Wednesday 4 December 2013

धारा 370 के बदनुमा जख्म से बह रहा मवाद...


संविधान से ही हो रहा है देश का नुकसान!
प्रभात रंजन दीन
राष्ट्र से जुड़े मसलों पर अगर भाजपा ने चरित्र बदला है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि भारतीय राजनीति में वोट पाने के लिए नैतिकता और राष्ट्रधर्मिता जरूरी थोड़े ही है! लेकिन अभी निर्णायक रूप से यह कहना मुश्किल है कि भाजपा संविधान के अनुच्छेद 370 को जम्मू कश्मीर से हटाने के अपने पुराने 'स्टैंड' से खिसक गई है या उसने इस मसले पर नई बहस को सोच-समझ कर छेड़ा है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने रविवार को जम्मू रैली में कहा कि अनुच्छेद 370 पर देशभर में बहस कराई जाए कि इस विशेष धारा से जम्मू कश्मीर राज्य को अब तक कोई फायदा हुआ है या कोई फायदा नहीं हुआ है। लोकसभा चुनाव का समय है, लिहाजा मोदी या कोई भी राजनीतिक व्यक्ति ऐसी ही गोलमोल की भाषा में बात करेगा। लेकिन चुनाव और सियासत को अलग कर अब बात साफ-साफ होनी चाहिए कि देश के किसी राज्य को विशेष अधिकार क्यों मिले? फायदा हो या नुकसान, जो हो सभी राज्यों का बराबर का हो, इसमें क्या जम्मू कश्मीर के लोगों को सुर्खाब के पर लगे हुए हैं कि उस राज्य को विशेष दर्जा मिले? या कि उस राज्य को विशेष राज्य का दर्जा इसलिए दिया गया कि वहां देश विरोधी सुर ज्यादा तान लेते थे। तो अन्य राज्यों में भी शुरू हो जाएं राष्ट विरोधी सुर? देश को तय करना होगा कि अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, जयललिता या कोई भी अन्य मुख्यमंत्री से उमर अब्दुल्ला में क्या खास है कि उसके प्रदेश को संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत विशेष राज्य का अधिकार मिले और अन्य को नहीं? धारा 370 पर मोदी ने जैसे ही कुछ कहा, उमर शुरू हो गए। तीखी प्रतिक्रिया देने लगे और यहां तक कहने लगे कि धारा 370 उनकी लाश से होकर ही हटेगी। जैसे कि यह संविधान की धारा नहीं बल्कि कोई भारी ट्रक हो जो उन्हें रौंद कर निकल जाए। कांग्रेस तो नरेंद्र मोदी के संविधान के ज्ञान की ही परीक्षा लेने लगी और खुद को परम विद्वान मानते हुए कांग्रेस के तमाम प्रवक्ता संविधान का चरम-ज्ञान बघारने लगे। कोई भी नेता मुद्दे पर बहस नहीं करता। ...और यह पाप की फसल कांग्रेस की ही बोई हुई है तो कांग्रेस के नेता इस पर बहस क्यों करें, या इसकी समीक्षा में क्यों पड़ें कि जम्मू कश्मीर को इस 'विशेषाधिकार' का क्या फायदा मिला! इसे लागू करते हुए खुद जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि धारा 370 समय के साथ धीरे-धीरे घिसकर खत्म हो जाएगी। लेकिन कांग्रेस ने इसके घिसकर अप्रासंगिक होने के बजाय इसे स्थायी घाव बना दिया और साम्प्रदायिक मवाद के रिसते रहने के लिए छोड़ दिया। आप सब जानते ही हैं कि भारतीय संविधान की धारा 370 के तहत जम्मू एवं कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त है। यह धारा भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक नैतिकता, दोनों पर गहरे सवाल की तरह चस्पा रही है, अब भी है। कश्मीर में राष्ट्र विरोधी माहौल के पसरने में इस धारा ने काफी कच्चा माल दिया है। धारा 370 कहती है कि रक्षा, विदेश और संचार मामले छोड़ कर केंद्र सरकार इस राज्य के लिए कोई भी कानून नहीं बना सकती। 1976 का शहरी भूमि कानून जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं हो सकता। संविधान की धारा 370 से विशेषाधिकार प्राप्त इस राज्य पर संविधान की ही धारा 356 लागू नहीं की जा सकती। यहां तक कि राष्ट्रपति को भी इस राज्य की सरकार को बरखास्त करने का अधिकार नहीं है। इस देश की यही विडम्बना है कि संविधान निर्माताओं ने ही संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति को पंगु बना कर रख दिया। भारतीय संविधान की धारा 360 देश में आपातकालीन स्थिति लागू करने का अधिकार देती है। लेकिन जम्मू कश्मीर राज्य पर कोई आपातकाल भी लागू नहीं कर सकता। चाहे पाकिस्तान कितनी ही बदमाशियां और अठखेलियां क्यों न करता रहे। चाहे कश्मीर में अलगाववादी तत्व कितना भी खुलेआम भारत विरोधी हरकतें करते रहें। देश के आम नागरिक के नाते हम आप वहां की राष्ट्र विरोधी हरकतों के खिलाफ वहां जाकर बोलना चाहें तो मारे जाएं... यहां तक कि हम वहां राष्ट्रीय ध्वज तक नहीं फहरा सकते। यह धारा 370 का ही कमाल है और उस पर उमर जैसे नेता बेजा टिप्पणियां जारी करने में नहीं झिझकते। उमर भारतवर्ष के नेता हैं, लेकिन उनकी बोली में भारतीयता कहीं नजर नहीं आती। नेहरू ने कश्मीर के मसले को क्यों उलझाया या उनकी अब्दुल्ला