Thursday 26 April 2018

'डिफेंस कॉरिडोर'... इज़राइल के हाथ में बागडोर !

प्रभात रंजन दीन
जल्दी ही बुंदेलखंड क्षेत्र ‘इज़राइली कॉरिडोर’ बन जाएगा. अभी बुंदेलखंड के सात जिले इस ‘कॉरिडोर’ में शामिल होंगे, लेकिन आगरा, अलीगढ़, कानपुर और लखनऊ के भी इस ‘कॉरिडोर’ के दायरे में आने में ज्यादा वक्त नहीं है. यह गलियारा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को सुरक्षा दृष्टिकोण से एकसूत्रित करेगा. केंद्र सरकार पूरी सोच-समझ के साथ उत्तर प्रदेश के बृहत्तर बुंदेलखंड क्षेत्र को ‘डिफेंस कॉरिडोर’ बनाने जा रही है. इसकी असली बागडोर इज़राइल के हाथ में होगी. बुंदेलखंड क्षेत्र को ‘रक्षा-गलियारे’ में तब्दील करने की योजना काफी अर्से से चल रही थी, जिसने वर्ष 2016 से गति पकड़ी. ‘रक्षा-गलियारे’ में सेना के आयुध और हथियारों से लेकर सारे साजो-सामान बनेंगे. इस ‘रक्षा-गलियारे’ का निर्माण इज़राइल की मदद से होगा और सैन्य साजो-सामान बनाने में भी इज़राइल की केंद्रीय भूमिका रहेगी. ‘रक्षा गलियारे’ के निर्माण की योजना के सार्वजनिक होने के पहले ही वर्ष 2016 में बुंदेलखंड में पानी की समस्या दूर करने के लिए इज़राइल के साथ ‘वाटर यूटिलिटी रिफॉर्म’ करार कर लिया गया था. इस तरह वर्ष 2016 में ही बुंदेलखंड में इज़राइल के प्रवेश का बंदोबस्त हो गया था. उसके बाद से इज़राइली राजदूत, वहां के सैन्य-तकनीकी अधिकारियों और विशेषज्ञों का उत्तर प्रदेश आना-जाना शुरू हो गया. इस बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की इज़राइल के राजदूत से दो-दो बार मुलाकात भी हुई और इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से योगी ने आगरा जाकर भी बातचीत की. यूपी के राज्यपाल राम नाईक ने भी इज़राइल के राजदूत से लखनऊ में मुलाकात की.
पूरी पृष्ठभूमि बनाने के बाद इस साल फरवरी में लखनऊ में आयोजित ‘इन्वेस्टर्स समिट’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुंदेलखंड क्षेत्र में ‘रक्षा गलियारा’ स्थापित करने की योजना की आधिकारिक घोषणा की और उसके बाद इस योजना ने जमीन पर गति पकड़ ली. इस बीच रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण की लखनऊ यात्रा, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उनकी गहन वार्ता, फिर विशेषज्ञीय बैठकों और राजनयिक स्तर की मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा और ‘रक्षा गलियारा’ योजना पर काम बढ़ता रहा. इसके विस्तार में हम आगे चलेंगे. अभी 16 अप्रैल को बुंदेलखंड के झांसी में ‘रक्षा गलियारे’ के मसले पर हुई उच्चस्तरीय बैठक की चर्चा कर लें. इस बैठक में केंद्र से रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण तो आईं ही, केंद्रीय पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री उमा भारती भी इस बैठक में शरीक रहीं. बुंदेलखंड पेयजल योजना पर इज़राइल के साथ हुए करार को ध्यान में रखते चलें. इस उच्चस्तरीय बैठक में ‘सोसाइटी ऑफ इंडियन डिफेंस मैनुफैक्चरर्स’ (एसआईडीएम) के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल सुब्रतो साहा ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बुंदेलखंड में बनने जा रहे ‘रक्षा गलियारे’ के तकनीकी पहलू पेश किए और साफ-साफ कहा कि ‘रक्षा गलियारा’ बनने के बाद यूपी ‘उत्तम सुरक्षा प्रदेश’ बन जाएगा. बैठक में मौजूद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि ‘डिफेंस कॉरिडोर’ प्रदेश के विकास और रोजगार सृजन में अहम भूमिका अदा करेगा और यह विकास के लिए मील का पत्थर साबित होगा. योगी ने यूपी में ‘डिफेंस कॉरिडोर’ बनाने का निर्णय लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति आभार जताया और कहा, ‘इस अभियान को पूरा करने के लिए मैं पूरी तरह प्रतिबद्ध हूं.’ रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने अभी हाल ही चेन्नई में सम्पन्न हुए ‘डिफेंस-एक्सपो’ की कामयाबी और उसके परिणाम पर खूब प्रसन्नता जाहिर की. हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि ‘डिफेंस-एक्सपो’ में इज़राइल की सक्रिय भागीदारी रही लेकिन यह कहा कि चेन्नई से बंगलुरू तक भी ऐसा ही ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ बनाया जाएगा. रक्षा मंत्री ने यह बात जरूर सार्वजनिक की कि यूपी में ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ की स्थापना की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के बाद से रक्षा मंत्रालय और उत्तर प्रदेश सरकार के अधिकारियों के स्तर पर लगातार बैठकें चल रही हैं और उसके ठोस परिणाम निकले हैं. रक्षा मंत्री ने स्पष्ट कहा कि यूपी में ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ के निर्माण की निगरानी (मॉनीटरिंग) प्रधानमंत्री खुद कर रहे हैं. रक्षा मंत्री ने कहा कि देश में जिस तरह सुरक्षा की चुनौती है, उस लिहाज से रक्षा उपकरण तैयार करने वाली विदेशी कंपनियों की तरह घरेलू उद्यमियों को भी बराबर का सम्मान मिलेगा. तमिलनाडु-कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में ‘डिफेंस कॉरिडोर’ स्थापित करने का यही उद्देश्य है. रक्षा मंत्री ने इससे बड़े पैमाने पर रोजगार मिलने की उम्मीद जगाई और कहा कि ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ में बनने वाले सेना के उत्पादों को रक्षा मंत्रालय खरीदेगा. इससे बुंदेलखंड के युवाओं को रोजगार मिलेगा. रक्षा मंत्री ने भरोसा दिलाया कि अब रक्षा से सम्बन्धित 30 फीसदी उत्पाद देश में ही बनेगा और अगले 25 सालों में सेना की सभी जरूरतें देश में ही पूरी होंगी. रक्षा मंत्री यह भी बोलीं कि फिक्की, एसोचेम, सीआईआई जैसी वित्तीय संस्थाओं को बुंदेलखंड लाकर यहां के उद्योगपतियों से बात कराई जाएगी. कॉरिडोर में काम करने वाली कंपनियों को रक्षा मंत्रालय की तरफ से सेना के सामानों की सूची दी जाएगी. जो सामान कंपनियां बना सकती हैं, उनका ऑर्डर दिया जाएगा. बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे पर टेस्टिंग लैब बनाई जाएगी, जिसके जरिए भी रोजगार के अवसर खुलेंगे. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि इसी वजह से बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे को तेजी से अंतिम रूप दिया जा रहा है. ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ की स्थापना के बाद रक्षा मंत्रालय घरेलू हथियारों को खरीदने पर अधिक जोर देगा. केंद्रीय पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री उमा भारती ने बिना लाग-लपेट के इज़राइल का नाम ले ही लिया. उमा भारती ने कहा कि बुंदेलखंड की परिस्थिति और भौगोलिक स्थिति इज़राइल जैसी है. यहां इज़राइल की तर्ज पर ही विकास सम्भव है. उन्होंने कहा कि ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ का निर्माण बुंदेलखंड के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा. केंद्रीय मंत्री व क्षेत्रीय सांसद उमा भारती ने दोहराया कि ‘डिफेंस कॉरिडोर’ के लिए 20 हजार करोड़ का निवेश होगा और 50 लाख युवाओं को रोजगार मिलेगा.
