभिव्यक्त भी होता है। लेकिन यह गुस्सा तब और प्रगाढ़ हो जाता है जब ईश-निंदा का आरोप लगा कर मुसलमानों द्वारा बवाल खड़ा किया जाता है। क्या हिंदुओं, सिखों, ईसाईयों या अन्य धर्मावलंबियों की आस्था पर उंगली उठाना, मजाक उड़ाना, नंगी तस्वीरें बनाना और टीवी-डिबेट्स में निंदा प्रस्ताव जारी करना ईश-निंदा के दायरे में नहीं आता? अभिव्यक्ति क्या केवल एक समुदाय के लिए आरक्षित है? तब क्या यह पूछना गलत है कि जैसा बर्ताव करोगे वैसा ही बर्ताव प्राप्त करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए? राजा सिंह के वीडियो में मुनव्वर फारूकी के अलावा किसी का नाम नहीं लिया गया है। मुनव्वर फारूकी के निंदनीय आचरण के खिलाफ असंसदीय शब्दों के इस्तेमाल की मानहानि-कानून के तहत सजा हो सकती थी, लेकिन क्या मुनव्वर फारूकी के लिए कहे गए शब्दों को ईश-निंदा के दायरे में जबरन घसीटा जाना उचित है? ईश-निंदा के इस तरह के सड़क छाप इस्तेमाल से क्या आस्था की प्रतिष्ठा बढ़ती है? टी. राजा सिंह के वीडियो की बात तो छोड़िए, भाजपा की प्रवक्ता रही नूपुर शर्मा के टीवी डिबेट का ध्यान करिए, नूपुर के बोलने के पहले टीवी डिबेट में शामिल मुस्लिम-स्वयंभुओं ने हिंदू देवी-देवताओं को क्या नहीं कहा! इससे आजिज आकर नूपुर शर्मा ने इस्लामिक धर्मोपदेशक जाकिर नाइक के हवाले (रेफरेंस) से कुछ बातें कहीं। उस पर भी ऐसी पतंग उड़ाई गई कि उसके हिंसक-धागे से जाने कितने लोगों की गर्दनें कट गईं। क्या यही धर्म है? क्या ऐसे निकृष्ट कृत्यों से धार्मिकता के प्रति सम्मान बढ़ता है? यह धार्मिकता का विस्तार है या डर-मिता का? इसे बौद्धिकता से सोचना चाहिए। और अगर बौद्धिकता हो तो यह भी सोचना चाहिए कि धार्मिकता दरअसल होती क्या है!
आइये हम टी. राजा सिंह के प्रकरण में संविधान और कानून के सम्मान की ही बात करते हैं। यह बिल्कुल हथकंडा हो गया है कि शाहीनबाग घेरना हो तो बाबा साहब अम्बेडकर की फोटो और तिरंगा झंडा लेकर बैठ जाएं और आम जनजीवन तबाह कर दें। फिर उसी संविधान की रुदालियां गाने वाली जमातें विदेशी अतिथि के भारत आने पर राजधानी दिल्ली में हिंसा का नंगा नृत्य करने लगें। क्या यही संविधान की प्रतिष्ठा है? या यह संविधान और तिरंगे का शातिराना इस्तेमाल है? हमें इस फर्क को समझना भी है और उसे सार्वजनिक रूप से उजागर भी करना है। यह भारत के नागरिक का मूल कर्तव्य है।
