Tuesday 16 October 2018

#योगी सरकारः प्रशासन ‘बदतरीन’, अदालत ‘बेहतरीन’..!

#योगी सरकार और प्रशासन का समन्वय पूरी तरह फेल है, जबकि अदालत और सरकार का सामंजस्य परवान चढ़ रहा है. इस ‘फेल’ और ‘पास’, दोनों के अपने अलग-अलग निहितार्थ हैं और स्वार्थ हैं...

प्रशासन और सरकार का ‘बदतरीन’ समन्वय

प्रभात रंजन दीन
चोर ही चोर-चोर चिल्लाता हुआ दौड़ रहा है. जनता अवाक है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पुलिस के सिपाही ने एक आम नागरिक की गोली मार कर हत्या कर दी और अब पुलिसकर्मी ही विद्रोह पर भी उतारू हैं. यूपी पुलिस ने चोर के चोर-चोर चिल्लाने की कहानी यथार्थ में बदल दी है. योगी सरकार चुप है. सरकार चुनाव का समय देख रही है. हत्यारोपी सिपाही प्रशांत चौधरी में सरकार को जाट दिखाई दे रहा है. सरकार को चुनाव के समय पुलिस की नाराजगी का खतरा दिख रहा है. आम नागरिक में क्या है! आम नागरिक तो एक गिनती है. इधर-उधर से लेकर पूरी कर ली जाएगी. देश की ‘लोकतांत्रिक’ सरकारों की यही असलियत है. खुलेआम की गई हत्या पर इतनी सीनाजोरी प्रदेश के लोग पहली बार देख रहे हैं. खुलेआम की गई हत्या पर सरकार की इतनी कमजोरी भी प्रदेश के लोग पहली बार देख रहे हैं. एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि इस तरह अगर किसी दलित की हत्या हुई होती तो मुख्यमंत्री बदल गया होता. अगर किसी पिछड़े की हत्या हुई होती तो पुलिस महानिदेशक बदल गया होता और अगर किसी अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति की पुलिस के हाथों हत्या हुई होती सारे विपक्षी दल सड़क पर उतर आए होते. कितनी अजीबोगरीब और दुखद स्थिति है कि अब अपराध की घटना भी जाति के एंगल से देखी-समझी जाती है और उसे उसी मुताबिक ‘हैंडल’ किया जाता है.
लखनऊ में विवेक तिवारी नामक एक आम नागरिक की हत्या करने वाले सिपाही प्रशांत चौधरी के बचाव में यूपी पुलिस काली पट्टी बांध कर अपनी नाराजगी दिखा रही है. यह सरकार के खिलाफ खुले विद्रोह का ऐलान है. पुलिस महानिदेशक ओपी सिंह समेत पूरी सरकार इसे काबू में करने में फेल है. प्रशासनिक अराजकता की स्थिति बनी हुई है. यूपी पुलिस के सिपाही हत्यारोपी सिपाही प्रशांत चौधरी के प्रति भारी समर्थन जता रहे हैं और कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए लाखों रुपए का खुला चंदा दे रहे हैं. खुलेआम कहा जा रहा है कि हत्यारोपी प्रशांत चौधरी का मुकदमा लड़ने के लिए कम से कम पांच करोड़ रुपए का चंदा जमा किया जाएगा. पुलिसकर्मियों ने सोशल-मीडिया पर खुलेआम अभियान चला रखा है. हत्यारोपी के समर्थन में पुलिस वालों का इस तरह विद्रोह पर उतरना कानून व्यवस्था के अप्रासंगिक होने की सांकेतिक घोषणा है. उत्तर प्रदेश पुलिस ने ‘पुलिस-एक्ट’ की धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं. कानून को ताक पर रखने वाले आम नागरिकों को कानून का पाठ पढ़ाएंगे तो लोग उसे कैसे और क्यों मानेंगे, इसकी गंभीरता सत्ता अलमबरदारों को समझ में नहीं आ रही है. सरकार की चुप्पी, सरकार के आत्मसमर्पण की सनद है.
