Wednesday 22 January 2014

हम भी चलें अधर्मियों का धर्म बनाएं...

प्रभात रंजन दीन
आप टूटते जाएं, वो आपको अल्पसंख्यक का दर्जा देते जाएंगे। आप इस गलतफहमी में न रहें कि वोट पाने के प्रलोभन में वे ऐसा कर रहे हैं। भूल न करें और भूल से भी ऐसा न समझें। जो ऐसा कर रहे हैं वे समाज को इसी तरह छोटा दर छोटा करते चले जाएंगे। हम जितने छोटे होंगे, वे उतने ही खुश होंगे। हमारा पूरा समाज छोटा-छोटा हिस्सा, छोटे-छोटे स्वार्थ और छोटी-छोटी हरकतों में सिमट जाएगा और उनका वर्चस्व बना रहेगा। छोटी सी खबर पर आप सबका ध्यान गया ही होगा। अब केंद्र सरकार ने जैनियों को भी अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया है। कुछ अखबारों में यह भी छपा कि लोकसभा चुनाव को देखते हुए जैनियों का वोट प्राप्त करने के प्रलोभन में कांग्रेस सरकार ने ऐसा किया। यह जो सरकार केंद्र में बैठी है, यह जिस पार्टी की है, उसे अल्पसंख्यक के नाम पर केवल मुसलमान दिखता है, वह भी इसलिए कि वह संख्या है, और वह संख्या बड़ी है, जिसे बहका कर फुसला कर वोट की गिनती में तब्दील किया जा सकता है। कांग्रेस पार्टी को दूसरे अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय की चिंता है, क्योंकि कांग्रेस की सत्ता सूत्रधारिणी ईसाई हैं। इसीलिए केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल में ढेर सारे ईसाई हैं। बाकी अल्पसंख्यकों की कांग्रेस को कोई चिंता नहीं। सिख भी अल्पसंख्यक हैं, उनकी चिंता 1984 से लेकर अब तक जाहिर ही हो रही है। सिखों का नरसंहार दंगा नहीं है इस देश में। क्योंकि सिखों की इतनी संख्या नहीं है इस देश में जो कांग्रेसियों या अल्पसंख्यक राग अलापने वाले दूसरे राजनीतिक दलों को सत्ता की दहलीज तक पहुंचा सके। ...तो जैनियों की क्या औकात है? 50 लाख की आबादी में वोट की संख्या कितनी होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। लिहाजा, यह संख्या किसी भी पार्टी को सत्ता नहीं दिलवा सकती। लेकिन समाज को छोटी-छोटी इकाइयों में तोडऩे का काम तो हो गया। यह साजिश हिंदू धर्म को हाशिए पर पहुंचा देने की है। आप कुछ लोग एकत्र हो जाएं और अलग धर्म का ऐलान कर के देखें। देश को कमजोर करने में लगे राजनीतिक दल सब एक साथ लग जाएंगे, एक और अल्पसंख्यक समुदाय को तैयार करने में। अल्पसंख्यक हित की बात करने वाले नेताओं ने सिखों को क्या दिया? बौद्धों को क्या दिया? पारसियों को क्या दिया? अब जैनियों को क्या दे देंगे? देंगे कुछ नहीं। बस लोभ-लालच भर देंगे। धागे में बंधी हुई जलेबी दिखाएंगे और बेवकूफ बनाएंगे, जैसे वे अर्से से मुसलमानों को बनाते आ रहे हैं। बहरहाल, खबर का संज्ञान लेते चलें। केंद्र सरकार ने पिछले कई दिनों से चल रही कवायद की सोमवार को पूर्णाहुति कर दी और जैन समुदाय को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया। देश के मेधावी राष्ट्रभक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने देश तोड़क प्रस्ताव को हरी झंडी दिखा दी। खूबी यह है कि केंद्र सरकार के इस फैसले का जैन समाज के धर्मगुरुओं, जैन समाज के प्रतिनिधियों तथा सभी जैनियों ने स्वागत किया और उम्मीद जताई कि इससे समाज न केवल अपने अधिकारों का प्रभावी इस्तेमाल कर सकेगा बल्कि उन्हें संवैधानिक संरक्षण भी मिल सकेगा। आपने देखा न कि केंद्र सरकार का फैसला आते ही आकांक्षाएं किस तरह परवान चढऩे लगीं। जैन समुदाय को दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत 14 राज्यों में पहले से ही अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ था। लेकिन आप ही बताएं कि उन्हें उन राज्यों में कौन सी लॉटरी लग गई थी! खैर, मंत्रिमंडल का फैसला आने के बाद अब अल्पसंख्यक आयोग इस समुदाय को अपनी सूची में लाए जाने को लेकर अधिसूचना जारी करेगा और उसके बाद अपना-अपना अधिकार पाने की मारामारी में जैनी भी बाकायदा शरीक हो जाएंगे। देश के एक प्रभु सम्पन्न वर्ग को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देकर उनमें छोटे-छोटे लोभ कैसे जगा दिए गए, देखा न आपने! कांग्रेस सरकार ने अपने साजिशी अभियान का कितना बड़ा काम कर दिया, इसका अंदाजा लगा सकते हैं आप। अब और भी लोग टूटने का जुगत भिड़ाएंगे, अपना अलग धर्म बनाएंगे। हम भी चलें अधर्मियों का धर्म बनाएं... 

