Monday 30 July 2018

मुस्लिम पर्सनल लॉ की तर्ज पर अब दलितों ने तेज की बुद्धिस्ट पर्सनल लॉ की मांग

प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के पहले सियासी रायता बिखेरने की तैयारियां सतह पर दिखने लगी हैं. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड शरिया कोर्ट गठित करने के मसले पर लगातार सुर्खियों में है तो दलित ध्रुवीकरण की कोशिशों के तहत ‘बुद्धिस्ट पर्सनल लॉ’ लाने की मांग अचानक गति पकड़ने लगी है. मुस्लिमों और दलितों को एक शामियाने के नीचे लाने की सियासी कवायद पहले से चल ही रही थी कि ‘बुद्धिस्ट पर्सनल लॉ’ के लिए नए सिरे से संघर्ष के ऐलान ने इस कवायद को और बल दे दिया है. ‘बुद्धिस्ट पर्सनल लॉ’ के मसले पर संसद सत्र के दौरान जुलूस और प्रदर्शन के जरिए दिल्ली को चेतावनी देने के पीछे भाजपा को चेताने और विपक्ष को लुभाने का इरादा निहित है. भाजपा के कई सांसद विधायक इस अभियान में शामिल हैं. राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि यह भाजपा के खिलाफ खुली बगावत और भाजपा आलाकमान को दबाव में लेने की चाल दोनों है. भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की उत्तर प्रदेश में शुरू हुई राजनीतिक गतिविधियां ‘बुद्धिस्ट पर्सनल लॉ’ की धुरी के इर्द-गिर्द घूम रही हैं. इस मांग के जोर पकड़ने में विपक्षी दलों को अपना फायदा और भाजपा का नुकसान दिख रहा है, इसलिए विपक्षी दल इस मुहिम को हवा दे रहे हैं.
दूसरी तरफ, मुस्लिमों और दलितों के एकीकरण की सियासी चाल को दो विपरीत धाराओं में ले जाने का भाजपा का प्रयास जारी है. यह प्रयास दलितों के भारत बंद में मुस्लिमों की सक्रिय और हिंसक भागीदारी के बाद गंभीरता से आगे बढ़ा है. भाजपा सरकार एक तरफ मुस्लिमों के तीन तलाक मसले को संवैधानिक जामा पहनाने के बाद मुस्लिमों में प्रचलित हलाला और बहुविवाह के चलन को खत्म कर मुस्लिम महिलाओं का भावनात्मक समर्थन बटोरने पर लग गई है तो दूसरी तरफ दलितों के लिए प्रमोशन में आरक्षण के साथ-साथ ओबीसी आरक्षण का अलग फार्मूला लाने समेत कई अन्य सुविधाओं का पिटारा खोलने जा रही है, ताकि प्रतिपक्षी दिशा में ध्रुवीकरण की स्थिति कतई न बन पाए. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जमीनी स्तर पर दलित कार्यकर्ताओं, वकीलों, बुद्धिजीवियों और समाजसेवियों की सूची तैयार कर रहा है. इस सूची के आधार पर भाजपा सरकार उन्हें विभिन्न विभागों, निगमों, समितियों, आयोगों और बोर्डों के अध्यक्ष उपाध्यक्ष के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्र के सलाहकारों और सरकारी अधिवक्ता के विभिन्न पदों पर नियुक्त करने की योजना बना रही है. इसे 2019 चुनाव के पहले लागू किया जाएगा. उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बने करीब डेढ़ साल हो चुके, लेकिन यह काम लंबित पड़ा हुआ है. भाजपा इसका ऐन मौके पर राजनीतिक फायदा उठाना चाहती है. सरकारी अधिवक्ता के विभिन्न पदों को छोड़ कर बाकी पद राज्य मंत्री के समतुल्य हैं. इस नियुक्ति के जरिए भाजपा दलितों के साथ-साथ अति पिछड़ों और पिछड़ी जाति के लोगों को भी संतुष्ट करेगी. निवर्तमान सपा सरकार ने तकरीबन सौ नेताओं को अलग-अलग निगमों का अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और विभागों का सलाहकार नियुक्त किया था. मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के अगले ही दिन योगी आदित्यनाथ ने सभी गैर शासकीय सलाहकारों, निगमों, विभागों और समितियों के अध्यक्षों, उपाध्यक्षों और सदस्यों को हटाने का फरमान जारी कर दिया था.
'धम्म चेतना यात्रा' निकालकर या अम्बेडकर जयंती को 'सामाजिक समरसता दिवस' के रूप में मना कर और दलितों के घर भोजन करके भाजपा दलितों को प्रभावित करने की कोशिश अर्से से करती आ रही है, लेकिन मुस्लिम-दलित एकीकरण की सियासत पर इससे कोई अधिक फर्क नहीं पड़ा, बल्कि यह और तीव्र होता गया. एससी-एसटी एक्ट के दुरुपयोग पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ विपक्ष प्रेरित दलित संगठनों के भारत बंद में दलितों से अधिक मुस्लिमों की भागीदारी ने इस सियासत को काफी उग्र कर दिया. इसी सियासी उग्रता में तेल डालने का काम कर रही है ‘बुद्धिस्ट पर्सनल लॉ’ की मांग. 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले भी यह मांग उठा कर दलितों को हरकत में लाने की कोशिश की गई थी, लेकिन उस समय यह अभियान अधिक ध्यान नहीं बटोर सका. 'ऑल इंडिया एक्शन कमेटी फॉर ‘बुद्धिस्ट पर्सनल लॉ’ की तरफ से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंप कर ‘बुद्धिस्ट पर्सनल लॉ’ और 'बुद्धिस्ट कोड ऑफ कंडक्ट' लागू करने की मांग की गई थी. कमेटी की मांग है कि जस्टिस एमएन वेंकटचेलैया समिति की सिफारिशों के मुताबिक संविधान के अनुच्छेद 25 (2) (ब) को संशोधित कर बौद्धों को अलग धर्म के रूप में दर्ज किया जाए.
‘बुद्धिस्ट पर्सनल लॉ’ के हिमायतियों का कहना है कि भारत में बौद्धों पर हिंदू कानून लागू है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 (2) (ब) के तहत बौद्ध धर्म हिंदू धर्म में समाहित है. बौद्ध पर्सनल लॉ लाए बिना बौद्ध धर्म हिंदू धर्म से मुक्त नहीं हो सकता. वर्ष 2002 में संविधान समीक्षा आयोग और 2017 में सुप्रीम कोर्ट अलग बौद्ध कानून बनाने की हिमायत कर चुका है. रेखांकित करने वाली बात यह है कि ‘बुद्धिस्ट पर्सनल लॉ’ पर जोर देने के लिए दिल्ली घेरने के अभियान में खास तौर पर उत्तर प्रदेश के दलितों को साथ देने की अपील की गई. स्पष्ट है कि इस अपील के राजनीतिक निहितार्थ हैं, क्योंकि भाजपा के कई सांसद, विधायक और कार्यकर्ता इस अपील को प्रचारित-प्रसारित करने में बड़ी तन्मयता से लगे थे. इनमें भाजपा सांसद सावित्री बाई फुले का नाम अव्वल है, जिन्होंने 15 जुलाई को लखनऊ के सार्वजनिक मंच से कहा कि देश में अराजकता की स्थिति बनी हुई है और संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. उन्होंने स्पष्ट कहा, 'मैं किसी कार्रवाई से नहीं डरती. अगर अधिकार पाने के लिए मुझे कुर्बानी भी देनी पड़ी तो पीछे नहीं हटूंगी. लेकिन चुप नहीं रहूगी. बाबा साहेब के उद्देश्य को पूरा करने के लिए संघर्ष करती रहूंगी'. सावित्री बाई ने कहा कि भाजपा लखनऊ और इलाहाबाद का नाम बदल कर बहुजन समाज का इतिहास मिटाने की साजिश कर रही है. अभी हाल ही अप्रैल महीने में भी भाजपा सांसद सावित्री बाई फुले ने नमो बुद्धाय जन सेवा समिति के मंच से भाजपा नेतृत्व को ललकारा था और कहा था कि भाजपा संविधान को कमजोर कर रही है. दलित या आदिवासी मसलों पर दलित सांसदों को संसद में बोलने नहीं दिया जाता. उन्होंने यह भी कहा था कि उन्हें सांसद बने रहने या आगामी चुनाव में टिकट नहीं मिलने की कोई चिंता नहीं है. भाजपा सांसद के इस संवाद को भाजपा नेतृत्व को दबाव में लेने की पेशबंदी के तौर पर भी देखा जा सकता है.
बहरहाल, भाजपा नेतृत्व को ऐसी चुनौतियां और पेशबंदियां कई दलित नेताओं की तरफ से मिल रही हैं. योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री ओमप्रकाश राजभर का विद्रोही-तमाशा कुछ दिनों पहले लोग देख ही चुके हैं. राजभर को मनाने के लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को लखनऊ आना पड़ा था. इसके बाद भाजपा सांसद अशोक दोहरे, छोटे लाल खरवार, चौधरी बाबूलाल और डॉ. यशवंत सिंह भी इसी तमाशा-पंक्ति में शामिल हो गए. दोहरे ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यूपी में दलितों के उत्पीड़न की शिकायत की तो यशवंत ने मोदी सरकार पर ही निशाना साध लिया और कहा कि केंद्र ने चार वर्षों में दलितों के हित का एक भी काम नहीं किया है. चौधरी ने राम शंकर कठेरिया के साथ-साथ भाजपा नेतृत्व को भी आड़े हाथों ले लिया और कहा कि इन लोगों ने हरिजन एक्ट को धंधा बना रखा है. भाजपा नेतृत्व दलित सांसदों के बगावती तेवर को काउंटर-बैलेंस करने के लिए केंद्रीय मंत्री कृष्णा राज, अनुसूचित जाति जन जाति आयोग के अध्यक्ष राम शंकर कठेरिया, सांसद कौशल किशोर समेत कई नेताओं के जरिए दलित हित के किए गए काम के ब्यौरे के साथ भाजपा के दलित-मित्र होने का संदेश प्रसारित कर रहा है. भाजपा के ये दलित सांसद दलितों को यह बता रहे हैं कि एससी-एसटी के लिए आरक्षित 131 लोकसभा सीटों में से 66 दलित सांसद भाजपा के हैं और उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी 87 प्रतिशत दलित विधायक भाजपा के ही हैं. देश के राष्ट्रपति पद के लिए भी भाजपा ने दलित नेता रामनाथ कोविंद को ही चुना. दलितों के लिए किए गए काम का ब्यौरा दलितों के सामने रखा जा रहा है.
भाजपा नेतृत्व ने यह तय कर लिया है कि बगावती तेवर और दबाव की नीति अख्तियार करने वाले सांसदों को 2019 के चुनाव में टिकट नहीं दिया जाएगा. टिकट कटता देख कर भाजपा के कई सांसद सपा और बसपा की परिक्रमा करने लगे हैं. 2014 को लोकसभा चुनाव में जो लोग मोदी लहर में बह कर सांसद बन गए और अपना कोई राजनीतिक और जन-प्रतिनिधिक योगदान नहीं दे पाए, उन्हें भाजपा इस बार मौका नहीं देने जा रही है. भारतीय जनता पार्टी ने करीब दो दर्जन ऐसे लोगों को सांसद बनाया जो सपा, बसपा और कांग्रेस छोड़कर आए थे. संघ ने पार्टी को ऐसे कई सांसदों की लिस्ट सौंपी है जो चुनाव जीतने के बाद कभी अपने संसदीय क्षेत्र में गए ही नहीं. ये चेहरे अब सपा और बसपा के गलियारे में अपना नाम चलवा रहे हैं. भाजपा के टिकट से वंचित होने वाले चेहरों में रॉबर्ट्सगंज के भाजपा सांसद छोटे लाल खरवार, लालगंज से सांसद नीलम सोनकर, बहराइच की सांसद सावित्री बाई फुले, इटावा के सांसद अशोक कुमार दोहरे, नगीना के सांसद डॉ. यशवंत सिंह, फतेहपुर सीकरी के सांसद चौधरी बाबूलाल, इलाहाबाद के सांसद श्यामाचरण गुप्ता, देवरिया के सांसद कलराज मिश्र, कानपुर के सांसद डॉ. मुरली मनोहर जोशी, झांसी की सांसद साध्वी उमा भारती समेत कई नेता शामिल हैं. साध्वी तो खुद ही चुनाव लड़ने के प्रति अपनी अनिच्छा जता चुकी हैं और डॉ. जोशी और कलराज उम्र के भाजपाई मानक पर दरकिनार कर दिए जाएंगे. साध्वी, जोशी और मिश्र को छोड़ कर अन्य सभी नेता भाजपा नेतृत्व के खिलाफ आग उगलते रहे हैं. इस बार पत्ता कटने वाले कुछ प्रमुख चेहरों में वरुण गांधी का नाम भी लिया जा रहा है, लेकिन बहुत दबी जुबान से. वरिष्ठों को छोड़ कर बाकी सारे नेता टिकट पाने के लिए सपा और बसपा नेतृत्व के साथ सम्पर्क में हैं.

बसपा को भाजपा भी लपकने को तैयार!
भाजपा के शीर्ष सांगठनिक गलियारे में बसपा के साथ भी अंदरूनी मेल-मिलाप की चर्चा चल रही है. कुछ वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को खतरे का ठोस एहसास हुआ तो उत्तर प्रदेश की गद्दी मायावती को देने, केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालय देने और संतोषजनक सीटें देकर साथ चुनाव लड़ने का करार बसपा के साथ हो सकता है. भाजपा के अंदर की यह चर्चा फिलहाल तो कयास से अधिक कुछ नहीं, लेकिन सपा, बसपा, कांग्रेस, रालोद और साथ में आने वाले अन्य दलों के बीच सीटों के बंटवारे और नेतृत्व को लेकर जो खींचतान होने वाली है, उसका दृश्य अभी से दिख रहा है. भाजपा दावा करती है कि उसके साथ चुनाव लड़ने वाले दलों को जीतने की गारंटी है. अगर बसपा भाजपा के साथ आई तो यूपी में वह भाजपा की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी होगी. भावी महागठबंधन में नेतृत्व को लेकर जो कलहपूर्ण संकट खड़ा होने वाला है, उसे मायावती अच्छी तरह समझती हैं. क्योंकि बसपा के मंडलीय सम्मेलन में मायावती को प्रधानमंत्री बनाने के लिए किया गया आह्वान सपा कांग्रेस खेमे को हजम नहीं हुआ है. बसपा के हाल में हुए मंडलीय सम्मेलन में बसपा नेताओं ने मायावती को विपक्ष एवं तमाम क्षेत्रीय दलों का सर्वमान्य नेता घोषित किया और उन्हें अगला प्रधानमंत्री बनाने के प्रति संकल्प दोहराया. बसपा के राष्ट्रीय महासचिव और को-ऑर्डिनेटर वीर सिंह ने कहा कि देश की सभी क्षेत्रीय पार्टियों ने बहन जी को नेता मान लिया है, उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता.
बसपाई महत्वाकांक्षा का उभार देखते हुए समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी फौरन उत्तर प्रदेश में दलित चेतना यात्रा की शुरुआत कर दी और यात्रा के लखनऊ पहुंचने पर उसके स्वागत में राजनीतिक वक्तव्य जारी किए, लेकिन मायावती का नाम नहीं लिया. अखिलेश ने बस इतना ही कहा कि सपा-बसपा तालमेल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘बॉडी लैंग्वेज’ गड़बड़ा गया है. इसके बाद अखिलेश यादव ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को ही फोकस में रखा और कहा कि कांग्रेस को मुस्लिमों की पार्टी बताने वाली भाजपा यह नहीं समझती कि कोई भी राजनीतिक दल देशवासियों का होता है, किसी धर्म विशेष का नहीं. अखिलेश बोले कि प्रधानमंत्री तारीख बता दें, समाजवादी पार्टी चुनाव के लिए तैयार है. समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी किसी भी तरह सपा-बसपा गठबंधन को तोड़ना चाहती है. भाजपा चाहती है कि बसपा का तालमेल कांग्रेस से हो जाए, लेकिन सपा के साथ तालमेल न रहे. लेकिन जिस तरह की स्थितियां बन रही हैं, उससे बसपा और कांग्रेस के बीच तालमेल की संभावनाएं कम लग रही हैं. कांग्रेस के नेता ही बसपा के साथ तालमेल के पक्ष में नहीं दिख रहे हैं. राजस्थान में विधानसभा चुनाव के पहले कांग्रेस और बसपा के साथ तालमेल की कोशिशों का करीब-करीब पटाक्षेप ही हो गया है. राजस्थान प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट ने साफ-साफ कह दिया है कि कांग्रेस राजस्थान में भाजपा को अकेले दम पर हरा सकती है, उसे बसपा से तालमेल करने की जरूरत नहीं है. पायलट ने कहा है कि आने वाले चुनाव में भाजपा से मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को किसी दूसरी पार्टी का हाथ पकड़ने की जरूरत नहीं है. हालांकि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव में कांग्रेस मायावती के साथ तालमेल की मंशा जता चुकी है.