एक आला पुलिस अधिकारी ने इसे बेहद चिंताजनक स्थिति बताते हुए कहा कि पुलिस का यह विद्रोही रवैया आने वाले दिनों में आपसी मारा-मारी और अधिकारी पर गोली चलाने तक की स्थितियों का संकेत दे रहा है. इसे समय रहते नहीं निपटा गया तो हालात बेकाबू होते चले जाएंगे. उक्त अधिकारी ने स्पष्ट कहा कि इसे हैंडल करने में सरकार की अकुशलता साफ तौर पर साबित हो चुकी है. जबकि इस मसले को अत्यंत सरलतापूर्वक किंतु दृढ़तापूर्वक संभाला जा सकता था. सिपाही प्रशांत चौधरी के हाथों जिन विवेक तिवारी की हत्या हुई, उनका परिवार भी सदमे में है. परिवार के सदस्य कहीं बाहर निकलने से भी डर रहे हैं. उन्हें इस बात का डर है कि रास्ते में पुलिस का गुस्सा कहीं उन्हीं पर न बरप जाए. पुलिस प्रशासन की अराजकता का ही उदाहरण है कि विवेक तिवारी की हत्या के बाद एक तरफ लखनऊ का वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक यह बयान दे रहा था कि हत्यारोपी सिपाही को गिरफ्तार कर लिया गया है, जबकि दूसरी तरफ हत्यारोपी सिपाही गोमती नगर थाने में अलग एफआईआर लिखवाने के लिए हंगामा खड़ा किए था. वह मीडिया के सामने भी मूंछें तानकर खुद को बेकसूर बता रहा था और कह रहा था कि उसने अपनी जान बचाने के लिए हत्या की है.
पुलिस के बगावती तेवर अख्तियार करने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत योगी मंत्रिमंडल के सभी सदस्यों ने इस मसले से खुद को अलग कर लिया. मुख्यमंत्री ने शुरुआती दौर में मामला संभालने की कोशिश की, लेकिन फिर वे अचानक नेपथ्य में चले गए. सत्ता गलियारे के जानकारों का कहना है कि पार्टी आलाकमान ने मुख्यमंत्री को मौन साधे रखने को कहा. पूरा प्रकरण पुलिस के मत्थे छोड़ दिया गया. पुलिस की पूरी तैयारी मामले की लीपापोती करने की थी, लेकिन मामले के मीडिया में तूल पकड़ने के कारण पुलिस अपनी कारगुजारी में कामयाब नहीं हो पाई. लेकिन विद्रोह पर उतारू होकर यूपी पुलिस ने दिखा दिया कि हत्या जैसे संज्ञेय अपराध को लेकर भी यूपी पुलिस कितनी संवेदनहीन है. एक पुलिस अधिकारी ने ही कहा कि मुठभेड़ की अराजक-आजादी दिए जाने का यह नतीजा है.
हत्यारोपी सिपाही प्रशांत चौधरी के समर्थन में सिपाहियों ने यहां तक धमकी दे रखी है कि अगर उसके खिलाफ दर्ज केस वापस नहीं लिए जाते हैं सारे पुलिसकर्मी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले जाएंगे. इसे सोशल-साइट्स पर भी खूब वायरल किया गया. सोशल साइट्स से अलग रहने की डीजीपी की हिदायत को भी ठेंगा दिखा दिया गया. विद्रोही तेवर अख्तियार करने वाले पुलिसकर्मियों के समर्थन में अराजपत्रित कर्मचारी सेवा एसोसिएशन भी उतर आया, लेकिन सरकार चुप्पी ही साधे रही. सबसे खतरनाक स्थिति यह है कि पुलिसकर्मियों के इस अभियान के समर्थन में प्रॉविन्शियल आर्म्ड कांसटेबलरी (पीएसी) भी सामने आ गई है. कानपुर स्थित पीएसी की 37वीं बटालियन में तैनात सिपाही प्रकाश पाठक ने खुलेआम कहा कि सिपाही प्रशांत चौधरी ने आत्मरक्षा में गोली चलाई. पीएसी के उक्त सिपाही ने सीधे आरोप लगाया कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बिना जांच के ही प्रशांत चौधरी के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं. हत्यारोपी सिपाही प्रशांत चौधरी और घटना के समय उसके साथ रहे सिपाही संदीप कुमार के पक्ष में सोशल-साइट्स पर सरकार के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी लिखने वाले एटा के सिपाही सर्वेश चौधरी को निलंबित तो कर दिया गया, लेकिन इससे उसका बयान नहीं रुक पाया. धीरे-धीरे इस मामले को जाट भावना से भी जोड़ा जा रहा है. पुलिस मुख्यालय से लेकर कानून व्यवस्था के आला पुलिस अफसर तक यही कहते रहे कि काली पट्टी बांध कर विरोध जताने वाले सिपाहियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. इस प्रसंग में तीन सिपाहियों को निलंबित भी किया गया और तीन थानों के प्रभारियों का तबादला भी हुआ, लेकिन इन कार्रवाइयों से पुलिस का विद्रोह नहीं थमा. मिर्जापुर में एक बर्खास्त सिपाही अविनाश गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन न तो विरोध रुक रहा और न चंदा जमा करने के अभियान पर कोई अंकुश लग पा रहा.
