Friday 28 July 2017

हवाला सरगना मोईन कुरैशी के इशारे पर नाचती हैं नामचीन हस्तियां!

प्रभात रंजन दीन
काला धन सफेद (मनी लॉन्ड्रिंग) करने के धंधे का सरगना मोईन कुरैशी को मदद पहुंचाने के मामले में सीबीआई अपने एक और पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने जा रही है. अरबों रुपए का काला धन सफेद करने के मामले में फंसे मीट व्यापारी मोईन कुरैशी और सीबीआई के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के गहरे सम्बन्ध रहे हैं. इसी मामले में सीबीआई के एक और पूर्व निदेशक एपी सिंह के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हो चुकी है. जांच के दायरे में सीबीआई के तत्कालीन संयुक्त निदेशक व यूपी कैडर के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जावीद अहमद, समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान, प्रसिद्ध फिल्मकार मुजफ्फर अली और इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट (ईडी) के ही एक आला अधिकारी राजेश्वर सिंह भी हैं, जिनके मोईन कुरैशी से जुड़े होने की पृष्ठभूमि सामने आई है. मोईन से जुड़े कांग्रेसी नेताओं की तो लंबी फेहरिस्त है. इन सबकी जांच हो रही है. पिछले दिनों ईडी के लखनऊ दफ्तर में हुई छापामारी और सहायक निदेशक एनबी सिंह की गिरफ्तारी तो बस एक शुरुआत मानी जा रही है. इस छापेमारी के जरिए सीबीआई को प्रवर्तन निदेशालय के दफ्तर में घुसने और जरूरी दस्तावेज खंगालने का मौका मिल गया. सीबीआई के सूत्र बताते हैं कि मीट व्यापारी मोईन कुरैशी की गतिविधियों के बारे में रामपुर के एसएसपी से मिली कई आधिकारिक सूचनाओं को इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट ने दबाए रखा और उसकी जांच नहीं होने दी. ईडी के पास मनी लॉन्ड्रिंग से सम्बन्धित कई शिकायतें लंबित हैं, जिनकी जांच नहीं कराई गई. मनी लॉन्ड्रिंग मामले में एक प्रमुख फोन कंपनी की संलिप्तता भी सामने आई है, जिसे ईडी के आला अधिकारी ने काफी अर्से तक दबाए रखा.
मोईन कुरैशी का मामला ऐसा है कि इसकी जितनी परतें खोलते जाएं, उतनी कहानियां सामने आती जाएंगी. सीबीआई के अधिकारी ही कहते हैं कि कुरैशी के मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला के गोरखधंधे के तार इतने फैले हैं कि दिल्ली, मुंबई, उत्तर प्रदेश, कोलकाता, कर्नाटक, सीबीआई, ईडी से लेकर इंटरपोल तक जाकर जुड़ते हैं. कुरैशी के पाकिस्तान और अन्तरराष्ट्रीय कनेक्शन तो हैं ही. यूपी के एनआरएचएम घोटाले से लेकर कर्नाटक के आईएएस अनुराग तिवारी की पिछले दिनों लखनऊ में हुई हत्या के सूत्र सब आपस में मिल रहे हैं. इस मामले की दो अलग-अलग स्तरों पर जांच चल रही है. सीबीआई अपने स्तर पर जांच कर रही है और ईडी अपने स्तर पर. हालांकि दोनों एजेंसियों में टकराव की स्थिति भी पैदा होती रहती है, लेकिन दोनों जांच एजेंसियों का आपसी टकराव फिलहाल हमारी खबर का हिस्सा नहीं है. इस पर हम कभी बाद में बात करेंगे. मीट कारोबारी और मुद्रा-धुलाई (मनी लॉन्ड्रिंग) धंधे के सरगना मोईन कुरैशी से गहरे ताल्लुकात पाए जाने के कारण सीबीआई के पूर्व निदेशक अमर प्रताप (एपी) सिंह के खिलाफ एफआईआर और चार्जशीट दाखिल हो चुकी है. अब दूसरे पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के खिलाफ चार्जशीट दाखिल किए जाने की तैयारी है. उनके खिलाफ एफआईआर पहले ही दर्ज की जा चुकी है. उस दरम्यान सीबीआई के संयुक्त निदेशक (पॉलिसी) रहे जावीद अहमद भी जांच के दायरे में हैं, क्योंकि उनके समय में ही मोईन कुरैशी के धंधे की जांच का मसला सीबीआई के सामने आया था और पहले झटके में टाल दिया गया था. आप याद करते चलें कि सीबीआई में उनके एक्सटेंशन की केंद्र सरकार से मंजूरी मिल चुकी थी और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सेंट्रल विजिलेंस कमीशन) जावीद अहमद के नाम को सीबीआई के अतिरिक्त निदेशक के पद के लिए हरी झंडी दिखाने ही जा रहा था कि अचानक गृह मंत्रालय ने इस पर ‘ऑब्जेक्शन’ लगा दिया और उनका नाम वापस लेकर उन्हें यूपी कैडर में वापस भेज दिया. केंद्र ने जावीद का नाम वापस लिए जाने की वजहों का खुलासा नहीं किया था.
सीबीआई ने पिछले दिनों इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट के लखनऊ ऑफिस पर छापा मार कर सहायक निदेशक एनबी सिंह को गिरफ्तार किया. यह छापामारी अखबारों की सुर्खियां बनीं. खबर यही बनी कि एनआरएचएम घोटाले में एक आरोपी सुरेंद्र चौधरी से 50 लाख रुपए घूस मांगने और उसके एडवांस के बतौर चार लाख रुपए लेने के आरोप में एनबी सिंह और उनके गुर्गे सुभाष को गिरफ्तार किया गया. लेकिन इस गिरफ्तारी की जो ‘अंतरकथा’ है, वह खबर नहीं बनी और न अखबारों ने इसकी समीक्षा ही की. एनबी सिंह उसी महीने यानि जून में ही रिटायर होने वाले थे. चार लाख रुपए घूस लेने के लिए वे खुद एक स्थानीय होटल में जा रहे थे, जहां से उन्हें पकड़ा गया. रिटायरमेंट नजदीक होते हुए भी एनबी सिंह का केंद्रीय उत्पाद शुल्क विभाग में ट्रांसफर कर दिया गया था और मार्च में ही उनसे एनआरएचएम घोटाले की सारी फाइलें ले ली गई थीं, फिर भी वे ईडी के ऑफिस से बाकायदा ईडी का काम कैसे देख रहे थे? एनआरएचएम का आरोपी सुरेंद्र चौधरी जब सरकारी गवाह बन चुका है, तब उसे ईडी के अधिकारी को घूस देने की जरूरत क्या थी? फिर इस प्रायोजित घूस-प्रहसन का सूत्रधार कौन है? दरअसल पूरे मामले की पटकथा कुछ और थी और दिखाई कुछ और गई. इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट के लखनऊ दफ्तर में कुछ ही अर्सा पहले सहायक निदेशक एनबी सिंह और संयुक्त निदेशक राजेश्वर सिंह के बीच हुई कहासुनी और गाली-गलौज ईडी में सार्वजनिक चर्चा का विषय रही है. दो अधिकारियों के बीच तनातनी और कलह का कारण क्या था? जांच का विषय यह है. मनी लॉन्ड्रिंग मामले की जांच में ईडी की कोताही, नोटबंदी के दरम्यान मनी लॉन्ड्रिंग की शिकायतों पर ईडी की ओर से किसी कार्रवाई का न होना, मनी लॉन्ड्रिंग धंधे में मुब्तिला एक बहुराष्ट्रीय फोन कंपनी का मामला रफा-दफा कर दिया जाना, एक बड़ी मिठाई कंपनी की मुद्रा-धुलाई के धंधे में संलिप्तता हजम कर जाना, मनी लॉन्ड्रिंग धंधे के सरगना मोईन कुरैशी के खिलाफ रामपुर के एसएसपी से मिली आधिकारिक सूचनाओं को दबा दिया जाना जैसे कई मसले हैं जो एक साथ आपस में गुंथे हुए हैं. सीबीआई अधिकारी मानते हैं कि अब ईडी में घुसने का उन्हें मौका मिल गया है, अब सारे मामले की जांच होगी. सीबीआई यह भी जांच कर रही है कि ईडी की फाइलें लखनऊ के एक पॉश क्लब में क्यों ले जाई जाती थीं और कुछ खास आला नौकरशाहों के सामने फाइलें क्यों खोली जाती थीं. इस क्लब के पदाधिकारी जेल में बंद एक कुख्यात माफिया सरगना के इशारे पर चुने और हटाए जाते हैं. उस माफिया सरगना के भी मोईन कुरैशी से अच्छे सम्बन्ध बताए गए हैं.
सीबीआई के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा और मोईन कुरैशी के सम्बन्ध इतने गहरे रहे हैं कि 15 महीने में दोनों की 90 मुलाकातें आधिकारिक रिकॉर्ड में दर्ज हैं. यह तथ्य कोई छुपा हुआ मामला नहीं है. एपी सिंह से भी कुरैशी की ऐसी ही अंतरंग मुलाकातें सीबीआई और ईडी की छानबीन में रिकॉर्डेड हैं. एपी सिंह और कुरैशी की अंतरंगता इतनी थी कि सिंह के घर के बेसमेंट से कुरैशी का एक दफ्तर चलता था. एपी सिंह और कुरैशी के बीच ब्लैक-बेरी-मैसेज के आदान-प्रदान की कथा सार्वजनिक हो चुकी है. यह सीबीआई का दस्तावेजी तथ्य है. दूसरे निदेशक रंजीत सिन्हा के प्रसंग में सीबीआई के दस्तावेज बताते हैं कि मोईन कुरैशी अपनी कार (डीएल-12-सीसी-1138) से कई बार सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा से मिलने उनके घर गया. कुरैशी की पत्नी नसरीन कुरैशी भी अपनी कार (डीएल-7-सीजी-3436) से कम से कम पांच बार सिन्हा से मिलने गई. कुरैशी दम्पति की दोनों कारें उनकी कंपनी एएमक्यू फ्रोजेन फूड प्राइवेट लिमिटेड के नाम और सी-134, ग्राउंड फ्लोर, डीफेंस कॉलोनी, नई दिल्ली के पते से रजिस्टर्ड हैं. यह दोनों कारें कई बार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आवास पर भी जाती रही हैं, जिनमें मोईन और उसकी पत्नी सवार रही हैं. मोईन कुरैशी की बेटी परनिया कुरैशी की शादी कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद के रिश्तेदार अर्जुन प्रसाद से हुई है.
बहरहाल, सीबीआई का निदेशक रहते हुए रंजीत सिन्हा ने सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज़ (सीबीडीटी) पर दबाव डाल कर मोईन कुरैशी के खिलाफ हो रही छानबीन का ब्यौरा जानने और छानबीन की प्रक्रिया को बाधित करने की कोशिश की थी. सीबीडीटी के पास रंजीत सिन्हा का वह पत्र भी है जिसके जरिए उन्होंने छानबीन का ब्यौरा उपलब्ध कराने का औपचारिक दबाव डाला था. बाद में वित्त मंत्री बने अरुण जेटली ने सीबीडीटी को निर्देश देकर ऐसा करने से मना किया था. एपी सिंह हों या रंजीत सिन्हा, इस सिस्टम में मोईन कुरैशी के हाथ इतने अंदर तक धंसे हैं कि मनी लॉन्ड्रिंग का पूरा मसला बिना किसी नतीजे के अधर में ही टंगा रह जाएगा, इसी बात का अंदेशा है. अमेरिका के पेंसिलवानिया में अरबों रुपए की जालसाजी करने वाला जाफर नईम सादिक जब कोलकाता के रवींद्र सरणी इलाके में पकड़ा जाता है तब यह रहस्य खुलता है कि वह भी मोईन कुरैशी का ही आदमी है. इंटरपोल की नोटिस पर जाफर पकड़ा जाता है. बाद में यह रहस्य खुलता है कि जाफर नईम, दुबई के विनोद करनन और सिराज अब्दुल रज्जाक का नाम इंटरपोल की वांटेड-लिस्ट और उनकी तलाशी के लिए जारी रेड-कॉर्नर नोटिस से हटाने के लिए इंटरपोल के तत्कालीन प्रमुख रोनाल्ड के नोबल से कुरैशी ने सिफारिश की थी. नोबल ने यह आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया है कि उसके मोईन कुरैशी परिवार और सीबीआई के तत्कालीन निदेशक एपी सिंह से नजदीकी सम्बन्ध रहे हैं. लेकिन नोबल ने इंटरपोल की लिस्ट से नाम हटाने के मसले को सिरे से खारिज कर दिया था. कुरैशी की सिफारिश को नकारने वाले इंटरपोल प्रमुख रोनाल्ड के नोबल के भाई जेम्स एल. नोबल जूनियर और भारत से फरार स्वनामधन्य ललित मोदी बिजनेस-पार्टनर हैं. अमेरिका में दोनों का विशाल साझा धंधा है. यह सीबीआई के रिकॉर्ड में है. रोनाल्ड नोबल वर्ष 2000 से 2014 तक की लंबी अवधि तक इंटरपोल के महासचिव रहे हैं.
केंद्रीय खुफिया एजेंसी काले धन की आमद-रफ्त का पूरा नेटवर्क जानने की कोशिश में लगी है. इसी क्रम में मुद्रा-धुलाई और हवाला सिंडिकेट के सरगना मोईन कुरैशी से जुड़े उन तमाम लोगों के लिंक खंगाले जा रहे हैं, जिनके कभी न कभी मोईन कुरैशी से सम्बन्ध रहे हैं या मोईन कुरैशी का धन उनके धंधे में लगा है. इनमें नेता, अफसर, व्यापारी और फिल्मकारों से लेकर माफिया सरगना तक शामिल हैं. जैसा ऊपर बताया, मोईन कुरैशी के काफी नजदीकी सम्बन्ध समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान से रहे हैं. यह सम्बन्ध इतने गहरे रहे हैं कि आजम खान की बनाई मोहम्मद अली जौहर युनिवर्सिटी के उद्घाटन के मौके पर मोईन कुरैशी चार्टर हेलीकॉप्टर से रामपुर आया था. सीबीआई गलियारे में भुनभुनाहट थी कि आजम खान की युनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय की मान्यता दिलाने में मोईन कुरैशी ने यूपी के अल्पकालिक कार्यकारी राज्यपाल अजीज कुरैशी से सिफारिश की थी. स्वाभाविक है कि इसकी आधिकारिक पुष्टि छानबीन से ही होगी, क्योंकि इंटरपोल के महासचिव की तरह कोई यह स्वीकार तो करेगा नहीं कि मोईन कुरैशी से उनके दोस्ताना सम्बन्ध रहे हैं. यह भारतवर्ष के लोगों की खासियत है. इसी प्रसंग में याद करते चलें कि उत्तर प्रदेश के दो निवर्तमान राज्यपालों क्रमशः टीवी राजेस्वर और बीएल जोशी ने मौलाना जौहर अली युनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा देने के विधेयक पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया था. जोशी के जाने के बाद और राम नाईक के राज्यपाल बन कर आने के बीच में महज एक महीने के लिए यूपी के कार्यकारी राज्यपाल बनाए गए अजीज कुरैशी ने आनन-फानन मौलाना अली जौहर युनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय की मान्यता के विधेयक पर हस्ताक्षर कर दिए. कुरैशी 17 जून 2014 को यूपी आए, 17 जुलाई 2014 को जौहर विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय की मान्यता दी और 21 जुलाई 2014 को वापस देहरादून चले गए.
मनी लॉन्ड्रिंग सरगना मोईन कुरैशी के साथ सम्बन्धों की बात तो प्रसिद्ध फिल्मकार मुजफ्फर अली भी स्वीकार नहीं करेंगे. जबकि असलियत यही है कि मुजफ्फर अली की फिल्म ‘जानिसार’ में मोईन कुरैशी का पैसा लगा और मोईन की बेटी परनिया कुरैशी इस फिल्म में हिरोइन बनी. ‘जानिसार’ फिल्म के प्रोड्यूसर में मीरा अली का नाम दिखाया गया, लेकिन सब जानते हैं कि फिल्म में मोईन कुरैशी ने पैसा लगाया था. बाप मोईन कुरैशी की तरह बेटी परनिया कुरैशी को भी कानून से खेलने में मजा आता है. अमेजन इंडिया फैशन वीक-2016 के दरम्यान मीडिया के लिए निजी तौर पर कॉकटेल पार्टी (बेशकीमती शराब पीने-पिलाने की पार्टी) देकर परनिया कुरैशी चर्चा में रही. मीडिया वालों ने पहले तो खूब दारू छकी और बाद में नुक्ताचीनी की कि परनिया कुरैशी फैशन डिज़ाइन काउंसिल ऑफ इंडिया की सदस्य नहीं हैं तो फिर कॉकटेल पार्टी कैसे दी. मजा यह है कि इस कॉकटेल पार्टी का नाम परनिया ने ‘रामपुर का कोला’ रखा था. हम आप सोचेंगे वही आजम खान का रामपुर... लेकिन वो कहेंगे, नहीं, मोईन कुरैशी का रामपुर. इसके पहले भी परनिया कुरैशी इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर स्मगलिंग के आरोप में पकड़ी और करीब 40 लाख रुपए का जुर्माना लेकर छोड़ी जा चुकी हैं. मोईन के अंतरंगों और उपकृतों की लिस्ट में ऐसे और कई नाम हैं. कांग्रेसियों के नाम तो भरे पड़े हैं. सोनिया गांधी का नाम इनमें शीर्ष पर है. पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद तो मोईन कुरैशी के रिश्तेदार ही हैं. वरिष्ठ कांग्रेस नेता अहमद पटेल, कमलनाथ, आरपीएन सिंह, मोहम्मद अजहरुद्दीन जैसे कई नेता इस सूची में शुमार हैं. ये उन नेताओं के नाम हैं जो मोईन कुरैशी के घर पर नियमित उठने-बैठने वाले हैं. सोनिया के घर पर मोईन परिवार नियमित तौर पर उठता-बैठता रहा है.

