Tuesday 16 October 2018

#योगी सरकारः प्रशासन ‘बदतरीन’, अदालत ‘बेहतरीन’..!

#योगी सरकार और प्रशासन का समन्वय पूरी तरह फेल है, जबकि अदालत और सरकार का सामंजस्य परवान चढ़ रहा है. इस ‘फेल’ और ‘पास’, दोनों के अपने अलग-अलग निहितार्थ हैं और स्वार्थ हैं...

प्रशासन और सरकार का ‘बदतरीन’ समन्वय

प्रभात रंजन दीन
चोर ही चोर-चोर चिल्लाता हुआ दौड़ रहा है. जनता अवाक है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पुलिस के सिपाही ने एक आम नागरिक की गोली मार कर हत्या कर दी और अब पुलिसकर्मी ही विद्रोह पर भी उतारू हैं. यूपी पुलिस ने चोर के चोर-चोर चिल्लाने की कहानी यथार्थ में बदल दी है. योगी सरकार चुप है. सरकार चुनाव का समय देख रही है. हत्यारोपी सिपाही प्रशांत चौधरी में सरकार को जाट दिखाई दे रहा है. सरकार को चुनाव के समय पुलिस की नाराजगी का खतरा दिख रहा है. आम नागरिक में क्या है! आम नागरिक तो एक गिनती है. इधर-उधर से लेकर पूरी कर ली जाएगी. देश की ‘लोकतांत्रिक’ सरकारों की यही असलियत है. खुलेआम की गई हत्या पर इतनी सीनाजोरी प्रदेश के लोग पहली बार देख रहे हैं. खुलेआम की गई हत्या पर सरकार की इतनी कमजोरी भी प्रदेश के लोग पहली बार देख रहे हैं. एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि इस तरह अगर किसी दलित की हत्या हुई होती तो मुख्यमंत्री बदल गया होता. अगर किसी पिछड़े की हत्या हुई होती तो पुलिस महानिदेशक बदल गया होता और अगर किसी अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति की पुलिस के हाथों हत्या हुई होती सारे विपक्षी दल सड़क पर उतर आए होते. कितनी अजीबोगरीब और दुखद स्थिति है कि अब अपराध की घटना भी जाति के एंगल से देखी-समझी जाती है और उसे उसी मुताबिक ‘हैंडल’ किया जाता है.
लखनऊ में विवेक तिवारी नामक एक आम नागरिक की हत्या करने वाले सिपाही प्रशांत चौधरी के बचाव में यूपी पुलिस काली पट्टी बांध कर अपनी नाराजगी दिखा रही है. यह सरकार के खिलाफ खुले विद्रोह का ऐलान है. पुलिस महानिदेशक ओपी सिंह समेत पूरी सरकार इसे काबू में करने में फेल है. प्रशासनिक अराजकता की स्थिति बनी हुई है. यूपी पुलिस के सिपाही हत्यारोपी सिपाही प्रशांत चौधरी के प्रति भारी समर्थन जता रहे हैं और कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए लाखों रुपए का खुला चंदा दे रहे हैं. खुलेआम कहा जा रहा है कि हत्यारोपी प्रशांत चौधरी का मुकदमा लड़ने के लिए कम से कम पांच करोड़ रुपए का चंदा जमा किया जाएगा. पुलिसकर्मियों ने सोशल-मीडिया पर खुलेआम अभियान चला रखा है. हत्यारोपी के समर्थन में पुलिस वालों का इस तरह विद्रोह पर उतरना कानून व्यवस्था के अप्रासंगिक होने की सांकेतिक घोषणा है. उत्तर प्रदेश पुलिस ने ‘पुलिस-एक्ट’ की धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं. कानून को ताक पर रखने वाले आम नागरिकों को कानून का पाठ पढ़ाएंगे तो लोग उसे कैसे और क्यों मानेंगे, इसकी गंभीरता सत्ता अलमबरदारों को समझ में नहीं आ रही है. सरकार की चुप्पी, सरकार के आत्मसमर्पण की सनद है.
एक आला पुलिस अधिकारी ने इसे बेहद चिंताजनक स्थिति बताते हुए कहा कि पुलिस का यह विद्रोही रवैया आने वाले दिनों में आपसी मारा-मारी और अधिकारी पर गोली चलाने तक की स्थितियों का संकेत दे रहा है. इसे समय रहते नहीं निपटा गया तो हालात बेकाबू होते चले जाएंगे. उक्त अधिकारी ने स्पष्ट कहा कि इसे हैंडल करने में सरकार की अकुशलता साफ तौर पर साबित हो चुकी है. जबकि इस मसले को अत्यंत सरलतापूर्वक किंतु दृढ़तापूर्वक संभाला जा सकता था. सिपाही प्रशांत चौधरी के हाथों जिन विवेक तिवारी की हत्या हुई, उनका परिवार भी सदमे में है. परिवार के सदस्य कहीं बाहर निकलने से भी डर रहे हैं. उन्हें इस बात का डर है कि रास्ते में पुलिस का गुस्सा कहीं उन्हीं पर न बरप जाए. पुलिस प्रशासन की अराजकता का ही उदाहरण है कि विवेक तिवारी की हत्या के बाद एक तरफ लखनऊ का वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक यह बयान दे रहा था कि हत्यारोपी सिपाही को गिरफ्तार कर लिया गया है, जबकि दूसरी तरफ हत्यारोपी सिपाही गोमती नगर थाने में अलग एफआईआर लिखवाने के लिए हंगामा खड़ा किए था. वह मीडिया के सामने भी मूंछें तानकर खुद को बेकसूर बता रहा था और कह रहा था कि उसने अपनी जान बचाने के लिए हत्या की है.
पुलिस के बगावती तेवर अख्तियार करने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत योगी मंत्रिमंडल के सभी सदस्यों ने इस मसले से खुद को अलग कर लिया. मुख्यमंत्री ने शुरुआती दौर में मामला संभालने की कोशिश की, लेकिन फिर वे अचानक नेपथ्य में चले गए. सत्ता गलियारे के जानकारों का कहना है कि पार्टी आलाकमान ने मुख्यमंत्री को मौन साधे रखने को कहा. पूरा प्रकरण पुलिस के मत्थे छोड़ दिया गया. पुलिस की पूरी तैयारी मामले की लीपापोती करने की थी, लेकिन मामले के मीडिया में तूल पकड़ने के कारण पुलिस अपनी कारगुजारी में कामयाब नहीं हो पाई. लेकिन विद्रोह पर उतारू होकर यूपी पुलिस ने दिखा दिया कि हत्या जैसे संज्ञेय अपराध को लेकर भी यूपी पुलिस कितनी संवेदनहीन है. एक पुलिस अधिकारी ने ही कहा कि मुठभेड़ की अराजक-आजादी दिए जाने का यह नतीजा है.
हत्यारोपी सिपाही प्रशांत चौधरी के समर्थन में सिपाहियों ने यहां तक धमकी दे रखी है कि अगर उसके खिलाफ दर्ज केस वापस नहीं लिए जाते हैं सारे पुलिसकर्मी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले जाएंगे. इसे सोशल-साइट्स पर भी खूब वायरल किया गया. सोशल साइट्स से अलग रहने की डीजीपी की हिदायत को भी ठेंगा दिखा दिया गया. विद्रोही तेवर अख्तियार करने वाले पुलिसकर्मियों के समर्थन में अराजपत्रित कर्मचारी सेवा एसोसिएशन भी उतर आया, लेकिन सरकार चुप्पी ही साधे रही. सबसे खतरनाक स्थिति यह है कि पुलिसकर्मियों के इस अभियान के समर्थन में प्रॉविन्शियल आर्म्ड कांसटेबलरी (पीएसी) भी सामने आ गई है. कानपुर स्थित पीएसी की 37वीं बटालियन में तैनात सिपाही प्रकाश पाठक ने खुलेआम कहा कि सिपाही प्रशांत चौधरी ने आत्मरक्षा में गोली चलाई. पीएसी के उक्त सिपाही ने सीधे आरोप लगाया कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बिना जांच के ही प्रशांत चौधरी के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं. हत्यारोपी सिपाही प्रशांत चौधरी और घटना के समय उसके साथ रहे सिपाही संदीप कुमार के पक्ष में सोशल-साइट्स पर सरकार के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी लिखने वाले एटा के सिपाही सर्वेश चौधरी को निलंबित तो कर दिया गया, लेकिन इससे उसका बयान नहीं रुक पाया. धीरे-धीरे इस मामले को जाट भावना से भी जोड़ा जा रहा है. पुलिस मुख्यालय से लेकर कानून व्यवस्था के आला पुलिस अफसर तक यही कहते रहे कि काली पट्टी बांध कर विरोध जताने वाले सिपाहियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. इस प्रसंग में तीन सिपाहियों को निलंबित भी किया गया और तीन थानों के प्रभारियों का तबादला भी हुआ, लेकिन इन कार्रवाइयों से पुलिस का विद्रोह नहीं थमा. मिर्जापुर में एक बर्खास्त सिपाही अविनाश गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन न तो विरोध रुक रहा और न चंदा जमा करने के अभियान पर कोई अंकुश लग पा रहा.
पुलिसकर्मियों के तेवर से बने माहौल पर उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) ओपी सिंह कहते हैं कि सिपाहियों में विरोध जैसी कोई स्थिति नहीं है. उन्हें अपने सिपाहियों पर पूरा भरोसा है. डीजीपी ने यह भी कहा कि किसी भी तरह का गैरकानूनी या अनुशासनहीनता का काम करने वाले पुलिसकर्मियों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी. डीजीपी ने कहा कि आला पुलिस अधिकारी लगातार जवानों से बातचीत कर रहे हैं और स्थिति को सामान्य करने की कोशिश की जा रही है. डीजीपी के इस बयान के बाद भी सिपाहियों ने अपना अभियान जारी रखा है.

