Sunday 19 March 2017

योगी आदित्यनाथ... यूपी के पीठाधीश्वर

प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन होगा इसे लेकर चुनाव के पहले और चुनाव परिणाम आने के बाद तक तमाम कयासबाजियां होती रहीं और तमाम नेताओं के नाम उछलते रहे, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने विधानसभा चुनाव में अथक परिश्रम करने और उस अनुरूप परिणाम देने वाले योगी आदित्यनाथ का नाम 11 मार्च को ही तय कर लिया था. नामों को लेकर तमाम प्रहसन हुए और इन सबके बीच 18 मार्च को योगी को उत्तर प्रदेश विधायक दल का नेता बनाए जाने का प्रस्ताव रख दिया गया और उस पर विधायक दल की सर्व-सम्मति भी हो गई. इस तरह गोरखपुर के सांसद और गोरक्षपीठ के पीठाधीश महंत योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के 21वें मुख्यमंत्री और सर्वाधिक बहुमत वाले प्रथम मुख्यमंत्री हो गए. प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य और लखनऊ के मेयर दिनेश शर्मा योगी आदित्यनाथ सरकार में उप मुख्यमंत्री रहेंगे. 
विधानसभा चुनाव के पहले भी भारतीय जनता पार्टी को यूपी के मुख्यमंत्री का चेहरा चुनने को लेकर घेरा गया था. लेकिन भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही चुनाव में उतरने का फैसला किया. यूपी चुनाव को लेकर बनी भाजपा की शुरुआती कोर-टीम में योगी आदित्यनाथ की केंद्रीय भूमिका रही. इस दरम्यान प्रदेशभर से यह मांग उठने लगी कि योगी को ही मुख्यमंत्री बनाया जाए. इसे लेकर विवाद कुछ इतना बढ़ा कि कुछ दिनों के लिए योगी ‘वृष्टिछाया-क्षेत्र’ में चले गए. प्रत्याशी चयन पर विचार के लिए बनी चुनाव समिति में भी योगी का नाम शामिल नहीं किया गया. इसके विरोध में हिंदू युवा वाहिनी ने भाजपा के खिलाफ विद्रोह का ऐलान करते हुए समानान्तर उम्मीदवार खड़े करने की घोषणा कर दी. हिंदू युवा वाहिनी के संस्थापक योगी ही हैं, लेकिन उन्होंने बड़े चातुर्य से विद्रोह को रोका भी और नेतृत्व को इसका अहसास भी करा दिया. भाजपा की परिवर्तन यात्रा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रैलियों के दरम्यान भाजपा नेतृत्व को योगी आदित्यनाथ की व्यापक जन-स्वीकार्यता का अहसास हुआ. मोदी और शाह की रैलियों में जुटी अभूतपूर्व भीड़ का श्रेय भी योगी और उनकी टीम को मिला. बुलंदशहर की सभा में योगी आदित्यनाथ के भाषण के व्यापक प्रभाव पर आलाकमान को मिली खुफिया रिपोर्ट के बाद भाजपा नेतृत्व ने योगी को स्टार प्रचारकों में शामिल किया और जनता पर पड़ रहे असर को देखते हुए प्रचार कार्य के लिए उन्हें अलग से हेलीकॉप्टर भी दे दिया. 
अब भाजपा नेतृत्व को चुनाव परिणाम का इंतजार था. माना जाता है कि 60 से अधिक सीटों पर हुई जीत में योगी आदित्यनाथ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. इस ऐतिहासिक जीत के बाद योगी का रास्ता पक्का हो गया था, लेकिन भाजपा नेतृत्व को यूपी की सियासत का तापमान भी लेना था. इस बीच कई नाम उछले. केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर मनोज सिन्हा, केशव प्रसाद मौर्य, सुरेश खन्ना, महेश शर्मा वगैरह वगैरह के नाम भावी मुख्यमंत्री के रूप में सामने आते रहे और उनके समर्थन और विरोध की राजनीति का तापमान आलाकमान को मिलता रहा. चुनाव परिणाम आने के बाद से ही योगी आदित्यनाथ ‘लो-प्रोफाइल’ में आ गए थे. ऐसा लगा था कि योगी ने मुख्यमंत्री पद की रेस से खुद को अलग कर लिया. लेकिन ‘अंडर-करंट’ चल रहा था. खुर्राट राजनीतिक राजनाथ सिंह ने यह सब भांप कर खुद को पहले ही अलग कर लिया. केंद्रीय रेल व संचार राज्य मंत्री मनोज सिन्हा ऊपर-ऊपर भले ही कहते रहे कि वे मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल नहीं हैं, लेकिन उनके चेहरे और शरीर की भाषा उनकी आकांक्षा का भेद खोलती रही. मनोज सिन्हा 18 मार्च को वाराणसी पहुंच भी गए ताकि आलाकमान का सिग्नल मिले और वे फौरन लखनऊ पहुंच जाएं. पुलिस ने मनोज सिन्हा को बाकायदा सीएम प्रोटोकॉल के तहत ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ देने की तैयारी भी कर ली थी, पर सिन्हा ने उसे रोक कर बुद्धिमानी दिखाई. कुछ ऐसा ही हाल केशव प्रसाद मौर्य का भी हुआ. मुख्यमंत्री बनने की अरुचिकर सियासी घेरेबंदी पर खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को हस्तक्षेप करना पड़ा. इस पर केशव मौर्य पहले तो दिल्ली के अस्पताल में जाकर भर्ती हो गए, लेकिन आलाकमान की सख्ती देख कर अस्पताल से छुट्टी कराई और अपने पैर पीछे समेट लिए. 
पर्यवेक्षक के रूप में लखनऊ भेजे गए वेंकैया नायडू और भूपेंद्र यादव घटते-बढ़ते सियासी तापमान का जायजा ले रहे थे और उधर बिसात निर्णायक परिणाम पर पहुंचने के लिए तैयार हो रही थी. 18 मार्च को सुबह-सुबह ही योगी आदित्यनाथ को दिल्ली बुलाया गया. योगी को दिल्ली ले जाने के लिए चार्टर विमान भेजा गया था. उसी समय यह साफ हो गया कि योगी उत्तर प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखे जा रहे हैं. योगी को केंद्र में मंत्रिपद का प्रस्ताव देने के लिए चार्टर विमान नहीं भेजा जाएगा. योगी की अमित शाह से विस्तार से वार्ता हुई. सूत्र यह भी कहते हैं कि अमित शाह से मुलाकात के बाद योगी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात हुई. भाजपा के उत्तर प्रदेश प्रभारी ओम माथुर और प्रदेश महामंत्री सुनील बंसल भी दिल्ली में ही थे. भाजपा आलाकमान के निर्णय से सभी नेताओं को अवगत करा दिया गया और सबको साथ ही लखनऊ पहुंचने का निर्देश मिल गया. उसके बाद उक्त सारे नेता योगी आदित्यनाथ के साथ ही दोपहर बाद लखनऊ पहुंचे. नव निर्मित सचिवालय ‘लोकभवन’ पहुंचने के पहले वीवीआईपी गेस्ट हाउस में भी थोड़ी देर नेताओं के बीच मंत्रणा हुई. उसके बाद वे ‘लोकभवन’ पहुंचे. विधायक दल की बैठक के पहले केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने विधायक दल के नेता के रूप में योगी आदित्यनाथ का नाम रखा, जिसे विधायक दल की बैठक में सुरेश खन्ना ने औपचारिक प्रस्ताव के रूप में प्रस्तुत किया. केशव प्रसाद मौर्य ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया और भाजपा विधायक दल ने करतल ध्वनि से योगी को अपना मुख्यमंत्री चुन लिया. योगी ने केशव प्रसाद मौर्य और दिनेश शर्मा को उप मुख्यमंत्री के रूप में चुनने की घोषणा की. पार्टी के उपाध्यक्ष दिनेश शर्मा को 17 मार्च की रात को ही दिल्ली बुला कर आलाकमान के निर्णय से अवगत करा दिया गया था.
उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक बहुमत प्राप्त प्रथम मुख्यमंत्री बनने वाले योगी आदित्यनाथ के व्यक्तित्व और उनकी पृष्ठभूमि पर भी थोड़ी बात करते चलें. सियासी समीकरणों और जोड़तोड़ पर बाद में चर्चा करेंगे. गोरक्षपीठ के पीठाधीश महंत अवैद्यनाथ ने अपने प्रिय शिष्य योगी आदित्यनाथ को 15 फरवरी 1994 को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था और योगी का दीक्षाभिषेक हुआ था. महंत अवैद्यनाथ रामजन्मभूमि आंदोलन के प्रणेता थे. उनके दिवंगत होने के बाद योगी आदित्यनाथ गोरखपुर स्थित गोरक्षपीठ के पीठाधीश बने. 5 जून 1972 को उत्तराखंड (तब यूपी) के पौड़ी जनपद स्थित यमकेश्‍वर ब्‍लॉक के पंचूर गांव में जन्मे अजय सिंह 22 साल की उम्र में संन्यासी बन गए और उनका संन्यासी नाम आदित्यनाथ पड़ा. विज्ञान के स्नातक योगी आदित्यनाथ छात्र जीवन में भी और संन्यासी होने के बाद भी विभिन्न राष्ट्रवादी आन्दोलनों से जुड़े रहे. छुआछूत के खिलाफ उन्होंने व्यापक आंदोलन चलाया. धार्मिक कट्टरता के आरोपों के बीच अपना राजनीतिक-सामाजिक व्यक्तित्व गढ़ने वाले योगी भारत की सनातन संस्कृति को जर्जर करने वाले तत्वों के खिलाफ लगातार संघर्ष करते रहे. योगी ने व्यापक पैमाने पर हिन्दुओं को संगठित करने का काम किया और सवाल उठाते रहे कि मुस्लिमों को संगठित करना और उनकी हिमायत करना अगर धर्म-निरपेक्षता है तो हिन्दुओं को संगठित करना धार्मिक कट्टरता कैसे हो गई? अपने अभियान को जारी रखते हुए योगी ने 1998 में लोकसभा का चुनाव लड़ा और 26 वर्ष की उम्र में ही सांसद बने. योगी ने अपने संसदीय क्षेत्र के तकरीबन 1500 ग्रामसभाओं का हर साल दौरा किया और वहां विकास के विभिन्न कार्यक्रमों की व्यक्तिगत रूप से निगरानी करते रहे. इस वजह से वे गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से लगातार सांसद चुने जाते रहे. 2014 के लोकसभा चुनाव में भी योगी लोकसभा का चुनाव जीते. अब मुख्यमंत्री बनने के बाद वे सांसद पद से इस्तीफा देंगे और विधायक का चुनाव लड़ेंगे. संसद में भी योगी अपनी सक्रिय भागीदारी के कारण जाने जाते रहे हैं. केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की संसदीय समिति के भी वे सदस्य हैं. योगी दर्जनों शैक्षणिक संस्थाओं के भी संस्थापक हैं. विश्व हिन्दू महासंघ ने योगी को अन्तरराष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया था. 1997, 2003, 2006 में गोरखपुर में और 2008 में तुलसीपुर (बलरामपुर) में विश्व हिन्दू महासंघ का अन्तर्राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित कर योगी काफी सुर्खियों में आए थे. सनातन धर्म और संस्कृति पर योगी ने कई किताबें भी लिखी हैं. इनमें ‘यौगिक षटकर्म’, ‘हठयोग: स्वरूप एवं साधना’, ‘राजयोग: स्वरूप एवं साधना’, ‘हिन्दू राष्ट्र नेपाल’ जैसी पुस्तकें प्रमुख हैं. गोरक्षपीठ से प्रकाशित कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी योगी करते रहे हैं. योगी आदित्यनाथ भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती से खड़े रहे हैं और गोरखपुर को अपराधियों-माफियाओं से मुक्त कराने में योगी की केंद्रीय भूमिका रही है. योगी के प्रभाव के कारण ही पूर्वांचल में आतंकवादी और राष्ट्रविरोधी गतिविधियां पनप नहीं पाईं. योगी की राजनीति में हिंदुत्व एक सूत्री अभियान रहा है. लव-जेहाद पर अपने कट्टर बयान की वजह से योगी विवादों में भी रहे और सुर्खियों में भी. लव-जेहाद पर योगी आदित्यनाथ के तीखे बयान और लव-जेहाद के खिलाफ एंटी-रोमियो-स्क्वॉड के गठन के ऐलान ने भी उन्हें काफी विवादास्पद रूप से मशहूर किया. पूर्वांचल में उन्होंने धर्म परिवर्तन के खिलाफ भी मुहिम छेड़ रखी थी. गोरखपुर में उन्होंने कई मुहल्लों के नाम बदलवा दिए. उर्दू बाजार का नाम बदलकर हिंदी बाजार कर दिया गया. अली नगर को आर्यनगर बना दिया गया. आपको याद ही होगा कि योगी ने योग को लेकर कहा था कि जो लोग योग का विरोध कर रहे हैं उन्‍हें भारत छोड़ देना चाहिए. जो लोग सूर्य नमस्‍कार नहीं मानते उन्‍हें समुद्र में डूब जाना चाहिए. लेकिन बदलते दौर में जैसे-जैसे धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिवाद की नकली एकपक्षीय परिभाषाएं एक्सपोज़ होती गईं, योगी आदित्यनाथ का कद बढ़ता गया. विवादों में रहने के बावजूद योगी की राजनीतिक-सामाजिक ताकत बढ़ती ही चली गई. 
आज परिणाम यह हुआ कि योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन कर मुख्यमंत्री की रेस में लगे तमाम दिग्गजों को पछाड़ दिया. मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ ने फौरन ही अपने स्वर बदले. राज्यपाल राम नाईक द्वारा प्रदेश में सरकार गठन का आमंत्रण मिलते ही योगी आदित्यनाथ ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अभियान ‘सबका साथ - सबका विकास’ की भावना के साथ वे खड़े हैं और उत्तर प्रदेश में उसे शत प्रतिशत लागू कराने के लिए प्रतिबद्ध हैं. सही है कि योगी के सामने तमाम चुनौतियां खड़ी होंगी. योगी के रेस जीत लेने से कई सियासी अगरधत्तों को काफी परेशानी हो रही होगी. इसका मुकाबला करते हुए योगी को विकास के रास्ते पर चलना होगा. हाल ही में जनता की अपेक्षाओं को लेकर एक सर्वे हुआ जिसमें प्रदेश के करीब 25 हजार लोगों के विचार शामिल किए गए थे. अधिकांश लोगों ने बताया है कि उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवा का ढांचा पूरी तरह टूट चुका है. प्रदेश की बदहाल कानून व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाओं पर योगी आदित्यनाथ लगातार सवाल उठाते रहे हैं. गोरखपुर और पूर्वांचल में अनजानी बीमारी (कथित तौर पर मैनेन्जाइटिस) से लगातार हो रही बच्चों की मौत का मसला योगी के कारण ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मसला बन सका. आखिरकार केंद्र सरकार ने गोरखपुर में एम्स बनाने की मंजूरी दी. सर्वे में 82 प्रतिशत लोगों ने सुरक्षा को लेकर गहरी चिंता जाहिर की है. उनका कहना है कि पुख्ता कानून व्यवस्था नई सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. भ्रष्टाचार को लेकर भी लोग काफी चिंतित हैं. लोगों का कहना है कि विधायी और नौकरशाही के गठजोड़ से फल-फूल रहा भ्रष्टाचार सारी बीमारियों की जड़ है, जिसे खत्म किया जाना चाहिए. लोगों ने राज्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे में पूर्ण सुधार की जरूरत को रेखांकित किया है. 73 प्रतिशत से अधिक नागरिकों ने इच्छा जाहिर की है कि नई सरकार लालफीताशाही और भ्रष्टाचार को खत्म करे. योगी को इन चुनौतियों से दो-दो हाथ करना होगा. 
