Tuesday 31 October 2017

सरकारी वकीलों की नियुक्ति ले डूबी योगी सरकार की साख...

प्रभात रंजन दीन
सरकारी वकीलों की नियुक्ति में ईमानदारी, पारदर्शिता, नैतिकता और न्यायप्रियता की मंच पर खूब नौटंकी हुई और पर्दे के पीछे इन नैतिक-शब्दों को खूब फाड़ा गया. भाजपा के संगठन मंत्री सुनील बंसल ने अपने गुर्गों के साथ मिल कर सपाई शासनकाल के अधिकांश सरकारी वकीलों को योगी सरकार के मत्थे जड़ दिया और यूपी सरकार के कानूनी पक्ष का बंटाधार करके रख दिया. बंसल की सांगठनिक प्रतिबद्धता की यह मिसाल बेमिसाल है. इसके बाद जब विवाद ने तूल पकड़ा तब प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दायित्व से पल्ला झाड़ लिया. प्रदेश के कानून मंत्री बृजेश पाठक ने अनभिज्ञ बता कर खुद को ‘इन्नोसेंट’ साबित करने का प्रहसन खेला. महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह इस नियोजित-नौटंकी के सबसे चतुर-सुजान पात्र निकले. उन्होंने अपने लोगों की नियुक्ति भी करा ली और यह भी कह दिया कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति में उन्हें पूछा ही नहीं गया. फिर बड़े ही नियोजित तरीके से इस मामले को हाईकोर्ट पहुंचाया गया और हाईकोर्ट ने उसी अपेक्षा के मुताबिक तल्ख टिप्पणियां कीं, सरकारी वकीलों की नियुक्ति को रेवड़ी-वितरण प्रक्रिया बनाने पर सरकार की खिंचाई की और लिस्ट पर शीघ्र पुनर्विचार कर पुनर्नियुक्ति करने का फरमान जारी किया. हाईकोर्ट ने पुनर्नियुक्ति के लिए एक तरफ सरकार (महाधिवक्ता) को सख्त समय-सीमा में बांधने का उपक्रम किया लेकिन दूसरी तरफ सरकार को समय भी खूब दिया. महेंद्र सिंह पवार की जिस जनहित याचिका पर हाईकोर्ट त्वरित सुनवाई कर रही थी, उस कोर्ट ने याचिकाकर्ता से यह नहीं पूछा कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के लिए वे खुद आवेदक थे या नहीं? यदि यह सवाल उसी समय पूछ लिया जाता तो जनहित याचिका स्वीकृत होने के पहले ही कानून की कसौटी पर ढेर हो जाती. खैर, यह नौबत ही नहीं आने दी गई. सारा स्टेज जैसे पहले से सेट था. बड़े इत्मिनान से सारे गोट-बिसात, दांव-पेंच सोच समझ कर बिछाए गए और सरकारी वकीलों की पुनर्विचारित सूची फिर से जारी की गई. इस पुनर्विचारित सूची ने भ्रष्टाचार-गुटबाजी-भाई-भतीजावाद को पुनर्स्थापित कर दिया. अब हाईकोर्ट भी मौन है. जबकि सारी कवायद ही बेमानी साबित हुई है. पुरानी सूची को फिर से जारी किया गया. पसंद के खास-खास नए नाम शामिल किए गए. नापसंद के खास-खास नाम हटाए गए. अयोग्यों को ऊंचे पद दिए गए और योग्य से ऊंचे पद छीन लिए गए. व्यक्तिगत रंजिशें साधी गईं और अदालत को घटिया राजनीति का नुक्कड़ बना दिया गया. अदालत-क्षेत्र में आप यह चर्चा सरेआम सुनेंगे कि योगी सरकार के सरकारी वकील बंसल-राघवेंद्र प्राइवेट-लिमिटेड के मुलाजिम हैं. यह बंसल और राघवेंद्र की सांगठनिक प्रतिबद्धता का ही ‘कमाल’ है कि कांग्रेस पार्टी के प्रदेश मंत्री सुनील बाजपेयी और कांग्रेस के कट्टर कार्यकर्ता जगदीश प्रसाद मौर्य को अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता बना दिया जाता है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अवाक देखते रह जाते हैं!
सरकारी वकीलों के नियुक्ति-प्रकरण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो ढक्कन हो गया. संघ का यह मुगालता दूर हुआ कि सरकार संघ के बूते चलती है. संघ से जुड़े अधिवक्ता परिषद ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति और पुनर्नियुक्ति में भ्रष्टाचार और गुटबाजी की आधिकारिक शिकायत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से की है. अधिवक्ता परिषद ने कहा है कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के दुष्प्रयोग के कारण महत्वपूर्ण कानूनी मामलों में सरकार हार रही है और उसे शर्मिंदगी झेलनी पड़ रही है. महाधिवक्ता द्वारा की गई अवमानना के मामले से उबरने के लिए सरकार को लाखों रुपए खर्च करने पड़े. अदालत में सरकार का पक्ष लेने के बजाय महाधिवक्ता सरकार के विरोध में खड़े होकर अपनी योग्यता का परिचय देते हैं और सरकार की नाक कटवाते हैं. अधिवक्ता परिषद ने मुख्यमंत्री से कहा है कि महाधिवक्ता ने अपने ही जूनियर से रिट दाखिल करवाकर सरकारी वकीलों की नियुक्ति का एकाधिकार हासिल करने का रास्ता निकाला और कर्मठ कार्यकर्ताओं और योग्य अधिवक्ताओं को मनमाने ढंग से हटाकर अपमानित किया. अधिवक्ता परिषद का आरोप है कि महाधिवक्ता ने ‘बार’ के चुनाव में उनका समर्थन न करने या उनकी चाटुकारिता नहीं करने वाले वकीलों को सरकारी अधिवक्ता के पदों से हटाया. इसके अलावा उन्होंने मुख्यमंत्री को अंधेरे में रख कर सपा और बसपा के कार्यकाल में सरकारी वकील रह चुके अधिवक्ताओं की टीम बनाकर अपना गुट खड़ा कर लिया. महाधिवक्ता के इस आचरण के खिलाफ प्रदेशभर में संघ और संगठन के कार्यकर्ता अधिवक्ताओं में काफी नाराजगी है और वे प्रदेशभर में व्यापक आंदोलन शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं. इससे सरकार की छवि भी धूमिल हो रही है और न्यायालय में काम करने का माहौल भी नष्ट हो रहा है. अधिवक्ता परिषद का कहना है कि राघवेन्द्र सिंह ऐसे नायाब महाधिवक्ता हैं जिन्हें हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अवमानना की नोटिस देकर व्यक्तिगत रूप से उपस्थित कराया गया और अटॉर्नी जनरल के माफी मांगने के बाद ही छोड़ा गया.