प्रमोशन देकर बगावत थामने की कोशिश
पुलिस के बगावती तेवर पर ठंडा पानी डालने की रणनीति के तहत पुलिस महानिदेशक ओपी सिंह ने पुलिसकर्मियों को प्रमोशन देने का ताबड़तोड़ सिलसिला शुरू कर दिया. यूपी पुलिस में पहली बार एक साथ 25091 कांस्टेबल को हेड कांस्टेबल के पद पर प्रोन्नत कर दिया गया. प्रमोशन पाने वालों में वर्ष 1975 से वर्ष 2004 बैच तक के कांस्टेबल शामिल हैं. विवेक तिवारी हत्याकांड के बाद से पुलिस की गतिविधियों पर नजर रख रहे पुलिस-विशेषज्ञों का मानना है कि पुलिसकर्मियों को प्रमोशन देने के फैसले से सरकार के बैकफुट पर चले जाने का संकेत मिल रहा है. सिपाहियों को तरक्की देने की पहल डीजीपी की तरफ से की गई. यह प्रमोशन पुलिसकर्मियों का अब तक का सबसे बड़ा प्रमोशन है. इससे पहले वर्ष 2016 में 15 हजार 803 पुलिसकर्मियों को तरक्की मिली थी. पुलिस मुख्यालय के एक अधिकारी ने बताया कि सिपाहियों के हेड कांस्टेबल के पद पर प्रोन्नत होने के बाद भी हेड कांस्टेबल के करीब 12 हजार पद खाली हैं. प्रमोशन के लिए 29 हजार सिपाहियों के नाम पर विचार हुआ था, लेकिन उनमें से चार हजार सिपाहियों को प्रमोशन के योग्य नहीं पाया गया.

डीजीपी की चेतावनी बेअसर, विरोध जारी
डीजीपी ओपी सिंह की कोशिशों और हिदायतों के बाद भी यूपी पुलिस के सिपाहियों का काली पट्टी बांधकर विरोध प्रदर्शन जारी है. सिपाहियों के विरोध प्रदर्शन में दारोगा स्तर के अधिकारी भी शामिल हो गए हैं. 10 अक्टूबर को सिपाहियों और दारोगा ने चेहरे छिपाकर और हाथ में काली पट्टी बांधकर प्रदर्शन किया. इस प्रदर्शन की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर वायरल की गईं. फैजाबाद में तैनात बागपत के दो सिपाहियों राहुल पांचाल और मोहित कुमार के इस्तीफे वाली चिट्ठी भी वायरल की गई. हत्यारोपी सिपाही के समर्थन में चल रहे विरोध अभियान में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रहने वाले सिपाही और दारोगा बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं.

कहीं पीएसी विद्रोह जैसी दुर्भाग्यपूर्ण हालत न हो जाए!
पुलिस के आला अधिकारी पुलिसकर्मियों के विद्रोही तेवर को देखते हुए इस बात के लिए आशंकित हैं कि कहीं 45 साल पहले हुए पीएसी विद्रोह जैसी हालत न हो जाए. पीएसी विद्रोह पर सेना को हस्तक्षेप करना पड़ा था और सेना के साथ हथियारबंद संघर्ष में पीएसी के कम से कम 30 जवानों को जान गंवानी पड़ी थी. सेना के भी 13 जवान शहीद हुए थे. उस घटना के बाद ही उत्तर प्रदेश में पुलिस संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. 1973 के मई महीने में भड़का पुलिस विद्रोह उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक ढांचे को तबाह कर देता, अगर सेना बुलाने में देरी की गई होती.
सेना ने आते ही उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में पीएसी के उन सारे ठिकानों को अपने कब्जे में ले लिया था, जहां पीएसी के हथियार रखे जाते थे. पीएसी विद्रोह के अलग-अलग 65 मामलों में 795 पुलिस वालों पर मुकदमे चलाए गए थे. उनमें से 148 पुलिसकर्मियों को दो साल की जेल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हुई थी. पांच सौ पुलिसकर्मियों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी थी. सेना के जवानों पर गोलियां चलाने के आरोप में 500 पुलिसकर्मियों को नौकरी से निकाल दिया गया था. इसके अलावा हजारों अन्य पुलिसकर्मियों को भी नौकरी से निकाले जाने का प्रस्ताव रखा गया था, लेकिन संविधान विशेषज्ञों की राय पर यह कार्रवाई नहीं हुई.
पीएसी विद्रोह के चश्मदीद रहे बुजुर्ग पुलिसकर्मी बताते हैं कि पीएसी विद्रोह के कारण ही कमलापति त्रिपाठी जैसे नेता की मुख्यमंत्री की कुर्सी छिन गई थी. आजाद भारत में 1973 का पीएसी विद्रोह सशस्त्र बल का सबसे बड़ा विद्रोह माना जाता है. पीएसी की 12वीं बटालियन का विद्रोह अपनी ही सरकार के खिलाफ था. इस बटालियन ने मई 1973 में विद्रोह कर दिया. खराब सर्विस कंडीशन, गलत अफसरों के हाथ में कमान, अफसरों द्वारा जवानों का उत्पीड़न, अफसरों के घर पर जवानों से नौकरों की तरह काम कराना और उनकी जानवरों से भी बदतर स्थिति विद्रोह का मुख्य कारण बनी. इस विद्रोह के बाद यूपी का पुलिस सिस्टम ध्वस्त होने की स्थिति में आ गया. आखिरकार सेना बुलानी पड़ी. पांच दिन के ऑपरेशन के बाद आर्मी ने पीएसी विद्रोह को नियंत्रण में कर लिया. इसमें 30 पुलिसवाले मारे गए.
उस समय के गृह राज्य मंत्री केसी पंत ने 30 मई 1973 को राज्यसभा में सूचना दी कि 22 से 25 मई 1973 तक चले पीएसी विद्रोह को दबाने के लिए की गई सैन्य कार्रवाई में सेना ने भी अपने 13 जवान खो दिए और 45 सैनिक घायल हो गए थे. इस विद्रोह का राजनीतिक असर इतना जबरदस्त हुआ कि 425 सदस्यों वाली उत्तर प्रदेश विधानसभा में 280 सीटों वाली कांग्रेस की कमलापति त्रिपाठी सरकार को 12 जून 1973 को सत्ता से बेदखल होना पड़ा. इसके बाद यूपी में राष्ट्रपति शासन लग गया. प्रदेश में डेढ़ सौ दिनों तक राष्ट्रपति शासन रहा. इसके बाद हेमवती नंदन बहुगुणा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए थे.


अदालत और सरकार का ‘बेहतरीन’ समन्वय

उत्तर प्रदेश सरकार का प्रशासन के साथ सामंजस्य भले ही ठीक नहीं चल रहा हो, लेकिन योगी सरकार का न्यायपालिका के साथ सामंजस्य सही और सटीक चल रहा है. भाजपा के सांसदों और विधायकों की बात तो छोड़िए, प्रदेश सरकार के मंत्री तक नौकरशाही की बदमिजाजी और अराजकता की सरेआम शिकायत करते नजर आते हैं, पुलिस की अराजकता के नमूने तो आप देख ही रहे हैं. पुलिस आम नागरिक की सरेआम हत्या भी कर देती है और काली पट्टी लगा कर विद्रोह पर उतारू भी हो जाती है. प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पुलिस की ऐसी अनुशासनहीनता पहले कभी नहीं देखी गई. लेकिन सरकार न्यायपालिका के साथ समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने का हर जतन कर रही है.
इसी समन्वय और सामंजस्य का नतीजा है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले भाजपा के साल भर के कार्यकाल में लगातार कई बार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलने उनके सरकारी आवास पर आते रहे और सामंजस्य स्थापित करते रहे. परस्पर समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने की यह प्रक्रिया हाल के दिनों में अधिक तेजी से बढ़ी. यह इतनी प्रगाढ़ हुई कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने सरकारी आवास पर मुख्य न्यायाधीश का सम्मान समारोह आयोजित कर दिया और सम्मान समारोह के बाद आलीशान रात्रि-भोज देकर परस्पर सामंजस्य की नायाब परम्परा स्थापित कर दी. जानकार बताते हैं कि प्रदेश में किसी भी मुख्यमंत्री ने कभी भी किसी मुख्य न्यायाधीश के सम्मान में अपने सरकारी आवास पर रात्रि-भोज नहीं दिया.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले का सम्मान करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा भी कि ऐसा अवसर बहुत कम देखने को मिलता है, जब लोकतंत्र की त्रिवेणी; विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका एक समारोह और एक मंच पर एक साथ उपस्थित हो. योगी ने कहा, ‘इसके पीछे हम सबका उद्देश्य एक ही है, लोक-कल्याण. लोक-कल्याण के भाव को अगर परस्पर एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हुए हम आगे बढ़ाते हैं तो कहीं भी न कोई मतभेद होगा, न कोई मनभेद होगा, और न कहीं टकराहट की कोई नौबत आएगी. और मुझे लगता है कि इस आदर्श स्थिति और व्यवस्था को माननीय मुख्य न्यायाधीश के माध्यम से उत्तर प्रदेश के अंदर प्रस्तुत करने की जो सकारात्मक पहल की गई, आज उसके सकारात्मक परिणामस्वरूप देखे जा सकते हैं.’ वाकई, आलीशान सम्मान और भव्य रात्रि-भोजों के जरिए मतभेद और मनभेद खत्म किया जा सकता है और सरकार बनाम न्यायपालिका के टकराव को टाला जा सकता है.
योगी सरकार ने मुख्य न्यायाधीश के लिए आयोजित सम्मान समारोह और रात्रि-भोज में मीडिया से सख्त परहेज रखा. कार्यक्रम में केवल जजों, खास मंत्रियों और खास नौकरशाहों को ही आमंत्रित किया गया था. आमंत्रण पत्र के वितरण पर भी खास निगरानी रखी जा रही थी. जानकार बताते हैं कि आमंत्रण पत्र का वितरण विधि परामर्शी (एलआर) महकमे से कराया गया था. जबकि आमंत्रण पत्र पर उत्तरापेक्षी में प्रदेश के मुख्य सचिव अनूप चंद्र पांडेय का नाम टंकित है. खबर लीक न हो इसलिए कार्ड वितरण मुख्य सचिव कार्यालय से नहीं कराया गया. हाईकोर्ट के कुछ न्यायाधीशों ने योगी के इस कार्यक्रम से परहेज रखा. सरकार की अपेक्षा के अनुसार सम्मान समारोह का कक्ष नहीं भरा, आधे से अधिक खाली ही रहा. कई जज इस कार्यक्रम में नहीं आए. जो नहीं आए, उनके नाम ‘चौथी दुनिया’ के पास हैं, लेकिन उसका प्रकाशन नहीं किया जा रहा है, ताकि न्यायालय और सरकार के परस्पर सामंजस्य में कोई खलल न पड़े.
सम्मान से आह्लादित मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले ने कहा कि उन्हें योगी आदित्यनाथ से प्रेरणा मिलती है. उनकी सरकार की तरफ से कभी भी कोई दबाव नहीं आया. जबकि उत्तर प्रदेश के पहले अन्य राज्यों के उनके अनुभव ऐसे नहीं हैं. मुख्य न्यायाधीश ने समारोह में मौजूद राज्यपाल राम नाईक के प्रति सम्मान जताया और कहा कि जब उनकी उत्तर प्रदेश में तैनाती हुई तो वे बहुत घबराए हुए थे, लेकिन उन्हें जब-जब परेशानी हुई, राज्यपाल राम नाईक ने पिता की तरह उनका मार्ग-दर्शन किया और उन्हें सही रास्ता दिखाया. न्यायपालिका और विधायका के बीच समझदारी और सामंजस्य का ही परिणाम है कि राष्ट्रपति के चुनाव के समय मुख्यमंत्री द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सम्मान में दिए गए राजनीतिक रात्रि-भोज में भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले मौजूद थे.