सपा-बसपा गठबंधन ‘फ्रस्ट्रेटेड’ लोगों की जमात: कानून मंत्री
उत्तर प्रदेश के कानून मंत्री ब्रजेश पाठक सपा-बसपा गठजोड़ को ‘फ्रस्ट्रेटेड’ लोगों की जमात कहते हैं. पाठक कहते हैं कि इस गठबंधन से 2019 के चुनाव पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. उप चुनाव में हार के लिए सपा-बसपा गठबंधन को जिम्मेदार मानने के बजाय कानून मंत्री कहते हैं कि उपचुनाव में उनकी जीत या भाजपा की हार की वजहें स्थानीय हैं, इससे उन्हें किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए. उप चुनाव की हार-जीत स्थानीय समीकरणों पर तय होती है. जबकि आम चुनाव व्यापक मसलों और लक्ष्यों पर तय होता है. उप चुनाव से राष्ट्र की केंद्रीय सत्ता तय नहीं होती. जब प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का नाम आता है तो किसी को दूसरा कोई बेहतर विकल्प नहीं दिखता. सपा बसपा गठबंधन के प्रसंग पर कानून मंत्री कहते हैं, ‘देखिए, कुछ फ्रस्ट्रेटेड लोग इकट्ठा हुए हैं, जिन्हें अपनी ही जमीन का कोई अता-पता नहीं है. ये अपनी जमीन खो चुके हैं. अगर खुदा न खास्ता गठबंधन टूट गया तो इनका कोई ओर-छोर पता नहीं चलेगा. चुनावी वैतरणी पार करना इनके लिए मुश्किल हो जाएगा. ये सब एक दूसरे का हाथ पकड़ कर किसी तरह चुनाव वैतरणी पार करना चाहते हैं. सपा-बसपा गठबंधन मतभेद और मनभेद की जमीन पर खड़ा है. वैचारिक धरातल पर इनमें कोई समानता नहीं है. दोनों पार्टियों में वैमनस्यता बूथ के स्तर तक व्याप्त है. सब जानते हैं कि सपा के लोग दलितों को बूथ के स्तर तक किस तरह पीटते और उत्पीड़ित करते हैं. ये किसी भी तरह मन से इकट्ठा नहीं हो पाएंगे.’
भाजपा के अंदर दलितवाद के नाम पर या सत्ता के उपेक्षात्मक रवैये को लेकर जो विरोध और विद्रोह के स्वर मुखर हो रहे हैं, उसे लेकर उत्तर प्रदेश के कानून मंत्री ब्रजेश पाठक कहते हैं कि ये वे लोग हैं जो अपने टिकट के लिए परेशान हैं. वे जान चुके हैं कि चुनाव में वे हारेंगे और भाजपा नेतृत्व उन्हें हारने के लिए टिकट नहीं देने जा रही है. इसी हताशा में वे विरोध या विद्रोह के स्वर मुखर करते हैं और पार्टी नेतृत्व, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के खिलाफ अनाप-शनाप बयानबाजियां करते हैं. ब्रजेश पाठक यह दावा करते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी पुनः भारी बहुमत से जीतेगी और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनाएगी. भाजपा की इस जीत में उत्तर प्रदेश राज्य अपनी वही भूमिका निभाएगा जिस तरह 2014 में निभा चुका है. पाठक कहते हैं कि योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्रित्व में प्रदेश सर्वांगीण विकास कर रहा है, कानून व्यवस्था पूरी तरह पटरी पर है, सपा काल की अराजकता और गुंडा राज समाप्त हो चुका है. अपने विभाग के कार्यकलाप के बारे में पूछने पर ब्रजेश पाठक कहते हैं, ‘जहां तक कानून विभाग का प्रश्न है, हमारी सबसे बड़ी चिंता थी कि जहां 42 लाख से अधिक मुकदमे अदालतों में लंबित हों, उसके निपटारे के लिए क्या किया जाए. हमने पर्याप्त संख्या में न्यायिक अधिकारियों की नियुक्तियां कीं और वह प्रक्रिया अब भी जारी है. मुख्यमंत्री ने सभी जिलों में स्थायी लोक अदालतों का गठन कर इस दिशा में सबसे बड़ा काम किया. उत्तर प्रदेश देश का पहला ऐसा राज्य बना जहां सभी जिलों में स्थायी लोक अदालतें गठित हो गई हैं. पहले लोक अदालतें मेले की तरह छठे-छमासे लगती थीं, अब वे स्थायी तौर पर लग रही हैं और उनमें सीजेएम स्तर के अधिकारी की नियुक्ति सचिव के बतौर कर दी गई है. इसके अलावा प्रदेश में न्यायिक अधिकारियों के जो पद खाली थे उन पर नियुक्ति के साथ-साथ सौ पद अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश स्तर के, सौ पद सिविल जज सीनियर डिवीजन के और 330 पद सिविल जज जूनियर डिवीजन के सृजित किए गए हैं, जिन पर नियुक्ति का विज्ञापन कुछ ही दिनों में लोक सेवा आयोग प्रकाशित करने वाला है. बड़ी संख्या में लंबित पड़े पारिवारिक विवादों के त्वरित निपटारे के लिए हमने 110 पारिवारिक अदालतों की स्थापना का फैसला लिया है. महिला उत्पीड़न के मामलों को निपटाने के लिए सौ फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किया गया है. दलित उत्पीड़न के मामले निपटाने के लिए अलग से 25 फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की गई है. सब जानते हैं कि देसी-विदेशी उद्योगपतियों को निवेश के लिए यूपी में आमंत्रित किया जा रहा है. उन्हें कानूनी सुविधाएं मिलें इसके लिए पहली बार उत्तर प्रदेश में 13 नए कॉमर्शियल कोर्ट खोलने का निर्णय लिया गया है. प्रदेश के औद्योगिक और व्यवसायिक गतिविधियों वाले जिलों में कॉमर्शियल कोर्ट्स की स्थापना की जा रही है. लखनऊ में भी यह अदालत काम करेगी. पहले सिविल अदालतों में ही कॉमर्शियल विवादों की सुनवाई होती थी और उसमें अप्रत्याशित विलंब होने के कारण निवेश करने वाले उद्योगपति परेशान होते थे. न्यायिक अधिकारियों को कॉमर्शियल विवाद निपटाने की समुचित ट्रेनिंग भी नहीं थी. लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. अब बाकायदा प्रशिक्षित न्यायिक अधिकारियों को कॉमर्शियल कोर्ट्स में तैनात किया जा रहा है. डिस्ट्रिक्ट जज के सुपरटाइम स्केल स्तर वाले जजों को बाकायदा ट्रेनिंग दे कर कॉमर्शियल कोर्ट्स का जज बनाया जा रहा है.’ कानून मंत्री ब्रजेश पाठक कहते हैं कि इसी तरह अन्य मंत्रालयों में भी बिना किसी शोर-शराबे के काम हो रहे हैं, जमीनी स्तर पर जनता को इसका लाभ मिल रहा है. दूसरे दलों ने भी यूपी में कभी न कभी सत्ता संभाली है, उन्होंने क्या किया और योगी सरकार ने इन डेढ़ वर्षों में क्या किया, उसे जनता देख-समझ रही है और लाभ उठा रही है. इसलिए हमें जनता का समर्थन मिल रहा है. चलते चलते पाठक बोले, ‘काम हम कर रहे हैं तो वोट क्या दूसरे को मिलेगा?’

आरक्षण का असंतुलन दूर कर जातीय समीकरण गड्डमड्ड करने की फिराक में है भाजपा
चुनाव का माहौल गरमाने के पहले भाजपा जातीय संतुलन के हिसाब से आरक्षण का नया फार्मूला लागू करने पर भी काम कर रही है. इसके गुणाभाग की कवायद चल रही है. भाजपा की रणनीतियों को जानने वाले खास लोगों में शामिल एक नेता ने कहा कि यह फार्मूला जातीय राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के नेताओं को मुश्किल में डालने वाला है. इसका असर गठबंधन के समीकरणों पर पड़ेगा. पिछड़े और अति पिछड़ा वर्ग में सेंध लगाने के लिए आरक्षण में बदलाव की तैयारी चल रही है. उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय समिति पहले से गठित है. राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में 28 जून 2001 को इसका गठन हुआ था. अब योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग सामाजिक न्याय समिति का गठन भी कर दिया है. सामाजिक न्याय समिति ने पिछड़ी और अनुसूचित जातियों को दिए जाने वाले आरक्षण को सबसे निचले पायदान पर खड़े ओबीसी/अनुसूचित वर्ग के लोगों तक पहुंचाने के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण की सिफारिश की थी. समिति ने अन्य पिछड़ा वर्ग की सभी 79 जातियों के लोक सेवा-योजन में प्रतिनिधित्व का विश्लेषण कर पाया था कि उत्तर प्रदेश में पिछड़ा वर्ग का विभाजन न होने के कारण 2.3 प्रतिशत जातियां ही 27 प्रतिशत आरक्षण का लाभ उठा रही हैं. इससे अन्य अति पिछड़ी जातियां आरक्षण के लाभ से वंचित हो रही हैं. ‘आनुपातिक प्रतिनिधित्व सूचकांक’ के मानक पर 79 जातियों के सेवा-योजन की स्थिति का अध्ययन करने के बाद समिति ने पाया था कि अन्य पिछड़ा वर्ग में भी कुछ जातियां जनसंख्या के अनुपात से कहीं अधिक आरक्षण का लाभ लाभ उठा रही हैं. दूसरी ओर अधिकांश जातियां अपने जनसंख्या-अनुपात से कम लाभ उठा पा रही हैं. इस सामाजिक असंतुलन को देखते हुए सामाजिक न्याय समिति ने ओबीसी की तीन श्रेणी; पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग और अत्यंत पिछड़ा वर्ग बनाने की सिफारिश की थी. तब राजनाथ सिंह इस सिफारिश को लागू नहीं करा पाए थे. अब योगी आदित्यनाथ इसे अमल में लाने जा रहे हैं. हालांकि इसी फार्मूले को बिहार में लागू कर वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अति पिछड़ों और अत्यंत पिछड़े वर्ग के लोगों के चहेते बन गए.
स्पष्ट है कि इस फार्मूले के लागू होने से खास तौर पर समाजवादी पार्टी को अधिक परेशानी होने वाली है. आप समझ ही रहे होंगे कि यूपी में ओबीसी सूची में शामिल 79 जातियों में से किन एक-दो खास जातियों को आरक्षण का पूरा लाभ मिलता रहा है. राजनाथ सिंह का ओबीसी फॉर्मूला लागू होने से आरक्षण का फायदा कुशवाहा, मौर्य, शाक्य, माली, सैनी, काछी, कोयरी, लोध, राजभर, बिंद, निषाद, मल्लाह, केवट, मांझी, कहार, धीवर, रायकवार, कश्यप, भुर्जी-कान्दू, चौहान, प्रजापति, बढ़ई, नाई, लोहार, गड़ेरिया जैसी जातियों को भी मिलने लगेगा. आरक्षण का लाभ लेने का आंकड़ा यह है कि नौ प्रतिशत आबादी वाले यादवों की सरकारी नौकरियों में 132 प्रतिशत हिस्सेदारी है और पांच प्रतिशत आबादी वाली कुर्मी जाति की सरकारी नौकरियों में 242 प्रतिशत हिस्सेदारी है. जबकि दूसरी तरफ 14 प्रतिशत आबादी वाली 63 जातियों की हिस्सेदारी सिर्फ 77 प्रतिशत है. सरकार ने अगर इन पिछड़ी जातियों में समान हिस्सेदारी की व्यवस्था कर दी तो यादवों का हिस्सा नौकरी में कम हो जाएगा और छोटी-छोटी अति पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी बढ़ जाएगी.
अवकाश प्राप्त जज राघवेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में गठित अन्य पिछड़ा वर्ग सामाजिक न्याय समिति जाट जाति सहित अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल विभिन्न जातियों और वर्गों के पिछड़ेपन की मौजूदा स्थिति का पता लगा कर अपनी सिफारिश सरकार के समक्ष पेश करेगी, जिसके आधार पर पिछड़ों को आरक्षण का लाभ देने की नई व्यवस्था लागू होगी. समिति मौजूदा समय में पिछड़ा वर्ग के तहत आने वाले विभिन्न वर्गों और जातियों की मौजूदा सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का अध्ययन करेगी और प्रदेश में लागू आरक्षण व्यवस्था के तहत शैक्षणिक क्षेत्र में पिछड़े वर्ग के विभिन्न वर्गों और जातियों की भागीदारी का पता लगाएगी. समिति यूपी की आरक्षण व्यवस्था के तहत सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्ग की विभिन्न जातियों की भागीदारी का आकलन करेगी और आरक्षण के लाभ में ओबीसी की सभी जातियों की समान भागीदारी पर केंद्रित रिपोर्ट सरकार को देगी.
अब इसका राजनीतिक समीकरण भी समझते चलते हैं. भाजपा का यह फार्मूला सारे जातीय समीकरणों को इधर-उधर कर देगा. स्वाभाविक है कि जातीय आधार पर गठबंधन और महागठबंधन का राजनीतिक फायदा उठाने की मंशा भी गड्डमड्ड हो जाएगी. उत्तर प्रदेश में देश की सबसे अधिक 80 लोकसभा सीटें हैं. यूपी में अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों की आबादी करीब 45 प्रतिशत है. इनमें गैर यादव ओबीसी जातियां 36 प्रतिशत से अधिक हैं. आरक्षण का नया ‘अन्य पिछड़ा वर्ग सामाजिक न्याय’ वाला फार्मूला लागू हुआ तो 36 प्रतिशत ओबीसी आबादी भाजपा के प्रभाव क्षेत्र में चली जाएगी. भाजपा इसी जुगाड़ में है. 

Saturday 28 July 2018

‘सिडबी’ का खंडन, ‘चौथी दुनिया’ का मंडन मुस्तफा जी! ‘सिडबी’ को सुधारिए...

प्रभात रंजन दीन
‘चौथी दुनिया’ के 04-10 जून 2018 के संस्करण में दो पृष्ठों पर उपरोक्त शीर्षक से खबर प्रकाशित हुई थी. खबर छपने के बाद बौखलाये सिडबी प्रबंधन ने चलन के मुताबिक कई आरोप लगाते हुए खंडन जारी किया. पत्रकारीय-मर्यादा और मापदंडों के मुताबिक ‘चौथी दुनिया’ के प्रधान संपादक श्री संतोष भारतीय ने ‘सिडबी’ के खंडन के साथ-साथ रिपोर्टर का पक्ष खंडन के मंडन के रूप में छापने की सहमति दी और उनका आदेश प्राप्त होने के बाद उसे 09-15 जुलाई 2018 के अंक में प्रकाशित किया गया... आप सब पढ़ें ‘सिडबी’ के खंडन पर ‘चौथी दुनिया’ का मंडन... खंडन-मंडन की प्रक्रिया ने ‘सिडबी’ की करतूतों के सूक्ष्म पोस्टमॉर्टम का काम किया है... प्रस्तुत है पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट...

सिडबी का खंडनः ‘चौथी दुनिया’ के 04-10 जून 2018 के संस्करण में सिडबी पर प्रकाशित समाचार आधारहीन और नितांत दुर्भावनापूर्ण है. मामले की तह तक गए बिना, तथ्यों को ताक पर रखकर न्यूज छापा गया है. समाचार से ऐसा प्रतीत होता है कि सिडबी में घटित होने वाली प्रत्येक घटना अध्यक्ष द्वारा निर्णीत होती है. जबकि मौजूदा व्यवस्था के तहत, सभी कार्यपालक शक्तियां उप प्रबंध निदेशकों के स्तर पर समाप्त हो जाती हैं. बोर्ड या समितियों के अध्यक्ष के रूप में नियत कार्य के अलावा, अध्यक्ष में किसी भी प्रकार की कार्यपालक शक्तियां निहित नहीं हैं.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः ‘चौथी दुनिया’ में प्रकाशित खबर तथ्यों पर आधारित है. खबर के प्रकाशन के पीछे दुर्भावना या पूर्वाग्रह जैसे शब्द का इस्तेमाल आपत्तिजनक है. सिडबी प्रबंधन ईमानदार होता तो लखनऊ दफ्तर में अखबार भेजे जाने पर 28 गार्डों को बर्खास्त नहीं किया जाता और न ही अनगिनत अधिकारियों के खिलाफ नोटिस जारी की जाती. सिडबी संगठन क्या लोकतांत्रिक मूल्यों से अलग है कि वहां अखबार नहीं भेजा जा सकता? ‘चौथी दुनिया’ के सर्कुलेशन स्टाफ ने बाकायदा लॉग इंट्री करने के बाद रिसेप्शन काउंटर पर अखबार रखा था. खबर से बौखलाए सिडबी प्रबंधन को इतनी भी समझ नहीं रही कि इसमें सुरक्षा गार्डों का कोई अपराध नहीं है.
खंडन के जरिए सिडबी एक और आश्चर्यजनक सूचना दे रहा है कि सिडबी के अध्यक्ष के पास कोई एक्जेक्यूटिव पावर नहीं है. यह एक नई खबर है. सिडबी की स्वीकारोक्ति है कि सिडबी के अध्यक्ष के पास कार्यपालक शक्तियां नहीं हैं. कार्यपालक मदों और मुद्दों पर उनसे कोई चर्चा भी नहीं की जाती और ‘सभी कार्यपालक शक्तियां उप प्रबंध निदेशकों के स्तर पर समाप्त हो जाती हैं’. यह चालाकी भरी स्वीकारोक्ति हैरत करने वाली है. अगर सिडबी के अध्यक्ष का कोई काम ही नहीं है तो फिर इस पद का औचित्य क्या है और उस पर बैठे अधिकारी पर सरकार का इतना धन क्यों बर्बाद होता है! असलियत यह है कि दैनंदिन के फैसले चेयरमैन ही लेते हैं और नीतिगत फैसलों में भी चेयरमैन ही प्रभावी रहते हैं.

सिडबी का खंडनः 1- आपने उल्लेख किया है कि सिडबी दिवालिया हो रहा है. यह तथ्यों से परे है. वर्तमान अध्यक्ष के कार्यभार संभालने के साथ ही संस्थान में कई रूपांतरकारी परिवर्तन हुए हैं. यह संस्था के वित्तीय आंकड़ों में परिलक्षित है. सिडबी में किए गए संरचनात्मक पुनर्विन्यास के सकारात्मक परिणाम 2017-18 के दौरान सिडबी की वित्तीय स्थिति में दिखाई दे रहे हैं.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 1- सिडबी प्रबंधन ने खंडन तो जारी कर दिया, पर शीर्ष अधिकारियों ने खबर ठीक से पढ़ी नहीं. प्रकाशित रिपोर्ट में सिडबी के ‘दिवालिया’ होने के बारे में कहीं नहीं लिखा गया. खबर में ‘दिवालिया’ शब्द का इस्तेमाल अन्य प्रसंग में किया गया है. खबर में यह लिखा है कि सिडबी के अध्यक्ष संस्था को रसातल में पहुंचाने में लगे हैं. हमने सिडबी के वित्तीय आंकड़ों की बहुत सावधानीपूर्वक छानबीन और समीक्षा की है. सिडबी का लाभ, जो पहले से ही 1120 करोड़ था, उसे 1429 करोड़ के स्तर पर पहुंचाना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है. मोहम्मद मुस्तफा के सिडबी के सीएमडी का कार्यभार संभालने के बाद यदि कोई रूपांतरकारी बदलाव आया हो तो उसका ब्यौरा हमें भेजें, हम उसे छापेंगे. इस ब्यौरे के साथ यह भी भेजें कि मोहम्मद मुस्तफा ने स्टाफ मदों में क्या-क्या कटौतियां कीं और मानव संसाधन ढांचे में क्या उलटफेर किए, जिससे समस्त सिडबी स्टाफ सकते में हैं.

