Wednesday 18 December 2013

सपूत की शहादत पर चुप्पी... दूत की हरकत पर शोर!

प्रभात रंजन दीन
न्यूयॉर्क में तैनात भारत की उप महावाणिज्य दूत देवयानी खोबरागड़े के साथ न्यूयॉर्क की पुलिस ने बदसलूकी की और एक कूटनयिक के साथ बेजा आचरण करके जेनेवा कन्वेंशन के मान्य सिद्धांतों की जो धज्जियां उड़ाईं, वह घोर निंदनीय है। निंदा से भी कहीं ज्यादा आलोच्य है। इसका प्रतिकार होना ही चाहिए। लेकिन भारतीय विदेश सेवा की वरिष्ठ अधिकारी देवयानी के साथ हुए दुव्र्यवहार पर जिस तरह भारत सरकार, सारे विपक्षी दल और सारे नौकरशाह एकजुट हो गए, क्या यही एकजुटता उस दिन अपेक्षित नहीं थी जिस दिन पाकिस्तान ने भारत में घुस कर भारतीय सैनिकों का सिर कलम किया था, जिस दिन पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सीमा के पांच किलोमीटर अंदर तक घुस कर भारतीय सैनिकों को गोली मारी थी, जिस दिन चीनी सेना ने भारत में घुस कर पांच भारतीयों को बंधक बना लिया था! क्या भारत की सरकार, भारत का विपक्ष और भारत का नौकरशाह वर्ग-भेदी नहीं? विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों देश का सैनिक मरता रहे, विदेशी अतिक्रमणकारियों के हाथों देश के लोग बंधक बनते रहें, देश के लोग विदेशों में अपमानित होते रहें, उससे भारत की सरकार या भारत के विपक्ष और भारत की नौकरशाही पर कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि सरकार, विपक्ष या नौकरशाही देश के सामान्य नागरिकों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। वह केवल खास लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। खास लोगों के लिए चिंतित रहती है। खास लोगों के अपमान पर वह चिंहुकती है और खिसिया कर खम्भे नोचती है। जिस दिन भारत के सैनिकों के सिर काटे गए, जिस दिन भारतीय सैनिकों को गोलियां मारी गईं, जिस दिन भारतीय नागरिकों को बंधक बना कर विदेश की धरती पर ले जाया गया, उस दिन कम से कम खम्भा ही नोचते तो देश के लोगों को सुकून तो मिलता! लेकिन केवल बात-बहादुरी हुई और सब मस्त हो गए। भारतीय विदेश सेवा की अधिकारी देवयानी खोबरागड़े के साथ जो कुछ भी अमेरिका की धरती पर हुआ, वह भारत की सरकार, भारत के विपक्ष और भारत की नौकरशाही के उसी किन्नरत्व का प्रतिफल है, जो आजादी के बाद से लगातार अभिव्यक्त होता रहा है। यह तो अमेरिका है जिसे विश्व ने सर्वशक्तिमान मान लिया है। अब तो श्रीलंका जैसा देश तक भारत को घुड़की देता है और भारत की सरकार, भारत का विपक्ष और भारत की नौकरशाही झेंपती तक नहीं। आपको तो याद ही होगा कि बांग्लादेश जैसे भुनगे देश की बांग्लादेश राइफल्स ने भारतीय सीमा सुरक्षा बल के कई जवानों को मारा था। बीएसएफ जवानों की लाशें जानवरों की तरह बांस पर लटका कर नुमाइश की गई थीं और भारत के शौर्य और स्वाभिमान की धुर्रियां बिखेर कर रख दी गई थी। उस समय भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे, उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज में आंखें झपकाते हुए कहा था, 'हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे।' अब आप ध्यान दें तो आपको यही वक्तव्य अलग-अलग समय में अलग-अलग नेताओं के मुंह से सुनाई देगा। भारतीय सैनिकों के सिर काटे जाने की घटना पर मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी चिर-परिचित घिघियाई आवाज में कहा था, 'हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे।' पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सीमा में घुस कर जब भारतीय सैनिकों को गोलियों से भून डाला था, तब भी प्रधानमंत्री ने कहा था, 'हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे।' चीनी सेना की हरकतों पर भी मनमोहन ने यही दोहराया था। सारे मंत्री यही दोहराते हैं। सब लोग इसी संवाद के साथ हुआं-हुआं करते हैं और बर्दाश्त करते रहते हैं, क्योंकि मरने वाला या अपमानित होने वाला औकातहीन वर्ग का व्यक्ति रहता है। भारत का वही औकातहीन सामान्य नागरिक अमेरिका में भारतीय कूटनयिक देवयानी खोबरागड़े के साथ हुए सलूक से दुखी है, नाराज है, चिंतित है और आशंकित है। आम भारतीयों की चिंता यह है कि भारत का कूटनयिक जब इस तरह सड़कछाप तौर तरीके से अपमानित होगा तो आम भारतीयों का विदेशों में क्या होगा! हमारे बच्चे जो विदेशों में अर्से से बंधक बने हैं, उन्हें कौन छुड़ाएगा? मर्चेंट नेवी में या विदेशों में अन्यत्र वे नौकरी करने जाते हैं और विदेशी मुद्रा कमा कर लाते हैं, तो उसकी जिम्मेदारी सरकार नहीं लेगी तो कौन लेगा? कूटनयिकों की हिफाजत के लिए जेनेवा कन्वेंशन और जाने कितने कितने अंतरराष्ट्रीय कानून की बंदिशें हैं, लेकिन विदेश आने-जाने वाले आम नौकरीपेशा लोगों की हिफाजत के लिए क्या है? एक सामान्य नागरिक तो यही जानता है कि अमेरिका में भारतीय कूटनयिक के साथ अपमानजनक घटना हुई। उसे अंतरकथा से उतना लेना-देना नहीं। लेकिन भारत की सरकार तो सब जानती है! दरअसल, भारत में सरकार तो नौकरशाह चलाते हैं। नेता केवल मुगालते में रहते हैं। सत्ता-शक्ति-दंभ में जीने वाले नौकरशाह कानून को जेब में रखते हैं। देश हो या विदेश, उन्हें मिलने वाली सुविधाओं को वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं और दूसरों को वे उन्हीं अधिकारों से वंचित करते रहते हैं। नौकरानी को अमेरिका ले जाने के लिए वीज़ा में फर्जीवाड़ा किया गया और नौकरानी को न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत वेतन नहीं दिया गया। यह भारत में चलता है। आईएएस आईपीएस अफसर इसे भारत में चलाता है। लेकिन आईएफएस अफसर उसे विदेश में भी चलाता है। और जब पकड़ा जाता है तो वह देवयानी, नीना मल्होत्रा या प्रभु दयाल बन जाता है। 2011 में न्यूयॉर्क के ही महावाणिज्य दूत प्रभु दयाल और 2012 में दूतावास की प्रेस एंड कल्चरल काउंसलर नीना मल्होत्रा न्यूनतम मजदूरी कानून का उल्लंघन कर नौकर को कम पैसे देने के मामले में फंस चुकी हैं। फिर भी नौकरशाहों की कोई आचार संहिता तय नहीं होती। न सरकार की कोई आचार संहिता और न नौकरशाही का कोई आचार-विचार-आदर्श। देवयानी तो इनमें और अव्वल निकलीं। उन्होंने न केवल नौकरानी की न्यूनतम मजदूरी में कटौती की बल्कि उसे अमेरिका ले जाने के लिए वीज़ा की औपचारिकताएं निभाने में भी गलत रास्ता अपनाया था। ...तो नैतिकता के तकाजे पर भारत की सरकार कहां खड़ी होती है? उसका खम्भा नोचने वाला गुस्सा महज खिसियानी बिल्ली की तरह का है कि नहीं? क्या जेनेवा कन्वेंशन का करार वीज़ा प्रक्रिया में फर्जीवाड़े के अपराध से कूटनयिक को बच कर निकल भागने का मौका देता है? भारत की सरकार की प्राथमिकता ऐसे ही नाजुक समय में पारिभाषित और परिलक्षित होती है। किन मसलों पर वह 'रिएक्ट' करती है और किन मसलों पर कन्नी काट लेती है। वीज़ा प्रक्रिया में फर्जीवाड़ा करने और न्यूनतम मजदूरी कानून का उल्लंघन करने में किसी कूटनयिक के पकड़े जाने पर भारत की सरकार 'रिएक्ट' करती है और देश की हिफाजत कर रहे सैनिकों को अपमानित कर उनका सिर काट ले जाने की हरकत पर भारत की सरकार कन्नी काट लेती है। इन्हीं प्राथमिकताओं के विरोधाभास में हम जीने के आदी हो चुके हैं। हम अपना कान नहीं टटोलते, कौव्वे के पीछे भागते रहते हैं। आज भी यही कर रहे हैं...