बहरहाल, तमाम विवाद और बदनामियों के बावजूद सरकारी वकीलों की जो पुनरीक्षित सूची जारी की गई, वह पुरानी सूची से और भी गई-गुजरी है. प्रदेश सरकार ने पिछले दिनों 234 सरकारी वकीलों की पुनरीक्षित सूची जारी की, उसमें भी सपा ओर बसपा सरकारों में सरकारी वकील रहे अधिवक्ताओं की भरमार है. नई सूची में तो उन्हें और भी महिमामंडित किया गया और उन्हें तरक्की दी गई. अधिवक्ता परिषद के प्रदेश कोषाध्यक्ष एवं योग्य अधिवक्ता श्रीप्रकाश सिंह को मुख्य स्थाई अधिवक्ता (प्रथम) के पद से हटा दिया गया और उन्हें सूची में कहीं भी जगह नहीं दी गई. इसी तरह संघ और अधिवक्ता परिषद से जुड़े नितिन माथुर, विनोद कुमार शुक्ला, अमरेंद्र प्रताप सिंह, अनिल चौबे और अमर बहादुर सिंह को एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल के पद से डिमोट कर स्टैंडिंग काउंसिल बना दिया गया. दिनेशचंद्र त्रिपाठी, सर्वेश मिश्रा और मनोज कुमार त्रिवेदी को स्टैंडिंग काउंसिल के पद से डिमोट करके ब्रीफ होल्डर बना दिया गया. कई ऐसे नामों को फिर से सूची में स्थान दे दिया गया, जिन्हें (सात जुलाई को बनी) पिछली लिस्ट से हटा दिया गया था. भाजपा और संघ की विचारधारा से सम्बद्ध दर्जनों सरकारी वकीलों को पुनरीक्षण के नाम पर हटा दिया गया और कुछ लोगों को अपमानित कर नीचे के पदों पर खिसका दिया गया. नई सूची में तीन मुख्य स्थाई अधिवक्ता, 32 अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, 58 स्टैंडिंग काउंसिल, 99 वाद धारक सिविल मामलों और 42 वाद धारक क्रिमिनल मामलों के लिए नियुक्त किए गए हैं. मुख्य स्थाई अधिवक्ता के तीन पदों में विनय भूषण को शामिल किया गया है. वे सपा सरकार में अपर स्थाई अधिवक्ता थे. इसके अलावा अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता के 32 पदों पर आधे से अधिक सपा या बसपा के समय रहे सरकारी वकीलों को जगह दी गई है. इनमें अभिनव एन त्रिपाठी, रणविजय सिंह, पंकज नाथ, देवेश चंद्र पाठक, विवेक शुक्ला, दीपशिखा, अजय अग्रवाल, अमिताभ कुमार राय, आलोक शर्मा, मंजीव शुक्ला, एचपी श्रीवास्तव, जगदीश प्रसाद मौर्या, हेमेंद्र कुमार भट्ट, शत्रुघ्न चौधरी, पंकज खरे और राहुल शुक्ला वगैरह शामिल हैं. इन नामों पर भाजपा और संघ में घोर विरोध था, लेकिन महाधिवक्ता ने इसे दरकिनार कर इन्हें नियुक्त कर दिया.
स्टैंडिंग काउंसिल के पद पर पहले की सरकारों में तैनात रहे अनिल कुमार चौबे, प्रत्युश त्रिपाठी, अखिलेश कुमार श्रीवास्तव, आनंद कुमार सिंह, पारुल बाजपेयी, शोभित मोहन शुक्ला, मनु दीक्षित, मनीष मिश्रा, अनुपमा सिंह, आशुतोष सिंह, कमर हसन रिजवी, संजय सरीन, विनायक सक्सेना, विनय कुमार सिंह, प्रफुल्ल कुमार यादव, शरद द्विवेदी, पुष्कर बघेल, ज्ञानेंद्र कुमार श्रीवास्तव और अनिल कुमार सिंह विशेन को फिर जगह दी गई है. वाद धारक (ब्रीफ होल्डर) के पद पर भी काफी संख्या में उन्हीं वकीलों को जगह मिली जो पिछली सरकार में सरकारी वकील थे. उल्लेखनीय है कि योगी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद जुलाई महीने में जब सरकारी वकीलों की नियुक्ति हुई थी तब ‘चौथी दुनिया’ ने उन वकीलों के नाम प्रकाशित किए थे, जो समाजवादी पार्टी सरकार में सरकारी वकील थे या समाजवादी पार्टी के सक्रिय समर्थक थे. दूसरी बार ‘चौथी दुनिया’ ने फिर उन नामों को प्रकाशित किया जो यूपी के महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह की चौकड़ी के सदस्य थे. महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह के लोगों के नाम का प्रकाशन इसलिए भी जरूरी था क्योंकि वे यह आधिकारिक तौर पर कह चुके थे कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के बारे में उन्हें कुछ नहीं पता था. नियुक्ति प्रकरण के तूल पकड़ने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय में जब महाधिवक्ता तलब किए गए थे, तब उन्होंने क्षेत्रीय प्रचारक शिवनारायण के समक्ष यही कहा था कि उन्हें नियुक्तियों के बारे में कुछ नहीं पता.
पुनरीक्षण के बाद जो नई सूची बनी उसमें भी राघवेंद्र के लोग भरे हुए हैं. महाधिवक्ता के तीन खास लोग तो एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल के पद पर स्थापित किए गए हैं. इनमें रणविजय सिंह, प्रदीप कुमार सिंह और डॉ. उदयवीर सिंह शामिल हैं. पक्षपात का कानूनीकरण इस कदर किया गया कि रणविजय सिंह, जो पहली सूची में स्थाई अधिवक्ता (स्टैंडिंग काउंसिल) नियुक्त हुए थे, उन्हें इन्हीं तीन महीने के अंदर तरक्की देकर एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल बना दिया गया. चतुर खिलाड़ी राघवेंद्र सिंह ने इसका खास तौर पर ध्यान रखा कि रणविजय सिंह प्रदेश सरकार के अपर विधि परामर्शी (एडिशनल एलआर) रणधीर सिंह के सगे भाई हैं. लिहाजा, यह ‘गोट’ राघवेंद्र के लिए जरूरी था. इस प्रभाव-वाद में कानूनी प्रक्रिया और प्रावधानों की इस कदर धज्जियां उड़ाई गईं कि पुनरीक्षण कमेटी का सदस्य नहीं होने के बावजूद रणविजय सिंह को सारी बैठकों में शामिल किया जाता रहा. जबकि महाधिवक्ता की अध्यक्षता वाली पुनरीक्षण कमेटी में न्याय विभाग के प्रमुख सचिव उमेश कुमार, गृह विभाग के प्रमुख सचिव अरविंद कुमार और मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव एसपी गोयल सदस्य थे.