साढ़े पांच सौ घंटे की रिकॉर्डिंग उजागर हो तो तूफान आ जाएगा
इन्कम टैक्स विभाग की खुफिया शाखा ने मोईन कुरैशी की विभिन्न हस्तियों से होने वाली टेलीफोनिक बातचीत टेप की. उसके बारे में आईटी इंटेलिजेंस के सूत्र थोड़ी झलक दिखाते हैं तो लगता है कि कुरैशी का मनी लॉन्ड्रिंग का साम्राज्य पूरे सरकारी सिस्टम को समानान्तर चुनौती दे रहा है. तकरीबन साढ़े पांच सौ घंटे की रिकॉर्डिंग है. आईटी के अधिकारी ही कहते हैं कि इसे देश सुन ले तो भारतीय लोकतांत्रिक सिस्टम की असलियत प्रामाणिक रूप से समझ में आ जाए.
मनी लॉन्ड्रिंग मामले में इन्कम टैक्स की इंटेलिजेंस शाखा पहले से खुफिया जांच कर रही थी. आईटी इंटेलिजेंस ने मोईन कुरैशी की विभिन्न लोगों से टेलीफोन पर होने वाली बातचीत को तकरीबन साढ़े पांच सौ घंटे सुना था और उसे रिकॉर्ड किया था. इसमें केंद्र सरकार के कई मंत्री, यूपी समेत कई राज्य सरकारों के मंत्री, विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता, सीबीआई के अधिकारी, बड़े कॉरपोरेट घरानों के अलमबरदार, कई फिल्मी हस्तियां समेत ढेर सारे महत्वपूर्ण लोग शामिल हैं. आप हैरत न करें, इनमें भाजपा के भी कई नेताओं के नाम हैं. एक वरिष्ठ भाजपा नेता की बेटी का नाम भी है और उस भाजपा नेता का भी नाम है जो मोईन कुरैशी के भाई को रामपुर से टिकट दिलाने की कोशिश कर रहा था. यह अपने आप में बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन होगा, अगर उसे सार्वजनिक कर दिया जाए.
मनी लॉन्ड्रिंग मामले में मोईन कुरैशी के जाल में फंसने और सीबीआई के दो-दो निदेशकों के उसके साथ सम्बन्ध उजागर होने के बाद देशभर में चर्चा हुई, निंदा प्रस्ताव जारी हुए और अपने-अपने तरीके से नेताओं ने इसे खूब भुनाया. लेकिन किसी भी नेता ने सार्वजनिक तौर पर यह चर्चा नहीं की कि ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी ने केंद्र सरकार को पहले ही क्या सूचना दे दी थी. ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी ने भारतीय खुफिया एजेंसी को आगाह करते हुए यह बता दिया था कि दुबई के एक बैंक अकाउंट से 30 करोड़ रुपए ट्रांसफर हुए हैं. अकाउंटधारी भारतीय है और यह पैसा सीबीआई के निदेशक को घूस देने के लिए भेजा गया है. केंद्र सरकार न तो उस अकाउंट को जब्त कर पाई और न अकाउंटधारी को ही पकड़ा जा सका.
सीबीआई के निदेशक के पद पर रहते हुए एपी सिंह और रंजीत सिन्हा, दोनों मोईन कुरैशी की फर्म ‘एसएम प्रोडक्शन्स’ को सीबीआई के विभागीय कार्यक्रमों के आयोजन का भी ठेका देते रहे हैं. इसे मोईन कुरैशी की दूसरी बिटिया सिल्विया कुरैशी संचालित करती थी. सीबीआई के निदेशकों के साथ मोईन कुरैशी के इंटरपोल के प्रमुख रोनाल्ड के नोबल के करीबी सम्बन्धों के बारे में आपने ऊपर जाना. साथ-साथ यह भी जानते चलें कि सीबीआई और ईडी दोनों एजेंसियों के अधिकारी फ्रांस के आर्किटेक्ट जीन लुईस डेनॉयट को मोईन कुरैशी के हवाला धंधे के सिंडिकेट से सक्रिय तौर पर जुड़ा हुआ सदस्य बताते हैं. ...केवल बताते हैं, उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाते हैं.