Tuesday 17 December 2013

केजरीवाल जी! यह तीन घंटे की फिल्म नहीं पांच साल की हकीकत है...

प्रभात रंजन दीन
आम आदमी नाम की पार्टी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीतीं तो इस पार्टी के नेताओं को लगा 'जुग जीत लिया।' उसके बाद के घटनाक्रम पर आप गौर करें। टीवी चैनलों के सारे पतंगबाज 'आप' की पतंग ले उड़े। किसी ने इतिहास रच दिया तो किसी ने दिल्ली का समाजशास्त्र बदलना शुरू कर दिया तो किसी ने देश का राजनीतिशास्त्र ही 'आप' के नाम कर देने की ठेकेदारी सम्भाल ली। खैर, ये तो टीवी चैनेलों की बात है। जैसे हल्के-फुल्के लोग होंगे, वैसी ही हल्की-फुल्की बातें होंगी, पर उसे पेश करने का भाव बड़ा विद्वत होगा। 'आप' के सारे प्रतिनिधि दूत भी उसी 'चैनेलियाई अंदाज' में वाद-विवाद में मुब्तिला दिख रहे थे। चाहे कुमार विश्वास हों या संजय सिंह या कोई और... किसी भी नेता की बातों में कोई गाम्भीर्य नहीं, कोई दूरदृष्टि नहीं, कोई राजनीतिक समझ नहीं। 'आप' के सारे नेताओं के विचार बॉलीवुड की फूहड़ फिल्मों के घटिया डायलॉग की तरह बाहर आ रहे थे। ये विचार कम, बौद्धिक उच्छिष्ट ज्यादा लग रहे थे। जैसे किसी फिल्म का नायक चुनाव जीत जाता है और एक ही दिन में पूरी दुनिया बदल डालने के 'ठोको ताली' के अंदाज में कादरखानी डायलॉग बोलता है, व्यवस्था बदलने के लिए राशन की दुकान पर धावा बोल देता है या बिजली की लाइन कटवाने लगता है। नायक की व्यवस्था की समझ राशन दुकान और बिजली की लाइन की धुरि पर ही नाचती रहती है, पब्लिक तालियां पीटती हुई घर वापस आ जाती है और तीन घंटे के लिए पूरी व्यवस्था बदल जाती है। सिनेमा हॉल के अंदर की फंतासी का भाव कुमार विश्वास के चेहरे पर पूरे विश्वास से दिखता है और उनके राजनीतिक आत्मविश्वास के खोखलेपन की सनद देता है। अन्ना के अनशन के दौरान रालेगण सिद्धि में 'आप' के दूत गोपाल राय ने जिस तरह की हरकत दिखाई, वह दूत की कम दैत्य की अधिक लग रही थी। लोकतांत्रिक मर्यादा और उसके तौर-तरीके सीखने के लिए कोई अलग से ट्रेनिंग अकादमी तो होती नहीं। होती तो 'आप' के नेताओं को चुनाव लडऩे के पहले ट्रेनिंग की सलाह नहीं, बल्कि उन पर दबाव दिया जाता। क्योंकि वे सलाह के नहीं, दबाव के ही पात्र हैं। मानवीय कह लें या बौद्धिक कह लें या सामाजिक, यह एक संस्कार होता है कि कोई भाषण दे रहे व्यक्ति को बीच में नहीं रोकता, उनकी पूरी बात सुनने के बाद उनसे अनुमति मांग कर अपने सवाल रखता है या अपने बोलने का समय आने पर असहमति के बिंदुओं पर राय रखता है। लेकिन गोपाल राय को ऐसी 'राय' गवारा नहीं। उन्होंने तो 'आप' की भद्द ही पिटवा दी। 'आप' के दूतों के आचरण देख कर एक सज्जन ने पुराना एक जुमला दोहराया, लेकिन नए अंदाज में। ...'आधा खाके खूब सुनाए, राग भैरवी दिन में गाए, अधजल गगरी छलकत जाए'... 'आप' के नेताओं के व्यवहार का सारा 'फ्लैश-बैक' आधी गगरी के यत्र-तत्र-सर्वत्र छिड़काव वाला ही दिखेगा आपको। ...धैर्य नहीं इक पल भी रखना, क्या है मीठा क्या है खारा नहीं आ रहा इसे परखना, सुने नहीं वो बात बड़ों की आंके बस औकात बड़ों की, सीख नहीं लेना जब भाता मन में दम्भ तभी भर जाता... कविता की ये कुछ पंक्तियां पढ़ें तो इन पंक्तियों पर 'आप' के स्वनामधन्य नेता पंक्तिबद्ध खड़े दिखेंगे। धर्मेंद्र कोली की बेजा हरकतें इस पंक्तिबद्धता पर मेडल की तरह हैं। ऐसे बेजा लोगों की चर्चा से भी परहेज करना चाहिए। अरविंद केजरीवाल जी से यह आग्रह या अपील करने का अधिकार तो बनता ही है कि कृपया अपने दूतों को लोकतांत्रिक मूल्यों और नैतिकता के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करें और आप भी उस तरफ प्रेरित हों... बड़ी पुरानी लोकोक्ति है, 'हबकि न बोलिबा, ढबकि न चलिबा, धीरे धरिबा पांव / गरब न करिबा, सहजै रहिबा, तबहि बचिबा गांव... अगर 'गांव' बचाना है केजरीवाल जी, तो इस लाइन को अपनी पार्टी का सूत्र वाक्य बना लें। अन्ना के कंधे पर ही सवार होकर आप जनता की पसंद बने। बुजुर्गों के सम्मान के संस्कार से विमुख होंगे तो दिल्ली के ही अगले चुनाव में आपको इसकी सीख मिल जाएगी। अरविंद केजरीवाल के सिपहसालारों में राजनीतिक परिपक्वता और गम्भीरता होती तो दिल्ली की लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर राष्ट्रपति शासन का ग्रहण नहीं लगता। केजरीवाल को सही राजनीतिक सलाह मिलती तो वे कांग्रेस की मदद से सरकार बनाते। जनहित के फैसले लेते। कैबिनेट से मुहर लगवाते। विधानसभा में रखते। बहुमत के अभाव में फैसले पारित नहीं होते और बस आपको मौका मिल जाता, विपक्ष की जनविरोधिता को आधार बना कर मुख्यमंत्री होते हुए आप विधानसभा भंग करने की सिफारिश करते और तब फिर से जनता के पास चले जाते। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया का तकाजा भी पूरा हो जाता और 'आप' केवल दिल्ली ही नहीं देश के दिल में भी जगह बना लेती। लेकिन केजरीवाल जी! आप यह मौका चूक गए तो पता नहीं ऐसा अवसर फिर मिले न मिले...

