Sunday 26 January 2020

बाबा साहब को असम्मानित कर रहे शाहीनबाग के शातिर


प्रभात रंजन दीन
शाहीनबाग सुनियोजित षड्यंत्र है... पूरे देश को यह समझ में आ गया है... देश को टुकड़ों में बांटने की तकरीरें आप सुन रहे हैं न..! यही है इनकी असलियत। यह है भारतीय संविधान के प्रति उनका सम्मान। और यह है बाबा साहब अम्बेडकर की तस्वीरें लेकर धरना पर बैठने की उनकी धूर्त-रणनीति। संविधान की हिफाजत के नाम पर देश तोड़ने का षड्यंत्र। देश के एक हिस्से (असम) को मुर्गी की गर्दन बता कर उसे तोड़ने का सार्वजनिक ऐलान... यह है संविधान का सम्मान..! स्वधर्मी-स्वार्थ और परधर्मी घृणा में रोम-रोम लिप्त अधिसंख्य मुसलमानों की तो बात ही छोड़ दीजिए... खंड-खंड पाखंड में पगे नस्लदूषित प्रगतिशीलों पर जरूर ध्यान दीजिए। इस जमात के किसी भी व्यक्ति को सुना आपने, जिसने देश तोड़ने का सार्वजनिक ऐलान करने वाले को धिक्कारा हो..? नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) की संविधान-सम्मत मानवीय-अनिवार्यता के बारे में कुछ कहिए तो दुर्बुद्धिजीवी बिलबिलाने लगते हैं, लेकिन असम को मुर्गी की गर्दन की तरह तोड़ डालने की सार्वजनिक बकवास करने वाले राष्ट्रद्रोही-जेएनयू के पूर्व छात्र षड्यंत्रकारी शरजील इमाम के बयान पर इनकी शातिराना चुप्पी देखिए... हम आम लोग यह देख सकते हैं और इस पर कुछ बातें लिख-बोल सकते हैं। लेकिन जिनके हाथ में न्याय है, जिनके हाथ में सत्ता है, राष्ट्रद्रोह रोकना जिनकी जिम्मेदारी है, वे भी देश के खिलाफ खुलआम हो रही गद्दारी को सियासत के तराजू पर ही तौलने में लगे हैं। हम आप कुछ बोलें तो फौरन कार्रवाई, फौरन मुकदमा, फौरन जेल... लेकिन सड़क पर उनका खुला राष्ट्रद्रोह, आम लोगों के अधिकार का खुला हनन और सार्वजनिक सम्पत्ति पर खुलेआम कब्जा और नुकसान पर भी अदालत से लेकर सरकार तक मौन..! अदालत का रवैया देखिए, छोटी-छोटी बातों पर संज्ञान लेकर आदेश जारी करने वाली अदालत शाहीनबाग-षड्यंत्र पर किस तरह ‘डिप्लोमैट’ हो जाती है... इसे पूरे देश ने देखा और दिल्ली वाले तो इस न्यायिक-कूटनीतिक-विरोधाभास को भोग ही रहे हैं। अदालत और सरकार की इसी संदेहास्पद ‘डिप्लोमैसी’ से शह पाए लोग लखनऊ का घंटाघर, पटना का सब्जीबाग, कलकत्ता का पार्क-सर्कस घेर कर बैठ गए और देशविरोधी सर्कस करने लगे।
हम एक विचित्र काल-खंड से गुजर रहे हैं। इस युग में सारी नकारात्मक ताकतें एक मंच पर प्रपंच करती मिल जाएंगी, लेकिन सकारात्मक ताकतें एकजुट नहीं हो रहीं। अब सत्ता और सरकारों से उम्मीद छोड़िए। अब खुद तय करिए कि भारतवर्ष को एक रहना है या कि फिर एक और पाकिस्तान बनने देना है। आप गौर करिए, जबसे कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटा और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) पर कब्जे की बात होने लगी... तबसे धर्मांध मुसलमान भारत के खिलाफ माहौल बनाने लगे और नस्लदूषित-प्रगतिशील तत्व इन्हें उकसावा देने लगे। आप ध्यान से इस बात पर सोचिए... ये जो सीएए पर छाती पीटते अंध-धर्मी मुसलमान दिख रहे हैं, उनके बारे में किसी गलतफहमी में मत रहिए, यह डरी हुई या नासमझ जमात नहीं है। यह बहुत शातिर और धूर्त जमात है... उसे पता है कि सीएए से भारत में रहने वाले मुसलमान-नागरिकों का कोई लेना-देना नहीं। उसे पता है कि सीएए पाकिस्तान-बांग्लादेश-अफगानिस्तान में मुसलमानों ने गैर-मुस्लिमों पर जो कहर ढाए उन पीड़ितों को भारत की नागरिकता दिलाने वाला कानून है। यह जमात जानती है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार में गैर-मुस्लिमों पर अनाचार करके भारत में अवैध तरीके से आकर रह रहे मुसलमान घुसपैठियों को जाना होगा। जिन पाकिस्तानियों, बांग्लादेशियों और रोहिंगियाओं को उन्होंने इतने दिन अपने घरों-मोहल्लों में शरण देकर रखा, उन्हें पाला-पोसा, अपना रिश्तेदार बनाया, उन्हें अब भारत छोड़ कर जाना ही होगा... यह छाती दरअसल इसीलिए पीटी जा रही है। भारत पूरी दुनिया में पाकिस्तान विरोधी माहौल बनाने में जुटा है तो भारत का मुसलमान पूरी दुनिया में भारत विरोधी माहौल बनाने में जुटा है... इस शातिर षड्यंत्र को ठीक से समझिए। भारत का धर्मांध मुसलमान किसी भ्रम में नहीं है, भारत का देशभक्त आम नागरिक भ्रम में है। बताया ठीक उल्टा जा रहा है।
देश को धर्मांधता से अधिक दुर्बौद्धिकता से खतरा है... यही दुर्बुद्धिजीवी तत्व हैं जो इतिहास से लेकर संविधान तक की दूषित-व्याख्या परोसते रहे हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी को दिग्भ्रमित करते रहे हैं। ये अलग-अलग किस्म की खाल ओढ़े दिखते हैं, लेकिन इनकी नस्ल एक जैसी है। ये मानवाधिकार की बातें करेंगे, लेकिन कश्मीरी पंडितों, सिखों और गैर-मुस्लिमों के संहार और बलात्कार पर चुप्पी साधे रहेंगे। ये सर्वहारा के हित की बात करेंगे, लेकिन सत्ता-दलालों के साथ मिल कर खदानों के पट्टे हथियाएंगे, बेशकीमती वस्त्र और घड़ियां पहन कर फोटो खिंचवाएंगे और समता की तकरीरें गढ़ कर सोशल मीडिया के जरिए समाज में विष फैलाएंगे। सच बोलने-लिखने वालों को ये तत्व कभी सत्ताई तो कभी भाजपाई कह कर उन्हें अलग-थलग (isolate) करने का कुचक्र करेंगे, पर खुद सत्ताधारी नेताओं के साथ फोटो खिंचवा कर गौरवान्वित होंगे। ये संविधान को ढाल बनाएंगे, लेकिन संविधान का ही सार्वजनिक मान-मर्दन करेंगे। ये देश-विरोधी शक्तियों के धन पर पलेंगे और भारत को छिन्न-भिन्न करने का उपक्रम करते रहेंगे। इन्हीं नस्लदूषित दुर्बुद्धिजीवियों ने शाहीनबाग-षड्यंत्र में संविधान और बाबा साहब अम्बेडकर की फोटो को ढाल बनाने की रणनीति अपनाई। इन षड्यंत्रकारियों ने अपने इस अभियान में धर्मांध मुसलमानों के साथ-साथ दलितों का भी साथ लेने का तानाबाना बुना। लेकिन नाकाम रहे। ठीक उसी तरह जैसे समझदार शिया मुसलमानों ने अपने आपको इस षड्यंत्र से अलग रखा।