हम बारूद में जीयें और उसके फटने का स्वप्न सीयें...

प्रभात रंजन दीन
पूरा देश बोल ही तो रहा है... फिर भी क्यों लगता है ऐसा कि मैं कुछ कहना चाहता हूं। पूरा देश बोल ही तो रहा है। नेता भाषण दे रहा है, अभिनेता डायलॉग बोल रहा है, कार्यकता नारे लगा रहा है, कोई न्याय दे रहा है, कोई आश्वासन दे रहा है, कोई उपदेश दे रहा है, कोई आदेश दे रहा है, कोई गालियां दे रहा है, कोई कोस रहा है... फिर भी क्यों लगता है ऐसा कि मैं कुछ कहना चाहता हूं, पर कह नहीं पाता! अभिव्यक्ति की अराजकता की देश में पूरी आजादी है, फिर भी जो बात कहनी है, वह कही नहीं जाती। जो बात सुननी है, वह सुनी नहीं जाती। केवल शोर है। चारों ओर है। बेमतलब घनघोर है। मेरे कमरे से लेकर देश की दरो-दीवार तक अखबार और मूर्ख-बस्ते के रंगीन पर्दे पर, धूप और ठंड की चादर पर और महंगाई और मुफलिसी की चटाई पर यह मनहूस लोकतंत्र का शोर चिपक गया है। इसी शोर के साथ अन्योन्याश्रित हो गया है गोलियों के धमाके का शोर, जो किसी के सीने में उसकी बोली सुन कर उतर जाता है और उसकी चीख उसी लोकतंत्र के लाउडस्पीकर में गुम हो जाती है। अब तो इस लोकतंत्र में बहुत मुश्किल हो गया है कि किसे देशवासी बुलाएं और क्यों बुलाएं? जब देश में बोली सुन कर मारी जा रही हो गोली, फिर इतना बोलते क्यों हो! लोकतंत्र का यह शोर क्यों नहीं तय कर देता कि कोई किस भाषा में खुद को छुपाए, किस भाषा में खुद को बचाए। एक बोली में बच जाए और दूसरे प्रदेश में उसी बोली में मारा जाए। यही तो बच गया है अपना देश। अपना लोकतंत्र। दिल्ली में सब बोल रहा है। लखनऊ में सब बोल रहा है। पटना में सब बोल रहा है। सब जगह सब बोल ही रहा है। शीला बोल गईं, अब केजरीवाल बोल रहा है। माया बोल गईं, अब अखिलेश बोल रहा है। लालू बोल गया, अब नीतीश बोल रहा है। सब यही बोल रहा है, अब अच्छे दिन आएंगे। हम अच्छे दिन लाएंगे। ...जब सारे के सारे लोग अपने-अपने बुरे दिनों का बोरिया-बिस्तर बांधे भाग जाएंगे। कोई आसाम में तो कोई पंजाब तो कुछ महाराष्ट्र में मारे जाएंगे, तब! तब याद आएगा किसी ने कहा था कि मुझे बिहारियों और यूपी वाले भाइयों से प्रेम हो गया है। जहां जाता हूं कोई न कोई बिहारी या यूपी का भइया मिल जाता है। अखबार हो या चौका-चौबार। उनकी बोली से पहचान कर यही लगता है कि पिछली बार मिले थे। यह भी एक शोर है। जो कहता है उसके दिल में चोर है। वह बोलवाएगा और पहचान कर गोली मरवाएगा। फिर भी यह लोकतांत्रिक भारतवर्ष है। फिर भी यहां के लोग भारतवासी कहे जाते हैं। फिर भी बोलियों के मुताबिक भारतवासी मारे जाते हैं। तो दोस्तो! कभी कोकराझार के हमले तो कभी ठाकरे के हमले में कुचले जाने से बचा कर रख लेता हूं अपनी बोली, यह कहना जारी रखते हुए कि मैं सम्भाल कर रख लेता हूं अपनी चुप्पी, जो कायर नहीं है, बारूदी है, कभी फटूंगा तो लोकतंत्र का लाउडस्पीकर फाड़ डालूंगा। मैं यही कहना चाहता हूं, मैं जो बचा कर रख रहा हूं अपने भीतर उसे कह