Sunday 8 December 2013

गन्ना जल रहा है, खेतिहर मर रहा है


प्रभात रंजन दीन
चीनी मिल मालिकों के हित सर्वोपरि हैं। गन्ना किसानों की जिंदगी के कोई मायने नहीं। किसान मरता है तो सरकार कहती है कि घरेलू कलह से मर गया। जबकि पूरा देश नेताओं के कलह और तिकड़म से आक्रांत है। किसानों की जो उपेक्षा करेगा उसे प्रकृति अभिशाप देगी। फिर वह देखेगा कि देश को लूट कर, लोगों को धोखा देकर और किसानों की लाशों पर कमाया हुआ धन उसकी कितनी हिफाजत कर पाता है। उत्तर प्रदेश में किसानों की स्थिति भयावह है। गन्ना किसानों को मरने के लिए विवश कर रही है पूंजी-सरकार और सियासी-सरकार।
किसानों को तबाह कर उनकी जमीनें 'कारपोरेट फार्मिंग के लिए बड़े औद्योगिक घरानों को देने की साजिशें चल रही हैं। इसीलिए 'माल किसी और का, दाम किसी और का' के गैर-कानूनी, गैर-नैतिक और गैर-नैसर्गिक तौर-तरीके से किसानों को मारा जा रहा है। फसलें तैयार करने में लागत चाहे जो आए, उसकी कीमत सरकार तय करेगी पर उसकी डोर किसी और के हाथों से संचालित होगी। गेहूं, धान और गन्ना ही नहीं सब्जियों तक के दाम में किसानों की मौत सुनिश्चित की जा रही है। अभी हम गन्ने की बात करें। गन्ना मौजू है। गन्ने का बकाया करोड़ों रुपए का है। किसान कर्ज और ब्याज के बोझ से दबा आत्महत्याएं कर रहा है, लेकिन इन आत्महत्याओं के लिए दोषी कौन है? इस पर उत्तर प्रदेश सरकार मौन है। किसी भी सत्ता के लिए कितनी लानत की बात है कि दिसम्बर महीने तक खेतों में गन्ने की फसलें खड़ी हैं और बरबाद हो रही फसलें देख कर किसान आत्महत्या कर ले रहा है! किसानों के हित की सरकार होती तो अब तक चीनी मिल मालिकों को गिरफ्तार कर अंदर कर दिया होता। कारपोरेट हित के लिए अंदर ही अंदर सारे खेल चलते रहे, आपसी समझ-बूझ बनती रही, समझौते होते रहे, डील होती रही। और बाहर लोकतंत्र सड़क पर जूझता रहा और फंदे लगा कर झूलता रहा।चीनी मिलों के मालिक गन्ना किसानों का इस साल का भी 25 सौ करोड़ रुपए का बकाया हड़पना चाहते हैं। इसीलिए आपने देखा होगा कि इधर गन्ना किसानों का आंदोलन गरमाया तो मिल मालिकों ने अपना एक 'सिंडिकेट' बना लिया। इसे बोलचाल की भाषा में 'गिरोह' भी कह सकते हैं। इनकी शातिराना तैयारी देखिए कि प्रत्येक पेराई सत्र में चीनी मिलों की तरफ से राज्य सरकार के पास जो 'इन्डेंट' भेजा जाता है, वह इस बार भेजा ही नहीं गया। किस चीनी मिल को कितना गन्ना चाहिए उसका आकलन सरकार के पास आने के बाद ही गन्ना क्षेत्र का रिजर्वेशन निर्धारित किया जाता है। तो चीनी मिलों ने 'इन्डेंट' भेजा ही नहीं। सरकार ने पूछा भी नहीं कि 'इन्डेंट' क्यों नहीं भेजा। ...और बिना 'इन्डेंट' मिले ही सरकार ने चीनी मिलों को गन्ना क्षेत्रों का आवंटन भी कर डाला। जरूरत का पता ही नहीं आपूर्ति की पूरी व्यवस्था हो गई। यह पूंजी-शक्ति की महिमा है।सरकार ने किसानों और चीनी मिल मालिकों की कड़ी के बतौर काम करने वाली गन्ना समितियों को पहले रास्ते से हटाया। ये समितियां ही मिल मालिकों और सरकार को चैन नहीं लेने दे रही थीं। अभी सरकार ने फैसला किया है कि गन्ना समितियों को साढ़े छह रुपए प्रति क्विंटल की दर से मिलने वाला अंश सरकार देगी। पहले यह कमीशन चीनी मिल मालिकों की तरफ से दिया जाता था। नए फैसले के बाद अब समितियों को यह पैसा न सरकार से मिलने वाला है और न चीनी मिलों से। क्योंकि गन्ना खरीद कानून में इसका कोई प्रावधान ही नहीं है। गन्ना समितियों का प्रभाव खत्म। अब किसान अपने बकाए के भुगतान के लिए चीनी मिल मालिकों से सीधे बात करे। बीच में अब गन्ना समिति नहीं होगी। जब किसानों के लिए लडऩे वाली ताकतवर समितियों को भुगतान लेने में पसीने छूटते रहे तो अब अकेले पड़े किसान क्या कर पाएंगे, इस बारे में कल्पना कर लें। इस तरह सरकार और चीनी मिल मालिकों ने मिल कर किसानों और मिलों के बीच दलालों और माफियाओं की व्यवस्था का रास्ता बना दिया। गेहूं और धान की खरीद में बिचौलिए, तो गन्ना खरीद में क्यों नहीं! अब गन्ना खरीद में भी दलाली और तौल में भी माफियागीरी। चीनी मिल मालिक उधर से भी खुश और इधर से भी प्रसन्न। 889 करोड़ का पैकेज भी मिल गया। क्रय कर भी माफ हो गया। तौल कर साफ हो गया। चीनी का टैक्स खत्म और गन्ना समितियों के कमीशन का सिरदर्द भी समाप्त। अब किसानों की तबाही का सरकारी फार्मूला देखिए... गन्ने की कीमत 280 रुपए प्रति क्विंटल तय। लेकिन शर्त है कि 'ए' ग्रेड का गन्ना हो। इसे चीनी मिल प्रबंधन ही तय करेगा। लिहाजा किसानों की अधिकांश फसलों का'बी' और 'सी' ग्रेड घोषित होना निश्चित मानिए। 