नव-नियुक्त सरकारी वकीलों की लिस्ट में शुमार शैलेंद्र कुमार सिंह मुख्य स्थाई अधिवक्ता (तृतीय), रामप्रताप सिंह चौहान अपर मुख्य स्थाई अधिवक्त, राजेश तिवारी स्थाई अधिवक्ता, आनंदकुमार सिंह स्थाई अधिवक्ता, कुलदीप सिंह स्थाई अधिवक्ता, देवी प्रसाद सिंह स्थाई अधिवक्ता, राजेश कुमार सिंह स्थाई अधिवक्ता, अनुपमा सिंह स्थाई अधिवक्ता, आशुतोष सिंह स्थाई अधिवक्ता, जयवर्धन सिंह वाद-धारक (ब्रीफ-होल्डर), संजय कुमार सिंह वाद-धारक, सोमा रानी वाद-धारक, वीरेंद्र सिंह वाद-धारक, दीपक कुमार सिंह वाद-धारक, संतोष कुमार सिंह वाद-धारक, शिशिर सिंह चौहान वाद-धारक, धीरज राज सिंह वाद-धारक, सभाजीत सिंह वाद-धारक, श्याम बहादुर सिंह वाद-धारक और अंशुमान वर्मा वाद-धारक प्रदेश के महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह के कोटे वाले सरकारी अधिवक्ता हैं. महाधिवक्ता ने अपने खास आदमी उदयवीर सिंह को स्थाई अधिवक्ता से पद से प्रमोट करते हुए उन्हें अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता बना दिया, जबकि उदयवीर सिंह की योग्यता पर अदालत परिसर में चुटकुले चला करते हैं. भाजपा लीगल सेल के कुलदीप पति त्रिपाठी सरकारी वकीलों की नियुक्ति के लिए संगठन की तरफ से लिस्ट बनाने के काम में लगे थे, वे खुद अपर महाधिवक्ता बन बैठे. कुलदीप पति त्रिपाठी पर वकीलों ने घूस लेने और घूस की रकम संदीप बंसल तक पहुंचाने के आरोप लगाए हैं. 2001 बैच के वकील कुलदीप पति त्रिपाठी को इतने महत्वपूर्ण पद पर बिठाए जाने का कोई न कोई ठोस कारण तो रहा ही होगा. सरकारी वकीलों की पहली सूची में शामिल रहीं शिखा सिन्हा को महज इसलिए हटा दिया गया कि वे महाधिवक्ता की चाटुकार-चौकड़ी में शामिल नहीं थीं. सपा सरकार के समय से तैनात अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता राहुल शुक्ला, अभिनव एन. त्रिपाठी, देवेश पाठक, पंकज नाथ और विवेक शुक्ला को ताजा सूची में भी जारी रखा गया है. स्टैंडिंग काउसिंल के पदों पर भी सपा सरकार के समय से तैनात सरकारी वकीलों को फिर से जारी रखा गया है. इनमें शोभित मोहन शुक्ला, नीरज चौरसिया, मनु दीक्षित वगैरह के नाम प्रमुख हैं. ब्रीफ होल्डर के पद पर भी सपाई वकीलों को जारी रखा गया है. आपको याद ही होगा कि रामजन्म भूमि मुकदमे से जुड़ी वकील रंजना अग्निहोत्री ने बंसल-राघवेंद्र गठजोड़ के खिलाफ सरकारी वकील के पद से इस्तीफा दे दिया था. भाजपा की प्रदेश मीडिया प्रभारी रह चुकीं अनीता अग्रवाल ने भी सरकारी वकील के पद पर अपनी ज्वाइनिंग देने से इंकार कर दिया था. उन्होंने कहा था कि वे भाजपा से पिछले 30 साल से जुड़ी रही हैं. उनकी उपेक्षा कर उनसे काफी जूनियर वकीलों को अपर महाधिवक्ता बना दिया गया है. ऐसे में वह स्टैंडिग काउंसिल के पद पर कार्य नहीं कर सकतीं. अधिवक्ता परिषद की डॉ. दीप्ति त्रिपाठी ने भी परिषद के वकीलों और महिला वकीलों की अनदेखी किए जाने के कारण सरकारी वकील का पद अस्वीकार कर दिया था.
सरकारी वकीलों की नियुक्ति में जज-आश्रितों को किस तरह आश्रय दिया गया, उसका ब्यौरा भी देखते चलें. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अशोक भूषण के भाई विनय भूषण को मुख्य स्थाई अधिवक्ता (द्वितीय) बनाया गया. विनय भूषण समाजवादी पार्टी के शासनकाल में अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता थे. अब इन्हें तरक्की देकर स्थाई अधिवक्ता नियुक्त कर दिया गया है. इसी तरह जस्टिस बीके नारायण के बेटे एनके सिन्हा नारायण और बहू आनंदी के नारायण दोनों को सरकारी वकील नियुक्त कर दिया गया. इनके अलावा जस्टिस केडी शाही के बेटे विनोद कुमार शाही को अपर महाधिवक्ता बनाया गया है. जस्टिस आरडी शुक्ला के बेटे राहुल शुक्ला अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, स्व. जस्टिस एएन त्रिवेदी के बेटे अभिनव त्रिवेदी अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, जस्टिस रंगनाथ पांडेय के रिश्तेदार देवेश चंद्र पाठक अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, जस्टिस शबीहुल हसनैन के रिश्तेदार कमर हसन रिजवी अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, जस्टिस एसएन शुक्ला के रिश्तेदार विवेक कुमार शुक्ला अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, जस्टिस रितुराज अवस्थी के रिश्तेदार प्रत्युष त्रिपाठी स्थाई अधिवक्ता और जस्टिस राघवेंद्र कुमार के पुत्र कुमार आयुष वाद-धारक नियुक्त किए गए हैं. नई सूची में जस्टिस यूके धवन के बेटे सिद्धार्थ धवन और जस्टिस एसएस चौहान के बेटे राजीव सिंह चौहान को एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल बनाया गया है. पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी के बेटे नीरज त्रिपाठी को इलाहाबाद हाईकोर्ट का अपर महाधिवक्ता बनाया गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले के बेटे करन दिलीप भोसले को अखिलेश सरकार ने नियुक्त किया था, योगी सरकार ने भी उसे जारी रखने की ‘अनुकम्पा’ कर दी. ऐसे उदाहरण कई हैं. सरकारी वकीलों की नियुक्ति से सरकार की साख इतनी गिर गई है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के दोनों परिसरों (इलाहाबाद और लखनऊ) में जजों के रिश्तेदारों को जज-आश्रित कह कर बुलाया जाता है और तमाम कटाक्ष हो रहे हैं. नियुक्ति प्रसंग में जज भी खूब रुचि ले रहे थे. सरकारी वकीलों की लिस्ट में जज-आश्रितों की खासी संख्या इस बात की आधिकारिक सनद है.