‘डिफेंस कॉरिडोर’ की स्थापना को आगे बढ़ाने के इरादे से 16 अप्रैल को झांसी में बुलाई गई इस उच्चस्तरीय बैठक में केंद्रीय रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण, केंद्रीय पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री उमा भारती और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अलावा रक्षा विशेषज्ञों और निवेशकों के साथ-साथ यूपी के अवस्थापना एवं औद्योगिक विकास आयुक्त डॉ. अनूपचंद्र पांडेय, सूचना विभाग के प्रमुख सचिव अवनीश अवस्थी, सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग विभाग के सचिव भुवनेश कुमार और बुंदेलखंड क्षेत्र के सातों जिले के जिलाधिकारी शामिल थे. बैठक के पहले प्रदेश सरकार ने ‘डिफेंस कॉरिडोर’ की प्री-फिज़िबिलिटी स्टडी के लिए सलाहकार की नियुक्ति कर ली, जिसकी रिपोर्ट पेश होने के बाद जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई की जाएगी. ‘डिफेंस कॉरिडोर’ छह स्थानों पर क्लस्टर के रूप में विकसित होगा. क्लस्टर के केंद्र अलीगढ़, आगरा, कानपुर, लखनऊ, झांसी और चित्रकूट में होंगे. कंपनियां रक्षा आयुध व उपकरण के लिए इसी कॉरिडोर में अपनी-अपनी यूनिट लगाएंगी. ‘कॉरिडोर’ के काम को आगे बढ़ाने के लिए आईआईटी कानपुर से खास तौर पर एयरोनॉटिक्स के लिए और बीएचयूआईआईटी से गोला-बारूद से जुड़े प्रोजेक्ट में तकनीकी मदद ली जाएगी. ‘डिफेंस कॉरिडोर’ के लिए जो कंपनियां शामिल की जा रही हैं, उनमें हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स (एचएएल) की तीन यूनिट, यूपी की नौ आयुध फैक्ट्रियां और दो दर्जन प्राइवेट फैक्ट्रियों के साथ-साथ भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड भी शामिल हैं. ‘डिफेंस कॉरिडोर’ के परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश सरकार अलग से एक रक्षा-नीति का मसौदा भी तैयार कर रही है, जिसकी घोषणा जल्दी ही की जाएगी.
बुंदेलखंड में स्थापित होने जा रहे इज़राइल प्रभावित ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ के कुछ आधिकारिक तथ्यों की भी जानकारी लेते चलें. बुंदेलखंड क्षेत्र में ‘डिफेंस कॉरिडोर’ का काम मार्च महीने से शुरू हो गया. झांसी के साथ-साथ अलीगढ़, चित्रकूट, आगरा और कानपुर में भी इस कॉरिडोर के जरिए निवेश होगा. सभी जगह रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों की अलग-अलग टीम जा रही है. 50 साल के लिए मास्टर प्लान बनाया गया है. ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ में बुंदेलखंड के सातों जिले झांसी, जालौन, ललितपुर, चित्रकूट, हमीरपुर, बांदा और महोबा शामिल हैं. यूपी सरकार ने रक्षा मंत्रालय से कहा है कि ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ के लिए जमीन की कोई कमी नहीं है. साथ ही पर्याप्त टेस्टिंग रेंज भी उपलब्ध हैं. कॉरिडोर के लिए तीन हजार हेक्टेयर से अधिक भूमि चिन्हित कर ली गई है. भूमि के लिए जल्द ही नोटिफिकेशन भी होने जा रहा है. कॉरिडोर के लिए ऐसे क्षेत्र का चयन किया गया है जिसे आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे और बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे के माध्यम से आवागमन की सुविधा उपलब्ध हो सके. ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ के लिए यूपी की आयुध (ऑर्डनेंस) फैक्ट्रियों के विस्तार का काम तेज कर दिया गया है. झांसी ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ में एयरक्राफ्ट मैनुफैक्चरिंग इंडस्ट्री और ड्रोन मैनुफैक्चरिंग इंडस्ट्री विकसित की जाएगी. कानपुर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) को खास तौर पर ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ में तकनीकी सहयोग के लिए लगाया गया है. ‘सोसाइटी ऑफ इंडियन डिफेंस मैनुफैक्चरर्स’ (एसआईडीएम) के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल सुब्रतो साहा ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ के जरिए उत्तर प्रदेश को उत्तम सुरक्षा प्रदेश बनाने में लगे हैं और इस काम में बुंदेलखंड क्षेत्र के पूर्व सैनिकों की भी मदद लेने जा रहे हैं.
बुंदेलखंड के ‘ रक्षा गलियारे’ की स्थापना की शुरुआत झांसी से हो रही है. झांसी ही केंद्र में रहेगा. झांसी के बाद बुंदेलखंड के अन्य जिलों में गलियारे का विस्तार होगा. झांसी जिले के करीब डेढ़ दर्जन गांवों की जमीन चिन्हित की गई है. गलियारे में पहले औरैया को भी शामिल किया गया था, लेकिन बाद में इसे अलग कर दिया गया. झांसी में रक्षा गलियारे की स्थापना का पहला चरण शुरू करने के लिए राज्यपाल की ओर से बाकायदा गजट जारी किया जा चुका है. झांसी में ‘डिफेंस-कॉरिडोर’ के लिए गरौठा तहसील के गांव एरच, गेंदा कबूला, कठरी, गोरा, जुझारपुरा, टेहरका, हरदुआ, रौतानपुरा, लभेरा, झबरा और टहरौली तहसील के ग्राम शमशेरपुरा, बेंदा, पथरेड़ी, सुरवई और देवरासारन की जमीनें ली जा रही हैं.
रक्षा-गलियारे के लिए बुंदेलखंड क्षेत्र को चुने जाने के पीछे वजह है कि यह उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बृहत्तर बुंदेलखंड को भी अपने प्रभाव-क्षेत्र में लेगा. बृहत्तर बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश के सात जिले झांसी, जालौन, ललितपुर, चित्रकूट, हमीरपुर, बांदा, महोबा और मध्य प्रदेश के छह जिले सागर, दमोह, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना और दतिया आते हैं. इसके अलावा मध्य प्रदेश के भिंड जिले की लहार तहसील और ग्वालियर जिले की मांडेर तहसील के साथ-साथ रायसेन और विदिशा जिले का कुछ भाग भी बृहत्तर बुंदेलखंड में आता है. बुंदेलखंड क्षेत्र के झांसी में थलसेना का बड़ा अड्डा है तो दूसरी तरफ बुंदेलखंड को छूता हुआ कानपुर और आगरा वायुसेना का बड़ा अड्डा है. आगरा, मथुरा, कानपुर, इलाहाबाद, फतेहगढ़ थलसेना का गढ़ है. उधर मध्य प्रदेश का ग्वालियर भी वायुसेना का संवेदनशील अड्डा है. ‘रक्षा-गलियारा’ बनने से ये सभी सैन्य-क्षेत्र एक गलियारे में समन्वित हो जाएंगे. ‘रक्षा-गलियारे’ के संकेत तभी से मिलने लगे थे, जब भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानों ने आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे पर उतरने का अभ्यास शुरू कर दिया था. पिछले साल वर्ष 2017 में बांगरमऊ के पास एक्सप्रेस-वे पर एयरफोर्स ने बड़ा अभ्यास किया था. इसमें सुखाई और मिराज जैसे लड़ाकू विमान शरीक हुए थे. आप यह ध्यान देते चलें कि इजरायल ने ग्वालियर में एक भारतीय कंपनी के साथ साझा रक्षा उपक्रम हाल ही में शुरू किया है. यहां तैयार होने वाले हथियार सर्जिकल स्ट्राइक जैसे खुफिया ऑपरेशन में कारगर साबित होंगे. भारत में इजरायल के सहयोग से निजी क्षेत्र में आर्म्स निर्माण की नींव चंबल घाटी में रखी गई है. यहां हल्के रक्षा उत्पादों का निर्माण किया जाएगा.
ग्वालियर से बीस किलोमीटर दूर मालनपुर ऑद्योगिक क्षेत्र में भी विदेशी निवेश से एक साझा उपक्रम स्थापित किया गया है. साझा उपक्रम में इजराइली कंपनी ‘एसके ग्रुप’ और भारतीय डिफेंस क्षेत्र की निजी कंपनी ‘पुंजलायड’ छोटे हथियारों का निर्माण कर रही है. रक्षा उत्पाद में इजराइल की यह भारत में पहली साझेदारी है. मालनपुर में बनने वाले हथियारों की विशेषता यह है कि इन्हें सर्जिकल स्ट्राइक, आतंकी मुठभेड़ या एंटी टेररिस्ट ऑपरेशन के लिए खास तौर पर तैयार किया जा रहा है.