'बी' ग्रेड का मूल्य है 275 रुपए प्रति क्विंटल। लेकिन इसमें से 20 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से काट लिया जाएगा। मिल मालिकों का कहना है कि पेराई सत्र खत्म होने के बाद इसका भुगतान होगा। नौ रुपए प्रति क्विंटल की दर से गन्ना ढुलाई के लिए काट लिया जाएगा। यानी किसानों के हाथ तक पहुंचेगा महज 246 रुपया। इसी 246 रुपए में उसकी लागत, उसका कर्जा, उसका भोजन और उसका खर्चा सब चलेगा। सरकार के फार्म हाउसों की रिपोर्ट कहती है कि एक क्विंटल गन्ना पैदा करने की लागत न्यूनतम 280 रुपए होती है। तो किसानों को क्या मिला? तो किसानों को सरकार ने क्या दिया और चीनी मिल मालिकों ने क्या दिया? जवाब है... आत्महत्या का रास्ता या खेत छोड़ कर पंजाब और महाराष्ट्र या गुजरात भाग कर मजदूरी कर पेट पालने की विवशता। इसके बाद खेतों को कारपोरेट फार्मिंग में बदलने में आसानी होगी। ये स्पेशल इकोनॉमिक जोन (एसईजेड), स्पेशल डेवलपमेंट जोन (एसडीजेड) और कारपोरेट फार्मिंग वगैरह आम लोगों के कितने हित और खास लोगों के कितने हित के हैं, इसे समझने के लिए कोई अतिरिक्त बुद्धि की जरूरत थोड़े ही है।किसानों को राजनीतिक दलों ने बड़े शातिराना तरीके से मारा है। थोड़ा पृष्ठभूमि में झांकते चलें। कभी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान खुशहाल थे। गन्ने की फसल और चीनी मिलों से प्रदेश के गन्ना बेल्ट में कई अन्य उद्योग धंधे भी फल-फूल रहे थे। चीनी मिलों और किसानों के बीच गन्ना विकास समितियां (केन यूनियन) किसानों के भुगतान से लेकर खाद, ऋण, सिंचाई के साधनों, कीटनाशकों के साथ-साथ सड़क, पुल, पुलिया, स्कूल और औषधालय तक की व्यवस्था करती थीं। गन्ने की राजनीति करके नेता तो कई बन गए लेकिन उन्हीं नेताओं ने गन्ना किसानों को बर्बाद भी कर दिया। नतीजतन गन्ना क्षेत्र से लोगों का भयंकर पलायन शुरू हुआ और उन्हें महाराष्ट्र और पंजाब में अपमानित होते हुए भी पेट भरने के लिए रुकना पड़ा। उत्तर प्रदेश में 125 चीनी मिलें थीं, जिनमें 63 मिलें केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश में थीं। इनमें से अधिकतर चीनी मिलें बेच डाली गई और कुछ को छोड़ कर सभी मिलें बंद हो गईं। सरकार ने चीनी मिलें बेच कर भी पूंजीपतियों को ही फायदा पहुंचाया। चीनी मिलों के परिसर की जमीनें पूंजी-घरानों को कौडिय़ों के भाव बेच डाली गईं, जिस पर अब महंगी कॉलोनियां बन रही हैं। चीनी मिलों को किसानों ने गन्ना समितियों के जरिए अपनी जमीनें लीज़ पर दी थीं। लेकिन उन किसानों के मालिकाना हक की चिंता किए बगैर अवैध तरीके से उन जमीनों को बेच डाला गया। 1989 के बाद से प्रदेश में नकदी फसल का कोई विकल्प नहीं खड़ा किया गया। गन्ना ही किसानों का अस्तित्व बचाने की एकमात्र नकदी फसल थी। चीनी मिलों के खेल में केवल समाजवादी पार्टी ही शामिल नहीं, अन्य दल भी जब सत्ता में आए तो खूब हाथ धोया। भाजपा की सरकार ने हरिशंकर तिवारी की कम्पनी 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' को चार मिलें बेची थीं। 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' ने इन्हें चलाने के बजाए मशीनों को कबाड़ में बेच कर ढांचा सरकार के सुपुर्द कर दिया। फिर समाजवादी पार्टी की सरकार ने प्रदेश की 23 चीनी मिलें अनिल अम्बानी को बेचने का प्रस्ताव रखा। लेकिन तब अम्बानी पर चीनी मिलें चलाने के लिए दबाव था। सपा सरकार ने उन चीनी मिलों को 25-25 करोड़ रुपए देकर उन्हें चलवाया भी, लेकिन मात्र 15 दिन चल कर वे फिर से बंद हो गईं। तब तक चुनाव आ गया और फिर बसपा की सरकार आ गई। मुख्यमंत्री बनी मायावती ने सपा कार्यकाल के उसी प्रस्ताव को उठाया और चीनी मिलों को औने-पौने दाम में बेचना शुरू कर दिया। मायावती ने पौंटी चड्ढा की कम्पनी और आईबीएन कम्पनी के हाथों 14 चीनी मिलें बेच डालीं। देवरिया की भटनी चीनी मिल महज पौने पांच करोड़ में बेच दी गई। जबकि वह 172 करोड़ की थी। कैग ने इसका पर्दाफाश भी किया। इसके अलावा देवरिया चीनी मिल 13 करोड़ में और बैतालपुर चीनी मिल 11 करोड़ में बेच डाली गई। अब उन्हीं मिलों की जमीनों को प्लॉटिंग कर महंगी कॉलोनी के रूप में विकसित किया जा रहा है। पहले की व्यवस्था में प्रदेश के किसान गन्ना की फसलें गन्ना समितियों को बेचते थे और समितियां उसे चीनी मिलों को बेचती थी। किसानों को पैसे भी समितियों के जरिए ही मिलते थे। लेकिन किसानों के खाते में सीधे पैसे डालने की व्यवस्था लागू कर तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने केन यूनियनों को पंगु करने की शुरुआत कर दी थी। बाद की सपा और बसपा फिर सपा की सरकारों ने उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए किसानों का बंटाधार ही कर दिया। 'मरते जवान-मरते किसान' के देश में हम फिजूल ही 'जय' का नारा लगाते हैं।सुलग रहा गन्नाखेतों में गन्ना खड़ा है। खेतों में जल रहा है। चीनी मिलें चालू होने में तमाम मुश्किलें और नखरे हैं। मिलों पर किसानों का तकरीबन हजारों करोड़ रुपए बकाया हैं। बावजूद इसके चीनी मिलें सीनाजोरी पर उतारू हैं। मिल मालिक चाहते हैं गन्ने के दाम कम हों, जबकि किसान दाम में बढ़ोतरी चाहते हैं। ऐसे में नई चीनी तैयार होने की राह में बाधाएं आ रही हैं। प्याज के बाद अब अगला झटका चीनी देने वाली है।