आपको फिर से याद दिलाते चलें कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के लिए योग्य वकीलों की लिस्ट बनाने का जिम्मा प्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री सुनील बंसल ने संभाली थी. उनका साथ दे रहे थे उन्हीं की टीम के खास सदस्य अशोक कटारिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से अलग से लिस्ट बनाई जा रही थी. अधिवक्ता परिषद की तरफ से भी योग्य वकीलों की लिस्ट बनाई जा रही थी. दूसरी तरफ कानून विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय भी रंगीन खिचड़ी पका रहे थे, किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी. लेकिन नियुक्ति के बाद जो लिस्ट बाहर आई उसने बंसल और प्रमुख सचिव की पोल खोल कर रख दी. यह उजागर हुआ कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति में पैरवी और घूसखोरी जम कर चली जिसका परिणाम यह हुआ कि संगठन और सरकार की प्रतिष्ठा को ताक पर रख कर तमाम पैरवी-पुत्रों, जज-आश्रितों, मंत्री और महाधिवक्ता के गुट के लोगों और समाजवादी सरकार के समय के अधिकांश सरकारी वकीलों को फिर से नियुक्त कर दिया गया. योग्यता का मापदंड बहुत पीछे छूट गया. सरकारी वकीलों की लिस्ट में जजों के बेटे और नाते-रिश्तेदारों को शामिल कर कानून विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय खुद जज बन गए और बड़ी बुद्धिमानी से पर्दे के पीछे चले गए. अधिवक्ता सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव ने रंगनाथ पांडेय की करतूतों का पूरा कच्चा चिट्ठा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भेजा था. इसकी प्रतिलिपि इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के अलावा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भी भेजी गई थी. पीएमओ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस मामले की गहराई से जांच कराने को भी कहा था. लेकिन यह सब ढाक के तीन पात ही साबित हुआ. श्रीवास्तव की शिकायत में यह स्पष्ट लिखा है कि विधि विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय पद का दुरुपयोग कर और विधाई संस्थाओं को अनुचित लाभ देकर हाईकोर्ट के जज बने हैं. पांडेय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट और लखनऊ बेंच में सरकारी वकीलों की नियुक्ति को अपनी तरक्की का जरिया बनाया. नियुक्ति प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मानकों की पूरी तरह अनदेखी की. खुद जज बनने के लिए सारी सीमाएं लांघीं. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के रिश्तेदारों को सरकारी वकीलों की लिस्ट में शामिल किया और एवज में जज का पद पा लिया. रिश्वतखोरी की यह नायाब घटना है.
जिस तरह सरकारी वकीलों की नियुक्ति चर्चा और विवादों में है, उसी तरह प्रदेश का महाधिवक्ता चुनने में भी तमाम किस्म की सियासी नौटंकियां हुई थीं. प्रदेश सरकार का उहापोही चरित्र महाधिवक्ता के चयन में उजागर हो गया था. कभी शशि प्रकाश सिंह यूपी के महाधिवक्ता बनाए जा रहे थे तो कभी महेश चतुर्वेदी. अंदर-अंदर राघवेंद्र सिंह भी लगे थे और उन्होंने सुनील बंसल को पकड़ रखा था. एक समय तो यह भी आया, जब राज्य सरकार ने आधिकारिक तौर पर कह दिया कि हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के वरिष्ठ अधिवक्ता शशि प्रकाश सिंह प्रदेश के महाधिवक्ता होंगे. 27 मार्च 2017 को यह फैसला हुआ और कहा गया कि 28 मार्च को इसकी बाकायदा घोषणा होगी. तमाम अखबारों में शशि प्रकाश सिंह के महाधिवक्ता बनने की खबरें और उनकी तस्वीरें भी छप गईं. लेकिन सरकार ने औपचारिक घोषणा नहीं की. शशि प्रकाश सिंह को संघ का समर्थन प्राप्त था. वे संघ के अनुषांगिक संगठन अधिवक्ता परिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और परिषद की यूपी इकाई के अध्यक्ष रहे हैं. लेकिन महाधिवक्ता की नियुक्ति में भी संघ की नहीं चली. विधानसभा चुनाव लड़ना चाह रहे पूर्व सांसद राघवेंद्र सिंह को पार्टी ने विधायकी का टिकट नहीं दिया था. सुनील बंसल ने इसके एवज में उन्हें प्रदेश का महाधिवक्ता बनाने में भूमिका अदा की. इसीलिए अधिवक्ता जगत में चर्चा है कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति सुनील बंसल और राघवेंद्र सिंह की आपसी समझदारी और साठगांठ से हुई है. महाधिवक्ता पद के लिए कतार में खड़े महेश चतुर्वेदी और रमेश कुमार सिंह जैसे वरिष्ठों को अपर महाधिवक्ता का पद लेकर संतुष्ट होना पड़ा. महेश चतुर्वेदी बसपा सरकार में मुख्य स्थाई अधिवक्ता थे. रमेश सिंह राजनाथ सिंह के शासनकाल में प्रदेश के अपर महाधिवक्ता थे.

मुख्यमंत्री के आदेश को भी ठेंगा दिखाने में कोई झिझक नहीं
महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आदेश की भी कोई परवाह नहीं की. मुख्यमंत्री का स्पष्ट आदेश था कि एचपी श्रीवास्तव को एडिशनल चीफ स्टैडिंग काउंसिल के पद से हटाया जाए. लेकिन इस आदेश को महाधिवक्ता ने ताक पर रख दिया और पुनरीक्षित सूची में भी एचपी श्रीवास्तव को एडिशनल चीफ स्टैडिंग काउंसिल के बतौर शामिल कर लिया. प्रदेश के कुछ महत्वपूर्ण कानूनी मामले में सरकार की किरकिरी कराने के कारण मुख्यमंत्री ने श्रीवास्तव को तत्काल प्रभाव से हटाने का आदेश दिया था. सत्ता गलियारे के शीर्ष सूत्र बताते हैं कि मुख्यमंत्री का आदेश सरकार के विधि परामर्शी (एलआर) के दफ्तर में दबा दिया गया है. यहां फिर से जिक्र करना जरूरी है कि यूपी सरकार के अपर विधि परामर्शी (एडिशनल एलआर) ) रणधीर सिंह के सगे भाई रणविजय सिंह को महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह ने एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल बना दिया है. स्वाभाविक है कि राघवेंद्र ने यह सब सोच-समझ कर ही किया होगा. राघवेंद्र और एचपी श्रीवास्तव के बड़े पुराने गहरे सम्बन्ध रहे हैं. सरकारी वकील होते हुए भी एचपी श्रीवास्तव अपने मित्र राघवेंद्र के लिए अपनी पेशेगत-प्रतिबद्धता को ताक पर रखते रहे हैं.

जब महाधिवक्ता ने भरी अदालत में कटाई योगी सरकार की नाक
उत्तर प्रदेश के महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह ने भरी अदालत में योगी सरकार की किरकिरी कराई तो उनकी योग्यता को लेकर तमाम सवाल उठने लगे. मामला वर्ष 2007 में गोरखपुर में हुए एक दंगे को लेकर था और खुद योगी आदित्यनाथ उसके घेरे में थे. इस मामले में सुनवाई के दौरान इलाहाबाद हाईकोर्ट में महाधिवक्ता की हरकतों के कारण प्रदेश सरकार की खूब फजीहत हुई.