शाह का साथ और सिर पर संघ का हाथ
योगी आदित्यनाथ को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का साथ मिला और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने योगी के सिर पर हाथ रख दिया. फिर योगी का रथ फर्राटा भरता हुआ आगे निकल गया. संघ से जुड़े एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने बस्ती की उस सभा की याद दिलाई जिसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह मौजूद थे और उनकी मौजूदगी में ‘यूपी का सीएम कैसा हो, योगी आदित्यनाथ जैसा हो’ के नारे लग रहे थे. इन नारों से शाह के भाषण में व्यवधान हो रहा था. भाषण बीच में ही रोक कर अमित शाह ने लोगों से नारेबाजी रोकने के लिए कहा, फिर अपना भाषण शुरू किया. उस सभा के बाद अमित शाह ने कई सभाओं में यह बात कही कि योगी आदित्यनाथ का नाम आते ही लोगों में जोश भर जाता है. ऐसा बोल कर अमित शाह ने योगी का प्रभाव भी आंका. 
अमित शाह ने योगी को मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदार के रूप में स्वीकार कर लिया था और उन्होंने योगी को संकेत भी दे दिए थे. मुख्यमंत्री के चयन में संघ का सबसे अधिक नम्बर योगी को ही प्राप्त हुआ. संघ के उक्त पदाधिकारी का कहना है कि योगी को साधु के रूप में सम्मान प्राप्त है. उनके साथ जाति जोड़ना उचित नहीं है, क्योंकि संन्यासी होने के बाद किसी व्यक्ति की कोई जाति नहीं रह जाती. इसके बावजूद योगी के राजनीतिक विरोधी और मीडिया के लोग योगी को जाति के फ्रेम में कसने की कोशिश करते हैं. जबकि उनकी स्वीकार्यता न केवल हिन्दुओं बल्कि मुसलमानों और अन्य समुदायों में भी है. इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि भाजपा की ऐतिहासिक जीत पर पिछले दिनों जब गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ की शोभा यात्रा निकली तो मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा किए जाने वाले भव्य स्वागत के कारण रेती के पुल पर घंटों जाम लगा रहा था. यहां तक कि योगी को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के लिए 18 मार्च को लोग तोता-मैना शाह की मजार पर चादर चढ़ा रहे थे. संघ के उक्त पदाधिकारी का दावा है कि योगी कानून व्यवस्था, स्वास्थ्य सेवा, किसानों की समस्या के साथ-साथ बिजली-पानी जैसी मूलभूत समस्याओं के निवारण पर ध्यान देंगे. 2019 का लोकसभा चुनाव सामने है और वर्ष 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे राज्यों में भी विधानसभा चुनाव होने हैं. लिहाजा योगी और मोदी दोनों ही बेहतर माहौल बनाना चाहेंगे. तलाक के मसले पर वैसे ही मुस्लिम महिलाओं का भाजपा को समर्थन मिला है और शिया समुदाय ने भी भाजपा के पक्ष में कई स्थानों पर वोट डाले हैं.
सबसे तेज़ ‘जनता-चैनल’, 12 बजे ही योगी को बना दिया सीएम
उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन होगा इसे लेकर प्रदेशभर में चर्चा, शोरगुल और गुणाभाग चल रहा था. दिल्ली से लेकर राजधानी लखनऊ तक नेताओं की भागदौड़ लगी थी. आधिकारिक तौर पर 18 मार्च की शाम को योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने की खबर बाहर निकली. लेकिन नेताओं से लेकर मीडिया प्रतिनिधियों तक को आश्चर्य तब हुआ जब उन्होंने दोपहर के 12 बजे से ही सोशल मीडिया पर योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री होने की खबर चलती देखी. जो मीडिया प्रतिनिधि अब तक हुए यूपी के मुख्यमंत्रियों का क्रम खंगाल रहे थे वे विकीपीडिया देख कर हैरत में थे कि वहां मुख्यमंत्री का नाम अखिलेश यादव से हट कर योगी आदित्यनाथ हो चुका है. हालांकि दोपहर में विकीपीडिया पर फोटो अखिलेश यादव की ही लगी हुई थी, लेकिन नाम योगी लगा था. शाम को अखिलेश की फोटो भी हट गई थी और बाकायदा योगी की फोटो वहां चस्पा थी.
पीएम को गढ़वाली पसंद है
यूपी के मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ के चयन के बाद इस पर भी बात चली कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उत्तराखंड और खास कर गढ़वाली पसंद हैं. उल्लेखनीय है कि देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के साथ-साथ देश के थलसेना अध्यक्ष जनरल विपिन सिंह रावत, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुख अनिल धस्माना, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत और अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी मूल रूप से गढ़वाल के हैं. कांग्रेस से भाजपा में आए उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा भी गढ़वाल के ही हैं. 
शुरू हो गई भाजपाई दावों की परीक्षा
‘उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनते ही पहली कैबिनेट बैठक में प्रदेश के किसानों का कर्जा माफ करने का निर्णय लिया जाएगा’, चुनावी रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जोर देकर यह बात कही थी. लोगों ने भी मोदी के इस वाक्यांश को खास तौर पर नोट कर लिया था. अब प्रधानमंत्री के उस वादे की परीक्षा होगी. 
चुनाव प्रचार के दौरान और विभिन्न सभाओं में भी योगी आदित्यनाथ भी उत्तर प्रदेश के भ्रष्टाचार और गन्ना किसानों के हजारों करोड़ रुपये के बकाये के भुगतान पर जोर देते रहे हैं. योगी ने अभी हाल में कहा था कि यूपी में भाजपा की सरकार बनी तो 14 साल के भ्रष्टाचार की जांच की जाएगी और दोषियों को जेल भेजा जाएगा. योगी ने स्पष्ट रूप से सपा और बसपा के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार का हवाला देते हुए यह बात कही थी. योगी ने यह भी कहा था कि स्कूलों, सड़कों और चिकित्सा के क्षेत्र में विकास के लिए केंद्र से भेजा गया धन मुस्लिम तुष्टीकरण के काम में लगा दिया गया. इसके खिलाफ भी भाजपा की सरकार सख्त कार्रवाई करेगी. शपथ ग्रहण के साथ ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की परीक्षा शुरू हो गई है. 
दमदार है केशव मौर्य की राजनीतिक यात्रा
उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य के बारे में भले ही यह कहा जाता रहे कि मौर्य पिछड़ों और दलितों का चेहरा हैं, लेकिन यह जमीनी और सामाजिक यथार्थ नहीं है. उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री बने केशव मौर्य की छवि जातिवादि से अलग प्रखर हिन्दूवादी के रूप में रही है. मौर्य का राजनीतिक जीवन 2012 में शुरू हुआ जब वे सिराथू सीट से विधायक बने थे. वर्ष 2014 में मौर्य इलाहाबाद की फूलपुर लोकसभा सीट से जीत कर सांसद बने और दो ही साल बाद वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बन गए. भाजपा के पहले मौर्य विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल में सक्रिय कार्यकर्ता और प्रचारक के बतौर शरीक रहे हैं. मौर्य भी यह कहते हैं कि वे भी मोदी की तरह चाय बेचते थे. कौशांबी के सिराथू में किसान परिवार में पैदा हुए केशव प्रसाद मौर्य विहिप नेता अशोक सिंघल के काफी करीबी थे. मौर्य राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से गहरे जुड़े थे और श्रीराम जन्म भूमि आंदोलन में जेल की सजा भी काट चुके हैं. 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए केशव प्रसाद मौर्य ने चुनाव प्रचार में जमकर हिस्सा लिया. मौर्य की छवि अच्छे नेता और वक्ता के रूप में है. इस चुनाव में ही उन्होंने 155 चुनावी सभाएं कीं. केशव प्रसाद पर कई आपराधिक मामले भी दर्ज हैं, जिन्हें वे राजनीतिक कुचक्र का नतीजा बताते हैं. 48 साल के केशव प्रसाद मौर्य ने भी 14 साल की उम्र में घर-बार छोड़ दिया था और विहिप नेता अशोक सिंघल के साथ जुड़ गए थे. सिंघल से नजदीकी के कारण ही मौर्य की संघ में अच्छी पकड़ बन गई. 
मेयर से डिप्टी सीएम तक का सौम्य चेहरा
उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया दूसरा चेहरा लखनऊ के मेयर डॉ. दिनेश शर्मा का है. दिनेश शर्मा सौम्य, ईमानदार और स्वच्छ छवि के व्यक्ति माने जाते हैं. दिनेश शर्मा भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और गुजरात राज्य के प्रभारी भी रहे हैं. उच्च-शिक्षित डॉ. दिनेश शर्मा लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी रहे हैं. वे कॉमर्स संकाय में प्रोफेसर हैं. मृदुभाषी डॉ. दिनेश शर्मा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और संघ के प्रिय हैं. उत्तर प्रदेश में भाजपा को मजबूत करने में शर्मा की अहम भूमिका रही है. भाडपा आलाकमान ने पार्टी की सदस्यता बढ़ाने के महाभियान की कमान दिनेश शर्मा के हाथ में ही सौंपी थी. चुनाव के पहले भाजपा के सदस्यता अभियान की रिकॉर्ड सफलता का श्रेय डॉ. दिनेश शर्मा को मिला. लव-जेहाद पर डॉ. दिनेश शर्मा का बयान भी काफी सुर्खियों में रहा था, लेकिन वह योगी की तरह विस्फोटक नहीं बना. डॉ. शर्मा ने कहा था कि लव-जेहाद घातक बम से भी अधिक घातक है. शर्मा ने कहा था कि प्रेम को एक धार्मिक औजार बना लिया जाए और एक वर्ग विशेष के खिलाफ इसे अभियान के तौर पर चलाया जाए, जोर ज़बरदस्ती की जाए तो यह जघन्य अपराध है. महिलाओं के साथ दुष्कर्म करने के बाद उसकी फिल्म बनाकर, प्रदर्शित करके, उसे ब्लैकमेल करके, उसके घर वालों को ब्लैकमेल करके, जबरन उनका धर्म परिवर्तन कराया जाए और उसको अपने साथ में रहने के लिए मजबूर किया जाए तो इस घृणित रवैये और रास्ते का पुरजोर विरोध होना चाहिए. ऐसे किसी काम या जबरन धर्म परिवर्तन को न हिंदू धर्म समर्थन करता है और न ही इस्लाम करता है. ऐसी गतिविधियों का चलना न केवल खतरनाक है बल्कि यह देश को तोड़ने की प्रक्रिया है. यह बम और एटम बम से ज्यादा खतरनाक है. 
इसे ही चाय में मक्खी गिरना कहते हैं…
कहावत है कि जब तक चाय मुंह के अंदर न चली जाए, तब तक यह मानना चाहिए कि चाय आपने नहीं पी है. बीच में कभी भी मक्खी गिर सकती है. मनोज सिन्हा की चाय में मक्खी गिर गई. 
मनोज सिन्हा प्रधानमंत्री के खास पसंद थे. मनोज सिन्हा का सौम्य होना और संचार मंत्रालय को सफलतापूर्वक चलाना ही उनके मोदी के प्रिय होने का कारण बना था. जब संचार मंत्रालय रविशंकर प्रसाद के पास था, तब उसकी आलोचना होती थी. लेकिन जैसे ही मनोज सिन्हा ने उस मंत्रालय को संभाला, संचार मंत्रालय सुर्खियों में आना बंद हो गया. हालांकि समस्याएं बहुत कम नहीं हुईं. उन्होंने जैसे भी मैनेज किया हो, अखबार की सुर्खियों से संचार मंत्रालय हट गया. मनोज सिन्हा का सौम्य चेहरा, उनका विनम्र स्वभाव, सबसे प्यार से मिलने की आदत, अपने विरोधी का हाथ पकड़ कर खड़े रहने की आदत, हर एक से इस अंदाज से मिलना मानो वे उसी को सबसे ज्यादा जानते हों और उसकी इज्जत करते हों, इन्हीं खूबियों ने उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए पसंदीदा चेहरा बनाया था. मनोज सिन्हा 18 मार्च पहले ही बनारस आ गए थे. उन्होंने संकट मोचन, काल भैरव और बाबा विश्‍वनाथ के दर्शन किए. इसके बाद, वे अपने ग्राम देवता का दर्शन करने गांव जाना चाहते थे. मनोज सिन्हा के यहां कोई भी काम ग्राम देवता की पूजा के बिना शुरू नहीं होता. 17 तारीख की रात को शीर्ष गलियारे में चर्चा चली कि मनोज सिन्हा का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए अंतिम रूप ले चुका है. मनोज सिन्हा के दोस्त, रिश्तेदार लखनऊ पहुंचने लगे. लेकिन, 18 मार्च की सुबह अचानक स्थिति में परिवर्तन आ गया.
दूसरी तरफ, उत्तर प्रदेश में अति पिछड़े और दलित विधायक एकजुट हो गए थे. प्रदेशभर के अति पिछड़ों में यह संदेश चला गया कि अब केशव मौर्या मुख्यमंत्री बनेंगे. बहुत सारी जगहों पर लड्डू बांटे गए. अति पिछड़े और यादव समाज के अलावा जितने पिछड़े समाज थे, उन सबने मान लिया कि इस बार मुख्यमंत्री उन्हीं का प्रतिनिधि होगा. दिल्ली में पूरा आकलन हुआ, तो केंद्रीय नेतृत्व को लगा कि योगी आदित्यनाथ की उपेक्षा भाजपा के भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा. चाय में मक्खी गिरने का अहसास लेकर मनोज सिन्हा बनारस से दिल्ली वापस चले गए. अब मनोज सिन्हा को केंद्र में कैबिनेट स्तर का मंत्री बनाया जा सकता है. 18 मार्च की सुबह ही योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से दिल्ली बुलाए गए. दिल्ली में स्टेज सेट होने के बाद योगी आदित्यनाथ, ओम माथुर, सुनील बंसल,  केशव मौर्या सब एक साथ ही दिल्ली से लखनऊ पहुंचे.