खंडित आजादी के बाद से भारत के लोगों को अधिकार की ही घुट्टी पिलाई गई। विद्वान संविधान निर्माताओं को नये-नये आजाद हुए देश में कर्तव्य कितना जरूरी है, यह याद ही नहीं आया। संविधान पर अधिकारों की लंबी चौड़ी लिस्ट चस्पा कर दी, लेकिन संविधान से कर्तव्य गायब हो गया। इसीलिए तो कर्तव्यहीनों की जमातें भारत की सड़कों पर पाकिस्तानी नारे लगाती नजर आती हैं! देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब रूस गईं तो उन्हें रूस के राजनयिकों ने कहा कि यह कैसा संविधान है, जिसमें कर्तव्य शामिल न हो! भारत लौटने के कुछ ही दिनों बाद 1975 में इंदिरा गांधी ने 42वें संशोधन के जरिए कर्तव्य का अनुच्छेद जोड़ा... लेकिन उसी संशोधन में धर्म-निरपेक्ष शब्द जोड़ कर आने वाली पीढ़ियों को छद्म-शब्दावलियों के घोर-अंधकार में धकेल दिया। देश में धर्म-निरपेक्षता का इस्तमाल इस कदर कुचक्र के रूप में हुआ कि इस शब्द के असली अर्थ को अनर्थ में बदल डाला गया। ...और उसी संशोधन के जरिए संविधान में जोड़े गए मूल-कर्तव्य के प्रति आपराधिक उपेक्षा का भाव कुसंस्कार में भर गया। संविधान में निहित मूल-कर्तव्य कहता है कि प्रत्येक नागरिक का दायित्व है कि वह देश की प्रभुता, एकता, अखंडता और संस्कृति की रक्षा करने और उसे अक्षुण्ण रखने के लिए प्रतिबद्ध हो... इस मूल-कर्तव्य के निर्वहन के लिए आपने देश-विरोधी तत्वों के खिलाफ बोला भी तो आप अपने सिर के तन से जुदा होने के नारे सुनने लगेंगे, या शायद सुनने के लिए बचे रह भी न पाएं। क्या मूल-कर्तव्य इसी परिणति को प्राप्त होने के लिए संविधान में शुमार किया गया था?
चलिये, हम संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों की ही बात करते हैं। हालांकि संविधान के भाग-3 में शामिल अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकार, मौलिक नहीं हैं, वे संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिए गए हैं। बहरहाल, वे अधिकार भी देश में समग्रता, निष्पक्षता और सत्यता से कभी लागू नहीं हुए। मौलिक अधिकार के अनुच्छेद कुछ खास लोगों के अधिकार-क्षेत्र में बंधक हो गए। समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म और संस्कृति की स्वतंत्रता का अधिकार क्या देश के सभी लोगों पर समान रूप से लागू है? क्या ये मौलिक अधिकार हमें या आपको प्राप्त हैं? क्या हम समान हैं? क्या हमें स्वतंत्रता का समान अधिकार प्राप्त है? क्या हमें अपने धर्म, अपनी संस्कृति और परम्परा की अभिव्यक्ति और रक्षा का समान अधिकार प्राप्त है? ये सवाल मैं आपके समक्ष छोड़ता हूं... आप चिंतन-मनन करिए, वास्तविक स्थितियों की गहराई से समीक्षा करिए तो आपको इसका जवाब मिल जाएगा। हां, इसका जवाब टी. राजा सिंह दे सकते हैं, मुनव्वर फारूकी नहीं। इसका जवाब नूपुर शर्मा दे सकती हैं, हिंदू देवी-देवता की निंदा करके नूपुर को उकसाने वाले मौलाना नहीं। क्या इसे ही समानता का अधिकार कहते हैं?