सिडबी का खंडनः 2- पिछले वर्ष की तुलना में बैंक की कुल आस्तियों में 37 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई. इस प्रकार वर्ष 2017-18 में तुलनपत्र का आकार एक लाख करोड़ का पड़ाव पार कर गया. इससे यह सुनिश्चित हुआ कि सिडबी ने अपनी संपूर्ण अवधि में उच्चतम आय और लाभ (1429 करोड़) हासिल किया. आस्ति और आय संबंधी यह वृद्धि वित्तवर्ष 2018 की तीसरी तिमाही तक नहीं थी. प्रथम दो तिमाहियों में अग्रिम की संवृद्धि नकारात्मक रही, जबकि पिछली दो तिमाहियों के दौरान यह संवृद्धि क्रमशः 20 प्रतिशत और 16 प्रतिशत के साथ बढ़ी. वर्ष 2018 में सिडबी के कार्यनिष्पादन की महत्ता इससे पता चलती है कि पूर्ववर्ती चार साल में आय और लाभ में गिरावट थी.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 2- बैलेंस शीट में कुछ मदों में सकारात्मक प्रविष्टी का दर्ज होना यह स्पष्ट नहीं करता कि कारोबार आयोजना, नवोन्मेषण, नए एवं आवश्यकता आधारित उत्पाद निर्माण, उत्पादों की मार्केटिंग, पहुंच एवं विस्तार और वित्त आपूर्ति जैसे सभी मदों में सिडबी वृद्धि कर रहा है. आर्थिक मद के साथ सेवा मद उतना ही जरूरी है, क्योंकि सिडबी सेवा क्षेत्र की वित्तीय संस्था है. उसे अपनी सेवा-गुणवत्ता बढ़ानी चाहिए, सिडबी ने अपने खंडन में इस आयाम से बचने की कोशिश की है. सिडबी को भारतीय रिजर्व बैंक, विश्व बैंक, भारत सरकार, जर्मनी के केएफडब्लू बैंक, इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चर डेवलपमेंट (आईएफएडी), ब्रिटेन के डिपार्टमेंट ऑफ इंटरनेशनल डेवलपमेंट (डीएफआईडी) समेत कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से आर्थिक और योजनागत मदद मिलती है. लिहाजा, राष्ट्रीय स्तर के फैलाव के साथ 28 वर्षों बाद भी सिडबी के बैलेंस शीट का एक लाख करोड़ पार करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. सिडबी यह भी कहता है कि आस्ति और आय की वृद्धि वर्ष 2018 की तीसरी तिमाही तक नहीं थी. प्रथम दो तिमाही में अग्रिम में वृद्धि नकारात्मक थी. पूर्ववर्ती चार साल में आय और लाभ में गिरावट थी.
बैलेंस शीट बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना और एनपीए को कम करके दिखाना बच्चों का खेल हो गया है. सिडबी का कारोबार, आस्ति आकार और बैलेंस शीट वृद्धि का मुख्य स्रोत अप्रत्यक्ष वित्त (पुनर्वित्त), बैंकों, राज्य वित्तीय निगमों, नॉन बैंकिंग फिनांस कपनीज़ को दिया जाने वाला शार्ट-टर्म लोन है. सिडबी का 85 फीसदी से अधिक कारोबार अप्रत्यक्ष वित्त से होता है. इसमें सिडबी अपना कौन सा ‘इनिशिएटिव’ लेकर मैदान मार रहा है! विभिन्न बैंक, राज्य वित्तीय निगम और एनबीएफसी जैसी संस्थाएं खुद मेहनत करके देशभर के कारोबारियों को ऋण देती हैं. सिडबी उन संस्थाओं को वही राशि पुनर्वित्त में बदल कर दे देता है. इसमें अपनी पीठ ठोकने जैसी क्या बात हो गई! 85 हजार या 90 हजार करोड़ रुपए का बैलेंस शीट दिखाकर सिडबी का अकड़ना हास्यास्पद है. सिडबी प्रबंधन को यह याद दिलाते चलें कि अप्रत्यक्ष ऋण ‘पुल-प्रोडक्ट’ है, यानि बैंकों को जब नकद की जरूरत होती है तो वे खुद सिडबी के पास आते हैं. इसमें सिडबी की मेहनत नहीं होती.
चिंता का विषय यह है कि सिडबी ने अपनी मेहनत से कोई भी ‘पुश-प्रोडक्ट’ नहीं बनाया, न डिजाइन किया और न सूक्ष्म-लघु-मध्यम क्षेत्र की आवश्यकता के अनुसार उत्पाद बनाकर क्लस्टर या क्षेत्रवार माइक्रो स्मॉल मीडियम इंटरप्राइजेज़ (एमएसएमई) तंत्र (इकोसिस्टम) में वर्षों से चले आ रहे अंतर को पाटने में कोई भूमिका अदा की.

सिडबी का खंडनः 3- पोर्टफोलियो में विस्तार के साथ ही गुणवत्ता में सुधार पर भी ध्यान दिया गया. 2017 में सिडबी का कुल एनपीए अनुपात 1.2 प्रतिशत से घटकर वित्तवर्ष 2018 में 0.94 प्रतिशत हो गया, जो बेहतर आस्ति प्रबंध दर्शाता है.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 3- सिडबी का बैलेंस शीट यह भी बताता है कि उसका नॉन परफॉर्मिंग असेट (एनपीए) वित्तीय वर्ष 2017 के स्तर 823.28 करोड़ से बढ़कर वित्तीय वर्ष 2018 में 902.42 करोड़ हो गया. यानि, सालभर में सिडबी का एनपीए 79.14 करोड़ बढ़ गया. इस पर दावा है कि सिडबी का सकल एनपीए वित्त वर्ष 2017 में 1.20 प्रतिशत से घटकर वित्तीय वर्ष 2018 में 0.94 प्रतिशत हो गया. सिडबी बड़ी चतुराई से अपने बैलेंस शीट का आकार बढ़ा कर ऐसा कह रहा है, जबकि तथ्य यही है कि सिडबी का सकल एनपीए लगातार बढ़ रहा है. 

सिडबी का खंडनः 4- सिडबी ने कई विशिष्ट गैर-वित्तीय कदम भी उठाए हैं. एमएसई सेंटिमेंट सूचकांक ‘क्रिसिडेक्स’ और ‘एमएसएमई पल्स’ शुरू किया, जो एमएसएमई से संबंधित वित्त-व्यवस्था के पूरे दायरे को सोद्देश्यपूर्ण बनाता है.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 4- सिडबी द्वारा दिखाए जा रहे प्रयास दिखावा हैं. जिन दूरदराज के छोटे और मझोले औद्योगिक क्षेत्र मसलन, मुरादाबाद, भदोही, जौनपुर, शाहगंज, मिर्जापुर, बलरामपुर, बहराइच, मेरठ, मथुरा, शाहगंज, गाजीपुर, गोरखपुर, फिरोजाबाद, लखीमपुर, पीलीभीत, बरेली, रामपुर की चर्चा की गई है, इन इलाकों में लोगों को सिडबी की योजनाओं से क्या लाभ मिला? सिडबी ने उन्हें कौन सा स्वरोजगार दिया? लघु उद्योगों को बचाने के लिए लोगों को सिडबी से छोटे-छोटे ऋण का लाभ क्या मिला? इसे बताने के बजाय सिडबी प्रबंधन शब्दों की बाजीगरी दिखा रहा है.

सिडबी का खंडनः 5- सिडबी ने ‘उद्यमीमित्र’ पोर्टल के जरिए वित्तीय मध्यवर्तियों और एमएसएमई उद्यमों को एक मंच पर लाने का काम किया. सिडबी ने देश के असेवित और अल्प-सेवित क्षेत्रों में एमएसएमई तक ऋण की पहुंच सुगम बनाने के लिए मई 2018 में सीएससी ई-गवर्नेंस लिमिटेड के साथ करार किया है.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 5- सिडबी उद्यमी-मित्र जैसे हाईटेक वेबसाइटों और सूचना प्रौद्योगिकी की ‘हाई-फाई’ शब्दावलियां प्रयोग कर रहा है. सिडबी उन उद्यमियों को जिंदा रखने के लिए स्थापित हुआ था, जो दूर-दराज के ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में स्वरोजगारी या ग्रामीण-कुटीर उद्योग चलाते हैं, जिन्हें हाईटेक ‘हाई-फाई’ बातें समझ में नहीं आतीं. सिडबी जमीनी सच्चाई से दूर वेबसाइट पर ‘हिट्स’ और ‘लाइक्स’ दिखा-दिखा कर नेताओं की तरह सूक्ष्म, मझोले और लघु उद्योगों की किस्मत चमकाने का भ्रम फैलाता है. सिडबी प्रबंधन ने मई 2018 में सीएससी ई-गवर्नेंस लिमिटेड के साथ करार की बात की है. करार हुए अभी एक-डेढ महीने ही हुए हैं, उसे उपलब्धि दिखाना अनुचित है.

सिडबी का खंडनः 6- सिडबी का दायित्व लघु और सूक्ष्म उद्यमों पर ध्यान केंद्रित करना है. तथापि, सिडबी राज्य स्तरीय संस्थाओं के लिए पूरक का भी कार्य करता है. जहां बड़े उद्यमों में ऋण की संवृद्धि अल्प या नगण्य रही, वहीं सूक्ष्म एवं लघु उद्यमों में दो अंकों की संवृद्धि दर्ज हुई. यह यूपी में भी उसी प्रमुखता से विद्यमान है. सिडबी ने वित्तीय समावेशन कार्यक्रम सक्रिय करने की दृष्टि से उच्च-प्रभाव क्षमता वाली प्रौद्योगिकि के पोषण हेतु आईआईएम में केंद्र शुरू किया है. यूपी में सिडबी ने ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय साक्षरता अभियान, उद्यमिता विकास कार्यक्रम, सूक्ष्म उद्यम संवर्द्धन जैसे कार्यक्रम जारी रखे हैं.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 6- सिडबी का मुख्यालय इस इरादे से बनाया गया था कि देश की अर्थव्यवस्था में 15 प्रतिशत से अधिक योगदान देने वाले यूपी के सूक्ष्म, मझोले और लघु उद्योग मरें नहीं. लेकिन असलियत में क्या हुआ? इस पर सिडबी ने चुप्पी साध ली. ‘चौथी दुनिया’ में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि भदोही, वाराणसी, जौनपुर, सुल्तानपुर के कालीन उद्योग के बुनकर, अलीगढ़ के ताला, मिश्रधातु मूर्ति और जिंक एवं अल्युमीनियम डाइ कास्टिंग उद्योगों के मजदूर, आगरा के जूता एवं चमड़ा आधारित उद्योगों के मजदूर और उनके मालिक बर्बादी की हालत में पहुंच गए. सिडबी ने इस दिशा में कोई काम किया होता तो क्या ऐसी हालत हुई होती? अगर सिडबी ने इनकी भलाई के लिए व्यवहारिक नीति बनाई होती और वास्तविक काम किया होता तो क्या यूपी के उद्योग-धंधे बंद हुए होते? बड़ा सवाल है कि क्या सिडबी ने देश और उत्तर प्रदेश के सूक्ष्म, मझोले और लघु उद्योगों का जमीनी जायजा लेने के लिए कोई केंद्रित वित्तीय एवं औद्योगिक सर्वेक्षण (एमएसएमई) कराया? इस सवाल का सही जवाब है कि सिडबी ने ऐसा कोई सर्वेक्षण नहीं कराया है. 

सिडबी का खंडनः 7- खबर में मनमाने स्थानांतरण का उल्लेख है. वास्तविकता यह है कि तैनाती की अवधि और स्थान के आधार पर नियम-सम्मत स्थानांतरण किए गए हैं. मुकेश पांडेय का स्थानांतरण पिछले कई वर्षों से उनके परिसर संविभाग में बने रहने के कारण किया गया. खबर में जिक्र है कि वे फ्लैटों की बिक्री से असहमत थे, पर वास्तविकता यह है कि उन्होंने ही फ्लैटों की बिक्री का प्रस्ताव रखा था, जिसे बोर्ड ने पास किया. सिडबी खाली पड़े फ्लैटों पर करोड़ों रुपए अपव्यय करता रहा है. राजीव सूद का स्थानांतरण सतर्कता संवर्ग में उनके तीन वर्षों से तैनात रहने के कारण किया गया.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 7- सिडबी में अधिकारियों का स्थानांतरण मनमाने तरीके से होता है. छानबीन में यह तथ्य सामने आया कि मुकेश पांडेय ने सिडबी के फ्लैटों की बिक्री का विरोध किया तो उनका तबादला कर दिया गया. जबकि सिडबी कहता है कि पांडेय ने ही फ्लैटों की बिक्री का प्रस्ताव रखा था. मुकेश पांडेय जैसे सामान्य स्तर के अधिकारी फ्लैट्स बेच देने का प्रस्ताव रखते हैं और पूरा सिडबी बोर्ड उस प्रस्ताव के आगे नतमस्तक हो जाता है. सिडबी का यह तर्क एक चुटकुले जैसा है. सिडबी कहता है कि राजीव सूद तीन साल से सतर्कता संवर्ग में तैनात थे, इसलिए उनका तबादला नियमानुसार हुआ है. जबकि सिडबी के मानव संसाधन संवर्ग में महाप्रबंधक संदीप वर्मा पिछले सात साल से अधिक समय से एक ही जगह तैनात हैं. उनका तबादला क्यों नहीं हुआ? उसी विभाग में कई प्रबंधक और दूसरे संवेदनशील महकमों में कई अधिकारी वर्षों से टिके हैं, लेकिन उनका तबादला नहीं होता. प्रशासन संवर्ग के उप महाप्रबंधक आशू तिवारी पांच साल से अधिक समय से स्थापित हैं. फिर भी सिडबी का यह कहना कि स्थानांतरण प्रणाली पारदर्शी है, मजाक नहीं तो क्या है! सिडबी में तरक्की का समान अवसर देने के संवैधानिक प्रावधान को ताक पर रख कर विशेषज्ञ अधिकारियों के स्केल-प्रमोशन में भीषण भेदभाव किया जा रहा है. सिडबी के विशेषज्ञ अधिकारियों की पूरी फेहरिस्त ‘चौथी दुनिया’ के पास है, जिन्हें पिछले 21 साल और 10 साल से तरक्की नहीं दी गई.

सिडबी का खंडनः 8- विभिन्न राज्यों में सिडबी के कई कार्यालय बंद किए जाने की खबर सच्चाई से कोसों दूर है. यह संस्था के लिए अपेक्षित बेहतर स्थिति की दृष्टि से किया गया एक युक्तिसंगत प्रयास था. प्रत्येक क्षेत्रीय कार्यालय का व्यवसाय संविभाग 500 करोड़ से कम नहीं होना चाहिए, लिहाजा, यह तय किया गया कि 15 के स्थान पर केवल 9 क्षेत्रीय कार्यालय ही रखे जाएं. व्यय को कम करने के लिए ऐसा किया गया, क्योंकि वर्तमान में सिडबी सौ रुपए के अर्जन हेतु 114 रुपए खर्च करता है.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 8- सिडबी एक तरफ कहता है कि विभिन्न राज्यों में कार्यालय बंद किए जाने की खबर सच्चाई से कोसों दूर है. फिर मान भी लेता है कि यह निर्णय संस्था की बेहतरी के लिए किया गया था. ऐसे विरोधाभासी जवाब देने वाला सिडबी प्रबंधन कहता है कि क्षेत्रीय कार्यालय का व्यवसाय 500 करोड़ से कम होने के कारण कोलकाता और मुम्बई क्षेत्रीय कार्यालय बंद किए गए, पर यह नहीं बताता कि व्यवसाय क्यों कम हुआ? दूसरे सभी बैंकों के क्षेत्रीय कार्यालय कोलकाता और मुम्बई में हैं, लेकिन सिडबी ने इसका व्यवसायिक महत्व नहीं समझा. 

सिडबी का खंडनः 9- सिडबी एक राष्ट्रीय संस्थान है, जिसका मुख्यालय लखनऊ में है, पर पिछले वर्षों में इसके कई महत्वपूर्ण काम-काज मुम्बई ले जाए गए. लखनऊ में उन विभागों को पुनर्स्थापित कर सिडबी के प्रधान कार्यालय का गौरव वापस लाने के लिए राज्य सरकार द्वारा वित्त मंत्रालय और वित्त मंत्री को विभिन्न अभिवेदन भेजे गए, लेकिन कोई प्रगति नहीं हुई. सिडबी का काम लखनऊ, दिल्ली और मुम्बई से होता है और सीएमडी सहित वरिष्ठ कार्यपालक इन सभी केंद्रों की यात्रा करते रहते हैं.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 9- सिडबी खुद यह स्वीकार करता है कि मुख्यालय तो लखनऊ में है, पर मुम्बई को क्रमशः व्यवहारिक मुख्यालय बना दिया गया. शीर्ष अधिकारियों का आकर्षण मुम्बई और दिल्ली होने के सच को कबूल करने के बजाय सिडबी इसका ठीकरा केंद्र और पूर्व प्रबंधन पर फोड़ रहा है.

सिडबी का खंडनः 10- सिडबी ने जनवरी-मई 2018 में धोखाधड़ी संबंधी 17 मामले घोषित किए. न्यूज-आइटम से ऐसा प्रतीत होता है कि ये घटनाएं जनवरी-मई 2018 के दौरान घटित हुईं, जबकि धोखाधड़ी के मामले पुराने हैं.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 10- सिडबी यह मानता है कि जनवरी-मई 2018 के दौरान धोखाधड़ी के 17 मामले घोषित हुए. यह सर्वविदित है कि धोखाधड़ी के मामले कुछ अंतराल के बाद ही घोषित होते हैं. प्रकाशित खबर खास तौर पर सिडबी के ओखला ब्रांच में हुई धोखाधड़ी को रेखांकित करती है. इस मामले की अज्ञात के खिलाफ एफआईआर क्यों दर्ज कराई गई? ओखला शाखा को बंद कर उसे दिल्ली शाखा में क्यों मिला दिया गया? सिडबी किसे बचाने की कोशिश कर रहा है? सिडबी ने इस बारे में कुछ नहीं कहा.

सिडबी का खंडनः 11- मुंबई में किराए पर फ्लैट के लिए जारी त्रुटिपूर्ण विज्ञापन के संबंध में कहना है कि टाइपिंग की गलती के कारण ‘रेज़िडेंशियल’ के बजाय ‘प्रेज़िडेंशियल’ छप गया. जिसे बाद में सुधार दिया गया. इसकी जांच शुरू कर दी गई है. इसके मूल में एक अतिथि-गृह किराए पर लेकर होटल में ठहरने से संबंधित भारी खर्चों को कम करने का उद्देश्य निहित है. इस प्रकार के निर्णय बिल्कुल जूनियर स्तर पर किए जाते हैं. 

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 11- सिडबी का कहना है कि मुम्बई में आवास के लिए 22 मई 2018 को जारी विज्ञापन में टाइपिंग की भूल के कारण ‘रेसिडेंशियल’ की जगह ‘प्रेसिडेंशियल’ छप गया था. टाइपिंग-मिस्टेक के लिए ‘चौथी दुनिया’ जिम्मेदार नहीं है. ‘चौथी दुनिया’ ने सिडबी की प्रबंधकीय अराजकताओं को रेखांकित किया है. सिडबी ने कहा कि टाइपिंग-त्रुटी मामले की जांच की जा रही है. फिर जांच के पहले ही जूनियर अफसर प्रशांत सामल्ला को सस्पेंड क्यों किया गया और महाप्रबंधक राजेश डी. काले को कारण बताओ नोटिस थमा कर स्थानांतरित क्यों कर दिया गया? क्या इस भूल के लिए काले और सामल्ला अकेले जिम्मेदार थे? सिडबी में विभिन्न स्तर पर ‘क्रॉस-चेक’ की कोई व्यवस्था है या नहीं? अगर है तो केवल दो अधिकारी क्यों हलाल किए गए? सिडबी ने यह नहीं बताया कि बांद्रा सी-फेस, बैंड स्टैंड, कार्टर रोड जैसे बेशकीमती इलाके में चार बेडरूम का फ्लैट लेने की आपाधापी क्यों है और उसका आर्थिक बोझ सिडबी के बैलेंस शीट पर पड़ेगा कि नहीं? सिडबी के पास स्तरीय फ्लैट्स की कतार है लेकिन 30 से 50 लाख रुपए सालाना के किराए पर सी-फेसिंग फ्लैट लेने के लिए
कुतर्क गढ़े जा रहे हैं और ढिठाई से कहा जा रहा है यह निर्णय बिल्कुल जूनियर स्तर पर किए जाते हैं.