सुनवाई के दौरान यह मुद्दा उठा था कि अगर सरकार किसी के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी देने से इंकार कर दे तो क्या सरकार के फैसले को दरकिनार कर कोई मजिस्ट्रेट मामले की सुनवाई कर सकता है? उत्तर प्रदेश के अपर महाधिवक्ता (एडिशनल एडवोकेट जनरल) मनीष गोयल और सरकार की तरफ से पैरवी के लिए आए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील अजय कुमार मिश्र सरकार के पक्ष में दलील दे रहे थे. बहस के दौरान ही महाधिवक्ता (एडवोकेट जनरल) राघवेंद्र सिंह खड़े हो गए और उन्होंने अपने ही सहयोगियों की दलील को काटना शुरू कर दिया. महाधिवक्ता के इस रवैये से पूरी कोर्ट सकते में आ गई. सुनवाई कर रहे न्यायाधीश कृष्ण मुरारी और एसी शर्मा भी हैरत में आ गए और उन्होंने महाधिवक्ता से पूछ ही लिया कि कोर्ट सरकार की तरफ से आए एडिशनल एडवोकेट जनरल और सुप्रीम कोर्ट के वकील की बात सही माने या फिर एडवोकेट जनरल की बात को सही माना जाए! हाईकोर्ट ने कटाक्ष करते हुए कहा, ‘आप दोनों पहले फैसला कर लें कि आप लोग कहना क्या चाहते हैं. आप लोग खुद ही एक राय नहीं हैं’. अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार के महाधिवक्ता को ‘महत्वपूर्ण और गंभीर मामले में’ अदालत में हाजिर नहीं रहने के लिए फटकार भी लगाई. हाईकोर्ट ने सरकार के वकीलों के बरताव से नाराज होते हुए कहा था, ‘हम एडवोकेट जनरल के खिलाफ रिस्ट्रेंट ऑर्डर पास कर रहे हैं. आपकी राय अपने सहयोगी वकीलों से अलग है, जबकि यह बेहद गंभीर मामला है. आप ज्यादातर समय लखनऊ में रहते हैं जबकि एडवोकेट जनरल का मुख्य कार्यालय इलाहाबाद में है’. अदालत ने इस बात को संज्ञान में लिया था कि यूपी सरकार के वकीलों के पास मूल याचिका में बदलाव के विरोध में कोई ‘ठोस सबूत’ नहीं है.

Thursday 5 October 2017

चीनी मिल घोटालाः मायावती के खिलाफ योगी की जांच, जेटली को क्यों लगी आंच..?

प्रभात रंजन दीन
मायावती के मसले पर उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार दोनों अलग-अलग स्टैंड पर खड़ी है. मायावती को कानून के शिकंजे में कसने की योगी कोशिश कर रहे हैं तो जेटली उसमें अड़ंगा डाल रहे हैं. इसे राजकीय भाषा में ऐसे कहें कि यूपी सरकार बसपाई शासनकाल के घोटालों की जांच कराने का निर्णय लेती है तो केंद्र सरकार उसे कानूनी तौर पर बेअसर कर देती है. मायावती और अरुण जेटली के बीच कोई रहस्यमय समझदारी है या केंद्र की मोदीनीत भाजपा सरकार भविष्य के लिए मायावती को ‘रिजर्व’ में रखना चाहती है? कहीं जेटली को आगे रख कर मोदी मायावती को बचाने की कोशिश तो नहीं कर रहे? भाजपाइयों को ही यह बात समझ में नहीं आ रही है. इस गुत्थी के निहितार्थ योगी के भी पल्ले नहीं पड़ रहे.
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी सरकार के छह महीने पूरे होने पर जारी श्वेत-पत्र में भी प्रदेश की करीब दो दर्जन चीनी मिलों को बेचे जाने में हुए अरबों रुपए के घोटाले का उल्लेख किया है. इसके पहले अप्रैल महीने में योगी ने चीनी मिलों के बिक्री-घोटाले की जांच कराए जाने की घोषणा की थी. लेकिन अरुण जेटली के कॉरपोरेट अफेयर मंत्रालय ने इस मामले में कानूनी रायता बिखेर दिया. आप यह जानते ही हैं कि जेटली वित्त के साथ-साथ कॉरपोरेट अफेयर विभाग के भी मंत्री हैं. नॉर्थ-ब्लॉक गलियारे के एक आला अधिकारी कहते हैं कि यूपी की चीनी-मिलों को कौड़ियों के मोल बेच डालने के मामले में सुप्रीम कोर्ट से आखिरी फैसला आना बाकी है, लेकिन कॉरपोरेट अफेयर मंत्रालय के राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग (कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया) ने जो कानूनी रोड़े खड़े किए हैं, उससे घोटाला साबित होने में मुश्किल होगी. चीनी मिल बिक्री घोटाले से मायावती को बेदाग बाहर निकालने की समानान्तर किलेबंदी कर दी गई है. योगी जी को ध्यान रखना होगा कि यह किलेबंदी उन्हीं की पार्टी की केंद्र में बैठी सरकार ने की है.
चीनी मिलों के विक्रय-प्रकरण का पिटारा खुलेगा तो भाजपा की भी संलिप्तता उजागर होगी. सपा की भूमिका से भी पर्दा हटेगा. भाजपा इस वजह से भी इस मामले को ढंके रहना चाहती है और योगी इस वजह से भी इसे उजागर करने में रुचि ले रहे हैं. चीनी मिलों को बेचने की शुरुआत भाजपा के ही शासनकाल में हुई थी. भाजपा सरकार ने ही चीनी-मिलों पर गन्ना किसानों और किसान समितियों की पकड़ कमजोर करने और बिखेरने का काम किया था. चीनी मिलें बेचने की शुरुआत तत्कालीन भाजपा सरकार ने की थी, सपा ने अपने कार्यकाल में इसे आगे बढ़ाया और बसपा ने इसे पूरी तरह अंजाम पर ला दिया. इसकी हम विस्तार से आगे चर्चा करेंगे. अभी यह बताते चलें कि मायावती के कार्यकाल में चीनी मिलों को औने-पौने भाव में कुछ खास पूंजी घरानों को बेचे जाने के मामले की जांच की घोषणा योगी सरकार ने सत्तारूढ़ होने के महीनेभर बाद ही अप्रैल महीने में कर दी थी. इस घोषणा से केंद्र सरकार फौरन सक्रिय हो गई और कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) ने अगले ही महीने यानि, मई महीने में ही अपना फैसला सुनाकर योगी सरकार को झटके में ला दिया. कमीशन ने साफ-साफ कहा कि मायावती सरकार ने उत्तर प्रदेश की सहकारी चीनी मिलों की बिक्री में कोई गड़बड़ी नहीं की. कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया, यानि राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग भारत की संवैधानिक अधिकार प्राप्त विनियामक संस्था है. आयोग ने चार मई 2017 को दिए अपने फैसले में कहा है कि ऐसा कोई भी सबूत नहीं मिला है जिसमें कहीं कोई गड़बड़ी पाई गई हो. चीनी मिलों की बिक्री में अपनाई गई प्रक्रिया आयोग की नजर में पूरी तरह पारदर्शी है. आयोग ने यह भी कहा है कि नीलामी से किसी भी पार्टी को रोका नहीं गया और न किसी को धमकी ही दी गई. इस फैसले पर राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग के चेयरमैन देवेंद्र कुमार सीकरी और सदस्य न्यायमूर्ति जीपी मित्तल, यूसी नाहटा और ऑगस्टीन पीटर के हस्ताक्षर हैं.