सामंजस्य अपरंपार: सरकारी वकीलों में जजों के सगों की भरमार
योगी सरकार ने न्यायपालिका से समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने के लिए बड़े जतन किए हैं. अभी हाल ही में सरकार ने विभिन्न स्तर पर जो सरकारी वकीलों की नियुक्ति की, उसमें अच्छी-खासी संख्या में न्यायाधीशों के रिश्तेदारों को उपकृत किया गया. न्यायपालिका के साथ योगी सरकार ने सामंजस्य स्थापित करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले के बेटे करन दिलीप भोसले को सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश सरकार का स्पेशल काउंसिल नियुक्त कर रखा है. स्पेशल काउंसिल का ‘पैकेज’ काफी भारी और आकर्षक होता है. इसके पहले अखिलेश सरकार ने मुख्य न्यायाधीश के बेटे को सुप्रीम कोर्ट में स्टैंडिंग काउंसिल (सरकारी वकील) नियुक्त किया था. लेकिन योगी सरकार ने अतिरिक्त सामंजस्य-भाव दिखाते हुए उन्हें स्पेशल काउंसिल नियुक्त कर दिया.
इसी तरह योगी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अशोक भूषण के भाई विनय भूषण को मुख्य स्थाई अधिवक्ता (द्वितीय) बनाया. विनय भूषण समाजवादी पार्टी के शासनकाल में अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता थे. न्यायाधीश बीके नारायण के बेटे एनके सिन्हा नारायण और बहू आनंदी के नारायण दोनों को सरकारी वकील नियुक्त किया. न्यायाधीश केडी शाही के बेटे विनोद कुमार शाही को अपर महाधिवक्ता बनाया. न्यायाधीश आरडी शुक्ला के बेटे राहुल शुक्ला अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, स्व. न्यायाधीश एएन त्रिवेदी के बेटे अभिनव त्रिवेदी अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, न्यायाधीश रंगनाथ पांडेय के रिश्तेदार देवेश चंद्र पाठक अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, न्यायाधीश शबीहुल हसनैन के रिश्तेदार कमर हसन रिजवी अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, न्यायाधीश एसएन शुक्ला के रिश्तेदार विवेक कुमार शुक्ला अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, न्यायाधीश रितुराज अवस्थी के रिश्तेदार प्रत्युष त्रिपाठी स्थाई अधिवक्ता और न्यायाधीश राघवेंद्र कुमार के पुत्र कुमार आयुष वाद-धारक नियुक्त किए गए. योगी सरकार ने न्यायाधीश यूके धवन के बेटे सिद्धार्थ धवन और न्यायाधीश एसएस चौहान के बेटे राजीव सिंह चौहान को एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल बनाया. योगी सरकार ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी के बेटे नीरज त्रिपाठी को इलाहाबाद हाईकोर्ट का अपर महाधिवक्ता बनाया.

जब नेता खुद फंसे हों मुकदमों में तो अदालतें क्यों न करें मनमानी
सरकारी अलमबरदारों की पृष्ठभूमि खुद ही इतनी कानूनी दलदल में फंसी रहती है कि न्यायपालिका के आगे दंडवत होने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता. इस कारण ही फैसलों से लेकर नियुक्तियों तक अदालतें अपनी मनमानी करती रही हैं. इसी वजह से अदालतें जजों के नाते-रिश्तेदार जजों और उनके रिश्तेदार फैसलाकुन-वकीलों से भर गई हैं. यह इतनी अति तक पहुंच गई कि आखिरकार केंद्र सरकार को इस पर अंकुश लगाना पड़ा. ‘चौथी दुनिया’ ने जजों के उन नाते-रिश्तेदारों की पूरी लिस्ट छाप दी थी, जिन्हें जज बनाने की सिफारिश की गई थी. इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के हस्ताक्षर से वह लिस्ट कॉलेजियम को भेजी गई थी. केंद्र ने उसका संज्ञान लिया और जजों की नियुक्ति रोक दी गई. हालांकि जानकार बताते हैं कि धीमी गति से कुछ-कुछ रिश्तेदारों की नियुक्तियां हो रही हैं.
बहरहाल, एक बार फिर उस लिस्ट को आप अपने ध्यान में रखते चलें. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे वीएन खरे के बेटे सोमेश खरे, जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट और आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश व इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज रहे सगीर अहमद के बेटे मोहम्मद अल्ताफ मंसूर समेत ऐसे दर्जनों नाम हैं, जिन्हें जज बनाने के लिए सिफारिश की गई थी. इनके अलावा संगीता चंद्रा, रजनीश कुमार, अब्दुल मोईन, उपेंद्र मिश्र, शिशिर जैन, मनीष मेहरोत्रा, आरएन तिलहरी, सीडी सिंह, राजीव मिश्र, अजय भनोट, अशोक गुप्ता, राजीव गुप्ता, बीके सिंह जैसे नाम भी उल्लेखनीय हैं. इनमें से अधिकांश लोग विभिन्न जजों के रिश्तेदार और सरकारी पदों पर विराजमान वकील हैं. इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज रहे अब्दुल मतीन के सगे भाई अब्दुल मोईन, पूर्व जज ओपी श्रीवास्तव के बेटे रजनीश कुमार, पूर्व जज टीएस मिश्रा और पूर्व जज केएन मिश्रा के भतीजे उपेंद्र मिश्रा, पूर्व जज एचएन तिलहरी के बेटे आरएन तिलहरी, पूर्व जज एसपी मेहरोत्रा के बेटे मनीष मेहरोत्रा, पूर्व जज जगदीश भल्ला के भांजे अजय भनोट, पूर्व जज रामप्रकाश मिश्र के बेटे राजीव मिश्र, पूर्व जज पीएस गुप्ता के बेटे अशोक गुप्ता और भांजे राजीव गुप्ता के साथ-साथ मौजूदा जज एपी शाही के साले बीके सिंह के नाम जज बनाने की सिफारिशी लिस्ट में शामिल थे.
वर्ष 2000 में भी जजों की नियुक्ति में धांधली का मामला उठा था. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में कानून मंत्री रहे राम जेठमलानी ने देशभर के हाईकोर्टों से भेजी गई लिस्ट की जांच का आदेश दिया. जांच में पाया गया कि 159 सिफारिशों में से 90 सिफारिशें विभिन्न जजों के बेटों या रिश्तेदारों के लिए की गई थीं. इसके बाद कानून मंत्रालय ने वह सूची खारिज कर दी थी. जजों की नियुक्ति में जजों द्वारा ही धांधली किए जाने का मामला सपा नेता जनेश्वर मिश्र ने राज्यसभा में भी उठाया था. इसके जवाब में तब कानून मंत्री का पद संभाल चुके अरुण जेटली ने आधिकारिक तौर पर बताया था कि लिस्ट खारिज कर दी गई है. लेकिन उस खारिज लिस्ट में शुमार कई लोग बाद में जज बन गए और अब वे अपने रिश्तेदारों को जज बनाने में लगे हैं. इनमें न्यायाधीश अब्दुल मतीन और न्यायाधीश इम्तियाज मुर्तजा जैसे नाम उल्लेखनीय हैं. इम्तियाज मुर्तजा के पिता मुर्तजा हुसैन भी इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज थे. विडंबना यह रही कि जजों की नियुक्ति में धांधली और भाई-भतीजावाद के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक पांडेय द्वारा दाखिल की गई याचिका खारिज कर दी गई थी और अशोक पांडेय पर 25 हजार का जुर्माना लगाया गया था. जबकि अशोक पांडेय द्वारा अदालत को दी गई लिस्ट के आधार पर ही कानून मंत्रालय ने जांच कराई थी और जजों की नियुक्तियां खारिज कर दी थीं.