Monday 13 March 2017

मोदी के नाम जीत का इतिहास

प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके हैं. चुनाव परिणाम को लेकर अब किस्म-किस्म की समीक्षाएं पेश होंगी और तरह-तरह के आरोप-प्रत्यारोप लगेंगे लेकिन जमीनी यथार्थ यही है कि सबसे अधिक जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश और उसके ही शरीर से बने उत्तराखंड के लोगों ने भ्रष्टाचार और कुशासन की राजनीति को सिरे से खारिज कर दिया है. 2017 का चुनाव परिणाम राजनीतिक दलों के लिए सीख लेने वाले संदेश की तरह सामने आया है. यह समेकित संदेश है. इसमें धर्म और जाति का भेद नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को यह समझाने में पूरी तरह कामयाब हो चुके हैं कि वे भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ खड़े हैं. जनता के दिमाग में इस समझ के स्थापित होने के कारण ही तमाम प्रचारों-दुष्प्रचारों के बावजूद नोटबंदी कहीं कोई मुद्दा नहीं बना और कुशासन की पृष्ठभूमि पर बैठे सपा, बसपा और कांग्रेस जैसे दलों की इस बार कोई दाल नहीं गली. भाजपा के पक्ष में वोटों का आच्छादन बताता है कि उसे समाज के प्रत्येक वर्ग का वोट मिला. मुसलमानों का भी वोट मिला, इसमें मुस्लिम महिलाओं ने भाजपा का अधिक पक्ष लिया.
भाजपा की ऐसी ऐतिहासिक जीत से सपा बसपा कांग्रेस बौखला गई है. सपा के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने यहां तक कह दिया कि भाजपा ने जनता के साथ धोखाधड़ी की, लोगों को बांटा और बरगलाया. इस पर सपा के ही वरिष्ठ नेता शिवपाल यादव ने कहा कि यह हार समाजवादियों की नहीं, घमंडियों की हार है. वहीं बसपा नेता मायावती ने आरोप लगा दिया कि भाजपा ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के साथ छेड़छाड़ की और अपने मन-मुताबिक परिणाम निकलवा लिया. हालांकि इस आरोप को पुष्ट करने के लिए मायावती ने कोई प्रमाण नहीं दिया. उन्होंने इस बात पर भी आश्चर्य जाहिर किया कि भाजपा द्वारा एक भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं दिए जाने के बावजूद मुस्लिम बहुल क्षेत्र में भाजपा को भारी वोट कैसे मिले! मायावती ने कहा कि वोंटिग मशीन में सेंटिग की वजह से बसपा हार गई. मायावती बोलीं कि वर्ष 2014 में भी ऐसी ही गड़बड़ी की आशंका जताई गई थी और हाल में महाराष्ट्र में हुए महानगर पालिका के चुनावों में भी ईवीएम में मैनिपुलेशनकी शिकायत सामने आई है. अखिलेश यादव ने भी ईवीएम-मैनिपुलेशन की तरफ इशारा किया और यह भी कहा कि जनता का फैसला उन्हें स्वीकार है. उन्होंने उम्मीद जताई कि नई सरकार बेहतर काम करेगी. अखिलेश ने कहा कि नई सरकार के गठन के बाद पहली कैबिनेट बैठक में जो निर्णय आएंगे, उसका हम सबको इंतजार रहेगा. किसानों का कर्ज माफ हुआ तो उन्हें बहुत खुशी होगी.
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के जनादेश ने सपा-कांग्रेस गठबंधन तकनीक और बसपा की नई धार्मिक-अभियांत्रिकी को उनकी खोलों में समेट कर रख दिया. मैदान से लेकर पहाड़ तक भाजपा का दबदबा कायम हो गया. इसकी सबसे बड़ी खासियत यह रही कि मुस्लिम बहुल इलाकों में भी भाजपा को जीत मिली. सपा-कांग्रेस गठबंधन नंबर दो और बसपा नंबर तीन पर स्थान बना पाई. पहले और दूसरे के बीच संख्या की खाई बहुत ज्यादा गहरी है. उत्तराखंड में तो बसपा शून्य में ही रह गई. देश के पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में लोगों का सबसे ज्यादा ध्यान उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव पर ही लगा था. यूपी की 403 विधानसभा सीटें पूरे देश की राजनीति का ताप बदल देती हैं. यहां सात विभिन्न चरणों में चुनाव हुए. पहले चरण में 11 फरवरी को 15 जिलों की 73 विधानसभा सीटों पर वोट डाले गए. दूसरे चरण में 15 फरवरी को 11 जिलों की 67 सीटों के लिए चुनाव हुए. तीसरे चरण में 69 सीटों पर 19 फरवरी को चुनाव कराया गया. चौथे चरण में 53 सीटों पर 23 फरवरी को वोटिंग हुई. पांचवें चरण में 52 सीटों के लिए 27 फरवरी को और छठे चरण में 49 सीटों पर 4 मार्च को चुनाव हुए. सातवें चरण में 40 सीटों पर 8 मार्च को हुए मतदान के बाद चुनाव की प्रक्रिया समाप्त हुई.
2017 के विधानसभा चुनाव की खासियत यह रही कि इसने राम मंदिर आंदोलन काल में भाजपा को मिले जनादेश को भी पीछे धकेल दिया. उस समय भाजपा को 221 सीटें, यानि, करीब 32 प्रतिशत वोट मिले थे. पिछले (2007) चुनावी नतीजों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि 28 फीसदी से अधिक वोट पाने वाली पार्टी बसपा की सरकार बनी थी. 2007 में बसपा ने 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत प्राप्त की थी. वर्ष 2012 में समाजवादी पार्टी को 224 सीटों के साथ 29.13 प्रतिशत वोट मिले थे और वह सत्ता पर काबिज हुई थी. 2012 के चुनाव में बसपा को 25.91 प्रतिशत वोट मिले थे. 2007 में सपा को 25.5 फीसदी मत मिले थे. भाजपा को उन दोनों चुनावों में महज 17 प्रतिशत के आसपास वोट मिले थे. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का भाग्य पलटा और उसे 42.3 प्रतिशत वोट के साथ 73 सीटें हासिल हुईं. ठीक वही हाल 2017 के विधानसभा चुनाव में हुआ, जिसमें भाजपा को तीन चौथाई से भी ज्‍यादा सीटें हासिल हुईं. भाजपा को 403 सीटों में अकेले 312 सीटें मिलीं. भाजपा के सहयोगी अपना दल को नौ सीटें मिलीं जबकि दूसरी सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को भी चार सीटें मिली हैं. यानि, 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को कुल 325 सीटें हासिल हुई हैं. समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन को महज 54 सीटें हासिल हुईं. इनमें 47 सीटें सपा को और सात सीटें कांग्रेस को मिली हैं. बसपा का हाल सबसे खराब रहा. उसे महज 19 सीटों पर संतोष करना पड़ा. फिर से याद दिलाते चलें कि 2012 के चुनाव में सपा को 224 सीटें मिली थीं और कांग्रेस 28 सीटों पर विजयी हुई थी. भाजपा की जीत की मार्जिन के नजरिए से देखें तो पाएंगे कि सपा, बसपा और कांग्रेस की जमानत जब्त हो गई. उत्‍तराखंड में भी भाजपा को 69 में से 56 सीटें मिलीं और तीन चौथाई बहुमत हासिल हुआ. कांग्रेस को महज 11 सीटें मिलीं. मुख्यमंत्री हरीश रावत दो सीटों से चुनाव लड़े थे, दोनों जगह से हार गए. खबर लिखे जाने तक उत्तराखंड की एक सीट पर परिणाम आना बाकी था. उत्तराखंड में विधानसभा की कुल सीटें 70 हैं.
यूपी में चुनाव परिणाम आने के बाद सपा नेता भी कहने लगे हैं कि मुलायम परिवार का झगड़ा न हुआ होता तो न पार्टी टूटती, न कांग्रेस से गठबंधन होता और न इतने बुरे दिन देखने पड़ते. सपा के राज्यसभा सदस्य अमर सिंह ने कहा भी, घर को लगी आग, घर के चिराग से. अमर सिंह ने कहा कि मुलायम परिवार की कलह और अखिलेश का अहंकार पार्टी को ले डूबा. उन्हें सभी उम्रदराज नेताओं का सम्मान करना चाहिए था. ऊपर से कांग्रेस के साथ गठबंधन करके 105 सीटें और बेकार कर दीं. अमर सिंह ने कहा कि अगर मुलायम ने पहले ही सत्ता की कमान संभाल ली होती तो हार का अंतर इतना बड़ा नहीं होता. सपा को कम से कम 120 से 130 सीटें तो मिल ही जातीं. विधानसभा चुनाव के आखिरी चरण के दिन ही मुलायम की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता ने अखिलेश द्वारा अपने पिता मुलायम का अपमान करने की बात कह कर आखिरी कील ठोक दी. साधना गुप्ता ने यह भी कि शिवपाल यादव का कोई दोष नहीं है, सब रामगोपाल का किया धरा है. साधना गुप्ता ने कहा कि उनका बहुत अपमान हुआ, वे अब और सहन नहीं करेंगी. उन्होंने शिवपाल का पक्ष लिया और कहा उन्हें गलत ढंग से पार्टी से किनारे किया गया. चुनाव परिणाम के बाद प्रो. रामगोपाल यादव परिदृश्य से गायब हैं.  
यह सही है कि नरेंद्र मोदी की लहर के बारे में सपा समेत किसी भी पार्टी को अनुमान नहीं लग पाया. खुद भाजपा को भी यह भान नहीं था कि अंदर-अंदर इतनी बड़ी सुनामी शक्ल ले रही है. लेकिन इतनी दयनीय स्थिति पर पार्टी को ला खड़ा करने के लिए अखिलेश ही नहीं, मुलायम भी उतने ही दोषी हैं. प्रो. रामगोपाल भी उतने ही दोषी हैं. परिवार के अंदरूनी विवाद को सार्वजनिक मंचों पर लाकर मुलायम ने उसे अधिक सड़ाया. घर का झगड़ा सड़क तक ला दिया. यह झगड़ा भी लगातार चलता रहा और गहराता रहा. मुलायम और उनके बेटे के बीच या चाचा शिवपाल और भतीजे अखिलेश के बीच राजनीतिक वर्चस्व का झगड़ा था तो इसे सड़क पर लाने की क्या जरूरत थी? उसे घर में निपटाने के बजाय उसे पार्टी के सार्वजनिक मंचों पर निपटाया जाने लगा. इसे पूरी दुनिया ने देखा. इसे उत्तर प्रदेश की जनता ने देखा. आम लोगों की तरफ से ये सवाल उठे कि प्रदेश की जनता ने वर्ष 2012 में सपा को जनादेश क्या परिवार का झगड़ा देखने के लिए दिया था? जनता ने भीतर-भीतर यह तय कर लिया था इस कलह का पुरस्कार सपा को कैसे देना है. पिता को जबरन पार्टी से बेदखल कर खुद को राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित करने वाले अखिलेश यादव के सिपहसालार भी उन्हें डुबोने के लिए आमादा थे. कांग्रेस से गठबंधन करने की सलाह देने वाले उनके परामर्शदाता राजनीतिक दूरदृष्टि के हिसाब से पूरे विकलांग ही साबित हुए. मुख्यमंत्री और स्वयंभू राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव इतने सत्ता दंभ में थे कि कांग्रेस से गठबंधन को लेकर किसी वरिष्ठ नेता से कोई सुझाव लेने की जरूरत नहीं समझी. सारे वरिष्ठों को वे धकिया चुके थे तो सलाह किससे लेते! हालांकि उपेक्षित किए जाने के बावजूद मुलायम ने कांग्रेस से गठबंधन को सपा के लिए आत्मघाती बताया था. लेकिन मुलायम की सुन कौन रहा था! चाटुकारों की भीड़ के अलावा अखिलेश के पास कोई दूसरा कार्यकर्ता फटक भी नहीं पा रहा था. लेकिन ऐसे आचरणों से कार्यकर्ताओं में नकारात्मक संदेश तो जा ही रहा था. राहुल तो अपनी खाट खड़ी करने पर आमादा थे ही, उन्होंने अखिलेश के माथे पर भी टूटी खाट पटक दी.
लोग कहते हैं कि कानून व्यवस्था अखिलेश सरकार के लिए बड़ा मुद्दा बना. लेकिन असलियत यह है कि खराब कानून व्यवस्था से अधिक खराब माना गया था अखिलेश द्वारा यादव सिंह जैसे भ्रष्ट अधिकारियों और गायत्री प्रजापति जैसे भ्रष्टतम मंत्रियों को संरक्षण दिया जाना. इस अनैतिक संरक्षण के कारण अखिलेश जनता के सामने बुरी तरह एक्सपोज़ हुए, लेकिन उन पर जैसे इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था. पर जनता के बीच अखिलेश का यह रवैया भीषण रूप से नापसंद किया जा रहा था. मुजफ्फरनगर के दंगे से लेकर मां-बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार की लोमहर्षक घटनाओं ने अखिलेश का बड़ा नुकसान किया. नोटबंदी पर सपा, कांग्रेस और बसपा की गिरोहबंदी ने रही सही कसर पूरी कर दी. जनता को उकसाने की उनकी कोशिशें नाकाम रहीं और चुनाव में लोगों ने उन तिकड़मों का हिसाब-किताब बराबर कर दिया. भाजपा सांसद व पार्टी के अनुसूचित जाति जनजाति प्रकोष्ठ के अध्यक्ष कौशल किशोर कहते हैं कि अखिलेश के नारे काम बोलता है ने सपा का काम लगा दिया, क्योंकि जनता को यह सफेद झूठ पसंद नहीं आया. बसपा नेता मायावती के बारे में कौशल कहते हैं कि मायावती ने बाबा साहब अंबेडकर के सिद्धांतों को ताक पर रख दिया तो व्यापक दलित समुदाय ने मायावती और उनकी पार्टी को ही ताक पर रख दिया. 

यूपी के 20 सीएम, पर कोई दो बार लगातार रिपीट नहीं हुआ
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे ऐतिहासिक सफलताओं के साथ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में आए, लेकिन उत्तर प्रदेश की परम्परा एक बार एक मुख्यमंत्री को कुर्सी देने की रही है. यानि, कोई मुख्यमंत्री आज तक अपनी कुर्सी पर दो बार लगातार रिपीट नहीं हो पाया है. गोविंद वल्लभ पंत से लेकर अखिलेश यादव तक कोई भी व्यक्ति निरंतरता में दोबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठ पाया.
उत्तर प्रदेश में अब तक 20 मुख्यमंत्री हो चुके हैं. इनके अलावा तीन कार्यकारी मुख्यमंत्री भी हुए हैं, जिनका कार्यकाल छोटा रहा है. 2017 में निवर्तमान मुख्यमंत्री हुए अखिलेश यादव 15 मार्च 2012 को मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हुए थे. उत्तर प्रदेश की पहली विधानसभा को 195257 तक गोविंद वल्लभ पंत के रूप में मुख्यमंत्री मिला. दूसरी विधानसभा 195762 तक चली, जिसमें सम्पूर्णानंद मुख्यमंत्री बने. इसके बाद चंद्रभानु गुप्त, सुचेता कृपलानी, चंद्रभानु गुप्त, चरण सिंह, चंद्रभानु गुप्त, चरण सिंह, त्रिभुवन नारायण सिंह, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी, राम नरेश यादव, बनारसी दास, विश्वनाथ प्रताप सिंह, श्रीपति मिश्र, नारायणदत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह, नारायणदत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह, मुलायम सिंह यादव, मायावती, राष्ट्रपति शासन, मायावती, कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्त, राजनाथ सिंह, मायावती, मुलायम सिंह यादव, मायावती और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने. इनमें से कई नेता दो बार तो मुख्यमंत्री बने लेकिन कोई भी नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक से दूसरे सत्र में रिपीट नहीं हुआ.