आप मजा देखिए, सियासत जिस जगह नाक घुसेड़ दे, वहां क्या हाल कर देती है. संवैधानिक अधिकार प्राप्त केंद्र सरकार की दो संस्थाएं चीनी मिल बिक्री घोटाले में मायावती की संलिप्तता को लेकर दो अलग-अलग परस्पर-विरोधी दिशा में खड़ी हैं. महालेखाकार (सीएजी) की जांच रिपोर्ट कहती है कि चीनी मिलों की बिक्री में घनघोर अनियमितता हुई, लेकिन प्रतिस्पर्धा आयोग कहता है कि बिक्री में कोई अनियमितता नहीं हुई. कैग की जांच रिपोर्ट पहले आ गई थी, आयोग का फैसला अभी हाल में आया है. दो परस्पर-विरोधी रिपोर्टें देख कर आम नागरिक क्या धारणा बनाए और किस जगह खड़ा हो! यह विषम स्थिति है. राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग का 103 पेज का फैसला ‘चौथी दुनिया’ के पास है. इस फैसले को पढ़ें तो यह अपने आप में ही तमाम विरोधाभासों से भरा पड़ा है.
राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग के डायरेक्टर जनरल (डीजी) नितिन गुप्ता ने उत्तर प्रदेश की 10 चालू और 11 बंद चीनी मिलों को बेचे जाने के मामले की गहराई से छानबीन की थी. इस छानबीन में भी चीनी मिलें खरीदने वाले पूंजीपति पौंटी चड्ढा की कंपनी के साथ नीलामी में शामिल अन्य कंपनियों की साठगांठ आधिकारिक तौर पर पुष्ट हुई. यह पाया गया कि नीलामी में शामिल कई कंपनियां पौंटी चड्ढा की ही मूल कंपनी से जुड़ी हैं, जबकि नीलामी की पहली शर्त ही यह थी कि एक मिल के लिए एक ही कंपनी नीलामी की निविदा-प्रक्रिया में शामिल हो सकती है. प्रतिस्पर्धा आयोग के डीजी ने अपनी छानबीन में पाया कि उत्तर प्रदेश राज्य चीनी निगम लिमिटेड की 10 चालू हालत की चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में पहले तो 10 कंपनियां शरीक हुईं, लेकिन आखिर में केवल तीन कंपनियां वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड, पीबीएस फूड्स प्राइवेट लिमिटेड और इंडियन पोटाश लिमिटेड ही रह गईं. चालू हालत की 10 चीनी मिलों को खरीदने के लिए आखिर में बचीं तीन कंपनियों में ‘गजब’ की समझदारी पाई गई. जिन मिलों को खरीदने में वेव की रुचि थी, वहां अन्य दो कंपनियों ने कम दर की निविदा (बिड-प्राइस) भरी और जिन मिलों में दूसरी कंपनियों को रुचि थी, वहां वेव ने काफी दम दर की निविदा दाखिल की. इस तरह बहराइच की जरवल रोड चीनी मिल, कुशीनगर की खड्डा चीनी मिल, मुजफ्फरनगर की रोहनकलां चीनी मिल, मेरठ की सकोती टांडा चीनी मिल और महराजगंज की सिसवां बाजार चीनी मिल समेत पांच चीनी मिलें इंडियन पोटाश लिमिटेड ने खरीदीं और अमरोहा चीनी मिल, बिजनौर चीनी मिल, बुलंदशहर चीनी मिल व सहारनपुर चीनी मिल समेत चार चीनी मिलें वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड को मिलीं. दसवीं चीनी मिल की खरीद में रोचक खेल हुआ. बिजनौर की चांदपुर चीनी मिल की नीलामी के लिए इंडियन पोटाश लिमिटेड ने 91.80 करोड़ की निविदा दर (बिड प्राइस) कोट की. पीबीएस फूड्स ने 90 करोड़ की प्राइस कोट की, जबकि इसमें वेव कंपनी ने महज 8.40 करोड़ की बिड-प्राइस कोट की थी. बिड-प्राइस के मुताबिक चांदपुर चीनी मिल खरीदने का अधिकार इंडियन पोटाश लिमिटेड को मिलता, लेकिन ऐन मौके पर पोटाश लिमिटेड नीलामी की प्रक्रिया से खुद ही बाहर हो गई. लिहाजा, चांदपुर चीनी मिल पीबीएस फूड्स को मिल गई. नीलामी प्रक्रिया से बाहर हो जाने के कारण इंडियन पोटाश की बिड राशि जब्त हो गई, लेकिन पीबीएस फूड्स के लिए उसने पूर्व-प्रायोजित-शहादत दे दी. राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग की जांच में यह भी तथ्य खुला कि पौंटी चड्ढा की कंपनी वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड और पीबीएस फूड्स प्राइवेट लिमिटेड, दोनों के निदेशक त्रिलोचन सिंह हैं. त्रिलोचन सिंह के वेव कंपनी समूह का निदेशक होने के साथ-साथ पीबीएस कंपनी का निदेशक और शेयरहोल्डर होने की भी आधिकारिक पुष्टि हुई. इसी तरह वेव कंपनी की विभिन्न सम्बद्ध कंपनियों के निदेशक भूपेंद्र सिंह, जुनैद अहमद और शिशिर रावत पीबीएस फूड्स के भी निदेशक मंडल में शामिल पाए गए. मनमीत सिंह वेव कंपनी में अतिरिक्त निदेशक थे तो पीबीएस फूड्स में भी शेयर होल्डर थे. इस तरह वेव कंपनी और पीबीएस फूड्स की साठगांठ और एक ही कंपनी का हिस्सा होने का दस्तावेजी तथ्य सामने आया. यहां तक कि वेव कंपनी और पीबीएस फूड्स द्वारा निविदा प्रपत्र खरीदने से लेकर बैंक गारंटी दाखिल करने और स्टाम्प पेपर तक के नम्बर एक ही क्रम में पाए गए. आयोग के डीजी ने अपनी जांच रिपोर्ट में लिखा है कि दोनों कंपनियां मिलीभगत से काम कर रही थीं, जो कम्पीटीशन एक्ट की धारा 3 (3) (ए) और 3 (3) (डी) का सीधा-सीधा उल्लंघन है. चालू हालत की 10 चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में शामिल होकर आखिरी समय में डीसीएम श्रीराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड, द्वारिकेश शुगर इंडस्ट्रीज लिमिटेड, लक्ष्मीपति बालाजी शुगर एंड डिस्टिलरीज़ प्राइवेट लिमिटेड, पटेल इंजीनियरिंग लिमिटेड, त्रिवेणी इंजीनियरिंग एंड इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड, एसबीईसी बायोइनर्जी लिमिटेड और तिकौला शुगर मिल्स लिमिटेड जैसी कंपनियों के भाग खड़े होने का मामला भी रहस्य के घेरे में ही है. हालांकि आयोग ने अपनी जांच में इस पर कोई टिप्पणी नहीं की.