आप संविधान-सम्मत कोई बात करें तो सारे महामूर्खाधपति मिल कर आपके संविधान-ज्ञान को चुनौती देने लगेंगे। आज 26 जनवरी है... आज ही के दिन 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया था। 26 जनवरी की तारीख इसलिए चुनी गई क्योंकि वर्ष 1930 में इसी दिन कांग्रेस ने भारत को पूर्ण-स्वराज घोषित करने का प्रस्ताव पारित किया था। धर्म के नाम पर देश बांटने पर आमादा मुस्लिमों और मुस्लिम-लीग ने पूर्ण-स्वराज के प्रस्ताव का विरोध किया था। वही नस्लें अपनी सुविधा के कुछ शब्द संविधान से चुन कर बाबा साहब अम्बेडकर की फोटो लेकर शाहीनबाग षड्यंत्र में मुब्तिला हैं। ये खुद धर्मांध और कट्टर हैं, लेकिन इन्हें संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द चुन कर इसका इस्तेमाल मुफीद लगता है। इसे वे बाबा साहब से जोड़ते हैं। ऐसा उनके दुर्बुद्धिजीवी ‘मेंटर्स’ ने उन्हें सिखाया है। जबकि कोई सामान्य पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी यह जानता है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द बाबा साहब का दिया हुआ नहीं है। यह मूल संविधान का शब्द नहीं है। संविधान लागू होने के 25 वर्ष बाद इसे 42वें संशोधन के जरिए संविधान की प्रस्तावना से जोड़ा गया। धर्मनिरपेक्षता शब्द का भाव बहुत पवित्र है, लेकिन तभी जब वह सब पर समान रूप से लागू हो। लेकिन इस शब्द को धर्मांध मुसलमान और नस्लदूषित-प्रगतिशील अपने फायदे का ‘कॉपीराइट’ माने बैठे हैं। सवाल है कि संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष रहे बाबा साहब अम्बेडकर ने संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द क्यों नहीं जोड़ा था..? धर्म के नाम पर देश बांटने का निर्णय पारित हो जाने के बाद कटे हुए हिस्से के संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ने पर बाबा साहब अम्बेडकर बिल्कुल असहमत थे। धर्म के नाम पर देश के विभाजन के बाद यह ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द गहरे जख्म पर नमक की तरह था। इस्लाम के नाम पर देश तोड़ने के बाद भी मुसलमानों के हिन्दुस्तान में रहने के सख्त खिलाफ थे बाबा साहब अम्बेडकर। उन्होंने इसका पुरजोर विरोध किया, लेकिन गांधी-नेहरू की फासिस्ट-जिद के आगे बाबा साहब की एक नहीं चली। वर्ष 1946 में कॉन्सटिट्यूएंट-असेम्बली में भारत के संविधान को लेकर निर्णायक बहस हो रही थी। इस्लाम के नाम पर भारत के बंटवारे का राजीनामा पहले ही हो चुका था। 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में यह पारित हो गया था कि हिन्दुस्तान से अलग होकर एक मुस्लिम राष्ट्र बनेगा। खैर, कॉन्सटिट्यूएंट-असेम्बली की उस बहस में केटी शाह ने संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष, संघीय, समाजवादी’ (Secular, Federal, Socialist) शब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा था। इस पर बाबा साहब ने कहा था, ‘संविधान में धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द जोड़ना लोकतांत्रिक नैतिकता के विरुद्ध है। समाज किस तरह का होगा, इसे तय करना समाज का काम है। संविधान के जरिए समाज का वह अधिकार कतई छीना नहीं जाना चाहिए। संविधान देश के लोगों को एक निश्चित दिशा में रहने और जीने के लिए क्यों बाध्य करे..? इससे तो अच्छा है कि लोग अपने बारे में खुद निर्णय लें कि उन्हें किस धारा में रहना है। (why  the Constitution should tie down the people to live in a particular form and not leave it to the people themselves to decide it for themselves?)’ दरअसल बाबा साहब अम्बेडकर ही भारतवर्ष को लेकर एक राष्ट्रपिता की तरह चिंतित और संवेदनशील रहते थे, लेकिन राष्ट्र ने उन्हें नहीं समझा। राजनीतिक दलों से लेकर मौका-परस्त लोगों और दुर्बुद्धिजीवियों ने बाबा साहब का केवल साधन की तरह इस्तेमाल किया। उनके विचार को अपनी सुविधा से चुना और उसे बेचा। बाबा साहब के विचार समग्रता से समझे जाते तो देश की ऐसी हालत थोड़े ही होती..! संविधान में ‘समाजवाद’ शब्द जोड़े जाने के प्रस्ताव पर बाबा साहब ने कहा था, ‘यह अतिरंजित और अनावश्यक है। पूरे संविधान में समाजवादी सिद्धांत निहित हैं। मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्वों (डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स) का समावेश समाजवादी दिशा को ही तो पुष्ट करता है। इसके बाद भी अलग से ‘समाजवाद’ शब्द जोड़ने का क्या औचित्य है..?’ बाबा साहब ने महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को देश के विभाजन की मूल वजह माना था। बाबा साहब यह मानते थे कि मुस्लिमों की मांग कभी खत्म नहीं होने वाली भूख की तरह है। बाबा साहब ने ‘कम्युनल अवार्ड’ के जरिए मुसलमानों को उनकी आबादी से अधिक असंतुलित लाभ देने और उसके विपरीत हरिजनों को लाभ देने के मसले पर कन्नी काटने की कांग्रेस की दोगली नीति पर तीखा प्रहार किया था। उन्होंने कहा था, ‘हिन्दुओं के अधिकार पर कुठाराघात कर कांग्रेस ने मुसलमानों को पहले ही अधिक अधिकार दे दिए हैं। जबकि अछूतों को ज्यादा लाभ देने की बात आती है तो कांग्रेस उसे पचा नहीं पाती है।’ बाबा साहब ने कहा था, ‘मुझे पता है कि जूता कहां काट रहा है, कांग्रेसियों को भी काटने का अनुभव हो रहा है, लेकिन अभी वे दूसरे ही मुगालते में हैं। मुसलमानों को अलग देश ले ही लेना चाहिए, क्योंकि मतांतरण देर सबेर राष्ट्रांतरण करा ही देता है। जिन्ना देश के लिए खतरा साबित होंगे। सैकड़ों साल की मुस्लिम गुलामी में जिन्होंने अपना मजहब बदला था, वो ही अब काटने लगे हैं।’ बाबा साहब अपनी किताब ‘थॉट्स ऑफ पाकिस्तान’ में लिखते हैं, ‘कांग्रेस ने हिन्दुओं के अधिकार पर कुठाराघात करते हुए मुसलमानों को पहले ही अधिक अधिकार दे दिए हैं। विधानसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व उनकी संख्या से कहीं अधिक है। क्या इससे मुसलमानों पर कोई प्रभाव पड़ा..? क्या इससे उनका दिमाग बदला..? भारत सरकार के अधिनियम-1935 के मुताबिक केंद्रीय विधानसभा के निचले सदन में कुल 187 सीटों में 105 सीटें हिन्दुओं और 82 सीटें मुसलमानों की हैं जो कि मुस्लिम जनसंख्या के अनुपात से कहीं ज्यादा है। इसके बाद भी मुसलमान धर्म के आधार पर देश का बंटवारा क्यों चाहते हैं..? धर्म के आधार पर अगर अदला-बदली हो रही है तो पूरी तरह होनी चाहिए।’
अपनी किताब ‘पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ इंडिया’ में भारतीय संविधान के पितृ-पुरुष बाबा साहब अम्बेडकर इस्लाम के भाईचारे को ‘ढक्कन-बंद सहयोगिता’ बताते हैं, जो सम्पूर्ण मानवता का नहीं बल्कि मुसलमान-केंद्रित भाईचारा है। बाबा साहब कहते हैं कि इस्लाम असंगत सामाजिक स्वशासन की एक प्रणाली है। मुस्लिमों की निष्ठा उनके जन्म के देश के लिए नहीं बल्कि उनकी आस्था में निहित है। ऐसे परिदृश्य में, मुसलमानों में हिन्दुओं के बराबर स्तर की देशभक्ति और अखंड भारत के लिए बेचैनी और प्रतिबद्धता की उम्मीद करना संभव नहीं है। मुसलमान भारत-राष्ट्र के भीतर एक राष्ट्र की तरह रहेंगे।’
अब आप मौजूदा परिदृश्य देखिए, शाहीनबाग-षड्यंत्रकारियों के हाथ में बाबा साहब अम्बेडकर की फोटो के इस्तेमाल और उनके मुंह से संविधान की रुदालियों के निहितार्थ समझिए... इसके खिलाफ मुखर होकर बोलिए... और बाहर निकलिए... हम भारतवर्ष को बहु-सांस्कृतिक, बहु-धार्मिक, बहु-भाषिक, बहु-वैचारिक किन्तु एकल राष्ट्रीय प्रतिबद्धता वाला देश बनाने के लिए समवेत बोलें और करें...