न्यायपालिका से सामंजस्य की एक और विचित्र तैयारी
उस अपर न्यायाधीश को स्थायी न्यायाधीश बनाने की तैयारी है, जिन्होंने कानून विभाग के प्रमुख सचिव रहते हुए न्यायाधीशों के रिश्तेदारों को सरकारी वकील बनाने की लिस्ट को औपचारिक जामा पहनाया था और पुरस्कार में खुद हाईकोर्ट के जज बन गए. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के अधिवक्ता सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव ने इसका कच्चा चिट्ठा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री को भेजा था. प्रधानमंत्री कार्यालय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस मामले की गहराई से जांच कराने के लिए कहा था, लेकिन कुछ नहीं हुआ. अधिवक्ता सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव की शिकायत है कि विधि विभाग के तत्कालीन प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय पद का दुरुपयोग कर और विधाई संस्थाओं को अनुचित लाभ देकर हाईकोर्ट के जज बने. उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट और लखनऊ बेंच में सरकारी वकीलों की नियुक्ति को अपनी तरक्की का जरिया बनाया. नियुक्ति प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मानकों की पूरी तरह अनदेखी की और खुद जज बनने के लिए सारी सीमाएं लांघीं. उन्होंने जानते-समझते हुए करीब 50 ऐसे वकीलों को सरकारी वकील की नियुक्ति लिस्ट में रखा जिनका नाम एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड (एओआर) में ही दर्ज नहीं था और वे हाईकोर्ट में वकालत करने के योग्य नहीं थे. उन्होंने सरकारी वकीलों की लिस्ट में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के रिश्तेदारों को शामिल किया और उसके एवज में लाभ प्राप्त कर लिया. उन्होंने विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से जुड़े वकीलों और पदाधिकारियों को भी सरकारी वकील बनवा दिया. सरकारी वकीलों की लिस्ट में ऐसे भी कई वकील हैं जो प्रैक्टिसिंग वकील नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस मामले में सीधा हस्तक्षेप कर सरकारी वकीलों की विवादास्पद नियुक्ति प्रक्रिया को रोकने की अपील की गई, लेकिन कार्रवाई होने के बजाय शिकायतकर्ता को ही धमकियां मिलने लगीं. शिकायतकर्ता अधिवक्ता का कहना है कि उन जजों के बारे में भी छानबीन जरूरी है, जिन जजों ने रंगनाथ पांडेय को जज बनाने की अनुशंसा की. सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव कहते हैं कि छानबीन हो तो पता चलेगा कि जिन जजों ने रंगनाथ पांडेय को जज बनाने की अनुशंसा की थी उनके आश्रित सरकारी वकील नियुक्त किए गए थे.

Wednesday 10 October 2018

यूपी में फेल है… भाषण-शासन-प्रशासन

अलीगढ़ मुठभेड़, लखनऊ में पुलिस के सिपाही द्वारा की गई हत्या और भाजपा नेता के संरक्षण में चलने वाले ड्रग सिंडिकेट को पकड़ने वाली मोहनलालगंज की पुलिस उपाधीक्षक (सीओ) का 24 घंटे के अंदर तबादला... हाल में घटी घटनाओं के ये तीन टेस्ट-केस हैं जो भाषण, शासन और प्रशासन के अंतरविरोधों का कड़वा उदाहरण हैं. अपराधी, नेता और पुलिस का अंतरसम्बन्ध यह है कि ड्रग-सिंडिकेट भाजपा के नेता और योगी सरकार के एक राज्य मंत्री के संरक्षण में चलता है. मुख्य अभियुक्त दावा करता है कि 24 घंटे के अंदर सीओ का तबादला हो जाएगा और तबादला हो जाता है. मुख्य अभियुक्त पकड़ा नहीं जाता और सीओ को पुलिस मुख्यालय में ‘डंप’ किए जाने का डीजीपी का आदेश जारी हो जाता है. 
ड्रग सिंडिकेट उजागर करने के 24 घंटे के अंदर महिला पुलिस उपाधीक्षक के तबादले की घटना से बात शुरू करते हैं. खबर आई कि मोहनलालगंज की पुलिस उपाधीक्षक (सीओ) बीनू सिंह ने खुफिया सूचनाओं के आधार पर गोसाईगंज के जौखंडी गांव में ड्रग सिंडिकेट के एक ठिकाने पर छापा मार कर भारी मात्रा में स्मैक और अन्य नशीले पदार्थ बरामद किए. पुलिस को जिस शातिर ड्रग तस्कर मोहित शुक्ला की तलाश थी, वह तो भागने में कामयाब हो गया, लेकिन उसका भाई अंकुर शुक्ला रंगे हाथों पकड़ लिया गया. असली घटनाक्रम उसके बाद शुरू हुआ. मुख्य अभियुक्त मोहित शुक्ला ने पहले तो सीओ को भारी रिश्वत देकर मामला रफा-दफा करने की पेशकश की, फिर योगी सरकार के दो-तीन मंत्रियों से सीओ को फोन कराया, लेकिन सीओ द्वारा इन्कार कर देने पर उन्हीं मंत्रियों के जरिए उसने 24 घंटे के अंदर सीओ का तबादला करा देने की धमकी दिलवाई. इलाके के लोग ड्रग तस्कर और भाजपा नेता के सम्बन्ध जानते हैं, इसलिए वे तबादले को लेकर पहले से मुतमईन थे. लखनऊ पुलिस के एसएसपी या प्रदेश के पुलिस महानिदेशक की तरफ से महिला सीओ को प्रशंसा मिलने की जगह तबादले का आदेश प्राप्त हो गया. सीओ बीनू सिंह को मोहनलालगंज के सीओ पद से हटा कर उन्हें डीजीपी मुख्यालय से अटैच कर दिया गया.
तीन महीने के अंदर सीओ का तबादला करने से मोहनलालगंज क्षेत्र के लोग नाराज हो गए और पूरे इलाके में सीओ की फिर से बहाली की मांग होने लगी. तबादले की वजह के बारे में जानकारी मिलने पर मोहनलालगंज के भाजपा सांसद कौशल किशोर ने फौरन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की और उन्हें ड्रग सिंडिकेट से जुड़े तथ्यों और राज्य मंत्री स्तर के भाजपा नेता द्वारा दिए जा रहे संरक्षण के बारे में बताया. मुख्यमंत्री ने सीओ का तबादला रोकने का आदेश दिया, लेकिन इसके बावजूद पुलिस महानिदेशक ओपी सिंह ने सीओ को मोहनलालगंज सीओ की पूर्व तैनाती पर नहीं भेजा. डीजीपी ने बस इतना किया कि पुलिस उपाधीक्षक को मुख्यालय में नहीं अटैच कर उन्हें ट्रैफिक पुलिस में स्थानान्तरित करने का फरमान सुना दिया. सांसद कौशल किशोर ने डीजीपी से बात की और उन्हें इस बात के लिए आड़े हाथों लिया कि ड्रग तस्करों का साथ देकर पुलिस स्थानीय लोगों को सरकार के प्रति नाराज कर रही है. मीडिया ने भी इस पर तूल मचाया. इस संवाददाता ने भी ड्रग तस्करों के खिलाफ छापेमारी से लेकर सीओ के तबादले के बेजा आदेश को लेकर डीजीपी से सवाल पूछे, लेकिन डीजीपी ने उन सवालों का जवाब देने की जरूरत नहीं समझी. डीजीपी ने सीओ के ट्रांसफर का आदेश एक बार फिर बदला और उन्हें बख्शी का तालाब इलाके का सीओ बना कर भेज दिया.
मोहनलालगंज के भाजपा सांसद कौशल किशोर कहते हैं कि वे इस संसदीय क्षेत्र के सांसद हैं, लिहाजा अपने संसदीय क्षेत्र के नागरिकों का ध्यान रखना उनका प्राथमिक दायित्व है. ड्रग तस्करों के फैलते धंधे और उन्हें राज्य मंत्री स्तर के भाजपा नेता द्वारा मिल रहे संरक्षण और पुलिस की मिलीभगत के कारण इलाके के लोगों में काफी गुस्सा है. ड्रग के कारण नई पीढ़ी बर्बाद हो रही है. ड्रग तस्करों को पकड़ने वाली डिप्टी एसपी बीनू सिंह का 24 घंटे के अंदर तबादला पुलिस प्रशासन के आला अधिकारियों का असली चरित्र उजागर करता है. कौशल कहते हैं कि उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिल कर सारी स्थिति बताई और यह भी बताया कि पुलिस का आचरण सरकार विरोधी और भाजपा विरोधी साबित हो रहा है, आने वाले चुनाव में इसका खामियाजा कौन भुगतेगा! विडंबना यह है कि सांसद को आश्वासन देने और सीओ का तबादला रोकने का आदेश देने के बावजूद डीजीपी ने मुख्यमंत्री की नहीं सुनी और उन्हें वापस पूर्व तैनाती पर नहीं भेजा. उल्लेखनीय है कि फरार ड्रग तस्कर मोहित शुक्ला और योगी सरकार के राज्य मंत्री (चेयरमैन पैक्सफेड) वीरेंद्र तिवारी की अंतरंग तस्वीर सोशल नेटवर्क पर भी खूब वायरल हुई. इसके बावजूद शासन प्रशासन की खाल पर कोई असर नहीं पड़ा.
सीओ के तबादले के पीछे वजह कुछ और भी है
मोहनलालगंज में कॉलोनियां विकसित कर रहे मशहूर एमआई बिल्डर्स को क्लीन-चिट नहीं देने के कारण भी आला पुलिस अधिकारी सीओ बीनू सिंह से नाराज हैं. सीओ कानूनी तौर पर उस दलित परिवार के साथ खड़ी हैं, जिनकी जमीन पर बिल्डर अपना कब्जा चाहता है. पुलिस मुख्यालय के ही एक अधिकारी ने कहा कि प्रदेश के कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने उस बिल्डर कंपनी में बड़ा धन निवेश कर रखा है, लिहाजा उनकी नाराजगी स्वाभाविक है. इस रियल इस्टेट कंपनी में कुछ पूर्व पुलिस महानिदेशक, मौजूदा अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक समेत कई पुलिस अधिकारियों का पैसा लगा है. हास्यास्पद विडंबना यह भी है कि रियल इस्टेट कंपनी में पैसा लगवाने का काम दो रिटायर्ड पुलिस अधिकारी बिचौलियों के रूप में करते हैं.