सिडबी का खंडनः 12- समाचार में उल्लेख है कि नई दिल्ली के अंतरिक्ष भवन में सिडबी अध्यक्ष के कक्ष का किराया तीन लाख रुपए है. सच यह है कि किराया दो लाख रुपए प्रतिमाह है. हमने वीडियोकॉन टावर स्थित बड़ा परिसर खाली कर दिया है, जिसमें 22 लाख रुपए खर्च हो रहे थे. उसके स्थान पर दुकान के आकार वाले दो कार्यालय-स्थान के उपयोग का निर्णय किया है.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 12- ‘अंतरिक्ष भवन’ में चेयरमैन के लिए तीन लाख रुपए महीने के किराए पर अलग से चैम्बर लिए जाने पर सिडबी कहता है कि किराया तीन लाख नहीं, दो लाख रुपए प्रतिमाह है. इसके लिए 22 लाख रुपए के किराए वाले ‘वीडियोकॉन टावर’ के बड़े हिस्से को खाली कर कम किराया वाले ‘दुकान’ की शेप के कमरों में कार्यालय चलाया जा रहा है. सिडबी के आम कर्मचारियों की अहमियत क्या है, इससे स्पष्ट है. जिस चेयरमैन को कोई ‘एक्जेक्यूटिव-पावर’ नहीं है, उसके लिए लखनऊ, दिल्ली और मुम्बई में अलग-अलग आलीशान चैम्बर बनाने का क्या तुक है?

सिडबी का खंडनः 13- बैंक ने रखरखाव के अपव्यय से बचने के लिए वर्षों से खाली पड़े फ्लैटों के निपटान का निर्णय पूर्व में ही किया था. विज्ञापन के माध्यम से प्रतिस्पर्धी नीलामी द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के तहत फ्लैटों की बिक्री का प्रस्ताव किया गया है. औने-पौने दाम पर फ्लैटों की बिक्री का उल्लेख करना अनुचित है.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 13- कोई भी बैंक अपनी संपत्ति और आस्तियों की हिफाजत करता है. मुनाफा कमाने वाले बैंक आस्तियां खरीदते हैं, न कि बेचते हैं. फिर सिडबी अपने फ्लैट्स बेचने पर क्यों आमादा है? खासकर वे फ्लैट्स भी जो मार्च 2018 तक बड़े और क्षेत्रीय कार्यालयों के कारण भरे रहते थे? सिडबी का यह कहना सरासर गलत है कि जिन फ्लैट्स में कोई नहीं रहता केवल उसे बेचा जा रहा है. सिडबी के पास इसका भी जवाब नहीं है कि ‘प्रॉपर्टी’ बाजार जब मंदी की हालत में हो, ऐसे समय फ्लैट्स बेच कर सिडबी को घाटे में क्यों डाला गया?

सिडबी का खंडनः 14- समाचार में उल्लिखित है कि मुंबई में माटुंगा स्थित कतिपय फ्लैट खाली पड़े हैं और अधिकारी किराए के परिसरों में रह रहे हैं. वर्तमान में माटुंगा में कोई भी फ्लैट खाली नहीं है.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 14- खबर में यह कहीं नहीं लिखा है कि माटुंगा में सिडबी के कतिपय फ्लैट्स खाली हैं. खबर में लिखा है कि माटुंगा में चेयरमैन के लिए बना फ्लैट खाली है. अगर वह खाली नहीं है तो सिडबी ने क्यों नहीं बताया कि उस फ्लैट में कौन रहता है? चैयरमैन हाजी अली के पॉश इलाके में किराए के आलीशान फ्लैट में क्यों रहते हैं? चेयरमैन के आवास के किराए पर 15 से 20 लाख रुपए क्यों खर्च हो रहे हैं? सिडबी के निवर्तमान चेयरमैन डॉ. छत्रपति शिवाजी माटुंगा स्थित रहेजा-मैजेस्टिक अपार्टमेंट के आठवें तल पर रहते थे. फिर मौजूदा चेयरमैन ने वहां रहना क्यों नहीं पसंद किया?

सिडबी का खंडनः 15- सिडबी के एक वरिष्ठ अधिकारी की पुत्री वंदिता श्रीवास्तव की नियुक्ति के संबंध में तथ्य यह है कि भर्ती के मामलों में बैंक द्वारा विनिर्दिष्ट प्रक्रिया का विधिवत रूप से अनुसरण करते हुए उनकी भर्ती की गई थी.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 15- सिडबी के मुख्य महाप्रबंधक उमाशंकर लाल की बिटिया वंदिता श्रीवास्तव वर्ष 2014 के बैंक नियुक्ति बोर्ड की सिडबी के लिए आयोजित लिखित परीक्षा में पास नहीं हुई थीं. इकोनॉमिस्ट के पद पर उनकी नियुक्ति बाद में की गई. जब वे इतनी ही योग्य थीं तो दो साल तक उनसे पद-निर्धारित काम नहीं लेकर पत्रों, परिपत्रों और अंदरूनी पत्राचार ‘डिस्पैच’ करने और बुलेटिन-बोर्ड जारी कराने का काम क्यों लिया जाता रहा? सिडबी के शीर्ष अधिकारियों के ‘टैलेंटेड’ बच्चे सिडबी में नौकरी के लिए चुन लिए जाते हैं, लेकिन निचले स्तर के अधिकारियों-कर्मचारियों के ‘बोगस’ बच्चे सिडबी की नौकरी में नहीं चुने जाते. कर्मचारियों के प्रति सिडबी के शीर्ष अधिकारियों के बेजा रवैये की ही बानगी है, सिडबी के दफ्तर में ‘चौथी दुनिया’ की प्रतियां रखे जाने के ‘जुर्म’ में 28 गार्डों की बर्खास्तगी और कई अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ ‘शो-कॉज़’ नोटिस जारी किया जाना. यह उसी मुख्य महाप्रबंधक उमाशंकर लाल की करतूत है जो बैक-डोर से अपनी बिटिया की सिडबी में नियुक्ति कराता है और रिटायरमेंट के बाद भी सलाहकार का पद पुरस्कार में पा जाता है. सामान्य कर्मचारियों के प्रति सिडबी प्रबंधन का रवैया बेजा और असंवैधानिक है. आप सिडबी के वर्ष 2018 के लाभ-हानि वित्तीय परिणाम गौर से देखें तो पाएंगे कि सिडबी का ‘अन्य’ खर्च 2017 के 126 करोड़ की तुलना में बढ़कर 2018 में 131 करोड़ हो गया. जबकि स्टाफ पर होने वाला खर्च 2017 के 407 करोड़ से घटकर 2018 में 379 करोड़ पर आ गया. साफ है कि कर्मचारियों की सुविधा के 28 करोड़ काट कर शीर्ष अधिकारियों ने उसे अपनी ‘रईसी’ में जोड़ दिया.

सिडबी का खंडनः 16- मुख्य अर्थशास्त्री के अनुमोदित पद पर नियुक्ति के लिए अब पुनः इसका विज्ञापन दिया गया है.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 16- आश्चर्य है कि सिडबी में जहां एक इकोनॉमिस्ट हो वहां चीफ इकोनॉमिस्ट की नियुक्ति का उपक्रम हो रहा है. सिडबी ने दशकों पहले इकोनोमिस्ट कैडर खत्म कर दिया, फिर अब क्यों उसी कैडर को जिंदा किया जा रहा है? इस मद में सलाना 60 लाख रुपए फूंकने की जरूरत क्यों आ पड़ी? इसका बोझ सिडबी के बैलेंस शीट पर पड़ेगा कि नहीं? सवाल यह भी है कि सिडबी में जब मुख्य महाप्रबंधक आरके दास, महाप्रबंधक एसपी सिंह, उप महाप्रबंधक पीके नाथ जैसे कई अन्य अधिकारी ‘इकोनॉमिस्ट’ कैडर में दक्षतापूर्वक काम कर चुके हों तो इनसे बाहरी काम क्यों लिया जा रहा है और चीफ इकोनॉमिस्ट की बेमानी नियुक्ति क्यों की जा रही है? सिडबी यह क्यों नहीं बताता कि बैंक ऑफ इंडिया के राजीव सिंह को डेढ़ करोड़ रुपए के अनुबंध पर किस काम के लिए सिडबी में नियुक्त किया गया है?

सिडबी का खंडनः 17- सामान्य और विशिष्ट संवर्ग के विलय के संबंध में कहना है कि यह बैंकिंग प्रथा के अनुकूल है और इसे स्वैच्छिक रूप से अपनाने के लिए प्रस्तावित किया गया था.

‘चौथी दुनिया’ का मंडनः 17- सिडबी ने बैंकिंग क्षेत्र के विशेषज्ञ अधिकारियों के साथ कैसा बेजा सलूक किया, यह सामने है. विशेषज्ञ अधिकारियों के लिए गैर-संवैधानिक ‘मर्जर-पॉलिसी’ लाकर इस घटियापन पर मुहर लगा दी. इस योजना का सिडबी के अधिकांश विशेषज्ञ अधिकारियों ने विरोध किया, लेकिन प्रबंधन ने एक नहीं सुनी. ‘मर्जर-पॉलिसी’ इतनी ही व्यवहारिक थी तो उसके खिलाफ मुकदमा क्यों दर्ज हुआ? कोर्ट में मामला दर्ज होने पर सिडबी ‘आउट ऑफ कोर्ट सेट्लमेंट’ के लिए क्यों घुटने टेक देता है? डी. घोष बनाम सिडबी मामले में कोर्ट के बाहर सेट्लमेंट करते हुए उन्हें तरक्की क्यों दी गई और पीडी सारस्वत बनाम सिडबी मामले में भी सिडबी ने कोर्ट से बाहर सेट्लमेंट क्यों किया? लब्बोलुबाव यही है कि कुतर्कों का सहारा लेने के बजाय सिडबी को अपनी खामियां और प्रबंधकीय अराजकता दूर करनी चाहिए.