मुजफ्फरनगर के दंगों से अपना दामन तार-तार करवा चुकी प्रदेश की सपा सरकार के लिए एक और जंग का मैदान तैयार है। इस जंग के भी हाल के दंगों की तरह खेत-खलिहानों से होकर गुजरने का अंदेशा है। दरअसल, प्रदेश के खेतों में गन्ने की फसल तैयार खड़ी है और चीनी मिलों के चालू होने का अभी कोई ओर-छोर दिखाई नहीं पड़ रहा। आम तौर पर दशहरे तक प्रदेश की सभी गन्ना मिलों में पेराई का काम शुरू हो जाता है। मगर इस बार यही मुश्किल से तय हो पाया कि किस मिल को कितना गन्ना चाहिए और उसके लिए कौन से क्षेत्र के खेत आरक्षित होंगे? किसानों की मांग है कि गन्ने के दाम में इजाफा किया जाए जबकि चीनी मिलें घाटे का हवाला देकर गन्ने के दाम में चालीस रुपए प्रति क्विंटल की कमी चाहती हैं। किसानों के सामने समस्या यह भी है कि पिछले पेराई सत्र का ही लगभग 24 सौ करोड़ रुपया चीनी मिलों पर बकाया है जिसे देने का मिल संचालक नाम ही नहीं ले रहे। 1977 की स्थिति फिर से सामने है जब बड़े पैमाने पर किसानों को गन्ना जलाना पड़ा था। उत्तर प्रदेश का ताकतवर गन्ना किसान समुदाय नाराज है और इसका असर लोकसभा चुनावों पर पड़ सकता है। चीनी मिलों के मालिक अपने घाटे का दुखड़ा रोकर सरकार को पटाने की कोशिश करते रहे। लेकिन सरकार कुछ दूसरे उपकारों से पटती है, यह उन्हें थोड़ा बाद में पता चला। एक तरफ उत्तर प्रदेश सरकार है जहां किसानों को 280 रुपए प्रति क्विंटल प्राप्त करने के भी लाले पड़ रहे हैं। दूसरी तरफ हरियाणा की सरकार ने पिछले आठ साल कई बार गन्ना मूल्य बढ़ाए। हरियाणा में गन्ना किसानों का एक रुपया भी चीनी मिलों पर बकाया नहीं है। मगर उत्तर प्रदेश में हजारों करोड़ रुपए की देनदारी चीनी मिलों पर है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने कुछ चीनी मिलों के खिलाफ वसूली नोटिस भी जारी की। लेकिन यह महज दिखावा ही साबित हुआ। जिन चीनी मिलों के खिलाफ आरसी जारी की गई उनमें से कुछ मिलों पर किसानों के पांच सौ करोड़ रुपए से अधिक का बकाया है। इन मिलों में से नवाबगंज मिल का संचालन ओसवाल ग्रुप कर रहा है। जबकि मेरठ की चीनी मिल मवाना समूह की है। आरसी पाने वाली बिलारी चीनी मिल राणा ग्रुप से सम्बद्ध है। जबकि नियोली की मिल बाहुबली नेता डीपी यादव की है। गदौरा की मिल एचवी ग्रुप की है।उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में चीनी का कारोबार 30 हजार करोड़ से भी अधिक का है और यह देश के चीनी मिल व्यापार का लगभग 30 प्रतिशत है। प्रदेश की चीनी मिलों ने वर्ष 2011-12 में 18 हजार करोड़ रुपए का गन्ना खरीदा था। जबकि 2012-13 में 22 हजार 462 करोड़ रुपए के गन्ने की खरीद हुई थी। केंद्र सरकार द्वारा जून 2013 में कराए गए उपग्रही सर्वेक्षण में आठ प्रतिशत अतिरिक्त गन्ने की पैदावार हुई है। लेकिन सरकार और चीनी मिल मालिकों ने इस रिकॉर्ड उत्पादन पर सियासत और तिकड़म का मट्ठा डाल दिया। गन्ना किसानों की बदहाली को भुनाने की सियासी होड़ में बसपा नेता मायावती भी आगे आ गईं। जबकि मायावती ने ही मुख्यमंत्री रहते हुए सरकारी चीनी मिलें कौड़ियों के भाव बेच डाली थीं। भाजपा भी गन्ना किसानों के आंदोलन में शरीक हो गई है। जबकि भाजपा के ही मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने गन्ना समितियों को पंगु करने का काम किया था। किसान अपने भुगतान के लिए अपनी पर्ची लिए इधर-उधर घूम रहा है। चीनी मिल मालिक नियोजित तरीके से पेराई शुरू करने में देरी करते हैं ताकि किसान कम दाम में गन्ना देने के लिए मजबूर हो जाए।भारत दुनिया का सबसे बड़ा चीनी उपभोक्ता देश है। जब-जब भारत ने अंतरराष्ट्रीय बाजार से चीनी खरीदने का ऐलान किया है, तब-तब चीनी की वैश्विक कीमतों में इजाफा हुआ है। चीनी उद्योग पर उत्तर प्रदेश के चालीस लाख किसानों की रोजी-रोटी टिकी हुई है। दंगे की मार से निकले किसान अब गन्ने के मसले पर आर-पार के मूड में हैं। गन्ने की लड़ाई महज खेतों तक सीमित नहीं रहने वाली है... सियासत का हद से ज्यादा हस्तक्षेप किस तरह एक संगठित उद्योग को तबाही के कगार पर ला खड़ा करता है, गन्ना उद्योग इसकी मिसाल है।बीते पेराई सत्र में गन्ने की फसल के लिए केंद्र सरकार के 170 रुपए प्रति क्विंटल एफआरपी के मुकाबले उत्तर प्रदेश सरकार ने 280 रुपए प्रति क्विंटल एसएपी घोषित किया था। मौजूदा साल के लिए भी उत्तर प्रदेश सरकार ने गन्ने का एसएपी 280 रुपए प्रति क्विंटल घोषित किया है। प्रदेश की चीनी मिलें बीते पेराई सत्र का 2,400 करोड़ रुपए किसानों को अब तक नहीं चुका पाई हैं। अगर यूपी की सीमा से बाहर की बात करें तो पूरे देश की चीनी मिलों पर किसानों का 3,400 करोड़ रुपए बकाया हैं। किसानों की मेहनत का पैसा मिलों के पास बकाया पड़ा है, लिहाजा फसल बोते वक्त लिए गए कर्ज की मार से किसान दबते जा रहे हैं। दिक्कत यहीं आकर खड़ी होती है। यूपी सरकार गन्ना किसानों के भले का दावा तो करती है, मगर यह कारगर नहीं होता। आजादी के बाद गठित गाडगिल समिति से लेकर हाल की रंगराजन समिति तक चीनी उद्योग पर आई कई रपटें धूल फांक रही हैं, क्योंकि कोई सरकार उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा और गुजरात जैसे अहम राज्यों में फैले गन्ना किसानों की चाबी खोने को तैयार नहीं है। देश के दो बड़े राज्यों (उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र) में गन्ना सियासत की अहम धुरी बना हुआ है और इसकी बड़ी कीमत किसान, कृषि क्षेत्र और उपभोक्ता चुका रहे हैं।