परिवार से कोई रिश्तेदारी थी, जिसे निभाने के लिए उन्होंने कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय पर महाराज हरि सिंह की रजामंदी  के बावजूद संविधान के अनुच्छेद-370 के तहत उसे विशेष दर्जा दे दिया! नेहरू ऐसे राष्ट्रभक्त और दूरद्रष्टा निकले जिन्होंने एक ही देश में दो संविधान की व्यवस्था लागू कर दी। उस नियोजित भूल को पूरा देश भुगत रहा है। इस संवैधानिक विशेषाधिकार का ही नतीजा है कि कश्मीरी पंडितों का सारा संवैधानिक अधिकार सार्वजनिक रूप से छीन लिया गया। धार्मिक उन्मादियों और अलगाववादियों ने कश्मीरी पंडितों या गैर मुस्लिमों को जिस तरह कश्मीर में मारा या वहां से खदेड़ भगाया, उससे यही लगता है कि इस साजिश में जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे, जिन्होंने इस त्रासदी का रास्ता खोला था। यह भीषण त्रासदी ही तो है कि एक तरफ सेना और सुरक्षा बलों को उसी राज्य में आतंकवादियों और पाकिस्तानियों से जूझने के लिए झोंक दिया गया और दूसरी तरफ उन्हीं के खिलाफ शेख अब्दुल्ला से लेकर फारूख अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला तक आग उगलने की सियासत करके वोट बटोरते रहे हैं! ये तीन नाम हैं। ऐसे कई नाम हैं। कोई अपनी बिटिया को अगवा कराने की प्रायोजित नौटंकी रच कर आतंकवादियों को छुड़वाता रहा तो कोई पाक परस्ती करता हुआ भारतीय सत्ता का उपभोग करता रहा। अगर जम्मू कश्मीर में धारा 370 नहीं लगी होती तो शेष भारत के नागरिक ही उसे अब तक दुरुस्त कर चुके होते। यानी, स्पष्ट है कि शेष भारत इस राज्य में हस्तक्षेप न कर पाए इसकी व्यवस्था करने की जो साजिश रची गई थी उसमें नेहरू अब्दुल्ला के साथ शरीक थे। ताकि आने वाले लम्बे समय-काल तक धार्मिक अंधत्व और राष्ट्र द्रोह का खेल भारत के कलेजे पर चलता रहे। इसी धारा की करामात है कि जम्मू कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र या किसी अन्य बाहरी हस्तक्षेप का मसला बन गया। लेकिन किसी भी 'धर्म-परायण' ने कश्मीरी पंडितों या उन लोगों का मसला नहीं उठाया जिन्हें अपने ही घरों से भगा दिया गया। या हजारों की तादाद में जिन्हें मार डाला गया। या सैकड़ों की तादाद में जिन्हें 'कश्मीर में रहना है तो मुसलमान बनना होगा' की शर्त पर जबरन धर्मांतरण कराया गया। नेहरू और उनकी नस्लों की कृपा से कश्मीर आज भी 22 अक्टूबर 1947 के उसी समय-काल की दहलीज पर खड़ा है जब हिंसक धर्मांध जमात ने जम्मू कश्मीर में रक्तपात मचाया था। अनुच्छेद 370 का ही परिणाम है कि वहां देश का नहीं बल्कि अलगाववादियों का कैलेंडर चलता है। उनकी सत्ता चलती है। उमर चाहे कितने भी मुगालते में रहें। कट्टरपंथी दबाव में अपने ही देश के एक राज्य में इस्लामी देशों की तर्ज पर रविवार का अवकाश नहीं बल्कि शुक्रवार का अवकाश आधिकारिक शक्ल में चलता है। धारा 370 का ही कमाल है कि जब जो चाहे राष्ट्र ध्वज का अपमान कर देता है। जो चाहे जब चाहे पाकिस्तान का झंडा कहीं भी फहरा देता है। सार्वजनिक चौराहों पर भारत का झंडा जला कर उसी संविधान का 'सम्मान' किया जाता है जिससे मिले अधिकारों का आपराधिक-उपभोग किया जा रहा है। संविधान के अनुच्छेद 370 का ही परिणाम है कि कश्मीर में कोई काम नहीं होता। रविवार को भी छुट्टी। शुक्रवार को भी छुट्टी। और बाकी समय खराब मौसम, हड़ताल, आतंकवाद, पुलिस पर हमले और प्रदर्शनों की छुट्टी। अपने ही देश का एक राज्य अराजकता और राष्ट्रद्रोहिता का केंद्र बन चुका है, लेकिन हम मौन हैं, क्योंकि वहां संविधान की धारा 370 लागू है। इसी संवैधानिक सहूलियत का नतीजा है कि वहां भाड़े के विदेशी आतंकी और तालिबानी अड्डा बना लेते हैं, उन्हीं कश्मीरियों की बहू-बेटियों को अपना शिकार बनाते हैं और धारा 370 के विशेषाधिकार से सुसज्जित उन्हीं कश्मीरियों से भारत विरोधी हरकतें कराते हैं।
हरिओम पवार की एक कविता है, थोड़े बहुत रद्दोबदल के साथ उसे आपके सामने रख रहा हूं। इस कविता में कश्मीर के प्रति जो भावना है, जो पीड़ा है, वह ग्रंथ लिख कर भी अभिव्यक्त नहीं की जा सकती। एक-एक पंक्तियां जैसे आज के लिए ही लिखी गई हों... मैं समझता हूं कि हम सब इन पंक्तियों और इन पंक्तियों की रचना के भाव के साथ अक्षरशः खड़े हैं...
काश्मीर जो खुद सूरज के बेटे की राजधानी था
डमरू वाले शिव शंकर की जो घाटी कल्याणी था
काश्मीर जो इस धरती का स्वर्ग बताया जाता था
जिस मिट्टी को दुनिया भर में अर्ध्य चढ़ाया जाता था
काश्मीर जो भारतमाता की आंखों का तारा था
काश्मीर जो लालबहादुर को प्राणों से प्यारा था
काश्मीर वो डूब गया है अंधी-गहरी खाई में
फूलों की खुशबू रोती है मरघट की तन्हाई में