लखनऊ में बड़े आराम से खप जाता है काला धन
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला के धंधे के साथ-साथ नौकरशाहों के काले धन के ‘एडजस्टमेंट’ का भी सुविधाजनक स्थान रही है. स्मारक घोटाला, एनआरएचएम घोटाला, बिजली घोटाला जैसे तमाम घोटालों के धन मनी लॉन्ड्रिंग का धंधा करने वाले गिरोह के जरिए यहां से बेरोकटोक विदेश जाते रहे हैं. लखनऊ से नेपाल के रास्ते काला धन बड़े आराम और बिना किसी शोरगुल के दक्षिण एशियाई देशों तक पहुंच जाता है. केंद्र सरकार का ध्यान स्विट्जरलैंड और अन्य पश्चिमी देशों पर लगा रहता है और इधर दक्षिण एशिया के छोटे-मोटे देशों में देश का पैसा धड़ल्ले से जाता रहता है. चीन के अधीन हॉन्गकॉन्ग काले धन के निवेश का बड़ा केंद्र बन गया है. यूपी के कई नेताओं का काला धन हॉन्गकॉन्ग के अलावा थाईलैंड और मलेशिया में भी खपा हुआ है. इसकी छानबीन में खुफिया एजेंसियां कोई रुचि नहीं ले रही हैं. नेताओं की आय से अधिक सम्पत्ति की जांच इन देशों में हुए निवेश की छानबीन के बगैर पूरी नहीं हो सकती.
बहरहाल, भ्रष्ट नौकरशाह भी लखनऊ का इस्तेमाल काला धन खपाने में करते रहते हैं. कुछ अर्सा पहले अंगदिया कुरियर कंपनी के जरिए 50 लाख रुपए का बड़ा कन्साइनमेंट लखनऊ निवासी ध्रुव कुमार सिंह के नाम से आया था. इसकी भनक सीबीआई को पहले ही लग चुकी थी. यह पैसा क्रिकेट फिक्सिंग और सट्टे से जुड़े धंधेबाजों का था, जिसे रिश्वत के रूप में इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट के अधिकारियों को ‘ऑब्लाइज’ करने के लिए भेजा गया था. इसमें ईडी के संयुक्त निदेशक जेपी सिंह व अन्य अफसरों और उनसे जुड़े सट्टेबाज विमल अग्रवाल, सोनू जालान और कुछ अन्य का नाम आया था.

सीबीआई अफसरों को ‘पटाने’ वालों को पकड़ती क्यों नहीं सरकार!
देश का अजीब हाल है कि केंद्र सरकार सीबीआई जैसी खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों को पूंजी-सिंडिकेटों और सरगनाओं की ओर से उपकृत किए जाने पर गुस्सा भी दिखाती है और उसे रोकती भी नहीं है. सीबीआई के अधिकारियों को ‘पटाने’ का दो तरीका इस्तेमाल में लाया जा रहा है. या तो उन्हें मोटी रकम घूस में दी जाती है, या उन्हें सेमिनार और गोष्ठियों में बुला कर आकर्षक सम्मानिकी देकर उपकृत किया जाता है. कई पूंजी संस्थानों में तो खास तौर पर सीबीआई अधिकारियों को आलीशान वेतन पर नौकरी दी जाती है. यह ऐसा प्रलोभन है कि सीबीआई अफसर अपने रिटायरमेंट के बाद के जुगाड़ में उस पूंजी संस्थान को अनैतिक मदद पहुंचाते रहते हैं. सीबीआई के अधिकारियों को आकर्षक नौकरी का प्रलोभन देने में जिंदल प्रतिष्ठान अव्वल है. जिंदल प्रतिष्ठान कोयला घोटाले में लिप्त रहा है, लिहाजा वह सीबीआई अफसरों को अधिक उदारता से अपने यहां नौकरियां देता रहा है. सीबीआई जांचों के फेल होने की वजहों का भयानक सच भी यही है.
अब हम इसे आपको तफसील से बताते हैं. इसके लिए थोड़ा फ्लैश-बैक में चलना होगा. सीबीआई के निदेशक रहे अश्वनी कुमार सीबीआई से रिटायर होने के बाद और नगालैंड का राज्यपाल बनाए जाने के पहले नवीन जिंदल के प्रतिष्ठान में नौकरी कर रहे थे. सीबीआई के कई पूर्व निदेशक और वरिष्ठ नौकरशाह जिंदल संगठन में अभी भी नौकरी कर रहे हैं. सीबीआई के निदेशकों को रिटायर होते ही जिंदल के यहां नौकरी कैसे मिल जाती है? सत्ता के गलियारे में पैठ रखने वाले वरिष्ठ नौकरशाहों को जिंदल से जुड़े प्रतिष्ठानों में प्रभावशाली ओहदों पर क्यों बिठाया जाता है? जिंदल के संस्थानों से ताकतवर नौकरशाह महिमामंडित और उपकृत क्यों होते रहते हैं? उन पर केंद्र सरकार ध्यान क्यों नहीं दे रही? यह सवाल सामने है. कोयला घोटाले में जिंदल समूह की संलिप्तता और घोटाले की सीबीआई जांच से जुड़ी फाइलों की रहस्यमय गुमशुदगी के वायके को देखते हुए इन सवालों को सामने रखना और भी जरूरी हो जाता है. उद्योगपति और ताकतवर कांग्रेसी नेता नवीन जिंदल की कोयला घोटाले में भूमिका जगजाहिर है. यूपीए कालीन सत्ता से उनकी नजदीकियां और उन नजदीकियों के कारण कोयला घोटाले की लीपापोती की करतूतें आपको याद ही होंगी. घोटाले में लिप्त हस्तियों की साजिशी पहुंच कितनी गहरी होती है, यह कोयला घोटाले से जुड़ी फाइलों के गायब होने के बाद पूरे देश को पता चला था.
खैर, अब आप इस खबर के जरिए देखिए कि पर्दे के पीछे पटकथाएं कैसे लिखी जाती हैं और इसे कौन लोग लिखते हैं! कोयला घोटाले में लिप्त जिंदल समूह के जरिए केंद्र सरकार के वरिष्ठ नौकरशाहों को उपकृत कराने का सिलसिला लंबे अरसे से चल रहा है. आप तथ्यों को खंगालें तो आप पाएंगे कि सत्ता के अंतरंग जिन नौकरशाहों को केंद्र सरकार उपकृत नहीं कर पाई, उन्हें जिंदल के यहां शीर्ष पदों पर नौकरी मिल गई. ऐसा भी हुआ कि नौकरी करते हुए भी कई नौकरशाहों को जिंदल के मंच से महिमामंडित किया जाता रहा. कांग्रेस के बेहद करीबी रहे अश्वनी कुमार तब सीबीआई के निदेशक थे, जब कोयला घोटाला पूरे परवान पर था. दो साल की निर्धारित सेवा अवधि में चार महीने का विस्तार अश्वनी कुमार के सत्ता साधने के हुनर का ही प्रमाण था. अश्वनी कुमार दो अगस्त 2008 को सीबीआई के निदेशक बनाए गए थे और उन्हें दो अगस्त 2010 को रिटायर हो जाना चाहिए था, लेकिन उन्हें एक्सटेंशन दिया गया. सत्ता का ‘लक्ष्य’ पूरी होने के बाद अश्वनी कुमार नवम्बर 2010 को सीबीआई के निदेशक पद से रिटायर हुए. जैसे ही रिटायर हुए, उन्हें जिंदल समूह ने लपक लिया. जिंदल समूह ने उन्हें ओपी जिंदल ग्लोबल बिजनेस स्कूल का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया. बाद में तत्कालीन केंद्र सरकार ने अश्वनी कुमार को नगालैंड का राज्यपाल बना दिया. कोयला घोटाला, घोटाले की लीपापोती, उसमें जिंदल की भूमिका और जिंदल समूह में सीबीआई निदेशकों की नियुक्ति के सूत्र आपस में मिलते हैं कि नहीं, इसकी पड़ताल का काम तो जांच एजेंसियों का है. हमारा दायित्व तो इसे रौशनी में लाने भर का है.
अश्वनी कुमार को सीबीआई का निदेशक बनाए जाने के पीछे की अंतरकथा कम रोचक नहीं है. 17 साल से अधिक समय से सीबीआई को अपनी सेवा देते रहे खांटी ईमानदार राजस्थान कैडर के आईपीएस अधिकारी एमएल शर्मा का निदेशक बनना तय हो गया था. चयनित निदेशक को प्रधानमंत्री के साथ चाय पर आमंत्रित करने की परम्परा के तहत शर्मा को पीएमओ में बुला लिया गया था. उधर, सीबीआई कार्यालय तक इसकी सूचना पहुंच गई थी और वहां लड्डू भी बंट गए. लेकिन अचानक केंद्र सरकार ने एमएल शर्मा का नाम हटा कर हिमाचल प्रदेश के डीजीपी अश्वनी कुमार को सीबीआई का निदेशक बना दिया. जबकि शर्मा उनसे सीनियर थे. वे पीएमओ से अपमानित होकर लौट आए. शर्मा ने प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड और उपहार सिनेमा हादसा जैसे कई महत्वपूर्ण मामले निपटाए थे. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें आखिरी वक्त पर सीबीआई का निदेशक बनने लायक नहीं समझा, क्योंकि शर्मा वह नहीं कर सकते थे जो केंद्र सरकार सीबीआई से कराना चाहती थी. अचानक एमएल शर्मा को हटा कर अश्वनी कुमार को सीबीआई का निदेशक कैसे और क्यों बनाया गया, यह देश के सामने आए बाद के घटनाक्रम ने स्पष्ट कर दिया. आरुषि हत्याकांड की लीपापोती करने और सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में अमित शाह को घेरे में लाने में अश्वनी कुमार की ही भूमिका थी. लिहाजा, कोयला घोटाले में उनका रोल क्या रहा होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है. अश्वनी कुमार ऐसे पहले सीबीआई निदेशक हैं जो राज्यपाल बने.
सीबीआई के पूर्व निदेशक डीआर कार्तिकेयन जिंदल समूह के ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी की एकेडेमिक काउंसिल के वरिष्ठ सदस्य हैं. कार्तिकेयन 1998 में सीबीआई के निदेशक रह चुके हैं. इसी तरह चार जनवरी 1999 से लेकर 30 अप्रैल 2001 तक सीबीआई के निदेशक रहे आरके राघवन भी जिंदल समूह की सेवा में हैं. राघवन ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट के वरिष्ठ सदस्य हैं. सीबीआई के जिन निदेशकों को जिंदल अपने समूह में नियुक्त नहीं कर पाया उन्हें अपने शैक्षणिक प्रतिष्ठान से महिमामंडित कराता रहा. सीबीआई के निदेशक रहे अमर प्रताप (एपी) सिंह को रिटायर होने के महज महीने डेढ़ महीने के अंदर केंद्र सरकार ने लोक सेवा आयोग का सदस्य मनोनीत कर दिया था. उधर, जिंदल समूह इनके भी महिमामंडन में पीछे नहीं था. ओपी जिंदल ग्लोबल विश्वविद्यालय के कई शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रमों में एपी सिंह शरीक रहे. यहां तक कि राष्ट्रीय पुलिस अकादमी तक में अपनी घुसपैठ बना चुका जिंदल वहां भी सैकड़ों वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों के विशेषज्ञीय प्रशिक्षण का आयोजन कराता रहता है और उसी माध्यम से शीर्ष नौकरशाही को उपकृत करता रहता है. सीबीआई के पूर्व निदेशक पीसी शर्मा के साथ भी ऐसा ही हुआ. उन्हें भी रिटायरमेंट के महीने भर के अंदर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का सदस्य बना दिया गया. जिंदल ने पीसी शर्मा को भी अपने समूह से जोड़े रखा और शैक्षणिक प्रतिष्ठानों; ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी और जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल के जरिए उनका महिमामंडन करता रहा.
सत्ता से जुड़े रहे वरिष्ठ नौकरशाहों की जिंदल से नजदीकियां वाकई रेखांकित करने लायक हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व सदस्य, भारत सरकार की नीति बनाने और उसे कार्यान्वित कराने की समिति के पूर्व निदेशक, प्रधानमंत्री, कैबिनेट सचिवालय और राष्ट्रपति तक के मीडिया एवं संचार मामलों के निदेशक रह चुके वाईएसआर मूर्ति को जिंदल ने ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी का रजिस्ट्रार बना दिया. मूर्ति न केवल विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार हैं बल्कि वे मैनेजमेंट बोर्ड और एकेडेमिक काउंसिल के भी सदस्य हैं. देश के ऊर्जा सचिव रहे राम विनय शाही और भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन रहे अरुण कुमार पुरवार जिंदल स्टील्स प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्टर हैं. ऐसे तमाम उदाहरण हैं. जिंदल देश का अकेला ऐसा पूंजी प्रतिष्ठान है जिसने सत्ता से जुड़े शीर्ष नौकरशाहों को अपने समूह में सेवा में रखा. खास तौर पर सीबीआई के पूर्व निदेशकों को अपनी सेवा में रखने में जिंदल का कोई सानी नहीं है. जिंदल जैसे समूहों से उपकृत होने वाले सीबीआई के पूर्व निदेशकों या वरिष्ठ अधिकारियों पर किसी की निगाह नहीं जाती. यह भी तो घूस है! इस पर केंद्र सरकार कोई अंकुश क्यों नहीं लगाती? भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी-बड़ी बोलियां बोलने वाले सत्ताधारी नेता इन सवालों पर चुप रहते हैं.

