Monday 2 December 2013

हम भुगत रहे हैं नेहरू के पाप का फल

प्रभात रंजन दीन
जब तक वे नेता थे तब तक तो वे भी वैसे ही थे, लेकिन जबसे राष्ट्रपति बने हैं, प्रणब मुखर्जी अपनी साहसिकता की छवि देश में स्थापित कर रहे हैं। जो काम प्रधानमंत्री को करना चाहिए, जो काम देश के रक्षा मंत्री को करना चाहिए, वह काम देश के राष्ट्रपति को करना पड़ रहा है। अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन हमें 1962 से लगातार अपमानित कर रहा है, लेकिन हमारे नेताओं ने बेशर्म होने की दवा खा रखी है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर मौजूदा मनमोहन सिंह तक। देश के स्वाभिमान की इन्हें कोई चिंता ही नहीं। नेहरू और मनमोहन दोनों में एक समानता है। दोनों ने ही मैडम के चक्कर में देशहित को ताक पर रख दिया। नेहरू ने मैडम माउंटबेटन के चक्कर में देश को डुबोया और मनमोहन मैडम सोनिया की खैरख्वाही में देश को डुबो रहे हैं। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अरुणाचल प्रदेश जाकर जब यह कहा कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न और महत्वपूर्ण हिस्सा है तो देश के लोगों के धिकते कलेजे को जैसे ठंडक मिली। चीन की हिमाकत यह रही है कि भारत के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति अरुणाचल प्रदेश जाएं तो वह आंय-बांय-शांय बोलता रहता है। भारतीय सीमा में घुस कर चीन की सेना कैसी हरकतें करती है, इस बारे में पूरा देश जानता है। ऐसे में जब प्रणब मुखर्जी ने कहा कि अरुणाचल प्रदेश को अब सुदूर क्षेत्र नहीं समझा जाना चाहिए, तो इस भाषा का संदेश चीन तक जरूर पहुंचा होगा। चीन के नेता भारतीय नेताओं की तरह बुद्धिहीन और दृष्टिहीन तो हैं नहीं कि उन्हें प्रणब की बात न समझ में आए। राष्ट्रपति ने अरुणाचल प्रदेश विधानसभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि अरुणाचल प्रदेश भारत की सम्प्रभुता से जुड़ा प्रदेश है। आपको याद ही होगा कि कुछ ही साल पहले वर्ष 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अरुणाचल यात्रा पर चीन ने तल्ख टिप्पणी की थी। प्रणब की यात्रा पर इस बार भी चीन खुद को रोक नहीं सका लेकिन थोड़ी नियंत्रित भाषा में बोला कि भारत को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे सीमा विवाद का मसला और उलझे। साफ है कि प्रणब के बयान में जो धमकी थी कि अरुणाचल को दूर न समझें, तो चीन ने भी सांकेतिक धमकी ही दी। मनमोहन अभी हाल ही में चीन की यात्रा पर गए थे लेकिन वहां जाकर भी अरुणाचल के लोगों  के लिए चीन द्वारा नत्थी वीज़ा जारी किए जाने की हरकतों पर कुछ नहीं कहा। ऐसे ही डरपोक लोग भारत की सत्ता संचालित करते हैं। ऐसे में देश के राष्ट्रपति का यह बयान एक साहसिक और सार्थक कदम है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नाकारेपन के कारण 1962 के युद्ध में चीन ने हमें पराजित किया और हमारे 90 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा जमा कर बैठ गया। इसके अलावा पाकिस्तान ने अक्सई चिन की 5180 वर्ग किलोमीटर की भारतीय भूमि चीन को 'गिफ्ट' में दे दी, जैसे यह हिस्सा पाकिस्तान की बपौती का था। फिर भी भारतवर्ष के नेताओं को शर्म नहीं आई। अब केंद्रीय सत्ता के गलियारे में यह सुगबुगाहट चल रही है कि अरुणाचल प्रदेश के चीनी कब्जे वाले हिस्से या अक्सई चिन के हिस्से में से कोई एक चीन को दे ही दिया जाए और विवाद सुलटाया जाए। विवाद हटाने का तो सबसे उत्तम तरीका है दुश्मन के सामने लेट जाइए। ...