Monday 20 January 2020

शाहीनबाग-षड्यंत्र है ‘पीपली लाइव’... संविधान को बना रहे हैं ‘नत्था’

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प्रभात रंजन दीन
शाहीनबाग षड्यंत्र बुनने वाले शातिरों ने इस बार भारत के संविधान को कुर्बानी का बकरा बनाया है। और शातिर कसाइयों ने संविधान के बर्बर-जिबह को ढंकने के लिए राष्ट्र-ध्वज को पर्दा बनाया है। ...‘संविधान मुल्ला से कहै, जिबह करत है मोहिं, साहिब लेखा मांगिहैं, संकट परिहैं तोहिं’... यह कबीर और नानक की वाणी है। इसमें मैंने बस ‘मुरगी’ शब्द की जगह संविधान जोड़ दिया है, क्योंकि इस बार कसाइयों ने मुरगी की जगह संविधान को ही चुना है। दिल्ली का शाहीनबाग, पटना का सब्जीबाग, कलकत्ता का पार्क-सर्कस, लखनऊ का घंटाघर या अन्य वो स्थान जहां शातिर कसाई महिलाओं और बच्चों को आगे रख कर घंटा बजा रहे हैं और संविधान को हरी-हरी सब्जियां खिला रहे हैं, उनसे संविधान का तात्पर्य पूछिए... उनसे पूछिए धर्म के नाम पर देश बांटने की घिनौनी करतूत करने के बाद से लेकर आज तक उन्होंने संविधान का कब-कब सम्मान किया..? बस तथ्यों के आधार पर इस सवाल का जवाब दे दें... दूसरे पर कीचड़ उछाल कर अपना मुंह गंदा करने के अलावा ये कुछ नहीं जानते।
मैं पिछले दिनों शाहीनबाग गया, वहां किस्म-किस्म के लोगों से बातचीत की। दिल्ली से लौट कर फिर मैंने लखनऊ के घंटाघर का जायजा लिया। संविधान को लेकर नारा लगाते कुछ लोगों से घुमा-फिरा कर संविधान के बारे में उनकी जानकारी पूछी... फिर सीएए और एनआरसी का मतलब पूछा... आप यकीन मानिए कि शाहीनबाग से लेकर घंटाघर तक झंडा उठाए और उछल-उछल कर नारा लगाते लोगों को संविधान किस चिड़िया का नाम है, यह नहीं पता। हां, यह जरूर है कि आप किसी से बात कर रहे हों तो कुछ खास चेहरे आपके इर्द-गिर्द घूमने लगेंगे, आपकी निगरानी करने लगेंगे, आपको घूरने लगेंगे ताकि आप बात बंद कर दें। आप दाढ़ी वाले हों तो आप बच सकते हैं, वरना आपको ही उल्टा पूछताछ से गुजरना होगा, जिसमें उनका सबसे बड़ा अहम सवाल होता है, ‘आपका नाम क्या है?’ ...ताकि आपके धर्म का पता चल जाए। मैं सफेद दाढ़ी वाला होने के कारण बचा रहा। कुछ युवकों ने मुझसे यह जरूर पूछा कि ‘क्या आप जर्नलिस्ट हैं?’
इन धरनास्थलों पर... नहीं, नहीं, इसे धरनास्थल कहना ठीक नहीं। इन ड्रामास्थलों पर आपको एकधर्मी पत्रकारों की पूरी भीड़ दिखाई देगी। इन पत्रकारों को और कोई काम नहीं। इनका कोई असाइनमेंट नहीं। बस इनका सारा धर्म इन्हीं ड्रामास्थलों पर सिमट आया है। इनका एक ही काम रह गया है, वे भीड़ को बढ़ा-चढ़ा कर दिखने वाले एंगल से फोटो खींचते हैं और उन्हें धड़ाधड़ व्हाट्सएप के तमाम ग्रुपों पर डालते रहते हैं। शाहीनबाग से लेकर तमाम ‘बागों’ तक इनके तगड़े लिंक हैं। आनन-फानन में सारी खबरें और तस्वीरें देशभर से लेकर पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब, ईरान तक पहुंच जाती हैं। एकधर्मी पत्रकारों के फोन की जांच हो जाए तो सारी संवैधानिक-प्रतिबद्धता साफ-साफ दिखने लगे। लेकिन सत्ता-प्रतिष्ठान भी तो ऐसे प्रायोजित-नियोजित मेलों को बढ़ावा दे रहा है।
इन प्रायोजित-नियोजित मेलों में इसके अलावा गुरु-गंभीरता ओढ़े खास शक्ल के झोलाछाप मक्कार ‘प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष’ लोगों की जमात भी दिखेगी, जो खास कर महिलाओं के झुंड के बीच गिटपिट-गिटपिट करते मिलेंगे। आगे मिलेंगे भोले-भाले बच्चे जिन्हें सीएए-एनआरसी से क्या मतलब, उन्हें यह मेला मिल गया है, खूब खेलते हैं और मौज करते हैं। जब उनसे नारे लगाने के लिए कहा जाता है, तब उसमें भी उन्हें बहुत मौज आती है। जो महिलाओं की भीड़ है उनमें भी अधिकांश महिलाएं सीधी-सादी गृहणियां हैं... अपने पतियों या पिताओं का हुकुम है और मक्कार ‘प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष’ लोगों की महिला जमात का उकसावा... बैठी हैं घर-बार छोड़ कर। अधिकांश महिलाओं से संविधान को लेकर लग रहे नारों का मतलब पूछिए या उनसे पूछिए सीएए के बारे में तो आपको पता चल जाएगा संविधान के ज्ञान और सम्मान का यथार्थ। रटवाए गए डायलॉग आपको कमोबेश प्रत्येक महिलाओं के मुंह से सुनने को मिल जाएंगे। आप मुस्कुरा कर या झुंझला कर रह जाएंगे। दरअसल शाहीनबाग के शातिरों को महिलाओं और बच्चों को ढाल बनाने की रणनीति माओवादी-नक्सलियों ने सिखाई है। आप यह जानते हैं कि पुलिस से बचने और सुरक्षित भाग निकलने के लिए नक्सली महिलाओं और बच्चों को आगे कर देते हैं। शाहीनबाग के षड्यंत्रकारी वैसे ही ‘योद्धा’ हैं जो महिलाओं और बच्चों के पीछे दुबके रहते हैं। यही ‘युद्धनीति’ लखनऊ के घंटाघर, पटना के सब्जीबाग और कलकत्ता के पार्क-सर्कर में भी अख्तियार की जा रही है।