लखनऊः हिफाजत के बजाय हत्या कर रही है पुलिस
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पुलिस के सिपाही प्रशांत चौधरी द्वारा एप्पल कम्पनी के एरिया सेल्स मैनेजर (नॉर्थ) विवेक तिवारी की गोली मार कर हत्या कर दिए जाने की घटना ने केवल लखनऊ क्या पूरे प्रदेश में सनसनी फैला दी. प्रोडक्ट लॉन्चिंग समारोह के काफी देर रात तक चलने के कारण विवेक तिवारी अपनी महिला सहकर्मी सना खान को उसके घर छोड़ने जा रहे थे. सिपाही प्रशांत चौधरी और संदीप ने उनकी गाड़ी रोकने की कोशिश की और नहीं मानने पर आगे से घेर कर सीधे सिर पर निशाना लेकर विवेक को गोली मार दी. विवेक की मौके पर ही मौत हो गई. इस घटना के बाद लखनऊ पुलिस ने हत्यारे सिपाही को पकड़ने के बजाय तमाम नौटंकियां दिखानी शुरू कर दीं. घटना की चश्मदीद सना खान से मनमानी तहरीर लिखवाई और सिपाही को पहचानने के बावजूद अज्ञात के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया. बाद में तूल मचने पर प्रशासन को नामजद एफआईआर दर्ज करने और अभियुक्त सिपाहियों को गिरफ्तार करने पर विवश होना पड़ा. सरकार ने मरहूम विवेक के परिजनों को मुआवजा और विधवा को नगर निगम में नौकरी तो दी, लेकिन पुलिस की हरकत थमी नहीं. लखनऊ पुलिस के एसएसपी कलानिधि नैथानी यही कहते रहे कि यह नहीं पता चल रहा कि विवेक तिवारी की मौत गोली लगने से हुई या गाड़ी के दुर्घटनाग्रस्त होने से. जब पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट ने विवेक के गोली से मरने की आधिकारिक पुष्टि कर दी तब जाकर पुलिस अधिकारियों का बड़बोलापन थमा, लेकिन मामले को उलझाने का सिलसिला थमा नहीं है.
हत्या करने के बाद हत्यारे सिपाही प्रशांत चौधरी ने गोमती नगर थाने में जाकर जो बवाल किया, वह भी लोगों के लिए हैरत करने वाली घटना है. प्रशांत चौधरी की पत्नी राखी चौधरी भी पुलिस में कॉन्सटेबल है. हत्यारोपी सिपाही की पत्नी के बैंक खाते में अचानक साढ़े पांच लाख रुपए का जमा होना भी संदेहास्पद है. राखी चौधरी मेरठ की रहने वाली है. उसका बैंक खाता किनौनी शुगर मिल स्थित भारतीय स्टेट बैंक में है. उसके खाते में पिछले दिनों साढ़े पांच लाख रुपए जमा हुए. उससे पहले राखी के खाते में महज 447.26 रुपए थे. बैंक का कहना है कि राखी के खाते में पैसा जमा होने का क्रम जारी है. राखी का लखनऊ से बलिया तबादला कर दिया गया है. अन्य मुद्दों पर लखनऊ पुलिस के अधिकारी चुप्पी साधे हैं. सरकार ने इतना हंगामा खड़ा होने के बावजूद विवेक तिवारी हत्याकांड की सीबीआई जांच का आदेश क्यों नहीं दिया, इस पर भी गंभीर सवाल उठ रहे हैं.

अलीगढ़ ‘लाइव’ मुठभेड़ की असलीयत कुछ और
अलीगढ़ में पिछले दिनों मुठभेड़ में दो अपराधियों के मारे जाने की खबर इस बात के लिए सुर्खियों में रही कि पुलिस ने मुठभेड़ दिखाने के लिए पहले से मीडिया वालों को जमा करके रखा था. सारे चैनेलों पर लाइव मुठभेड़ दिखाया गया. ‘लाइव’ मुठभेड़ की वीडियो रिकॉर्डिंग देखें तो उसमें गोलियां चलाते जांबाज पुलिसकर्मी फोटो के लिए ‘पोज़’ देते दिखेंगे और आपको समझ में आ जाएगा कि पहले से ही मारे जा चुके अपराधियों की लाशें रख कर मौके पर मुठभेड़ की ऐक्टिंग हो रही है. पुलिस की कहानी यह थी कि अलीगढ़ जिले के हरदुआगंज में पुलिस के साथ मुठभेड़ में दो कुख्यात बदमाश मारे गए. गोली लगने से एक पुलिस अधिकारी भी जख्मी हुआ. हास्यास्पद तथ्य यह भी है कि पुलिस अपराधियों को मारने के इरादे से गोली चला रही थी, लेकिन अपराधी पुलिस अधिकारी के पैर पर निशाना ले रहे थे. पुलिस कहती है कि पीछा करने पर अपराधी हरदुआगंज के मछुआ नहर के पास बनी सिंचाई विभाग की कोठरी में घुस गए. दोनों तरफ से एक घंटे मुठभेड़ चली, जिसमें नौशाद और मुस्तकीम मारे गए. वे दो साधुओं समेत छह लोगों की हत्या में वांछित अपराधी थे.
इस ‘लाइव’ मुठभेड़ का सच यह है कि 18 सितम्बर को प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए पुलिस ने अपराधियों को गिरफ्तार किए जाने की जानकारी दी थी. यह प्रेस कॉन्फ्रेंस हड़बड़ी में बुलाई गई थी क्योंकि 16 सितम्बर को अतरौली से छह लड़कों को पुलिस द्वारा उठाए जाने के बाद से उनके परिजन परेशान थे और उन्हें तलाश रहे थे. पकड़े गए युवकों में शामिल इरफान को उसकी पत्नी समीरा ने डॉक्टर यासीन के साथ अलीगढ़ एसएसपी कार्यालय में देख लिया. इरफान की ओर वह बढ़ी, लेकिन पुलिस ने उसे रोक लिया. इरफान की पत्नी को भी पकड़ कर महिला पुलिस के हवाले कर दिया गया. इसके बाद ही प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला कर पांच लड़कों को गिरफ्तार दिखाया गया, जिनमें इरफान और यासीन शामिल थे. पुलिस ने मुस्तकीम, नौशाद और अफसर को भगोड़ा करार देते हुए प्रत्येक पर 25 हजार रुपए के ईनाम की घोषणा की. मुस्तकीम नौशाद का रिश्ते में बहनोई था. दूसरी तरफ मुस्तकीम और नौशाद के परिजनों को पुलिस ने उनके घरों से बाहर नहीं निकलने दिया. इस पर सवाल उठाने पर ‘यूनाईटेड अगेन्स्ट हेट’ की टीम पर अतरौली थाने में हमला हुआ. रिहाई मंच का कहना है कि हाजी इमरान नामक शख्स की इस मामले में संदेहास्पद भूमिका है. उसने ही इरफान को पुलिस के हवाले कराया और उसी ने मुस्तकीम और नौशाद को भी पुलिस से पकड़वाया. बाद में मुस्तकीम और नौशाद दोनों ही फर्जी ‘लाइव’ मुठभेड़ में मारे गए. नौशाद की उम्र 17 वर्ष थी और मुस्तकीम 22 साल का था. लाशों को बिना धार्मिक रीति रिवाज के दफना दिया गया और उनके परिजनों को एफआईआर की कॉपी और पोस्टमार्टम की रिपोर्ट तक नहीं दी गई. नौशाद और मुस्तकीम दोनों का पुलिस रिकॉर्ड में कहीं किसी अपराध में नाम नहीं है. मुस्तकीम का 17 साल का भाई सलमान भी पुलिस की गिरफ्त में ही है. इसके अलावा दिमागी तौर पर विक्षिप्त 23 साल के नफीस को भी पुलिस ने पकड़ रखा है. लड़कों के संदेहास्पद तरीके से उठाए जाने की सूचना डॉक्टर यासीन की पत्नी निहानाज ने फैक्स के जरिए मुख्यमंत्री, आईजी लखनऊ, डीआईजी अलीगढ़ परिक्षेत्र, अलीगढ़ के एसएसपी, अतरौली के थानाध्यक्ष और हरदुआगंज के थानाध्यक्ष को भेज दी थी, लेकिन उस पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया. अलीगढ़ का ‘लाइव’ मुठभेड़ अतरौली और हरदुआगंज थाने के प्रभारी और अलीगढ़ के एसएसपी अजय साहनी समेत हाजी इमरान की साजिशों का परिणाम है. मुठभेड़ में मारे गए नौशाद की मां शाहीन का कहना है कि उसका बेटा मजदूरी करता था. पुलिस ने नौशाद और मुस्तकीम को अतरौली थाना क्षेत्र से कई लोगों के सामने जबरन उठा लिया था. इससे ही मुठभेड़ की कहानी फर्जी साबित होती है. 