पहाड़ पर भी कांग्रेस भक्क-काटा...
मोदी लहर का असर पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी दिखा जहां से कांग्रेस का भक्क-काटाहो गया. हरीश रावत सरकार में काबीना मंत्री रहे नेता तो चुनाव हारे ही, खुद मुख्यमंत्री हरीश रावत भी हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा सीट से चुनाव हार गए. उत्तराखंड की 69 सीटों (खबर लिखे जाने तक एक का परिणाम बाकी था) में से भाजपा को 56 और कांग्रेस को 11 सीटें ही मिलीं. हालांकि इस आकर्षक जीत के बावजूद भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट चुनाव हार गए. गढ़वाल के सांसद और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी ने उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी की जीत को मोदी की कार्यशैली की जीत बताया.
चुनाव में भाजपा के परफॉर्मेंस को लेकर तमाम आशंकाएं जताई जा रही थीं. कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए नेताओं को टिकट दिए जाने से लेकर तमाम बाहरियों को टिकट दिए जाने से भाजपा के पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं में नाराजगी थी. कई दिग्गज भाजपा नेता बागी प्रत्याशी के बतौर चुनाव मैदान में भी आ डटे थे. ऐसा लग रहा था कि असंतुष्टों और बागियों की वजह से भाजपा को अपेक्षित सफलता न मिल पाए. लेकिन ऐसी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं. टिकट नहीं दिए जाने से नाराज भाजपा महिला मोर्चा की पूर्व प्रदेश मीडिया प्रभारी लक्ष्मी अग्रवाल सहसपुर से निर्दलीय खड़ी हो गई थीं. कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आए यशपाल आर्य और उनके बेटे संजीव आर्य दोनों को टिकट दिए जाने से वे नाराज थीं. भाजपा ने इस बार एक दर्जन से अधिक उन नेताओं को टिकट दिए जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए थे. कांग्रेस से भाजपा में आए सतपाल महाराज चौबटाखाल से लड़ रहे थे. उनके लिए भाजपा ने तीरथ सिंह रावत का टिकट काट दिया. रावत चुनाव नहीं लड़ रहे थे लेकिन उनके करीबी कवींद्र इस्टवाल सतपाल महाराज के मुकाबले खड़े थे. भाजपा ने नरेंद्र नगर सीट पर कांग्रेस से आए सुबोध उनियाल को टिकट दिया. इससे नाराज ओम गोपाल रावत बागी प्रत्याशी के बतौर खड़े हो गए थे. कांग्रेसी से भाजपाई बने हरक सिंह रावत की वजह से ही भाजपा के शैलेंद्र रावत को इस्तीफा देना पड़ा. हरक सिंह रावत को भाजपा ने कोटद्वार से टिकट दिया जहां से शैलेंद्र चुनाव लड़ना चाहते थे. शैलेंद्र बाद में कांग्रेस में चले गए और कांग्रेस ने उन्हें गढ़वाल की यमकेश्वर सीट से टिकट दे दिया था.
70 सीटों वाले उत्तराखंड की आधे से अधिक सीटों पर बागी खेल बिगाड़ने में लगे थे. यह अकेले भाजपा के साथ नहीं था. कांग्रेस भी बागियों से परेशान थी. बगावत ने कांग्रेस का तो खेल बिगाड़ा, लेकिन भाजपा का कुछ नहीं बिगड़ा. कांग्रेस के आर्येंद्र शर्मा का सहसपुर सीट से चुनाव लड़ना तय था, लेकिन ऐन मौके पर उनका पत्ता कट गया. फिर वे निर्दलीय ही खड़े हो गए थे. वहीं से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय मैदान में थे, जो इन्हीं वजहों से चुनाव हार गए. निवर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत ने उपाध्याय को उनकी परम्परागत टिहरी सीट से नहीं लड़वाया. इससे उपाध्याय नाराज भी थे. हालांकि हरीश रावत भी चुनाव में धराशाई ही रहे. कांग्रेस के समक्ष कई दिक्कतें थीं. हरिद्वार की ज्वालापुर सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार एसपी सिहं के खिलाफ बागी ब्रजरानी खड़ी थीं तो कुमाऊं की भीमताल सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी दान सिंह भंडारी के खिलाफ राम सिंह कैड़ा बागी उम्मीदवार के रूप में खड़े थे. कुमाऊं की ही द्वाराहाट सीट पर कांग्रेस के मदन बिष्ट के खिलाफ कुबेर कठायत खड़े थे. दिलचस्प यह रहा कि भाजपा ने कांग्रेस छोड़कर आए 13 नेताओं को टिकट दिया तो कांग्रेस ने भाजपा से कांग्रेस में आए 7 नेताओं को टिकट दिया था.
सियासी कतरब्यौंत और परस्पर तिकड़मबाजी में उत्तराखंड के मूल मुद्दे हाशिए पर ही रहे. राजधानी गैरसैण ले जाने के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, पलायन व रोजगार जैसे मसले किनारे रह गए. राज्य के पर्वतीय जिलों में डॉक्टरों का घोर अभाव है. राज्य में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों की सरकारें रही हैं, लेकिन किसी ने भी स्वास्थ्य क्षेत्र की गंभीर समस्याओं के हल के लिए कुछ नहीं किया. पहाड़ के गांवों से पलायन की स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि तीन हजार गांव ऐसे हैं, जहां आज एक भी मतदाता नहीं बचा है. उत्तराखंड के 16 हजार 793 गांवों के 2 लाख 57 हजार 8 सौ 75 घरों में पलायन के कारण ताले लटक चुके हैं. इसके कारण राज्य के चीन से लगे सीमान्त क्षेत्र को गम्भीर सामरिक खतरा भी पैदा हो गया है. लोगों का पलायन रोकने के लिए राज्य और केंद्र सरकार की ओर से कोई पहल नहीं की गई. पर्वतीय प्रदेश की समस्याएं जस की तस सामने खड़ी हैं. राज्य में रहने वाले बंगाली, पूरबिया, पंजाबी, मैदानी दलितों की उपेक्षा की बात तो खूब होती है, लेकिन पहाड़, पहाड़ी दलितों, पहाड़ की कुमाऊंनी व गढ़वाली भाषा और लोक-संस्कृति के विलुप्त होते जाने की कोई नेता चर्चा नहीं करता. महिलाओं की पीड़ा की बात किसी राजनीतिक दल ने नहीं की. पहाड़ के लोगों का कहना है कि पहली बार किसी विधानसभा चुनाव में लगा ही नहीं कि यह उत्तराखंड का चुनाव है. लगा कि जैसे यह चुनाव उत्तर प्रदेश में ही हो रहा है. केवल राज्य का नाम बदला है और कुछ नहीं. उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड एक राज्य के रूप में 9 नवम्बर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग हुआ था. उत्तर प्रदेश के 13 जिलों हरिद्वार, देहरादून, टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी, चमोली, पौड़ी गढ़वाल, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़, चम्पावत, नैनीताल व उधमसिंह नगर को मिलाकर उत्तराखंड बना था. यहां केवल विधानसभा है, विधान परिषद नहीं. उत्तराखंज की पहली अंतरिम सरकार के मुख्यमंत्री भाजपा नित्यानंद स्वामी बने थे, जो उसके पहले उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सभापति थे. अक्टूबर 2001 में भगत सिंह कोश्यारी मुख्यमंत्री बनाए गए. उत्तराखंड के चौथे विधानसभा चुनाव के तहत 15 फरवरी 2017 को 70 विधानसभा सीटों पर मतदान हुआ.

उत्तराखंड के सात सीएम, पर कोई दो बार लगातार रिपीट नहीं हुआ
उत्तराखंड प्रदेश के निर्माण से लेकर अब तक सात मुख्यमंत्री हो चुके हैं. पर्वतीय प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री के बतौर नित्यानंद स्वामी का नाम दर्ज हो चुका है. स्वामी 9 नवम्बर 2000     से लेकर 29 अक्टूबर 2001 तक मुख्यमंत्री रहे. स्वामी के बाद 30 अक्टूबर 2001 से     01 मार्च 2002 तक भगत सिंह कोश्यारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे. कोश्यारी के बाद प्रदेश में कांग्रेस का दौर आया और वरिष्ठ कांग्रेस नेता नारायण दत्त तिवारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने. एनडी 02 मार्च 2002 से 07 मार्च 2007 तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. एनडी के बाद फिर भाजपा के भुवन चन्द्र खंडूरी मुख्यमंत्री बने. खंडूरी 08 मार्च 2007 से 23 जून 2009 तक मुख्यमंत्री रहे. खंडूरी के बाद 24 जून 2009 से लेकर 10 सितम्बर 2011 तक रमेश पोखरियाल निशंक उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे. भुवन चन्द्र खंजूरी दोबारा मुख्यमंत्री बने और 11 सितम्बर 2011 से 13 मार्च 2012 तक सीएम की कुर्सी पर काबिज रहे. इसके बाद फिर कांग्रेस का दौर आया जब विजय बहुगुणा प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. बहुगुणा 13 मार्च 2012  से 31 जनवरी 2014 तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. उसके बाद ही कांग्रेस के हरीश रावत मुख्यमंत्री बने. रावत 01 फरवरी 2014 से अब तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. उत्तराखंड में भी कोई मंत्री लगातार दूसरी बार रिपीट नहीं हुआ.