आपने एक बात और गौर की होगी... ड्रामास्थलों पर बाबा साहब अम्बेडकर के पोस्टर भी खूब लगे हुए हैं। बाबा साहब को भी ड्रामेबाजों ने ढाल बना रखा है। ड्रामास्थल पर जमे बैठे एकधर्मी पत्रकारों, झोलाछाप नस्लदूषित-प्रगतिशीलों और नेताछाप शातिरों से पूछिए संविधान निर्माता बाबा साहब अम्बेडकर के विचार के बारे में... उनका जवाब सुनकर आप इनके चेहरे पर मूर्त रूप से थप्पड़ भले ही न जड़ पाएं, लेकिन एक करारा थप्पड़ रसीद करने का भाव मन में तो जरूर ही आएगा। बाबा साहब अम्बेडकर की दूरदर्शिता, बाबा साहब की विद्वत्ता, बाबा साहब के ज्ञान और उनकी समझदारी पर कोई संदेह है क्या आपको..? नहीं न..? फिर उन्होंने संविधान निर्माण के समय ही संविधान की प्रस्तावना (preamble) में धर्म-निरपेक्ष या पंथ-निरपेक्ष शब्द क्यों नहीं जोड़ा..? कभी सोचा है आपने..? जब धर्म के नाम पर देश को काटा जा रहा हो तो कटे हुए टुकड़े के संविधान में ‘धर्म-निरपेक्ष’ का पैबंद क्यों लगे..? इसीलिए मूल संविधान में यह शब्द संलग्न नहीं है... इसे बाबा साहब ने अपने विचारों में रेखांकित भी किया है। इसीलिए तो उन्होंने संविधान में अनुच्छेद-370 जोड़ कर कश्मीर को ‘दामाद’ बनाने के नेहरू-शेख कुचक्र का विरोध किया था..! बाबा साहब का साफ-साफ मानना था कि इस्लाम के नाम पर देश बांटने के बाद मुसलमानों को भारत में क्यों रहना चाहिए..? लेकिन गांधी-नेहरू दादागीरी के आगे बाबा साहब की एक नहीं चली। खैर, अब मूल बात पर आइए... भारत की संसद ने 1975 में भारत के संविधान में 42वां संशोधन करके ‘पंथ-निरपेक्ष’ शब्द जोड़ा। शाहीनबाग के शातिर इस शब्द के सम्मान का ढाक बजा रहे हैं। ढाक बजाने वाले खुद किसी भी कोण से पंथ-निरपेक्ष नहीं हैं। उनकी कुत्सित मंशा देखिए कि संविधान के इस एक शब्द का तो सम्मान हो... लेकिन जिस संसद ने संविधान में संशोधन करके अनुच्छेद-370 को शिथिल किया, उसके सम्मान की वे धज्जियां उड़ा रहे हैं..! संविधान का यह कैसा सम्मान है..? जिस संसद ने भारत के संविधान के दूसरे भाग के अनुच्छेद-5 से अनुच्छेद-11 तक उल्लिखित नागरिकता से सम्बन्धित प्रावधानों को संशोधित कर नागरिकता संशोधन कानून (सिटिजंस अमेंडमेंड एक्ट) बनाया... उसके सम्मान की वे खुलेआम धज्जियां उड़ा रहे हैं..! संविधान का यह कैसा सम्मान है..? पूरे देश को बेवकूफ समझते हैं क्या ये ड्रामेबाज..? कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की इज्जत और उनका लहू बहाने वालों को, छत्तीसिंहपुरा में सिखों का कत्लेआम करने वालों को, गोधरा में ट्रेन के डिब्बे में बंद कर हिन्दुओं को जिंदा फूंकने वाले अधर्मियों को, अपनी संख्या बढ़ाने और दूसरों की संख्या का संहार करने की विकृत मनोवृत्ति वाले लोगों और उनके साथ खड़ी नस्लदूषित-जमात को पहले खुद को पंथ-निरपेक्ष बनाना होगा। यह समझना होगा कि प्रति-हिंसा हमेशा मूल-हिंसा के बाद आती है... इसीलिए कानून की भाषा में भी मूल-हिंसा को अधिक संगीन माना जाता है। ‘मूल’ को रोकना होगा… ‘प्रति’ पैदा ही नहीं होगा। प्रकृति का नियम है, ‘प्रत्येक क्रिया के बराबर उसी दिशा में विपरीत प्रतिक्रिया होती है’ (for every action (force) in nature there is an equal and opposite reaction)। इस क्रिया और प्रतिक्रिया को रोकना एक व्यक्ति के लिए भी हितकारी है और देश-समाज के लिए भी। भारत के संविधान का समग्र समवेत सम्मान करना होगा। अपनी सुविधा के मुताबिक टुकड़े-टुकड़े में संविधान और कानून का पालन कतई स्वीकार्य नहीं। किसी भी देश के नागरिक के लिए उसका वहां का विधिक (कानूनी) नागरिक होना जरूरी होता है... इस आधार-अनिवार्यता को समझना होगा। कोई भी देश ‘खाला जी का घर’ नहीं होता, जहां जिसे जब चाहे घुस आए, फैल जाए, और संख्या के आधार पर देश मांगने लगे...
रही बात समाचार चैनलों और अखबारों की... उन्हें क्या चाहिए..? उन्हें भी मेला चाहिए। ड्रामास्थल या मेलास्थल देखते ही जिस तरह गोलगप्पे, मूंगफली और गुब्बारे वगैरह बेचने वाले ठेले-खोमचे लग जाते हैं उसी तरह मीडिया के खोमचे लग जाते हैं। आप क्या सोचते हैं कि वे बड़े समझदार लोग हैं..? समझदार होते तो क्या संविधान और देश की समझ उन्हें नहीं होती..? उनकी समझदारी केवल पैसे तक केंद्रित है। समाचार चैनलों को टीआरपी चाहिए और अखबारों को प्रसार-संख्या... पत्रकारिता की यह दोनों दुकानें मुर्दे तक बेच कर खाती हैं। यह तो आप अपने अनुभव से भी जान ही चुके हैं। यह शाहीनबाग पत्रकारों के लिए ‘पीपली लाइव’ है... याद है न आपको वह फिल्म..! बस, आप समझ लीजिए कि शाहीनबाग का मेला मीडिया के लिए ‘पीपली लाइव’ है और इस बार ‘पीपली लाइव’ का ‘नत्था’ बनाया गया है भारत के संविधान को, जिसे सारे शातिर मिल कर सुसाइड कर लेने के लिए उकसा रहे हैं। 