पुलिसकर्मियों के तेवर से बने माहौल पर उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) ओपी सिंह कहते हैं कि सिपाहियों में विरोध जैसी कोई स्थिति नहीं है. उन्हें अपने सिपाहियों पर पूरा भरोसा है. डीजीपी ने यह भी कहा कि किसी भी तरह का गैरकानूनी या अनुशासनहीनता का काम करने वाले पुलिसकर्मियों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी. डीजीपी ने कहा कि आला पुलिस अधिकारी लगातार जवानों से बातचीत कर रहे हैं और स्थिति को सामान्य करने की कोशिश की जा रही है. डीजीपी के इस बयान के बाद भी सिपाहियों ने अपना अभियान जारी रखा है.

प्रमोशन देकर बगावत थामने की कोशिश
पुलिस के बगावती तेवर पर ठंडा पानी डालने की रणनीति के तहत पुलिस महानिदेशक ओपी सिंह ने पुलिसकर्मियों को प्रमोशन देने का ताबड़तोड़ सिलसिला शुरू कर दिया. यूपी पुलिस में पहली बार एक साथ 25091 कांस्टेबल को हेड कांस्टेबल के पद पर प्रोन्नत कर दिया गया. प्रमोशन पाने वालों में वर्ष 1975 से वर्ष 2004 बैच तक के कांस्टेबल शामिल हैं. विवेक तिवारी हत्याकांड के बाद से पुलिस की गतिविधियों पर नजर रख रहे पुलिस-विशेषज्ञों का मानना है कि पुलिसकर्मियों को प्रमोशन देने के फैसले से सरकार के बैकफुट पर चले जाने का संकेत मिल रहा है. सिपाहियों को तरक्की देने की पहल डीजीपी की तरफ से की गई. यह प्रमोशन पुलिसकर्मियों का अब तक का सबसे बड़ा प्रमोशन है. इससे पहले वर्ष 2016 में 15 हजार 803 पुलिसकर्मियों को तरक्की मिली थी. पुलिस मुख्यालय के एक अधिकारी ने बताया कि सिपाहियों के हेड कांस्टेबल के पद पर प्रोन्नत होने के बाद भी हेड कांस्टेबल के करीब 12 हजार पद खाली हैं. प्रमोशन के लिए 29 हजार सिपाहियों के नाम पर विचार हुआ था, लेकिन उनमें से चार हजार सिपाहियों को प्रमोशन के योग्य नहीं पाया गया.

डीजीपी की चेतावनी बेअसर, विरोध जारी
डीजीपी ओपी सिंह की कोशिशों और हिदायतों के बाद भी यूपी पुलिस के सिपाहियों का काली पट्टी बांधकर विरोध प्रदर्शन जारी है. सिपाहियों के विरोध प्रदर्शन में दारोगा स्तर के अधिकारी भी शामिल हो गए हैं. 10 अक्टूबर को सिपाहियों और दारोगा ने चेहरे छिपाकर और हाथ में काली पट्टी बांधकर प्रदर्शन किया. इस प्रदर्शन की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर वायरल की गईं. फैजाबाद में तैनात बागपत के दो सिपाहियों राहुल पांचाल और मोहित कुमार के इस्तीफे वाली चिट्ठी भी वायरल की गई. हत्यारोपी सिपाही के समर्थन में चल रहे विरोध अभियान में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रहने वाले सिपाही और दारोगा बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं.