जिनसे आतंकी लेते हैं फंड, उन्हीं से नेता लेते हैं धन
देखिए, दृश्य एकदम साफ है. मोईन कुरैशी का मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला का धंधा बहुत बड़ा घोटाला है, लेकिन यह कोई नया थोड़े ही है! इसके पहले भी हवाला का धंधा होता रहा है. इसके पहले भी काला धन सफेद होता रहा है. उन घोटालों का क्या हुआ? कुछ नहीं हुआ. सारे मामले लीप-पोत कर बराबर कर दिए गए. कम राजनीतिक औकात वाले कुछ नेता और दलाल जेल गए. फिर सब कुछ सामान्य हो गया. नेता और नौकरशाह जिन मामलों में इन्वॉल्व रहेंगे, उसका कोई नतीजा नहीं निकलेगा. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आतंकी संगठन जिन स्रोतों से पैसे प्राप्त करते हैं, उन्हीं स्रोतों से विभिन्न राजनीतिक दल भी धन लेते हैं. लेकिन इससे नेताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता.
अब आप ही बताइये कि नब्बे के दशक के उस हवाला घोटाले का क्या हुआ, जो बड़े धमाके से उजागर हुआ था? देश से बाहर विदेशों में अरबों रुपए का काला धन भेजने की हवाला-कला से देश के आम लोगों का परिचय ही जैन हवाला डायरी केस से हुआ था. सीबीआई ने वर्ष 1991 में कई हवाला सरगनाओं के ठिकानों पर छापे मारे थे. इसी छापेमारी के क्रम में एसके जैन की डायरी बरामद हुई थी और वर्ष 1996 में यह देश-दुनिया के सामने उजागर हो गया था. थोड़ा झांकते चलते हैं जैन हवाला मामले की फाइलों में...
25 मार्च 1991 को दिल्ली पुलिस ने जमायत-ए-इस्लामी के दिल्ली मुख्यालय से कश्मीरी युवक अशफाक हुसैन लोन को गिरफ्तार किया था. अशफाक से मिले सुराग पर जामा मस्जिद इलाके से जेएनयू के छात्र शहाबुद्दीन गोरी को पकड़ा गया. अशफाक और शहाबुद्दीन दोनों हवाला के जरिए पैसा हासिल कर उसे आतंकवादी संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट तक पहुंचाते थे. यह पैसा लंदन से डॉ. अय्यूब ठाकुर और दुबई से तारिक भाई भेजा करता था. यह संवेदनशील सूचना मिलने पर मामले को सीबीआई को सौंप दिया गया. सीबीआई ने जांच अपने हाथ में लेने के बाद 3 मई 1991 को विभिन्न हवाला कारोबारियों के 20 ठिकानों पर छापेमारी की. इसमें भिलाई इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन के प्रबंध निदेशक सुरेंद्र कुमार जैन के महरौली स्थित फार्म हाउस और उसके भाई जेके जैन के दफ्तर पर भी छापा पड़ा. छापे में 58 लाख रुपए से ज्यादा नकद, 10.5 लाख के इंदिरा विकास पत्र और चार किलो सोना बरामद किया गया. इसके अलावा 593 अमेरिकी डॉलर, 300 पाउंड, 27 हजार डेनमार्क की मुद्रा, 50 हजार हॉन्गकॉन्ग की मुद्रा, 300 फ्रैंक सहित 50 अलग-अलग देशों की काफी मुद्राएं बरामद की गईं. सबसे महत्वपूर्ण बरामदगी थी दो संदेहास्पद डायरियां.
एसके जैन की डायरी में तत्कालीन केंद्र सरकार के तीन कैबिनेट मंत्री सहित केंद्र के कुल सात मंत्रियों, कांग्रेस के कई बड़े नेताओं, दो राज्यपालों और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी का नाम भी शामिल था. इस लिस्ट में 55 नेता, 15 बड़े नौकरशाह और एसके जैन के 22 सहयोगियों को मिलाकर कुल 92 नामों की पहचान हुई थी. अन्य 23 लोगों की पहचान नहीं हो पाई थी. डायरी में लिखे नामों के आगे राशि-संख्या लिखी थी. इसमें लालकृष्ण आडवाणी पर 60 लाख रुपए, बलराम जाखड़ पर 83 लाख, विद्याचरण शुक्ल पर 80 लाख, कमलनाथ पर 22 लाख, माधवराव सिंधिया पर 1 करोड़, राजीव गांधी पर 2 करोड़, शरद यादव पर 5 लाख, प्रणब मुखर्जी पर 10 लाख, एआर अंतुले पर 10 लाख, चिमन भाई पटेल पर 2 करोड़, एनडी तिवारी पर 25 लाख, राजेश पायलट पर 10 लाख और मदन लाल खुराना पर 3 लाख रुपए लिखे थे. सीबीआई ने चार साल बाद मार्च 1995 में एसके जैन को गिरफ्तार किया. जैन ने अपने लिखित बयान में कहा कि उसने वर्ष 1991 में मार्च से मई महीने के बीच राजीव गांधी को चार करोड़ रुपए पहुंचाए. इसमें से दो करोड़ रुपए राजीव गांधी के निजी सचिव जॉर्ज के लिए थे. इसके अलावा दो करोड़ रुपए सीताराम केसरी को भी दिए गए, जो उस समय कांग्रेस के कोषाध्यक्ष थे. इसी तरह उसने नरसिम्हा राव और चंद्रास्वामी को भी साढ़े तीन करोड़ रुपए देने की बात कबूली थी. एसके जैन ने यह भी स्वीकार किया था कि इटली के हथियार डीलर क्वात्रोची के जरिए वह हवाला कारोबारी आमिर भाई के सम्पर्क में आया था. आप आश्चर्य करेंगे कि गिरफ्तारी के 20 दिन बाद ही एसके जैन को जमानत पर रिहा कर दिया गया था.
गिरोहबाजों के तार कितने लंबे रहे हैं इसका अहसास आपको इस बात से ही लग जाएगा कि जिस अशफाक और शहाबुद्दीन की निशानदेही पर इतना बड़ा मामला खुला, उन दोनों का नाम चार्जशीट से गायब कर दिया गया. एसके जैन की भी गिरफ्तारी मामला उजागर होने के चार साल बाद की गई थी. सीबीआई ने 16 जनवरी 1996 को आधी-अधूरी चार्जशीट दाखिल की. 8 अप्रैल 1997 को दिल्ली हाईकोर्ट के जज मोहम्मद शमीम ने लालकृष्ण आडवाणी और वीसी शुक्ला को बाइज्जत बरी कर दिया, धीरे-धीरे सारे नेता बेदाग निकल गए. कोर्ट ने भी जैन की डायरी को ‘बुक ऑफ़ अकाउंट’ में लेने से इन्कार कर दिया. कोर्ट ने इसे सबूत नहीं माना. सीबीआई ने भी सब कुछ ढीला छोड़ दिया. विडंबना यह है कि जैन हवाला डायरी मामले से यह खुलासा हुआ था कि विदेश से जिस फंड के द्वारा राजनीतिक दलों को पैसा भेजा गया था उसी चैनल के जरिए आंतकी संगठनों को भी फंड भेजा गया था. इस घोटाले में 115 राजनेता और कारोबारी के साथ-साथ कई नौकरशाह शामिल थे. लेकिन सब सबूत के अभाव में बचकर निकल गए.
लिहाजा, हमें यह समझ लेना जरूरी है कि उस बार की तरह इस बार भी कुछ नहीं होने वाला. हवाला या मनी लॉन्ड्रिंग के बूते ही राजनीतिक दलों का धंधा चलता है. चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, आम आदमी पार्टी हो या समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी या कोई अन्य. राजनीतिक दलों पर हवाला के पैसे के लेन-देन के आरोप लगते रहे हैं और वे अपने सफेद वस्त्र से धूल झाड़ते रहे हैं. मनी लॉन्ड्रिंग मामले में करीब-करीब सारे राजनीतिक दल कमोबेश इन्वॉल्व हैं, लेकिन बताइये कौन नेता पकड़ा जाता है? आपके सामने बस एक उदाहरण है झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा का. आरोप है कि मधु कोड़ा ने हजारों करोड़ रुपए बटोरे और उसे हवाला के जरिए विदेश भेजा. लेकिन आप यह भी जानते चलें कि मधु कोड़ा बड़े नेताओं का एक कारगर मोहरा थे, जिसे सामने रख कर काला धन बाहर भेजा गया और मोहरा जेल चला गया.

