Friday 26 August 2022

अभिमन्यु अपने ‘रिश्तेदारों’ के चक्रव्यूह में फंस गया है

 (हिंदी दैनिक 'शुभ-लाभ' के हैदराबाद और बंगलुरू संस्करण में प्रकाशित)

- केसीआर, ओवैसी और भाजपा के हाथ मिले हुए हैं -
- अभिमन्यु अपने ‘रिश्तेदारों’ के चक्रव्यूह में फंस गया है -
- टी. राजा सिंह की दोबारा गिरफ्तारी से उठे गंभीर सवाल: शासन, प्रशासन, संविधान और कानून किसका है..?
प्रभात रंजन दीन
तेलंगाना राज्य के गोशामहल विधानसभा क्षेत्र को प्रतिनिधित्व देने वाले भाजपा विधायक टी. राजा सिंह को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के आदेश और उनके करीबी असदुद्दीन ओवैसी के दबाव में अदालत के जमानत-आदेश की उपेक्षा करके राजा सिंह को दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया। इस देश और प्रदेश में संविधान और कानून की इज्जत का सच यही है। ओवैसियों के दबाव पर राजा सिंह को दोबारा गिरफ्तार करने के लिए पुलिस ने पुराने मामले निकाले और उस पर प्रिवेंटिव-डिटेंशन (पीडी) एक्ट का भारी-भरकम मुलम्मा चढ़ा कर उन्हें अंदर कर दिया।
इस बात का पूरा अंदेशा है कि केसीआर के आदेश और ओवैसी के दबाव के पीछे भाजपा का प्रभाव काम कर रहा है। भाजपा आलाकमान पर हावी एक नेतृत्व-वर्ग टी. राजा सिंह के तेजी से बढ़ते कद को पचा नहीं पा रहा था, इसलिए राजा सिंह के राजनीतिक भविष्य को नष्ट करने की साजिशी-सियासत चल रही थी। 2023 में तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होने हैं। सोच-समझ कर और पूरी तैयारी से टी. राजा सिंह को दोबारा गिरफ्तार करने के लिए बाकायदा व्यूह-रचना की गई। इसी व्यूह-रचना के तहत राजा सिंह पर प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट लादा गया। इस एक्ट में गिरफ्तार हुए व्यक्ति को एक साल तक जमानत नहीं दिए जाने का प्रावधान है। वर्ष 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं। तेलंगाना सरकार राजा सिंह को रिहा नहीं होने देगी और भाजपा राजा सिंह को टिकट नहीं लेने देगी। अभिमन्यु अपने ‘रिश्तेदारों’ के ही चक्रव्यूह में फंस गया है।
बहरहाल, टी. राजा सिंह के जिस वीडियो को लेकर पाकिस्तान परस्त तत्वों ने बवाल मचा रखा है, उस वीडियो को क्या आपने देखा-सुना है? भाजपा के शीर्ष नेताओं ने भी उसे सुना है, ओवैसियों ने भी सुना है और देश-प्रदेश के तमाम लोगों ने भी सुना है। षडयंत्रकारियों के लिए राजा सिंह का वीडियो एक मौका था। अस्थिरतावादी शक्तियों के लिए वह ईश-निंदा का औजार था और आम जन के लिए वह एक नागरिक का स्वाभाविक गुस्सा था। उस वीडियो में हास्य कलाकार मुनव्वर फारूकी के प्रति राजा सिंह का गुस्सा अभिव्यक्त हो रहा है। फारूकी के खिलाफ राजा सिंह असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल भी कर रहे हैं, लेकिन उसके पीछे के आशय को भी समझना उतना ही जरूरी है। मुनव्वर फारूकी हिंदू देवी-देवताओं का खुलेआम मजाक उड़ाता है, उस पर गुस्सा आना स्वाभाविक है। टी. राजा सिंह के मुंह से वह गुस्सा अभिव्यक्त भी होता है। लेकिन यह गुस्सा तब और प्रगाढ़ हो जाता है जब ईश-निंदा का आरोप लगा कर मुसलमानों द्वारा बवाल खड़ा किया जाता है। क्या हिंदुओं, सिखों, ईसाईयों या अन्य धर्मावलंबियों की आस्था पर उंगली उठाना, मजाक उड़ाना, नंगी तस्वीरें बनाना और टीवी-डिबेट्स में निंदा प्रस्ताव जारी करना ईश-निंदा के दायरे में नहीं आता? अभिव्यक्ति क्या केवल एक समुदाय के लिए आरक्षित है? तब क्या यह पूछना गलत है कि जैसा बर्ताव करोगे वैसा ही बर्ताव