एक ही गलियारे से सेना को मिलेंगे सारे सामान
‘डिफेंस कॉरिडोर’ को लेकर देश-विदेश की कई कंपनियों के साथ करार होगा, लेकिन रक्षा मंत्रालय के सूत्र बताते हैं कि इसमें सबसे अहम भूमिका इज़राइल की होगी. ‘कॉरिडोर’ में कई शहर शामिल होंगे जहां सेना के इस्तेमाल आने वाले सारे साजो-सामान बनेंगे. अलग-अलग किस्म के उत्पाद के लिए अलग-अलग फैक्ट्रियां स्थापित होंगी, जिसमें पब्लिक सेक्टर, प्राइवेट सेक्टर और बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिस्सा लेंगी. इस कॉरिडोर में वो सभी औद्योगिक संस्थान शरीक हो सकते हैं जो सेना के साजो-सामान बनाते हैं. ‘डिफेंस कॉरिडोर’ की स्थापना के बाद सेना के हथियार से लेकर वाहन और वर्दी से लेकर कल-पुर्जे तक सारे सामान एक ही गलियारे में बनने लगेंगे.

‘डिफेंस कॉरिडोर’ में इज़राइल की भूमिका अहम
देश के दो अलग-अलग क्षेत्रों में बनने जा रहे ‘डिफेंस कॉरिडोर’ में इज़राइल की भूमिका अहम है. फरवरी 2016 में ही इसकी शुरुआत हो गई थी जब इज़राइली रक्षा मंत्रालय के ‘इंटरनेशनल डिफेंस कोऑपरेशन डायरेक्टरेट’ (सीबाट) और फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर ऑफ कॉमर्स (फिक्की) ने इज़राइल में चौथे साझा सम्मेलन का आयोजन किया था. यह सम्मेलन भारत और इज़राइल के बीच रक्षा प्रतिष्ठानों और उद्योगों की साझेदारी को लेकर ही हुआ था, जिसमें भारत की 25 कंपनियां और इज़राइल की सौ रक्षा कंपनियां शामिल हुई थीं. इस सम्मेलन में पांच सौ से अधिक बैठकें हुईं और तभी भारत और इज़राइल के राष्ट्रीय सुरक्षा रुझान और आपसी उदाहरणीय सहयोग तय कर लिए गए थे. तभी यह भी तय हो गया था कि अगली बैठक चेन्नई में होगी और रक्षा-गलियारे की योजना पर काम बढ़ेगा. इज़राइल के राजदूत डैनियल कारमन ने साफ-साफ कहा था कि भारत और इज़राइल ने कई वर्षों से दोनों देशों के हित की परस्पर रक्षा की है. इज़राइल सरकार और इज़राइली कंपनियां पहले से ही भारत में परियोजनाएं लागू कर रहे हैं. इज़राइल के ‘इंटरनेशनल डिफेंस कोऑपरेशन डायरेक्टरेट’ के महानिदेशक ब्रिगेडियर जनरल मिशेल बेन बरूच ने कहा था कि भारतीय और इज़रायली रक्षा कंपनियों के बीच सहयोग बढ़ रहा है, जो दोनों देशों के सम्बन्धों में गर्मजोशी दर्शाता है. इज़राइल भारत के बेहद भरोसेमंद रक्षा सहयोगियों की श्रेणी में जुड़ने की पूरी तैयारी कर चुका है. बढ़ते आतंकवाद के खिलाफ इज़राइल की प्रतिबद्धता से भारत और इज़राइल के सम्बन्ध और भी मजबूत हुए हैं. दोनों ही देश आपसी सहयोग को कामयाब बनाने की पुरजोर कोशिश में लगे हुए हैं. भारत अब तक इज़राइल के करीब एक दर्जन सैन्य उपग्रहों को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के माध्यम से प्रक्षेपित कर चुका है.
बुंदेलखंड में ‘डिफेंस कॉरिडोर’ की स्थापना को लेकर इज़राइली राजदूत डैनियल कारमैन की यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भी मुलाकात हो चुकी है. मुख्यमंत्री से साथ इज़राइली राजदूत की बातचीत में रक्षा गलियारे के साथ-साथ जल सुधार को लेकर हुआ करार भी शामिल रहा है. उत्तर प्रदेश भारत का पहला राज्य है जो ‘वाटर यूटिलिटी रिफॉर्म’ पर इज़राइल का पार्टनर बना है. उत्तर प्रदेश जल निगम और इज़रायल के बीच हुए करार में इज़राइल की मदद से पीने के साफ पानी की उपलब्धता के साथ-साथ गंगा प्रदूषण और बुंदेलखंड के भूजल की समस्या से पार पाने का लक्ष्य भी शामिल है. इज़राइल यूपी में गंगा की स्वच्छता और निर्मलता के लिए चलाए जा रहे अभियान का भी हिस्सा है. इज़राइल ने इसके लिए यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को आर्थिक और तकनीकी मदद देने का आश्वासन दिया है. बुंदेलखंड जैसे सूखाग्रस्त क्षेत्र में सिंचाई परियोजनाओं में तकनीकी मदद के जरिए इज़राइल की पैठ हुई है. बुंदेलखंड में इज़राइल की मदद से कई परियोजनाएं चल रही हैं. सपा सरकार के कार्यकाल में जिस बांध की आधारशिला रखी गई थी वहां 10 एकड़ के तीन फार्म इज़राइल की मदद से बने हैं. इन कृषि फार्मों में पूरी तकनीक इज़राइल की लगी है. कम पानी में अधिक कृषि उत्पादन करने में भी इज़राइल को महारत हासिल है. हवा से पानी बनाने की इज़राइली तकनीक का इस्तेमाल सपा सरकार के कार्यकाल में भी किया गया था, लेकिन उसे आगे नहीं बढ़ाया जा सका.