Tuesday 18 July 2017

योगी किसकी सरकार चला रहे हैं? भाजपा की या सपा की?

प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार में भी वही सब चल रहा है जो पूर्ववर्ती सपा सरकार में चल रहा था या उसके पहले बसपा सरकार में चल रहा था. यानि, सिफारिशवाद, जातिवाद, गुटवाद और रिश्वतवाद योगी सरकार में भी उतनी ही तेज गति से चल रहा है. भाजपाइयों को बहुत दिनों के बाद सत्ता मिली है तो घूसखोरी की स्पीड अधिक है और इसमें कोई लोकलाज भी नहीं बरती जा रही है. योगी सरकार के सौ दिन में सबसे बड़ी नियुक्ति विभिन्न स्तर के सरकारी वकीलों की हुई और इसमें पैरवी और घूसखोरी जम कर चली. सरकार बनने के बाद ही सत्ता गलियारे में यह हवा फैलाई गई कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के सारे निर्णय संगठन के स्तर पर होंगे. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रदेशभर की इकाइयां अपने-अपने क्षेत्र से योग्य वकीलों की सूची संगठन मंत्री सुनील बंसल तक भेजेंगी और नियुक्ति का आखिरी फैसला सुनील बंसल ही लेंगे. इस हवा का प्रसारण बड़े ही सुनियोजित तरीके से हुआ और नतीजा यह हुआ कि सुनील बंसल की दुकान जम गई. उत्तर प्रदेश और दिल्ली तक के वकीलों का लखनऊ में जमघट लगने लगा और बंसल का ‘राग-दरबारी’ गाने लगा. संघ के पदाधिकारियों ने भी आनन-फानन लिस्ट बनाने का काम शुरू कर दिया और जिले-जिले से वकीलों की लिस्ट संगठन मंत्री के समक्ष गिरने लगी. भाजपा के प्रदेश मुख्यालय की पहली मंजिल पर बना सुनील बंसल का आलीशान कक्ष पैरवीकारों और पूंजीकारों से सजने लगा और आम लोगों व कार्यकर्ताओं के लिए दरवाजा बंद हो गया. बंसल ने भी ऐसा ही ‘एक्ट’ करना शुरू किया कि जैसे वे ही प्रदेश के असली मुख्यमंत्री हैं, योगी तो बस आदेशपालक हैं. जब मुख्यमंत्री ही ढक्कन तो मंत्री की क्या बिसात! बृजेश पाठक उत्तर प्रदेश सरकार के कानून मंत्री हैं. उनसे पूछिए कि विभिन्न स्तर के सरकारी वकीलों की एक भी नियुक्ति क्या वे कर पाए हैं? पाठक कहेंगे, ‘नो-कमेंट’... और हम पूरी गंभीरता से कहेंगे कि प्रदेश के कानून मंत्री को मालूम ही नहीं था कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति किनकी हुई और कैसे हुई.
उत्तर प्रदेश में सरकारी वकीलों की नियुक्ति ने भाजपा की चारित्रिक असलियत को बेनकाब कर दिया है. इसका ठीकरा आखिरकार योगी आदित्यनाथ पर ही फूटना है. बंसल तो आराम से राजस्थान निकल लेंगे. वे इस बात का जवाब भी नहीं देंगे कि उन्होंने सैकड़ों सरकारी वकीलों की नियुक्ति के लिए समाजवादी पार्टी से जुड़े वकीलों को रिकोमेंड करते समय भारतीय जनता पार्टी के किस हित का ध्यान रखा! सपाई वकीलों ने बंसल को किस तरह प्रभावित किया होगा, इसे समझना कोई पहेली नहीं है. भारत की मुख्य-धारा का जिन लोगों को भान होगा, वे प्रभाव के समुचित फ्रेम पर बंसल को कस कर देख सकते हैं और आसानी से समझ सकते हैं. भाजपाई हितों के संरक्षण के लिए प्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री बनाए गए और सत्ताई शक्ति से सुशोभित किए गए सुनील बंसल की सिफारिश पर तकरीबन सौ ऐसे वकीलों की नियुक्ति की गई जो सपाई हैं. इनमें से 50 वकीलों की तो घोषित सपाई पृष्ठभूमि है. बंसल ने संघ की लिस्ट की ऐसी-तैसी करके रख दी. विभिन्न स्तर के सरकारी वकीलों की नियुक्ति औपचारिक तौर पर सरकारी मुहर से होनी थी, लिहाजा इन नियुक्तियों का औपचारिक ‘श्रेय’ तो योगी सरकार को ही मिला. यह भी विचित्र ही है कि सरकारी वकीलों की लिस्ट में जजों के बेटे और नाते-रिश्तेदारों को शामिल कर विधि विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय जज बन गए और बड़े नियोजित तरीके से मंच से पटाक्षेप कर गए. हैरत यह है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को यह सब दिख क्यों नहीं रहा!
बहरहाल, योगी सरकार ने सपा सरकार में मंत्री रहे शिवाकांत ओझा के बेटे सत्यांशु ओझा समेत तमाम सपाई सरकारी वकीलों को फिर से नियुक्त कर दिया. योगी सरकार ने दो सौ से अधिक सरकारी वकील नियुक्त किए हैं, जिनमें तकरीबन सौ वकील सपाई हैं. इनके अलावा 79 नाम ऐसे भी हैं जिनके बारे में कोई अधिकृत जानकारी ही नहीं है कि वे नाम किसके कहने पर सूची में जोड़े गए. इसका जवाब भी सुनील बंसल को ही देना चाहिए. योगी सरकार ने सपा शासन के दौरान नियुक्त किए गए सभी मुख्य अधिवक्ताओं, अपर मुख्य अधिवक्ताओं, स्थायी अधिवक्ताओं और ब्रीफ होल्डरों को हटाया और इन पदों पर फिर अधिकांश सपाई अधिवक्ताओं को ही नियुक्त कर दिया. यही सपाई वकील अब भाजपा सरकार के कानूनी मसले हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हल करेंगे. पिछले दिनों प्रदेश के न्याय विभाग ने पुरानों को हटाने और नयों को नियुक्त करने के सरकारी प्रहसन का आधिकारिक ब्यौरा जारी किया. इसके मुताबिक इलाहाबाद हाईकोर्ट में चार मुख्य स्थायी अधिवक्ता और 25 अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ताओं की नियुक्ति की गई. इसके अलावा हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में चार मुख्य स्थायी अधिवक्ता और 21 अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता नियुक्त किए गए. यह तैनाती एक वर्ष के लिए की गई है.
विकास चंद्र त्रिपाठी, जगन्नाथ मौर्य, डॉ. राजेश्वर त्रिपाठी और ओम प्रकाश शर्मा इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य स्थायी अधिवक्ता बनाए गए. जबकि विपिन चंद्र दीक्षित, इंद्र सेन तोमर, गिरिजेश कुमार त्रिपाठी, अर्चना त्यागी, विजय शंकर मिश्र, रमेश पुंडीर, कृष्ण राज सिंह, अमित कुमार सिंह, सुरेश चंद्र द्विवेदी, प्रणेश दत्त त्रिपाठी, अशोक कुमार, अर्चना सिंह, देवेंद्र कुमार तिवारी, प्रवीण कुमार गिरि, अशोक कुमार गोयल, पंकज राय, संजय गोस्वामी, विवेक शांडिल्य, शशांक शेखर सिंह, सुरेश सिंह, सुभाष राठी, नीरज उपाध्याय, विपिन बिहारी पांडेय, सरिता द्विवेदी और सिद्धार्थ सिंह को इलाहाबाद हाईकोर्ट का अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता नियुक्त किया गया. इसी तरह रमेश पांडेय, श्रीप्रकाश सिंह, विनय भूषण और शैलेंद्र कुमार सिंह लखनऊ खंडपीठ के मुख्य स्थायी अधिवक्ता नियुक्त किए गए. राज बख्श सिंह, नितिन माथुर, शैलेंद्र सिंह चौहान, राम प्रताप सिंह, अमरेंद्र प्रताप सिंह, अनिल कुमार चौबे, रंजना अग्निहोत्री, अमर बहादुर सिंह, आलोक शर्मा, विनोद कुमार शुक्ला, हर गोविंद उपाध्याय, राजेश तिवारी, शिखा सिन्हा, अजय अग्रवाल, राहुल शुक्ला, अभिनव एन. त्रिवेदी, देवेश चंद्र पाठक, पंकज नाथ, कमर हसन रिजवी, सत्यांशु ओझा और विवेक शुक्ला को लखनऊ खंडपीठ का अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता नियुक्त किया गया.
प्रदेश सरकार ने जिन 201 सरकारी वकीलों की नियुक्ति की उनमें करीब 50 वकीलों के सपाई होने की पुष्टि हो चुकी है. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता के पद पर नियुक्त 21 सरकारी वकीलों में सपा सरकार के समय से तैनात अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता राहुल शुक्ला, अभिनव एन. त्रिपाठी, देवेश पाठक, पंकज नाथ, कमर हसन रिजवी, सत्यांशु ओझा और विवेक शुक्ला को योगी सरकार ने भी जारी रखा. स्टैंडिंग काउसिंल के 49 पदों पर भी सपा सरकार के समय से तैनात 15 सरकारी वकीलों को फिर से जारी रखा गया है. इनमें हिमांशु शेखर, शोभित मोहन शुक्ला, नीरज चौरसिया, मनु दीक्षित और केके शुक्ला के नाम प्रमुख हैं. ब्रीफ होल्डर के पद पर नियुक्त हुए 107 सरकारी वकीलों में से 21 सपाई वकीलों को जारी रखा गया है. सरकारी वकीलों की नियुक्ति में जजों के रिश्तेदारों का भी भाजपा सरकार ने खास ध्यान रखा है.
इस नियुक्ति में सपा सरकार के तमाम वकीलों को जगह मिलने और भाजपा समर्थित वकीलों को खारिज किए जाने के कारण वकील समुदाय में काफी नाराजगी है. इन नियुक्तियों पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी कथित तौर पर नाराज है. लेकिन इस नाराजगी का कोई प्रभाव न तो बंसल पर पड़ा है और न योगी सरकार पर. संघ ने प्रदेश के महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह को तलब कर अपनी नाराजगी जताई और इतिश्री कर ली. इस मसले पर संघ ने न तो मुख्यमंत्री से बात की और न प्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री सुनील बंसल से कोई पूछताछ की. नाराज वकीलों ने भी भाजपा के प्रदेश व क्षेत्रीय कार्यालय और संघ के भारती-भवन दफ्तर कर अपनी आपत्ति दर्ज कराई. संघ की ओर से तलब किए गए महाधिवक्ता ने भारती-भवन जाकर इस नियुक्ति में उनका कोई हाथ न होने की कसमें खाईं और उन्होंने संघ पदाधिकारियों के समक्ष यह स्वीकार किया कि सूची बनाने में उनका कोई हाथ नहीं है और न न्याय विभाग ने सूची जारी करने से पहले उनसे कोई राय ही ली. बड़े पैमाने पर सपाई विचारधारा के वकीलों को सरकार द्वारा नियुक्त किए जाने की वजहों का महाधिवक्ता कोई स्पष्ट जवाब नहीं दे सके.
उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ पीठ में 428 सरकारी वकील कार्यरत थे. इनमें करीब सवा सौ वकील फौजदारी (क्रिमिनल साइड) और अन्य सिविल साइड के वकील थे. सरकार ने फौजदारी पक्ष के अपर शासकीय अधिवक्ताओं को छोड़कर अन्य सभी वकीलों को हटा दिया और 201 सरकारी वकीलों की नई सूची जारी कर दी. नई सूची में सपा सरकार में मंत्री रहे शिवाकांत ओझा के पुत्र सत्यांशु ओझा सहित बड़ी संख्या में उन्हीं पुराने सपाई सरकारी वकीलों को फिर से दोहरा दिया जिन्हें सपा के शासनकाल में नियुक्त किया गया था. सपा सरकार में अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता रहे विनय भूषण को प्रोन्नत कर मुख्य स्थायी अधिवक्ता (द्वितीय) बना दिया गया. विनय भूषण जज के भाई होने के कारण भी काफी रुतबा रखते हैं. सपा सरकार में सरकारी वकील के बतौर नियुक्त हुए राहुल शुक्ला, अभिनव एन. त्रिपाठी, देवेशचंद्र पाठक, पंकज नाथ, कमल हसन रिजवी, विवेक शुक्ला, मनु दीक्षित, हिमांशु शेखर, नीरज चौरसिया, आशुतोष सिंह, रणविजय सिंह समेत करीब 50 सपाई सरकारी वकीलों को फिर से सरकारी वकील नियुक्त कर दिया गया. नियुक्त हुए सरकारी वकीलों की सूची में 79 नाम ऐसे भी हैं जिनके बारे में कोई अधिकृत जानकारी नहीं है कि वे कहां से आ टपके.