कर मरना चाहता हूं। मैं कोकराझार का बस यात्री नहीं, जो अपने बचाव की बोली में मिमियाकर मर जाए। नए-नए फैशन की नई-नई टोपियां पहन कर यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरने वाली वाचाल राजनीतिक दुष्टात्माओं के सीने में घुस कर फटूंगा। मैं और मेरे जैसे तमाम लोगों की बोली, बचाव का आर्तनाद नहीं, डायनामाइट का पलीता है जो समाधान को व्यवधान मानने वालों की दरारों में घुस कर दगेगा। मैं और मेरे जैसे वे सब जो कुछ बोलना चाहते हैं, पर बोल नहीं पाते, बारूद में ही बसे रहने का सपना साकार करना चाहते हैं। सपना बढ़ता जाएगा, विकराल हो जाएगा और बोझ से फट कर साकार हो जाएगा। हम बारूद में जीयें और उसके फटने का स्वप्न सीयें... 

कठखोदी की चोंच में फंसा लोकतंत्र...

प्रभात रंजन दीन
कठखोदी की चोंच में लोकतंत्र... जबसे 'आम आदमी पार्टी' ने दिल्ली विधानसभा में जीत और अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की है, तबसे लेकर आज मुख्यमत्री का जनता दरबार होने तक जो कुछ भी हुआ, यही लगा कि कठखोदी की चोंच में लोकतंत्र फंस गया है। आप सब जानते ही होंगे कि कठखोदी चिडिय़ा एक जगह स्थिर नहीं बैठती और जिस भी डाल या लकड़ी पर बैठती है वहीं खोदती है, इसीलिए इस पक्षी का नाम ही पड़ गया कठखोदी या कठफोड़वा। अब अरविंद केजरीवाल और उनकी 'लुक्खी' टीम को भी कुछ ऐसा ही कहा जाने वाला है। लुक्खी जानते हैं न! हर पल, हर बात पर फुदकने वाली गिलहरी को लोकभाषा में लुक्खी कहा जाता है। भारतवर्ष का लोकतंत्र कठखोदियों और लुक्खियों के हाथ लग गया है। यह देश की नियति है। जिस देश का नागरिक लौंडों की तरह आचरण करेगा, उस देश का यही हाल होगा। पूरा लोकतंत्र 'लौंडपचीसी' में लीन दिखेगा। स्कूली जीवन के बाद कॉलेज में प्रवेश लेने वाले छात्र जब बचकानेपन की हरकतें करते थे तो सीनियर 'लौंडपचीसी' नहीं करने की हिदायत देते थे। शनिवार के जनता दरबार में जब जनता भगदड़ की भीड़ बन गई तब लोक बोलियों में चलने वाले ये तीनों शब्द भारतीय लोकतंत्र के ताजा यथार्थ की तरह साकार दिखने लगे। लोकतंत्र को लौंडपचीसी में तब्दील करने का श्रेय 'आपश्री' केजरीवाल को दिया ही जाना चाहिए।
सादगी, ईमानदारी, नैतिकता और यहां तक कि बड़ी चतुराई से आम आदमी तक की मार्केटिंग होने लगी, 66 साल की आजादी और बाजारीकरण की संस्कृति में हुनरमंदों ने इसे करीने से सीखा, विशेषज्ञता हासिल की और मूढ़मतियों के देश में इसे बखूबी आजमाया। जनता दरबार में बड़ी-बड़ी उम्मीदें लेकर जुटी भारी भीड़ की शिकायतें जब भगदड़ के बाद रैली या सभा स्थलों पर छूटे बिखरे कुचले पड़े जूते-चप्पलों की तरह दिख रही थीं, तो आधुनिक कला-कौशल में माहिर नवरस के शौकीन सामंतों के दरबार में आम आदमी बिकने के लिए और नहीं बिका तो बिखरने के लिए खड़ा दिख रहा था। ठीक ऐसा ही लगा कि नव-सामंतों के गिरोह ने कर डाला है लोकतंत्र का होम, लाश सरीखे आम आदमी को बेचने में लग गए हैं टोपी पहने डोम...