ये अग्नीगंधा मौसम की बेला है
गंधों के घर बंदूकों का मेला है
मैं भारत की जनता का संबोधन हूं
आँसू के अधिकारों का उदबोधन हूं
मैं अविधा की परम्परा का चारण हूं
आजादी की पीड़ा का उच्चारण हूं

इसीलिए दरबारों को दर्पण दिखलाने निकला हूं |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

बस नारों में गाते रहिये ये कश्मीर हमारा है
छू कर देखो हिम चोटी के नीचे तो अंगारा है  
दिल्ली अपना चेहरा देखे धूल हटाकर दर्पण की
दरबारों की तस्वीरें भी हैं बेशर्म समर्पण की

काश्मीर है जहां तमंचे हैं केसर की क्यारी में
काश्मीर है जहां रुदन है बच्चों की किलकारी में
काश्मीर है जहां तिरंगे झंडे फाड़े जाते हैं
सैंतालिस के बंटवारे के घाव उघाड़े जाते हैं
काश्मीर है जहां हौसलों के दिल तोड़े जाते हैं
खुदगर्जी में जेलों से हत्यारे छोड़े जाते हैं

अपहरणों की रोज कहानी होती है
धरती मैया पानी-पानी होती है
झेलम की लहरें भी आंसू लगती हैं
गजलों की बहरें भी आंसू लगती हैं

मैं आंखों के पानी को अंगार बनाने निकला हूं |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