योगी जी आंखें खोलिए! जो वकील ही नहीं, उन्हें कैसे बना दिया सरकारी वकील!
भाजपा सरकार में सरकारी वकीलों की नियुक्ति सुनियोजित घोटाले से कम नहीं है. वह भी बड़े दुस्साहस से किया गया घोटाला. सरकार ने भी ऐसे लोगों को सरकारी वकील नियुक्त कर दिया है जो आधिकारिक तौर पर वकील ही नहीं हैं. स्पष्ट है कि रिश्वतखोरी और गुटबाजी में सारे नैतिक मापदंडों को ताक पर रख दिया गया. जिन वकीलों को सरकारी वकील बनाया गया, उनमें से कई तथाकथित वकीलों के नाम हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में एडवोकेट ऑन रोल (एओआर) में दर्ज ही नहीं हैं. खबर है कि बगैर एओआर वाले नवनियुक्त सरकारी वकीलों की संख्या भी करीब 50 है. हालांकि शासकीय अधिवक्ता अधिष्ठान ने ऐसे दर्जनभर सरकारी वकीलों को ज्वाइन करने से मना कर दिया है, इनमें गिरीश तिवारी, प्रवीण कुमार शुक्ला, शशि भूषण मिश्र, दिवाकर सिंह, वीरेंद्र तिवारी, दिलीप पाठक जैसे लोगों के नाम शामिल हैं. लेकिन यह ध्यान रखें कि बगैर एओआर वाले वकीलों की संख्या करीब 50 है जिन्हें सरकारी वकील के बतौर नियुक्त किया गया है. फिर यह सवाल सामने है कि केवल दर्जनभर वकीलों को ही ज्वाइन करने से क्यों रोका गया? सनद रहे, हाईकोर्ट में वकालत करने की पहली शर्त ही होती है कि उसका नाम एओआर सूची में दर्ज है या नहीं. मुख्य स्थायी अधिवक्ता रमेश पांडे का कहना है कि महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह के आदेश से बिना एओआर वाले सरकारी वकीलों को फिलहाल ज्वाइन करने से रोक दिया गया है. लेकिन वे यह नहीं बता पाए कि बगैर एओआर वाले सभी नव-नियुक्त सरकारी वकीलों को ज्वाइन करने से रोका गया है कि नहीं. सरकारी वकीलों की नियुक्ति इतनी अफरातफरी में की गई कि एक-एक वकील के नाम कई-कई जगहों पर दर्ज कर दिए गए. पांच सरकारी वकीलों के नाम दो जगह पाए गए हैं. इनमें अनिल कुमार चौबे, प्रत्युश त्रिपाठी, सोमेश सिंह, राजाराम पांडेय और श्याम बहादुर सिंह के नाम दो या दो से अधिक जगह पर दर्ज पाए गए. सूची के पेज नंबर तीन पर ब्रीफ होल्डर (सिविल) की श्रेणी में पांच सरकारी वकीलों के नाम ही गायब पाए गए हैं.

पैरवी-पुत्रों को उपकृत कर प्रमुख सचिव बन गए जज
सरकारी वकीलों की नियुक्ति प्रक्रिया किस स्तर तक अनैतिक रास्ते पर चली कि कार्यरत और रिटायर्ड जजों के बेटों और सगे-सम्बन्धियों को सरकारी वकील की लिस्ट में शामिल कर विधि विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय जज बन गए. यह पुरस्कार रिश्वतखोरी नहीं है तो क्या है! आपको याद दिलाते चलें कि कुछ ही अर्सा पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (अब सुप्रीमकोर्ट में पदस्थापित) डीवाई चंद्रचूड़ ने जजों के बेटों, सालों और अन्य नाते-रिश्तेदारों को जज बनाने की सिफारिश की थी. ‘चौथी दुनिया’ में रिश्तेदारों की पूरी लिस्ट प्रकाशित होने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने इसका संज्ञान लिया और जजों की नियुक्ति रोक दी गई. सरकारी वकीलों की नियुक्ति में फिर वही धंधा अपनाया गया, लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस पर ध्यान तक नहीं दिया. प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय इस उपकार के रिश्वती-एवज में जज बना दिए गए. जज बनाने वाली सिफारिशी लिस्ट में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी के बेटे नीरज त्रिपाठी का नाम भी शुमार था, जो पीएमओ के हस्तक्षेप से रुक गया था. अब योगी सरकार ने उन्हीं नीरज त्रिपाठी को इलाहाबाद हाईकोर्ट का अपर महाधिवक्ता बना कर केसरीनाथ त्रिपाठी को उपकृत कर दिया है. सरकारी उपकार प्राप्त करने में इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले भी शामिल हैं, जिनके बेटे करन दिलीप भोसले को अखिलेश सरकार ने नियुक्त किया था और योगी सरकार ने भी उसे जारी रखने की ‘अनुकंपा’ कर दी. करन भोसले महाराष्ट्र और गोवा हाईकोर्ट के रजिस्टर्ड वकील हैं और वहां की बार काउंसिल के उपाध्यक्ष भी रहे हैं. इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के जज अशोक भूषण के भाई विनय भूषण को भी चीफ स्टैंडिंग काउंसिल नियुक्त किया गया है. ऐसे उदाहरण कई हैं.
वरिष्ठ अधिवक्ता सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति प्रक्रिया में विधि विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय द्वारा की गई करतूतों का पूरा चिट्ठा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भेजा है. इसकी प्रतिलिपि इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भी भेजी गई है. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भेजे गए ज्ञापन में सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव ने साफ-साफ लिखा है कि विधि विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय पद का दुरुपयोग कर और विधाई संस्थाओं को अनुचित लाभ देकर हाईकोर्ट के जज बने हैं. पांडेय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट और लखनऊ बेंच में सरकारी वकीलों की नियुक्ति को अपनी तरक्की का जरिया बनाया. नियुक्ति प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मानक की भी पूरी तरह अनदेखी की गई. ज्ञापन में लिखा गया है कि प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय ने जानते हुए भी 49 ऐसे वकीलों को सरकारी वकील की नियुक्ति लिस्ट में रखा जिनका नाम एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड में दर्ज नहीं है और वे हाईकोर्ट में वकालत करने के लिए प्रतिबंधित हैं. रंगनाथ पांडेय ने खुद जज बनने के लिए सारी सीमाएं लांघीं. वरिष्ठ अधिवक्ता सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव ने लिखा है कि हाईकोर्ट में सरकारी पक्ष की पैरवी के लिए नियुक्त किए गए सरकारी वकीलों की लिस्ट में रंगनाथ पांडेय ने अनुचित लाभ लेने के इरादे से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के रिश्तेदारों को शामिल किया. अधिकाधिक लोगों को उपकृत कर उसका लाभ लेने के लिए रंगनाथ पांडेय ने विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से जुड़े वकीलों और पदाधिकारियों को सरकारी वकील बनवा दिया और उसके एवज में जज का पद पा लिया. सरकारी वकीलों की लिस्ट में ऐसे भी कई वकील हैं जो प्रैक्टिसिंग वकील नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस मामले में सीधा हस्तक्षेप कर सरकारी वकीलों की विवादास्पद नियुक्ति प्रक्रिया को रोकने की अपील की गई है, ताकि न्याय प्रणाली की शुचिता बरकरार रह सके.