प्राप्त करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए? राजा सिंह के वीडियो में मुनव्वर फारूकी के अलावा किसी का नाम नहीं लिया गया है। मुनव्वर फारूकी के निंदनीय आचरण के खिलाफ असंसदीय शब्दों के इस्तेमाल की मानहानि-कानून के तहत सजा हो सकती थी, लेकिन क्या मुनव्वर फारूकी के लिए कहे गए शब्दों को ईश-निंदा के दायरे में जबरन घसीटा जाना उचित है? ईश-निंदा के इस तरह के सड़क छाप इस्तेमाल से क्या आस्था की प्रतिष्ठा बढ़ती है? टी. राजा सिंह के वीडियो की बात तो छोड़िए, भाजपा की प्रवक्ता रही नूपुर शर्मा के टीवी डिबेट का ध्यान करिए, नूपुर के बोलने के पहले टीवी डिबेट में शामिल मुस्लिम-स्वयंभुओं ने हिंदू देवी-देवताओं को क्या नहीं कहा! इससे आजिज आकर नूपुर शर्मा ने इस्लामिक धर्मोपदेशक जाकिर नाइक के हवाले (रेफरेंस) से कुछ बातें कहीं। उस पर भी ऐसी पतंग उड़ाई गई कि उसके हिंसक-धागे से जाने कितने लोगों की गर्दनें कट गईं। क्या यही धर्म है? क्या ऐसे निकृष्ट कृत्यों से धार्मिकता के प्रति सम्मान बढ़ता है? यह धार्मिकता का विस्तार है या डर-मिता का? इसे बौद्धिकता से सोचना चाहिए। और अगर बौद्धिकता हो तो यह भी सोचना चाहिए कि धार्मिकता दरअसल होती क्या है!
आइये हम टी. राजा सिंह के प्रकरण में संविधान और कानून के सम्मान की ही बात करते हैं। यह बिल्कुल हथकंडा हो गया है कि शाहीनबाग घेरना हो तो बाबा साहब अम्बेडकर की फोटो और तिरंगा झंडा लेकर बैठ जाएं और आम जनजीवन तबाह कर दें। फिर उसी संविधान की रुदालियां गाने वाली जमातें विदेशी अतिथि के भारत आने पर राजधानी दिल्ली में हिंसा का नंगा नृत्य करने लगें। क्या यही संविधान की प्रतिष्ठा है? या यह संविधान और तिरंगे का शातिराना इस्तेमाल है? हमें इस फर्क को समझना भी है और उसे सार्वजनिक रूप से उजागर भी करना है। यह भारत के नागरिक का मूल कर्तव्य है।
खंडित आजादी के बाद से भारत के लोगों को अधिकार की ही घुट्टी पिलाई गई। विद्वान संविधान निर्माताओं को नये-नये आजाद हुए देश में कर्तव्य कितना जरूरी है, यह याद ही नहीं आया। संविधान पर अधिकारों की लंबी चौड़ी लिस्ट चस्पा कर दी, लेकिन संविधान से कर्तव्य गायब हो गया। इसीलिए तो कर्तव्यहीनों की जमातें भारत की सड़कों पर पाकिस्तानी नारे लगाती नजर आती हैं! देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब रूस गईं तो उन्हें रूस के राजनयिकों ने कहा कि यह कैसा संविधान है, जिसमें कर्तव्य शामिल न हो! भारत लौटने के कुछ ही दिनों बाद 1975 में इंदिरा गांधी ने 42वें संशोधन के जरिए कर्तव्य का अनुच्छेद जोड़ा... लेकिन उसी संशोधन में धर्म-निरपेक्ष शब्द जोड़ कर आने वाली पीढ़ियों को छद्म-शब्दावलियों के घोर-अंधकार में धकेल दिया। देश में धर्म-निरपेक्षता का इस्तमाल इस कदर कुचक्र के रूप में हुआ कि इस शब्द के असली अर्थ को अनर्थ में बदल डाला गया। ...और उसी संशोधन के जरिए संविधान में जोड़े गए मूल-कर्तव्य के प्रति आपराधिक उपेक्षा का भाव कुसंस्कार में भर गया। संविधान में निहित मूल-कर्तव्य कहता है कि प्रत्येक नागरिक का दायित्व है कि वह देश की प्रभुता, एकता, अखंडता और संस्कृति की रक्षा करने और उसे अक्षुण्ण रखने के लिए प्रतिबद्ध हो... इस मूल-कर्तव्य के निर्वहन के लिए आपने देश-विरोधी तत्वों के खिलाफ बोला भी तो आप अपने सिर के तन से जुदा होने के नारे सुनने लगेंगे, या शायद सुनने के लिए बचे रह भी न पाएं। क्या मूल-कर्तव्य इसी परिणति को प्राप्त होने के लिए संविधान में शुमार किया गया था?