कहीं पीएसी विद्रोह जैसी दुर्भाग्यपूर्ण हालत न हो जाए!
पुलिस के आला अधिकारी पुलिसकर्मियों के विद्रोही तेवर को देखते हुए इस बात के लिए आशंकित हैं कि कहीं 45 साल पहले हुए पीएसी विद्रोह जैसी हालत न हो जाए. पीएसी विद्रोह पर सेना को हस्तक्षेप करना पड़ा था और सेना के साथ हथियारबंद संघर्ष में पीएसी के कम से कम 30 जवानों को जान गंवानी पड़ी थी. सेना के भी 13 जवान शहीद हुए थे. उस घटना के बाद ही उत्तर प्रदेश में पुलिस संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. 1973 के मई महीने में भड़का पुलिस विद्रोह उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक ढांचे को तबाह कर देता, अगर सेना बुलाने में देरी की गई होती.
सेना ने आते ही उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में पीएसी के उन सारे ठिकानों को अपने कब्जे में ले लिया था, जहां पीएसी के हथियार रखे जाते थे. पीएसी विद्रोह के अलग-अलग 65 मामलों में 795 पुलिस वालों पर मुकदमे चलाए गए थे. उनमें से 148 पुलिसकर्मियों को दो साल की जेल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हुई थी. पांच सौ पुलिसकर्मियों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी थी. सेना के जवानों पर गोलियां चलाने के आरोप में 500 पुलिसकर्मियों को नौकरी से निकाल दिया गया था. इसके अलावा हजारों अन्य पुलिसकर्मियों को भी नौकरी से निकाले जाने का प्रस्ताव रखा गया था, लेकिन संविधान विशेषज्ञों की राय पर यह कार्रवाई नहीं हुई.
पीएसी विद्रोह के चश्मदीद रहे बुजुर्ग पुलिसकर्मी बताते हैं कि पीएसी विद्रोह के कारण ही कमलापति त्रिपाठी जैसे नेता की मुख्यमंत्री की कुर्सी छिन गई थी. आजाद भारत में 1973 का पीएसी विद्रोह सशस्त्र बल का सबसे बड़ा विद्रोह माना जाता है. पीएसी की 12वीं बटालियन का विद्रोह अपनी ही सरकार के खिलाफ था. इस बटालियन ने मई 1973 में विद्रोह कर दिया. खराब सर्विस कंडीशन, गलत अफसरों के हाथ में कमान, अफसरों द्वारा जवानों का उत्पीड़न, अफसरों के घर पर जवानों से नौकरों की तरह काम कराना और उनकी जानवरों से भी बदतर स्थिति विद्रोह का मुख्य कारण बनी. इस विद्रोह के बाद यूपी का पुलिस सिस्टम ध्वस्त होने की स्थिति में आ गया. आखिरकार सेना बुलानी पड़ी. पांच दिन के ऑपरेशन के बाद आर्मी ने पीएसी विद्रोह को नियंत्रण में कर लिया. इसमें 30 पुलिसवाले मारे गए.
उस समय के गृह राज्य मंत्री केसी पंत ने 30 मई 1973 को राज्यसभा में सूचना दी कि 22 से 25 मई 1973 तक चले पीएसी विद्रोह को दबाने के लिए की गई सैन्य कार्रवाई में सेना ने भी अपने 13 जवान खो दिए और 45 सैनिक घायल हो गए थे. इस विद्रोह का राजनीतिक असर इतना जबरदस्त हुआ कि 425 सदस्यों वाली उत्तर प्रदेश विधानसभा में 280 सीटों वाली कांग्रेस की कमलापति त्रिपाठी सरकार को 12 जून 1973 को सत्ता से बेदखल होना पड़ा. इसके बाद यूपी में राष्ट्रपति शासन लग गया. प्रदेश में डेढ़ सौ दिनों तक राष्ट्रपति शासन रहा. इसके बाद हेमवती नंदन बहुगुणा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए थे.