नियुक्ति प्रक्रिया पर उठाया सवाल, रंजना समेत कई ने इस्तीफा दिया
राज्य सरकार द्वारा सपाई वकीलों को बड़े-बड़े सरकारी पदों पर नियुक्त किए जाने और भाजपा और संघ से जुड़े वकीलों की पूरी तरह अनदेखी किए जाने के खिलाफ नव-नियुक्त सरकारी वकील व रामजन्म भूमि मुकदमे से जुड़ी वकील रंजना अग्निहोत्री ने सरकारी वकील के पद से इस्तीफा दे दिया. रंजना अग्निहोत्री ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सीधा प्रहार करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपना इस्तीफा भेजा है. भाजपा की प्रदेश मीडिया प्रभारी रह चुकीं अनीता अग्रवाल ने भी सरकारी वकील के पद पर अपनी ज्वाइनिंग देने से इंकार कर दिया है. अधिवक्ता परिषद की डॉ. दीप्ति त्रिपाठी ने भी परिषद के वकीलों और महिला वकीलों की अनदेखी किए जाने के कारण सरकारी वकील का पद अस्वीकार कर दिया है. रंजना अग्निहोत्री ने कहा कि सपा कार्यकाल के अधिकांश सरकारी वकीलों को फिर से नियुक्त किया जाना भाजपा के प्रतिबद्ध वकीलों के साथ सीधा-सीधा अन्याय है. हाईकोर्ट में प्रैक्टिस न करने वालों को भी सरकारी वकील बना दिया जाना अनैतिकता का चरम है. अनीता अग्रवाल ने कहा कि वे भाजपा से पिछले 30 साल से जुड़ी हैं. उनकी उपेक्षा कर उनसे काफी जूनियर वकीलों को अपर महाधिवक्ता बना दिया गया है. ऐसे में वह स्टैंडिग काउंसिल के पद पर कार्य नहीं कर सकतीं.

यह कैसा ‘सबका साथ, सबका विकास’..?
उत्तर प्रदेश में सरकारी वकीलों की नियुक्ति में भाजपाइयों ने भाजपा के हित को तो धोया ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सूत्र वाक्य ‘सबका साथ, सबका विकास’ की भी धज्जियां उड़ा दीं. सरकार ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति की जो सूची जारी की उसने भाजपा के चारित्रिक चेहरे के साथ-साथ सैद्धांतिक चेहरे को भी बेनकाब कर दिया. इस नियुक्ति में 15 फीसदी सवर्णों ने 80 फीसदी से अधिक हिस्सा झटक लिया. चार मुख्य स्थायी अधिवक्ताओं में तीन ब्राह्मण और एक ओबीसी हैं. 25 अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ताओं में 12 ब्राह्मण और सात ठाकुर हैं. 103 स्थायी अधिवक्ताओं में 60 ब्राह्मण और 17 ठाकुर हैं. इसी तरह 65 ब्रीफ होल्डर (सिविल) और 114 ब्रीफ होल्डर (फौजदारी) में ब्राह्मणों और ठाकुरों की ही अधिक हिस्सेदारी है.
नव नियुक्त सरकारी वकीलों की सूची में दलितों का नाम न होने से दलित समाज में भी काफी क्षोभ है. अम्बेडकर महासभा ने इस प्रकरण में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और राज्यपाल राम नाईक से सीधा हस्तक्षेप करने की मांग की है और यह अपील की है कि दलितों को भी सरकारी वकील बनाया जाए. अम्बेडकर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. लालजी प्रसाद निर्मल ने कहा कि न्याय विभाग द्वारा 201 सरकारी वकीलों की सूची में अनुसूचित जाति के वकीलों की संख्या महज एक है. उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश आरक्षण अधिनियम-1994 के आधार पर अनुसूचित जाति के सरकारी वकीलों की संख्या 46 होनी चाहिए. महासभा का कहना है कि जब अनुसूचित जाति के सरकारी वकील बनेंगे ही नहीं तो वे जज की कुर्सी तक कैसे पहुंचेंगे! 

Wednesday 5 July 2017

योगी जी! यह घोटाला नहीं दिख रहा आपको..!