Wednesday 4 December 2013

धारा 370 के बदनुमा जख्म से बह रहा मवाद...


संविधान से ही हो रहा है देश का नुकसान!
प्रभात रंजन दीन
राष्ट्र से जुड़े मसलों पर अगर भाजपा ने चरित्र बदला है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि भारतीय राजनीति में वोट पाने के लिए नैतिकता और राष्ट्रधर्मिता जरूरी थोड़े ही है! लेकिन अभी निर्णायक रूप से यह कहना मुश्किल है कि भाजपा संविधान के अनुच्छेद 370 को जम्मू कश्मीर से हटाने के अपने पुराने 'स्टैंड' से खिसक गई है या उसने इस मसले पर नई बहस को सोच-समझ कर छेड़ा है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने रविवार को जम्मू रैली में कहा कि अनुच्छेद 370 पर देशभर में बहस कराई जाए कि इस विशेष धारा से जम्मू कश्मीर राज्य को अब तक कोई फायदा हुआ है या कोई फायदा नहीं हुआ है। लोकसभा चुनाव का समय है, लिहाजा मोदी या कोई भी राजनीतिक व्यक्ति ऐसी ही गोलमोल की भाषा में बात करेगा। लेकिन चुनाव और सियासत को अलग कर अब बात साफ-साफ होनी चाहिए कि देश के किसी राज्य को विशेष अधिकार क्यों मिले? फायदा हो या नुकसान, जो हो सभी राज्यों का बराबर का हो, इसमें क्या जम्मू कश्मीर के लोगों को सुर्खाब के पर लगे हुए हैं कि उस राज्य को विशेष दर्जा मिले? या कि उस राज्य को विशेष राज्य का दर्जा इसलिए दिया गया कि वहां देश विरोधी सुर ज्यादा तान लेते थे। तो अन्य राज्यों में भी शुरू हो जाएं राष्ट विरोधी सुर? देश को तय करना होगा कि अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, जयललिता या कोई भी अन्य मुख्यमंत्री से उमर अब्दुल्ला में क्या खास है कि उसके प्रदेश को संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत विशेष राज्य का अधिकार मिले और अन्य को नहीं? धारा 370 पर मोदी ने जैसे ही कुछ कहा, उमर शुरू हो गए। तीखी प्रतिक्रिया देने लगे और यहां तक कहने लगे कि धारा 370 उनकी लाश से होकर ही हटेगी। जैसे कि यह संविधान की धारा नहीं बल्कि कोई भारी ट्रक हो जो उन्हें रौंद कर निकल जाए। कांग्रेस तो नरेंद्र मोदी के संविधान के ज्ञान की ही परीक्षा लेने लगी और खुद को परम विद्वान मानते हुए कांग्रेस के तमाम प्रवक्ता संविधान का चरम-ज्ञान बघारने लगे। कोई भी नेता मुद्दे पर बहस नहीं करता। ...और यह पाप की फसल कांग्रेस की ही बोई हुई है तो कांग्रेस के नेता इस पर बहस क्यों करें, या इसकी समीक्षा में क्यों पड़ें कि जम्मू कश्मीर को इस 'विशेषाधिकार' का क्या फायदा मिला! इसे लागू करते हुए खुद जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि धारा 370 समय के साथ धीरे-धीरे घिसकर खत्म हो जाएगी। लेकिन कांग्रेस ने इसके घिसकर अप्रासंगिक होने के बजाय इसे स्थायी घाव बना दिया और साम्प्रदायिक मवाद के रिसते रहने के लिए छोड़ दिया। आप सब जानते ही हैं कि भारतीय संविधान की धारा 370 के तहत जम्मू एवं कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त है। यह धारा भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक नैतिकता, दोनों पर गहरे सवाल की तरह चस्पा रही है, अब भी है। कश्मीर में राष्ट्र विरोधी माहौल के पसरने में इस धारा ने काफी कच्चा माल दिया है। धारा 370 कहती है कि रक्षा, विदेश और संचार मामले छोड़ कर केंद्र सरकार इस राज्य के लिए कोई भी कानून नहीं बना सकती। 1976 का शहरी भूमि कानून जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं हो सकता। संविधान की धारा 370 से विशेषाधिकार प्राप्त इस राज्य पर संविधान की ही धारा 356 लागू नहीं की जा सकती। यहां तक कि राष्ट्रपति को भी इस राज्य की सरकार को बरखास्त करने का अधिकार नहीं है। इस देश की यही विडम्बना है कि संविधान निर्माताओं ने ही संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति को पंगु बना कर रख दिया। भारतीय संविधान की धारा 360 देश में आपातकालीन स्थिति लागू करने का अधिकार देती है। लेकिन जम्मू कश्मीर राज्य पर कोई आपातकाल भी लागू नहीं कर सकता। चाहे पाकिस्तान कितनी ही बदमाशियां और अठखेलियां क्यों न करता रहे। चाहे कश्मीर में अलगाववादी तत्व कितना भी खुलेआम भारत विरोधी हरकतें करते रहें। देश के आम नागरिक के नाते हम आप वहां की राष्ट्र विरोधी हरकतों के खिलाफ वहां जाकर बोलना चाहें तो मारे जाएं... यहां तक कि हम वहां राष्ट्रीय ध्वज तक नहीं फहरा सकते। यह धारा 370 का ही कमाल है और उस पर उमर जैसे नेता बेजा टिप्पणियां जारी करने में नहीं झिझकते। उमर भारतवर्ष के नेता हैं, लेकिन उनकी बोली में भारतीयता कहीं नजर नहीं आती। नेहरू ने कश्मीर के मसले को क्यों उलझाया या उनकी अब्दुल्ला परिवार से कोई रिश्तेदारी थी, जिसे निभाने के लिए उन्होंने कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय पर महाराज हरि सिंह की रजामंदी  के बावजूद संविधान के अनुच्छेद-370 के तहत उसे विशेष दर्जा दे दिया! नेहरू ऐसे राष्ट्रभक्त और दूरद्रष्टा निकले जिन्होंने एक ही देश में दो संविधान की व्यवस्था लागू कर दी। उस नियोजित भूल को पूरा देश भुगत रहा है। इस संवैधानिक विशेषाधिकार का ही नतीजा है कि कश्मीरी पंडितों का सारा संवैधानिक अधिकार सार्वजनिक रूप से छीन लिया गया। धार्मिक उन्मादियों और अलगाववादियों ने कश्मीरी पंडितों या गैर मुस्लिमों को जिस तरह कश्मीर में मारा या वहां से खदेड़ भगाया, उससे यही लगता है कि इस साजिश में जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे, जिन्होंने इस त्रासदी का रास्ता खोला था। यह भीषण त्रासदी ही तो है कि एक तरफ सेना और सुरक्षा बलों को उसी राज्य में आतंकवादियों और पाकिस्तानियों से जूझने के लिए झोंक दिया गया और दूसरी तरफ उन्हीं के खिलाफ शेख अब्दुल्ला से लेकर फारूख अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला तक आग उगलने की सियासत करके वोट बटोरते रहे हैं! ये तीन नाम हैं। ऐसे कई नाम हैं। कोई अपनी बिटिया को अगवा कराने की प्रायोजित नौटंकी रच कर आतंकवादियों को छुड़वाता रहा तो कोई पाक परस्ती करता हुआ भारतीय सत्ता का उपभोग करता रहा। अगर जम्मू कश्मीर में धारा 370 नहीं लगी होती तो शेष भारत के नागरिक ही उसे अब तक दुरुस्त कर चुके होते। यानी, स्पष्ट है कि शेष भारत इस राज्य में हस्तक्षेप न कर पाए इसकी व्यवस्था करने की जो साजिश रची गई थी उसमें नेहरू अब्दुल्ला के साथ शरीक थे। ताकि आने वाले लम्बे समय-काल तक धार्मिक अंधत्व और राष्ट्र द्रोह का खेल भारत के कलेजे पर चलता रहे। इसी धारा की करामात है कि जम्मू कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र या किसी अन्य बाहरी हस्तक्षेप का मसला बन गया। लेकिन किसी भी 'धर्म-परायण' ने कश्मीरी पंडितों या उन लोगों का मसला नहीं उठाया जिन्हें अपने ही घरों से भगा दिया गया। या हजारों की तादाद में जिन्हें मार डाला गया। या सैकड़ों की तादाद में जिन्हें 'कश्मीर में रहना है तो मुसलमान बनना होगा' की शर्त पर जबरन धर्मांतरण कराया गया। नेहरू और उनकी नस्लों की कृपा से कश्मीर आज भी 22 अक्टूबर 1947 के उसी समय-काल की दहलीज पर खड़ा है जब हिंसक धर्मांध जमात ने जम्मू कश्मीर में रक्तपात मचाया था। अनुच्छेद 370 का ही परिणाम है कि वहां देश का नहीं बल्कि अलगाववादियों का कैलेंडर चलता है। उनकी सत्ता चलती है। उमर चाहे कितने भी मुगालते में रहें। कट्टरपंथी दबाव में अपने ही देश के एक राज्य में इस्लामी देशों की तर्ज पर रविवार का अवकाश नहीं बल्कि शुक्रवार का अवकाश आधिकारिक शक्ल में चलता है। धारा 370 का ही कमाल है कि जब जो चाहे राष्ट्र ध्वज का अपमान कर देता है। जो चाहे जब चाहे पाकिस्तान का झंडा कहीं भी फहरा देता है। सार्वजनिक चौराहों पर भारत का झंडा जला कर उसी संविधान का 'सम्मान' किया जाता है जिससे मिले अधिकारों का आपराधिक-उपभोग किया जा रहा है। संविधान के अनुच्छेद 370 का ही परिणाम है कि कश्मीर में कोई काम नहीं होता। रविवार को भी छुट्टी। शुक्रवार को भी छुट्टी। और बाकी समय खराब मौसम, हड़ताल, आतंकवाद, पुलिस पर हमले और प्रदर्शनों की छुट्टी। अपने ही देश का एक राज्य अराजकता और राष्ट्रद्रोहिता का केंद्र बन चुका है, लेकिन हम मौन हैं, क्योंकि वहां संविधान की धारा 370 लागू है। इसी संवैधानिक सहूलियत का नतीजा है कि वहां भाड़े के विदेशी आतंकी और तालिबानी अड्डा बना लेते हैं, उन्हीं कश्मीरियों की बहू-बेटियों को अपना शिकार बनाते हैं और धारा 370 के विशेषाधिकार से सुसज्जित उन्हीं कश्मीरियों से भारत विरोधी हरकतें कराते हैं।
हरिओम पवार की एक कविता है, थोड़े बहुत रद्दोबदल के साथ उसे आपके सामने रख रहा हूं। इस कविता में कश्मीर के प्रति जो भावना है, जो पीड़ा है, वह ग्रंथ लिख कर भी अभिव्यक्त नहीं की जा सकती। एक-एक पंक्तियां जैसे आज के लिए ही लिखी गई हों... मैं समझता हूं कि हम सब इन पंक्तियों और इन पंक्तियों की रचना के भाव के साथ अक्षरशः खड़े हैं...
काश्मीर जो खुद सूरज के बेटे की राजधानी था
डमरू वाले शिव शंकर की जो घाटी कल्याणी था
काश्मीर जो इस धरती का स्वर्ग बताया जाता था
जिस मिट्टी को दुनिया भर में अर्ध्य चढ़ाया जाता था
काश्मीर जो भारतमाता की आंखों का तारा था
काश्मीर जो लालबहादुर को प्राणों से प्यारा था
काश्मीर वो डूब गया है अंधी-गहरी खाई में
फूलों की खुशबू रोती है मरघट की तन्हाई में