अरविंद केजरीवाल या उनकी लुक्खी-टीम को यह नहीं समझ में आता है कि शासन नौटंकीबाजी से नहीं गम्भीरता से चलता है और जनहित के दीर्घकालिक फैसले ही लोकतांत्रिक सत्ताओं और पार्टियों को दीर्घजीवी बनाते हैं। सस्ते फैसले और सड़कछाप तौर-तरीके दुनियाभर में हास-परिहास का विषय बनते हैं। दुनिया के सारे देशों की अपनी-अपनी संवैधानिक मर्यादाएं और शासनिक आचार-संहिताएं इसीलिए तो हैं कि शासन का औचित्य बना रहे! लेकिन जिन लोगों के बूते 'आपश्री' जीत कर आए हैं, वह ऐसी ही जमात है जो नुक्कड़छाप फिल्में देखती और उन्हें हिट कराती है। तो केजरीवाल लोकतांत्रिक गम्भीरता लाकर कला फिल्में या सार्थक फिल्म की श्रेणी में खुद के किए को क्यों शरीक करें! ये जहां जाते हैं वहीं सस्ती फिल्मों की तरह सस्ती हरकतें करते हैं। चुनाव जीतने के बाद सरकारी वाहनों को लेकर नौटंकी हुई हो या सरकारी घर को लेकर की गई सस्ती हरकतें या आम आदमी दिखने की सायास की जा रही कोशिशों का भौंडा प्रहसन, कभी 'आप' की महिला मंत्री पर हमले का शोर तो कभी जजों को ही सड़क पर हांकने का घटिया विज्ञापनी जोर-आजमाइश। ये सब भीड़ को आकर्षित करने के सस्ते मदारीनुमा तौर-तरीके ही तो साबित हो रहे हैं। लोगों का ध्यान खींचने के लिए अपनी ही सभाओं या प्रेस कान्फ्रेंसों में भाड़े के टट्टुओं को लेकर प्रायोजित विरोध प्रदर्शन कराने तक के घटिया बाजारू फार्मूले आजमाने में आप-दल को कोई झेंप या हिचक नहीं हो रही है। ये लोकतंत्र के जंगल के नए ठेकेदार हैं। जंगल तो कट गए अब ये आम आदमी के जो ठूंठ बचे हैं उन्हें ही काटेंगे और बेचेंगे। यह देश और शहर बियाबान हो जाएगा, केवल वोटर बचेगा, जो कभी बाभन-ठाकुर, कभी दलित-पिछड़ा, कभी हिंदू-मुसलमान ...और अब आम आदमी का चेहरा लगा कर वोट डालेगा। हर दौर में नेता आएगा, हमें ही सीढिय़ां बनाएगा, हमारे ही सपनों को हमारे ही नाम पर बुलाए गए दरबारों में रौंदेगा और मुंडेर से खिल्लियां उड़ाएगा, हमारी सिसकियां नक्कारखाने की दीवारों से टकराएंगी और हमें ही सुनाई देंगी बार-बार, मरघटों से लोकतंत्र के फुंकने की चिराइन गंध आएगी हर बार, और इसी तरह लगता रहेगा मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री का जनता दरबार... 

Friday 3 January 2014

जख्मों पर नमक भरिए, घाव ताजा रखिए...