पूंजीपतियों और अपराधियों का दलों पर दबदबा
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का विधानसभा चुनाव कई किस्म के रिकॉर्ड कायम करने वाला चुनाव भी साबित हुआ. विधानसभा चुनाव में उतरा हर तीसरा उम्मीदवार बलात्कार, हत्या और अपहरण जैसे गंभीर अपराधों का अभियुक्त था. उत्तर प्रदेश में इस बार कुल प्रत्याशियों में से 30 प्रतिशत करोड़पति प्रत्याशी थे. उत्तराखंड भी पीछे नहीं रहा.
उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए कुल 4,853 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा. उनमें से 4,823 उम्मीदवारों के हलफनामों के आधार पर 859 उम्मीदवारों, यानी करीब 18 प्रतिशत प्रत्याशियों ने खुद ही यह बताया है कि उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. 15 प्रतिशत उम्मीदवारों यानि, 704 उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं. विडंबना यह है कि 30 उम्मीदवारों ने चुनाव आयोग के समक्ष अपना शपथपत्र भी ठीक से नहीं भरा और आयोग ने भी उसे अस्पष्ट माना. इसके बावजूद उन उम्मीदवारों ने बाकायदा चुनाव लड़ा और आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की. इनमें बसपा के नकुल दुबे समेत कई प्रत्याशी शामिल हैं. बहरहाल, यह भी साफ हुआ कि इस बार के चुनाव में करीब 1,457 उम्मीदवार ऐसे थे, जो करोड़पति और अरबपति हैं. आप इसी से समझें कि प्रत्याशियों की औसत सम्पत्ति ही 1.91 करोड़ रुपये की आंकी गई है.
अपराधियों को चुनाव लड़वाने में समाजवादी पार्टी व कांग्रेस गठबंधन पहले नंबर पर रहा. सपा-कांग्रेस मिला कर उनके 69 प्रतिशत प्रत्याशियों पर आपराधिक मामले हैं. सपा के 37 प्रतिशत और कांग्रेस के 32 प्रतिशत उम्मीदवारों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. बहुजन समाज पार्टी दूसरे नंबर रही, जिसके 40 प्रतिशत प्रत्याशी आपराधिक पृष्ठभूमि के थे. बसपा के 400 उम्मीदवारों में से 150 उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के थे. भाजपा के 36 प्रतिशत प्रत्याशियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. इसके अलावा बसपा के 31, सपा के 29, भाजपा के 26 और कांग्रेस के 22 प्रतिशत उम्मीदवारों के खिलाफ गंभीर (संज्ञेय) अपराध के मामले दर्ज हैं.
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव का कोई भी ऐसा चरण नहीं रहा जिसमें अपराधी या धनपति उम्मीदवारों की खासी तादाद नहीं थी. 11 फरवरी को हुए पहले चरण के चुनाव में 302 करोड़पति उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा. पहले चरण में चुनाव लड़ने वाले 168 प्रत्याशी आपराधिक पृष्ठभूमि के थे. पहले चरण में कुल 836 उम्मीदवार मैदान में थे, जिनमें बसपा के 73 में से 66, भाजपा के 73 में से 61, सपा के 51 में से 40, कांग्रेस के 24 में से 18, राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के 57 में से 41 और 293 निर्दलीय उम्मीदवारों में से 43 उम्मीदवार करोड़पति थे. पहले चरण में चुनाव में उतरे उम्मीदवारों की औसत सम्पत्ति 2.81 करोड़ रुपये है. पहले चरण में चुनाव लड़ने वाले आपराधिक छवि के 168 प्रत्याशियों में से 143 उम्मीदवारों पर हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध समेत कई गंभीर अपराध के मामले दर्ज हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि इस चरण में चुनाव लड़ने वाले 186 उम्मीदवारों ने चुनाव आयोग के समक्ष पैन का ब्यौरा भी पेश नहीं किया था.
दूसरे चरण के चुनाव में कई रोचक और हैरत में डालने वाले तथ्य सामने आए. दूसरे चरण का चुनाव लड़ने वाले बसपा के 67 प्रत्याशियों में से 25 (37 प्रतिशत) के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. सपा के 51 प्रत्याशियों में से 21 (41 प्रतिशत) के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. भाजपा के 67 प्रत्याशियों में 16 (24 प्रतिशत) और  कांग्रेस के 18 प्रत्याशियों में से छह (33 प्रतिशत) के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. दूसरे चरण में चुनाव मैदान में उतरे 206 निर्दलीय प्रत्याशियों में से 13 (6 प्रतिशत) प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं. दूसरे चरण के 107 आपराधिक छवि वाले प्रत्याशियों में से 66 प्रत्याशियों पर हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे संगीन मामले दर्ज हैं. इन 66 प्रत्याशियों में बसपा के 17 प्रत्याशी (25 प्रतिशत), भाजपा के 10 प्रत्याशी (15 प्रतिशत), सपा के 17 प्रत्याशी (33 प्रतिशत), कांग्रेस के 4 प्रत्याशी (22 प्रतिशत), रालोद के 52 प्रत्याशियों में से 6 प्रत्याशी (12 प्रतिशत) और 12 निर्दलीय प्रत्याशी (6 प्रतिशत) शामिल हैं. दिलचस्प यह है कि दूसरे चरण में चुनावी मैदान में उतरे 277 यानि 39 फीसदी उम्मीदवार पांचवीं से 12वीं कक्षा पास थे. 310 उम्मीदवार स्नातक थे. 11 उम्मीदवार तो बिल्कुल ही निरक्षर थे. चुनाव के तीसरे चरण में 250 करोड़पति उम्मीदवार मैदान में थे. तीसरे दौर में 110 उम्मीदवार ऐसे थे जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं. 250 करोड़पति प्रत्याशियों में बसपा के 56 प्रत्याशी, भाजपा के 61, सपा के 51, कांग्रेस के 7, रालोद के 13 और 24 निर्दलीय प्रत्याशी शामिल थे. तीसरे चरण के 208 प्रत्याशियों ने अपने पैन का ब्यौरा ही नहीं दिया. आपराधिक पृष्ठभूमि के 110 प्रत्याशियों में से 82 के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं. इन 110 प्रत्याशियों में 21 भाजपा के, 21 बसपा के, पांच रालोद के, 13 सपा के, पांच कांग्रेस के और 13 निर्दलीय हैं. चौथे चरण के मतदान में 189 करोड़पति उम्मीदवार मैदान में थे हैं. 116 उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि वाले थे. 189 करोड़पतियों में बसपा के 45, भाजपा के 36, सपा के 26, कांग्रेस के 17, रालोद के 6 और 25 निर्दलीय शामिल हैं. आपराधिक पृष्ठभूमि के 116 उम्मीदवारों में से भाजपा के 19, बसपा के 12, रालोद के 9, सपा के 13, कांग्रेस के 8 और 24 निर्दलीय उम्मीदवार शामिल हैं. पांचवें चरण में चुनावी मैदान में उतरे 612 उम्मीदवारों में से 117 यानि 19 प्रतिशत प्रत्याशी आपराधिक छवि वाले थे. 168 यानी 27 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति थे. आपराधिक छवि वाले 117 प्रत्याशियों में बसपा के 23, भाजपा के 21, रालोद के 8, सपा के 17, कांग्रेस के 3 और 19 निर्दलीय उम्मीदवार शामिल हैं. इसी तरह छठे चरण में चुनाव में उतरे 635 उम्मीदवारों में से 20 फीसदी यानि 126 प्रत्याशियों पर आपराधिक मामले दर्ज थे. आखिरी सातवें चरण में भी राजनीतिक दलों के आपराधिक, दागी और करोड़पति उम्मीदवारों कमी नहीं थी. आखिरी चरण में 115 प्रत्याशी दागी और आपराधिक छवि वाले थे. वहीं 535 में से 132 उम्मीदवार करोड़पति की हैसियत वाले थे.

उत्तराखंड का भी यही रहा हालः पर्वतीय प्रदेश में हुए चुनाव में भी 200 से ज्यादा करोड़पति उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे. विधानसभा चुनाव में डटे 637 उम्मीदवारों में से 91 उम्मीदवारों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. इनमें 54 उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं. पांच उम्मीदवार ऐसे हैं जिनके खिलाफ हत्या का केस दर्ज है. पांच उम्मीदवारों पर हत्या प्रयास और पांच उम्मीदवारों पर महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दर्ज हैं. उत्तराखंड में भाजपा के 70 उम्मीदवारों में से 19 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. कांग्रेस के सात उम्मीदवारों पर आपराधिक केस हैं. बसपा के चार उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले हैं. 200 करोड़पति उम्मीदवारों में कांग्रेस के 52, भाजपा के 48 और बसपा के 19 उम्मीदवार शामिल हैं.

Wednesday 1 March 2017

मदरसों में चल रही नापाक गतिविधियां...