अदालत और सरकार का ‘बेहतरीन’ समन्वय

उत्तर प्रदेश सरकार का प्रशासन के साथ सामंजस्य भले ही ठीक नहीं चल रहा हो, लेकिन योगी सरकार का न्यायपालिका के साथ सामंजस्य सही और सटीक चल रहा है. भाजपा के सांसदों और विधायकों की बात तो छोड़िए, प्रदेश सरकार के मंत्री तक नौकरशाही की बदमिजाजी और अराजकता की सरेआम शिकायत करते नजर आते हैं, पुलिस की अराजकता के नमूने तो आप देख ही रहे हैं. पुलिस आम नागरिक की सरेआम हत्या भी कर देती है और काली पट्टी लगा कर विद्रोह पर उतारू भी हो जाती है. प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पुलिस की ऐसी अनुशासनहीनता पहले कभी नहीं देखी गई. लेकिन सरकार न्यायपालिका के साथ समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने का हर जतन कर रही है.
इसी समन्वय और सामंजस्य का नतीजा है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले भाजपा के साल भर के कार्यकाल में लगातार कई बार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलने उनके सरकारी आवास पर आते रहे और सामंजस्य स्थापित करते रहे. परस्पर समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने की यह प्रक्रिया हाल के दिनों में अधिक तेजी से बढ़ी. यह इतनी प्रगाढ़ हुई कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने सरकारी आवास पर मुख्य न्यायाधीश का सम्मान समारोह आयोजित कर दिया और सम्मान समारोह के बाद आलीशान रात्रि-भोज देकर परस्पर सामंजस्य की नायाब परम्परा स्थापित कर दी. जानकार बताते हैं कि प्रदेश में किसी भी मुख्यमंत्री ने कभी भी किसी मुख्य न्यायाधीश के सम्मान में अपने सरकारी आवास पर रात्रि-भोज नहीं दिया.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले का सम्मान करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा भी कि ऐसा अवसर बहुत कम देखने को मिलता है, जब लोकतंत्र की त्रिवेणी; विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका एक समारोह और एक मंच पर एक साथ उपस्थित हो. योगी ने कहा, ‘इसके पीछे हम सबका उद्देश्य एक ही है, लोक-कल्याण. लोक-कल्याण के भाव को अगर परस्पर एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हुए हम आगे बढ़ाते हैं तो कहीं भी न कोई मतभेद होगा, न कोई मनभेद होगा, और न कहीं टकराहट की कोई नौबत आएगी. और मुझे लगता है कि इस आदर्श स्थिति और व्यवस्था को माननीय मुख्य न्यायाधीश के माध्यम से उत्तर प्रदेश के अंदर प्रस्तुत करने की जो सकारात्मक पहल की गई, आज उसके सकारात्मक परिणामस्वरूप देखे जा सकते हैं.’ वाकई, आलीशान सम्मान और भव्य रात्रि-भोजों के जरिए मतभेद और मनभेद खत्म किया जा सकता है और सरकार बनाम न्यायपालिका के टकराव को टाला जा सकता है.
योगी सरकार ने मुख्य न्यायाधीश के लिए आयोजित सम्मान समारोह और रात्रि-भोज में मीडिया से सख्त परहेज रखा. कार्यक्रम में केवल जजों, खास मंत्रियों और खास नौकरशाहों को ही आमंत्रित किया गया था. आमंत्रण पत्र के वितरण पर भी खास निगरानी रखी जा रही थी. जानकार बताते हैं कि आमंत्रण पत्र का वितरण विधि परामर्शी (एलआर) महकमे से कराया गया था. जबकि आमंत्रण पत्र पर उत्तरापेक्षी में प्रदेश के मुख्य सचिव अनूप चंद्र पांडेय का नाम टंकित है. खबर लीक न हो इसलिए कार्ड वितरण मुख्य सचिव कार्यालय से नहीं कराया गया. हाईकोर्ट के कुछ न्यायाधीशों ने योगी के इस कार्यक्रम से परहेज रखा. सरकार की अपेक्षा के अनुसार सम्मान समारोह का कक्ष नहीं भरा, आधे से अधिक खाली ही रहा. कई जज इस कार्यक्रम में नहीं आए. जो नहीं आए, उनके नाम ‘चौथी दुनिया’ के पास हैं, लेकिन उसका प्रकाशन नहीं किया जा रहा है, ताकि न्यायालय और सरकार के परस्पर सामंजस्य में कोई खलल न पड़े.