Saturday 18 January 2020

शाहीनबाग के शातिरों को शर्म कहां..!


प्रभात रंजन दीन
दिल्ली के शाहीनबाग और लखनऊ के घंटाघर पर पाकिस्तानियों, बांग्लादेशियों, रोहिंगियाओं और उनके सरपरस्त धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं की भीड़ जमा है... इस भीड़ के हाथ में भारत का झंडा है। यह खास रणनीति है। जब उन्हें सड़क से हटाने की कार्रवाई शुरू होगी, तब इस झंडे का डंडा पुलिस के खिलाफ हथियार बनने वाला है। धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों की धर्मनिरपेक्षता और मानवीयता केवल बांग्लादेशी, पाकिस्तानी और रोहिंगिया घुसपैठिए मुसलमानों के लिए है... और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं की तो बात ही छोड़िए, यह भारतवर्ष की संदिग्ध नस्ल है। शाहीनबाग या घंटाघर पर जमा अवांछित तत्वों को गुस्सा इस बात पर है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार पर क्यों उंगली उठाई गई, क्यों सवाल उठे..! पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में बर्बर धार्मिक-अत्याचार का शिकार हो रहे गैर-मुस्लिमों को भारत में नागरिकता देकर उन्हें संरक्षण देने का फैसला भारत सरकार ने क्यों किया..! आप सोचिए कितने घिनौने लोग हैं ये..! भारत सरकार ने पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और रोहिंगिया मुसलमान घुसपैठियों के लिए भारत की नागरिकता देने का रास्ता खोला होता, तो जरा भी विरोध नहीं होता। यह है भारत के धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं की असलियत। यह जमात उन दिनों की तैयारी कर रही है, जब पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह भारत में भी एकधर्मी-अधर्म का पाप सड़कों पर पसरेगा और गैर-मुस्लिमों का खून और सम्मान सड़कों पर बिखरेगा। सड़क घेर कर बैठे लोगों की मंशा और तैयारी उन दिनों की है। ये बस अपनी संख्या बढ़ाने की जुगत में हैं।
मेरी बातें अतिरंजना नहीं हैं... इसमें एक शब्द भी बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कहा जा रहा... सारे शब्द नपे-तुले और सोच-समझ कर लिखे जा रहे हैं। यह आप भी समझते हैं, लेकिन खुल कर बोलने से डरते हैं कि कोई क्या कह देगा... यह मनोवैज्ञानिक भय बड़े ही शातिराना तरीके से हममें पीढ़ी दर पीढ़ी इंजेक्ट किया गया है। वो खुल कर एकधर्मी-अधर्मिता पर उतारू हों तो वे धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील... हम स्वाभाविक मानवीयता, सर्वधर्मीय समग्रता और राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की बात कहें तो हमें हाशिए पर डालने की कार्रवाइयां तेज गति से चालू..! इसे हम कब तक बर्दाश्त करेंगे..? हम उचित बात इसलिए न कहें कि धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता की नकाब ओढ़े गुंडों और अवांछित तत्वों की एकजुट जमात हमसे नाराज हो जाएगी..! गुंडे और असामाजिक तत्वों को हम अपने समाज पर कबतक और क्यों हावी होने दें..? इसे सोचिए... इस प्रश्न पर विचार करिए... इस मसले पर मुखर होइए। इस पर विचार करिए कि सड़क घेरे बैठी भीड़ का कोई भी एक धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील शख्स आज ही के दिन वर्ष 1990 में कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के साथ हुए भीषण नरसंहार, बलात्कार और आगजनी के शर्मनाक एकधर्मी-अधार्मिक बर्बर कृत्य को लेकर एक शब्द भी बोला..? 19 जनवरी 1990 को कश्मीर घाटी में मुसलमानों ने जो घोर
घृणित कृत्य किए थे, उसे लेकर शाहीन-बाग के समर्थक क्या किसी एक भी व्यक्ति ने शोक जताया..? कश्मीरी पंडितों के शोक में शरीक होने और उनके प्रति सहानुभूति जताने की जरूरत समझी..? नहीं न..! आप समझिए कि वे कितने क्रूर हैं। अगर कोई यह कहता है कि सीएए का विरोध कर रहे लोग डरे हुए लोग हैं... तो आप समझ लीजिए कि ऐसा कहने वाला बेहद मक्कार है। ये डरे हुए लोग नहीं, ये समझे हुए शातिर लोग हैं। हिन्दुओं, सिखों और अन्य गैर मुस्लिमों को बेरहमी से काटते हुए, गैर-मुस्लिम महिलाओं के साथ बेगैरत हरकतें करते हुए, सार्वजनिक ऐलान कर गैर-मुस्लिम कश्मीरियों को कश्मीर से बाहर निकालते हुए जो लोग डरते नहीं... वे सीएए से डर रहे हैं..? किस गलतफहमी में हैं आप..? ये जब अपने देश के नागरिकों के नहीं हुए तो आप क्या यह सोचते हैं कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिमों पर हुए बर्बर अत्याचार पर वे संजीदा होंगे..? यह भारतवर्ष का नाकारा-नपुंसक सत्ता-चरित्र है कि यहां राष्ट्रविरोधी तत्वों को सड़क घेरने की आजादी रहती है और वे सड़क घेर कर खुलेआम आजादी-आजादी का नारा लगा सकते हैं। क्या किसी भी अन्य देश में इस तरह राष्ट्र-विरोधी नारे लगाने की इजाजत है..? पाकिस्तान-परस्त लोग जो शाहीनबाग की मुख्य सड़क घेरे बैठे हैं, वे क्या पाकिस्तान में ऐसी हरकतें कर सकते हैं..? शाहीनबाग धरना को पाकिस्तान खुलेआम समर्थन दे रहा है... इससे क्या सत्ता को बात समझ में नहीं आती..? सामूहिक-बलात्कार, सामूहिक-हत्याएं और सामूहिक अग्निकांडों (Mass-Rapes, Mass-Murders and Mass-Arson) के बाद 19 जनवरी 1990 को करीब चार लाख कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने पर विवश होना पड़ा था। ऐसी जघन्य और हृदय-द्रावक घटना क्या कभी भूली जा सकती है..? शाहीनबाग के शातिरों को यह घटना क्यों नहीं याद आई..? उस एकधर्मी-अधर्मी वारदात के 14 दिन पहले चार जनवरी 1990 को उर्दू अखबार ‘आफताब’ में कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ देने की चेतावनी-घोषणा प्रकाशित हुई थी। फिर दूसरे उर्दू अखबार ‘अल-सफा’ ने भी यही घोषणा छापी। श्रीनगर के चौराहों और मस्जिदों में लगे लाउड-स्पीकरों से कश्मीरी पंडितों को तत्काल घर छोड़ कर चले जाने की धमकियां दी गईं। कश्मीरी पंडितों को घाटी से चले जाने और अपनी औरतों को छोड़ जाने... ‘असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान’ (हमें पाकिस्तान चाहिए, पंडितों के बगैर, लेकिन उनकी औरतों के साथ) की लगातार सार्वजनिक धमकियां दी गईं। इन हरकतों पर शाहीनबागी धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं को क्या आज भी शर्म आती है..? तब नहीं आई तो अब क्या आएगी..? सत्ता और न्यायिक व्यवस्था को भी शर्म कहां आती है..! ‘रूट्स ऑफ कश्मीर’ संस्था वर्ष 1990 में हुई कश्मीरी पंडितों की सामूहिक हत्या के 215 मामलों की जांच की लगातार मांग कर रही है। सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि मामले पुराने हो गए। जबकि मई 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा में हुए दंगों पर सुप्रीम कोर्ट ने बाकायदा सुनवाई की और दोषियों को सजा भी सुनाई। इसे ही तो विडंबना कहते हैं..! ऐसे ही दोगले सत्ताई-प्रशासनिक-न्यायिक-वैचारिक कुचक्र में फंसे हैं भारतवर्ष के वास्तविक-स्वाभाविक प्रतिबद्ध लोग, जिन्हें सच बोलने से डर लगता है...