ये अग्नीगंधा मौसम की बेला है
गंधों के घर बंदूकों का मेला है
मैं भारत की जनता का संबोधन हूं
आँसू के अधिकारों का उदबोधन हूं
मैं अविधा की परम्परा का चारण हूं
आजादी की पीड़ा का उच्चारण हूं

इसीलिए दरबारों को दर्पण दिखलाने निकला हूं |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

बस नारों में गाते रहिये ये कश्मीर हमारा है
छू कर देखो हिम चोटी के नीचे तो अंगारा है  
दिल्ली अपना चेहरा देखे धूल हटाकर दर्पण की
दरबारों की तस्वीरें भी हैं बेशर्म समर्पण की

काश्मीर है जहां तमंचे हैं केसर की क्यारी में
काश्मीर है जहां रुदन है बच्चों की किलकारी में
काश्मीर है जहां तिरंगे झंडे फाड़े जाते हैं
सैंतालिस के बंटवारे के घाव उघाड़े जाते हैं
काश्मीर है जहां हौसलों के दिल तोड़े जाते हैं
खुदगर्जी में जेलों से हत्यारे छोड़े जाते हैं

अपहरणों की रोज कहानी होती है
धरती मैया पानी-पानी होती है
झेलम की लहरें भी आंसू लगती हैं
गजलों की बहरें भी आंसू लगती हैं

मैं आंखों के पानी को अंगार बनाने निकला हूं |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

काश्मीर है जहां गर्द में चन्दा-सूरज- तारें हैं
झरनों का पानी रक्तिम है झीलों में अंगारे हैं
काश्मीर है जहाँ फिजाएं घायल दिखती रहती हैं
जहां राशिफल घाटी का संगीने लिखती रहती हैं
काश्मीर है जहां विदेशी समीकरण गहराते हैं
गैरों के झंडे भारत की धरती पर लहराते हैं

काश्मीर है जहां देश के दिल की धड़कन रोती है
संविधान की जहाँ तीन सौ सत्तर अड़चन होती है
काश्मीर है जहां दरिंदों की मनमानी चलती है
घर-घर में एके छप्पन की राम कहानी चलती है
काश्मीर है जहाँ हमारा राष्ट्रगान शर्मिंदा है
भारत मां को गाली देकर भी खलनायक जिन्दा है
काश्मीर है जहां देश का शीश झुकाया जाता है
मस्जिद में गद्दारों को खाना भिजवाया जाता है

गूंगा-बहरापन ओढ़े सिंहासन है
लूले - लंगड़े संकल्पों का शासन है
फूलों का आंगन लाशों की मंडी है
अनुशासन का पूरा दौर शिखंडी है

मै इस कोढ़ी कायरता की लाश उठाने निकला हूं |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

हम दो आंसू नहीं गिरा पाते अनहोनी घटना पर
पल दो पल चर्चा होती है बहुत बड़ी दुर्घटना पर
राजमहल को शर्म नहीं है घायल होती थाती पर
भारत मुर्दाबाद लिखा है श्रीनगर की छाती पर
मन करता है फूल चढ़ा दूं लोकतंत्र की अर्थी पर
भारत के बेटे निर्वासित हैं अपनी ही धरती पर

वे घाटी से खेल रहे हैं गैरों के बलबूते पर
जिनकी नाक टिकी रहती है पाकिस्तानी जूतों पर
काश्मीर को बंटवारे का धंधा बना रहे हैं वो
जुगनू को बैसाखी देकर चन्दा बना रहे हैं वो
फिर भी खून-सने हाथों को न्यौता है दरबारों का
जैसे सूरज की किरणों पर कर्जा हो अंधियारों का

कुर्सी भूखी है नोटों के थैलों की
कुलवंती दासी हो गई रखैलों की
घाटी आंगन हो गई ख़ूनी खेलों की
आज जरूरत है सरदार पटेलों की

मैं घाटी के आंसू का संत्रास मिटाने निकला हूं |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

जब चौराहों पर हत्यारे महिमा-मंडित होते हों
भारत मां की मर्यादा के मंदिर खंडित होते हों
देश विरोधी नारे लगते हों गुलमर्गा की गलियों में
शिमला-समझौता जलता हो बंदूकों की नलियों में

अब केवल आवश्यकता है हिम्मत की खुद्दारी की
दिल्ली केवल दो दिन की मोहलत दे दे तैय्यारी की
सेना को आदेश थमा दो घाटी ग़ैर नहीं होगी
जहां तिरंगा नहीं मिलेगा उनकी खैर नहीं होगी

जिनको भारत की धरती ना भाती हो
भारत के झंडों से बदबू आती हो
जिन लोगों ने मां का आंचल फाड़ा हो
दूध भरे सीने में चाकू गाड़ा हो

मैं उनको चौराहों पर फांसी चढ़वाने निकला हूं |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

अमरनाथ को गाली दी है भीख मिले हथियारों ने
चाँद-सितारे टांक लिये हैं खून लिपि दीवारों ने
इसीलियें नाकाम रही हैं कोशिश सभी उजालों की
क्योंकि ये सब कठपुतली हैं रावलपिंडी वालों की
अंतिम एक चुनौती दे दो सीमा पर पड़ोसी को
गीदड़ कायरता ना समझे सिंहों की ख़ामोशी को

हमको अपने खट्टे-मीठे बोल बदलना आता है
हमको अब भी दुनिया का भूगोल बदलना आता है
दुनिया के सरपंच हमारे थानेदार नहीं लगते
भारत की प्रभुसत्ता के वो ठेकेदार नहीं लगते
तीर अगर हम तनी कमानों वाले अपने छोड़ेंगे
जैसे ढाका तोड़ दिया लाहौर-कराची तोड़ेंगे

आंख मिलाओ दुनिया के दादाओं से
क्या डरना है चीन के धोखेबाजों से
क्या डरना अमरीका के आकाओं से
अपने भारत के बाजू बलवान करो
पांच नहीं सौ एटम बम निर्माण करो