सम्मान से आह्लादित मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले ने कहा कि उन्हें योगी आदित्यनाथ से प्रेरणा मिलती है. उनकी सरकार की तरफ से कभी भी कोई दबाव नहीं आया. जबकि उत्तर प्रदेश के पहले अन्य राज्यों के उनके अनुभव ऐसे नहीं हैं. मुख्य न्यायाधीश ने समारोह में मौजूद राज्यपाल राम नाईक के प्रति सम्मान जताया और कहा कि जब उनकी उत्तर प्रदेश में तैनाती हुई तो वे बहुत घबराए हुए थे, लेकिन उन्हें जब-जब परेशानी हुई, राज्यपाल राम नाईक ने पिता की तरह उनका मार्ग-दर्शन किया और उन्हें सही रास्ता दिखाया. न्यायपालिका और विधायका के बीच समझदारी और सामंजस्य का ही परिणाम है कि राष्ट्रपति के चुनाव के समय मुख्यमंत्री द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सम्मान में दिए गए राजनीतिक रात्रि-भोज में भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले मौजूद थे.

सामंजस्य अपरंपार: सरकारी वकीलों में जजों के सगों की भरमार
योगी सरकार ने न्यायपालिका से समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने के लिए बड़े जतन किए हैं. अभी हाल ही में सरकार ने विभिन्न स्तर पर जो सरकारी वकीलों की नियुक्ति की, उसमें अच्छी-खासी संख्या में न्यायाधीशों के रिश्तेदारों को उपकृत किया गया. न्यायपालिका के साथ योगी सरकार ने सामंजस्य स्थापित करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले के बेटे करन दिलीप भोसले को सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश सरकार का स्पेशल काउंसिल नियुक्त कर रखा है. स्पेशल काउंसिल का ‘पैकेज’ काफी भारी और आकर्षक होता है. इसके पहले अखिलेश सरकार ने मुख्य न्यायाधीश के बेटे को सुप्रीम कोर्ट में स्टैंडिंग काउंसिल (सरकारी वकील) नियुक्त किया था. लेकिन योगी सरकार ने अतिरिक्त सामंजस्य-भाव दिखाते हुए उन्हें स्पेशल काउंसिल नियुक्त कर दिया.
इसी तरह योगी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अशोक भूषण के भाई विनय भूषण को मुख्य स्थाई अधिवक्ता (द्वितीय) बनाया. विनय भूषण समाजवादी पार्टी के शासनकाल में अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता थे. न्यायाधीश बीके नारायण के बेटे एनके सिन्हा नारायण और बहू आनंदी के नारायण दोनों को सरकारी वकील नियुक्त किया. न्यायाधीश केडी शाही के बेटे विनोद कुमार शाही को अपर महाधिवक्ता बनाया. न्यायाधीश आरडी शुक्ला के बेटे राहुल शुक्ला अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, स्व. न्यायाधीश एएन त्रिवेदी के बेटे अभिनव त्रिवेदी अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, न्यायाधीश रंगनाथ पांडेय के रिश्तेदार देवेश चंद्र पाठक अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, न्यायाधीश शबीहुल हसनैन के रिश्तेदार कमर हसन रिजवी अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, न्यायाधीश एसएन शुक्ला के रिश्तेदार विवेक कुमार शुक्ला अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, न्यायाधीश रितुराज अवस्थी के रिश्तेदार प्रत्युष त्रिपाठी स्थाई अधिवक्ता और न्यायाधीश राघवेंद्र कुमार के पुत्र कुमार आयुष वाद-धारक नियुक्त किए गए. योगी सरकार ने न्यायाधीश यूके धवन के बेटे सिद्धार्थ धवन और न्यायाधीश एसएस चौहान के बेटे राजीव सिंह चौहान को एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल बनाया. योगी सरकार ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी के बेटे नीरज त्रिपाठी को इलाहाबाद हाईकोर्ट का अपर महाधिवक्ता बनाया.