प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश में मदरसों का धंधा बेतहाशा चल रहा है. देश-विदेश के विभिन्न स्रोतों से आने वाला फंड धंधेबाजों को मदरसे का धंधा चलाने के लिए आकर्षित करता है. कई भारतीय मध्य-पूर्व के देशों में महज इसलिए बस गए हैं कि वे वहां से फंड हासिल करें और अपने निजी अकाउंट से धन ट्रांसफर करते रहें. इसमें विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम (एफसीआरए) की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. मदरसे का धंधा चैरिटेबल सोसाइटी और चैरिटेबल ट्रस्ट का सहारा लेकर चलाया जा रहा है. मदरसे के धंधे की आड़ में ही तमाम अनैतिक गतिविधियां चलाई जा रही हैं. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के कुछ बुद्धिजीवियों ने मदरसों की आड़ लेकर चलाए जा रहे धंधे के खिलाफ सामाजिक मुहिम छेड़ दी है. 
मदरसों में शरियत को ताक पर रखने, फंडिंग का बेजा इस्तेमाल करने और छात्र-छात्राओं के साथ अश्लील आचरण करने जैसे जघन्य कृत्यों के खिलाफ उत्तर प्रदेश में व्यापक पैमाने पर मुहिम चल रही है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से उठी मशाल पूरे प्रदेश और देश में लौ जगाएगी. शिया धर्मगुरु और ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना यासूब अब्बास ने कहा कि धार्मिक शिक्षण के स्थान खुदा की इबादत की तरह पवित्र होते हैं, उसे अपने आचरणों से अपवित्र करना गैर-धार्मिक और गैर-इस्लामिक है. उलेमा फाउंडेशन के अध्यक्ष मौलाना सैयद कौकब मुज्तबा ने भी कहा कि मदरसों के नाम पर धंधा चलाने वाले तत्वों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई आवश्यक है. इस्लामिक साहित्य के विद्वान अल्लामा जमीर नकवी के नेतृत्व में कई बुद्धिजीवियों और समाजसेवियों ने इसका बीड़ा उठाया है और इरान की अल मुस्तफा इंटरनेशनल युनिवर्सिटी से सम्बद्ध व कुवैत से फंडेड लखनऊ के दो मदरसों से अभियान की शुरुआत की है.
लखनऊ के सआदतगंज स्थित कश्मीरी मोहल्ले में अल-ज़हरा एडुकेशनल एंड चैरिटेबिल सोसाइटी के तहत चल रहे मदरसा अल-ज़हरा और मदरसा खदीजतुल कुबरा को केंद्र में रख कर अभियान की शुरुआत की गई है. अल्लामा जमीर नकवी कहते हैं कि ये मदरसे छात्राओं को धार्मिक शिक्षण देने के लिए बने हैं. छात्राओं का मदरसा होने के कारण ये अधिक संवेदनशील हैं, इसलिए यहां से अभियान की शुरुआत की गई है. इन मदरसों में सुधार हुआ तो उसका व्यापक संदेश जाएगा और अन्य मदरसे भी सुधरने की तरफ अग्रसर होंगे. अधिकतर मदरसों में देश-विदेश के विभिन्न स्रोतों से धन आता है. इसका नाजायज इस्तेमाल हो रहा है. इसके अलावा तमाम गैर शरियती गतिविधियां चलती हैं. यह अत्यंत चिंता का विषय है. नकवी कहते हैं कि अल-ज़हरा एडुकेशनल एंड चैरिटेबिल सोसाइटी का संस्थागत अकाउंट बैंक ऑफ बड़ौदा की नक्खास शाखा में है, लेकिन देश-विदेश के विभिन्न स्रोतों से आने वाला फंड लखनऊ के नादान महल रोड स्थित आईसीआईसीआई बैंक (अकाउंट नंबर- 000401408949) में जमा होता है. यह एनआरआई अकाउंट है जो संस्था के अध्यक्ष सैयद शम्स नवाब रिजवी के नाम है. संस्था के अध्यक्ष विदेश में ही रहते हैं लेकिन उनके इस अकाउंट को संस्था के उपाध्यक्ष (वाइस प्रेसिडेंट) सैयद जहीर हुसैन रिजवी लखनऊ में ऑपरेट करते हैं. जबकि उक्त बैंक खाता मूल रूप से आईसीआईसीआई की कुवैत (सऊदी अरब) शाखा से सम्बद्ध है. नकवी इस पर सवाल उठाते हैं कि मदरसे को प्राप्त होने वाली समस्त धनराशियां आईसीआईसीआई के निजी खाते में प्राप्त की जाती हैं और फिर उसे संस्था के आधिकारिक खाते में स्थानान्तरित किया जाता है. इसके अलावा अलग-अलग छोटी-छोटी धनराशियां मदरसे के खाते में जमा कराई जाती हैं. इसका क्या कारण है? इस तरह की गुत्थियों की वजह से यह सुनिश्चित नहीं होता मदरसों के लिए किन-किन स्रोतों से अनुदान राशि कितनी-कितनी और कब-कब प्राप्त हो रही है. जमीर नकवी कहते हैं कि कुवैत के सांसद सालेह अहमद आशूर की तरफ से भेजा गया धन भी इस्तेमाल हो रहा है, जिसकी पुष्टि बैंक खातों द्वारा होती है. इन खातों की जांच की कानूनी कार्रवाइयों के लिए भी पहल हो रही है ताकि यह पता चल सके कि मदरसे की आड़ में काले धन का धंधा तो नहीं चल रहा है! जिस तरह की गतिविधियां सामने आई हैं, उससे इस तरह के संदेह पुख्ता होते हैं.
इन मदरसों के तहत लड़कियों के हॉस्टल और अनाथालय बनाए जाने के लिए हरदोई रोड के निर्जन इलाके में 12 हजार वर्ग फिट जमीन खरीदी गई. नकवी यह सवाल उठाते हैं कि जब जमीन खरीद ली गई तो वहां हॉस्टल और अनाथालय क्यों नहीं बनवाया गया? क्या कारण है कि बालिकाओं के अनाथालय के लिए शहर से दूर बियाबान इलाके में भूमि खरीदी गई और हॉस्टल के नाम पर एक करोड़ की धनराशि खर्च दिखा कर लखनऊ के शाह नजफ रुस्तम नगर के सामने तीन फिट की संकरी गली में हॉस्टल के लिए एक घर (प्लॉट नं- 565, मकान नं.- 390/067 (036) आधी राशि में खरीद लिया गया? हॉस्टल के लिए उक्त घर को 49 लाख 16 हजार रुपये में खरीदा गया, जिसकी रजिस्ट्री (दिनांक-21-12-2015) में 3 लाख 43 हजार रुपये का स्टाम्प लगा, यानि कुल 52 लाख 59 हजार रुपये लगे. लेकिन इस हॉस्टल को एक करोड़ में खरीदा दिखाया गया. स्पष्ट है कि वित्तीय अनियमितता हुई. हॉस्टल के लिए खरीदे गए भवन के रख-रखाव और फिनिशिंग का काम रज़ा कंसट्रक्शन वर्क (295/113, अशरफ़ाबाद, थाना- बाजारखाला, लखनऊ) को दिया गया था जिसके लिए उसे 12-01-2016 को 1 लाख 70 हजार 240 रुपये का भुगतान किया गया. अगर इस राशि को भी जोड़ दिया जाए तो हॉस्टल पर कुल 54 लाख, 29 हजार 240 रुपये ही खर्च हुए. फिर 45 लाख 70 हजार 760 रुपये कहां गए? यह सवाल सामने है.
विचित्र बात यह है कि मदरसे के कर्ता-धर्ता व अल-ज़हरा एडुकेशनल एंड चैरिटेबिल सोसाइटी के वाइस प्रेसिडेंट सैयद जहीर हुसैन रिजवी ने आईसीआईसीआई बैंक के खाते से 01.12.2015 को 50 लाख 50 हजार 439 रुपये 41 पैसे निकाले. फिर 07.12.2015 को 10 लाख रुपये निकाले. दिनांक 14.12.2015 को फिर से 10 दस लाख रुपये निकाले गए. दिनांक 17.12.2015 को भी 10 लाख रुपये निकाले और फिर दो ही दिन बाद दिनांक 19.12.2015 को फिर पांच लाख रुपये निकाले. यानि संस्था के उपाध्यक्ष के हस्ताक्षर से महज 19 दिन में कुल 85 लाख 50 हजार 439 रुपये 41 पैसे निकाल लिए गए. इतनी बड़ी धनराशि आखिर किस मद में खर्च हुई? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. अल-ज़हरा एडुकेशनल एंड चैरिटेबिल सोसाइटी से हासिल दस्तेवज बताते हैं कि अनाथ बच्चों, विधवाओं, रोगियों वगैरह की सहायता के नाम पर भी बैंक से अंधाधुंध पैसे निकाले जाते हैं. दिनांक 10.04.2014 को 1 लाख 11 हजार 265 रुपये निकाले गए तो अगले ही दिन 11.04.2014 को संस्था के बैंक ऑफ बड़ौदा के आधिकारिक खाते 11 हजार 395 रुपये निकाले गए. फिर उसके भी अगले दिन 12-04-2014 को 51 हजार 548 रुपये निकाले. तीन दिन बाद 15.04.2014 को फिर 1 लाख रुपये निकाले. उसी दिन कुर्बानी के नाम पर 10 हजार रुपये निकाले गए. दूसरे ही दिन 16.04.2014 को अनाथों के नाम पर 32 हजार 489 रुपये निकले. उसी दिन 7 हजार 850 रुपये और निकले. 17.04.2014 को फिर 21 हजार 709 रुपये निकाले गए. यह कुछ बानगियां हैं. इस तरह बैंक खाते से बेतहाशा पैसे निकाले जाने के तमाम आंकड़े सामने आए, जिनकी जांच हो तो यह पता चले कि फंड में मिल रहा धन आता है तो जाता कहां और किस तरह है! किन लोगों की सहायता में धन जाता है, इसका पूरा ब्यौरा गहराई से जांच-पड़ताल का विषय है और यह भीषण भ्रष्टाचार का अंदेशा देता है. मदरसे का सालाना खर्च करोड़ में दिखाया जाता है. इसका ब्यौरा देखेंगे तो आपको आश्चर्य होगा. इसमें ऐसे खर्चे भी शामिल हैं जो कभी होते ही नहीं. इरान के अल मुस्तफा इंटरनेशनल युनिवर्सिटी से सम्बद्ध होने के कारण शिक्षकों-कर्मचारियों के वेतन जैसे कई खर्चे तो वहां से आते हैं. हालांकि उलेमा फाउंडेशन के अध्यक्ष मौलाना सैयद कौकब मुज्तबा कहते हैं कि इरान के उक्त युनिवर्सिटी से सम्बद्ध बताना भी फर्जीवाड़ा है, क्योंकि इस विश्वविद्यालय का कोई शैक्षणिक कार्य-कलाप भारत में है ही नहीं. यह युनिवर्सिटी का नाम ही फर्जी धंधा है.