प्रभात रंजन दीन
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने दस साल के कार्यकाल में तीसरी बार भारतीय मीडिया से मुखातिब हुए। वे प्रेस कॉन्फ्रेंस को सम्बोधित कर रहे थे तो लग रहा था कि मीडिया वाकई 'सियासत' नाम की फिल्म की आउटडोर शूटिंग का एक लोकेशन मात्र है। मनमोहन सिंह के पूरे चेहरे पर अभिव्यक्तिहीनता का पूरा 'डिजास्टर' परिलक्षित हो रहा था, जब वे मीडिया को सम्बोधित होकर कुछ बोलते हुए जैसे दिख रहे थे। मनमोहन सिंह को बोलता हुआ जैसा देख कर ही यह साबित होता है कि खास कर भारत की मौजूदा राजनीति एक ऐसे 'विचित्र किंतु सत्य नुमा' पीड़ादायक हास्य कथानक वाली फिल्म है जिसका हीरो सामने दिखता तो है, लेकिन असली हीरो वह नहीं होता। असली हीरो कोई और होता है जो घात लगाए रहता है। लेकिन असली हीरो वह भी नहीं होता, क्योंकि वह भी एक पात्र ही होता है, जो डायरेक्टर के इशारे पर हीरो वाले अपने रोल में उतरने की तैयारी करता होता है। पूरा प्रहसन पहले इनडोर शूटिंग वाले लोकेशन पर रिहर्सल कर लिया जाता है और फिर कठपुतलियां आउटडोर शूटिंग के लिए उतर पड़ती हैं... अभी मनमोहन उतरे। कुछ दिन में राहुल उतरने वाले हैं। हॉलीवुड की कई 'फिक्शन' फिल्मों में आपने देखा होगा कि रोबॉट में भी कभी-कभी खुद के होने का अहसास कौंध जाता है और वह कुछ ऐसा कर जाता है जो पुरानी कठपुतली और नई कठपुतली के बीच के फर्क का बोध करा देता है। मनमोहन सिंह ने अपने तीसरे प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुछ ऐसा ही किया। यह आखिरी था इसी वजह से रोबॉटिक्स में थोड़ा मौलिक खेल हो भी गया। मनमोहन ने अपने सम्बोधन में एक शब्द का खास तौर पर बार-बार इस्तेमाल किया। उन्होंने 'इतिहास' और 'इतिहासकार' शब्द इतनी बार बोला कि सम्पूर्ण मीडिया के जरिए पूरे देश के अवचेतन-मन (सब कॉन्शस माइंड) में यह बिल्कुल फिट हो गया। दिमाग से बहुत सारी बातें तो निकल जाती हैं, लेकिन अवचेतन मन से बातें नहीं निकलतीं, वह ऐन समय पर अपना असर दिखाती हैं। भारतवर्ष के लोगों की स्मरणशक्ति वैसे ही बहुत टिकाऊ नहीं है। तो चार महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव तक मतदाताओं के 'सब कॉन्शस माइंड' में यह बना रहे कि भ्रष्ट कृत्यों वाली कांग्रेस पार्टी को इतिहास और इतिहासकारों के हवाले कर देना है... मनमोहन ने इसका तो इंतजाम कर दिया। देश में फैले भ्रष्टाचार और महंगाई को काबू करने में नाकाम होने का कठोर सत्य मनमोहन सिंह जैसा प्रधानमंत्री स्वीकार कर ले, तो आप समझ लें कि रोबॉट में वाकई कुछ क्षण के लिए ही सही, संवेदना कौंध गई और सच बोलवा गई। इस सच का कौंधना कुछ देर और टिक जाता तो कांग्रेस की करतूतों को लेकर जितने सवाल रख दिए गए थे, आज ही पटाक्षेप हो जाता। लेकिन फिल्म के डायरेक्टर का खौफ मनमोहन के चेहरे और घुटी हुई आवाज से समझ में आ रहा था। जो पल भर के लिए कौंध गया उतना ही क्या कम है! मनमोहन ने एक और काम कर दिखाया... कांग्रेस की दस साला करतूतों के प्रति देश के नागरिकों में जो हिकारत का भाव है, उसे उन्होंने एकसूत्रित कर दिया। देश का प्रधानमंत्री होते हुए भी उन्होंने संवैधानिक मर्यादा को ताक पर रखते हुए एक झटके में 'नरसंहार और