Anti National Radicals must be dealt severely…


Prabhat Ranjan Deen
Abrogation of article-370, implementation of Citizens Amendment Act and preparation to start the Census Work (NPR) has infuriated the Anti-National Radicals residing in India, but loyal to Pakistan, Bangladesh, Saudi Arab and Iran. They are trying to give shelter to the Pakistanis, residing in India illegally and involved in subversive activities. These traitors and their defender Quasi-Secular-Progressives must be crumpled severely.

Saturday 11 January 2020

This is the time to identify who are anti-nationals...



जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट बहाली को लेकर सुप्रीम कोर्ट के मंतव्य और देश की मौजूदा स्थितियों को लेकर दूरदर्शन पर एक विचार-गोष्ठी आयोजित हुई... आप भी सुनें और अपनी भी राय दें...

Wednesday 8 January 2020

देश किसी दल या गिरोह की बपौती नहीं...


प्रभात रंजन दीन
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और ईरान में एक सेनाधिकारी की हत्या के खिलाफ भारतवर्ष में हो रहे अवांछित (un-wanted) और असंवैधानिक (un-constitutional) धरना-प्रदर्शनों और हिंसा को लेकर ‘मित्रों के चेहरे वाली किताब’ (Facebook) पर मैंने दो-तीन लेख लिखे। इन लेखों पर सैकड़ों सार्थक-सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलीं। सत्तर साल से हम धर्म-निरपेक्षता, प्रगतिशीलता और बुद्धिजीविता की खाल ओढ़े भेड़ियों का शिकार होते आए हैं। नकाब नोच कर उनका असली चेहरा दिखाने की कोशिश करते ही संगठित झुंड बिलबिला उठता है। सारी बुद्धिजीविता ताक पर चली जाती है और तथ्यों के बजाय कीचड़ उछालने का सड़ियल तौर-तरीका शुरू हो जाता है। तथ्यहीनता और तर्कहीनता को छुपाने के लिए छद्मी जमातें ऐसा ही दांव आजमाती हैं। किसी विचार पर तार्किक सहमति या तार्किक असहमति दोनों ही स्वागत योग्य होती है। साथी आवेश तिवारी जी ने मेरे लेख पर जो लिखा उसके लिए लिखे के बजाय ‘उछाला’ अधिक सटीक है... फिर भी मुझे उनसे उम्मीद है, इसलिए मैं उनका आह्वान कर रहा हूं कि वे अपने ‘उछाले’ को जमीन पर ‘बिछाले’। जमीनी यथार्थ समझे और छद्म के फैशन से विदा ले। साथियों, आप सब भी इसे पढ़ें, बहस में शरीक हों... शायद कहीं यह मसला किसी वैचारिक परिणति तक पहुंच पाए...
प्रिय आवेश जी, मैं समझता था कि आप एक समझदार व्यक्ति हैं... लेकिन अच्छा ही हुआ कि आप अपनी भी पहचान दे बैठे। हालांकि, जितना मैं आपको जानता हूं, मुझे अभी भी आपसे उम्मीद है कि आप अपना छद्म-कवच उतार फेकेंगे, क्योंकि अब समय छद्म के फैशन को ओढ़े रखने का नहीं है। सत्तर साल से ओढ़े-ओढ़े देश का सत्यानाश कर दिया। आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि मैं जो भी लिखता हूं, वह मेरा फैशन नहीं होता, उसके पीछे कोई भौतिक लाभ-लोभ का रत्ती भर भी स्थान नहीं होता। मेरे लिखे को किसी खास राजनीतिक फ्रेम में कस देना, सच्चाई से पलायन करने जैसा है और मैं मानता हूं कि किसी विचार या लेख को एक खास फ्रेम में कस देना सुनियोजित षडयंत्र के दायरे में आता है। तथ्यों का आप मुकाबला नहीं कर सकते तो आसान है उसे किसी एक खास फ्रेम में कस कर उसे isolate या segregate कर देना... उसे अछूत बना देना, जैसा दलितों के साथ किया गया। आप यह बखूबी जानते हैं कि मैं मुक्त विचारधारा का व्यक्ति हूं, किसी भी राजनीतिक दल का विचार ओढ़ने से अच्छा आत्महत्या कर लेना समझता हूं। देश समाज के बारे में भावुकता से सोचना किसी राजनीतिक दल और नेता की बपौती नहीं होती... इसे साफ-साफ समझ लेना चाहिए।
आपने जो प्रतिक्रिया दी, उसे अगर सोच-समझ कर लिखा होता तो आरोप का सतही सहारा लेने के बजाय तर्कों और तथ्यों पर बात करते। मैंने जो लिखा, आपने उसमें से एक लाइन अपनी सुविधा से बाहर निकाल ली... ‘मुसलमान हैं तो भारत कहीं प्राथमिकता पर नहीं।’ चलिए इसी एक लाइन पर बात करते हैं... आपने लिखा कि मैंने generalize कर दिया। शायद इस अंग्रेजी शब्द को ही हिन्दी में ‘सामान्यीकरण’ कहते हैं। इसे ही ‘सरलीकरण’ भी कहते हैं। चलिए आपने इतना तो माना कि गुत्थियों में उलझे इस गूढ़ मसले को मैंने ‘सरलीकृत’ कर दिया... उसे सरल बना कर कह दिया। मैंने अपने लेख की शुरुआत में ही कहा कि बहुतायत में भारतवर्ष घृणित किस्म के लोगों का देश बन गया है। बहुतायत शब्द का इस्तेमाल इसीलिए होता है कि उसमें पूरी संख्या (complete number) शामिल नहीं होती और न अपवाद शामिल होता है। अब आप बताएं कि क्या बहुतायत में मुसलमानों की प्राथमिकता पर भारतवर्ष है..? एक भी उदाहरण बताएं जिसमें बहुतायत में मुसलमानों ने यह प्रदर्शित किया हो कि भारतवर्ष उनकी प्राथमिकता पर है। एक ऐसा उदाहरण बताएं जिसमें बहुतायत में मुसलमानों ने जताया हो कि भारतवर्ष उनका अपना देश है। एक भी उदाहरण नहीं है... कुछ दुर्लभ अपवादों को छोड़ कर। आपने अपना विद्वत विचार दिया कि ‘वे चाहे किसी के लिए भी रोते हों, रोने का मतलब है कि उनकी उम्मीद बाकी है।’ आप फिर मुझको इंगित करते हुए लिखते हैं, ‘आप तो रोना ही भूल गए।’ क्या लिख रहे हैं आप..? कुछ सोचते भी हैं लिखने के पहले..? कोई अन्य व्यक्ति ऐसी नासमझ प्रतिक्रिया देता तो मैं उसका जवाब नहीं देता। आप मेरे साथ कभी काम कर चुके हैं, इसलिए मैं अपना नैतिक दायित्व समझता हूं कि आपके मस्तिष्क में जमा मलबा हटाऊं। मुसलमान किसके लिए रो रहे हैं..? और इस रोने के पीछे उनकी क्या उम्मीद बाकी है..? आवेश जी बताएंगे इसके बारे में..? हद हो गई... अरे भाई, मुसलमान रोते हैं ईरानी सेनाधिकारी के मारे जाने पर। मुसलमान रोते हैं रोहिंग्याओं पर। मुसलमान रोते हैं बांग्लादेशी घुसपैठियों पर। मुसलमान रोते हैं भारत में छुप कर रह रहे पाकिस्तानियों के पहचाने जाने के डर से। मुसलमान रोते हैं रोहिंग्याओं के लिए और मुंबई में शहीद स्मारक का विध्वंस कर देते हैं। मुसलमान रोते हैं रोहिंग्याओं के लिए और लखनऊ में भगवान महावीर की प्रतिमा ध्वस्त कर डालते हैं। मुसलमान रोते हैं तो भारतवर्ष को आग में झोंक देते हैं... मुसलमानों के इस रुदन के पीछे कौन सी उम्मीद है आवेश जी..? आपने लिखा, ‘आप तो रोना ही भूल गए’... ठीक लिखा, रोते-रोते सत्तर साल हो गए। अब कितना रोएं..? इस्लाम के नाम पर देश तोड़ डाला गया और उसे आजादी नाम दे दिया गया, तब से जो रोना शुरू हुआ वह थमा ही नहीं। भारतवर्ष को तोड़ कर भी संतुष्ट नहीं हुए नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के साथ षडयंत्र करके कश्मीर का मुकुट भी उन्हीं भारत विरोधी तत्वों के सिर पहनाने का कुचक्र किया। नहीं चला तो नेहरू ने संविधान के जरिए कश्मीर को भारतवर्ष से अलग-थलग करने की आपराधिक कोशिश की। संविधान निर्माता बाबा साहब अम्बेडकर ने अनुच्छेद-370 पर असहमति जताई तो उन्हें isolate या segregate कर पटेल और अयंगार के जरिए अनुच्छेद-370 पारित करा लिया और पटना के सदाकत आश्रम में राजेंद्र प्रसाद से जबरन हस्ताक्षर लेकर 35-ए का नत्थी-पत्र उस अनुच्छेद के साथ संलग्न कर दिया। राष्ट्र के खिलाफ किए गए अपराध पर भी यह देश इसलिए चुप्पी साधे रोता रहा कि कहीं मुसलमान बुरा न मान जाएं। कश्मीर में मुसलमान संख्या में अधिक थे तो कश्मीरी पंडितों की सम्पत्ति अपने बाप की समझ कर हथिया ली। कश्मीरी पंडितों और गैर मुस्लिमों का भीषण नरसंहार किया। गैर मुस्लिम महिलाओं के साथ सड़कों पर सामूहिक बलात्कार हुए और उन्हें सड़कों पर काटा गया। तब भी देश के लोग रोते रहे और मुसलमान हंसते रहे और ‘कमीने’ धर्मनिरपेक्ष चुप्पी साधे रहे। हर महीने दो महीने पर आतंकवादी आते और आम लोगों को बमों से उड़ा डालते... तब भी भारतवर्ष के लोग रोते रहे और ‘कमीने’ धर्मनिरपेक्ष तर्क देते रहे कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। वे लोग कितने हद दर्जे के कमीने होते हैं आवेश भाई जो यह कहते हैं कि ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता...’ कब तक रोते रहेंगे भारतवर्ष के लोग..?