रक्षा क्षेत्र में इज़राइल की मदद से मिल रही है मजबूती
आधिकारिक तथ्य है कि इज़राइल के लिए भारत हथियारों का प्रमुख खरीददार है. वर्ष 2012 से 2016 के बीच इज़राइल द्वारा किए गए कुल हथियार निर्यात में 41 फीसदी हिस्सेदारी भारत की थी. भारत के लिए इज़राइल हथियारों का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है. वर्ष 2012 से 2016 के बीच इज़राइल की 7.2 फीसदी की हिस्सेदारी रही है. भारत और इज़राइल के बीच सहयोग की शुरुआत 1962 में चीन-भारत युद्ध के दौरान ही हुई थी. इस युद्ध के दौरान इज़राइल ने भारत को सैन्य सहायता प्रदान की थी. 1965 और 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए दो युद्धों के दौरान भी इज़राइल ने भारत की सहायता की. इज़राइल के साथ साझेदारी का ठोस उदाहरण 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान मिला. युद्ध के दौरान जब तोप के गोले की कमी हो गई तब इज़राइल से ही गोलों की सप्लाई हुई थी.
भारत के असैनिक हवाई वाहनों (यूएवी) का आयात भी इज़राइल से होता है. इज़राइल से खरीदे गए 176 यूएवी में से 108 खोजी यूएवी हैं और 68 हेरोन यूएवी हैं. अप्रैल 2017 में भारत और इज़राइल ने उन्नत मध्यम दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली के लिए दो बिलियन डॉलर (12,878 करोड़ रुपए) के सौदे पर हस्ताक्षर किए. यह भारतीय सेना को 70 किलोमीटर तक की सीमा के भीतर विमान, मिसाइल और ड्रोन को मार गिराने की क्षमता प्रदान करता है. वर्ष 2016 के सितंबर में संयुक्त रूप से विकसित सतह से लंबी दूरी तक मार करने वाली हवाई मिसाइल का भी परीक्षण किया गया था.
भारत ने इज़राइल द्वारा बनाई गई स्पाईडर द्रुत प्रतिक्रिया वाली सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल का सफलतापूर्वक परीक्षण किया. भारतीय वायु सेना इस प्रणाली को अपनी पश्चिमी सीमा पर तैनात करने की योजना बना रही है. आतंकवाद के विरुद्ध एक संयुक्त कार्यसमूह के माध्यम से भी भारत और इज़राइल आतंकवाद के मुद्दों पर एक दूसरे का सहयोग करते हैं. दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों के 25 साल के प्रतीक के तौर पर तीन भारतीय नौसैनिक जहाजों, विध्वंसक आईएनएस मुंबई, युद्धपोत आईएनएस त्रिशूल और टैंकर आईएनएस आदित्य ने वर्ष 2017 के मई में इज़राइल के हाइफा बंदरगाह तक सद्भावना यात्रा की थी.

इज़राइली ‘स्प्रे’ के सहारे दंगाइयों से निपटेगी यूपी पुलिस
उत्तर प्रदेश में दंगाइयों और उपद्रवियों से निपटने के लिए इज़राइली ‘स्कंक-स्प्रे’ से यूपी पुलिस को लैस करने की योजना पर तेजी से काम हो रहा है. कश्मीर के पत्थरबाजों से सीख कर अब यूपी में भी बदमाश और बलवाई पत्थरबाजी कर रहे हैं. कश्मीर में पैलेट-गन का इस्तेमाल विवादग्रस्त हो गया. ऐसे में उत्तर प्रदेश पुलिस इज़राइल में बने ‘स्कंक-स्प्रे’ के इस्तेमाल पर विचार कर रही है. इज़राइली सेना अपने देश में उपद्रवियों को तितर-बितर करने के लिए ‘स्कंक-स्प्रे’ का इस्तेमाल करती है. यूपी के पड़ोसी राज्य उत्तराखंड ने इज़राइल से ‘स्कंक-स्प्रे’ आयात किया है. इस तरह उत्तराखंड सरकार ने इसके इस्तेमाल का रास्ता खोल दिया है. उत्तराखंड ‘स्कंक-स्प्रे’ का इस्तेमाल करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है. उत्तराखंड पुलिस को इज़राइल से अभी दो सौ लीटर ‘स्कंक-स्प्रे’ की डिलीवरी मिली है. जबकि उत्तराखंड पुलिस ने इज़राइल को 500 लीटर ‘स्कंक-स्प्रे’ का ऑर्डर दे रखा है. ‘स्कंक-स्प्रे’ को हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर भी भेजा गया है. कश्मीर में दंगाइयों और उपद्रवियों पर पैलेट गन के इस्तेमाल का मानवाधिकार संगठनों द्वारा विरोध किए जाने के कारण उत्तराखंड सरकार ने ‘स्कंक-स्प्रे’ का विकल्प चुना. ‘स्कंक-स्प्रे’ जैविक है और यह स्वास्थ्य के लिए घातक नहीं है. इससे अंगों और त्वचा पर कोई नुकसान भी नहीं पहुंचता. दरअसल ‘स्कंक-स्प्रे’ से मरे हुए जानवर के शव जैसी तेज असह्य बदबू निकलती है. ‘स्कंक-स्प्रे’ की एक बूंद भी शरीर पर पड़ जाए तो तीन दिन तक उसकी बदबू नहीं जाती. ‘स्कंक-स्प्रे’ का इस्तेमाल करने वाले पुलिसकर्मियों को इसके बदबूदार असर से बचने के लिए एक खास तरह का साबुन दिया जाता है. यह साबुन ‘स्कंक-स्प्रे’  के साथ ही मिलता है. यह साबुन बाजार में नहीं मिलता है.
‘स्कंक’ अमेरिका के जंगलों में पाया जाने वाला गिलहरी जैसा जानवर है जो शिकारी जानवरों से बचने के लिए अपने शरीर से तेज बदबू छोड़ता है. उसकी बदबू इतनी भयानक होती है कि शिकारी जानवर इसे सहन नहीं कर पाता है और वहां से भाग खड़ा होता है. इज़राइल ने दंगाइयों से निपटने के लिए ऐसा ‘ऑरगेनिक-स्प्रे’ तैयार किया, जिसकी बदबू बिल्कुल ‘स्कंक’ जानवर के शरीर से निकलने वाली बदबू जैसी है. ‘स्कंक-स्प्रे’ का इस्तेमाल पानी के साथ किया जाता है. भीड़ को तीतर-बितर करने के लिए पुलिस पानी की बौछार करती है या आंसू गैस के गोले दागती है, लेकिन अब भीड़ इसकी आदी हो गई है. ‘स्कंक-स्प्रे’ से बेकाबू भीड़ को आसानी से भगाया जा सकता है. उत्तराखंड के बाद अब जम्मू कश्मीर पुलिस ने भी ‘स्कंक-स्प्रे’ का ऑर्डर दिया है.

कमांडोज़ के बाद अब पुलिस को भी ट्रेनिंग देगी ‘मोसाद’
‘डिफेंस गलियारा’ बनाने की योजना के पहले ही भारतीय सेना के कमांडोज़ को इज़राइली खुफिया एजेंसी ‘मोसाद’ से ट्रेनिंग दिलाने का काम शुरू किया जा चुका था. अब पुलिस को भी ‘मोसाद’ के एस्पर्ट्स से ट्रेनिंग दिलाने की तैयारी है. अर्ध सैनिक बलों के कमांडोज़ को भी ‘मोसाद’ ट्रेनिंग देगी. अभी तक ‘कोबरा’ कमांडोज़ और कुछ विशेष चुनिंदा जवानों को ही ‘मोसाद’ से ट्रेनिंग दिलवाई जाती थी. इज़राइल की केंद्रीय खुफिया एजेंसी ‘मोसाद’ को इंस्टीट्यूट फॉर इंटेलीजेंस एंड स्पेशल ऑपरेशन के नाम से भी जाना जाता है. भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ (रिसर्च एंड अनालिसिस विंग) और ‘मोसाद’ के साथ मिल कर अभिसूचनाओं के आदान-प्रदान की खबरें तो मिलती रही हैं, लेकिन स्पेशल कमांडोज़ को ‘मोसाद’ से ट्रेनिंग दिलाने की खबरें अब छन कर आ रही हैं. कुछ अर्सा पहले ‘मोसाद’ के ‘इन्वेस्टिगेशन विंग’ ने दिल्ली पुलिस के कुछ खास अधिकारियों को दो हफ्ते की विशेष ट्रेनिंग दी थी. इस ट्रेनिंग के लिए दिल्ली पुलिस की अलग-अलग शाखाओं मसलन, स्पेशल सेल, बम निरोधक दस्ता, फॉरेंसिक साइंस लेबोरेट्री और ट्रेनिंग ब्रांच के 31 पुलिस अफसरों को चुना गया था. इज़राइली खुफिया एजेंसी के विशेषज्ञ भारतीय सुरक्षा बल के कमांडोज़ के आतंकियों और आतंकी गिरोहों के स्लीपर सेल से निपटने की खास ट्रेनिंग दे रहे हैं.
‘मोसाद’ द्वारा भारतीय सुरक्षा बलों को ट्रेनिंग दिए जाने के बाद ही कई नक्सली संगठनों ने भी यह खबर उड़ाई कि नक्सल विरोधी ऑपरेशंस में इज़राइल का सहयोग लिया जा रहा है. कुछ नक्सली संगठनों ने बाकायदा लिखित बयान जारी कर कहा कि नक्सल विरोधी ऑपरेशन में लगे पुलिसकर्मियों को इज़राइली हथियार मिल रहे हैं और उन्हें इज़राइली विशेषज्ञों द्वारा ट्रेनिंग दी जा रही है. नक्सली संगठनों के आरोपों को गृह मंत्रालय ने नकार दिया, लेकिन आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में इज़राइली विशेषज्ञता की मदद लेने के बारे में गृह मंत्रालय के अधिकारी हामी भरते हैं. गृह मंत्रालय के उक्त अधिकारी ने बताया कि कुछ चुने हुए आईपीएस अधिकारियों को इज़राइल भेज कर विशेष ट्रेनिंग दिलवाई जा चुकी है. उन आईपीएस अफसरों को सीधे नेशनल पुलिस अकादमी से चुन कर इज़राइल भेजा गया था जहां उन्हें आतंकियों से निपटने के खास गुर सीखाए गए. दो अलग-अलग खेप में आईपीएस अफसरों की दो टीमें इज़राइल भेजी गई थीं. ट्रेनिंग पाए भारतीय अधिकारियों को इज़राइली रक्षा मंत्रालय के ‘इंटरनेशनल डिफेंस कोऑपरेशन डायरेक्टरेट’ (सीबाट) भी ले जाया गया था और उन्हें जटिल परिस्थितियों से निपटने की खास ट्रेनिंग दी गई थी. उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में ‘डिफेंस कॉरिडोर’ के निर्माण में ‘सीबाट’ महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है. उधर, मध्य प्रदेश सरकार भी दहशतगर्दों का सफाया करने के लिए इज़राइली सेना से मदद लेने के बारे में विचार कर रही है. इजरायल के साथ मध्य प्रदेश सरकार की सहमति बन गई है. इस सहमति के तहत इजराइली सेना अब मध्य प्रदेश पुलिस को आंतकियों से निपटने के लिए खास ट्रेनिंग देगी. 