अल्लामा जमीर नकवी कहते हैं कि लड़कियों के मदरसे का सारा प्रबंधन पुरुषों के हाथ में है. मदरसे का अर्थ-सूत्र कुवैत में बैठे सैयद शम्स नवाब रिजवी और कुवैत के सांसद सालेह आशूर के हाथों में है तो लखनऊ में मैनेजमेंट की बागडोर सोसाइटी के वाइस प्रेसिडेंट सैयद जहीर हुसैन रिजवी और सेक्रेटरी मुज्तबा हुसैन के हाथों में है. लडकियों के मदरसे में सोसाइटी के सेक्रेटरी मुज्तबा हुसैन के बेटे सिब्तैन हुसैन और नूरैन हुसैन की भी जबरदस्त घुसपैठ है. यहां तक कि सेक्रेटरी के बेटे को भी संस्था से पैसे मिलते हैं. आईसीआईसीआई बैंक से मिले दस्तावेज ऐसे कई अजीबोगरीब लेन-देन का खुलासा करते हैं. मसलन, सोसाइटी में चपरासी रहे अम्बर मेहदी को कुछ ही अंतराल में दो लाख रुपये दिए गए. पैसे प्राप्त करने वाले लोगों की फेहरिस्त में कई नाम ऐसे हैं जिन्हें बार-बार संस्था की तरफ से लाखों रुपये दिए जा रहे हैं या वे संस्था की तरफ से बार-बार पैसे निकाल रहे हैं, वह भी लाखों में. अम्बर मेहदी संस्था में चपरासी थे. अम्बर की दो बेटियां बेबी फातिमा और जेबा फातिमा उसी मदरसे में पढ़ती थीं. आज बेबी फातिमा उसी मदरसे की प्रिंसिपल बनी बैठी हैं. लेकिन बेबी फातिमा उर्फ फरहा हदीस खान को प्रिंसिपल बनाए जाने के बाद ही अम्बर मेहदी को सोसाइटी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
शरियत कहता है कि महिलाओं के लिए बने धार्मिक मदरसों को अगर पुरुष संचालित कर रहा हो तो उसे इस्लामिक नियमों का सख्ती से पालन करना होगा. लेकिन इन मदरसों में इसका ठीक उल्टा हो रहा है. मदरसा प्रबंधन देखने वाले लोग फिल्मी हस्तियों के साथ उठते-बैठते हैं. क्लबों में शराब पीते हैं, नाचते हैं और पाश्चात्य कपड़े पहन कर डोलते हैं. शरियत का उल्लंघन इस हद तक है कि सोसाइटी के सेक्रेटरी मदरसे में पढ़ने वाली छात्राओं का हिजाब हटवा कर उन्हें संबोधित करने से कतई परहेज नहीं करते. जबकि छात्राओं को पढ़ाने के लिए मदरसे में महिला शिक्षिकाएं नियुक्त हैं. नकवी इस पर भी सवाल उठाते हैं कि उक्त दोनों मदरसे 10 साल से छोटी उम्र की बच्चियों को धार्मिक शिक्षा देने के लिए बने थे, लेकिन तीन-चार साल से वहां बालिग लड़कियां पढ़ाई जाने लगीं. उर्दू अखबार नकीबके एडिटर मौलाना असीफ जायसी कहते हैं कि उसूलन तो लड़कियों के मदरसे मौलानाओं द्वारा संचालित होने चाहिए और मदरसे का अंदरूनी प्रबंधन मौलानाओं की बेगमों और अन्य महिला सदस्यों द्वारा देखा जाना चाहिए. मौलाना जायसी कहते हैं, ‘लेकिन इनका क्या है, ये तो धंधे और चंदे के लिए मदरसा खोल लेते हैं, इन्हें शरियत से क्या लेना देना!विडंबना यह है कि मदरसे की कई छात्राओं और शिक्षिकाओं के साथ सोसाइटी के प्रेसिडेंट सैयद शम्स नवाब रिजवी समेत कई लोगों के व्हाट्स-एपऔर ई-मेल पर भेजे गए आपत्तिजनक प्रस्ताव और बगैर हिजाब के फोटो भेजने के मेल-संदेश पकड़े जाने के बावजूद उन हरकतों पर पर्दा डाल दिया गया. लड़कियों को पासपोर्ट बनवाने और विदेश बुलवाने के लिए दबाव देने के मेल-संदेश भी पकड़े जा चुके हैं. लड़कियों के मदरसों में हो रही इस तरह की बेजा हरकतों पर उर्दू अखबार नकीबके एडिटर मौलाना असीफ जायसी कहते हैं, ‘सोसाइटी के मालिक शम्स के बारे में ऐसी जानकारियां तो मिलती रही हैं, खुद तो कुवैत में रहते हैं, लेकिन उन्होंने अपने कुछ खास लोगों को यहां रख छोड़ा है. कोई मजहबी व्यक्ति होता तो धार्मिक संस्था के रूप में मदरसे की स्थापना करता. लेकिन वह मजहबी आदमी तो हैं नहीं. वह तो किसी का एजेंट हैं, बहुत चालू किस्म का आदमी है वो, उसका धर्म-वर्म से तो कोई लेना-देना है नहीं. इसने केवल चोला पहन रखा है. मदरसा वगैरह खोलना तो वैसे ही है. इसके पीछे मकसद कुछ और है. उसके खिलाफ बहुत सी खबरें आती हैं. ये आदमी खुद ठीक नहीं है. उस पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए. ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए. शम्स बाहर से बहुत बड़ी रकम लाता है, लेकिन उसके बारे में सरकार को जानकारी देता है या नहीं, यह तो सरकार ही बता सकती है.जायसी यह भी कहते हैं कि इस्लामी विद्वान अल्लामा जमीर नकवी ने मदरसे की आड़ में चल रही करतूतें पकड़ी हैं और उसके खिलाफ अभियान चला रहे हैं. अल्लामा जमीर नकवी ने कहा कि जो लोग पवित्र मदरसों को अपवित्र कर रहे हैं उन पर धर्मगुरुओं को सख्ती से पेश आना चाहिए. नकवी कहते हैं, ‘यहां तो सोसाइटी के प्रेसिडेंट के साथ-साथ सारे पदाधिकारी अपनी हरकतों में मुब्तिला हैं. प्रेसिडेंट की करतूतों के बारे में आपने सुना. वाइस प्रेसिडेंट सैय्यद ज़हीर हुसैन रिज़वी भी वैसे ही हैं. रिज़वी ने भी मदरसे से ही सम्बद्ध रही एक अध्यापिका से शादी कर ली, जबकि वह पहले से शादी-शुदा था. रिजवी की पत्नियों के लिए मदरसे के पैसों से ही घर खरीदे गए हैं. इसके अलावा भी रिज़वी की कई चल-अचल सम्पत्तियों के बारे में पता चला है. इसीलिए मदरसों के गोरखधंधों की जांच सीबीआई से होनी चाहिए. जांच का विषय यह भी है कि संस्था के अध्यक्ष सैयद शम्स नवाब रिजवी जब विदेश में ही रहते हैं तो संस्था के नवीनीकरण समेत तमाम कानूनी औपचारिकताएं कैसे पूरी हो जाती हैं? इसमें जरूर फर्जीवाड़ा किया जा रहा है.
मदरसे में आतंक का साम्राज्य है. संस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार, आपत्तिजनक प्रलोभन-प्रस्ताव या गैर वाजिब गतिविधियों के खिलाफ जिसने भी मुंह खोला, उसे फौरन बाहर निकाल दिया जाता है. बर्खास्त होने वालों में कर्मचारी, अध्यापिकाएं और छात्राएं शामिल हैं. प्रबंधन के शीर्ष अधिकारियों की बेजा हरकतों या भ्रष्टाचार के खिलाफ उंगली उठाने वाली कई अध्यापिकाओं और छात्राओं के प्रबंधन को लिखे गए विरोध पत्र, उनसे जबरन लिखवाए गए इस्तीफे, संस्था में व्याप्त अराजकता, आपत्तिजनक व्यवहार और तानाशाही के खिलाफ दिए गए लड़कियों के तमाम बयान चौथी दुनियाके पास उपलब्ध और सुरक्षित हैं. हम उन अध्यापिकाओं और छात्राओं का नाम नहीं छाप रहे हैं. लेकिन यह हकीकत है कि कुछ अध्यापिकाओं और छात्राओं ने अत्याचार-अनाचार के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया है. संस्था के प्रेसिडेंट व अन्य पदाधिकारियों द्वारा लड़कियों को लिखे गए आपत्तिजनक व्हाट्सएपमैसेज और ई-मेल संदेश वगैरह भी चौथी दुनियाके पास सुरक्षित हैं. इसके भी प्रमाण हैं कि जिसने प्रबंधन के आगे सिर झुका दिए, उसके आगे सारी सुख-सुविधाएं बिछा दी गईं. ऐसे कुछ खास शख्स को मदरसों में अध्यापिकाओं को नियुक्त करने का सर्वाधिकार भी दे दिया जाता है और उसके नाम व फोन नंबर के साथ अखबार में विज्ञापन भी छपने लगता है. इस्लामी बुद्धिजीवी और धार्मिक जमात के लोग इसे दुर्भाग्यपूर्ण और इस्लाम विरोधी आचरण बताते हैं. ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना यासूब अब्बास कहते हैं कि औपचारिक रूप से मामला पेश होने पर बोर्ड इसके खिलाफ एक्शन ले सकता है. बाकायदा कमेटी गठित कर जांच कराई जाएगी और उस अनुरूप कार्रवाई की जाएगी. मौलाना अब्बास कहते हैं कि मदरसे जैसी पाक-पवित्र जगहों पर इस तरह की गतिविधियां चलती हैं तो ऐसे मदरसों को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. बोर्ड में इस मामले को औपचारिक रूप से पेश किए जाने के बारे में पूछने पर अल्लामा जमीर नकवी कहते हैं कि इस मामले को न केवल बोर्ड बल्कि कानून की प्रत्येक दहलीज तक ले जाए जाने की तैयारी है. नकवी कहते हैं, ‘धीरे-धीरे हम लखनऊ और यूपी के सारे मदरसों के सुधार की पहल कर रहे हैं.मानव संसाधन विकास मंत्रालय से जुड़े उलेमा फाउंडेशन के अध्यक्ष मौलाना सैयद कौकब मुज्तबा ने इस बारे में पूछने पर कहा कि सोसाइटी अगर मदरसा बोर्ड से मान्यता लिए बगैर मदरसा चला रही है तो यह गैर कानूनी है. विदेश से आने वाले फंड की निगरानी के लिए बने विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम (एफसीआरए) के तहत अगर क्लीयरेंस नहीं ली गई है तो यह आपराधिक कृत्य के दायरे में आएगा. इस पर सीधे कार्रवाई की जा सकती है. मौलाना मुज्तबा कहते हैं कि लखनऊ में कुछ ही मदरसे मान्यता प्राप्त हैं, बाकी तो सब धंधे हैं और दुकानें चल रही हैं. कई तो केवल कागजी होते हैं. कई मदरसे तो घरों में चल रहे हैं, जहां से कट्टरपंथ की तालीम दी जा रही है. कई ऐसे भी मामले सामने आए हैं जिसमें मदरसा चलाया जा रहा है लेकिन कागजों पर नाम मदरसा हटा कर चैरिटेबल या ट्रस्ट लगा देते हैं रजिस्ट्रेशन में. मौलाना कहते हैं कि लखनऊ में सुल्तानुल मदारिस, नाजमिया, तंजीमुल मुकातिब जैसे कुछ ही मान्यता प्राप्त इदारे हैं, जो बाकायदा नियम-कानून से चल रहे हैं. यहां खास तौर पर उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अनुदानित 359 मदरसों की सूची में मदरसा अल-ज़हरा और मदरसा खदीजतुल कुबरा के नाम नहीं हैं. मौलाना सैयद कौकब मुज्तबा का कहना है कि सुविधाओं और धन (फंड) की लालच में दुकानों की तरह मदरसे खोले जा रहे हैं. मदरसों में धन का लेनदेन इतना अधिक है कि मदरसा बनाकर कोई जल्दी ही अमीर बन जाता है. इस वजह से धार्मिक शिक्षा देने के बजाय मदरसे धन कमाने का धंधा बन गए हैं.