उत्तर प्रदेश राज्य चीनी एवं गन्ना विकास निगम लिमिटेड की प्रदेश में बंद पड़ी 11 चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में भी ऐसा ही कुछ ‘खेल’ हुआ. नीलामी की औपचारिकताओं में कुल 10 कंपनियां शरीक हुईं, लेकिन आखिरी समय में तीन कंपनियां मेरठ की आनंद ट्रिपलेक्स बोर्ड लिमिटेड, वाराणसी की गौतम रियलटर्स प्राइवेट लिमिटेड और नोएडा की श्रीसिद्धार्थ इस्पात प्राइवेट लिमिटेड मैदान छोड़ गईं. जो कंपनियां रह गईं उनमें पौंटी चड्ढा की कंपनी वेव इंडस्ट्रीज़ के साथ नीलगिरी फूड्स प्राइवेट लिमिटेड, नम्रता, त्रिकाल, गिरियाशो, एसआर बिल्डकॉन व आईबी ट्रेडिंग प्राइवेट लिमिटेड शामिल थीं और इनमें भी आपस में खूब समझदारी थी. नीलगिरी फूड्स ने बैतालपुर, देवरिया, बाराबंकी और हरदोई चीनी मिलों के लिए निविदा दाखिल की थी, लेकिन आखिर में बैतालपुर चीनी मिल छोड़ कर उसने अन्य से अपना दावा वापस कर लिया. इसके लिए उसे जमानत राशि भी गंवानी पड़ी. बैतालपुर चीनी मिल खरीदने के बाद नीलगिरी ने उसे भी कैनयन फाइनैंशियल सर्विसेज़ लिमिटेड के हाथों बेच डाला. इसी तरह त्रिकाल ने भटनी, छितौनी और घुघली चीनी मिलों के लिए निविदा दाखिल की थी, लेकिन आखिरी समय में जमानत राशि गंवाते हुए उसने छितौनी और घुघली चीनी मिलों से अपना दावा हटा लिया. वेव कंपनी ने भी बरेली, रामकोला और शाहगंज की बंद पड़ी चीनी मिलों को खरीदने के लिए निविदा दाखिल की थी. लेकिन उसने बाद में बरेली और रामकोला से अपना दावा छोड़ दिया और शाहगंज चीनी मिल खरीद ली. बाराबंकी, छितौनी और रामकोला की बंद पड़ी चीनी मिलें खरीदने वाली कंपनी गिरियाशो और बरेली, हरदोई, लक्ष्मीगंज और देवरिया की चीनी मिलें खरीदने वाली कंपनी नम्रता में वही सारी संदेहास्पद-समानताएं पाई गईं जो वेव इंडस्ट्रीज़ और पीबीएस फूड्स लिमिटेड में पाई गई थीं. यह भी पाया गया कि गिरियाशो, नम्रता और कैनयन, इन तीनों कंपनियों का दिल्ली के सरिता विहार में एक ही पता है. बंद पड़ी 11 चीनी मिलें खरीदने वाली सभी कंपनियां एक-दूसरे से जुड़ी हुई पाई गईं, खास तौर पर वे पौंटी चड्ढा की वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड से सम्बद्ध पाई गईं. लेकिन विडंबना यह है कि राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने अपने ही डीजी की छानबीन को किनारे लगा दिया और फैसला सुना दिया कि यूपी की 21 चीनी मिलों की नीलामी प्रक्रिया में किसी तरह की गड़बड़ी और साठगांठ साबित नहीं पाई गई. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग के इस फैसले को अभी नहीं माना है. कानून के विशेषज्ञ कहते हैं कि आयोग के जरिए केंद्र सरकार ने कानूनी पचड़ा फंसाने की कोशिश तो की है, लेकिन आयोग के डीजी की छानबीन रिपोर्ट भी सुप्रीम कोर्ट की निगाह में है.

नौकरशाहों ने दलालों की तरह काम किया
एक तरफ प्रतिस्पर्धा आयोग कहता है कि चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में कोई अनियमितता नहीं हुई, दूसरी तरफ अगर दस्तावेज देखें तो धांधली साफ-साफ दिखाई देती है. चीनी मिलों की अरबों की चल-अचल सम्पत्ति को कौड़ियों के भाव बेच दिया जाना घोर भ्रष्टाचार की सनद देता है. महालेखाकार की छानबीन में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि चीनी मिलों की विक्रय-प्रक्रिया में शामिल नौकरशाहों ने पूंजी-प्रतिष्ठानों के दलालों की तरह काम किया. सीएजी का मानना है कि निविदा की प्रक्रिया शुरू होने के पहले ही यह तय कर लिया गया था कि चीनी मिलें किसे बेचनी हैं. निविदा में भाग लेने वाली कुछ खास कंपनियों को सरकार की बिड-दर पहले ही बता दी गई थी और प्रक्रिया के बीच में भी अपनी मर्जी से नियम बदले गए. मिलों की जमीनें, मशीनें और उपकरणों की कीमत निर्धारित करने में मनमानी की गई. बिक्री के बाद रजिस्ट्री के लिए स्टाम्प ड्यूटी भी कम कर दी गई. कैग का कहना है कि चीनी मिलें बेचने में सरकार को 1179.84 करोड़ रुपए का सीधा नुकसान हुआ. यानि, उत्तर प्रदेश राज्य चीनी निगम लिमिटेड की चालू हालत की 10 चीनी मिलों को बेचने पर सरकार को 841.54 करोड़ का नुकसान हुआ और उत्तर प्रदेश राज्य चीनी एवं गन्ना विकास निगम लिमिटेड की बंद 11 चीनी मिलों को बेचने की प्रक्रिया में 338.30 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ.

मायावती की करतूतों को अखिलेश ने लीपा पोता
चीनी मिल विक्रय घोटाला क्या, अखिलेश सरकार ने मायावती के कार्यकाल के सारे घपले-घोटालों को अपने कार्यकाल में खूब लीपा पोता. महालेखाकार की रिपोर्ट अखिलेश के कार्यकाल में ही विधानसभा के पटल पर रखी गई थी. लेकिन मुख्यमंत्री होने की अखिलेश ने अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई. मामला लोकायुक्त के पास चला गया, लेकिन सरकार की लापरवाही या दबाव के कारण लोकायुक्त की जांच किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई. अखिलेश सरकार ने लोकायुक्त के मत्थे ठीकरा फोड़ दिया. जबकि तत्कालीन लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा ने कहा कि छानबीन में सरकार कोई सहयोग नहीं कर रही है. सम्बद्ध नौकरशाहों से जवाब मांगा तो सिरचढ़े नौरशाहों ने लोकायुक्त को जवाब तक नहीं भेजा.