Wednesday 18 April 2018

खाली सिर पर अमित शाह को ठीकरे का डर..!

प्रभात रंजन दीन
2019 के लोकसभा चुनाव की कवायद में उतरने के पहले उत्तर प्रदेश में भाजपा की अंदरूनी दुर्गति को दुरुस्त करने के लिए राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को मैदान में उतरना पड़ा. अमित शाह भी क्या-क्या ठीक करेंगे..! गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों के उप चुनाव में वहां के निवर्तमान सांसदों क्रमशः योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य की पसंद को ठोकर पर रखने का नतीजा हार में भुगतना पड़ा, शाह क्या उसे ठीक करेंगे या योगी के कामकाज में अड़ंगा डाल रहे उप मुख्यमंत्री मौर्य को ठीक करेंगे! सत्ता से लेकर संगठन तक अराजकता का सृजन करने वाले प्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री सुनील बंसल को ठीक करेंगे या ओमप्रकाश राजभर और अनुप्रिया पटेल जैसे अतिमहत्वाकांक्षी सहयोगी को मेढ़क बनने से रोकेंगे! अमित शाह पार्टी में गहराते जा रहे पुराने बनाम नए का अंतरविरोध ठीक करेंगे या दलित बनाम पिछड़ा बनाम अगड़ा का रगड़ा ठीक करेंगे! एक पुराने भाजपाई ने कहा कि अमित शाह आखिर क्या-क्या ठीक करेंगे, सारा रायता तो उन्हीं का फैलाया हुआ है, वे कहां-कहां पोछेंगे! सुनील बंसल को तरजीह शाह ने दी. योगी बनाम मौर्य भेद को शह शाह ने दी. पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और दूसरी पार्टियों से नेताओं की घुसपैठ शाह ने कराई, फिर शाह ही उन गंदगियों को कैसे लीपेंगे! इस तरह के कई सवाल हैं, जिसमें भाजपा उलझी हुई है और जवाब अकेले अमित शाह को देना है. चुनाव सामने है और समय कम है. अगर समय रहते इसे दुरुस्त नहीं किया गया तो भारतीय जनता पार्टी बाहरी गठबंधन और तालमेल से नहीं, अंदरूनी विरोधाभास और अराजकता में ही धंस जाएगी.
पिछले दिनों लखनऊ पहुंचे राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बैठक दर बैठक की और फेरबदल के संकेत देते हुए हाथ हिलाते हुए कर्नाटक के लिए उड़ गए. शाह ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ भी लंबी बैठक की. पार्टी के जानकार नेताओं ने कहा कि शाह को सरकार से अधिक पार्टी की गिरती साख की चिंता थी और बैठकों में वे इसी चिंता के समाधान की दिशा में रास्ता तलाश रहे थे. पार्टी के नेता भी मान रहे हैं कि पार्टी की अंदरूनी स्थिति का जायजा लेकर लौटे राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह शीघ्र ही प्रदेश भाजपा में संगठनात्मक ‘सर्जरी’ करेंगे और बीमार हिस्सों को काट फेकेंगे. ऐसा कहा जा रहा है कि सरकार और संगठन की साख के साथ खेलने वाले नेता-कार्यकर्ता जल्दी ही किनारे किए जाएंगे. कुछ मंत्रियों को भी सरकार से अलग कर उन्हें संगठन के काम में लगाने की रणनीति पर शाह की मुख्यमंत्री से बात हुई है. सरकार में फेरबदल की प्रक्रिया में दलित और पिछड़ी जाति के नेताओं को शामिल करने की संभावना है. बात यहां तक है कि प्रदेश अध्यक्ष महेंद्रनाथ पांडेय को हटा कर किसी दलित या पिछड़ी जाति के नेता को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया जाए.
सरकार और संगठन के बीच संवाद और समन्वय की स्थिति इतनी बदरूप हो गई थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक को योगी से पूछताछ करनी पड़ी. उत्तर प्रदेश में लोकसभा की दो सीटों पर हुए उप चुनावों में भाजपा की हार और दलित सांसदों के असंतोष-पत्र को प्रधानमंत्री ने काफी गंभीरता से लिया और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से तत्काल प्रभाव से ‘क्राइसिस-मैनेजमेंट’ पर मंत्रणा की. मोदी ने योगी से यूपी के हालात के बारे में जब सीधी बात की तभी यह संकेत मिल गया था कि सरकार और संगठन में फेरबदल सन्निकट है. इसके बाद ही हालात का जायजा लेने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दो वरिष्ठ पदाधिकारियों को यूपी भेजा गया था. संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी कृष्ण गोपाल और दत्तात्रेय होसबोले ने यूपी आकर भाजपा कार्यकर्ताओं, संघ के सदस्यों, पार्टी पदाधिकारियों, मंत्रियों और दोनों उप मुख्यमंत्रियों से मुलाकात की थी. संघ की रिपोर्ट मिलने के बाद ही अमित शाह का लखनऊ दौरा तय हुआ.
भाजपा संगठन को पड़ रहा दौरा, इसीलिए हुआ शाह का दौरा
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का लखनऊ दौरा ऐसे समय हुआ है, जब पार्टी का अंदरूनी दौरा काफी बढ़ गया. हृदय गति रुक न जाए, इसलिए शाह को लखनऊ आना पड़ा. साफ है कि संगठन और सरकार के सामने तमाम चुनौतियां आ पड़ी हैं, हालांकि इसके लिए दोषी भी पार्टी के शीर्ष नेता ही हैं. 2019 का लोकसभा चुनाव सामने है, लेकिन उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालात 2014 जैसे कतई नहीं हैं. तब पार्टी के नेता-कार्यकर्ता सब एकजुट थे, लेकिन अब नेता-कार्यकर्ता दोनों असंतुष्ट और उपेक्षित हैं. अभी राज्यसभा में तो पार्टी ने अपना तिकड़म साध लिया, लेकिन विधान परिषद चुनाव में एकसाथ इतनी महत्वाकांक्षाएं टकराने लगीं कि पार्टी नेतृत्व बौखला गया. किसे ले जाएं और किसे छोड़ें का संकट खड़ा हो गया. भाजपा अपने ही सांसदों-विधायकों और सहयोगी दलों के बागी तेवर से आक्रांत है. इसी की छटपटाहट है कि अमित शाह भाग कर लखनऊ आ रहे हैं और इस बार सांसदी का टिकट देने में अभी से सतर्कता बरत रहे हैं. इस सतर्कता के कारण कई सांसद अपना पत्ता कटता हुआ देख रहे हैं. वही सांसद पार्टी के लिए चुनौती भी बन रहे हैं. पार्टी को रिपोर्ट गई है कि कई सांसदों की छवि उनके अपने ही संसदीय क्षेत्र में ठीक नहीं है और कार्यकर्ताओं में उनके खिलाफ नाराजगी है. दो दर्जन से अधिक सांसद ऐसे हैं जिनके खिलाफ आलाकमान के पास रिपोर्ट पहुंची है. स्वाभाविक है कि इनका टिकट कटेगा और भाजपा को इनका विरोध और भितरघात झेलना पड़ेगा. विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत ने सांसदों के नाकारेपन को पैबंद की तरह ढंकने का काम किया, लेकिन पैबंद से आखिर कबतक काम चले! निकाय चुनावों में सांसदों का नाकारापन जमीनी स्तर पर उजागर हुआ और इससे भाजपा की काफी किरकिरी हुई. भाजपा को इस किरकिरी को छुपाने के लिए आंकड़ों की तमाम बाजीगरी करनी पड़ी. वह भी जनता के समक्ष उजागर हो गई. नकारात्मक छवि वाले सांसदों की सूची आलाकमान के पास जा चुकी है. उन नामों के बरक्स बेहतर छवि वाले नाम जांचे-परखे जा रहे हैं. शाह की बेचैनी इस वजह से भी है.
अमित शाह ने लखनऊ आकर भाजपा के सहयोगी दल भारतीय समाज पार्टी (सुहेलदेव) के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर और अपना दल की नेता केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल व उनके पति आशीष पटेल से भी मुलाकात की. आशीष पटेल अपना दल के अध्यक्ष हैं और विधान परिषद की सीट पाने के लिए व्याकुल हैं. दलितों की भावना की भरपाई के लिए अमित शाह ने लखनऊ आते ही ज्योतिबा फुले की प्रतिमा पर जाकर माल्यार्पण किया. फुले की प्रतिमा मायावती के शासनकाल में स्थापित हुई थी. राजनीति की बाल की खाल निकालने वाले विशेषज्ञ कहते हैं कि मायावती को न्यूट्रल करने की सियासी जुगत भी साथ-साथ चल रही है. फुले की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर अमित शाह ने अपनी पार्टी की सांसद सावित्री बाई फुले के विद्रोही तेवर पर भी पानी डालने की कोशिश की. शाह ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. महेंद्रनाथ पांडेय, राष्ट्रीय सह महामंत्री संगठन शिवप्रकाश और प्रदेश संगठन मंत्री सुनील बंसल के साथ अलग-अलग बैठकें की और सबसे अलग-अलग जायजा लिया. शाह ने दूसरे चरण की बैठक दोनों उप मुख्यमंत्रियों केशव प्रसाद मौर्य और डॉ. दिनेश शर्मा के साथ की. तीसरे चरण की बैठक में सहयोगी दलों के नेता शामिल हुए. अंतिम चरण में संगठन के सभी प्रदेश महामंत्रियों को मुख्यमंत्री आवास पर ही बुलावा भेज कर शाह ने उनसे मुलाकात की और बातचीत की. सहयोगी दल के नेताओं ने शाह से मुलाकात में अपनी मांगें और शर्तें रखीं. लोकसभा चुनाव के नजदीक आने से सहयोगी दल अब अपना भाव चढ़ाने लगे हैं. भारतीय समाज पार्टी (सुहेलदेव) के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने तो राष्ट्रीय अध्यक्ष के सामने सात मांगें रख दीं. साथ ही राजभर ने पिछड़ों के 27 प्रतिशत आरक्षण में अति पिछड़ी जातियों का कोटा तय करने और 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की खैरख्वाही की. यह मांग सपा की थी. सपा सरकार के कार्यकाल में ही इन जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया था. राजभर ने कह दिया कि भाजपा गठबंधन धर्म नहीं निभा रही है. राजभर ने तमाम जगह योगी सरकार की खिल्ली उड़ाई. सरकार पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का आरोप लगाया और कहा कि प्रदेश के नौकरशाह जन प्रतिनिधियों को सेंट नहीं रहे हैं. राजभर के बिगड़े बोल को चुनाव के पहले के मोल-जोल के रूप में देखा जा रहा है. ओमप्रकाश राजभर योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं. फिर भी उनके बिगड़े बोल से प्रदेश की राजनीति का माहौल बिगड़ रहा है. राजभर के बयानों की वजह से भाजपा नेता अनुशासन और मर्यादा के उल्लंघन पर सीधे उंगली उठा रहे हैं. योगी सरकार पर अनाप-शनाप आरोप लगाने वाले राजभर ने राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के लखनऊ आने के पहले कहा कि शाह का इंजेक्शन भी कारगर नहीं हुआ तो 2019 के चुनाव में भाजपा का बुरा हश्र होगा. राजभर ने भाजपा आलाकमान को चुनौती दी कि उनकी शिकायतें दूर की जाएं नहीं तो ‘2019 में सब ठीक कर देंगे’. राजभर कहते हैं कि उन्होंने भाजपा रूपी गाय को ‘चारा’ खिलाया है तो ‘दूध’ कौन पीयेगा! दूसरी तरफ नौ विधायकों और दो सांसदों वाला अपना दल भी बगावती तेवर अख्तियार किए है. अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल ने अपने पति आशीष पटेल को विधान परिषद भेजने की मांग के साथ-साथ प्रदेशभर में 50 फीसदी से अधिक अन्य पिछड़ा वर्ग के जिलाधिकारियों, पुलिस अधीक्षकों और थानेदारों को तैनात करने की मांग कर डाली.