Tuesday 2 October 2018

मायावती बुआ, अखिलेश का जुआ...

प्रभात रंजन दीन
भारत की राजनीति यूनान की मिथकीय कहानी की खूबसूरत महिला पात्र पैंडोरा की तरह है जिसके हाथ में शिल्प कौशल के देवता एक बॉक्स देकर हिदायत देते हैं, इसे कभी खोलना नहीं. लेकिन जिज्ञासु पैंडोरा उस बॉक्स को खोल देती है और बॉक्स में बंद सारी बुराइयां दुनिया को प्रदूषित करने के लिए आजाद हो जाती हैं. भारत में जब भी चुनाव आता है, पैंडोरा की तरह ‘राजनीति-देवी’ घोटालों-भ्रष्टाचारों का बक्सा खोल देती हैं और लोकतंत्र का पर्व हर बार बदबू से भर जाता है. इस बुराई-बक्से का इस्तेमाल सभी करते हैं, विपक्षी दल से लेकर सत्ताधारी दल तक. लेकिन चुनाव खत्म होते ही बुराई-बक्सा अगले चुनाव के लिए ताक पर रख दिया जाता है. अभी कांग्रेस बुराई-बक्से से सत्ताधारी भाजपा का राफेल-सौदा निकाल कर चमका रही है तो भाजपा लंबे समय तक सत्ता सुख भोगती रही कांग्रेस के घोटालों की लंबी फेहरिस्त निकाल कर दिखाने में लगी है.
इसी बुराई-बक्से से उत्तर प्रदेश का पत्थर घोटाला भी सामने निकल आया है. वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा के भ्रष्टाचार का बुराई-बक्सा खोल कर समाजवादी पार्टी सत्ता में आई थी. लेकिन सत्ता में आते ही समाजवादी पार्टी ने बसपा का भ्रष्टाचार दबा दिया. बाद में उसी भ्रष्टाचार की प्रणेता पार्टी बसपा से समाजवादी पार्टी ने गठबंधन रिश्ता भी बना लिया. अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्मारक (पत्थर) घोटाले की जांच (स्टेटस) रिपोर्ट मांग कर भाजपा को बुराई-बक्सा खोलने का चुनावी-मौका दे दिया है. अब तक भाजपा सरकार भी इस घोटाले को लेकर मौन साधे थी, लेकिन चुनाव आया तो डराने, धमकाने और औकात दिखाने में पत्थर घोटाला अब उनके काम आने वाला है. जब देश-प्रदेश में लोकसभा चुनाव का माहौल गरमाया, तभी ऐन मौके पर मायावती-काल के स्मारक घोटाले की सीबीआई जांच के लिए किसी शशिकांत उर्फ भावेश पांडेय की तरफ से इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल हो जाती है. इस याचिका पर त्वरित सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीबी भोसले और न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा उत्तर प्रदेश सरकार से इस मामले में विजिलेंस जांच की प्रगति रिपोर्ट मांग लेते हैं. याचिका पर हाईकोर्ट के रुख से सनसनी फैल गई. बसपा भी सनसना गई और उससे गठबंधन करने पर उतारू सपा भी सनसनाहट से भर गई.
सपा की सनसनाहट थोड़ी अधिक इसलिए भी है क्योंकि मायावती-काल के घोटालों की फाइल अखिलेश सरकार ने ही दबा रखी थी. कार्रवाई करने की लोकायुक्त की सिफारिश को ताक पर रख कर तत्कालीन मुख्यमंत्री बसपाई भ्रष्टाचार की गैर-वाजिब अनदेखी कर रहे थे. स्मारक घोटाले पर तत्कालीन अखिलेश सरकार की चुप्पी इस बार बड़ा कानूनी जवाब मांगेगी. हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए बड़े ही सख्त लहजे में कहा है कि स्मारक घोटाले का कोई आरोपी बचना नहीं चाहिए. घोटाले की जांच उत्तर प्रदेश सरकार की आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) और सतर्कता अधिष्ठान (विजिलेंस) कर रहा था. इस प्रकरण में एक जनवरी 2014 को ही लखनऊ के गोमतीनगर थाने में एफआईआर दर्ज कराई गई थी. तब यूपी में अखिलेश यादव की सरकार थी.
मायावती के मुख्यमंत्रित्व-काल में राजधानी लखनऊ और गौतमबुद्ध नगर (नोएडा) में अम्बेडकर स्मारकों और पार्कों के निर्माण में 14 अरब रुपए से भी अधिक का घोटाला हुआ था. तत्कालीन लोकायुक्त न्यायमूर्ति एनके मेहरोत्रा की रिपोर्ट और कार्रवाई की सिफारिश पर अखिलेश यादव सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की थी. लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा ने मई 2013 में ही अखिलेश सरकार को अपनी जांच रिपोर्ट सौंप दी थी. स्मारक घोटाले में तत्कालीन मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा समेत 199 व्यक्ति और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के मालिकान जिम्मेदार ठहराए गए थे. आरोपियों में दो मंत्रियों, एक दर्जन विधायकों, दो वकीलों, खनन विभाग के पांच अधिकारियों, राजकीय निर्माण निगम के प्रबंध निदेशक सीपी सिंह समेत 59 अधिकारियों और पांच महाप्रबंधकों, लखनऊ विकास प्राधिकरण के पांच अधिकारियों, 20 कंसॉर्टियम प्रमुखों, 60 व्यावसायिक प्रतिष्ठानों (फर्म्स) के मालिक और राजकीय निर्माण निगम के 35 लेखाधिकारियों के नाम शामिल हैं. आरोपियों की लिस्ट में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती या मुख्यमंत्री सचिवालय के उनके खास नौकरशाहों के नाम शामिल नहीं हैं. लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी, बाबू सिंह कुशवाहा, राजकीय निर्माण निगम के तत्कालीन प्रबंधन निदेशक (एमडी) सीपी सिंह, खनन विभाग के तत्कालीन संयुक्त निदेशक सुहैल अहमद फारूकी और 15 इंजीनियरों के खिलाफ तत्काल एफआईआर दर्ज कराकर मामले की सीबीआई से जांच कराने और घोटाले की रकम वसूलने की सिफारिश की थी. लोकायुक्त ने यह भी सिफारिश की थी कि आरोपियों की आय से अधिक पाई जाने वाली चल-अचल सम्पत्ति जब्त कर ली जाए और स्मारकों के लिए पत्थर की आपूर्ति करने वाली 60 फर्मों और 20 कंसॉर्टियम से भी वसूली की कार्रवाई की जाए. लोकायुक्त की रिपोर्ट मिलने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कार्रवाई की बात तो कही, लेकिन सीबीआई से जांच कराने की सिफारिश करने के बजाय सतर्कता अधिष्ठान को जांच सौंपी दी. मामले को घालमेल करने के इरादे से तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कार्रवाई के लिए लोकायुक्त की रिपोर्ट के कुछ हिस्से अलग कर उसे गृह विभाग को सौंप दिए. उसी रिपोर्ट के कुछ हिस्से लोक निर्माण विभाग को सौंप दिए गए और कुछ हिस्से भूतत्व और खनन विभाग के सुपुर्द कर दिए गए. यानि, गृह विभाग छोड़ कर, पत्थर घोटाले में जो विभाग शामिल थे, उन्हें ही कार्रवाई करने की अखिलेश सरकार ने जिम्मेदारी दे दी.
विडंबना है कि अखिलेश यादव सरकार ने लोकायुक्त की रिपोर्ट को क्षतविक्षत करने की गैर-कानूनी हरकत की. जबकि लोकायुक्त ने पत्थरों की खरीद में घोटाला कर सरकार को 14.10 अरब रुपए नुकसान पहुंचाने के आपराधिक-कृत्य के खिलाफ ‘क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऑर्डिनेंस-1944’ की धारा 3 के तहत सभी आरोपियों की सम्पत्ति कुर्क करके घोटाले की राशि वसूलने की सिफारिश की थी. लोकायुक्त ने अपनी सिफारिश में सरकार को यह भी सुझाया था कि तत्कालीन मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा से कुल धनराशि का प्रत्येक से 30 प्रतिशत, राजकीय निर्माण निगम के प्रबंध निदेशक सीपी सिंह से 15 प्रतिशत, खनन विभाग के तत्कालीन संयुक्त निदेशक सुहैल अहमद फारूकी से पांच प्रतिशत और निर्माण निगम के 15 इंजीनियरों से 15 प्रतिशत धनराशि वसूली जाए. लोकायुक्त ने यह भी सिफारिश की थी कि निर्माण निगम के लेखाधिकारियों की आय से अधिक सम्पत्ति पाए जाने पर उनसे सरकारी खजाने को पहुंचे नुकसान की शेष राशि यानि पांच प्रतिशत की वसूली की जाए. लेकिन अखिलेश सरकार इस फाइल पर ही आसन टिका कर बैठ गई.