और ऐसा करने में भारतीय राजनीतिकों को विशेषज्ञता हासिल है। अगर यह सुगबुगाहट ठोस शक्ल लेती है तो भारत के लिए कितनी शर्मनाक बात होगी! विदेश मंत्रालय के कुछ अधिकारी भी कहते हैं कि अगर चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा छोड़ दे, तो भारत उसे अक्सई चिन देने के लिए तैयार है। अपने ही देश का वह हिस्सा जो चीन के कब्जे में है उसे पाने के लिए भारतवर्ष अगर जम्मू-कश्मीर के लद्दाख जैसे संवेदनशील क्षेत्र में चीन के कब्जे वाले 38 हजार वर्ग किलोमीटर (पाकिस्तान द्वारा दी गई 5180 वर्ग किलोमीटर जमीन मिला कर कुल 43180 वर्ग किलोमीटर) क्षेत्र पर अपना दावा छोड़ देने पर विचार कर रहा है... तो फिर बचेगा क्या? भारत का संवेदनशील उत्तरी सीमाई क्षेत्र चीन के कब्जे में चला गया तो वह और पाकिस्तान मिल कर हमें बुरी तरह मारेगा। इतनी भी सामान्य भौगोलिक-रणनीतिक समझ हमारे देश के नेताओं में नहीं है। अभी ही पाकिस्तान और चीन मिल कर भारत के लिए नई-नई परेशानियां खड़ी कर रहा है। उसके बाद क्या होगा? चीन की निगाह तवांग पर है। यह निगाह इसलिए है कि चीन के सत्ताधीशों में भौगोलिक-रणनीति के पेचोखम की समझदारी है। तवांग एक तरफ भूटान और दूसरी तरफ तिब्बत से जुड़ा है। यानी चीन तवांग हासिल कर भूटान को भी अपने अरदब में रखना चाहता है और किसी समय मौका देख कर भूटान को भी तिब्बत बना देना चाहता है। इतिहास के पन्ने पर एक तरफ नेहरू जैसा राष्ट्राध्यक्ष है तो दूसरी तरफ चाउ एन लाई। नेहरू माउंटबेटन के लिए देश को विभाजित करने के लिए तैयार हो जाता है तो चाउ एन लाई ब्रिटिश भारत के तत्कालीन सचिव हेनरी मैकमॉहन द्वारा निर्धारित सीमा रेखा को मानने से इन्कार कर देता है। 1914 भी एक शिमला समझौता हुआ था जिसमें तिब्बत के साथ हेनरी मैकमॉहन ने सीमांकन समझौता तय कराया था। चीन इस समझौते को खारिज करता है क्योंकि चीन ने तिब्बत को सम्प्रभु के रूप में कभी माना ही नहीं। चीन बदतमीजी से अरुणाचल प्रदेश को भी दक्षिणी तिब्बत बताता है। और भारत का नेतृत्व इस सम्बन्ध में उसी भाषा में कोई जवाब नहीं दे पाता न ही कभी सैन्य कार्रवाई के लिए कोई कदम उठाता है। चीन भारत में घुसता ही जा रहा है और भारत का नेता बेबस और नपुंसक। इतिहास के पन्नों में झांकें तो पाते हैं कि 1950 में तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद जब 1959 में विद्रोह गहराया तब भारत ने दलाई लामा को राजनीतिक शरण दी थी। इस पर चीन भड़क गया था और भारत-चीन सीमा पर हिंसक घटनाएं शुरू कर दीं। यह 1962 में बाकायदा आक्रमण के रूप में सामने आया। चीन की तैयारी और उसकी कुदृष्टि पहले से थी। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने चीन के धूर्त और झूठे नेताओं के झांसे में आकर 1954 में पंचशील समझौता कर लिया था। इस समझौते का भारत को तो कोई लाभ कभी नहीं मिला, लेकिन चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति को सफल करने में इसका पूरा लाभ उठाया। बाबा साहब अम्बेडकर, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे तमाम शीर्ष नेताओं ने नेहरू को पंचशील समझौता करने से रोका था, लेकिन वे माने नहीं। देश इन्हीं भूलों को भुगत रहा है। हालात यह है कि लोभी चीन केवल तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश ही नहीं, बल्कि सिक्किम, भूटान, नेपाल और लद्दाख तक को अपना हिस्सा बताता है। दलाई लामा की आत्मकथा 'मेरा देश निकाला' आप पढ़ें तो तिब्बत की भयानक त्रासदी आपके रोंगटे खड़े कर देगी। नेहरू की अदूरदर्शिता के कारण तिब्बत चीनी भेडिय़ों का शिकार हो गया। लेकिन फिर भी नेहरू को अपनी गलतियों का एहसास नहीं हुआ। जब दलाई लामा ने निर्वासन में तिब्बत सरकार का गठन करने की इच्छा जाहिर की थी तो नेहरू ने उन्हें डांट कर कहा था, 'हम आपकी सरकार को मान्यता नहीं दे सकते।' शांति के दूत नेहरू का यह स्वरूप था। इस अदूरदर्शी स्वरूप और समझ का खामियाजा भारत को भी भुगतना पड़ा और पंचशील समझौते को ठेंगे पर रखते हुए 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया और भारत की हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा जमा लिया। अब तो बहुत देर हो चुकी है। तिब्बत आज भी खून के आंसू रो रहा है, चीन की राक्षसी वृत्ति आज भी जारी है, नेहरू के पाप का फल हम आज भी भुगत रहे हैं...

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