Wednesday, 1 January 2014

ताकि कुछ तो जले, कहीं तो जले...

प्रभात रंजन दीन
फिर से कैलेंडर बदल गया। फिर से लोगों ने कहा 'नया साल मुबारक'... लगता है न लोग मशीन हो गए हैं! एक ही तरह से कहे चले जा रहे हैं। चालीस साल से तो याद है मुझको कि लोग यही कहे जा रहे हैं। मैंने अपने बड़ों से भी यही सुना। और यह भी सुना कि उन्होंने भी ऐसा ही सुना था। 31 दिसम्बर की देर रात हो या एक जनवरी का दिन और रात... सड़कों पर देख कर लोगों के एक अज्ञात मानसिक बदहवासी में होने और जीने का अहसास मिला। ...कि जैसे कोमा में लोग खो जाते हैं फिर भी जीते हैं... कि जैसे किसी हॉलीवुड की 'फिक्शन' फिल्म में 'म्यूटेंट्स' जीते हैं। वैसी ही बदहवासी में चीखते, भागते और दारू पीते और पागलों की तरह नए साल का पता नहीं कैसा जश्न मनाते। यही युवा तो देश का भविष्य बनाएंगे... शायद! ऐसा ही लोग कहते हैं। यही युवा जब देश का भविष्य बनाएंगे तो देश ठीक ही अपनी नियति वाले रास्ते पर चल रहा है। युवाओं की संख्या भारतवर्ष में सबसे ज्यादा है। इसीलिए तो देश का यह हाल है। जिस देश का युवा सर्वाधिक जनसंख्या वाला हो, उस देश की ऐसी हालत हो, वह देश अंधत्व का शिकार हो, वह देश लुच्चों-लफंगों की भीड़ के रूप में दिखाई दे तो हमें ऐसे राष्ट्र निर्माताओं को मुबारक कहना ही चाहिए। भारतीय लोकतंत्र का यह 'लुम्पेनिज्म' का दौर है। सुनने में यह बात कड़वी लगती है। लिखने में भी लगती है। लेकिन कड़वी बात मीठी कैसे लग सकती है! मीठी बातें कह-कह कर तो देश की नसों में जहर घोल दिया गया। देश के किसी भी आयाम में विचार नहीं दिखता। किसी भी क्षेत्र में दूरदृष्टि नहीं दिखती। किसी भी तरफ से देश बनता नहीं दिखता। बिल्कुल हल्का-फुल्का हो गया है देश। बच्चों जैसा भोलापन तो अच्छा, लेकिन बचकानापन नहीं अच्छा। गया कैलेंडर हमारे इसी बचकानेपन की सनद देकर गया है, ...और हम इतिहास रचने का मुगालता पाले रहने का बचकानापन करते फिर रहे हैं। वाकई, मुगालतों का इतिहास रचने वाले इस देश के सक्रिय दिखने वाले निरुत्पादक निर्माताओं के लिए यही कहा जा सकता है कि ...कुर्सियों के ताबूत में जमे तुमको, फाइलों के लाशघर में रमे तुमको, क्रांति पथ पर थमे तुमको फिर हो गए बारह महीने, ऐसे-ऐसे बारह महीने कितने और देखोगे, लफंगई की भीड़ और कितनी बढ़ाओगे, और कितनी मुबारकबाद कहोगे-कहवाओगे!... 'नया साल मुबारक' कह रहे भारतवर्ष ने एक साल और दो साल नहीं, पूरा एक दशक सड़ा हुआ लोकतंत्र जीया है। देश का धन लूट कर विदेश ले जाने का वीभत्स दृश्य इसी देश की आंखों के सामने से गुजरा है। यह धन अंग्रेजों ने नहीं लूटा। देश का अधिकांश धन देश को खंडित आजादी दिलाने वाले पाखंडी नेताओं और उन्हीं की संततियों ने लूटा। देश ने भ्रष्टाचार का जहर भोगा जो महंगाई के कैंसर की तरह देश-समाज की देह पर पसर गया है। यह उसी कैंसर की उबन का असर है जो सार्वजनिक स्थलों पर 'मुबारक' होता हुआ दिखता है, लिपा-पुता, बीमारी छुपाने के पूरे जतन करता हुआ। इस देश के युवाओं के बारे में कभी कहा गया था कि यही जमात देश की आस्था को अर्पित होगी। यही जमात देश के लिए जीएगी-मरेगी। यही जमात राष्ट्र के प्रति वफादारी करेगी। यही जमात किसान जवान श्रमिक छात्र बौद्धिक की ताकतवर मुट्ठी में तब्दील होकर देश को आजाद करा लेगी। ...लेकिन शातिरों की साजिश में जमात फंस गई है। उसे निकालिए। उसे मुबारक के मुगालते में मत डालिए। ...हमारे इतिहास के भूखे लकड़बग्घे / कुतर रहे हैं उन झंडों को, जिन्हें जीता गया / इतने सारे खून और इतनी सारी आग से / अपनी जागीरों में कीचड़ में सने / जनता की सम्पदा के ये नारकीय लुटेरे / हजार बार बिके हुए ये सियासत के अलमबरदार और बिचौलिये, नोट की भूखी मशीनें / अपने ही लोगों की कुरबानियों के खून से कलंकित / खुद को बेच दिया है उन्होंने / लोगों को त्रासदी में झोंकने के सिवा इनका कोई दूसरा कानून नहीं, कोई दूसरा शौक नहीं / ये हैं देश और जनता की भूखी दीमकें... पाब्लो नेरूदा की कुछ पंक्तियों को अपने देश-काल-परिस्थितियों के मुताबिक बदलता हुआ अपने देश की इसी 'मुबारक-जमात' की नज्र करता हूं, ताकि कुछ तो जले, कहीं तो जले... 

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