Wednesday 18 July 2018

बागपत जेल लाकर मारा गया मुन्ना बजरंगी को ...यह राज्य प्रायोजित हत्या है

प्रभात रंजन दीन  
झांसी से बागपत जेल लाकर अपराधी सरगना मुन्ना बजरंगी को मार डाला गया. इस ऑपरेशन के लिए बसपा के पूर्व विधायक लोकेश दीक्षित से ‘डील’ हुई. मुन्ना के खिलाफ रंगदारी मांगने का मुकदमा दर्ज कराया गया और पूरा सत्ता-तंत्र इस मामूली केस के लिए मुन्ना को बागपत जेल भेजने पर आमादा हो गया. कागज पर बागपत जेल ‘हाई-सिक्योरिटी’ जेल है, जहां एक भी सीसीटीवी कैमरा नहीं है, एक भी जैमर नहीं है और सुरक्षा का कोई बंदोबस्त नहीं है. ‘हाई-प्रोफाइल’ हत्या के लिए तथाकथित ‘हाई-सिक्योरिटी’ जेल मुफीद जगह थी. हत्या की तैयारी को अंजाम देने के लिए बसपा के पूर्व विधायक से हुई ‘डील’ इतनी भारी थी कि उसका भार मायावती बर्दाश्त नहीं कर पाईं और भनक मिलते ही लोकेश दीक्षित को पार्टी से निकाल बाहर किया.
बागपत जेल में कुख्यात अपराधी सरगना मुन्ना बजरंगी का मारा जाना राज्य प्रायोजित हत्या है. परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर कानून निर्णायक नतीजा निकालता है. लिहाजा, मुन्ना बजरंगी की हत्या से जुड़े परिस्थितिजन्य तथ्य काफी अहम हैं जो हत्या के राज्य प्रायोजित षडयंत्र को सामने लाते हैं. मुन्ना बजरंगी की हत्या के प्रसंग में ‘चौथी दुनिया’ कुछ ऐसे परिस्थितिजन्य तथ्य सामने ला रहा है, जिसे अब तक अंधेरे में रखा गया है. इससे राज्य प्रायोजित षडयंत्र के संदेह पुख्ता होते हैं. जांच कोई भी हो और किसी भी स्तर की हो, घटना के पीछे अगर राज्य का प्रायोजन होता है तो वह कभी भी निर्णय तक नहीं पहुंचता, उसे घालमेल करके उलझा दिया जाता है और भुला दिया जाता है. मुन्ना बजरंगी हत्या मामले में भी ऐसा ही होने वाला है.
एक अपराधी का मारा जाना महत्वपूर्ण घटना नहीं होती, लेकिन एक अपराधी को मारने के लिए अगर शासन-प्रशासन तानाबाना बुने और उसे जेल में मार डाले तो ऐसी घटना अत्यंत महत्वपूर्ण और संवेदनशील बन जाती है. मुन्ना बजरंगी हत्या प्रकरण इसीलिए बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सत्ता के उस मूल चरित्र को उजागर करता है, जो मुन्ना बजरंगी के आपराधिक चरित्र से फर्क नहीं है. मुन्ना बजरंगी की हत्या के बाद जो एफआईआर लिखी गई और मुन्ना बजरंगी की विधवा सीमा सिंह ने जो तहरीर दी, उसमें जमीन आसमान का अंतर है. यह ऐसी हत्या है जिसमें ‘विक्टिम’ के परिजनों की सुनी नहीं जा रही. बजरंगी की पत्नी पिछले 10 दिन से कह रही थीं कि उनके पति की जेल में हत्या किए जाने का षडयंत्र चल रहा है, लेकिन शासन-प्रशासन ने जैसे कुछ सुना ही नहीं. कानून भुक्तभोगी के परिजन के न्यायिक-संरक्षण की बात कहता है, लेकिन इसे सुनता कौन है! सीमा सिंह की एफआईआर भी स्वीकार नहीं की जा रही. मुन्ना बजरंगी के परिजनों और उसके गांव वालों के आरोप करीब-करीब समान हैं. इन आरोपों की परिधि में जो भी पात्र सामने आ रहे हैं, उसके एक छोर पर केंद्रीय मंत्री मनोज सिन्हा हैं तो दूसरी छोर पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ. इस परिधि में प्रतिद्वंद्वी माफिया सरगना सह पूर्व सांसद धनंजय सिंह, उसका करीबी प्रदीप कुमार सिंह, मुन्ना के हाथों मारे गए भाजपा नेता कृष्णानंद राय की पत्नी विधायक अलका राय, वाराणसी जेल में बंद माफिया सरगना बृजेश सिंह, बृजेश का भाजपा विधायक भतीजा सुशील सिंह, बांदा जेल में बंद कुख्यात अपराधी सरगना विधायक मुख्तार अंसारी और बसपा के पूर्व विधायक लोकेश दीक्षित का चेहरा बार-बार सामने आता है. इस परिधि में दिखने वाले नौकरशाहों के चेहरे षडयंत्र के शतरंज के मुहरे हैं. यह एक विचित्र किस्म की परिधि बन रही है. इसे ही अंग्रेजी में ‘नेक्सस’ कहते हैं. हम जिन परिस्थितिजन्य तथ्यों की बात कह रहे हैं, वे इसी ‘नेक्सस’ पर रौशनी डालते हैं. यह ‘नेक्सस’ राजनीतिक हत्या के प्रतिशोध, सियासी ‘लाभ’ के लोभ, खतरे में पड़ते राजनीतिक भविष्य, ‘धन के धंधे’ पर आते संकट, भेद खुलने और जान जाने के डर, इन सारे आयामों को समाहित करता है.
बागपत जेल में मुन्ना बजरंगी की हत्या कैसे हुई, इसे शासन और प्रशासन ने जैसा बताया, लोगों ने वैसा ही सुना. बड़े शातिराना तरीके से मुन्ना की हत्या को दिल्ली पुलिस के एसीपी राजबीर सिंह की हत्या के प्रतिशोध से भी जोड़ कर संदेह की धारा बदलने की कोशिश की गई. जबकि राजबीर की हत्या किसने की थी, इसे सब जानते हैं. राजबीर की हत्या करने वाला प्रॉपर्टी डीलर विशाल भारद्वाज आजीवन कारावास की सजा भुगत रहा है. फिर मुन्ना बजरंगी की हत्या किसने की? हत्या का कोई चश्मदीद गवाह है कि नहीं? अगर है तो वह जेल से जुड़ा कर्मचारी है या कोई कैदी? जिस पिस्तौल से हत्या की गई और जिस पिस्तौल को गटर से बरामद दिखाया गया, क्या वह एक है? जिस पिस्तौल से गोली चली उसकी क्या फॉरेंसिक जांच के बाद आधिकारिक पुष्टि हुई कि गटर से मिली पिस्तौल ही असली थी, जिसका मुन्ना बजरंगी की हत्या में इस्तेमाल हुआ? पिस्तौल की अगर फॉरेंसिक जांच कराई गई तो वह कहां से हुई? मुन्ना बजरंगी की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के प्रामाणिक होने की क्या गारंटी है? क्या उसके पोस्टमॉर्टम की नियमानुकूल (चारो कोनों से) वीडियो रिकॉर्डिंग कराई गई? मुन्ना बजरंगी की बाईं कनपटी से पिस्तौल सटा कर उसका भेजा उड़ा डालने के बाद उसकी फोटो खींची गई. उसके बाद उसके सीने पर फिर से गोलियां दागी गईं और फिर से फोटो खींची गई. इतनी नफरत और गुस्से से भरा हत्यारा सुनील राठी ही था या कोई और? क्या सुनील राठी का मुन्ना बजरंगी से इतना गहरा बैर था? मुन्ना बजरंगी की हत्या का स्टेज-शो चलता रहा, उसके धराशाई होने के बाद भी उसके शरीर में कई खेप में गोलियां उतारी जाती रहीं, धमाके पर धमाके होते रहे... वहां और लोग भी तो रहे ही होंगे? वे कौन लोग थे? हत्या के साथ ही मुन्ना बजरंगी के रक्तरंजित शव की फोटो भी वायरल की जाती रही. वे कौन लोग थे जो फोटो खींच रहे थे और उसे व्हाट्सएप या सोशल मीडिया पर वायरल करते जा रहे थे? यही वायरल हुई फोटो शासन के आधिकारिक रिकॉर्ड का भी हिस्सा बनी, लेकिन शासन ने जनता को यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि शूट-आउट के समय वहां मौजूद लोग कौन थे जो फोटो खींचते जा रहे थे? इन सवालों के सच-जवाब आपको शायद ही कभी मिल पाएं, लेकिन इन सवालों के सच आप महसूस तो करेंगे ही. आप मुन्ना बजरंगी के रक्तरंजित धराशाई शव के इर्द-गिर्द की छाया देखें. आपको तीन-चार लोगों की छाया दिखेगी. इनमें दो लोग बड़ी तसल्ली से फोटोग्राफी करते दिखेंगे. इनके काम करने का अंदाज देख कर यह कतई नहीं लगता कि उसी जगह पर कोई दुस्साहसिक और सनसनीखेज वारदात हुई है. फोटो खींचने वाले इतने ठंडे दिमाग से अपना काम कर रहे थे कि उन्होंने मुन्ना बजरंगी की लाश की कई एंगल से फोटो खींची. पथराई हुई खुली आंख वाली तस्वीर खींचने के बाद उन लोगों ने खुली हुई आंख बंद की और फिर बंद आंख वाली फोटो भी खींची और उसे भी वायरल किया. कौन थे ये ‘कोल्ड-ब्लडेड’ लोग?
ऐसे कई सवाल सामने हैं. इन्हीं सवालों के बीच से गुजरते हुए हम मुन्ना बजरंगी हत्याकांड के उन परिस्थितिजन्य तथ्यों को भी देखते चलें, जो हत्या के राज्य-प्रायोजित षडयंत्र की परतें खोलते हैं. बागपत के एक ‘पेटी’ (तुच्छ) मामले में पूरी सरकार मुन्ना को बागपत भेजने पर इस तरह आमादा थी कि कानून की मर्यादा तो छोड़िए, उसने लोकलाज की भी फिक्र नहीं की. मुन्ना बजरंगी को बागपत भेजने के लिए झांसी के जिलाधिकारी शिव सहाय अवस्थी और एसएसपी विनोद कुमार सिंह की बेचैनी ‘टास्क’ पूरा करने का श्रेय लेने का उतावलापन जाहिर कर रही थी. हत्याकांड के सत्ताई-सूत्रधारों का प्रशासन पर कितना दबाव था, इसे आसानी से समझा जा सकता है. झांसी के डीएम एसएसपी भी यह अच्छी तरह जानते थे कि मुन्ना बजरंगी की कई जगह से तलबी लंबित थी. बनारस के एडीजी फर्स्ट के यहां भी नौ जुलाई को मुन्ना की तलबी थी. वहां वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से सुनवाई हुई. बनारस में मुन्ना की पेशी इसलिए नहीं हुई कि उसने एसटीएफ के अधिकारी द्वारा पहचान कराए जाने और हत्या का षडयंत्र किए जाने की शिकायत की थी. लेकिन इसके बरक्स झांसी के डीएम शिवसहाय अवस्थी और एसएसपी विनोद कुमार सिंह झांसी जेल के सुपरिंटेंडेंट राजीव शुक्ला पर लगातार दबाव डाल रहे थे कि मुन्ना बजरंगी को पेशी पर बागपत भेजा जाए.
यह दबाव बढ़ता गया. आखिरकार झांसी के एसएसपी विनोद कुमार सिंह ने झांसी जेल के सुपरिंटेंडेंट को अपने दफ्तर में तलब कर लिया. एसएसपी ने सुपरिंटेंडेंट को अपने अरदब में लिया और आदेशात्मक लहजे में मुन्ना बजरंगी को पेशी पर बागपत भेजने को कहा. मुन्ना बजरंगी की बीमारी और कानूनी प्रावधानों का हवाला देने पर एसएसपी ने सुपरिंटेंडेंट के साथ बदसलूकी की और गाली गलौज भी की. एसएसपी ने राजीव शुक्ला पर मुन्ना बजरंगी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए भी दबाव डाला. एसएसपी की अभद्रता से कुपित होकर जेल सुपरिंटेंडेंट छुट्टी पर चले गए. चार जुलाई को लखनऊ में जेल विभाग की समीक्षा बैठक में झांसी जेल के सुपरिंटेंडेंट ने सारी आपबीती जेल विभाग के एडीजी चंद्रप्रकाश और बैठक में मौजूद आला अधिकारियों के समक्ष रखी. झांसी जेल के सुपरिंटेंडेंट ने अपने आला अधिकारियों को यह भी जानकारी दी कि मुन्ना बजरंगी अपनी हत्या की साजिश की आशंका जता रहा था और उनसे कह रहा था कि इस मामले में वे (जेल सुपरिंटेंडेंट) नाहक न पड़ें. यह बात एसएसपी विनोद कुमार सिंह से भी बताई गई थी, तब एसएसपी ने मुन्ना के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए कहा था. झांसी जेल के सुपरिंटेंडेंट की शिकायत के बावजूद जेल विभाग के शीर्ष अधिकारियों ने इस मसले पर जरूरी कोई कार्रवाई नहीं की. इसके बाद जेल सुपरिंटेंडेंट राजीव शुक्ला फिर छुट्टी पर चले गए. शुक्ला मुन्ना बजरंगी की बागपत में हत्या के बाद ही झांसी लौटे. मुन्ना बजरंगी को बागपत भेजने के लिए झांसी के एसएसपी विनोद कुमार सिंह इतने उतावले क्यों थे? इस गंभीर सवाल के पीछे कई खौफनाक तथ्य झांकते दिखते हैं.
पूरा जेल प्रशासन राज्य प्रायोजित षडयंत्र के आगे घुटने टेक गया. जेल सुपरिंटेंडेंट की गैर मौजूदगी में मुन्ना बजरंगी को बागपत रवाना करने के लिए ऐसा समय चुना गया कि वहां पहुंचते-पहुंचते रात हो जाए. इसके लिए गाड़ियां इतनी धीमी चलवाई गईं कि जहां पहुंचने में अधिक से अधिक नौ घंटे लगते हैं, वहां करीब 14 घंटे लगे. मुन्ना बजरंगी को बागपत के लिए लेकर चली एस्कॉर्ट टीम को यह पता ही नहीं था कि मुन्ना को कहां रखा जाना है. जबकि कैदी की रवानगी के पहले ही एस्कॉर्ट टीम के मुखिया के हाथ में दो आदेश-पत्र सौंप दिए जाते हैं. मूल जेल से कैदी को ले जाने और जिस जेल में कैदी को रखा जाना है वहां का आदेश पत्र एस्कॉर्ट टीम के पास रहता है. ये दोनों आदेश-पत्र सम्बन्धित जेल अधिकारियों को सौंपे जाने के बाद ही कैदी की जेल में आमद की औपचारिकता पूरी की जाती है. मुन्ना बजरंगी को बागपत ले जाने वाली एस्कॉर्ट टीम के पास यह आदेश-पत्र नहीं था. लिहाजा, मुन्ना बजरंगी को लेकर गए एंबुलेंस एवं अन्य वाहनों को बागपत पुलिस लाइन की तरफ मोड़ा गया. रास्ते में ही एस्कॉर्ट के पास एक फोन आया और वाहनों को बागपत जेल की तरफ मोड़ दिया गया. बागपत जेल गेट पर ड्यूटी दे रहे अधिकारियों और जेल कर्मियों ने मुन्ना बजरंगी को रात के साढ़े नौ बजे लाने पर जेल में आमद का आदेश पत्र मांगा. एस्कॉर्ट के पास ऐसा कोई आदेश पत्र नहीं था. मुन्ना बजरंगी को लेकर आया एम्बुलेंस वाहन, अन्य गाड़ियां और एस्कॉर्ट टीम बागपत जेल के दरवाजे पर खड़ी रही. फिर फोन घनघनाना शुरू हो गया. शासन से लेकर प्रशासन तक, कई शीर्ष अधिकारियों ने जेल प्रशासन पर मुन्ना बजरंगी की जेल में आमद किए जाने का दबाव डाला. लेकिन आमद के आदेश-पत्र का मसला फंसा था. आखिरकार जेलर उदय प्रताप सिंह ने रास्ता निकाला. डीआईजी जेल का एक पुराना आदेश पत्र निकाला गया जो कुछ महीने पहले मुन्ना बजरंगी को पेशी के लिए बागपत जेल में रखे जाने से सम्बन्धित था. बागपत जेल प्रशासन ने इसी पुराने आदेश पर मुन्ना बजरंगी की जेल में इंट्री कराई. मुन्ना की हत्या होने के बाद इन्हीं जेल अधिकारियों और कर्मचारियों पर कर्तव्य में लापरवाही बरतने का आरोप मढ़ कर उन्हें सस्पेंड कर दिया गया. निलंबित होने वालों में बागपत जेल के जेलर उदय प्रताप सिंह, डिप्टी जेलर शिवाजी यादव, जेल हेडवार्डर अरजेंदर सिंह और बैरक के प्रभारी जेल वार्डर माधव कुमार शामिल हैं. इनमें जेलर की भूमिका संदेह के दायरे में है. जानकार कहते हैं कि जेलर जौनपुर का रहने वाला है और माफिया सरगना सह सांसद का पूर्व-परिचित है. खूबी यह भी है कि मुन्ना बजरंगी की हत्या की एफआईआर भी सस्पेंडेड जेलर उदय प्रताप सिंह ने ही दर्ज कराई. गृह विभाग के एक आला अधिकारी ने कहा कि जेल कर्मियों का निलंबन और अनुशासनिक कार्रवाई की बातें सब प्रायोजित प्रहसन का हिस्सा हैं. इसमें किसी के खिलाफ कुछ नहीं होने वाला है.
विडंबना यह है कि बागपत जेल में सुपरिंटेंडेंट का पद अर्से से खाली है, लेकिन सरकार को यह नहीं दिखता. गौतम बुद्ध नगर जेल के सुपरिंटेंडेंट विपिन मिश्र बागपत जेल के सुपरिंटेंडेंट का भी अतिरिक्त कार्यभार संभाल रहे हैं. ऐसी अराजकता की स्थिति बना कर रखना हत्या के उच्चस्तरीय षडयंत्रों की कामयाबी के लिए जरूरी होता है. जब मुन्ना बजरंगी को झांसी जेल से बागपत के लिए रवाना किया गया तब वहां सुपरिंटेंडेंट नहीं थे और जब बागपत जेल से मुन्ना बजरंगी को जिंदगी से रवाना किया गया तब वहां भी सुपरिंटेंडेंट नहीं थे. यह संयोग है या ‘योग’? मुन्ना बजरंगी हत्याकांड में ऐसे कई ‘योग’ आपको देखने को मिलेंगे. सरकार ने या प्रशासन ने अब तक यह भी नहीं बताया है कि मुन्ना बजरंगी का बायां हाथ कैसे टूटा? क्या पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में यह तथ्य दर्ज किया गया? जेल प्रशासन कहता है कि पोस्टमॉर्टम की वीडियो रिकॉर्डिंग कराई गई. क्या पोस्टमॉर्टम की वीडियो रिकॉर्डिंग में मुन्ना बजरंगी का बायां हाथ ताजा-ताजा टूटे होने का मामला शव-विच्छेदन के दौरान पकड़ में आया था या उसकी तरफ किसी ने ध्यान ही नहीं दिया? मुन्ना बजरंगी का बायां हाथ तोड़ा गया या गोली लगने से उसका हाथ टूटा, पोस्टमॉर्टम में यह बात सामने आनी चाहिए थी, लेकिन नहीं आई.
बागपत जेल में गोलीबारी की घटना सवेरे छह बजे हुई, लेकिन दोपहर तक मुन्ना बजरंगी की लाश जेल परिसर में ही पड़ी रही. शव को अस्पताल भेजने की जरूरत नहीं समझी गई. कारण पूछने पर जेल प्रशासन ने कहा कि जेल अस्पताल के डॉक्टर ने मुन्ना बजरंगी की मरने की पुष्टि कर दी थी, इसलिए अस्पताल नहीं भेजा गया. दोपहर दो बजे के बाद मुन्ना बजरंगी की बॉडी पोस्टमॉर्टम के लिए अस्पताल भेजी गई. लेकिन पोस्टमॉर्टम चार बजे शाम तक नहीं हुआ. बागपत के सीएमओ को औपचारिक सूचना भी काफी देर से भेजी गई. जिला प्रशासन के एक आला अधिकारी ने कहा कि यह विलंब जानबूझ कर किया जा रहा था ताकि देर शाम तक बॉडी रिलीज़ हो और उसी सीधे जौनपुर ले जाया जा सके. एफआईआर दर्ज कराने के लिए अड़ीं मुन्ना बजरंगी की पत्नी सीमा सिंह की तहरीर तब ली गई जब मुन्ना बजरंगी का शव लेकर जा रहा वाहन बागपत की सीमा पार कर एक्सप्रेस हाईवे टोल पर पहुंच गया. वहीं पर सीमा सिंह से तहरीर लिखवाई गई और एक पुलिस अधिकारी ने उसे रिसीव करने की औपचारिकता निभा कर उन्हें रवाना कर दिया.

पहले पीलीभीत जेल में निपटाने की साजिश थी
जेल विभाग के ही अधिकारी बताते हैं कि मुन्ना बजरंगी को निपटाने की साजिश लंबे अर्से से की जा रही थी. वर्ष 2017 में उसे पीलीभीत जेल इसी इरादे से ट्रांसफर किया गया था. झांसी से पीलीभीत जेल ट्रांसफर करने के पीछे शासन ने यह तर्क दिया था कि माफिया सरगना मुन्ना बजरंगी ने झांसी जेल में इतनी पकड़ बना ली है कि वह जेल से अपना धंधा फैला रहा है. इसी पर अंकुश लगाने के लिए उसे पीलीभीत भेजा गया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की इस कोशिश पर पानी फेर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने मुन्ना बजरंगी को झांसी से पीलीभीत जेल शिफ्ट करने के यूपी सरकार के आदेश को गलत और गैर-वाजिब बताया और उसे तत्काल प्रभाव से वापस झांसी जेल ले जाने का आदेश दिया था.

लोकेश से ‘डील’ कर निकाला बागपत का रास्ता
पीलीभीत ‘प्लॉट’ में नाकामी मिलने के बाद मुन्ना बजरंगी को किसी भी तरह बागपत जेल भेजने का बहाना तलाशा जा रहा था. इसके लिए पूर्व बसपा विधायक लोकेश दीक्षित का साथ मिल गया. मुन्ना के खिलाफ बागपत में रंगदारी की पहले भी एक एफआईआर हुई थी लेकिन वो खारिज हो गई थी. अब ऐसे व्यक्ति की तलाश की जा रही थी जो मामला दर्ज करने के साथ-साथ अदालत में लंबे समय तक स्टैंड कर सके. पूर्व विधायक लोकेश दीक्षित के जरिए मुन्ना बजरंगी के खिलाफ रंगदारी के लिए धमकी दिए जाने का मामला सितम्बर 2017 में दर्ज करा दिया गया. मुकदमे में कहा गया कि फोन पर किसी ने मुन्ना बजरंगी के नाम पर लोकेश दीक्षित से रंगदारी टैक्स मांगा था. बस षडयंत्र के प्लॉट को इतना ही बहाना चाहिए था. टेलीफोन पर दी गई धमकी की अंदरूनी जांच कराने की भी जरूरत नहीं समझी गई और मुन्ना बजरंगी की बागपत में पेशी का डेथ-वारंट जारी हो गया. वर्ष 2016-17 के आयकर-रिटर्न के मुताबिक जिस पूर्व विधायक लोकेश दीक्षित की आय चार लाख 24 हजार 940 रुपए हो, उससे मुन्ना बजरंगी जैसे कुख्यात अपराधी सरगना द्वारा रंगदारी टैक्स मांगने का आरोप किस तरह के षडयंत्र का हिस्सा है, यह स्पष्ट है. लोकेश दीक्षित से हुई ‘डील’ के 2019 के पहले उजागर होने तक इस मामले पर रहस्य बना रहेगा. हालांकि इस ‘डील’ की भनक बसपा सुप्रीमो मायावती को लग गई और उन्होंने लोकेश दीक्षित को पार्टी से निकाल बाहर किया.

फोन डिसकनेक्टेड, कॉन्सपिरैसी कनेक्टेड
झांसी जेल के डॉक्टर और मुन्ना बजरंगी के वकील अनुज यादव की बातचीत का ऑडियो रिकॉर्ड सुनें तो बागपत ले जाकर मुन्ना बजरंगी को मार डालने की साजिश का साफ-साफ अंदाजा मिलेगा. मुन्ना बजरंगी को बागपत ले जाए जाने के पहले जेल डॉक्टर और वकील के बीच हुई टेलीफोनिक बातचीत का प्रासंगिक हिस्सा यहां हूबहू प्रस्तुत है... वकील- क्या स्टेटस है उनके हेल्थ का? डॉक्टर- बीपी बढ़ा चल रहा है. हम दवा दे रहे हैं. इंजेक्शन दिया है, दवा भी दी है, लेकिन बीपी कम नहीं हो रहा है. वकील- ऐसी स्थिति में क्या उनके मूवमेंट की स्थिति है? डॉक्टर- नहीं, उन्हें देखने के लिए जितने भी डॉक्टर आए हैं, सबने उन्हें आईसीयू में एडमिट कराने की सलाह दी है. वकील- लेकिन मरीज जिंदा रहेगा तब तो उसका इलाज होगा! हम यह चाहते हैं कि जेल के अस्पताल में ही मुन्ना बजरंगी का इलाज हो. उन्होंने भी ऐसा ही लिख कर दे दिया है. फिर उन्हें बाहर क्यों भेजा जा रहा है... इसका कोई जवाब आए उसके पहले ही फोन लाइन डिसकनेक्ट हो जाता है.

राठी, पिस्तौल, धनंजय, मुख्तार और फोन
मुन्ना बजरंगी की हत्या में सुनील राठी का नाम लिए जाने से पूरब और पश्चिम का एक नया आपराधिक-राजनीतिक समीकरण सामने आया. सुनील का नाम लेकर कहा गया कि पिस्तौल मुन्ना बजरंगी के हाथ में थी, जिसे छीन कर उसने गोली मार दी. फिर पिस्तौल को लेकर एक जेलकर्मी का बयान आया कि रात में टिफिन में रख कर पिस्तौल भेजी गई. एक जेल अधिकारी ने कहा कि यह नहीं पता चल पाया कि वह टिफिन मुन्ना बजरंगी के लिए आया था या सुनील राठी के लिए. जेल अधिकारी को यह पता था कि पिस्तौल टिफिन में छिपा कर पहुंचाई गई, लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि टिफिन किस कैदी के लिए आया था. मुन्ना बजरंगी की बागपत जेल में आमद साढ़े नौ बजे रात के बाद हुई. फिर देर रात में टिफिन किसके लिए भेजा गया था? टिफिन का खाना किस कैदी के लिए गया? यह चेक किए बगैर कैसे पता चला कि टिफिन में पिस्तौल छुपा कर रखी गई थी? सब बकवास है. जेल के ही जानकार बताते हैं कि जब हत्या का ‘प्लॉट’ सत्ता के उच्चस्तर से हो रहा हो तो पिस्तौल पहुंचना कौन सी बड़ी बात है! अभी यह भी तो पता चले कि मुन्ना बजरंगी को गोली किसने मारी? ऑपरेशन पूरा करने में कितने लोग अंदर भेजे गए थे और वे कौन थे? जिस सुनील राठी को इस हत्या प्रकरण में आगे लाया गया, वह कभी मुन्ना बजरंगी का दोस्त था. पूरब और पश्चिम में दोनों के गिरोह आपसी समझदारी से अपराध किया करते थे. संजीव माहेश्वरी जीवा और रविप्रकाश के जरिए सुनील ने मुन्ना बजरंगी से दोस्ती गांठी थी और मुख्तार अंसारी के गिरोह से भी जुड़ गया था. आखिर ऐसा क्या हुआ कि मुन्ना बजरंगी की हत्या में राठी का इस्तेमाल किया गया? जौनपुर के पूर्व सांसद धनंजय सिंह के जेल जाकर राठी से दो-दो बार मिलने और मुख्तार अंसारी के साथ लगातार संवाद में रहने को भी मुन्ना बजरंगी की हत्या से जोड़ कर देखा जा रहा है. एसटीएफ के एक जानकार अफसर ने कहा कि मुख्तार अंसारी को यह भी संदेह था कि कृष्णानंद राय की हत्या के मामले में मुन्ना बजरंगी कहीं सरकारी गवाह बन कर उसका खेल न बिगाड़ दे. मुन्ना बजरंगी पर बागपत जेल में हुई गोलीबारी के ठीक पहले राठी के पास किस व्यक्ति का फोन आया था? यह फोन टास्क पूरा करने के लिए तो नहीं आया था? फोन कहां गायब हो गया? जब पिस्तौल बरामद हो गई तो फोन बरामद क्यों नहीं हुआ? यह सवाल उस संदेह को पुख्ता करता है कि जो पिस्तौल बरामद दिखाई गई वह असली नहीं है. जिस तरह फोन गायब हो गया उसी तरह हत्या में इस्तेमाल हथियार भी गायब कर दिया गया.