पूर्वोत्तर राज्यों में विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ के इस्तेमाल और वहां मिली जीत और यूपी के उप चुनावों हार के बाद अमित शाह का यह पहला यूपी दौरा था. कर्नाटक विधानसभा चुनाव की जद्दोजहद के बीच शाह का लखनऊ आना यह बताने के लिए काफी था कि प्रदेश भाजपा का माहौल अंदरूनी तौर पर इतना विद्रूप हो चुका है कि शाह को लखनऊ के लिए समय निकालना पड़ा. दलित एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद विपक्ष ने जिस तरह दलित ध्रुवीकरण की राजनीतिक गरमाई उससे भाजपा का चिंतित होना स्वाभाविक था. भाजपा आलाकमान की चिंता और इसलिए भी गहरा गई कि दलित मुद्दे पर भाजपा के चार सांसदों ने भी मुखर विरोध शुरू कर दिया. इन चार सांसदों में तीन तो यूपी के ही हैं. दूसरी तरफ ओम प्रकाश राजभर और अनुप्रिया पटेल के भगेड़ू संकेतों ने भाजपा आलाकमान को सकते में डाल रखा है. सपा और बसपा के तालमेल और भविष्य में कांग्रेस के भी गठबंधन में शामिल होने की संभावनाओं से भाजपा नेतृत्व अलग ही परेशान है. भाजपा सरकार अति पिछड़ों और अति दलितों को अलग से आरक्षण देने की तैयारी कर ही रही थी कि दलित-मुस्लिम गोलबंदी का मसला भाजपा के सिर आ गिरा. भाजपा सांसद सावित्री बाई फुले ने भारतीय संविधान और आरक्षण बचाओ आंदोलन शुरू करने की घोषणा करके भाजपा का सिरदर्द और बढ़ा दिया. दलितों की अनदेखी के बहाने सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिख दी. उनका आरोप है कि भाजपा शासनकाल में दलितों के लिए कोई काम नहीं हुआ. सांसद सावित्री बाई फूले ने तो लखनऊ में रैली तक कर दी. इटावा के सांसद अशोक दोहरे ने आरोप लगा दिया कि भारत बंद के बहाने दलितों पर झूठे मुकदमे ठोके जा रहे हैं. पार्टी के नेता कहते हैं कि भाजपा के अंदर की मोर्चेबंदी संगठन और सरकार दोनों को परेशान कर रही है. भाजपा अपने शीर्ष नेताओं की करतूतों के कारण अपने ही लोगों से मुसीबत में घिर गई है. स्थिति यहां तक आ पहुंची कि राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को कई नेताओं से हलफनामा तक लिखवाना पड़ा है.
संगठन मंत्री सुनील बंसल का पार्टी में विरोध बढ़ा
संगठन मंत्री सुनील बंसल की सरकार में सीधी दखलंदाजी और तमाम अन्य शिकायतों को लेकर दिल्ली तक शिकायतों का पुलिंदा जमा हो चुका है. गोरखपुर और फूलपुर संसदीय उप चुनाव में योगी और मौर्य की पसंद का उम्मीदवार नहीं देने के फैसले के पीछ सुनील बंसल की मुख्य भूमिका देखी जा रही है, जिसका खामियाजा पार्टी ने भुगत लिया. अब इस फैसले का खामियाजा सुनील बंसल के भुगतने की बारी है. पार्टी के ही नेता कहते हैं कि सुनील बंसल की गुटबाजी के कारण संगठन में खेमेबंदियां और अराजकता बढ़ी है. इस वजह से पार्टी की साख नीचे गिरी है. दलालों, बिल्डरों, खनन और भूमाफियाओं से सम्पर्क के कारण भाजपा में भी एक गायत्री प्रजापति होने के चर्चे सरेआम हैं. इनका विरोध करने के कारण संघ के वरिष्ठ सदस्य और क्षेत्र प्रचारक शिवनारायण को हटाए जाने से भी नेताओं-कार्यकर्ताओं में भीषण नाराजगी है. इन बातों को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और संगठन महामंत्री सुनील बंसल के बीच बढ़ी तल्खी, संगठन और सरकार दोनों को गहरे विवाद के घेरे में ले रही है.
खाई पाटने की कोशिश पर संदेह, आशंकाओं से घिरे हैं कार्यकर्ता
उपेक्षा और अनादर से फैले असंतोष को कम करने और खाई पाटने के लिए पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और जिला पदाधिकारियों को जिम्मेदारी के काम पर लगाया जा रहा है. सेक्टरों में बांट कर बूथ समितियों के स्तर तक फिर से ‘सबकुछ ठीक’ करने की कोशिश की जा रही है. संगठन के पेंच कसने की पूरी कवायद हो रही है, लेकिन अंदरूनी दरार इतनी बढ़ गई है कि 2019 तक शायद ही इसकी भरपाई हो सके. सभी स्तर पर पार्टी को पुनर्गठित करने की कवायद कम मुश्किल और अंतरविरोधों से भरी नहीं है. विजय दंभ में पार्टी ने अपने जिस आनुषांगिक संगठन की उपेक्षा शुरू कर दी, आखिरकार उसी की शरण में जाकर मदद ली जा रही है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ क्षेत्रवार समन्वय बैठकें कर रहा है. पार्टी कार्यकर्ताओं को सामाजिक समीकरणों पर खास ध्यान रखने की हिदायत दी जा रही है. पिछड़ों और दलितों पर पार्टी फोकस कर रही है और दलित पिछड़ा बहुल इलाकों में उसी समुदाय का पदाधिकारी नियुक्त करने की कसरत भी चल रही. हार और हताशा से सचेत हुई पार्टी अब निष्क्रिय कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को बाहर करने और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता देने के रास्ते पर आती दिख रही है. एक भाजपाई ने कहा कि रास्ते पर आ जाए तब समझिए कि अब ठीक हो रहा है, उसके पहले कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता. यह बात कार्यकर्ताओं के संदेह और आशंकाओं से घिरे होने का संकेत देती है.
सपा निश्चिंत, कांग्रेस सुगबुगाई, शाह का डर स्वाभाविक
बसपा से गठबंधन करके और उप चुनाव में दो सीटें जीत कर समाजवादी पार्टी निश्चिंत हो गई. बसपा का ध्यान विधान परिषद में कम से कम एक सीट हासिल करने पर लगा है. दूसरी तरफ कांग्रेस जमीनी स्तर पर सुगबुगाहट दिखाने लगी है. कांग्रेस का कोई नया प्रदेश अध्यक्ष अब तक नहीं चुना गया है. प्रदेश संगठन में कई और फेरबदल अपेक्षित और प्रतीक्षित हैं, लेकिन कांग्रेस ने अपने पूर्व अध्यक्ष राज बब्बर को ही मैदान में उतार दिया है. आप जानते ही हैं कि राज बब्बर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे चुके हैं. खनन माफियाओं का विरोध करने वाले कांग्रेस नेता अजय कुमार लल्लू से राज बब्बर ने पिछले दिनों देवरिया जेल जाकर मुलाकात की और कुशीनगर के विरवट कोन्हवलिया बंधे पर ग्रामीणों के साथ धरने पर बैठ गए. खनन माफियाओं के खिलाफ 64 दिनों तक धरना देने के कारण कांग्रेस विधानमंडल दल के नेता अजय कुमार लल्लू को गिरफ्तार कर लिया गया था. राज बब्बर ने आरोप लगाया कि चुनावी चंदे के लिए यूपी सरकार और संगठन खनन माफिया को तरजीह दे रही है. बजट सत्र के दरम्यान भी यह मामला विधानसभा में उठा था, लेकिन सरकार ने समय रहते कार्रवाई नहीं की. वैध खनन के कारण कई गांव खतरे में हैं. विडंबना यह है कि कुशीनगर बाढ़ खंड के अधिशासी अभियंता ने भी जिलाधिकारी को पत्र लिखकर अवैध खनन की शिकायत की थी और इसके खतरे से आगाह करते हुए इसे तत्काल रोकने की मांग की थी. अभियंता ने लिखा था कि विरवट कोन्हवलिया में अवैध खनन कर गंडक नदी से बालू निकाला जा रहा है, जबकि उस जगह से बंधे की दूरी महज 200 मीटर है. अवैध खनन से बांध को बेहद खतरा है. अहिरौलीदान-पिपराघाट तटबंध बहुत संवेदनशील है और यह यूपी और बिहार की सीमा को जोड़ता है. खनन माफिया पर कार्रवाई करने के बजाय जिला प्रशासन ने उल्टा विधायक समेत 30 नामजद ग्रामीणों और तीन सौ अज्ञात लोगों पर सरकारी काम में बाधा डालने, बलवा के लिए उकसाने और गाड़ियों में तोड़फोड़ करने समेत गंभीर धाराओं में मुकदमा ठोक दिया.
दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी बसपा से गठबंधन करने के बाद उसी में मगन है. अब सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव अपनी पार्टी में मायावती का काम कर रहे हैं. जिस तरह मायावती अपनी पार्टी में सोशल इंजीनियरिंग पढ़ाती थीं, उसी तरह अब अखिलेश अपनी पार्टी की बैठकों में सोशल इंजीनियरिंग पढ़ा रहे हैं. सपा के नेता और कार्यकर्ता सोशल इंजीनियरिंग पर अखिलेश-संबोधन सुनने के लिए विवश हैं. एक सपाई ने कहा कि यह सोशल इंजीनियरिंग का पाठ नहीं है, यह तो मायावती-इंजीनियरिंग का पाठ है जिसे सपाइयों को घोंटाया जा रहा है. लगातार हो रही बैठकों में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव गठबंधन धर्म का पालन करने की सीख देते हुए सोशल इंजीनियरिंग की पाठशाला चला रहे हैं. जिस सोशल इंजीनियरिंग का मजाक उड़ाते हुए अखिलेश सत्ता तक पहुंचे थे, अब उसी को सामाजिक सद्भाव और लोकतंत्र की मजबूती का आधार बता रहे हैं. सपाई इसे पचा नहीं पा रहे हैं, ऊपर-ऊपर अखिलेश का ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ सुनने के लिए विवश हैं. अखिलेश कहते हैं कि भाजपा द्वारा की जा रही ध्रुवीकरण की राजनीति से जनता को सचेत और सतर्क करने की जरूरत है. ऐसा कहते हुए अखिलेश दलित-मुस्लिम ध्रुवीकरण की सपा-बसपा की कोशिशों के बारे में अपने नेता-कार्यकर्ताओं के मन में बैठी जिज्ञासा शांत नहीं करते. अखिलेश सपा-बसपा गठबंधन को तोड़ने की कोशिशों से काफी चिंतित भी हैं. राज्यसभा चुनाव में जया बच्चन को जितवा कर और बसपा प्रत्याशी को हरवाकर उन्होंने जो गलती की उसकी भरपाई वे विधान परिषद चुनाव में करके किसी तरह गठबंधन को बचाए रखने के प्रयास में लगे हैं.
जिस सोशल इंजीनियरिंग का रट्टा अब सपा में लग रहा है, 2014 के लोकसभा चुनाव में वह भाजपा की तरफ शिफ्ट कर गया था. उस हस्तांतरण में सवर्ण, पिछड़ा और दलित समाज सब एकजुट होता दिखा और नतीजा यह हुआ था कि उस लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 73 सीटें जीत कर रिकॉर्ड कायम किया. भाजपा ने तब 42 प्रतिशत वोट पाए थे. लेकिन इन पांच वर्षों में भाजपा के सोशल इंजीनियरिंग में भी सेंध लग गई. 2019 का लोकसभा चुनाव अब नजदीक दिखने लगा है. इस कारण सियासी समीकरणों पर चर्चा, कयासबाजियां और अफवाहों की कलाबाजियां धीरे-धीरे गति पकड़ रही हैं. इस बार लोकसभा चुनाव में यूपी किसके सिर पर ताज रखेगा और कौन धराशाई होगा, इसे लेकर विश्लेषण और आकलन अभी से किए जाने लगे हैं. लड़ाई के केंद्र में भाजपा तो है, लेकिन वह अंदर और बाहर दोनों तरफ से चक्रव्यूह में फंसती जा रही है. 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जीत का रिकॉर्ड बनाया. लेकिन शीर्ष नेताओं में जीत का दंभ इतना गहराया कि साख नीचे के रास्ते जाने लगी. सियासत का पैमाना और स्तर तेजी से बदलने लगा. पार्टी की कमान अब भी उसी अमित शाह के हाथ में है, जिन्हें जीत का श्रेय मिलता गया, लेकिन अब हार का ठीकरा भी उन्हीं के माथे फूटना है, इसके लिए अमित शाह को तैयार रहना पड़ेगा. 73 लोकसभा सीटें जीतने वाली भाजपा को इस बार कम सीटें मिलीं तो अमित शाह की क्या दशा होगी, यह अभी से साफ-साफ दिखने लगा है. 