नूपुर शर्मा प्रकरण में मुस्लिम चिंतक रिजवान अहमद ने एक टीवी डिबेट के दौरान एंकर से पूछा कि अगर सच्चे पत्रकार हो तो बताओ कि नूपुर शर्मा को किन लोगों ने उकसाया (प्रोवोक किया) था। रिजवान अहमद ने कहा था, न मैं नूपुर शर्मा के साथ खड़ा हूं, न ही मैं भाजपा के साथ हूं, न मैं मुसलमानों के साथ खड़ा हूं और न ही मैं दो कौड़ी की सेकुलर पार्टियों के साथ खड़ा हूं। वकील आदमी हूं, मैं न्याय के साथ खड़ा हूं। और एक सवाल पूछ रहा हूं, इसका जवाब जरूर देना कि नूपुर शर्मा को किसने उकसाया था? भारतीय दंड विधान की धारा 504 कहती है कि अगर कोई किसी को प्रोवोक करता (उकसाता) है और उसको कोई गलत काम या अपराध करने के लिए विवश करता है तो प्रोवोक करने वाले पर धारा 504 के तहत मुकदमा लिखा जाएगा। इसमें कम से कम 2 साल की सजा का प्रावधान है। क्या नूपुर शर्मा के मामले में ऐसा किया गया? नूपुर शर्मा को पार्टी से निष्कासित कर उसे लावारिस हाल में छोड़ देने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार और संगठन ने इस कानून का इस्तेमाल किया? क्यों नहीं किया? यही बात तेलंगाना के भाजपा विधायक टी. राजा सिंह के मामले में भी लागू होती है। मुस्लिम-तुष्टिकरण की नव-दुष्चेतना में अंधी हो रही भाजपा के आला नेताओं ने टी. राजा सिंह पर कार्रवाई के पहले देश के कानून और संविधान-सम्मत समानता के अधिकार का संतुलन क्यों नहीं स्थापित किया? क्या फिर भी हम सकते हैं कि देश में समानता का अधिकार या समानता का कानून है? यह अधिकार केवल ओवैसी या उनके पीछे सड़कों पर चलने वाली उन जमातों का है जो खुलेआम सिर तन से जुदा के नारे भी लगाते हैं, कानून की धज्जियां भी उड़ाते हैं और सत्ता-सियासतदानों को दबाव में लेकर अपने अधिकार का आनंद भी उठाते हैं... और जमानत होने के बावजूद टी. राजा सिंह को फिर से अंदर भी करा देते हैं। देश का संविधान, कानून और समानता का अधिकार केवल ओवैसियों का है या राजा सिंह का भी है? इस सवाल का जवाब तलाशिये...
Wednesday 3 August 2022
राज्यपाल ने यूपी सरकार की बखिया उधेड़ दी...
Saturday 30 July 2022
...तो अबतक क्या किया हमने..!
मैंने लिखा कुछ भी नहीं, तुमने पढ़ा कुछ भी नहीं...
चाहा कि मैं बहुत सा कहूं,
लेकिन कहा कुछ भी नहीं...
Tuesday 7 June 2022
कड़ा स्टैंड लेने के बजाय भाजपा ने अपनी दबी हुई दुम दिखा दी..!
प्रभात रंजन दीन
अनुच्छेद-370 हटाने, नागरिकता संशोधऩ कानून (सीएए) लाने और तीन तलाक की गंदी परंपरा को समाप्त करने के केंद्र सरकार के फैसले याद हैं आपको..? शाहीनबाग षडयंत्र याद है आपको..? अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के भारत आगमन के समय दिल्ली में फैलाई गई सुनियोजित हिंसा याद है आपको..? अगर वे प्रकरण आपको याद हैं तो आप कानपुर में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की मौजूदगी में हुई सुनियोजित हिंसा के अंतरसम्बन्ध बखूबी समझ रहे होंगे। लेकिन दिक्कत यही है कि हिंदुओं को कुछ समझ में नहीं आता और मुस्लिमों को वे सारी बातें समझ में आती हैं, जिनसे देश अस्थिर होता हो... भले ही उसका सच्चाई से कोई लेना-देना न हो। नागरिकता संशोधन कानून से भारत के मुसलमानों का क्या लेना-देना था..? वह कानून तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में हो रहे धार्मिक-अत्याचार से त्रस्त होकर भारत आने वाले पीड़ितों को नागरिकता प्रदान करने से सम्बन्धित था, फिर क्यों उसके खिलाफ शाहीनबाग घेरा गया और