चलिये, हम संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों की ही बात करते हैं। हालांकि संविधान के भाग-3 में शामिल अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकार, मौलिक नहीं हैं, वे संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिए गए हैं। बहरहाल, वे अधिकार भी देश में समग्रता, निष्पक्षता और सत्यता से कभी लागू नहीं हुए। मौलिक अधिकार के अनुच्छेद कुछ खास लोगों के अधिकार-क्षेत्र में बंधक हो गए। समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म और संस्कृति की स्वतंत्रता का अधिकार क्या देश के सभी लोगों पर समान रूप से लागू है? क्या ये मौलिक अधिकार हमें या आपको प्राप्त हैं? क्या हम समान हैं? क्या हमें स्वतंत्रता का समान अधिकार प्राप्त है? क्या हमें अपने धर्म, अपनी संस्कृति और परम्परा की अभिव्यक्ति और रक्षा का समान अधिकार प्राप्त है? ये सवाल मैं आपके समक्ष छोड़ता हूं... आप चिंतन-मनन करिए, वास्तविक स्थितियों की गहराई से समीक्षा करिए तो आपको इसका जवाब मिल जाएगा। हां, इसका जवाब टी. राजा सिंह दे सकते हैं, मुनव्वर फारूकी नहीं। इसका जवाब नूपुर शर्मा दे सकती हैं, हिंदू देवी-देवता की निंदा करके नूपुर को उकसाने वाले मौलाना नहीं। क्या इसे ही समानता का अधिकार कहते हैं?
नूपुर शर्मा प्रकरण में मुस्लिम चिंतक रिजवान अहमद ने एक टीवी डिबेट के दौरान एंकर से पूछा कि अगर सच्चे पत्रकार हो तो बताओ कि नूपुर शर्मा को किन लोगों ने उकसाया (प्रोवोक किया) था। रिजवान अहमद ने कहा था, न मैं नूपुर शर्मा के साथ खड़ा हूं, न ही मैं भाजपा के साथ हूं, न मैं मुसलमानों के साथ खड़ा हूं और न ही मैं दो कौड़ी की सेकुलर पार्टियों के साथ खड़ा हूं। वकील आदमी हूं, मैं न्याय के साथ खड़ा हूं। और एक सवाल पूछ रहा हूं, इसका जवाब जरूर देना कि नूपुर शर्मा को किसने उकसाया था? भारतीय दंड विधान की धारा 504 कहती है कि अगर कोई किसी को प्रोवोक करता (उकसाता) है और उसको कोई गलत काम या अपराध करने के लिए विवश करता है तो प्रोवोक करने वाले पर धारा 504 के तहत मुकदमा लिखा जाएगा। इसमें कम से कम 2 साल की सजा का प्रावधान है। क्या नूपुर शर्मा के मामले में ऐसा किया गया? नूपुर शर्मा को पार्टी से निष्कासित कर उसे लावारिस हाल में छोड़ देने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार और संगठन ने इस कानून का इस्तेमाल किया? क्यों नहीं किया? यही बात तेलंगाना के भाजपा विधायक टी. राजा सिंह के मामले में भी लागू होती है। मुस्लिम-तुष्टिकरण की नव-दुष्चेतना में अंधी हो रही भाजपा के आला नेताओं ने टी. राजा सिंह पर कार्रवाई के पहले देश के कानून और संविधान-सम्मत समानता के अधिकार का संतुलन क्यों नहीं स्थापित किया? क्या फिर भी हम सकते हैं कि देश में समानता का अधिकार या समानता का कानून है? यह अधिकार केवल ओवैसी या उनके पीछे सड़कों पर चलने वाली उन जमातों का है जो खुलेआम सिर तन से जुदा के नारे भी लगाते हैं, कानून की धज्जियां भी उड़ाते हैं और सत्ता-सियासतदानों को दबाव में लेकर अपने अधिकार का आनंद भी उठाते हैं... और जमानत होने के बावजूद टी. राजा सिंह को फिर से अंदर भी करा देते हैं। देश का संविधान, कानून और समानता का अधिकार केवल ओवैसियों का है या राजा सिंह का भी है? इस सवाल का जवाब तलाशिये...