जब बीच सड़क पर लिखवाई गई सीमा सिंह की तहरीर
जब मुन्ना बजरंगी की हत्या का मामला दो अपराधियों के बीच शूट-आउट का मामला था तो पुलिस प्रशासन मुन्ना की पत्नी सीमा सिंह की तहरीर पर एफआईआर क्यों नहीं दर्ज कर रहा था? बागपत पुलिस बार-बार सीमा सिंह की मांग टालती रही. पोस्टमॉर्टम गृह (मॉर्चुरी) पर मौजूद सीमा सिंह से कहा गया कि पोस्टमॉर्टम के बाद खेकड़ा थाने में उनकी एफआईआर दर्ज कर ली जाएगी. लेकिन पोस्टमॉर्टम के बाद जब शव लेकर एंबुलेंस वाहन चला तो रुकने का नाम ही नहीं लिया. रास्ते में भी पुलिस ने कहा कि खेकड़ा थाने पर एफआईआर लिखी जाएगी. लेकिन वाहन चलते रहे, आखिरकार जब एक्सप्रेस हाइवे आ गया और बागपत बॉर्डर पीछे छूट गया तब दूसरी एक गाड़ी ने ओवरटेक करके एम्बुलेंस को जबरन रोका और परिजनों ने रास्ता जाम कर दिया. आखिरकार सड़क पर ही सीमा सिंह की तरफ से एडवोकेट विकास श्रीवास्तव ने तहरीर लिखी. रामानंद कुशवाहा नामके एक पुलिस अधिकारी ने तहरीर रिसीव करने की औपचारिकता निभाई और उन्हें रवाना कर दिया.
मुन्ना बजरंगी की पत्नी ने तहरीर में यह आरोप लगाया है कि उनके पति की हत्या के षडयंत्र में जौनपुर के पूर्व सांसद धनंजय सिंह, उनके साथी प्रदीप सिंह उर्फ पीके, रिटायर्ड डीएसपी जीएस सिंह और सहयोगी राजा शामिल हैं. इन आरोपियों ने ही उनके भाई पुष्पजीत सिंह और पति के मित्र ताहिर की कुछ अर्सा पहले लखनऊ में हत्या कराई थी. इसके पहले सीमा सिंह ने एसटीएफ कानपुर में तैनात इंस्पेक्टर घनश्याम यादव के भी षडयंत्र में शामिल होने का सार्वजनिक आरोप लगाया था, जिसने झांसी जेल में मुन्ना बजरंगी को खाने में जहर देने की कोशिश की थी.

बजरंगी ने ली थी आर्म्स डीलर को मारने की सुपारी
समय समय की बात है. अपराधी सरगना मुन्ना बजरंगी ने आर्म्स डीलर अभिषेक वर्मा को तिहाड़ जेल में ही निपटाने की सुपारी ली थी. तब मुन्ना भी तिहाड़ जेल में बंद था और बहुचर्चित आर्म्स-डील घोटाला मामले में अंतरराष्ट्रीय आर्म्स डीलर अभिषेक वर्मा और उसकी रोमानियाई पत्नी आन्का मारिया वर्मा भी तिहाड़ जेल में कैद थी. ‘चौथी दुनिया’ ने पिछले साल अगस्त के पहले हफ्ते में इसे उजागर किया था. रक्षा सौदे से जुड़े आर्म्स डीलर और दलालों द्वारा आपसी प्रतिद्वंद्विता में एक दूसरे को निपटाने के लिए उत्तर प्रदेश के माफिया सरगना को सुपारी दिए जाने का यह पहला मामला था. ‘चौथी दुनिया’ ने मुन्ना बजरंगी के हाथ का लिखा वह पत्र भी छापा था, जो उसने आर्म्स डीलर के बारे में लिखी थी. यह एक अजीबोगरीब खुलासा था कि रक्षा सौदे से जुड़े आर्म्स डीलरों, दलालों और उनके मददगार नौकरशाहों ने ‘रोड़े हटाने के लिए’ दाऊद इब्राहीम के भाई अनीस इब्राहीम तक को ‘ठेका’ दिया था. इसमें आर्म्स डीलर अभिषेक वर्मा को रास्ते से हटाने का ठेका मुन्ना बजरंगी को मिला था. सुपारी-प्रकरण में बड़े आर्म्स डीलरों, नेताओं और नौकरशाहों के नाम आए थे, लेकिन सीबीआई में मामला दब गया. सीबीआई के कई अधिकारी भी ‘आर्म्स डीलर नेक्सस’ से जुड़े थे. सरकारी गवाह बनने के बाद अभिषेक वर्मा ने जिन अधिकारियों और दलालों की संदेहास्पद भूमिका के बारे में लिखित जानकारी दी थी, उसे सीबीआई ने ‘संदर्भित नहीं’ बता कर दबा दिया. सीबीआई के तत्कालीन संयुक्त निदेशक ओपी गलहोत्रा ने इस बात की पुष्टि की थी कि सरकारी गवाह और उसकी पत्नी को जान से मारने धमकियां दी जा रही हैं. इस बारे में उनका और दिल्ली के पुलिस कमिश्नर के बीच आधिकारिक संवाद भी हुआ था. फिर तिहाड़ जेल में वर्मा दम्पति की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम किया गया. लेकिन इसकी जांच ठंडे बस्ते में डाल दी गई. प्रवर्तन निदेशालय के डिप्टी डायरेक्टर रहे अशोक अग्रवाल, सीबीआई के एसएसपी रमनीश गीर और इंसपेक्टर राजेश सोलंकी के नाम इस प्रसंग में सामने आए और सरकारी गवाह को धमकी देने के साथ-साथ रक्षा सौदा मामले को दूसरी दिशा में मोड़ने की कोशिशें करने की शिकायतें भी हुईं, लेकिन सीबीआई ने उसे अपनी जांच की परिधि में नहीं रखा. हालांकि गृह मंत्रालय ने इस शिकायत को गंभीरता से लेते हुए केंद्रीय सतर्कता आयोग को जरूरी कार्रवाई करने को कहा था. सीबीआई के तत्कालीन संयुक्त निदेशक (पॉलिसी) जावीद अहमद के समक्ष भी यह मामला पहुंचा, लेकिन उन्होंने भी इसकी जांच कराने के बजाय इसे टाल देना ही बेहतर समझा.
उल्लेखनीय है कि तिहाड़ जेल प्रबंधन के हस्तक्षेप पर दिल्ली के लोधी रोड थाने में एफआईआर दर्ज हुई थी. उस एफआईआर में यह तथ्य दर्ज है कि दलाल विक्की चौधरी और ईडी के आला अफसर अशोक अग्रवाल ने ‘कॉन्ट्रैक्ट-किलर’ मुन्ना बजरंगी को सुपारी दी है. सुपारी मसले पर तो कुछ नहीं हुआ, बस मुन्ना बजरंगी को तिहाड़ जेल से हटा कर पहले सुल्तानपुर जेल और फिर झांसी जेल शिफ्ट कर दिया गया. मुन्ना बजरंगी को झांसी से पीलीभीत जेल ट्रांसफर किया गया, लेकिन उसने सुप्रीम कोर्ट से अपना ट्रांसफर रुकवा लिया. मुन्ना बजरंगी की पत्नी सीमा सिंह ने अपना दल (कृष्णा पटेल) और पीस पार्टी के साझा उम्मीदवार के बतौर मड़ियाहू विधानसभा सीट से 2017 में चुनाव लड़ा, लेकिन हार गईं. कई गंभीर मामलों से धीरे-धीरे बरी होते जा रहे मुन्ना बजरंगी की भविष्य में राजनीतिक क्षेत्र में होने वाली आमद एक साथ कई महारथियों को परेशान कर रही थी.

Friday 13 July 2018

प्रधानमंत्री मोदी सरकार की साख खतरे में; मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी कठघरे में...

प्रभात रंजन दीन 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साफगोई और पारदर्शिता के हिमायती होने का दावा करते हैं. मोदी मंत्रिमंडल के जितने भी सदस्य हैं, उनके लिए भी देश के लोग यही अपेक्षा रखते हैं कि वे भी ईमानदार, स्पष्टवादी और पारदर्शी हों. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री होने के साथ-साथ संसदीय कार्य राज्य मंत्री का दायित्व संभाल रहे मोदी सरकार के प्रमुख सदस्य मुख्तार अब्बास नकवी पर गंभीर आरोप लग रहे हैं, लेकिन इन आरोपों पर पारदर्शी तरीके से सामने आने के बजाय वे चुप्पी साधे हुए हैं. मुख्तार अब्बास नकवी पर जो आरोप लग रहे हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उससे अछूते नहीं हैं. आरोपों के छींटे मोदी सरकार को भी मटमैला कर रहे हैं और उनकी पारदर्शिता को गहरे सवालों के घेरे में ले रहे हैं. कथनी और करनी का फर्क देश के आम लोगों को खल रहा है.
काला धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे लगा कर ही नरेंद्र मोदी सत्ता तक पहुंचे. अगर वही काला धन भाजपा सरकार के चेहरे पर चस्पा हो जाए तो पूर्व और वर्तमान में क्या फर्क रह जाएगा! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनके अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने जनता के सामने आकर कभी यह सफाई देने की जरूरत नहीं समझी कि जिस गैर-राष्ट्रीयकृत बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक पर मनी लॉन्ड्रिंग और धोखाधड़ी के गंभीर मामले चल रहे हों, ऐसे विवादास्पद बैंक से उनके सीधे तौर पर जुड़े होने का कारण क्या है? इस बैंक पर भारतीय रिजर्व बैंक जुर्माना ठोक चुका है और सख्त कानूनी कार्रवाई की सिफारिशें कर चुका है. ऐसे बैंक पर केंद्र सरकार की इतनी कृपादृष्टि क्यों है कि अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय से जुड़े महत्वपूर्ण महकमों के सैकड़ों करोड़ रुपए राष्ट्रीयकृत बैंक से निकाल कर इस गैर-राष्ट्रीयकृत बैंक में डाल दिए गए? ‘चौथी दुनिया’ने इस सिलसिले में पांच महत्वपूर्ण सवाल केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी के ‘व्हाट्सएप’ पर भेज कर उनसे जवाब मांगा था. केंद्रीय मंत्री ने उन सवालों पर कुछ कहने के बजाय इस संवाददाता से ही बड़ी सदाशयता से पूछा, ‘हू आर यू डियर’ (तुम कौन हो प्रिय). इस संवाददाता ने उन्हें फिर अपना परिचय भेजा और उनसे ‘वर्जन’ देने का विनम्र आग्रह किया, लेकिन उसके बाद उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया. जो पांच सवाल मुख्तार अब्बास नकवी से पूछे गए थे, उन पर विस्तार से चर्चा होगी, लेकिन उसके पहले यह बता दें कि इस प्रसंग से जुड़े कुछ अहम सवाल बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक के चेयरमैन जीशान मेंहदी के ‘व्हाट्सएप’ पर भी भेजे गए थे, उन्होंने सवाल पढ़े, लेकिन जवाब देना उचित नहीं समझा.
केंद्र में अल्पसंख्यक कार्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी से ‘चौथी दुनिया’ ने जो पांच सवाल पूछे थे, वे ये हैं :-
1. मौलाना आजाद एडुकेशनल फाउंडेशन का कितना फंड बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक में जमा कराया गया?
2. राष्ट्रीयकृत बैंक एसबीआई में जमा फाउंडेशन का पैसा किनके निर्देश पर बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक में ट्रांसफर हुआ?
3. क्या यह सही है कि हज कमेटी और नेशनल वक्फ डेवलपमेंट कॉरपोरेशन का धन भी बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक के मुंबई ब्रांच में जमा है?
4. क्या आपने दिल्ली के मयूर विहार में ‘विज्ञापन लोक’ अपार्टमेंट का फ्लैट और स्टार मॉल की दुकानें बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक या उससे जुड़े किसी महत्वपूर्ण शख्स को किराए पर दे रखी हैं?
5. क्या आप कभी अपने नाम के साथ उर्फ के बतौर मानवेंद्र सिंह उर्फ मानू भी लिखते हैं?
पहले तो इन्हीं पांच सवालों के विस्तार पर आते हैं. इस प्रसंग से जुड़े कई और सवाल हैं, जो अखबार के जरिए हम केंद्र सरकार और केंद्रीय मंत्री के समक्ष रखेंगे, ताकि उन पर जवाब देने में सुविधा हो सके. आपको यह पता ही है कि मौलाना आजाद एडुकेशनल फाउंडेशन केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के तहत अल्पसंख्यक छात्रों की शिक्षा-दीक्षा के लिए विभिन्न स्तर पर आर्थिक मदद देने वाली देश की सबसे बड़ी सरकारी संस्था है. फाउंडेशन की स्थापना वर्ष 1989 में हुई थी. फाउंडेशन की समग्र-निधि (कॉरपस फंड) जो वर्ष 2006-7 में महज सौ करोड़ थी वह आज साढ़े बारह सौ करोड़ रुपए से अधिक है. सरकारी धन राष्ट्रीयकृत बैंक में रखने के नियम को ताक पर रख कर मौलाना आजाद एडुकेशनल फाउंडेशन के सैकड़ों करोड़ रुपए गैर-राष्ट्रीयकृत बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक में डाइवर्ट कर दिए गए. केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी से यह सवाल पूछा गया था, ताकि इस मसले पर आधिकारिक जानकारी सामने आ सके. लेकिन उनका जवाब नहीं मिला. ‘चौथी दुनिया’ को यह जानकारी मिली है कि बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक की दिल्ली के दरियागंज स्थित शाखा में जनवरी 2017 को मौलाना आजाद एडुकेशनल फाउंडेशन के सैकड़ों करोड़ रुपए ट्रांसफर किए गए. स्वाभाविक है कि फाउंडेशन के अध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी के आदेश पर ही फाउंडेशन का धन बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक में जमा हुआ होगा, लेकिन मंत्री ने इस पर कोई रौशनी नहीं डाली. इसी तरह नेशनल वक्फ डेवलपमेंट कॉरपोरेशन और हज कमेटी के भी करोड़ों रुपए बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक में जमा हैं. ये सारी संस्थाएं अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के तहत ही आती हैं, जिसके मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी हैं. लिहाजा, सवालों का जवाब देने का नैतिक दायित्व मंत्री का है और उनके जवाब नहीं देने पर यह दायित्व प्रधानमंत्री का हो जाता है.
मुख्तार अब्बास नकवी और उनकी पत्नी सीमा नकवी के दो आलीशान फ्लैट मयूर विहार के ‘विज्ञापन-लोक’ अपार्टमेंट में हैं. इन फ्लैट्स के अलावा मयूर विहार में ही स्टार-मॉल में मुख्तार अब्बास नकवी की तीन दुकानें हैं. विचित्र संयोग यह है कि नकवी ने मयूर विहार का फ्लैट और स्टार-मॉल की दुकानें भी बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक को ही लाखों रुपए के किराए पर दे रखी हैं. बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक को दिए गए फ्लैट और दुकान के किराए का लेनदेन मुख्तार अब्बास नकवी की पत्नी सीमा नकवी देखती-संभालती हैं. ‘चौथी दुनिया’ ने केंद्रीय मंत्री से इस बारे में भी पूछा था, लेकिन उनका जवाब नहीं आया. मुख्तार अब्बास नकवी ने इस सवाल का जवाब भी नहीं दिया कि क्या वे कभी अपने नाम के साथ मानवेंद्र सिंह उर्फ मानू नाम भी लिखते हैं? सेंट्रल वक्फ काउंसिल के सदस्य डॉ. सैयद एजाज अब्बास नकवी का एक पत्र देखने को मिला जो उन्होंने 17 अगस्त 2017 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखा था. उस पत्र के जरिए उन्होंने मुंबई के जैनबिया वक्फ ट्रस्ट की जमीनों को केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी के गुर्गों द्वारा अवैध तरीके से बेचे जाने की गतिविधियों को रोकने का प्रधानमंत्री से आग्रह किया था. उस पत्र में मुख्तार अब्बास नकवी के नाम के साथ उर्फ में मानवेंद्र सिंह उर्फ मानू नाम भी लिखा था. ‘चौथी दुनिया’ के सवाल पर मंत्री का जवाब नहीं आने के बाद इस संवाददाता ने डॉ. सैयद एजाज अब्बास नकवी से फोन पर सम्पर्क साधा. उन्होंने कहा कि जिस वक्त उन्होंने प्रधानमंत्री को खत लिखा था, उस समय वे सेंट्रल वक्फ काउंसिल के सदस्य हुआ करते थे. इसके बावजूद वे जैनबिया वक्फ ट्रस्ट की सम्पत्ति बेचे जाने का गोरखधंधा रोकने में नाकाम रहे, क्योंकि यह गोरखधंधा खुद केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी की शह पर हो रहा था. इसके बाद ही उन्होंने पीएम को चिट्‌ठी लिखी. मुख्तार अब्बास नकवी के नाम के साथ मानवेंद्र सिंह लिखे जाने की वजह पूछे जाने पर डॉ. एजाज ने बताया कि मुख्तार अब्बास नकवी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन सर-संघचालक रज्जू भैया की भतीजी सीमा से तीन जून 1983 को इलाहाबाद के आर्य समाज मंदिर में हिंदू के रूप में हिंदू विधि-विधान से शादी की थी. उसमें उन्होंने खुद को मानवेंद्र सिंह चौधरी उर्फ मानू बताया था. अगले दिन यानि चार जून 1983 को उन्होंने इलाहाबाद में ही सीमा के साथ निकाह किया. यह मुख्तार अब्बास नकवी का व्यक्तिगत प्रसंग है, लेकिन नाम को लेकर बने भ्रम को यह प्रसंग दूर करता है.
कई और सवाल हैं, जो मोदी सरकार को नैतिकता के तकाजे पर कठघरे में खड़ा करते हैं. नोटबंदी के दरम्यान प्रतिबंधित नोटों का लेनदेन तकरीबन सारे राष्ट्रीयकृत बैंकों के जरिए खूब हुआ. बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक की भी इसमें काफी सक्रिय हिस्सेदारी रही. बैंक के एक अधिकारी बताते हैं कि नवम्बर 2016 में प्रतिबंधित नोटों का हेवी-ट्रांजैक्शन हुआ. बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक की एक शेयरधारक राजश्री भटनागर ने केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी को पत्र लिख कर सूचित किया था कि नोटबंदी के दौरन बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक ने पुराने नोट बदलने का धंधा खूब किया. दो करोड़ रुपए के पुराने नोट बदले जाने के एक खास प्रसंग का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा कि इसे मुख्तार अब्बास नकवी का धन बताया जा रहा है जिससे उनकी छवि खराब हो रही है. बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक की दरियागंज शाखा में करीब दस करोड़ रुपए बेनामी पड़े हैं. इसके बारे में भी खुलासा होना चाहिए कि वह धन आखिर किसका है. बैंक के चेयरमैन जीशान मेहंदी के पास भी ‘चौथी दुनिया’ ने जरूरी सवाल भेजे थे, लेकिन उन्होंने जब ‘नामी’ सवालों के जवाब नहीं दिए तो करोड़ों के बेनामी धन के बारे में क्या जवाब देंगे!
आम लोगों के मन में बिल्कुल स्वाभाविक सवाल उठते हैं कि इतने विवादास्पद बैंक पर केंद्र सरकार इतनी मेहरबान क्यों है? केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी इस बैंक को संरक्षण क्यों दे रहे हैं? भाजपा के कई और कद्दावर नेता इस बैंक के सरपरस्त क्यों बने बैठे हैं? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार के इस संरक्षणवाद को बढ़ावा क्यों दे रहे हैं? केंद्र सरकार यह नहीं कह सकती कि उसे बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक की गैर-कानूनी गतिविधियों के बारे में जानकारी नहीं है. भारतीय रिजर्व बैंक ने माना है कि बैंक के चेयरमैन जीशान मेंहदी और प्रबंध निदेशक शाहनवाज आलम ने करोड़ों के घपले किए हैं. रिजर्व बैंक बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक पर 75 लाख रुपए का जुर्माना भी ठोक चुका है और सेंट्रल रजिस्ट्रार को-ऑपरेटिव्स को आगे की कार्रवाई के लिए लिखा है. क्या केंद्र को इसकी जानकारी नहीं? पंजाब नेशनल बैंक और केनरा बैंक ने भी बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक के चेयरमैन जीशान मेंहदी, प्रबंध निदेशक शाह आलम खान और निदेशक सलाउद्दीन रज़मी के खिलाफ आपराधिक षडयंत्र रचने, धोखाधड़ी करने और आपराधिक दुर्व्यवहार (क्रिमिनल मिसकंडक्ट) का मुकदमा कर रखा है.
ऐसे बैंक के जरिए अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय वित्तीय कामकाज कैसे और क्यों कर रहा है, यह बड़ा सवाल है. ‘चौथी दुनिया’ ने हज कमेटी का धन बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक में जमा करने के बारे में केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी से सवाल पूछा, लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया. लेकिन ऐसे तथ्य सामने हैं, जो मंत्री से पूछे गए सवाल का जवाब देते हैं. हज यात्रा का सारा विदेशी मुद्रा का लेनदेन बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक के जरिए हो रहा है. तमाम राष्ट्रीयकृत बैंकों के होते हुए सरकार ने हज यात्रा के विदेशी-मुद्रा प्रबंधन से गैर-राष्ट्रीयकृत बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक को क्यों जोड़ा? इस सवाल का जवाब परिस्थितिजन्य तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है. इन्हीं तथ्यों में ‘फॉरेन-फंडिंग’ का घनघोर विवादास्पद मामला भी जाकर जुड़ जाता है. केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद विदेशों से आने वाले धन (फॉरेन-फंडिंग) के बेजा इस्तेमाल का मुद्दा जोर-शोर से उठाया गया था. हजारों गैर सरकारी सामाजिक संस्थाओं (एनजीओ) को विदेशों से मिलने वाला धन रोका गया और इसके लिए केंद्र ने देशभर के 32 बैंकों को चौकसी बरतने की संवेदनशील जिम्मेदारी सौंपी. आप हैरत करेंगे कि ‘फॉरेन-फंडिंग’ के बेजा इस्तेमाल पर चौकसी रखने की जिम्मेदारी बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक जैसे बेजा बैंक को भी दी गई. विदेश से फंडिंग पाने वाली तमाम संस्थाएं और कंपनियां केंद्र सरकार के आदेश से बाध्य होकर बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक में विदेशी मुद्रा की आमदनी वाला खाता खुलवाने के लिए विवश हैं. बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक जैसे घोटालेबाज बैंक को 32 बैंकों में शुमार करना केंद्र सरकार की अत्यंत घटिया स्तर की ईमानदारी, पारदर्शिता और राष्ट्रधर्मिता की सनद है. केंद्र सरकार ने ‘फॉरेन फंडिग’ प्राप्त करने वाले 18,868 एनजीओ के रजिस्ट्रेशन तो रद्द कर दिए, लेकिन मुद्रा का बेजा धंधा करने वाले बैंक के लिए विदेशी फंडिंग का खाता खुलवा दिया. ऐसा करके केंद्र सरकार ने ‘फॉरेन फंडिग’ पाने वाली संदेहास्पद संस्थाओं, एजेंसियों और लोगों को धंधा जारी रखने का परोक्ष मौका दे दिया.

अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय है या खाला जी का घर!
अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के तहत आने वाले अर्थ-सम्पन्न महकमों को जेबी संस्था बना कर रख दिया गया है. मौलाना आजाद एडुकेशनल फाउंडेशन हो या सेंट्रल वक्फ काउंसिल, हज कमेटी हो या नेशनल वक्फ डेवलपमेंट कॉरपोरेशन या नेशनल माइनॉरिटी डेवलपमेंट कॉरपोरेशन; अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए बने इन सभी महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की मर्यादा तार-तार हो रही है. लेकिन इस पर कोई ध्यान देने वाला नहीं है. अल्पसंख्यक कार्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी जिसे चाहते हैं उसे फाउंडेशन, कमेटी या काउंसिल में सदस्य बनाते हैं और जिसे चाहते हैं उसे बाहर का दरवाजा दिखा देते हैं. लखनऊ के रहने वाले इम्तियाज आलम को मुख्तार अब्बास नकवी ने फाउंडेशन का सदस्य बनाया और उससे भी उनका मन नहीं भरा तो उन्हें सेंट्रल वक्फ काउंसिल का सदस्य बनाने का उपक्रम कर रहे हैं. मुख्तार ने अपने नजदीकी शाकिर हुसैन अंसारी को मौलाना आजाद एडुकेशनल फाउंडेशन का कोषाध्यक्ष बना रखा है. मुख्तार अब्बास नकवी के बचपन के दोस्त इलाहाबाद के हसन बकर काजमी उर्फ शाहीन काजमी को भी फाउंडेशन का सदस्य बनाने की तैयारी है. शाहीन काजमी पहले से हज कमेटी के सदस्य भी हैं. इसके अलावा काजमी केंद्र सरकार के हैंडलूम बोर्ड, नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज और इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के भी सदस्य बने बैठे हैं. बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक के गोरखधंधे में शाहीन काजमी का इस्तेमाल होता है. इस बारे में ऑल इंडिया मुस्लिम काउंसिल ने सीबीआई में विस्तृत शिकायत दर्ज करा रखी है. शाहीन काजमी की खूबियां अनगिनत हैं. हज कमेटी में रहते हुए इस शख्स ने अपने परिवार के लगभग एक दर्जन सदस्यों को सरकारी पैसे से हज यात्रा करा दी. हज का पुण्य काजमी परिवार को मिला और धन सरकार के खाते से गया. गरीबों को हज यात्रा कराने के लिए निर्धारित फंड पर काजमी ने अपने भाई गौहर काजमी, बहन नीलोफर, बहनोई जिल्ले हसनैन समेत कई रिश्तेदारों को हज यात्रा कराई. यही नहीं, हसन बकर शाहीन काजमी ने सारे नियम-कानून ताक पर रख कर अपने भांजे आसिम को हज कमेटी में कम्प्यूटर ऑपरेटर के पद पर भर्ती भी कर लिया. ये सारी करतूतें केंद्र सरकार जानती है, पर कोई कार्रवाई नहीं करती.

जिस पर विजिलेंस का छापा, उसे ही बना दिया सेंट्रल वक्फ काउंसिल का सचिव
मोदी सरकार को ऐसा अधिकारी क्यों पसंद है जिसके खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हों, जिसने अकूत सम्पत्ति जमा कर रखी हो, छापे में जिसके घर और ठिकानों से भारी मात्रा में अवैध धन और अवैध सम्पत्तियों के ढेर सारे दस्तावेज बरामद हुए हों और जिसके खिलाफ विजिलेंस विभाग की गंभीर कार्रवाई चल रही हो? इन सारी पंक्तियों के तथ्यात्मक अर्थ हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल के सदस्य मुख्तार अब्बास नकवी से यह कभी नहीं पूछा कि उन्होंने गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी बीएम जमाल को सेंट्रल वक्फ काउंसिल का सचिव क्यों बना रखा है? गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपी को सेंट्रल वक्फ काउंसिल का सचिव नियुक्त किए जाने से जुड़ा सवाल क्या कोई कानूनी औचित्य नहीं रखता? इन सवालों पर केंद्र सरकार या केंद्रीय मंत्री की चुप्पी क्यों सधी है?
आप यह जान लें कि मुख्तार अब्बास नकवी ने 2017 में केरल से लाकर बीएम जमाल को सेंट्रल वक्फ काउंसिल के सचिव पद पर बिठाया. केरल सरकार के विजिलेंस महकमे की रिपोर्ट पढ़ें तो आपको मोदी सरकार के चारित्रिक विरोधाभास पर खुद झेंप होने लगेगी. कोझीकोड के विजिलेंस एंड एंटी करप्शन ब्यूरो के स्पेशल सेल के पुलिस अधीक्षक सुनील बाबू केलोथुमकांडी की तरफ से दर्ज एफआईआर सेंट्रल वक्फ काउंसिल के सेक्रेटरी और केरल वक्फ बोर्ड के पूर्व चीफ एक्जेक्यूटिव अफसर बीएम जमाल के भ्रष्टाचार की करतूतों का पर्दाफाश करती हैं. उसी भ्रष्ट अधिकारी को केंद्र सरकार ने केरल से लाकर सेंट्रल वक्फ काउंसिल का सचिव बना दिया. सेंट्रल वक्फ काउंसिल का सचिव पद बहुत महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित पद माना जाता है. इस पद पर आम तौर पर आईएएस अफसर या दिल्ली स्पेशल सर्विसेज़ के ‘ए’ ग्रेड अधिकारी नियुक्तहोते रहे हैं. इस नियम और मर्यादा का पालन करने के बजाय गंभीर भ्रष्टाचार के मामले में घिरे केरल वक्फ बोर्ड के पूर्व सीईओ पेशेवर वकील बीएम जमाल की काउंसिल के सचिव पद पर नियुक्ति निस्संदेह गलत इरादों से की गई परिलक्षित होती है.
केरल सरकार के विजिलेंस विभाग की छानबीन में यह आधिकारिक पुष्टि हुई है कि केरल वक्फ बोर्ड एरनाकुलम के चीफ एक्जेक्यूटिव अफसर रहे बीएम जमाल ने वर्ष 2007 से वर्ष 2016 के बीच भीषण घोटाले किए. जमाल ने एक जनवरी 2007 से 31 अक्टूबर 2016 के बीच एक करोड़ 45 लाख 68 हजार 179 रुपए हड़पे. तलाशी के दौरान जमाल के पास से 14 लाख 57 हजार चार सौ रुपए बरामद किए गए थे. छानबीन में यह पाया गया कि जमाल की आय में 86 लाख 68 हजार 40 रुपए की आय पूरी तरह अवैध है. विजिलेंस की जांच में जमाल की 50 प्रतिशत से अधिक आय अवैध पाई गई. विजिलेंस की छानबीन में बीएम जमाल की अवैध चल सम्पत्ति के अलावा आलीशान अचल सम्पत्तियों के भी प्रमाण पाए गए. थिरुअनंतपुरम के विजिलेंस एवं एंटी करप्शन ब्यूरो के डायरेक्टर के आदेश (संख्या- ई-23 सीवी-22/2016/ एससीके/ 184/2018, दिनांक-08.02.2018) पर केरल वक्फ बोर्ड के सीईओ बीएम जमाल के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर कार्रवाई शुरू की गई थी.
विडंबना यह है कि केरल सरकार के विजिलेंस विभाग की कार्रवाई के दरम्यान ही केंद्र सरकार ने बीएम जमाल को सेंट्रल वक्फ काउंसिल का सचिव नियुक्त कर दिया. शर्मनाक तथ्य यह है कि सेंट्रल वक्फ काउंसिल का सचिव बनाए जाने के बाद भी केरल में बीएम जमाल के ठिकानों पर विजिलेंस की छापेमारियां जारी हैं. इसी साल फरवरी 2018 के आखिरी हफ्ते में बीएम जमाल के कसरगोड के तरावडु स्थित आलीशान कोठी पर कल्लीकोट स्पेशल विजिलेंस की टीम ने छापा मारा और सघन तलाशी ली थी. इस तलाशी में आय से अधिक सम्पत्ति के ढेर सारे कागजात जब्त किए गए. कसरगोड में विशाल भूखंड पर बनी बीएम जमाल की आलीशान कोठी समेत कई अन्य कोठियों को विजिलेंस विभाग ने आय से अधिक सम्पत्ति की सूची में दर्ज किया है. विचित्र किंतु सत्य यह है कि इन कानूनी कार्रवाइयों के बावजूद केंद्र सरकार की नैतिकता की खाल पर कोई असर नहीं पड़ रहा. केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक कार्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ऐसे भ्रष्ट सचिव के संरक्षक बने बैठे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी धृतराष्ट्र जैसे अभिभावक...

यह कैसा अल्पसंख्यक कल्याण है मंत्री जी!
मुख्तार अब्बास नकवी को अल्पसंख्यकों के कल्याण का काम करने के लिए अल्पसंख्यक कार्य मंत्री बनाया गया. लेकिन उनका काम व्यक्तिगत-कल्याण पर अधिक केंद्रित रहा. उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए 80 के दशक में स्थापित हुए अल्पसंख्यक वित्तीय विकास निगम को बंद करने का उपक्रम महज इसलिए हो रहा है कि निगम ने बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक में जमा दो करोड़ 67 लाख 60 हजार रुपए क्यों मांग लिए. बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक के चेयरमैन जीशान मेंहदी, मैनेजिंग डायरेक्टर एम शाह आलम खान, सहायक महाप्रबंधक बदरे आलम खान, बैंक के एफडी विभाग के प्रभारी अधिकारी तारिक सईद खान और लखनऊ शाखा के प्रभारी प्रबंधक नूर आलम के खिलाफ संगीन धाराओं में मुकदमा (संख्या-0142/2018) दर्ज कराने का खामियाजा अल्पसंख्यक वित्तीय विकास निगम को भुगतना पड़ रहा है. गंभीर वित्तीय संकट से निगम को उबारने के बजाय सरकार ने निगम का ‘ढक्कन’ बंद कर देने का ही फैसला ले लिया है. मोदी सरकार का अल्पसंख्यक प्रेम और इसके पीछे की वजहें बिल्कुल साफ हैं...

Friday 6 July 2018

मगहर को निगल जाना चाहते हैं भाजपा के अजगर...

