केजरीवाल जी! यह तीन घंटे की फिल्म नहीं पांच साल की हकीकत है...
आम आदमी नाम की पार्टी ने दिल्ली
विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीतीं तो इस पार्टी के नेताओं को लगा 'जुग जीत लिया।' उसके बाद के घटनाक्रम पर आप गौर
करें। टीवी चैनलों के सारे पतंगबाज 'आप' की पतंग ले उड़े। किसी ने इतिहास
रच दिया तो किसी ने दिल्ली का समाजशास्त्र बदलना शुरू कर दिया तो किसी ने देश का राजनीतिशास्त्र
ही 'आप' के नाम कर देने की ठेकेदारी सम्भाल ली। खैर, ये तो टीवी चैनेलों की बात है। जैसे हल्के-फुल्के लोग होंगे, वैसी ही हल्की-फुल्की बातें होंगी, पर उसे पेश करने का भाव बड़ा
विद्वत होगा। 'आप' के सारे प्रतिनिधि दूत भी उसी 'चैनेलियाई
अंदाज'
में वाद-विवाद में
मुब्तिला दिख रहे थे। चाहे कुमार विश्वास हों या संजय सिंह या कोई और... किसी भी नेता
की बातों में कोई गाम्भीर्य नहीं, कोई दूरदृष्टि नहीं, कोई राजनीतिक समझ नहीं। 'आप' के सारे नेताओं के विचार बॉलीवुड
की फूहड़ फिल्मों के घटिया डायलॉग की तरह बाहर आ रहे थे। ये विचार कम, बौद्धिक उच्छिष्ट ज्यादा लग रहे थे। जैसे किसी फिल्म का नायक चुनाव
जीत जाता है और एक ही दिन में पूरी दुनिया बदल डालने के 'ठोको ताली' के अंदाज में कादरखानी डायलॉग बोलता है, व्यवस्था बदलने के लिए राशन की दुकान पर धावा बोल देता है या बिजली
की लाइन कटवाने लगता है। नायक की व्यवस्था की समझ राशन दुकान और बिजली की लाइन की धुरि पर ही नाचती रहती है, पब्लिक तालियां पीटती हुई घर वापस आ जाती है और तीन घंटे के लिए
पूरी व्यवस्था बदल जाती है। सिनेमा हॉल के अंदर की फंतासी का भाव कुमार विश्वास के
चेहरे पर पूरे विश्वास से दिखता है और उनके राजनीतिक आत्मविश्वास के खोखलेपन की सनद
देता है। अन्ना के अनशन के दौरान रालेगण सिद्धि में 'आप' के दूत गोपाल राय ने जिस तरह
की हरकत दिखाई, वह दूत की कम दैत्य की अधिक लग
रही थी। लोकतांत्रिक मर्यादा और उसके तौर-तरीके सीखने के लिए कोई अलग से ट्रेनिंग अकादमी
तो होती नहीं। होती तो 'आप' के नेताओं को चुनाव लडऩे के पहले
ट्रेनिंग की सलाह नहीं, बल्कि उन पर दबाव दिया जाता।
क्योंकि वे सलाह के नहीं, दबाव के ही पात्र हैं। मानवीय
कह लें या बौद्धिक कह लें या सामाजिक, यह एक संस्कार होता है कि कोई
भाषण दे रहे व्यक्ति को बीच में नहीं रोकता, उनकी पूरी बात सुनने के बाद उनसे
अनुमति मांग कर अपने सवाल रखता है या अपने बोलने का समय आने पर असहमति के बिंदुओं पर
राय रखता है। लेकिन गोपाल राय को ऐसी 'राय' गवारा नहीं। उन्होंने तो 'आप' की भद्द ही पिटवा दी। 'आप' के दूतों के आचरण देख कर एक सज्जन
ने पुराना एक जुमला दोहराया, लेकिन नए अंदाज में। ...'आधा खाके खूब सुनाए, राग भैरवी दिन में गाए, अधजल गगरी छलकत जाए'... 'आप' के नेताओं के व्यवहार का सारा 'फ्लैश-बैक' आधी गगरी के यत्र-तत्र-सर्वत्र छिड़काव वाला ही दिखेगा आपको।
...धैर्य नहीं इक पल भी रखना, क्या है मीठा क्या है खारा नहीं
आ रहा इसे परखना, सुने नहीं वो बात बड़ों की आंके
बस औकात बड़ों की, सीख नहीं लेना जब भाता मन में
दम्भ तभी भर जाता... कविता की ये कुछ पंक्तियां पढ़ें तो इन पंक्तियों पर 'आप' के स्वनामधन्य नेता पंक्तिबद्ध खड़े दिखेंगे। धर्मेंद्र कोली की बेजा हरकतें
इस पंक्तिबद्धता पर मेडल की तरह हैं। ऐसे बेजा लोगों की चर्चा से भी परहेज करना चाहिए।
अरविंद केजरीवाल जी से यह आग्रह या अपील करने का अधिकार तो बनता ही है कि कृपया अपने
दूतों को लोकतांत्रिक मूल्यों और नैतिकता के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करें और
आप भी उस तरफ प्रेरित हों... बड़ी पुरानी लोकोक्ति है, 'हबकि न बोलिबा, ढबकि न चलिबा, धीरे धरिबा पांव / गरब न करिबा, सहजै रहिबा, तबहि बचिबा गांव... अगर 'गांव' बचाना है केजरीवाल जी, तो इस लाइन को अपनी पार्टी का सूत्र वाक्य बना लें। अन्ना के कंधे
पर ही सवार होकर आप जनता की पसंद बने। बुजुर्गों के सम्मान के संस्कार से विमुख होंगे
तो दिल्ली के ही अगले चुनाव में आपको इसकी सीख मिल जाएगी। अरविंद केजरीवाल के सिपहसालारों
में राजनीतिक परिपक्वता और गम्भीरता होती तो दिल्ली की लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर राष्ट्रपति
शासन का ग्रहण नहीं लगता। केजरीवाल को सही राजनीतिक सलाह मिलती तो वे कांग्रेस की मदद
से सरकार बनाते। जनहित के फैसले लेते। कैबिनेट से मुहर लगवाते। विधानसभा में रखते।
बहुमत के अभाव में फैसले पारित नहीं होते और बस आपको मौका मिल जाता, विपक्ष की जनविरोधिता को आधार बना कर मुख्यमंत्री होते हुए आप
विधानसभा भंग करने की सिफारिश करते और तब फिर से जनता के पास चले जाते। इससे लोकतांत्रिक
प्रक्रिया का तकाजा भी पूरा हो जाता और 'आप' केवल दिल्ली ही नहीं देश के
दिल में भी जगह बना लेती। लेकिन केजरीवाल जी! आप यह मौका चूक गए तो पता नहीं ऐसा अवसर
फिर मिले न मिले...
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