हंसी आती है जब आप लिखते हैं, ‘हमने तो नहीं देखा किसी माओवादी को जो चीन या माओ-माओ चिल्लाता हो। उसे तो बस एक बात पता होती है कि बंदूक के दम पर गैरबराबरी दूर कर लेंगे।’ ...आपकी इस बात पर अब आपसे क्या कहें आवेश जी, कुछ तो पढ़ा करिए। नक्सलबाड़ी आंदोलन किस सिद्धांत पर खड़ा हुआ, यह तो बेसिक जानकारी का मसला है। यह भी नहीं तो फिर बड़ी-बड़ी बातें क्यों कर रहे हैं..? मार्क्स के सिद्धांतों पर आधारित लेनिन की बोल्शेविक क्रांति के बरक्स माओत्से तुंग ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा को सैन्य-नीति के साथ मिलाया और एक नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जिसे हम माओवाद के नाम से जानते हैं। भारत में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में कानू सान्याल ने माओवादी सिद्धांत पर ही किसान आंदोलन शुरू किया, जो बाद में सशस्त्र आंदोलन के रूप में तब्दील हुआ और नक्सलवाद या नक्सलिज्म के नाम से स्थापित हो गया। जब यह बेसिक जानकारी ही न हो तो हम ‘बंदूक के दम पर गैर-बराबरी दूर करने’ की बहस में कैसे शामिल हो सकते हैं..? ...और बंदूक के बूते कौन सी गैर-बराबरी दूर हो गई..?
आवेश जी, भाषण देने वाले लोग बहुत घूमते हैं सड़क पर और बड़े महामूर्धन्य पत्रकार भी बने फिरते हैं। धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता का झोला टांग लेते हैं और मुंह पर बेवकूफाना गंभीरता लाद कर खुद को बौद्धिक-सूरमा प्रदर्शित करते हैं... दरअसल ऐसे लोगों की दुकान ही इससे चलती है। सतही किस्म के लोग बिना कुछ जाने समझे किसी पर भी टिप्पणी करके खुद अपना चेहरा गंदगी से भर लेते हैं। आवेश जी, मैंने शायद कभी आपसे यह बताया था, या नहीं बताया तो उस संदर्भ को सामने रखता हूं। जब मैं कलकत्ता में था, उन दिनों कानू सान्याल से मेरे बड़े अंतरंग रिश्ते हो गए थे। कानू दा जब भी कलकत्ता आते चौरंगी स्थित अंग्रेजकालीन बहुमंजिली इमारत की चौथी या पांचवीं मंजिल पर एक फ्लैट में रहने वाले वकील अहमद साहब के यहां ही रुकते थे। कलकत्ता पहुंचते ही अहमद साहब मेरे दफ्तर में फोन करके कानू दा के आने की सूचना देते और फिर वहीं चौरंगी पर हमलोगों का जमावड़ा होता। तब मोबाइल फोन तो होते नहीं थे। चौरंगी की चाय, पनामा या पनामा नहीं हो तो चार्म्स सिगरेट की कश और कानू दा की बातें मेरी स्मृति पर आज तक छाई हुई हैं। घुटने तक चढ़ी हुई धोती, हाफ कट कुर्ता, पैरों में प्लास्टिक का जूता, हाथ में छाता और किसानों जैसी सादगी कानू दा की पहचान थी। नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआती कथा बताते और फिर नक्सलियों के आपस में लड़ने, भिड़ने और बिखरने की अंतरकथाएं सुनाते-सुनाते भावुक हो जाते... कानू दा इस बात को लेकर भीषण तकलीफ में रहते थे कि नक्सलियों की प्राथमिकताएं कैसे बदल गईं, संशोधनवाद के खिलाफ जो सिद्धांत खड़ा हुआ था, वह स्खलित संशोधनों से भर गया, स्वार्थ में सैकड़ों गुट बन गए और किस तरह नक्सली संगठन देशभर में वसूली का धंधा करने वाले गिरोहों में तब्दील हो गए। कानू दा नक्सली संगठनों की नैतिक गिरावट के खिलाफ खड़े रहे, उन्होंने व्यापक नक्सली एकता कायम करने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे। आखिरकार इसी नाकामी और दुख में कानू दा ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। कानू दा का खड़ा किया आंदोलन आज उस गिरावट के स्तर पर आ खड़ा हुआ है, जहां नक्सली संगठनों को चीन से पैसा और हथियार मिल रहा है। भारत में सक्रिय नक्सलियों को चीन से धन और हथियार प्राप्त कराने में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई सक्रिय भूमिका अदा कर रही है। नक्सली नेताओं के बच्चे पूंजीवादी देशों में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। नक्सली नेताओं की असली पत्नियां विदेशों में रहती हैं और नकली पत्नियां जंगलों में उन्हें और हथियार दोनों ढोती हैं। इसीलिए मेरी बातें कुछ लोगों को ‘छन्न’ से लगती हैं... मैं उन्मुक्त पत्रकार हूं... सारे घाट देखे हैं मैंने, पर घाटों का पानी नहीं पीया है, उससे बचा कर रखा है खुद को। जो देखा और अनुभव किया उसकी उन्मुक्त समीक्षा की और तब लिखा... मैं किसी भी राजनीतिक विचारधारा, किसी भी धर्म, किसी भी जाति, किसी भी गुट का दलाल-वाहक नहीं हूं। आवेश जी, आपने जैसे ही स्वीकार किया, ‘मैं कट्टरपंथी ब्राह्मण हूं’... बस बात वहीं समाप्त हो गई। मुझे आपके वामपंथी, धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील होने की सारी असलियत समझ में आ गई। जो व्यक्ति कहे कि मैं कट्टर जातिवादी हूं... उससे निरपेक्षता की उम्मीद कैसे ही की जा सकती है! वैसे, यह आपका व्यक्तिगत मसला है कि आप वैचारिक रूप से कितना स्वच्छ और मुक्त होना पसंद करते हैं। ‘वेंटिलेशन’ सबको थोड़े ही पसंद आता है...
एक और साथी हैं केडी पार्थ... उन्होंने मेरे लेख पर अपनी प्रतिक्रिया में ‘बामसेफ’ संगठन से कुछ वे संदर्भ उठा कर सामने रख दिए जिसमें बाबा साहब को मुसलमानों ने साथ दिया था। यही तो मुश्किल है कि जिस मसले पर बात हो रही है उससे अलग के संदर्भ सामने रख कर मूल मसले को ‘डाइल्यूट’ करने की कोशिश होती है। सत्तर साल से यही तो हो रहा है। बाबा साहब की जो बातें ‘सूट’ कीं उसे उठाया, अपनी राजनीति की दुकान चलाई और दूसरी महत्वपूर्ण बातों पर पर्दा डाल दिया। बाबा साहब अम्बेडकर की वह बात कोई नहीं उठाता कि बाबा साहब इस्लाम के नाम पर देश बांटने के सख्त खिलाफ थे। जब इस्लाम के नाम पर देश बांट लिया गया तब बाबा साहब भारत में मुसलमानों के रहने के खिलाफ थे। जब नेहरू ने कश्मीर के मुस्लिम बहुल होने के नाम पर संविधान में अनुच्छेद-370 डालने का प्रस्ताव रखा तब बाबा साहब इसके खिलाफ थे। ...बाबा साहब की ये बातें क्यों शातिराना तरीके से दरकिनार कर दी गईं..? बात प्रसंग और संदर्भों पर होनी चाहिए। बाबा साहब का किस मुसलमान ने साथ दिया या नहीं दिया... लेख इस विषय पर कहां था केडी पार्थ जी..? लेख तो इस विषय पर शुरू हुआ था कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अत्याचार का शिकार हो रहे हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसियों को भारत की नागरिकता दिए जाने के प्रावधान पर मुसलमानों को मिर्ची क्यों लगी..? नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस को अद्यतन किए जाने पर बवाल क्यों मचा..? क्या देश को देश में रहने वाले नागरिकों के बारे में पता नहीं होना चाहिए..? ईरान में सेनाधिकारी के मारे जाने पर भारतवर्ष में मुसलमान बवाल क्यों कर रहे हैं..? क्या ईरान या पाकिस्तान के लोग वहां अपने देश में भारत के पक्ष में कलेजा पीटने या जुलूस निकालने का साहस कर सकते हैं..? जब वहां नहीं कर सकते तो यहां क्यों..? क्या भारतवर्ष ‘अंतरराष्ट्रीय-खाला-जी’ का घर है..? अगर बहुसंख्य मुसलमानों की राष्ट्र-विरोधी अराजक हरकतों से अल्पसंख्य मुसलमान असहमत हैं तो वे मुखर क्यों नहीं होते..? बांग्लादेशी, पाकिस्तानी और रोहिंग्याई घुसपैठियों को बचाने के लिए जिस तरह की हरकतें हो रही हैं, उसके खिलाफ मुसलमान क्यों नहीं खड़े होते..? शातिर लोग बड़े नियोजित तरीके से इस मसले को हिंदू बनाम मुसलमान विवाद के रंग में रगने की कोशिश कर रहे हैं। यह धार्मिक-विवाद का मसला ही नहीं है... बल्कि उससे उबरने का मसला है। दरअसल यह मसला देशहित बनाम देशद्रोह का है। हमें यह प्राथमिकता तय करनी है कि हम भारतवर्ष को बहु-सांस्कृतिक, बहु-धार्मिक, बहु-भाषिक, बहु-वैचारिक किन्तु एकल राष्ट्रीय प्रतिबद्धता वाला देश बनाना चाहते हैं कि नहीं... फिर कहता हूं एकल-राष्ट्रीय-प्रतिबद्धता वाला देश। इसमें हिंदू मुसलमान का भेद कहां है..?