जब नेता खुद फंसे हों मुकदमों में तो अदालतें क्यों न करें मनमानी
सरकारी अलमबरदारों की पृष्ठभूमि खुद ही इतनी कानूनी दलदल में फंसी रहती है कि न्यायपालिका के आगे दंडवत होने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता. इस कारण ही फैसलों से लेकर नियुक्तियों तक अदालतें अपनी मनमानी करती रही हैं. इसी वजह से अदालतें जजों के नाते-रिश्तेदार जजों और उनके रिश्तेदार फैसलाकुन-वकीलों से भर गई हैं. यह इतनी अति तक पहुंच गई कि आखिरकार केंद्र सरकार को इस पर अंकुश लगाना पड़ा. ‘चौथी दुनिया’ ने जजों के उन नाते-रिश्तेदारों की पूरी लिस्ट छाप दी थी, जिन्हें जज बनाने की सिफारिश की गई थी. इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के हस्ताक्षर से वह लिस्ट कॉलेजियम को भेजी गई थी. केंद्र ने उसका संज्ञान लिया और जजों की नियुक्ति रोक दी गई. हालांकि जानकार बताते हैं कि धीमी गति से कुछ-कुछ रिश्तेदारों की नियुक्तियां हो रही हैं.
बहरहाल, एक बार फिर उस लिस्ट को आप अपने ध्यान में रखते चलें. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे वीएन खरे के बेटे सोमेश खरे, जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट और आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश व इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज रहे सगीर अहमद के बेटे मोहम्मद अल्ताफ मंसूर समेत ऐसे दर्जनों नाम हैं, जिन्हें जज बनाने के लिए सिफारिश की गई थी. इनके अलावा संगीता चंद्रा, रजनीश कुमार, अब्दुल मोईन, उपेंद्र मिश्र, शिशिर जैन, मनीष मेहरोत्रा, आरएन तिलहरी, सीडी सिंह, राजीव मिश्र, अजय भनोट, अशोक गुप्ता, राजीव गुप्ता, बीके सिंह जैसे नाम भी उल्लेखनीय हैं. इनमें से अधिकांश लोग विभिन्न जजों के रिश्तेदार और सरकारी पदों पर विराजमान वकील हैं. इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज रहे अब्दुल मतीन के सगे भाई अब्दुल मोईन, पूर्व जज ओपी श्रीवास्तव के बेटे रजनीश कुमार, पूर्व जज टीएस मिश्रा और पूर्व जज केएन मिश्रा के भतीजे उपेंद्र मिश्रा, पूर्व जज एचएन तिलहरी के बेटे आरएन तिलहरी, पूर्व जज एसपी मेहरोत्रा के बेटे मनीष मेहरोत्रा, पूर्व जज जगदीश भल्ला के भांजे अजय भनोट, पूर्व जज रामप्रकाश मिश्र के बेटे राजीव मिश्र, पूर्व जज पीएस गुप्ता के बेटे अशोक गुप्ता और भांजे राजीव गुप्ता के साथ-साथ मौजूदा जज एपी शाही के साले बीके सिंह के नाम जज बनाने की सिफारिशी लिस्ट में शामिल थे.