Tuesday 10 April 2018

योगी का राजयोग कब तक..!

प्रभात रंजन दीन
दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से खुलता है, इसलिए एक बार फिर यूपी की तरफ देशभर की निगाह टिक गई है. 2019 का लोकसभा चुनाव अब दरवाजा खटखटाने लगा है. कोई कहता है कि इसी साल चुनाव होगा तो कोई कहता है अगले साल. चुनाव इस साल हो या अगले साल, चुनाव की राजनीतिक बिसात पर काम तेजी से शुरू हो चुका है. बाबा साहब के साथ उनका पारम्परिक नाम भीमराव रामजी अम्बेडकर जोड़े जाने के योगी सरकार के फैसले के बाद जिस तरह दलित ध्रुवीकरण की सियासत तेज हुई उसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उग्र करने का विपक्षी दलों को मौका मिल गया. दलितों के साथ-साथ मुस्लिमों को गोलबंद कर वोट समेटने की सियासत इस बार के लोकसभा चुनाव में ज्यादा प्रभावी तरीके से सतह पर लाई जा रही है. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ भारत बंद में दलितों के साथ मुसलमानों ने भी सक्रिय भागीदारी निभाई. हालांकि मायावती ने हिंसा से दलितों को अलग करने और उसे असामाजिक तत्वों के कंधे पर थोपने की प्रयास किया, लेकिन अंदर-अंदर उकसाने की जो राजनीति हुई है, उसे सब जानते-समझते हैं. दलितों और मुस्लिमों के उग्र-ध्रुवीकरण की राजनीति के समानान्तर भाजपा कौन सी चमत्कारिक रणनीति अख्तियार करती है, यह सबसे बड़ा सवाल है. अगर ऐसा नहीं किया तो भाजपा नुकसान में जाती दिखती है. सपा और बसपा के गठबंधन से भाजपा में पहले से घबराहट है, अगर गठबंधन में कांग्रेस भी शामिल हो गई तो भाजपा के लिए मुश्किलें और भी बढ़ेंगी.
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक पटल पर योगी, अखिलेश और मायावती के चेहरे ही दिखाई दे रहे हैं. कांग्रेस अब भी वृष्टिछाया क्षेत्र में ही खड़ी दिख रही है. 2019 का लोकसभा चुनाव अब अधिक दिन दूर नहीं है. अभी हाल में हुए दो उप चुनावों में सपा-बसपा तालमेल को मिली अप्रत्याशित जीत ने बुआ-बबुआ मेल को थोड़ा अधिक ही प्रासंगिक बना दिया, जबकि जानने वाले जानते हैं कि गोरखपुर और फूलपुर में भाजपा की हार अप्रत्याशित नहीं, बल्कि  प्रत्याशित थी. यह हार राष्ट्रीय संगठन के अध्यक्ष अमित शाह, प्रदेश संगठन के मंत्री सुनील बंसल और उनकी मंडली के लिए योजनाबद्ध संदेश था, जो यूपी के नेताओं को शक्तिवान होने से रोकने के लिए तहर-तरह के तिकड़मों में सक्रिय रहे हैं. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच पुख्ता हुआ तालमेल भाजपा संगठन के अलमबरदारों के इसी तिकड़म का प्रति-उत्पाद है. केंद्र की सत्ता उत्तर प्रदेश के बूते ही खड़ी होती है, इसलिए राजनीतिक पार्टियां अपनी सारी ‘कलाएं’ एक बार फिर आजमा लेने के लिए आतुर हो रही हैं. अंदर बाहर दोनों तरफ से फंसी भाजपा को अब फिर योगी का ही भरोसा है, इसीलिए योगी से मंत्रणा करके चक्रव्यूह रचे जा रहे हैं. भाजपा के ‘धुरंधरों’ का विश्लेषण है कि योगी या तो भाजपा की बाधाएं काटेंगे या खुद ‘कट’ जाएंगे.
उप चुनाव में पराजय का संदेश प्राप्त करने के बाद सक्रिय हुई भाजपा और उसके आनुषांगिक संगठन ने दो आयामों से रणनीति गांठने का काम शुरू किया है. एक तरफ सपा-बसपा तालमेल में खटास डालने और मायावती को अपने पक्ष में करने के प्रयास शुरू किए गए हैं तो दूसरी तरफ प्रदेश संगठन के उन नेताओं को नेपथ्य में ले जाने की भूमिका शुरू हुई है जो यूपी में सरकार बनने के बाद से लगातार समानान्तर सरकार रचने और सत्ता की लगाम अपने हाथ से संचालित करने के जतन में लगे थे. समानान्तर सत्ता निर्माण में भ्रष्टाचार एक महत्वपूर्ण कारक था, जो धीरे-धीरे शीर्ष सांगठनिक स्तर पर उजागर होता गया. प्रदेश के नेताओं और कार्यकर्ताओं से संगठन मंत्री सुनील बंसल की सार्वजनिक बदसलूकी की घटनाएं भी प्रदेश से लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व को नागवार गुजरने लगी थीं. यह संगठन की छवि और कार्यकर्ताओं के मनोबल पर नाकारात्मक प्रभाव डाल रहा था. यही वजह है कि भाजपा संगठन अपने स्वनामधन्य प्रदेश महामंत्री सुनील बंसल जैसे नेताओं से उबरने के प्रयास में लगी है और प्रदेश के नेताओं को महत्व देने का सिलसिला शुरू किया जा रहा है. संगठन के कई वरिष्ठ सदस्यों का भी मानना है कि इसके बिना पार्टी का कल्याण नहीं होने वाला है, क्योंकि पार्टी कुछ राज्यों में मिली जीत के दंभ से नहीं चल सकती, अपने कार्यकर्ताओं और वरिष्ठों को तरजीह देने से चलेगी. अंदरूनी बदलाव की इस कवायद में सुनील बंसल को संगठन मंत्री से हटा कर किसी जूझारू दलित नेता को इस पद पर बिठाने की रणनीति भी शामिल है, जिससे मायावती के दलित एंगल को न्यूट्रल किया जा सके. उधर, मायावती को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (नेशनल डेमोक्रैटिक अलाएंस) में शरीक होने का न्यौता देकर भाजपा ने सपा-बसपा तालमेल में संदेह का बीज डाल दिया है. भाजपा की सहयोगी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के प्रमुख रामदास अठावले ने पिछले ही दिनों लखनऊ में बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर मायावती के समक्ष यह प्रस्ताव रखने की बात कही. मायावती के भाई आनंद कुमार के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई दोनों की जांचें लंबित हैं, जिसका दबाव मायावती को भाजपा खेमे की तरफ खींच ले जा सकता है. वैसे आप जानते ही हैं कि कभी भी कोई भी औचक फैसला लेने में मायावती को विशेषज्ञता हासिल है.
सपा-बसपा का तालमेल राज्यसभा चुनाव में एक सीट लेने की शर्त पर ही हुआ था. दो संसदीय सीटों पर हुए उप चुनावों में हारने के बाद सचेत हुई भाजपा ने राज्यसभा चुनाव में ऐसी बिसात बिछाई कि सपा-बसपा तालमेल की मूल शर्त ही कारगर नहीं हो पाई. यह मायावती के लिए करारा झटका था, लेकिन उन्होंने राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हुए भविष्य में भी सपा के साथ तालमेल जारी रखने की घोषणा की. इसके बरक्स बसपा के ही अंदरूनी लोग कहते हैं कि उप चुनाव में सपा को तो सीधा-सीधा फायदा मिला पर बसपा को क्या मिला! उल्टा, सपा को बसपा के वोट बैंक में सेंध मारने का मौका भी मिल गया. खुर्राट बसपाई सपा के साथ तालमेल से खफा हैं. वे बताते हैं किस तरह मुलायम काल और अखिलेश काल में यादवों ने उन्हें प्रताड़ित किया. लेकिन भाजपा के खिलाफ व्यापक राजनीतिक गोलबंदी की अनिवार्यता के नाम पर ये पुराने बसपाई चुप हो जाते हैं. राज्यसभा चुनाव में अपने नौ प्रत्याशियों को जीत दिला कर भाजपा ने यह प्रदर्शित किया कि जोड़तोड़ और तिकड़म के बूते वह तालमेल की ताकत को तोड़ सकती है. क्योंकि भाजपा यह जानती है कि अगर तालमेल बना रह गया और उसमें कांग्रेस भी शामिल हो गई तब मत का समीकरण भाजपा के किसी भी जोड़-जुगाड़ को धराशाई कर देगा. लिहाजा, गठबंधन को नेतृत्व देने के मसले पर और सीटों की हिस्सेदारी के मसले पर दोनों-तीनों पार्टियों में अधिक से अधिक व्यक्तित्व-संकट पैदा कराना और आपस में तल्खी पैदा कराना भाजपा का लक्ष्य है. राज्यसभा चुनाव इसका सटीक संदेश है.
एक दौर था जब देशभर में मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में ‘कैश’ करने की राजनीति चलती रही. उसी तरह दलित वोट बैंक भी नेताओं को ‘वोट-कैश’ देता रहा. लेकिन 2014 के बाद दलित वोट बैंक की सियासत तेज हो गई है. विपक्ष एक तरफ दलितों और मुस्लिमों की व्यापक एकता कायम करने के लिए एड़ी चोटी की ताकत लगाए है तो दूसरी तरफ दलितों को अपने खाते में रखने के लिए भाजपा भी तमाम जद्दोजहद में लगी है. बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर के मौलिक नाम भीमराव रामजी अम्बेडकर का इस्तेमाल करने का योगी सरकार का फैसला और उस पर चली समानान्तर खींचतान भी इसी सियासत का हिस्सा है. दलित एक्ट के बेजा इस्तेमाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद इस सियासत को और बल मिल गया. राजनीतिक दलों ने संविधान और सुप्रीम कोर्ट के सम्मान वगैरह के मसले को ताक पर रख दिया और फैसले को राजनीतिक मसला बना कर दलित ध्रुवीकरण की ओर ले जाने की कोशिश की. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आयोजित हुए आंदोलन में मुसलमानों ने भी सक्रिय भूमिका अदा की. भाजपा सपा-बसपा तालमेल को पंगु करने की कोशिश में लगी थी, अब उसे दलित-मुस्लिम ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रही राजनीति रोकने पर भी ध्यान देना पड़ रहा है.
बसपा के साथ तालमेल करने के बावजूद समाजवादी पार्टी दलितों को प्रभावित करने और उन्हें अपनी तरफ समेटने की कोशिशों में जी-जान से लगी है. बसपाई इस गतिविधि को संदेह की निगाह से देख रहे हैं. उनका कहना है कि जब बसपा के साथ तालमेल हो गया है तो दलितों को रिझाने की अतिरिक्त कोशिशें सपा क्यों कर रही है. दलितों को रिझाने के लिए ही सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अम्बेडकर जयंती पर प्रदेश के 90 स्थानों पर जयंती समारोह आयोजित करने की घोषणा कर दी. इस कार्यक्रम को लेकर अखिलेश यादव ने बड़े उत्साह से बयान जारी किए और उनकी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम ने भी दलितों और बाबा साहब के प्रति अथाह प्रेम दरशाया और अम्बेडकर जयंती की सपाई तैयारियों के बारे में प्रेस को बढ़-चढ़ कर बताया. एक वरिष्ठ सपा नेता ने ही कहा कि अम्बेडकर जयंती पर समारोहों का बसपाई आयोजन उनकी संस्कृति और सपाइयों की बेबसी है. उन्होंने कहा कि इसके पहले भी तो बाबा साहब की जयंती की तिथियां गुजरती रही हैं, सपा ने पहले इतना आदरभाव क्यों नहीं दिखाया. इस बुजुर्ग नेता ने कहा कि सपाइयों के लिए डॉ. राम मनोहर लोहिया पहचान-पुरुष रहे हैं और बसपाइयों के लिए बाबा साहब. सपा की तरफ से 90 स्थानों पर अम्बेडकर जयंती का आयोजन राजनीतिक महत्वाकांक्षा में डॉ. लोहिया की उपेक्षा करने जैसा है.

दलितों और मुसलमानों का ध्रुवीकरण पलट सकता है बाजी
जिस तरह दलितों और मुसलमानों को गोलबंद करने की राजनीति चल रही है, अगर वह कामयाब हुई तो वह लोकसभा चुनाव में बाजी पलट देगी. उत्तर प्रदेश के 49 जिलों में दलित बहुल मतदाताओं हैं. 20 जिलों में मुस्लिम मतदाता अधिक हैं. उत्तर प्रदेश में दलितों की करीब 70 जातियां हैं और इनका प्रतिशत प्रदेश की कुल आबादी का 21.15 फीसद है. 21 प्रतिशत दलित और 20 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता सियासी बाजी उलट-पलट कर सकते हैं. लोकसभा की 545 सीटों में से क्रमशः 84 और 47 लोकसभा सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित हैं. यानि, कुल 131 सीटें आरक्षित हैं. इसमें उत्तर प्रदेश में 80 में से 17 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. कुल आरक्षित 131 लोकसभा सीटों में से 67 सीटें भाजपा के पास हैं. कांग्रेस को 13 आरक्षित सीटें हासिल हैं. इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस के पास 12, अन्नाद्रमुक और बीजद के पास आरक्षित कोटे की सात-सात सीटें हैं. दलितों और मुस्लिमों का गठजोड़ आने वाले समय में राजनीति की दशा-दिशा बदल सकता है. तमाम राजनीतिक दल इसी कोशिश में लगे हैं.

कांग्रेस भी व्यापक गठबंधन की हिमायती, पर उहापोह भी जारी
भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ कांग्रेस भी व्यापक गठबंधन की हिमायत कर रही है, लेकिन स्पष्ट निर्णय भी नहीं कर पा रही है. गोरखपुर और फूलपुर संसदीय उप चुनाव के दरम्यान भी कांग्रेस व्यापक एकता की बात करती रही, लेकिन सपा-बसपा मेल-मिलाप से खुद को दूर रखा. कांग्रेस ने दोनों सीटों पर अपने प्रत्याशी भी उतारे. राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस ने सपा-बसपा का साथ दिया, लेकिन सब जानते थे कि तीनों मिल कर भी बसपा प्रत्याशी को जीत नहीं दिला पाएंगे. कांग्रेस के नेता कहते हैं कि तालमेल की प्रतिबद्धता में सपा को पहली प्राथमिकता पर बसपा प्रत्याशी को रखना चाहिए था, लेकिन सपा ने ऐसा नहीं किया और जया बच्चन को जिताने के बाद बचे-खुचे वोट से बसपा को फुसलाने की कोशिश की. कांग्रेस के नेता कहते हैं कि सम्मानजनक और पारदर्शी तालमेल आधारित गठबंधन होना चाहिए, जिसमें छल-कपट का स्थान न हो. व्यापक गठबंधन की बात कहने वाली कांग्रेस पार्टी अपने संगठनात्मक ढांचे को दुरुस्त करने में ही सुस्त है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पद से राज बब्बर के इस्तीफे के बाद अब तक कांग्रेस अपना कोई प्रदेश अध्यक्ष तय नहीं कर पाई है. प्रदेश अध्यक्ष के लिए कभी जतिन प्रसाद का नाम दौड़ने लगता है तो कभी मशहूर कांग्रेसी नेता पंडित कमलापति त्रिपाठी खानदान की तीसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि ललितेशपति त्रिपाठी का नाम चलने लगता है. कांग्रेस की उत्तर प्रदेश इकाई में अध्यक्ष के अलावा चार उपाध्यक्षों का भी मनोनयन होना है. लेकिन इसमें देरी क्यों हो रही है, इस बारे में प्रदेश कांग्रेस के नेता कुछ भी नहीं कहते.