नरेंद्र' को फिर से जोड़ा और कह दिया कि मोदी का प्रधानमंत्री बनना देश के लिए 'डिजास्टरस' (विनाशकारी) होगा। डायलॉग डिलिवरी के इस रोबॉटिक्स ने कांग्रेस से बिदके हुए लोगों को भ्रम में भटकने से रोक दिया। राजनीतिके संकेत पढऩे वाले विद्वान मनमोहन सिंह के इस वक्तव्य को कांग्रेस बनाम भाजपा पर राजनीति को ध्रुवीकृत करने की रणनीति तो बताते हैं लेकिन मानते हैं कि ऐसा बोल कर मनमोहन ने भाजपा को फायदा पहुंचा दिया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रधानमंत्री ने आउटडोर शूटिंग में अवमानना की, इसे इतिहास और इतिहासकारों ने दर्ज कर लिया होगा। मनमोहन के आह्वान का इतिहासकारों ने इतना खयाल तो रखा ही होगा। बस इतनी सी बात है जो कुछ घंटे चली शूटिंग का निचोड़ है। चोरी-बटमारी पर कुछ बोला नहीं और दस साल में लोगों के मुंह से जो बात और भात छीन लिया उस पर कुछ बोला नहीं, तो बोला क्या..? बांग्लादेश के मशहूर कवि रफीक आजाद की कुछ पंक्तियां पहले भी एक लेख में उद्धृत की हैं। अवचेतन मन तक जब-जब तनाव का तेजाब भरने लगता है, रफीक की पंक्तियां उन घावों पर नमक भरने लगती हैं, अब तो घाव पर नमक अच्छा लगने लगा है। घाव जिंदा रखना जरूरी लगता है। उन पंक्तियों को अपने देश-काल के परिप्रेक्ष्य में थोड़ा बदल कर रखता हूं, आप भी अपने जख्मों पर इसे रगड़िए, हर वक्त उसे ताजा रखिए...
महज दो वक्त दो मुट्ठी भात मिले / बस और कोई मांग नहीं है मेरी / लोग तो न जाने क्या-क्या मांग लेते हैं / रिश्वत, पद, बत्ती, रुपए-पैसे भीख में / पर मेरी तो बस एक छोटी सी लोकतांत्रिक मांग है / भूख से जला जाता है पेट का प्रांतर / मुझे तो भात चाहिए / यह मेरी सीधी सरल सी मांग है / यह जान लो कि मुझे इसके अलावा किसी चीज की कोई जरूरत नहीं / पर अगर पूरी न कर सको मेरी इत्ती सी मांग / पूरे मुल्क में मच जाएगा बवाल / भूखे के पास नहीं होता है कुछ भला बुरा, कायदा कानून / सामने जो कुछ मिलेगा खा जाऊंगा, तुम्हें भी / सब कुछ स्वाहा हो जाएगा अवाम के निवाले के साथ / सब कुछ निगल लेने वाली महज भात की भूख खतरनाक नतीजों को साथ लेकर आने को न्यौतती है / पृष्ठ से पृष्ठभूमि तक की भूमिका को चट कर जाती है / भात दे नेता, वर्ना मैं चबा जाऊंगा समूची राजनीति का मानचित्र... 

Wednesday 1 January 2014

ताकि कुछ तो जले, कहीं तो जले...

प्रभात रंजन दीन
फिर से कैलेंडर बदल गया। फिर से लोगों ने कहा 'नया साल मुबारक'... लगता है न लोग मशीन हो गए हैं! एक ही तरह से कहे चले जा रहे हैं। चालीस साल से तो याद है मुझको कि लोग यही कहे जा रहे हैं। मैंने अपने बड़ों से भी यही सुना। और यह भी सुना कि उन्होंने भी ऐसा ही सुना था। 31 दिसम्बर की देर रात हो या एक जनवरी का दिन और रात... सड़कों पर देख कर लोगों के एक अज्ञात मानसिक बदहवासी में होने और जीने का अहसास मिला। ...