दिल्ली को अराजकता की आग में झोंका गया..? यह सब भारतवर्ष को अस्थिर करने के लिए किया जा रहा है। नूपुर शर्मा तो केवल एक बहाना था, जिसे भाजपा ने संकट के समय में अकेला छोड़ दिया। अगर नूपुर शर्मा या नवीन जिंदल के साथ कुछ भी अप्रत्याशित घटना घटती है तो इसके लिए जिम्मेदार भाजपा का शीर्ष नेतृत्व होगा, जिसने कड़ा स्टैंड लेने के बजाय पूरी दुनिया को अपनी दबी हुई दुम दिखा दी। यह सटीक समय था, जब समान आचार संहिता पर निर्णायक बात होती। इस्लामिक आस्था के खिलाफ टिप्पणी पर सख्त कार्रवाई हो और हिंदू आस्था पर खुलेआम अपशब्दों का इस्तेमाल करने वाला चैन से घूमे, यह देश में अब नहीं होगा... इस्लामिक आस्था के खिलाफ टिप्पणी करने वाला हलाल हो और हिंदू आस्था के खिलाफ बोलने वाले की गर्दन सलामत रहे, देश में अब यह नहीं होगा... खेल के नियम सारे खिलाड़ियों के लिए समान होते हैं, कानून सबके लिए समान होना चाहिए... इसे तय करने का यही समय था। लेकिन भाजपा नेतृत्व ने यह समय बेमानी जाने दिया।
सूचना और मस्तिष्क-शोधन के आधुनिक तौर-तरीकों के इस युग में लड़ाइयां युद्ध के मैदान में नहीं, बल्कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के मैदान पर लड़ी जा रही हैं। भारत के खिलाफ छद्म-युद्ध जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे छद्मी बौद्धिक शिक्षण संस्थानों, संदेहास्पद फंडिग से चलने वाले सामाजिक संगठनों और पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) जैसे आतंकवाद-पसंद संगठनों द्वारा लड़ा जा रहा है। स्टॉक एक्सचेंज में और बायोलॉजिकल रिसर्च लैब्स में लड़ा जा रहा है। नस्लदूषित बुद्धिजीवियों और धर्मदूषित प्रगतिशीलों द्वारा लड़ा जा रहा है। इस लड़ाई में कोई प्रत्यक्ष हथियार नहीं, केवल नैरेटिव्स खड़ा करने यानी दिमागी-शोधन करने के हथकंडों का हथियार बनाया जा रहा है। सोशल मीडिया और इंटरनेट के तमाम फोरम्स पर पोस्ट दर पोस्ट डाले जा रहे हैं, ट्वीट्स हो रहे हैं, डेटा हैकिंग हो रही है, फीशिंग हो रही है। और भी तमाम किस्म के इलेक्ट्रॉनिकी हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। हिंदू आस्था पर खुलेआम किए जा रहे हमलों का जवाब देने का खामियाजा नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल जैसे लोगों को उठाना पड़ता है, जिसका भाजपा भी साथ नहीं देती।
आप गौर से देखें, हम गैर पारंपरिक और गैर सैद्धांतिक युद्ध में किस तरह मुब्तिला हैं। इस युद्ध में हथियारों से कम, अफवाहों से अधिक हमला हो रहा है। ईंट-पत्थरों से हमला हो रहा है। सस्ते संसाधनों का इस्तेमाल कर देश का ज्यादा से ज्यादा नुकसान करने की रणनीति से हमारा सामना हो रहा है। इसे समझना होगा। यह समझना ही होगा कि जब कोई देश आर्थिक रूप से, धार्मिक रूप से, सांस्कृतिक रूप से, बौद्धिक रूप से तोड़ा जा चुका हो, तब उसे जीत पाना काफी आसान होता है। तब दुश्मन देश ऐसे देश-विरोधी तत्वों की सहायता में जुट जाते हैं और इसके माध्यम से टार्गेट वाले देश में पकड़ बनाते हैं। श्रीलंका आपके सामने उदाहरण है। आप क्या समझते हैं श्रीलंका को ऐसे ही कमजोर किया गया..? श्रीलंका को कमजोर करने में अंदरूनी शक्तियां काफी अर्से से लगी थीं और बाहरी शक्तियां उन्हें बाहर से सब तरह की मदद मुहैया करा रही थीं।