Monday 6 January 2020

भारत के लिए पाकिस्तान और ईरान में कलेजा पीटो तो जानें..!


प्रभात रंजन दीन
सुनने में, कहने में और लिखते हुए बहुत बुरा लग रहा है लेकिन यह हकीकत है कि भारतवर्ष बहुतायत में अत्यंत घृणित किस्म के लोगों का देश बन कर रह गया है। यह लिखने के पहले कई देशों के बारे में पढ़ा। सोचा। अलग-अलग देश के लोगों के चरित्र और उनकी प्राथमिकताओं के बारे में जानने के लिए कई अध्याय पलटे, कई देशों में रह रहे भारतीयों से वहां के मूल नागरिकों के बारे में जाना और तब इस नतीजे पर पहुंचा कि भारत के लोगों जैसा गिरे हुए लोगों वाला देश कम ही है। जिन देशों में जहालत है, भुखमरी है, राजनीतिक अस्थिरता और मारामारी है, उन देशों के नागरिकों में चारित्रिक और नैतिक दोष है तो उसकी अपनी वजहें हैं। भारत में ऐसा कुछ भी नहीं है, लेकिन स्खलन का स्तर निकृष्टता के चरम स्तर पर है। भारत के लोगों की प्राथमिकता में धर्मांधता है, जातिवाद है, राजनीतिक दुराग्रह और पूर्वाग्रह है। अपने अधिकार के प्रति तो घनघोर आग्रह है, लेकिन देश के प्रति कोई आग्रह नहीं। अपने कर्तव्य के प्रति घनघोर लापरवाही है... आप यह कह सकते हैं कि भारत के लोगों में अपने राष्ट्रीय कर्तव्य के प्रति आपराधिक लापरवाही है। अपने देश के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं। कोई प्रेम नहीं। मुसलमान हैं तो भारत कहीं प्राथमिकता पर नहीं। धनी हैं तो भारत कहीं प्राथमिकता पर नहीं। वामपंथी हैं तो भारत कहीं भी प्राथमिकता पर नहीं। मुसलमान में अगर सुन्नी हैं तो पाकिस्तान और सऊदी अरब के प्रति अगाध समर्पण और शिया मुसलमान हैं तो ईरान के प्रति सारी वफादारी केंद्रित। चोरी-चकारी करके धन कमाया तो स्विट्जरलैंड या अन्य पूंजी-परस्त देशों के चोर बैंकों के प्रति सारी वफादारी घुस गई। नक्सलपंथी हुए तो चीन की गोदी में वफादारी दुबक गई। बुद्ध-कबीर-नानक को ताक पर रख कर माओ-माओ गाने लगे। अपने देश में रहे तो कभी धर्मांधता के नाम पर जानवर बन गए तो कभी जातिवादी उन्माद में जानवर बन गए। अधिकार जता-जता कर देश को नोच-नोच कर खाते रहे। कमीने-ठगों का संगठित गिरोह धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता के नाम पर बुद्धिजीवीपन का झोला टांग कर देश के आम लोगों को ठगता रहा, बेवकूफ बनाता रहा और ब्रेन-वॉश करता रहा। जो लोग पाकिस्तान, सऊदी अरब या ईरान के पिछलग्गू न हुए, वे उसी कमीना-सम्प्रदाय में शामिल होकर धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील बन गए और दीमक, खटमल या ऐसे ही परजीवी गंदे कीड़े बन कर भारत की नसों में घुस गए। 'कमीना' शब्द पर उन लोगों को आपत्ति जरूर होगी जो इश्क को कमीना कहने वालों को बुद्धिजीवी बता कर माथे पर उठाए रहते हैं। उन 'कमीनों' को यह समझ में नहीं आता कि हमें हमारे सूफ़ी-संतों ने ईश्वर-अल्लाह से इश्क करना सिखाया है। ईश्वर से सखा-भाव रखने की सीख दी है। इश्क को अध्यात्म के उच्चतम स्तर पर स्थापित किया है। उस इश्क को 'कमीना-सम्प्रदाय' के लोग 'कमीना' कहते हैं और खुद को प्रगतिशील बता कर इतराते हैं। मीरा का कृष्ण के प्रति इश्क का उत्कृष्ट आध्यात्मिक भाव 'कमीनों' को क्या समझ में आएगा..! 'कमीना-सम्प्रदाय' के ये निकृष्ट लोग गैर-मुस्लिमों को मानव नहीं समझते। उन्हें केवल मुसलमान ही मानव नज़र आते हैं। ऐसे लोगों से केवल भारतवर्ष क्या, पूरी सभ्यता को ही खतरा है। इनके लिए और भी कई 'सारगर्भित' शब्द हैं, लेकिन अभी इन्हें 'कमीना' कह कर ही काम चलाते हैं।
पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अत्याचार के शिकार हिंदुओं, सिखों, ईसाईयों, पारसियों, बौद्धों और जैनियों को भारत में नागरिकता देने के लिए कानून लाया गया तो मुसलमानों की सुलग गई। 'कमीना-सम्प्रदाय' के प्रतिनिधि प्रगतिशील हिंदू उस सुलगन में घी डालने लगे। प्रगतिशील 'कमीनों' को पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हो रहा बर्बर अत्याचार नहीं दिखता। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हो रहा मानवाधिकार हनन भारत के 'कमीने' प्रगतिशीलों और धर्मनिरपेक्षों को नहीं दिखता। इन्हें सिखों के तीर्थस्थल ननकाना साहब पर हमले की खुलेआम दी जा रही धमकियां नहीं दिखतीं। इन्हें हिंदू लड़कियों का बलात्कार और उनका जबरन धर्मांतरण नहीं दिखता। इन्हें सिख युवकों की सरेआम हो रही हत्या नहीं दिखती। इन्हें बामियान में भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमाओं पर बमबारी नहीं दिखती। इन्हें उन तीन देशों से विलुप्त कर दी गई वहां की अल्पसंख्यक आबादी और उनके धर्म स्थलों का विध्वंस नहीं दिखता। इन्हें वहां की ईश-निंदा की फर्जी-कथाओं पर बहुत पीड़ा होती है, लेकिन यहां राम की सरेआम निंदा करने और सुनने में बड़ा आनंद मिलता है... ये रोहिंग्याओं के लिए रोते हैं। ये बांग्लादेशी घुसपैठियों के लिए रोते हैं। ये भारत के मुस्लिम बहुल इलाकों में छुप कर रह रहे पाकिस्तानी मुसलमानों के लिए रोते-बिलखते हैं। इनमें से किसी को भी देखा आपने पाकिस्तान में सिखों पर हो रहे अत्याचार की ताजा घटनाओं पर रोते हुए..? प्रदर्शन करते हुए..? मोमबत्तियां जलाते हुए..? प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हुए या संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा खटखटाते हुए..? ऐसे प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं को क्या कहा जाए..! इन जैसे घिनौनों के लिए संबोधन का सटीक शब्द इस्तेमाल करने में आप मेरी विवशता समझ रहे हैं न..! इसीलिए इन्हें अभी 'कमीना' कह कर काम चला रहे हैं।
अभी-अभी ईरान के एक सेनाधिकारी अमरीकी ड्रोन हमले में मारे गए। इस घटना को लेकर हम अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में समीक्षा कर सकते हैं, बहस और विचार-विमर्श कर सकते हैं, लेकिन इस पर हम अपना कलेजा क्यों पीट रहे हैं भाई..? ईरान का मसला है, ईरान समझे..! ऐसा हादसा अगर भारत में हो जाए तो क्या ईरान के लोग हमारे लिए कलेजा पीटेंगे..? क्या हमारे लिए वो जुलूस निकाल कर शोक जताएंगे, शोर बरपाएंगे..? भारत के लिए पाकिस्तान, सऊदी अरब या ईरान में किसी ने कलेजा पीटा तो वहां उसका क्या हश्र किया जाएगा, उसके बारे में उन्हें पूरा पता है जो भारत में कलेजा पीट रहे हैं। समर्पण या प्रतिबद्धता का यह कैसा दोगलापन है..! इस दोगलेपन पर हम चुप्पी क्यों साधे रहते हैं..? बेमानी कलेजा पीटने वालों को हम यह क्यों नहीं समझाते कि भाई, ईरान मेरा देश नहीं है, पाकिस्तान मेरा देश नहीं है, सऊदी अरब मेरा देश नहीं है..! अपना देश भारतवर्ष है। या हम फिर यह मान ही लें कि जो समुदाय दूसरे देशों के मसले पर चिल्लाए और बवाल करे, वह भारतवर्ष का नहीं  है..! फिर उसके साथ ऐसे ही व्यवहार हो जैसा विदेशियों या घुसपैठियों के साथ होता है। फिर वह सुविधा लेने के समय यह न जताए कि वह भारतीय है। भारतीय होने का लिए भारतीय होना जरूरी होना चाहिए। दूसरे देशों में होने वाली घटनाओं पर अपने देश में धरना-प्रदर्शन, जुलूस-मातम और अन्य ऐसी नौटंकियों पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और ऐसा करने वालों पर राष्ट्र-द्रोह का मुकदमा चलाए जाने का सख्त कानूनी प्रावधान किया जाना चाहिए। ऐसे धरना-प्रदर्शन, जुलूस-मातम और नौटंकियां किसी भी तरह से लोकतंत्र के दायरे में नहीं आतीं। ऐसे कृत्य लोकतंत्र-विरोधी और देश-विरोधी होते हैं। इसे सख्ती से कुचला जाना चाहिए। देशद्रोहियों को हम भारतीय न मानें... भ्रष्टाचारियों को हम भारतीय न मानें... धर्मान्धों को हम भारतीय न मानें... एकपक्षीय ‘कमीने’ धर्मनिरपेक्षों और प्रगतिशीलों को हम भारतीय न मानें... गैर-राष्ट्रीय-प्रतिबद्धता वाले किसी भी समुदाय को हम भारतीय न मानें और उनसे सतर्क रहें। हम भारत को बहु-सांस्कृतिक, बहु-धार्मिक, बहु-भाषिक, बहु-वैचारिक किन्तु एकल राष्ट्रीय प्रतिबद्धता वाला भारत देश बनाएं...  चुप्पी न साधें, आगे बढ़ें...  प्रतिबद्ध और समर्पित भारतीयों को शुभकामनाएं...