कि जैसे कोमा में लोग खो जाते हैं फिर भी जीते हैं... कि जैसे किसी हॉलीवुड की 'फिक्शन' फिल्म में 'म्यूटेंट्स' जीते हैं। वैसी ही बदहवासी में चीखते, भागते और दारू पीते और पागलों की तरह नए साल का पता नहीं कैसा जश्न मनाते। यही युवा तो देश का भविष्य बनाएंगे... शायद! ऐसा ही लोग कहते हैं। यही युवा जब देश का भविष्य बनाएंगे तो देश ठीक ही अपनी नियति वाले रास्ते पर चल रहा है। युवाओं की संख्या भारतवर्ष में सबसे ज्यादा है। इसीलिए तो देश का यह हाल है। जिस देश का युवा सर्वाधिक जनसंख्या वाला हो, उस देश की ऐसी हालत हो, वह देश अंधत्व का शिकार हो, वह देश लुच्चों-लफंगों की भीड़ के रूप में दिखाई दे तो हमें ऐसे राष्ट्र निर्माताओं को मुबारक कहना ही चाहिए। भारतीय लोकतंत्र का यह 'लुम्पेनिज्म' का दौर है। सुनने में यह बात कड़वी लगती है। लिखने में भी लगती है। लेकिन कड़वी बात मीठी कैसे लग सकती है! मीठी बातें कह-कह कर तो देश की नसों में जहर घोल दिया गया। देश के किसी भी आयाम में विचार नहीं दिखता। किसी भी क्षेत्र में दूरदृष्टि नहीं दिखती। किसी भी तरफ से देश बनता नहीं दिखता। बिल्कुल हल्का-फुल्का हो गया है देश। बच्चों जैसा भोलापन तो अच्छा, लेकिन बचकानापन नहीं अच्छा। गया कैलेंडर हमारे इसी बचकानेपन की सनद देकर गया है, ...और हम इतिहास रचने का मुगालता पाले रहने का बचकानापन करते फिर रहे हैं। वाकई, मुगालतों का इतिहास रचने वाले इस देश के सक्रिय दिखने वाले निरुत्पादक निर्माताओं के लिए यही कहा जा सकता है कि ...कुर्सियों के ताबूत में जमे तुमको, फाइलों के लाशघर में रमे तुमको, क्रांति पथ पर थमे तुमको फिर हो गए बारह महीने, ऐसे-ऐसे बारह महीने कितने और देखोगे, लफंगई की भीड़ और कितनी बढ़ाओगे, और कितनी मुबारकबाद कहोगे-कहवाओगे!... 'नया साल मुबारक' कह रहे भारतवर्ष ने एक साल और दो साल नहीं, पूरा एक दशक सड़ा हुआ लोकतंत्र जीया है। देश का धन लूट कर विदेश ले जाने का वीभत्स दृश्य इसी देश की आंखों के सामने से गुजरा है। यह धन अंग्रेजों ने नहीं लूटा। देश का अधिकांश धन देश को खंडित आजादी दिलाने वाले पाखंडी नेताओं और उन्हीं की संततियों ने लूटा। देश ने भ्रष्टाचार का जहर भोगा जो महंगाई के कैंसर की तरह देश-समाज की देह पर पसर गया है। यह उसी कैंसर की उबन का असर है जो सार्वजनिक स्थलों पर 'मुबारक' होता हुआ दिखता है, लिपा-पुता, बीमारी छुपाने के पूरे जतन करता हुआ। इस देश के युवाओं के बारे में कभी कहा गया था कि यही जमात देश की आस्था को अर्पित होगी। यही जमात देश के लिए जीएगी-मरेगी। यही जमात राष्ट्र के प्रति वफादारी करेगी। यही जमात किसान जवान श्रमिक छात्र बौद्धिक की ताकतवर मुट्ठी में तब्दील होकर देश को आजाद करा लेगी। ...लेकिन शातिरों की साजिश में जमात फंस गई है। उसे निकालिए। उसे मुबारक के मुगालते में मत डालिए। ...हमारे इतिहास के भूखे लकड़बग्घे / कुतर रहे हैं उन झंडों को, जिन्हें जीता गया / इतने सारे खून और इतनी सारी आग से / अपनी जागीरों में कीचड़ में सने / जनता की सम्पदा के ये नारकीय लुटेरे / हजार बार बिके हुए ये सियासत के अलमबरदार और बिचौलिये, नोट की भूखी मशीनें / अपने ही लोगों की कुरबानियों के खून से कलंकित / खुद को बेच दिया है उन्होंने / लोगों को त्रासदी में झोंकने के सिवा इनका कोई दूसरा कानून नहीं, कोई दूसरा शौक नहीं / ये हैं देश और जनता की भूखी दीमकें... पाब्लो नेरूदा की कुछ पंक्तियों को अपने देश-काल-परिस्थितियों के मुताबिक बदलता हुआ अपने देश की इसी 'मुबारक-जमात' की नज्र करता हूं, ताकि कुछ तो जले, कहीं तो जले...