यूपी में गठबंधन के घालमेल का पुराना इतिहास रहा है
प्रदेश कांग्रेस से जुड़े बुजुर्ग कार्यकर्ता कहते हैं कि कभी कांग्रेस ने ही अपने समर्थन से बसपा और सपा की साझा सरकार बनवाई थी. आज फिर कांग्रेस उसी इतिहास के दोहराने की दहलीज पर खड़ी है. जानकार बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन के घालमेल का इतिहास पुराना है. कभी इस दल ने उस दल का समर्थन कर सरकार बनवा दी तो कभी पाला बदल कर दूसरे की सरकार बनवा दी. गठबंधन-घालमेल में भाजपा, सपा, बसपा, कांग्रेस सब शरीक रही हैं. वर्ष 1989 में जब मुलायम सिंह यादव प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे तब उन्हें भाजपा का समर्थन हासिल था. मुलायम संयुक्त मोर्चा से मुख्यमंत्री बने थे. इसके बाद 1990 में जब राम मंदिर आंदोलन के दौरान लालकृष्ण आडवाणी का रथ रोका गया तब भाजपा ने केंद्र और राज्य सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था. राम जन्मभूमि आंदोलन के तीव्र होने के कारण 1991 में यूपी में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी लेकिन 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के कारण कल्याण सिंह सरकार बर्खास्त कर दी गई थी. 1993 के चुनाव में बसपा और सपा का गठबंधन हुआ. जिसमें मुख्यमंत्री का पद छह-छह महीने के लिए बांट लेने का फार्मूला बना. मायावती मुख्यमंत्री बनी लेकिन जब मुलायम सिंह की बारी आई तो मायावती ने समर्थन वापस खींच लिया. इसी वजह से दो जून 1994 को गेस्टहाउस कांड घटित हुआ. इसके बाद फिर भाजपा के समर्थन से मायावती दोबारा मुख्यमंत्री बनी. कुछ ही समय बाद बसपा से 22 विधायक अलग हो गए और उनके समर्थन से प्रदेश में दोबारा कल्याण सिंह की सरकार बनी. यह गठबंधन भी नहीं चल पाया और सरकार जाती रही. वर्ष 2001 में राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बने. उस दौरान कांग्रेस बसपा के बीच गठबंधन अस्तित्व में आया. लेकिन इस गठबंधन से बसपा को कोई फायदा नहीं मिला. दूसरी तरफ कांग्रेस ने मुलायम सिंह को समर्थन देकर सपा की सरकार बनवा दी. पिछले तीन विधानसभा चुनाव बिना किसी गठबंधन के हुए. 2007 में मायावती के नेतृत्व में बसपा पूर्ण बहुमत से आई. 2012 में अखिलेश के नेतृत्व में सपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और अब 2017 में योगी के नेतृत्व में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है.

संख्या समीकरणों के मद्देनजर भाजपा पर भारी पड़ेगा सपा-बसपा गठबंधन
भारतीय लोकतंत्र में संख्या का ही महत्व है. गिनती के आधार पर ही कोई पार्टी सत्ता तक पहुंचती है या धराशाई होती है. गिनती हासिल करने के लिए ही पार्टियां सारे अनैतिक हथकंडे इस्तेमाल करती हैं. पिछले चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों को जितने वोट मिले उनकी संख्या के आधार पर विश्लेषण करें तो सपा-बसपा गठबंधन भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकता है. इसमें अगर कांग्रेस भी शामिल हो गई तो गिनती इतनी बढ़ जाती है कि भाजपा का सत्ता तक पहुंचना मुश्किल हो जाए. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 71 सीटों पर जीती थी. उनमें से 15 सीटों पर जीत-हार का फर्क पचास-पचपन हजार के दायरे में था. लोकसभा की एक दर्जन सीटें ऐसी थीं, जहां जीत का अंतर एक से डेढ़ लाख था. अगर उन 15 और 12 सीटों का ‘कॉम्बिनेशन’ मिला दिया जाए और उनमें सपा और बसपा प्रत्याशियों को मिले वोट मिला कर देखे जाएं तो वह भाजपा प्रत्याशी को मिले वोट से कहीं ऊपर का ग्राफ बनाते दिखते हैं. इसमें अगर कांग्रेस प्रत्याशी को मिले वोट भी मिला दिए जाएं, तो फिर भाजपा की नाव डूबती हुई ही दिखाई पड़ती है. हाल में हुए दो उप चुनाव के बाद अब सपा के खाते में लोकसभा की सात सीटें हैं. 2014 में सपा को केवल पांच सीटें मिली थीं. अब एक और लोकसभा सीट के लिए उप चुनाव होना है. वरिष्ठ भाजपा नेता हुकुम सिंह के निधन से कैराना लोकसभा सीट खाली हो गई है. कैराना लोकसभा सीट पर होने वाले उप चुनाव में भाजपा नेतृत्व वह गलती नहीं दोहराएगा जो गोरखपुर और फूलपुर के लिए प्रत्याशी चुनने में जानबूझ कर की गई. लिहाजा, दिवंगत सांसद हुकुम सिंह की बेटी मृगांका को उम्मीदवार बनाने पर विचार चल रहा है. मृगांका कैराना विधानसभा सीट से चुनाव लड़ी थीं, लेकिन सपा प्रत्याशी नाहिद हसन से हार गई थीं. दूसरी तरफ कैराना उप चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन की तरफ से प्रत्याशी उतारे जाने की तैयारी है. इसमें मौजूदा सपा विधायक नाहिद हसन की मां पूर्व बसपा सांसद तबस्सुम बेगम का नाम चल रहा है.
2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बीच भाजपा को यूपी में 42.6 प्रतिशत वोट मिले थे. उस चुनाव में सपा को 22.3 प्रतिशत वोट मिले थे. बसपा को 20 प्रतिशत और कांग्रेस को 7.5 प्रतिशत वोट मिले थे. अगर सपा, बसपा और कांग्रेस को मिले वोट प्रतिशत मिला दिए जाएं तो यह 49.8 प्रतिशत हो जाता है. इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ सपा, बसपा और कांग्रेस मिल कर लड़ी और इन पार्टियों का पुराना वोट प्रतिशत बहाल रहा तो गठबंधन भाजपा के लिए भारी पड़ेगा. राष्ट्रीय लोक दल या ऐसे अन्य दल भी साथ मिल जाएं तो परिणाम के बारे में आकलन किया जा सकता है.
गिनती के गुणा-गणित और वोट प्रतिशत के आधार पर न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश में भाजपा को 2014 के परिणामों की तरह आशान्वित नहीं रहना चाहिए. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से अब तक 15 राज्यों में विधानसभा चुनाव हो चुके हैं. इस वर्ष कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा चुनाव होने हैं. ये चुनाव निश्चित तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव पर असर डालेंगे. 2014 के लोकसभा चुनाव में इन चार राज्यों को मिला कर भाजपा को 79 सीटें मिली थीं. चुनावी विश्लेषक विधानसभा चुनावों में मिले वोट प्रतिशत के आधार पर 2019 के लोकसभा चुनाव का आकलन करते हैं. उनका मानना है कि जिन 15 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं, वहां वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 191 सीटें मिली थीं. लेकिन विधानसभा चुनावों में भाजपा के खाते में जो वोट-प्रतिशत आए, उस आधार पर भाजपा के लिए 146 लोकसभा सीटें बनती हैं, यानि 2014 की तुलना में 45 सीटें कम. स्पष्ट है कि भाजपा के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव 2014 जैसा नहीं होने वाला है.

राज्यसभा के बाद विधान परिषद में भी सपा-बसपा को पटकने की तैयारी
उत्तर प्रदेश में 26 अप्रैल को होने जा रहे विधान परिषद चुनाव में भी राज्यसभा चुनाव की तरह सपा-बसपा गठबंधन को पटखनी देने की भाजपा की तैयारी है. इस बार भाजपा ने दलित प्रसंग को ही केंद्र में रखा है और विधान परिषद चुनाव से लेकर पूरे देश में भाजपा की दलित-हित-चिंता को लेकर मुहिम छेड़ने का अभियान शुरू करने जा रही है. इस अभियान में भाजपा के प्रमुख दलित नेता शरीक रहेंगे. इसमें केंद्रीय मंत्री कृष्णा राज, अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामशंकर कठेरिया, प्रदेश भाजपा के अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ के अध्यक्ष व सांसद कौशल किशोर समेत संगठन के कई प्रमुख दलित नेताओं को शामिल किया गया है. इस अभियान के तहत विधान परिषद चुनाव में अधिक दलित प्रत्याशी उतारने के अलावा तमाम सरकारी योजनाओं मसलन, मुद्रा योजना, अटल पेंशन योजना, प्रधानमंत्री बीमा योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना वगैरह में दलितों को अधिकाधिक संख्या में लाभ देने की रणनीति भी शामिल है. भाजपा अभी से इस बात के प्रचार-प्रसार में लग गई है कि यूपी विधानसभा में 87 प्रतिशत दलित विधायक भाजपा के हैं. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के भी दलित होने का सियासी फायदा उठाने से भाजपा नहीं चूकने वाली.
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश 13 विधान परिषद सीटों के लिए 26 अप्रैल को चुनाव हो रहा है. यह चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सहित 13 विधान परिषद सदस्यों का कार्यकाल पांच मई को समाप्त हो रहा है. विधान परिषद से रिटायर हो रहे नेताओं में अखिलेश के अलावा योगी सरकार के मंत्री मोहसिन रजा, डॉ. महेंद्र सिंह, सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल, डॉ. मधु गुप्ता, राजेंद्र चौधरी, अम्बिका चौधरी, चौधरी मुश्ताक, रामसकल गुर्जर, डॉ. विजय यादव, डॉ. विजय प्रताप, उमर अली खान और सुनील कुमार चित्तौर शामिल हैं. पूर्व घोषणा के मुताबिक अखिलेश यादव विधान परिषद का चुनाव नहीं लड़ेंगे. अखिलेश सांसदी का चुनाव लड़ने की बात कह चुके हैं. भाजपा अपने 11 प्रत्याशियों को विधान परिषद भेजने की तैयारी में है. विधानसभा में भाजपा विधायकों की संख्या 324 है. संख्याबल के आधार पर भाजपा के 11 प्रत्याशी विधान परिषद पहुंच सकते हैं, जबकि खाली होने वाली 13 सीटों में से केवल दो सीटें ही भाजपा के खाते की थीं.