ज्ञानवापी परिसर में सर्वे के दौरान शिवलिंग मिला। हिन्दुओं के लिए जो शिवलिंग है, मुस्लिम पक्ष के लिए वह महज एक फव्वारा है। न्यायालय में उसके सारे सबूत प्रस्तुत किए जा चुके हैं। इस खबर को भारतीय मीडिया ने इतने शातिराना तरीके से उछाला कि अदालतें नाराज हो जाएं। टीवी चैनलों ने एक गंभीर धार्मिक इश्यू को मछली बाजार बना कर रख दिया और हिंदू देवी-देवताओं की खुलेआम फजीहतें कराईं। इसी फजीहत का नतीजा था कि नूपुर शर्मा या नवीन जिंदल आक्रोश में आए और उन्होंने सार्वजनिक निंदा प्रस्तावों के बरक्स प्रति-निंदा की भाषा अभिव्यक्त की।
गैर-जिम्मेदार मीडिया, या कहें षडयंत्रकारी मीडिया ने इसे ऐसे हवा दी कि जैसे भूचाल आ गया हो। हिंदू आस्था पर गंदगी फैलाने के कृत्यों पर ये भूचाल नहीं खड़ा करते। मीडिया ने नूपुर शर्मा की बातों को सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत नहीं किया, केवल उसे ताना। नूपुर शर्मा द्वारा दिया गया जाकिर नाइक के इस्लामिक-प्रवचनों का हवाला या हदीस के संदर्भों को मीडिया ने नूपुर के बयान के साथ समग्रता से प्रस्तुत नहीं किया। नूपुर के बयान के बहाने राष्ट्रविरोधी तत्वों ने अपना एजेंडा जरूर चमका लिया।
इसी नजरिए से तीन जून की तारीख देखना जरूरी है। इस दिन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही कानपुर में थे। बड़े ही सोचे समझे तरीके से इसी दिन नुपुर शर्मा के बयान के विरोध में बाजार बंद रखने का ऐलान किया गया था। इस षडयंत्र में पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया, एआईएमआईएम जैसे तमाम संगठन शामिल थे, जिसने मिल कर शाहीनबाग का षडयंत्र रचा था और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के भारत आगमन पर हिंसा फैला कर दुनिया भर में भारत की छवि पर गंदगी फैलाने का कुकृत्य किया था। ठीक वही साजिश इस बार कानपुर में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के होने पर रची गई।
आप ध्यान दीजिए कि यूपी पुलिस जब दंगाइयों को पकड़ रही थी, ऐन उसी समय विदेशों में बैठे तमाम इस्लामिक संगठन धड़ाधड़ ट्वीट कर रहे थे और हैशटैग चला रहे था। इन सभी ट्वीट्स में प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर लगी थी और हिजाब समेत कई गड़े मुर्दे उखाड़ते हुए लिखा जा रहा था कि भारत में मुस्लिमों के साथ जुल्म हो रहा है। ऐसे आपत्तिजनक ट्वीट्स की रफ्तार क्रमशः बढ़ती गई और अफवाहें इस तरह फैलाई गईं कि झूठ सच बन कर सोशल मीडिया से लेकर रेगुलर मीडिया तक पर छाने लगा। इस्लामिक देशों द्वारा भारतीय सामानों का बहिष्कार किए जाने जैसी खबरें ऐसे ही झूठ का सृजन थीं। इस्लामिक देशों का भारत पर उंगली उठाने की बात अगर सच भी है तो कितना अनैतिक (इम्मोरल) है। इस्लामिक देशों को अपने गिरेबान में झांकने का नैतिक बल नहीं है। वे इतने ही उदार थे तो इस्लामिक देश क्यों बने..! दुनिया के 15 से भी अधिक इस्लामिक देशों में कट्टर शरिया कानून लागू है, इस पर कभी किसी देश ने क्या कुछ कहा..? तमाम अरब देश तब कहां थे जब हिन्दू देवी-देवताओं की नग्न पेंटिंग बना कर हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले भारतीय पेंटर मकबूल फिदा हुसैन को अपने देश में शरण दी थी..? यह सब देखते हुए हमें कठोरता से स्टैंड लेने की जरूरत है... अब नहीं तो कब..?
Tuesday 24 May 2022
बुल्डोज़र की आड़ में, ईमानदारी गई भाड़ में
Thursday 28 April 2022
आज़म को योगी सरकार का संरक्षण, मुख्तार को विधानसभा का प्रोटेक्शन
Thursday 14 April 2022
संसद से पास विधेयक 'एडवांस अलर्ट मैसेज' है...
Bill passed by Parliament is an Advance Alert Message...