धन का धंधा करने वाले फर्जी मदरसों की बाढ़
पूरे उत्तर प्रदेश में फर्जी मदरसों की बाढ़ है. विभिन्न स्रोतों से मिलने वाले फंड और आर्थिक सहायता के प्रलोभन में मदरसों का धंधा चल रहा है. उत्तर प्रदेश के 22 जिलों में तकरीबन दो सौ ऐसे मदरसे पाए गए जो हकीकत में नहीं, केवल सरकारी फाइलों पर चल रहे थे. मदरसों के नाम पर ये सरकार से करोड़ों रुपये प्राप्त भी कर रहे थे. इन फर्जी मदरसों के पतों पर पढ़ाने-लिखाने का काम नहीं, बल्कि अलग-अलग किस्म की दुकानदारी चल रही थी. कहीं कोई चाय की दुकान चला रहा था तो कोई ब्यूटी पार्लर. किसी के घर का एक कोना मदरसा दिखाया जा रहा था तो कहीं खाली पड़ा प्लॉट. लखनऊ में भी ऐसे एक घर को मदरसा दिखा कर सरकारी धन को लंबे अर्से से चूना लगाया जा रहा था. जबकि असलियत में वहां मदरसा होने की कोई शिनाख्त ही नहीं थी. कागज पर जिस घर में मदरसा दिखाया जा रहा था, वहां छानबीन करने पर कोई हिंदू किरायेदार पाया गया. उसने वहां मदरसा होने की बात पर गहरा आश्चर्य जाहिर किया. कई मस्जिदों को भी मदरसा दिखाया जा रहा है. मेरठ में करीब 50 मदरसे फर्जी पाए गए थे. इनमें से कई तथाकथित मदरसों में परचून की दुकान या कोई दूसरा धंधा चलता हुआ पकड़ा गया. फर्जी मदरसों का धंधा लंबे समय से चल रहा है. धंधा करने वाले लोग सरकारी नुमाइंदों से मिलीभगत करके सरकार से मिलने वाली धनराशि की बंदरबांट कर लेते हैं. ऐसे कई मदरसों की मान्यता भी रद्द की गई. लेकिन तथ्य यही है कि ऐसे फर्जी मदरसों को अल्पसंख्यक कल्याण विभाग और सम्बद्ध सरकारी विभागों के अधिकारियों-कर्मचारियों का संरक्षण मिला हुआ है. ऐसे भी उदाहरण सामने आए हैं कि फर्जीवाड़ा पकड़े जाने पर कुछ दिनों के लिए उन्हें किनारे कर दिया जाता है और कुछ अंतराल के बाद उनका धंधा फिर से चालू हो जाता है.

इस्लामिक चैरिटी फंड पाने में यूपी सबसे अव्वल
विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम (एफसीआरए) के आंकड़े भी बताते हैं कि इस्लामिक चैरिटी से फंड लेने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश उत्तर प्रदेश पहले नम्बर पर है. राज्य के उत्तर पूर्वी हिस्से पर नेपाल बॉर्डर से जुड़े इलाकों पर चलने वाले एनजीओ को इसी तरह का फंड मिल रहा है.
पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर में छोटा सा कस्बाई शहर है इटवा. यहां तकरीबन दो दशक पहले अल फ़ारूकनामक संस्था की स्थापना कतर आधारित सलाफी विचारधारा के उपदेशक और स्थानीय मौलाना शेख साबिर अहमद मदनी ने की थी. कतर के राज परिवार द्वारा चलाए जा रहे ट्रस्ट से इस संस्थान को करोड़ों रुपये मिल रहे हैं. इस धन का इस्तेमाल अनाथालयों और मदरसों के निर्माण में दिखाया जाता है. लेकिन यह मूल सलाफी विचारधारा पर चल रहा है जो सूफी मत के बिल्कुल खिलाफ है. कतर स्थित शेख ईद बिन मोहम्मद अल थानी चैरिटेबल एसोसिएशन अंतर्राष्ट्रीय चैरिटी संगठन के रूप में प्रदर्शित करता है, लेकिन इसके संस्थापक अब्दअल रहमान अल नुयामि को अलकायदा और अन्य इस्लामिक समूहों को फंडिंग के आरोप में अमेरिका द्वारा दिसंबर 2003 में वैश्विक आतंकवादी घोषित किया जा चुका है. उत्तर प्रदेश में मदरसा व अन्य धार्मिक-सामाजिक सेवा में लगी संस्था सफा एजुकेशनल एंड टेक्निकल वेलफेयर सोसाइटी को भी कुछ ही अर्से में कुवैत से करीब पांच करोड़ रुपये मिल चुके हैं. इस फंड को भी शैक्षणिक दिखाया गया लेकिन असलियत यही है कि वह सलाफी विचारधारा फैलाने में ही इस्तेमाल हो रहा है. सफा समूह का मुख्य दानदाता जमियत ऐहायुत तुरस अल इस्लामी है, जो रिवाइवल ऑफ इस्लामिक हेरिटेज सोसायटी नाम के अन्य चैरिटी से जुड़ा है. अल कायदा नेटवर्क से जुड़े होने के कारण इस सोसायटी पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगा रखा है. उत्तर प्रदेश के नेपाल से जुड़े इलाकों में सलाफी विचारधारा फैलाने में लगे मदरसों का जाल बिछ गया है. नेपाल के अंदर भी मदरसों में भारतीय छात्र ही ज्यादा पढ़ रहे हैं. यूपी और नेपाल के इन मदरसों को सउदी अरब के प्रसिद्ध चैरिटी रबीता अल आलम अल इस्लामी या मुस्लिम वर्ल्ड लीग से फंड मिलता है. मुस्लिम वर्ल्ड लीग की गतिविधियां संदेहास्पद हैं. मुस्लिम वर्ल्ड लीग अफगानिस्तान समेत कई देशों में वैश्विक जेहाद के समर्थन में विश्व के विभिन्न हिस्सों से प्राप्त संसाधनों के वितरण को संयोजित करता है. इसी लीग ने 1988 में पाकिस्तान में रबीता ट्रस्ट की स्थापना की थी, जिसे 9/11 की घटना के बाद अमेरिका ने इसके अलकायदा से जुड़े होने के चलते प्रतिबंधित कर दिया था.

उत्तर प्रदेश के मदरसों को सर्वाधिक चंदा संयुक्‍त अरब अमीरात (यूएई) और सऊदी अरब से मिल रहा है. इसके बाद कुवैत, ब्रिटेन और कनाडा का स्थान आता है. मदरसों के जरिए ही आईएसआईएस का धन उत्तर प्रदेश लाए जाने का भी खुलासा हुआ है. यूपी के हरदोई में हाल ही गिरफ्तार हुए आंतकी अब्दुल शमी कासमी उर्फ शमीउल्लाह ने केंद्रीय जांच एजेंसी एनआईए को बताया कि आईएसआईएस बड़े ही शातिर तरीके से अपने धन की घुसपैठ करा रहा है. शमीउल्लाह के मुताबिक मदरसों और चैरिटेबल ट्रस्ट के जरिए आईएसआईएस की रकम यहां आ रही है. शमीउल्लाह 2007 में विधानसभा चुनाव भी लड़ चुका है.