Wednesday 3 August 2022

राज्यपाल ने यूपी सरकार की बखिया उधेड़ दी...

राज्यपाल ने यूपी सरकार की बखिया उधेड़ दी
सरकार के प्रति 'जवाबदेह' मीडिया ने खबर दबा दी
अगस्त का पहला सप्ताह माँ के लिए समर्पित होता है... एक से सात अगस्त तक हम हर साल विश्व स्तनपान दिवस मना कर माँ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं और माँ के दूध के अमृत होने का पीढ़ियों में एहसास दिलाते हैं। लेकिन अवसर चाहे कितना भी पवित्र हो, सत्ता-सियासदान और सत्ता के कारिंदे अपवित्रता के अपने मूल स्वभाव से वंचित नहीं रहते। हर अवसर पर झूठ और बहाने का निराधार आधार खड़ा कर चमकदार आडंबर रचते हैं। मीडिया अपनी भांडगत प्रतिबद्धताओं के तहत उस चमकदार आडंबर को प्रचारित प्रसारित प्रकाशित करने में लगा रहता है।
उत्तर प्रदेश के राजभवन में विश्व स्तनपान सप्ताह का उद्घाटन-समारोह आयोजित था। मुख्य अतिथि राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के समक्ष सत्ता-नुमाइंदों की तरफ से आंकड़ों और प्रस्तुतिकरण का आकर्षक प्रहसन खेला गया। लेकिन इस बार सरकार के लिए यह प्रायोजित-प्रहसन उल्टा पड़ गया। राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के हृदय में मातृत्व जागा और उन्होंने सरकार की उपलब्धियों की बखानबाजी के सारे धागे बिखेर दिए। उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य महकमे में जो गोरखधंधा चल रहा है, राज्यपाल ने उसकी धुर्रियां बिखेर दीं। इससे यह भी साफ हुआ कि उत्तर प्रदेश के सभी विभागों में ऐसा ही चल रहा है। राजभवन के कार्यक्रम में प्रदेश के सारे मीडिया प्रतिनिधि मौजूद थे। न्यूज़ चैनल हों या अखबार... मीडिया की पूरी भीड़ थी। लेकिन राज्यपाल की खबर चैनेलों में दिखाई नहीं गई और अखबारों में छापी नहीं गई। चारों तरफ विकास-स्फीति (डेवलपमेंट-इन्फ्लेशन) सृजित करने वाली सरकार को अपने ढोल की पोल खुलना कहां मंजूर होता... वह भी महामहिम राज्यपाल के मुंह से..! लिहाजा, सत्ता के प्रति 'जवाबदेह' मीडिया ने खबर दबा दी। राजभवन से जारी विज्ञप्ति को छुआ तक नहीं। यह है हाल...
आप खुद सुनिये, राज्यपाल के मुंह से यूपी के स्वास्थ्य महकमे का कड़वा सच और राज्यपाल की बातों से समझने की कोशिश करिए कि उत्तर प्रदेश में क्या क्या घट रहा है... प्रभात रंजन दीन