वर्ष 2000 में भी जजों की नियुक्ति में धांधली का मामला उठा था. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में कानून मंत्री रहे राम जेठमलानी ने देशभर के हाईकोर्टों से भेजी गई लिस्ट की जांच का आदेश दिया. जांच में पाया गया कि 159 सिफारिशों में से 90 सिफारिशें विभिन्न जजों के बेटों या रिश्तेदारों के लिए की गई थीं. इसके बाद कानून मंत्रालय ने वह सूची खारिज कर दी थी. जजों की नियुक्ति में जजों द्वारा ही धांधली किए जाने का मामला सपा नेता जनेश्वर मिश्र ने राज्यसभा में भी उठाया था. इसके जवाब में तब कानून मंत्री का पद संभाल चुके अरुण जेटली ने आधिकारिक तौर पर बताया था कि लिस्ट खारिज कर दी गई है. लेकिन उस खारिज लिस्ट में शुमार कई लोग बाद में जज बन गए और अब वे अपने रिश्तेदारों को जज बनाने में लगे हैं. इनमें न्यायाधीश अब्दुल मतीन और न्यायाधीश इम्तियाज मुर्तजा जैसे नाम उल्लेखनीय हैं. इम्तियाज मुर्तजा के पिता मुर्तजा हुसैन भी इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज थे. विडंबना यह रही कि जजों की नियुक्ति में धांधली और भाई-भतीजावाद के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक पांडेय द्वारा दाखिल की गई याचिका खारिज कर दी गई थी और अशोक पांडेय पर 25 हजार का जुर्माना लगाया गया था. जबकि अशोक पांडेय द्वारा अदालत को दी गई लिस्ट के आधार पर ही कानून मंत्रालय ने जांच कराई थी और जजों की नियुक्तियां खारिज कर दी थीं.

न्यायपालिका से सामंजस्य की एक और विचित्र तैयारी
उस अपर न्यायाधीश को स्थायी न्यायाधीश बनाने की तैयारी है, जिन्होंने कानून विभाग के प्रमुख सचिव रहते हुए न्यायाधीशों के रिश्तेदारों को सरकारी वकील बनाने की लिस्ट को औपचारिक जामा पहनाया था और पुरस्कार में खुद हाईकोर्ट के जज बन गए. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के अधिवक्ता सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव ने इसका कच्चा चिट्ठा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री को भेजा था. प्रधानमंत्री कार्यालय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस मामले की गहराई से जांच कराने के लिए कहा था, लेकिन कुछ नहीं हुआ. अधिवक्ता सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव की शिकायत है कि विधि विभाग के तत्कालीन प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय पद का दुरुपयोग कर और विधाई संस्थाओं को अनुचित लाभ देकर हाईकोर्ट के जज बने. उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट और लखनऊ बेंच में सरकारी वकीलों की नियुक्ति को अपनी तरक्की का जरिया बनाया. नियुक्ति प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मानकों की पूरी तरह अनदेखी की और खुद जज बनने के लिए सारी सीमाएं लांघीं. उन्होंने जानते-समझते हुए करीब 50 ऐसे वकीलों को सरकारी वकील की नियुक्ति लिस्ट में रखा जिनका नाम एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड (एओआर) में ही दर्ज नहीं था और वे हाईकोर्ट में वकालत करने के योग्य नहीं थे. उन्होंने सरकारी वकीलों की लिस्ट में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के रिश्तेदारों को शामिल किया और उसके एवज में लाभ प्राप्त कर लिया. उन्होंने विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से जुड़े वकीलों और पदाधिकारियों को भी सरकारी वकील बनवा दिया. सरकारी वकीलों की लिस्ट में ऐसे भी कई वकील हैं जो प्रैक्टिसिंग वकील नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस मामले में सीधा हस्तक्षेप कर सरकारी वकीलों की विवादास्पद नियुक्ति प्रक्रिया को रोकने की अपील की गई, लेकिन कार्रवाई होने के बजाय शिकायतकर्ता को ही धमकियां मिलने लगीं. शिकायतकर्ता अधिवक्ता का कहना है कि उन जजों के बारे में भी छानबीन जरूरी है, जिन जजों ने रंगनाथ पांडेय को जज बनाने की अनुशंसा की. सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव कहते हैं कि छानबीन हो तो पता चलेगा कि जिन जजों ने रंगनाथ पांडेय को जज बनाने की अनुशंसा की थी उनके आश्रित सरकारी वकील नियुक्त किए गए थे.

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