प्रभात रंजन दीन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब मगहर गए तो आम लोगों, अखबार वालों और समाचार चैनल वालों का एक ही सवाल पूरी रफ्तार से उछल रहा था कि मोदी के कबीर प्रेम की राजनीति क्या है! कुछ मीडिया वालों ने तो राग-दरबारी में लिख भी दिया कि मोदी ने सियासत में सबको पीछे छोड़ दिया, कबीर के नाम पर दलितों और पिछड़ों को जोड़ लिया... वगैरह, वगैरह. लेकिन यह सब काल्पनिक आकाश पर पतंग उड़ाने जैसा है. नरेंद्र मोदी की सांसदी के कार्यकाल का यह आखिरी साल है. मोदी बनारस के सांसद हैं, जहां संत कबीर का जन्मस्थल लहरतारा है और उस स्थान पर विश्व प्रसिद्ध कबीर चौरा है. मोदी अपने पूरे कार्यकाल में एक बार भी न तो संत कबीर के लहरतारा प्राकट्य-स्थल पर गए और न कभी कबीर चौरा ‘मूल गादी’ की तरफ झांका. यह नरेंद्र मोदी के कबीर प्रेम की असलियत है. कबीर के निर्वाण स्थल मगहर जाने के पीछे भी मोदी का कोई कबीर प्रेम नहीं है, बल्कि इसके पीछे भाजपाई-विस्तारवाद का वह घातक तत्व है जो किसी भी स्थापना को अपने साम्राज्य के अधीन करने के लिए कुलबुलाता रहता है. मगहर को भाजपा के मगर चबा जाना चाहते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मगहर को चबा जाने के भाजपाई घात पर मुहर लगाने आए थे. मगहर में कबीर निर्वाण स्थली के लिए अलग से पांच सौ एकड़ जमीन औरंगजेब ने कबीर चौरा मूल गादी कोदी थी. यह जमीन कुछ भाजपाइयों को पच नहीं रही है. भाजपाइयों को यह समझ में नहीं आता कि कबीर ही एक ऐसा संत हुआ जिसने दोनों धर्मों की रेखा मिटा दी. जितने हिंदू कबीर को मानते हैं उतने ही मुसलमान कबीर को श्रद्धा देते हैं. मठ की अकूत सम्पत्ति पर भी भाजपा के मगरमच्छों की निगाह गड़ी हुई है.वे मगहर के साथ-साथ सहजनवां के बलुआ मंझरिया आश्रम और कृषि फार्म पर भी कब्जा करने का कुचक्र रच रहे हैं.
बात सुनने में थोड़ी कड़वी लगती है, लेकिन मगहर को लेकर जिस तरह का अमर्यादित और निकृष्ट  माहौल सृजित किया गया, उसे सुनेंगे तब लगेगा कि खबर में जिस भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है वह काफी नर्म और मर्यादित है. मगहर मठ पर कब्जा करने के उपक्रम में लगे भाजपा सांसद शरद त्रिपाठी काफी दिनों से मगहर में मोदी का कार्यक्रम आयोजित कराने पर लगे थे. कबीर पीठ और पीठाधीश के प्रति भाजपा सांसद जिन अमर्यादित और अनैतिक शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं, वह संत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को क्या समझ में नहीं आ रहा? एक संत के शासन में दूसरे संत के प्रति बदसलूकी भाजपा का असली चरित्र है. मोदी का मगहर कार्यक्रम देख कर जनता को लगा होगा कि यह आयोजन उत्तर प्रदेश सरकार के सौजन्य से हुआ, लेकिन वास्तविकता यह है कि कार्यक्रम की खिचड़ी पहले से कहीं और पक रही थी. इस खिचड़ी का स्वाद उन्हें भी समझ में आया जो प्रधानमंत्री की मगहर-सभा में मौजूद थे और भाजपा सांसद शरद त्रिपाठी को मोदी की तरफ से मिल रही अतिरिक्त और अवांछित तरजीह को गौर से देख रहे थे. सोची समझी रणनीति के तहत ही मगहर मठ के मुख्य नियंत्रक कबीर चौरा मूल गद्दी पीठाधीश संत विवेकदास आचार्य को इस कार्यक्रम से अलग रखा गया और सांसद ने उनके प्रति अपशब्दों का इस्तेमाल किया.देशभर के कबीर मठ कानूनन कबीर चौरा वाराणसी मूल गद्दी (मूल-गादी) के तहत आते हैं. कबीर चौरा के मुख्य महंत संत विवेकदास आचार्य हैं. कार्यक्रम के बारे में उन्हें औपचारिक सूचना तक नहीं भेजी गई. कबीर चौरा की तरफ से नियुक्त मगहर मठ के प्रबंधक विचारदास की भक्ति कबीर चौरा के बजाय भाजपा सांसद के प्रति है. मठ की सम्पत्ति को जालसाजी करके बेचने और जमीनें अपने नाम कराने के अपराध में विचारदास अभी हाल ही जेल काट कर आए हैं. विडंबना देखिए कि उसी विचारदास के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संत कबीर की समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हर्षित हो रहे थे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मगहर में आयोजित गैरकानूनी कार्यक्रम में शरीक होने आए थे और मगहर में चल रही गैरकानूनी गतिविधियों पर मुहर लगाने का अलोकतांत्रिक कृत्य कर रहे थे. प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का यह कैसा संचार-तंत्र है जिसने घोर विवादों में घिरे धार्मिक स्थल पर पीएम या सीएम को आने से नहीं रोका या आने से पहले उन्हें आगाह नहीं किया?आप किसी गलतफहमी में न रहें... प्रधानमंत्री कार्यालय को अभिसूचनाएं देने वाली इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) और मुख्यमंत्री कार्यालय को अभिसूचनाएं मुहैया कराने वाली लोकल इंटेलिजेंस यूनिट (एलआईयू), दोनों ने ही अपनी-अपनी जिम्मेदारी पूरी की थी. आईबी ने पीएम ऑफिस को और एलआईयू ने सीएम ऑफिस को इस बारे में पहले ही सारी सूचनाएं दे दी थीं. इन विभागों के अधिकारी कहते हैं,‘हम लोगों का काम इत्तिला करना और आगाह करना है, यह काम हम लोगों ने बखूबी किया. हमारी सूचनाएं वे मानें या न मानें, यह उनका अधिकार क्षेत्र है.’आप समझ रहे हैं न, ऑपरेशन-मगहर भाजपाइयों के लिए कितना जरूरी था!हैरत की बात यह है कि कबीर चौरा मूल गद्दी के मुख्य महंत संत विवेक दास आचार्य ने प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पहले ही पत्र लिख कर मगहर और सहजनवां के कबीर मठों पर कब्जे के कुत्सित प्रयासों की विस्तार से जानकारी दे रखी थी. योगी मुख्यमंत्री ने संत महंत के पत्र को कोई सम्मान नहीं दिया और वही करते रहे जो भाजपाई-बिसात पर तय होता गया. आईबी को यह सूचना थी कि भाजपा सांसद के गुर्गों ने मगहर मठ के अंदर कब्जा जमा लिया है और मठ के दो कमरों में सांसद के गुर्गे बैठते हैं. उन कमरों में कबीर की फोटो के बजाय मोदी की तस्वीर लगी थी, जिसे विवेकदास ने हटवा दिया था. भाजपा सांसद को इस बात का इतना गुस्सा था कि उनके गुर्गों ने कबीर चौरा मठ के मुख्य महंत विवेकदास की ही तस्वीर फेंक दी और उसे पैरों से कुचला. प्रधानमंत्री के आने के हफ्ताभर पहले भाजपाइयों ने मठ के दोनों कमरों से अपने सामान हटा लिए. कबीर मठ और आश्रम राजनीतिक आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह से अलग माने जाते हैं.कबीर मठों में राजनीतिक गतिविधियां पूरी तरह वर्जित हैं. लेकिन भाजपा कबीर मठों को भी राजनीति का अड्डा बनाने पर आमादा है.
जैसा आपको ऊपर भी बताया कि मगहर कबीर मठ का विवाद खुफिया एजेंसियों से लेकर पुलिस और नागरिक प्रशासन की पूरी जानकारी में है, इसके बावजूद जिला प्रशासन ने ऐसे विवादास्पद कार्यक्रम में आने से प्रधानमंत्री को नहीं रोका.उल्टा,गोरखपुर के कमिश्नर अनिल कुमार और वाराणसी के कमिश्नर दीपक अग्रवाल महंत विवेकदास से इस मामले को तूल न देने का आग्रह करते रहे. कबीर चौरा वाराणसी ‘मूल गादी’ के पीठाधीश संत विवेकदास आचार्य ने ‘चौथी दुनिया’ से कहा कि भाजपा सांसद शरद त्रिपाठी मगहर कबीर मठ के प्रबंधक को मिला कर मठ और वहां की सम्पत्ति पर कब्जा जमाने की कोशिश कर रहा है. कबीर आस्था के केंद्र को राजनीति का अखाड़ा बना कर रख दिया है. सांसद ने अवैध रूप से मगहर कबीर मठ में अपना ऑफिस बनाया और कबीर मठ के कामकाज में हस्तक्षेप कर रहे हैं. विचारदास औररामसेवक दासभाजपा सांसद के एजेंट की तरह काम कर रहे हैं. रामसेवक दास सहजनवा के बलुआ मंझरिया आश्रम का केयरटेकर था. विवेकदास कहते हैं,‘मैंने इस मामले में पीएम और सीएम दोनों से हस्तक्षेप करने की गुजारिश की थी, लेकिन दोनों ने मेरी मांग पर कोई ध्यान ही नहीं दिया.’विवेकदास ने बताया कि उनके पहले के महंत गंगाशरण दास ने विचारदास को मगह, बलुआ, सारनाथ और नालंदा का प्रबंध देखने के लिए नियुक्त किया था. जब वाराणसी के जिलाधिकारी ने मठों की सम्पत्तियों का ब्यौरा मांगा. तब जानकारी हासिल हुई कि विचारदास ने मठ की अनुमति और जानकारी के बगैर संस्था की कई बेशकीमती जमीनें बेच डालीं.इस पर विचारदास को मठ से हटा दिया गया. कबीर चौरा के मुख्य महंत हो चुके संत विवेकदास ने मुकदमा दर्ज कराया और क्रमशः गिरफ्तारी हुई. मूल गादी ने संत रामदास को मगहर मठ की देखरेख के लिए नियुक्त किया. भाजपा सांसद को मूल-गादी का निर्णय नागवार लगा और उसने अपने गुर्गोंऔर निष्कासित प्रबंधक विचारदास के साथ मिल कर मगहर मठ को अड्डा बना लिया. संत कबीर नगर का जिला प्रशासन भी सांसद के अवैध कृत्य में साथ है. विवेकदास कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संत कबीर की जयंती ही मनानी थी तो उन्हें मगहर के स्थान पर वाराणसी आना चाहिए था, क्योंकि संत कबीर का प्राकट्य स्थल काशी के लहरतारा में है. मगहर तो उनका निर्वाण स्थल है. मगहरनिर्वाण स्थल पर कबीर का प्राकट्य उत्सव मनाना संत कबीर का अपमान और समस्त कबीर परंपरा और संस्कृति की धज्जियां उड़ाना है. विवेकदास आश्चर्य से कहते हैं,‘परिनिर्वाण स्थल पर प्राकट्य उत्सव कैसे मनाया जा सकता है?’विवेकदास ने कहा कि संत कबीर नगर के सांसद शरद त्रिपाठी ने प्रधानमंत्री को अंधेरे में रख कर मगहर बुलाया और भांडा न फूटे इसके लिए कार्यक्रम के बारे में उन्हें कोई सूचना नहीं दी गई.

जालसाजी में जेल की हवा खा चुके ‘संत’ से खुशी-खुशी मिले मोदी
मगहर मठ पर आधिपत्य चाह रहे भाजपा सांसद शरद त्रिपाठी और मगहर मठ के विवादास्पद प्रबंधक विचारदास पूरे कार्यक्रम के दरम्यान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ-साथ दिखते रहे. लोगों में चर्चा भी खूब हुई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मगहर मठ को विवादों में लाने वाले ‘संत’ विचारदास से किस तरह अंतरंगता से मिल रहे हैं. वाराणसी पुलिस ने विचारदास को जून 2016 में गिरफ्तार किया था. मूलगादी की तरफ से वर्ष 2012 में हीविचारदास के खिलाफ जालसाजी और धोखाधड़ी का मुकदमा दर्ज कराया गया था. विचारदास पर मगहर कबीर चौरा की जमीनों के स्वामित्व में हेराफेरी करने,मठ की करोड़ों की जमीन फर्जी तरीके से ट्रस्ट बनाकर अपने नाम करने और उसे बेच डालने जैसे गंभीर आरोप हैं.

मोदी ने लटका रखी हैं कबीर जन्मस्थल विकास की परियोजनाएं
षडयंत्र के मंच से संत कबीर के प्रति आस्था के राजनीतिक बोल बोलने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने कबीर की जन्मस्थली वाराणसी कबीर चौरा के विकास की पांच परियोजनाएं रोक रखी हैं. विवेकदास ने इस बारे में मोदी को लंबा पत्र लिख कर कबीर चौरा के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्व की जानकारी दी और यह भी बताया कि मठ की देशभर में फैली अकूत सम्पत्ति की हिफाजत जरूरी है, इसलिए उसका इस तरह विकास किया जाए कि वह सार्वजनिक आस्था की अभिव्यक्ति का केंद्र बने और उस पर कब्जा करने का कोई साहस नहीं कर पाए. जब भाजपा के लोग ही मठ की सम्पत्ति पर कब्जा करने की कोशिश में लगे हों तो विवेकदास के पत्र को मोदी क्यों संज्ञान में लें!
कबीर की धरोहर को आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने और श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए कबीर जन्मस्थल के विकास की परियोजना की फाइल देखने की भी वाराणसी के सांसद को फुर्सत नहीं है, लेकिन भाजपा के ‘ऑपरेशन-मगहर’पर मुहर लगाने के लिए मोदी के पास टाइम ही टाइम था. मगहर में संत कबीर अकादमी का शिलान्यास,कबीर की समाधि पर श्रद्धांजलि और आस्था के बड़े-बड़े बेमानी बोल, सब ‘ऑपरेशन-मगहर’ का ही पूर्व नियोजित प्रहसन था. इस प्रहसन में मगहर मठ पर कब्जा अभियान के मुख्य पात्र भाजपा सांसद शरद त्रिपाठी,मुख्य उपकरण महेश शर्मा, शिवप्रताप शुक्ल और सुविधा-प्रदाता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने काफी अहम रोल निभाया. योगी ने मगहर-मंच से खूब भाषण झाड़ा, लेकिन सामने बैठी जनता को यह नहीं बताया कि कबीर पंथ की मुख्य पीठ कबीर चौरा ने उन्हें 20 दिसम्बर 2017 को पत्र लिख कर कबीर मठ की तरफ से वाराणसी में बनाए जा रहे ‘मल्टी-स्पेशियलिटी हॉस्पीटल’ के शिलान्यास कार्यक्रम में शरीक होने का आग्रह किया था. लेकिन गोरखधाम पीठ के पीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ ने कबीर पीठ के पीठाधीश्वर का आमंत्रण ठुकरा दिया और इसके लिए एक औपचारिक शब्द लिख कर खेद भी नहीं जताया. शिलान्यास में शरीक होने के लिए योगी को कार्यक्रम से दो महीने पहले ही सूचित और आमंत्रित कर दिया गया था. 24 फरवरी 2018 को वाराणसी में हुए शिलान्यास कार्यक्रम में देशभर के प्रमुख साधु-संत और पीठाधीश जुटे थे, लेकिन विडंबना है कि योगी को इसके लिए फुर्सत नहीं मिली. यह भाजपाइयों के कबीर-प्रेम की कठोर असलियत है.

‘संत कबीर के नाम पर एनजीओ बना कर धंधा करते हैं भाजपा सांसद’
शहीदों का अपमान करने वाले, निरर्थक जुमले उछालने वाले, आरोपों और विवादों में घिरे लोग मोदी को बहुत पसंद आते हैं. मगहर-मंच पर सांसद शरद त्रिपाठी से हाथ मिला-मिला कर और उनके साथ हाथ हिला-हिला कर मोदी गदगदायमान हो रहे थे. ये वही सांसद हैं जिन्होंने कश्मीर के ऊरी सेक्टर में शहीद हुए जवान गणेश शंकर यादव के परिवार के समक्ष ही लोगों से शहीद के परिवार की मदद के नाम पर चंदा वसूलना शुरू कर दिया था. उस समय शहीद का पार्थिव शरीर भी वहीं रखा था. सांसद का कृत्य देख कर शहीद की विधवा श्रीमती गुड़िया यादव और अन्य परिजनों ने सांसद को ऐसा करने से रोका और उन्हें कहा कि यह शहीद का परिवार है, भिखमंगों का नहीं. स्थानीय लोग भी विरोध में उतर पड़े तो सांसद और उसके गुर्गे चंदे में वसूली रकम के साथ ही भाग खड़े हुए.
‘ऑपरेशन-मगहर’ के प्रणेता भाजपा सांसद शरद त्रिपाठी पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रमापति राम त्रिपाठी के पुत्र हैं. विधानसभा चुनाव के समय भाजपा की नेता उर्मिला त्रिपाठी ने पिता-पुत्र दोनों पर गोरखपुर और बस्तीग मंडल में टिकटों के वितरण में रिश्वत लेने का आरोप लगाया था. महिला नेता ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला कर कहा था कि सांसद शरद त्रिपाठी और उनके पिता रमापति राम त्रिपाठी का काम टिकट के जरिए पैसा कमाने का है. चुनाव आते ही पिता-पुत्र टिकट के खेल में जुट जाते हैं, चुनाव समिति में जगह बना लेते हैं और पैसे बटोरते हैं. महिला नेता ने उसी समय यह खुलासा भी किया था कि शरद त्रिपाठी संत कबीर के नाम पर एनजीओ बनाकर धन कमाने का धंधा कर रहे हैं. उन्हीं दिनों खलीलाबाद सीट से गंगा सिंह सैंथवार कीजगह जय चौबे को टिकट दिए जाने पर भी सांसद शरद त्रिपाठी पर पैसा लेकर टिकट बेचने का आरोप लगा था और सांसद का पुतला भी फूंका गया था.

भाजपाइयों की मदद से सहजनवा कबीर मठ पर ‘नटवरलाल’ का कब्जा
भाजपाइयों की मदद से गोरखपुर जिले के सहजनवा स्थित बलुआ मंझरिया कबीर आश्रम और कृषि फार्म पर कब्जा जमाए बैठा रामसेवक दास ‘नटवरलाल’ है. उसकी जालसाजियों और फरेब के बारे में पुलिस को भी पता है और प्रधानमंत्री को भी. इस बीच में शासन-तंत्र का जो भी पुर्जा आता है, उसे ‘नटवरलाल’ के किस्से पता हैं, लेकिन वह भाजपा का करीबी है और भाजपा के आयोजनों में सक्रिय रूप से हिस्सा लेता है, इसलिए शासन-तंत्र को उस पर हाथ नहीं डालता.लोग बताते हैं कि ‘नटवरलाल’ भाजपाइयों की मदद से ग्राम प्रधान भी बन गया है. कागजातों में कहीं वह विचारदास को अपना पिता बताता है तो कहीं जगलाल को अपना पिता बना लेता है. कहीं-कहीं वह सुमिरनदास को भी अपना पिता बताता है. वह अपना नाम कहीं रामसेवक लिखता है तो कहीं दिलीप कुमार. भाजपाइयों की मदद से वह विकास खंड पाली के बवंडरा ग्राम पंचायत (65) से प्रधानी का चुनाव भी जीत गया. पंचायत चुनाव में दिए गए दस्तावेजों में रामसेवक ने अपने पिता का नाम विचारदास बता रखा है. चुनाव आयोग को भी इस फर्जीवाड़े की जानकारी दी गई, लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज सुनता कौन है!

लुच्चे-लफंगों का ही कब्जा है मठ-मंदिरों पर
केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देशभर के मठों और मंदिरों पर लुच्चे-लफंगों, अपराधियों, गुंडों और नेता की शक्ल वाले भूमाफियाओं का कब्जा है. इसमें यूपी बिहार अव्वल है. राजस्थान मध्यप्रदेश की बारी उसके बाद आती है. मठों और मंदिरों पर कब्जा जमाए बैठे अपराधियों पर चोरी डकैती हत्या बलात्कार तक के मुकदमे हैं, लेकिन शासन-प्रशासनउन्हेंनहीं छूता. यूपी में बड़े मठों की तादाद करीब 10 हजार है. अयोध्या, काशी, मथुरा-वृंदावन में मठों-मंदिरों की संख्या सबसे अधिक है. भाजपाई राजनीति के प्रमुख केंद्र अयोध्या के आधे मठ भीषण विवाद में घिरे हैं.इस विवाद में अनगिनत हत्याएं और हिंसक घटनाएं हो चुकी हैं. अयोध्या के बावरी छावनी,हनुमान गढी,बारी स्थान, मणिराम छावनी,लक्ष्मण किला, चुरबुजी स्थान, जानकी घाट, हरिधाम पीठ जैसे प्रसिद्ध मंदिरों में विवाद कुछ अधिक ही गहरा है. इन मठों का सम्पत्ति-साम्राज्य यूपी के अलावा बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात तक फैला हुआ है.पुलिस रिकॉर्ड बताते हैं कि अयोध्या के मठों पर सबसे ज्यादा कब्जा बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के अपराधियों का है, जिन्हें नेताओं का संरक्षण प्राप्त है. फैजाबाद अदालत में 90 प्रतिशत दीवानी मामले अयोध्या के हैं और अधिकतर मामले महंती और सम्पत्ति पर कब्जे को लेकर हैं. अयोध्या का लगभग हर मठ, मंदिर और साधु किसी न किसी कानूनी विवाद में फंसा है.
कबीर मठों की हालत तो और बुरी है. उत्तर प्रदेश और बिहार के कई प्रमुख कबीर मठ अवैध कब्जे में हैं. अजीबोगरीब यह भी है कि कबीर चौरा मूल-गादी की तरफ से नियुक्त किए जाने वाले महंत ही कुछ समय बाद स्थानीय नेताओं और भूमाफियाओं के साथ मिलीभगत करके अपना असली रंग दिखाने लगते हैं. मायावती के कार्यकाल में कबीर चौरा पर ही कब्जा करने की हथियारबंद कोशिश की गई थी, इसमें प्रशासन की भी मिलीभगत थी, लेकिन मुख्य महंत विवेकदास की दृढ़ता और कबीर पंथी साधुओं की एकजुटता के कारण कब्जा नहीं हो पाया. कब्जा करने में नाकाम रहने पर बसपाइयों ने कबीर जन्मस्थली को तोड़ कर बस्ती वालों के लिए शौचालय बनाने की कोशिश की, लेकिन उसे भी स्थानीय लोगों और साधुओं का भारी विरोध झेलना पड़ा. कबीर जन्मस्थली के मुख्य द्वार पर कृषि विभाग और विधानसभा (रकबा-255) के नाम से कुछ जमीन है. बसपा सरकार के कार्यकाल में कुछ लोगों ने इस जमीन पर कब्जा कर लिया था. बाद में कब्जा हटाकर चारदीवारी बनवाई गई और कबीर स्तंभ का निर्माण कराया गया. भूमाफिया इस चारदीवारी और स्तंभ को तोड़ कर जमीन पर कब्जा करने की कोशिश में लगे रहते हैं. कबीर चौरा के मुख्य महंत यह मानते हैं कि कबीर मठों के प्रबंधकों (प्रतिनिधि महंतों) के चयन में सतर्कता नहीं बरते जाने के कारण मठों पर कब्जा करने की घटनाएं बढ़ गईं. अब कबीर मठों को उन्हीं हाथों में सौपे जाने का समय आ गया है जो स्वभाव से साधु हों और अध्ययन के साथ-साथ संत कबीर के प्रति उनका वैचारिक सैद्धांतिक लगाव भी हो.
बिहार में भी कबीर मठों पर अवैध कब्जे का यही हाल है. मुजफ्फरपुर में तुर्की का कबीर मठ अवैध कब्जे में है. तुर्की मठ की गोपालगंज और मधुबनी की सिसवार शाखा पर भी कब्जा है. मुजफ्फरपुर शहर के ब्रह्मपुरा इलाके में स्थित कबीर मठ अवैध कब्जे में है. पटना के फतुहा और धनरुआ के कबीर मठ काफी लंबे अर्से से अवैध कब्जे के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं. शिवहर के कबीर मठ पर एक कद्दावर महिला नेता का अवैध कब्जा है.