मै भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने निकला हूं |

मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

Monday 2 December 2013

हम भुगत रहे हैं नेहरू के पाप का फल

प्रभात रंजन दीन
जब तक वे नेता थे तब तक तो वे भी वैसे ही थे, लेकिन जबसे राष्ट्रपति बने हैं, प्रणब मुखर्जी अपनी साहसिकता की छवि देश में स्थापित कर रहे हैं। जो काम प्रधानमंत्री को करना चाहिए, जो काम देश के रक्षा मंत्री को करना चाहिए, वह काम देश के राष्ट्रपति को करना पड़ रहा है। अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन हमें 1962 से लगातार अपमानित कर रहा है, लेकिन हमारे नेताओं ने बेशर्म होने की दवा खा रखी है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर मौजूदा मनमोहन सिंह तक। देश के स्वाभिमान की इन्हें कोई चिंता ही नहीं। नेहरू और मनमोहन दोनों में एक समानता है। दोनों ने ही मैडम के चक्कर में देशहित को ताक पर रख दिया। नेहरू ने मैडम माउंटबेटन के चक्कर में देश को डुबोया और मनमोहन मैडम सोनिया की खैरख्वाही में देश को डुबो रहे हैं। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अरुणाचल प्रदेश जाकर जब यह कहा कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न और महत्वपूर्ण हिस्सा है तो देश के लोगों के धिकते कलेजे को जैसे ठंडक मिली। चीन की हिमाकत यह रही है कि भारत के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति अरुणाचल प्रदेश जाएं तो वह आंय-बांय-शांय बोलता रहता है। भारतीय सीमा में घुस कर चीन की सेना कैसी हरकतें करती है, इस बारे में पूरा देश जानता है। ऐसे में जब प्रणब मुखर्जी ने कहा कि अरुणाचल प्रदेश को अब सुदूर क्षेत्र नहीं समझा जाना चाहिए, तो इस भाषा का संदेश चीन तक जरूर पहुंचा होगा। चीन के नेता भारतीय नेताओं की तरह बुद्धिहीन और दृष्टिहीन तो हैं नहीं कि उन्हें प्रणब की बात न समझ में आए। राष्ट्रपति ने अरुणाचल प्रदेश विधानसभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि अरुणाचल प्रदेश भारत की सम्प्रभुता से जुड़ा प्रदेश है। आपको याद ही होगा कि कुछ ही साल पहले वर्ष 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अरुणाचल यात्रा पर चीन ने तल्ख टिप्पणी की थी। प्रणब की यात्रा पर इस बार भी चीन खुद को रोक नहीं सका लेकिन थोड़ी नियंत्रित भाषा में बोला कि भारत को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे सीमा विवाद का मसला और उलझे। साफ है कि प्रणब के बयान में जो धमकी थी कि अरुणाचल को दूर न समझें, तो चीन ने भी सांकेतिक धमकी ही दी। मनमोहन अभी हाल ही में चीन की यात्रा पर गए थे लेकिन वहां जाकर भी अरुणाचल के लोगों  के लिए चीन द्वारा नत्थी वीज़ा जारी किए जाने की हरकतों पर कुछ नहीं कहा। ऐसे ही डरपोक लोग भारत की सत्ता संचालित करते हैं। ऐसे में देश के राष्ट्रपति का यह बयान एक साहसिक और सार्थक कदम है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नाकारेपन के कारण 1962 के युद्ध में चीन ने हमें पराजित किया और हमारे 90 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा जमा कर बैठ गया। इसके अलावा पाकिस्तान ने अक्सई चिन की 5180 वर्ग किलोमीटर की भारतीय भूमि चीन को 'गिफ्ट' में दे दी, जैसे यह हिस्सा पाकिस्तान की बपौती का था। फिर भी भारतवर्ष के नेताओं को शर्म नहीं आई। अब केंद्रीय सत्ता के गलियारे में यह सुगबुगाहट चल रही है कि अरुणाचल प्रदेश के चीनी कब्जे वाले हिस्से या अक्सई चिन के हिस्से में से कोई एक चीन को दे ही दिया जाए और विवाद सुलटाया जाए। विवाद हटाने का तो सबसे उत्तम तरीका है दुश्मन के सामने लेट जाइए। ...और ऐसा करने में भारतीय राजनीतिकों को विशेषज्ञता हासिल है। अगर यह सुगबुगाहट ठोस शक्ल लेती है तो भारत के लिए कितनी शर्मनाक बात होगी! विदेश मंत्रालय के कुछ अधिकारी भी कहते हैं कि अगर चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा छोड़ दे, तो भारत उसे अक्सई चिन देने के लिए तैयार है। अपने ही देश का वह हिस्सा जो चीन के कब्जे में है उसे पाने के लिए भारतवर्ष अगर जम्मू-कश्मीर के लद्दाख जैसे संवेदनशील क्षेत्र में चीन के कब्जे वाले 38 हजार वर्ग किलोमीटर (पाकिस्तान द्वारा दी गई 5180 वर्ग किलोमीटर जमीन मिला कर कुल 43180 वर्ग किलोमीटर) क्षेत्र पर अपना दावा छोड़ देने पर विचार कर रहा है... तो फिर बचेगा क्या? भारत का संवेदनशील उत्तरी सीमाई क्षेत्र चीन के कब्जे में चला गया तो वह और पाकिस्तान मिल कर हमें बुरी तरह मारेगा। इतनी भी सामान्य भौगोलिक-रणनीतिक समझ हमारे देश के नेताओं में नहीं है। अभी ही पाकिस्तान और चीन मिल कर भारत के लिए नई-नई परेशानियां खड़ी कर रहा है। उसके बाद क्या होगा? चीन की निगाह तवांग पर है। यह निगाह इसलिए है कि चीन के सत्ताधीशों में भौगोलिक-रणनीति के पेचोखम की समझदारी है। तवांग एक तरफ भूटान और दूसरी तरफ तिब्बत से जुड़ा है। यानी चीन तवांग हासिल कर भूटान को भी अपने अरदब में रखना चाहता है और किसी समय मौका देख कर भूटान को भी तिब्बत बना देना चाहता है। इतिहास के पन्ने पर एक तरफ नेहरू जैसा राष्ट्राध्यक्ष है तो दूसरी तरफ चाउ एन लाई। नेहरू माउंटबेटन के लिए देश को विभाजित करने के लिए तैयार हो जाता है तो चाउ एन लाई ब्रिटिश भारत के तत्कालीन सचिव हेनरी मैकमॉहन द्वारा निर्धारित सीमा रेखा को मानने से इन्कार कर देता है। 1914 भी एक शिमला समझौता हुआ था जिसमें तिब्बत के साथ हेनरी मैकमॉहन ने सीमांकन समझौता तय कराया था। चीन इस समझौते को खारिज करता है क्योंकि चीन ने तिब्बत को सम्प्रभु के रूप में कभी माना ही नहीं। चीन बदतमीजी से अरुणाचल प्रदेश को भी दक्षिणी तिब्बत बताता है। और भारत का नेतृत्व इस सम्बन्ध में उसी भाषा में कोई जवाब नहीं दे पाता न ही कभी सैन्य कार्रवाई के लिए कोई कदम उठाता है। चीन भारत में घुसता ही जा रहा है और भारत का नेता बेबस और नपुंसक। इतिहास के पन्नों में झांकें तो पाते हैं कि 1950 में तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद जब 1959 में विद्रोह गहराया तब भारत ने दलाई लामा को राजनीतिक शरण दी थी। इस पर चीन भड़क गया था और भारत-चीन सीमा पर हिंसक घटनाएं शुरू कर दीं। यह 1962 में बाकायदा आक्रमण के रूप में सामने आया। चीन की तैयारी और उसकी कुदृष्टि पहले से थी। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने चीन के धूर्त और झूठे नेताओं के झांसे में आकर 1954 में पंचशील समझौता कर लिया था। इस समझौते का भारत को तो कोई लाभ कभी नहीं मिला, लेकिन चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति को सफल करने में इसका पूरा लाभ उठाया। बाबा साहब अम्बेडकर, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे तमाम शीर्ष नेताओं ने नेहरू को पंचशील समझौता करने से रोका था, लेकिन वे माने नहीं। देश इन्हीं भूलों को भुगत रहा है। हालात यह है कि लोभी चीन केवल तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश ही नहीं, बल्कि सिक्किम, भूटान, नेपाल और लद्दाख तक को अपना हिस्सा बताता है। दलाई लामा की आत्मकथा 'मेरा देश निकाला' आप पढ़ें तो तिब्बत की भयानक त्रासदी आपके रोंगटे खड़े कर देगी। नेहरू की अदूरदर्शिता के कारण तिब्बत चीनी भेडिय़ों का शिकार हो गया। लेकिन फिर भी नेहरू को अपनी गलतियों का एहसास नहीं हुआ। जब दलाई लामा ने निर्वासन में तिब्बत सरकार का गठन करने की इच्छा जाहिर की थी तो नेहरू ने उन्हें डांट कर कहा था, 'हम आपकी सरकार को मान्यता नहीं दे सकते।' शांति के दूत नेहरू का यह स्वरूप था। इस अदूरदर्शी स्वरूप और समझ का खामियाजा भारत को भी भुगतना पड़ा और पंचशील समझौते को ठेंगे पर रखते हुए 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया और भारत की हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा जमा लिया। अब तो बहुत देर हो चुकी है। तिब्बत आज भी खून के आंसू रो रहा है, चीन की राक्षसी वृत्ति आज भी जारी है, नेहरू के पाप का फल हम आज भी भुगत रहे हैं...