काश्मीर है जहां गर्द में चन्दा-सूरज- तारें हैं
झरनों का पानी रक्तिम है झीलों में अंगारे हैं
काश्मीर है जहाँ फिजाएं घायल दिखती रहती हैं
जहां राशिफल घाटी का संगीने लिखती रहती हैं
काश्मीर है जहां विदेशी समीकरण गहराते हैं
गैरों के झंडे भारत की धरती पर लहराते हैं

काश्मीर है जहां देश के दिल की धड़कन रोती है
संविधान की जहाँ तीन सौ सत्तर अड़चन होती है
काश्मीर है जहां दरिंदों की मनमानी चलती है
घर-घर में एके छप्पन की राम कहानी चलती है
काश्मीर है जहाँ हमारा राष्ट्रगान शर्मिंदा है
भारत मां को गाली देकर भी खलनायक जिन्दा है
काश्मीर है जहां देश का शीश झुकाया जाता है
मस्जिद में गद्दारों को खाना भिजवाया जाता है

गूंगा-बहरापन ओढ़े सिंहासन है
लूले - लंगड़े संकल्पों का शासन है
फूलों का आंगन लाशों की मंडी है
अनुशासन का पूरा दौर शिखंडी है

मै इस कोढ़ी कायरता की लाश उठाने निकला हूं |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

हम दो आंसू नहीं गिरा पाते अनहोनी घटना पर
पल दो पल चर्चा होती है बहुत बड़ी दुर्घटना पर
राजमहल को शर्म नहीं है घायल होती थाती पर
भारत मुर्दाबाद लिखा है श्रीनगर की छाती पर
मन करता है फूल चढ़ा दूं लोकतंत्र की अर्थी पर
भारत के बेटे निर्वासित हैं अपनी ही धरती पर

वे घाटी से खेल रहे हैं गैरों के बलबूते पर
जिनकी नाक टिकी रहती है पाकिस्तानी जूतों पर
काश्मीर को बंटवारे का धंधा बना रहे हैं वो
जुगनू को बैसाखी देकर चन्दा बना रहे हैं वो
फिर भी खून-सने हाथों को न्यौता है दरबारों का
जैसे सूरज की किरणों पर कर्जा हो अंधियारों का

कुर्सी भूखी है नोटों के थैलों की
कुलवंती दासी हो गई रखैलों की
घाटी आंगन हो गई ख़ूनी खेलों की
आज जरूरत है सरदार पटेलों की

मैं घाटी के आंसू का संत्रास मिटाने निकला हूं |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

जब चौराहों पर हत्यारे महिमा-मंडित होते हों
भारत मां की मर्यादा के मंदिर खंडित होते हों
देश विरोधी नारे लगते हों गुलमर्गा की गलियों में
शिमला-समझौता जलता हो बंदूकों की नलियों में

अब केवल आवश्यकता है हिम्मत की खुद्दारी की
दिल्ली केवल दो दिन की मोहलत दे दे तैय्यारी की
सेना को आदेश थमा दो घाटी ग़ैर नहीं होगी
जहां तिरंगा नहीं मिलेगा उनकी खैर नहीं होगी

जिनको भारत की धरती ना भाती हो
भारत के झंडों से बदबू आती हो
जिन लोगों ने मां का आंचल फाड़ा हो
दूध भरे सीने में चाकू गाड़ा हो

मैं उनको चौराहों पर फांसी चढ़वाने निकला हूं |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

अमरनाथ को गाली दी है भीख मिले हथियारों ने
चाँद-सितारे टांक लिये हैं खून लिपि दीवारों ने
इसीलियें नाकाम रही हैं कोशिश सभी उजालों की
क्योंकि ये सब कठपुतली हैं रावलपिंडी वालों की
अंतिम एक चुनौती दे दो सीमा पर पड़ोसी को
गीदड़ कायरता ना समझे सिंहों की ख़ामोशी को

हमको अपने खट्टे-मीठे बोल बदलना आता है
हमको अब भी दुनिया का भूगोल बदलना आता है
दुनिया के सरपंच हमारे थानेदार नहीं लगते
भारत की प्रभुसत्ता के वो ठेकेदार नहीं लगते
तीर अगर हम तनी कमानों वाले अपने छोड़ेंगे
जैसे ढाका तोड़ दिया लाहौर-कराची तोड़ेंगे

आंख मिलाओ दुनिया के दादाओं से
क्या डरना है चीन के धोखेबाजों से
क्या डरना अमरीका के आकाओं से
अपने भारत के बाजू बलवान करो
पांच नहीं सौ एटम बम निर्माण करो

मै भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने निकला हूं |

मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूं ||

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