तत्कालीन लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा द्वारा आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) से कराई गई जांच में आधिकारिक तौर पर पुष्टि हुई कि पत्थर (स्मारक) घोटाले के जरिए 14.10 अरब रुपए, यानि, सवा चौदह हजार करोड़ रुपए हड़प लिए गए. स्मारकों और पार्कों के निर्माण के लिए मायावती सरकार ने कुल 42 अरब 76 करोड़ 83 लाख 43 हजार रुपए जारी किए थे. इसमें से 41 अरब 48 करोड़ 54 लाख 80 हजार रुपए खर्च किए गए. शेष एक अरब 28 करोड़ 28 लाख 59 हजार रुपए सरकारी खजाने में वापस कर दिए गए. स्मारकों के निर्माण पर खर्च की गई कुल धनराशि का लगभग 34  प्रतिशत अधिक खर्च करके सरकार को 14 अरब 10 करोड़ 50 लाख 63 हजार 200 रुपए का सीधा नुकसान पहुंचाया गया. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2007 से लेकर 2012 के बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के आदेश पर लखनऊ और नोएडा में अम्बेडकर और कांशीराम के नाम पर कई पार्क और स्मारक बनवाए गए थे. स्मारकों और पार्कों के निर्माण कार्य में प्रमुख रूप से राजकीय निर्माण निगम, आवास एवं शहरी नियोजन विभाग, लोक निर्माण विभाग, नोएडा अथॉरिटी, लखनऊ विकास प्राधिकरण और संस्कृति एवं सिंचाई विभाग को लगाया गया था.
स्मारकों और पार्कों के निर्माण में लगाए गए गुलाबी पत्थर मिर्जापुर की खदानों के थे. उन पत्थरों को राजस्थान (भरतपुर) भेज कर वहां कटाई (कटिंग एंड कार्विंग) कराई जाती थी. फिर जयपुर भेज कर उन पत्थरों पर नक्काशियां होती थीं. इसके बाद उन पत्थरों को ट्रकों से वापस लखनऊ और नोएडा भेजा जाता था. कागजों पर जितने ट्रक मिर्जापुर से राजस्थान गए और वहां से वापस नोएडा और लखनऊ आए, वे असलियत में उतने नहीं थे. पत्थर ढुलाई में भी सरकार का अनाप-शनाप धन हड़पा गया. भुगतान भी तय रकम से दस गुना ज्यादा मनमाने तरीके से किया जाता रहा. आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा की जांच रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2007 से लेकर 2011 के बीच कुल 15 हजार 749 ट्रक पत्थर कटाई और कशीदाकारी के लिए राजस्थान भेजे गए. इनमें से मात्र 7,141 ट्रक पत्थर लखनऊ आए और 322 ट्रक नोएडा पहुंचे. बाकी के 7,286 ट्रक और उन पर लदे पत्थर कहां लापता हो गए? जबकि इनके भुगतान ऊंची कीमतों पर हो गए. घोटाले की जांच रिपोर्ट में इस तरह की अजीबोगरीब बानगियां भरी पड़ी हैं.
जांच में यह भी पाया गया था कि आठ जुलाई 2008 को बैठक कर कंसॉर्टियम बनाया गया और कंसॉर्टियम से पत्थरों की सप्लाई का अनुबंध किया गया. इस बैठक ने उत्तर प्रदेश उप खनिज (परिहार) नियमावली 1963 का सीधा-सीधा उल्लंघन किया. पत्थरों की खरीद के लिए बनी संयुक्त क्रय समिति की बैठक में सारे नियम-प्रावधान दरकिनार कर बिना टेंडर के बाजार से ऊंचे रेट पर मिर्जापुर सैंड स्टोन के ब्लॉक खरीदने और सप्लाई कराने का फैसला ले लिया गया. फैसलाकारों ने मनमानी दरें तय कर करोड़ों का घपला किया. दाम ज्यादा दिखाने के लिए पत्थरों की खरीद कहीं से हुई, कटान कहीं और हुई, पत्थरों पर नक्काशी कहीं और से कराई गई और सप्लाई कहीं और से दिखाई गई. स्मारकों और पार्कों के निर्माण में लगे योजनाकारों ने पहले यह तय किया था कि पत्थर की कटिंग और कार्विंग मिर्जापुर में ही हो और इसके लिए मिर्जापुर में ही मशीनें लगाई जाएं. लेकिन बाद में अचानक यह फैसला बदल गया. पत्थर को ट्रकों पर लाद कर राजस्थान भेजने और कटिंग-कार्विंग के बाद उसे फिर ट्रकों पर लाद कर लखनऊ और नोएडा वापस मंगाने का फैसला बड़े पैमाने पर घोटाला करने के इरादे से ही किया गया था. हजारों ट्रक माल मिर्जापुर से राजस्थान भेजे गए, लेकिन वे वापस लौटे ही नहीं. उसका भुगतान भी हो गया. यह भ्रष्टाचार की सोची-समझी रणनीति का ही परिणाम था. ईओडब्लू की जांच में ये सारी करतूतें प्रामाणिक तौर पर साबित हो चुकी हैं. आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) ने उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर और सोनभद्र के पत्थर कटाई वाले क्षेत्र के साथ-साथ राजस्थान के बयाना (भरतपुर) और जयपुर को भी अपनी जांच के दायरे में रखा था. ईओडब्लू ने लखनऊ और नोएडा के उन स्थानों का भी भौतिक सत्यापन किया जहां पत्थर लगाए गए थे. रेखांकित करने वाला तथ्य यह भी है कि पत्थरों की खरीद के लिए कीमत तय करने वाली सरकार की उच्चस्तरीय संयुक्त क्रय समिति ने बाजार भाव का पता लगाए बगैर कमरे में बैठे-बैठे ही 150 रुपए प्रति घन फुट कीमत तय कर दी थी और उस पर 20 रुपए प्रति घन फुट की दर पर लदान की कीमत भी निर्धारित कर दी.
पहले खदान के पट्टाधारकों से सीधे पत्थर खरीदा जाना तय हुआ था, लेकिन अचानक यह फैसला भी बदल दिया गया. अधिकारियों ने उत्तर प्रदेश उप खनिज (परिहार) नियमावली 1963 के नियम 19 के प्रावधानों को ताक पर रख कर खनन पट्टाधारकों का एक ‘गिरोह’ बना दिया और उसे कंसॉर्टियम नाम दे दिया. पट्टाधारकों को सीधे भुगतान न देकर कंसॉर्टियम के जरिए भुगतान किया जाता था. जांच में यह तथ्य खुल कर सामने आ गया कि कंसॉर्टियम के जरिए पट्टाधारकों को 75 रुपए प्रति घन फुट की दर से पेमेंट होता था, जबकि निर्माण निगम डेढ़ सौ रुपए प्रति घन फुट की दर से सरकार से पेमेंट लेता था. स्मारक निर्माण की पूरी प्रक्रिया घनघोर अराजकता में फंसी थी. बैठकें होती थीं, निर्णय लिए जाते थे, भुगतान होता था, लेकिन ईओडब्लू ने जब जांच पड़ताल की तो बैठकों का कहीं कोई आधिकारिक ब्यौरा ही नहीं मिला. बैठकों का कोई रिकार्ड किसी सरकारी दस्तावेज में दर्ज नहीं पाया गया. भूतत्व एवं खनिकर्म महकमे के निदेशक सुहैल अहमद फारूकी के रिटायर होने के बाद भी मायावती सरकार ने उन्हें ‘पत्थर-धंधे’ में लगाए रखा. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने फारूकी को सलाहकार नियुक्त कर दिया और मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और सलाहकार सुहैल अहमद फारूकी मुख्यमंत्री की तरह ही फैसले लेते रहे. जांच में यह बात सामने आई कि निर्माणाधीन स्मारक स्थलों और पार्कों का मायावती ने कभी 'ऑन-रिकॉर्ड' निरीक्षण नहीं किया. निर्माण कार्य देखने के लिए मायावती कभी मौके पर आईं भी तो वह सरकारी दस्तावेजों पर दर्ज नहीं है. मायावती की तरफ से नसीमुद्दीन सिद्दीकी ही मॉनीटरिंग करते थे और यह तथ्य सरकारी दस्तावेज पर दर्ज भी है. लोकायुक्त की रिपोर्ट पर एक जनवरी 2014 को लखनऊ के गोमतीनगर थाने में सतर्कता अधिष्ठान ने भारतीय दंड विधान की धारा 409, 120-बी, 13 (1) डी और 13 (2) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज कराया था. लेकिन चार्जशीट आज तक दाखिल नहीं हो सकी.

निर्माण निगम के अफसरों ने यूं ही झाड़ लिए 10 करोड़
ईओडब्लू की जांच में यह तथ्य सामने आया कि निर्माण निगम ने कुल 19,17,870.609 घन फुट मिर्जापुर सैंड स्टोन 150 रुपए प्रति घन फुट की दर से खरीदा था, जिस पर 28 करोड़ 76 लाख 80 हजार 591 रुपए का भुगतान हुआ. विचित्र किन्तु सत्य यह है कि जो पत्थर 150 रुपए प्रति घन फुट की दर पर खरीदा दिखाया गया, वह महज 50 से 75 रुपए प्रति घन फुट की दर पर खरीदा गया था. लिहाजा,  19,17,870.609 घन फुट सैंड स्टोन पर अगर 50 रुपए प्रति घन फुट भी अधिक लिया गया तो चुराई गई राशि 9 करोड़ 58 लाख 93 हजार 530 रुपए होती है. इस तरह निर्माण निगम के अफसरों ने सरकार के 10 करोड़ रुपए यूं ही झाड़ लिए.