भाजपा ने ही शुरू की थी चीनी मिलों की बर्बादी, गन्ना किसानों की तबाही
किसानों को राजनीतिक दलों ने बड़े शातिराना तरीके से मारा है. इसके लिए समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी अकेले दोषी नहीं है. चीनी मिलों को बर्बाद करने और गन्ना किसानों को तबाह करने का सिलसिला सबसे पहले भाजपा के शासनकाल में ही शुरू हुआ था. थोड़ा पृष्ठभूमि में झांकते चलें. कभी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान खुशहाल थे. गन्ने की खेती और चीनी मिलों से प्रदेश के गन्ना बेल्ट में कई अन्य उद्योग धंधे भी फल-फूल रहे थे. चीनी मिलों और किसानों के बीच गन्ना विकास समितियां (केन यूनियन) किसानों के भुगतान से लेकर खाद, ऋण, सिंचाई के साधनों, कीटनाशकों के साथ-साथ सड़क, पुल, पुलिया, स्कूल और औषधालय तक की व्यवस्था करती थीं. गन्ने की राजनीति करके नेता तो कई बन गए लेकिन उन्हीं नेताओं ने गन्ना किसानों को बर्बाद भी कर दिया. नतीजतन गन्ना क्षेत्र से लोगों का भयंकर पलायन शुरू हुआ और उन्हें महाराष्ट्र और पंजाब में अपमानित होते हुए भी पेट भरने के लिए मजदूरी के लिए रुकना पड़ा. उत्तर प्रदेश में 125 चीनी मिलें थीं, जिनमें 63 मिलें केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश में थीं. इनमें से अधिकतर चीनी मिलें बेच डाली गई और कुछ को छोड़ कर सभी मिलें बंद हो गईं. सरकार ने चीनी मिलें बेच कर पूंजीपतियों को और खुद को फायदा पहुंचाया. चीनी मिलों के परिसर की जमीनें पूंजी-घरानों को कौड़ियों के भाव बेच डाली गईं, जिस पर अब महंगी कॉलोनियां बन रही हैं. जबकि चीनी मिलों को किसानों ने गन्ना समितियों के जरिए अपनी ही जमीनें लीज़ पर दी थीं. लेकिन उन किसानों के मालिकाना हक की चिंता किए बगैर अवैध तरीके से उन जमीनों को भी मिलों के साथ ही बेच डाला गया. 1989 के बाद से प्रदेश में नकदी फसल का कोई विकल्प नहीं खड़ा किया गया. गन्ना ही किसानों का अस्तित्व बचाने की एकमात्र नकदी फसल थी. चीनी मिलों के खेल में केवल समाजवादी पार्टी ही शामिल नहीं, अन्य दल भी जब सत्ता में आए तो खूब हाथ धोया. भाजपा की सरकार ने हरिशंकर तिवारी की कम्पनी 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' को चार मिलें बेची थीं. उस समय कल्याण सिंह यूपी के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, उनकी सरकार में हरिशंकर तिवारी मंत्री थे. 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' ने चीनी मिलों की मशीनें और सारे उपकरण बेच डाले. फिर समाजवादी पार्टी की सरकार आई तो उसने प्रदेश की 23 चीनी मिलें अनिल अम्बानी को बेचने का प्रस्ताव रख दिया. लेकिन तब अम्बानी पर चीनी मिलें चलाने के लिए दबाव था. सपा सरकार ने उन चीनी मिलों को 25-25 करोड़ रुपए देकर चलवाया भी, लेकिन मात्र 15 दिन चल कर वे फिर से बंद हो गईं. तब तक चुनाव आ गया और फिर बसपा की सरकार आ गई. मुख्यमंत्री बनी मायावती ने सपा कार्यकाल के उसी प्रस्ताव को आगे बढ़ाया और चीनी मिलों को औने-पौने दाम में बेचना शुरू कर दिया. मायावती ने पौंटी चड्ढा की कम्पनी और उसके गुट की कंपनियों को 21 चीनी मिलें बेच डालीं. देवरिया की भटनी चीनी मिल महज पौने पांच करोड़ में बेच दी गई. जबकि वह 172 करोड़ की थी. इसके अलावा देवरिया चीनी मिल 13 करोड़ में और बैतालपुर चीनी मिल 13.16 करोड़ में बेच डाली गई. अब उन्हीं मिलों की बेशकीमती जमीनों को प्लॉटिंग कर महंगी कॉलोनी के रूप में विकसित किया जा रहा है. बरेली चीनी मिल 14 करोड़ में बेची गई, बाराबंकी चीनी मिल 12.51 करोड़ में, शाहगंज चीनी मिल 9.75 करोड़ में, हरदोई चीनी मिल 8.20 करोड़ में, रामकोला चीनी मिल 4.55 करोड़ में, घुघली चीनी मिल 3.71 करोड़ में, छितौनी चीनी मिल 3.60 करोड़ में और लक्ष्मीगंज चीनी मिल महज 3.40 करोड़ रुपए में बेच डाली गई. ये तो बंद मिलों का ब्यौरा है. जो मिलें चालू हालत में थीं उन्हें भी ऐसे ही कौड़ियों के मोल बेचा गया. अमरोहा चीनी मिल महज 17 करोड़ में बेच डाली गई. सहारनपुर चीनी मिल 35.85 करोड़ में और सिसवां बाजार चीनी मिल 34.38 करोड़ में बिक गई. बुलंदशहर चीनी मिल 29 करोड़ में, जरवल रोड चीनी मिल 26.95 करोड़ में और खड्डा चीनी मिल महज 22.65 करोड़ में बेच डाली गई.
पूर्वांचल के जुझारू किसान नेता शिवाजी राय कहते हैं कि पहले यह व्यवस्था थी कि यूपी के किसान गन्ना की फसलें गन्ना समितियों को बेचते थे और गन्ना समितियां उसे चीनी मिलों को बेचती थीं. किसानों को पैसे भी समितियों के जरिए ही मिलते थे. सारा कुछ बहुत ही सीधी रेखा पर चल रहा था. लेकिन भाजपा सरकार ने इस प्रक्रिया को ऐसा घुमाया कि उसे नष्ट ही कर दिया. गन्ना किसानों के खाते में सीधे पैसे डालने की व्यवस्था लागू कर तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने केन यूनियनों को पंगु करने की शुरुआत की थी. उसके बाद न तो किसानों के खाते में पैसे पहुंचे और न केन यूनियनें ही फिर से ताकतवर हो पाईं.