अपवित्र तौर-तरीकों से होता रहा मायावती का ‘पवित्र-कार्य’... वे मौन देखती रहीं
स्मारक घोटाला कहें या पत्थर घोटाला, इसमें हुई कानूनी औपचारिकताओं में कहीं भी तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती का जिक्र नहीं है. जैसा आपको ऊपर बताया कि इस घोटाला प्रकरण में लोकायुक्त की रिपोर्ट पर सतर्कता अधिष्ठान ने जो एफआईआर दर्ज कराई उसमें भी मायावती सरकार के दो मंत्री और एक दर्जन विधायक समेत करीब दो सौ लोग अभियुक्त बनाए गए, लेकिन मायावती को अभियुक्त नहीं बनाया गया. लोकायुक्त ने पत्थर घोटाले की विस्तृत जांच आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) से कराई थी. ईओडब्लू की पूरी जांच रिपोर्ट ‘चौथी दुनिया’ के पास है. ईओडब्लू की जांच रिपोर्ट अम्बेडकर और कांशीराम के नाम पर बने स्मारकों और पार्कों को मायावती द्वारा ‘पवित्र-कार्य’ बताए जाने पर गंभीर कटाक्ष करती है. जांच रिपोर्ट कहती है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने ‘पवित्र-कार्य’ के लिए 42 अरब 76 करोड़ 83 लाख 43 हजार रुपए का बजट दिया लेकिन उन्हीं की सरकार के दो मंत्रियों और उनके मातहती विभागों व निगमों के अधिकारियों ने ‘पवित्र-कार्य’ के लिए खर्च हुई धनराशि का 34 प्रतिशत हिस्सा गड़प कर जाने का अपवित्र काम किया. कुल धनराशि का 34 प्रतिशत हिस्सा भ्रष्टाचार करके खा जाने के काम में मायावती सरकार के दो मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा सीधे तौर पर लिप्त बताए गए, जिनके संरक्षण और निर्देशन में निर्माण निगम और खनन विभाग के अधिकारियों ने जमकर भ्रष्टाचार किया और सरकारी धन हड़पा.

सवा चौदह हजार करोड़ के घोटाले पर खड़ा महापुरुषों का स्मारक
भ्रष्टाचारियों ने महापुरुषों के नाम पर बन रहे स्मारकों और पार्कों को भी नहीं बख्शा. हालांकि ईओडब्लू के एक आला अधिकारी कहते हैं कि भ्रष्टाचार करने के लिए ही महापुरुषों के नाम का इस्तेमाल किया गया था. स्मारक और पार्क श्रद्धा के लिए नहीं, बल्कि सरकारी धन लूटने के लिए बनवाए गए थे. स्मारकों और पार्कों के निर्माण कार्य के लिए मायावती सरकार ने 42 अरब 76 करोड़ 83 लाख 43 हजार रुपए दिए थे. इस धनराशि में से 41 अरब 48 करोड़ 54 लाख 80 हजार रुपए खर्च किए गए. सरकारी खजाने में केवल एक अरब 28 करोड़ 28 लाख 59 हजार रुपए ही वापस जमा किए गए. यानि, कुल खर्च की गई राशि में से 14 अरब 10 करोड़ 50 लाख 63 हजार 200 रुपए हड़प लिए गए. स्मारकों के निर्माण कार्य में राजकीय निर्माण निगम के अलावा आवास एवं शहरी नियोजन विभाग, लोक निर्माण विभाग (पीडब्लूडी), संस्कृति विभाग, सिंचाई विभाग, लखनऊ विकास प्राधिकरण (एलडीए) और नोएडा प्राधिकरण वगैरह शामिल थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के तत्कालीन करीबी नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा ही इन विभागों के मंत्री थे. बाबू सिंह कुशवाहा खनन विभाग के मंत्री हुआ करते थे, जबकि नसीमुद्दीन सिद्दीकी स्मारकों और पार्कों के निर्माण के ‘पवित्र-कार्य’ से सम्बद्ध अन्य सभी विभागों के मंत्री हुआ करते थे. ‘अज्ञात’ वजहों से तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती की नजरों से गिरे कुशवाहा एनआरएचएम घोटाले में जेल चले गए, लेकिन मायावती जब तक सत्ता में रहीं, नसीमुद्दीन उनकी आंखों का तारा बने रहे और आखेट करते रहे. सत्ता जाने के बाद मायावती और नसीमुद्दीन में धन के लेन-देन को लेकर ही विवाद हुआ, खूब तू-तू-मैं-मैं हुई, आरोप-प्रत्यारोप हुए और बसपा से नसीमुद्दीन का निष्कासन हुआ. मायावती अब अखिलेश के साथ हैं और नसीमुद्दीन अब अखिलेश के दोस्त राहुल के साथ हैं. प्रत्यक्ष या परोक्ष, अब भी सब साथ हैं... उन पर ‘राजनीति-देवी’ की कृपा बनी रहे.

महागठबंधन पर असर डालेगा पत्थर घोटाला
मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में हुए पत्थर घोटाले पर मिट्टी डालने की अखिलेश यादव सरकार की कारगुजारी सपा और बसपा दोनों पर भारी पड़ने वाली है. हाईकोर्ट के तेवर को सियासी नजरिए से देखें तो यह महागठबंधन की कोशिशों पर पानी फेरेगा. मायावती दबाव में हैं, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को दुत्कार कर अजित जोगी की जनता कांग्रेस से हाथ मिलाने के मायावती के फैसले ने यह जताया कि मायावती दबाव में हैं. उन्होंने न तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस से हाथ मिलाया और न ही राजस्थान में. राजनीतिक प्रेक्षकों का आकलन है कि उत्तर प्रदेश में भी लोकसभा चुनाव के पहले ऐसा ही होने वाला है. अखिलेश यादव के लिए भी स्मारक घोटाला परेशानी का सबब बनने वाला है. वर्ष 2012 में सत्ता पर बैठने से पहले समाजवादी पार्टी बसपाई घोटाले का पाई-पाई वसूलने का चुनावी जुमला उछाल रही थी, वही पार्टी सत्ता पाते ही स्मारक घोटाले को पचा गई. लोकायुक्त की रिपोर्ट और विजिलेंस की तरफ से दर्ज एफआईआर भी किसी कानूनी अंजाम तक नहीं पहुंच पाई. सरकारी दबाव में विजिलेंस अधिष्ठान चार्जशीट तक दाखिल नहीं कर सका.

बसपा के स्मारक घोटाले के बाद खुलेगी सपा के कुंभमेला घोटाले की फाइल!
सत्ता गलियारे के उच्च पदस्थ अधिकारी बसपाकाल के स्मारक घोटाले के बाद सपाकाल के कुंभमेला घोटाले की फाइल के खुलने की भी संभावना जताते हैं. सपा सरकार के कार्यकाल में हुए कुंभ मेला घोटाले की भी सीबीआई से जांच कराने की मांग होती रही है. महालेखाकार (कैग) की रिपोर्ट में भी कुंभ मेला घोटाले की आधिकारिक पुष्टि हो चुकी है. कुंभ मेले के कर्ताधर्ता तत्कालीन मंत्री आजम खान थे. सपा सरकार के कार्यकाल में 14 जनवरी 2013 से 10 मार्च 2013 तक इलाहाबाद के प्रयाग में महाकुंभ हुआ था. कुंभ मेले के लिए अखिलेश सरकार ने 1,152.20 करोड़ दिए थे. कुंभ मेले पर 1,017.37 करोड़ रुपए खर्च हुए. यानि, 1,34.83 करोड़ रुपए बच गए. अखिलेश सरकार ने इसमें से करीब हजार करोड़ (969.17 करोड़) रुपए का कोई हिसाब (उपयोग प्रमाण पत्र) ही नहीं दिया. अखिलेश सरकार ने कुंभ मेले के लिए मिली धनराशि में केंद्रांश और राज्यांश का घपला करके भी करोड़ों रुपए इधर-उधर कर दिए.
मायावती काल के स्मारक घोटाले के बारे में भी कैग ने इसी तरह के सवाल उठाए थे. बसपा के स्मारक निर्माण की मूल योजना 943.73 करोड़ रुपए की थी, जबकि 4558.01 करोड़ रुपए में योजना पूरी हुई. योजना में 3614.28 करोड़ रुपए की भीषण बढ़त हुई. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती द्वारा बार-बार डिजाइन में बदलाव कराने और पक्के निर्माण को बार-बार तोड़े जाने के कारण भी खर्च काफी बढ़ा. कैग ने इस पर भी सवाल उठाया था कि स्मारक स्थल पर लगाए गए पेड़ सामान्य से काफी अधिक दर पर खरीदे गए थे. इसके अलावा पर्यावरण नियमों के विपरीत 44.23 प्रतिशत भू-भाग पर पत्थर का काम किया गया था. दलितों और कमजोर वर्ग के प्रति कागजी समर्पण दिखाने वाली मायावती ने इन स्मारकों के शिलान्यास पर ही 4.25 करोड़ रुपए फूंक डाले थे. स्मारक घोटाले में अहम भूमिका निभाने वाली सरकारी निर्माण एजेंसी उत्तर प्रदेश निर्माण निगम पर मायावती सरकार की इतनी कृपादृष्टि थी कि 4558.01 करोड़ रुपए की वित्तीय स्वीकृति की औपचारिकता के पहले ही निर्माण निगम को 98.61 प्रतिशत धन आवंटित कर दिया गया था.