प्रभात रंजन दीन
जिस महकमे में हर महीने अरबों रुपए का लेन-देन होता हो, वहां सूद की हेराफेरी से हर महीने करोड़ों रुपए झटके जा सकते हैं. जिस अधिकारी के आदेश पर अरबों रुपए कुछ खास बैंक में जमा होते हों वह अधिकारी उस उपकृत-बैंक से लाखों रुपए की रिश्वत अलग से कमा सकता है. अगर बैंक से कम दर पर सूद लेने का राजीनामा हो जाए, तो चोर-रास्ते से अधिकारी की अतिरिक्त अकूत कमाई हो सकती है. घोटाले का यह नायाब फार्मूला उत्तर प्रदेश ग्राम विकास बैंक का आविष्कार है. यह संस्था भूमि विकास बैंक के नाम से मशहूर है. संक्षिप्त में इसे अब भी एलडीबी ही कहते हैं. लैंड डेवलपमेंट बैंक (एलडीबी) दरअसल नेताओं और नौकरशाहों के संरक्षण में चलने वाले घपले, घोटालों और फर्जीवाड़ों के लिए कुख्यात रहा है. लेकिन इस बार जो घोटाला हम उजागर करने जा रहे हैं वह देश का संभवतः सबसे बड़ा ब्याज-घोटाला साबित हो सकता है. घोटाले का बोझ इतना भारी है कि एलडीबी डूब चुका है, बस उसके बंद होने की औपचारिक घोषणा होनी ही बाकी है.
नेता, नौकरशाह और एलडीबी के अधिकारी मिल कर घपला करते रहे हैं. इस पर कोई रोक नहीं है. अंदरूनी जांच होती है, सीबीआई से जांच की सिफारिशें होती हैं, फिर लीपापोती होती है और घोटाला जारी रहता है. यह इतना विकराल है कि जांच कमेटियां भी हार मान गईं और कहा कि घोटाला इतना भारी और विस्तृत है कि सीबीआई जैसी विशेषज्ञ एजेंसी ही इसकी जांच कर सकती है. लेकिन उन सिफारिशों को सत्ता-व्यवस्था अंगूठा दिखाती रहती है. सहकारिता विभाग की नसों से वाकिफ लोगों का कहना है कि एलडीबी का ब्याज घोटाला पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से हो रहा है, लेकिन सत्ता-व्यवस्था को इसकी कोई फिक्र नहीं है. घोटालों की जांच कराने के बजाय एलडीबी को बंद करने की कोशिशें हो रही हैं. योगी सरकार के सहकारिता मंत्री मुकुट बिहारी वर्मा की एलडीबी के तत्कालीन समाजवादी भ्रष्ट निजाम से खूब छन रही है और वे एलडीबी का अस्तित्व समाप्त कर अरबों-खरबों के घोटाले का हमेशा-हमेशा के लिए पटाक्षेप कर देने पर आतुर हैं. योगी जी भी एलडीबी के तत्कालीन भ्रष्ट निजाम से खूब शिष्टाचारी हो रहे हैं.
एलडीबी के विकराल घोटाले की एक बानगी देखते हुए फिर इसके विस्तार में चलते हैं... वर्ष 2008 के केवल मई महीने का एक उदाहरण हम सैम्पल के तौर पर उठा लेते हैं. इस एक महीने में एलडीबी ने भारतीय स्टेट बैंक और यूपी कोऑपरेटिव बैंक में 01 अरब 72 करोड़ रुपए जमा किए. सूद के बतौर एलडीबी को आधिकारिक तौर पर 02 करोड़ 84 लाख 3 हजार 493 रुपए मिले. लेकिन इसी एक महीने में एलडीबी के सम्बद्ध अधिकारी ने 01 करोड़ 23 लाख 36 हजार 714 रुपए कमा लिए. रुपए जमा कराने के एवज में मिलने वाला कमीशन और कम ब्याज पर रुपए जमा करने के एवज में मिली घूस के करोड़ों रुपए इससे अलग हैं. आप सोचेंगे, कैसे? एलडीबी के भ्रष्ट अधिकारी स्टेट बैंक और यूपी कोऑपरेटिव बैंक के प्रबंधन से अनैतिक करार करते हैं और काफी कम ब्याज पर इतनी भारी रकम उन दो बैंकों में जमा करा देते हैं. इस तरह एलडीबी अधिकारी एक तरफ कम ब्याज के अंतर की कमाई करते हैं और दूसरी तरफ दोनों बैंकों से अलग से भारी कमीशन और घूस भी खाते हैं. किसानों को ऋण देने के लिए नाबार्ड (राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक) से एलडीबी को मिलने वाला धन करीब आठ प्रतिशत के ब्याज दर पर प्राप्त होता है, लेकिन एलडीबी के कमीशनखोर अधिकारी उसी राशि को कम ब्याज पर बैंक में जमा कराते हैं. यानि, एलडीबी को ब्याज का नुकसान अलग से उठाना पड़ रहा है. इसका ब्यौरा भी देखते चलें. 02 मई 2008 को स्टेट बैंक में 10 करोड़ रुपए 3.50 प्रतिशत के ब्याज पर 11 दिनों के लिए फिक्स्ड डिपॉडिट खाते में जमा किए जाते हैं. उसी दिन उसी बैंक में छह अलग-अलग खातों में सात-सात करोड़ रुपए यानि 42 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज पर क्रमशः 16 दिन, 26 दिन, 31 दिन, 39 दिन, 47 दिन और 54 दिन के लिए फिक्स किए जाते हैं. दो मई को ही उसी बैंक में आठ करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत ब्याज पर 61 दिन के लिए फिक्स किए जाते हैं. उसी तारीख को उसी बैंक में एलडीबी की तरफ से 90 करोड़ रुपए जमा होते हैं, जिसे 7.5 प्रतिशत ब्याज दर पर 91 दिनों के लिए फिक्स किया जाता है. हफ्तेभर बाद नौ मई को यूपी कोऑपरेटिव बैंक में छह अलग-अलग खातों में तीन-तीन करोड़ रुपए यानि 18 करोड़ रुपए क्रमशः 3.75 प्रतिशत ब्याज दर पर नौ दिन के लिए, 5 प्रतिशत ब्याज दर पर 19 दिन के लिए, 5 प्रतिशत ब्याज दर पर 24 दिन के लिए, 5 प्रतिशत ब्याज दर पर 32 दिन के लिए, 5 प्रतिशत ब्याज दर पर 40 दिन के लिए और 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 47 दिन के लिए फिक्स किए जाते हैं. उसी दिन 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर कोऑपरेटिव बैंक में 54 दिनों के लिए चार करोड़ रुपए भी फिक्स किए जाते हैं. दो बैंकों में महज दो दिन में कुल एक अरब 72 करोड़ रुपए जमा होते हैं, लेकिन इस पर एलडीबी को महज दो करोड़ 84 लाख तीन हजार 493 रुपए ही ब्याज के बतौर मिल पाते हैं. जबकि 11 प्रतिशत ब्याज की दर से यह राशि तीन करोड़, 31 लाख 80 हजार 206 रुपए होनी चाहिए थी. यह बीच की रकम एलडीबी के भ्रष्ट अधिकारियों ने डकार ली. दस्तावेज बताते हैं कि 02 मई 2008 से 29 जून 2009 के बीच नाबार्ड से प्राप्त धनराशि को कम ब्याज पर विनियोजित करने से 08 करोड़ 96 लाख 754 रुपए से अधिक का नुकसान पहुंचा.
एक वर्ष (2007-08) का एलडीबी का नुकसान देखें तो आपको हैरत होगी. उस वित्तीय वर्ष का बैलेंस शीट बताता है कि एलडीबी को 02 अरब 80 करोड़ 26 लाख 90 हजार 444 रुपए का नुकसान हुआ. एक ईमानदार अफसर कहते हैं कि घपले और घोटालों की बुनियाद पर खड़ा एलडीबी जाने कितने नेताओं-नौकरशाहों की आर्थिक बुनियाद मजबूत करता रहा है. यह जो आपने एक उदाहरण देखा, इससे आपको पता चला कि एलडीबी के भ्रष्ट अधिकारी कितनी निपुणता और कितनी स्पीड से अवैध कमाई करते रहे हैं और नेताओं को कमवाते रहे हैं. ऐसे ढेर सारे आंकड़े और दस्तावेज ‘चौथी दुनिया’ के पास हैं जो भीषण ब्याज-घोटाले का पर्दाफाश करते हैं. आगे भी हम इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे. किसानों को ऋण देने के लिए नाबार्ड की तरफ से भारी धनराशि आठ फीसदी ब्याज पर दी जाती है और उस धनराशि को पूरी बेशर्मी से लेकिन बड़े ही सुनियोजित तरीके से कम ब्याज पर देकर अंधाधुंध कमाई होती रहती है. एलडीबी का घाटा बढ़ता है तो बढ़ता रहे, एलडीबी की गैर-उत्पादक आस्तियां (एनपीए) बढ़ती हैं तो बढ़ती रहें, क्या फर्क पड़ता है. एलडीबी की गैर-उत्पादक आस्तियां आज उत्पादक आस्तियों के सिर चढ़ कर बोल रही हैं. राष्ट्रीयकृत (नेशनलाइज्ड) बैंकों का एनपीए बढ़ने पर खाई को ढंकने के लिए केंद्र सरकार देश में नोटबंदी लागू कर देती है. लेकिन एलडीबी का बढ़ता एनपीए नेताओं-नौकरशाहों की अकूत कमाई का थर्मामीटर मीटर माना जाता है. जिस बैंक का एनपीए 74 फीसदी तक पहुंच जाए तो उस संस्था का क्या हाल होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है.
सत्ता पर बैठे नेता और नौकरशाह मिल बैठ कर घोटालों की किस तरह लीपापोती करते हैं, उसे जानना भी कम रोचक नहीं है. जो ब्याज घोटाला पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से लगातार चल रहा था, उसका भांडा एलडीबी मुख्यालय के महाप्रबंधक अशोक कुमार द्विवेदी के खिलाफ आई एक शिकायत से फूटा. शिकायत सही अधिकारी के हाथ लग गई और उसकी जांच करा दी गई. इस जांच से ही भारी-भरकम घोटाले की परतें उधड़ने लगीं. लेकिन इस जांच से यह भी भेद खुल गया कि महाप्रबंधक द्विवेदी के खिलाफ जांच करने वाली कमेटी के सदस्य भी उस भीषण घोटाले में लिप्त हैं. घोटाला निकला नाबार्ड की तरफ से मिलने वाली हजारों करोड़ रुपए की विशाल धनराशि को बैंक में जमा करने के एवज में कमीशन खाने का. कमीशन खाने के चक्कर में घोटालेबाज अधिकारियों ने नियमों को पूरी तरह ताक पर रख दिया. यह भी धयान नहीं रखा कि नाबार्ड से जितने प्रतिशत ब्याज पर रुपए लिए, बैंक में उससे अधिक के ब्याज दर पर रुपए रखे जाएं. आश्चर्य है कि घोटालेबाज अधिकारी अरबों रुपए की धनराशि महज चार से पांच प्रतिशत के ब्याज पर स्टेट बैंक और यूपी कोऑपरेटिव बैंक में जमा कराते रहे और उन बैंकों से करोड़ों रुपए कमीशन और घूस खाते रहे. जांच करने वाली कमेटी में मुख्य महाप्रबंधक (प्रशासन) एसके त्रिपाठी, सहायक महाप्रबंधक राम प्रकाश और सहायक महाप्रबंधक राजमणि पांडेय शामिल थे. कमेटी ने मामले की जांच किसी विशेषज्ञ एजेंसी से कराने की संस्तुति की. इस जांच कमेटी ने अनियमितताएं तो बहुत सारी पकड़ीं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण था नाबार्ड से आठ प्रतिशत से अधिक ब्याज दर पर मिलने बड़ी धनराशियों का अत्यंत कम ब्याज दर पर बैंकों में जमा कराया जाना. इस धंधे से अधिकारियों ने खूब अवैध धन कमाया और सरकारी संस्था को भीषण घाटे में झोंक दिया. कमेटी ने पाया कि भ्रष्ट अधिकारियों ने महज एक साल की अवधि में 08 करोड़ 96 लाख 754 रुपए का घपला किया. जांच कमेटी ने केवल एक दिन (26 जून 2008) का नमूना उठा कर उसकी सूक्ष्म जांच की तो पता चला कि इस एक दिन में क्रमशः 02 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 47 दिनों के लिए, 2.75 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर 47 दिनों के लिए, 02 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत ब्याज दर पर 54 दिनों के लिए, 04 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 54 दिनों के लिए, 02 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 61 दिनों के लिए, 04 करोड़ रुपए 2.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर 61 दिनों के लिए, 02 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 69 दिनों के लिए, 04 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर 69 दिनों के लिए, 02 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 77 दिनों के लिए और इसी तारीख को 04 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर 77 दिनों के लिए अपने एक ‘पसंदीदा’ बैंक में जमा करा दिए. उस एक दिन में कुल 100.73 करोड़ रुपए कम ब्याज पर अपने ‘मनचाहे’ बैंकों में जमा कराए गए. इसी तरह 14 फरवरी 2008 को एक ही दिन में 185.99 करोड़ रुपए कम ब्याज दर पर जमा कराए गए. यह धनराशि नाबार्ड से 8.5 प्रतिशत के ब्याज दर मिली थी. जांच कमेटी ने यह सवाल भी पूछा कि जब ऋण वितरण 24 मार्च 2008 को करना था तो इतनी बड़ी धनराशि फरवरी महीने में क्यों मंगवाई गई और करोड़ों का नुकसान क्यों कराया गया? लेकिन इन सवालों का आज तक कोई जवाब नहीं मिल पाया. एक दिन में कितनी तीव्र गति से कमाई की जा सकती है उसका बड़ा उदाहरण आप ऊपर भी देख चुके हैं. जांच कमेटी ने यह माना है कि ऋण वितरण की आवश्यकता के अनुरूप नाबार्ड से धनराशि मंगाई गई होती और लेखा अनुभाग द्वारा अपने खाते में उपलब्ध धनराशि का विनियोजन योजनाबद्ध तरीके से किया गया होता तो एलडीबी को इतना भारी नुकसान नहीं पहुंचता. स्पष्ट है कि नाबार्ड से भारी भरकम राशि मंगा कर उसे बैंक में कम ब्याज पर रख कर अकूत कमाई होती रही है. कमेटी ने साफ तौर पर कहा कि खुले बाजार में उपलब्ध ब्याज की प्रतिस्पर्धात्मक (कम्पीटीटिव) दर प्राप्त कर धन का विनियोजन नहीं किया गया, बल्कि भारतीय स्टेट बैंक और यूपी कोऑपरेटिव बैंक को चुन कर उनमें बहुत कम ब्याज पर बड़ी-बड़ी धनराशियां जमा की जाती रहीं. कमेटी ने खातों में गलतियों और अनियमितताओं का अंबार पाया.
एक शिकायतनामे की जांच में ब्याज घोटाला पकड़ में आने के बाद एलडीबी के तत्कालीन प्रबंध निदेशक नवल किशोर ने स्टेट बैंक और यूपी कोऑपरेटिव बैंक से धनराशि निकाल कर उसे इलाहाबाद बैंक और पंजाब नेशनल बैंक को 11 फीसदी ब्याज पर ट्रांसफर कर दिया. नवल किशोर ने इसके पहले तकरीबन सारे राष्ट्रीयकृत बैंकों को बुलाकर इतनी बड़ी धनराशि के ब्याज को लेकर रेट मांगी और 11 प्रतिशत ब्याज देने पर राजी हुए इलाहाबाद बैंक और पंजाब नेशनल बैंक में धनराशि ट्रांसफर कर दी. इस त्वरित कदम से एलडीबी को करीब एक करोड़ रुपए का त्वरित फायदा पहुंचा. और इस प्रकरण से प्रथम द्रष्टया हजारों करोड़ की धनराशि को बैंक में जमा करने के एवज में कमीशन खाने का घोटाला आधिकारिक तौर पर प्रमाणित हो गया. एमडी के इस कदम से बौखलाए स्टेट बैंक ने शासन के समक्ष विरोध जताया, लेकिन मुख्य सचिव ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया. इसका नतीजा यह निकला कि घोटालेबाजों और सत्ताधारी नेता ने नवल किशोर को ही तमाम षडयंत्रों में फंसाना शुरू कर दिया. उनका तबादला किया गया, झूठे मुकदमे दर्ज कराए गए, गिरफ्तार कराया गया और सारे तिकड़म रच कर उन्हें परिदृश्य से बाहर कर दिया गया. बहरहाल, यह सड़े हुए सिस्टम की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी.
एलडीबी के दस्तावेजों में इस संवाददाता को एक और अध्याय मिला जो वर्ष 2008 से वर्ष 2010 के बीच भारी ब्याज घोटाले की ओर ध्यान दिलाता है. इसके मुताबिक 02 मई 2008 को एक और ट्रांजैक्शन हुआ था, जिसे अलग की फाइल में दबा कर रख दिया गया था. दो मई 2008 को हुए बड़े ट्रांजैक्शन का हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं. उसके अतिरिक्त भी उसी तारीख को 7.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर 90 करोड़ रुपए 56 दिनों के लिए बैंक में डाले गए थे. जबकि यह राशि नाबार्ड से 8.5 प्रतिशत ब्याज दर पर मिली थी. फिर 16 अप्रैल 2009 को 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर 88.50 करोड़ रुपए 72 दिनों के लिए बैंक में डाले गए, जो नाबार्ड से 8.5 प्रतिशत के ब्याज पर मिले थे. 29 जनवरी 2010 को 48 करोड़ रुपए 6 प्रतिशत ब्याज दर पर 57 दिनों के लिए बैंक में डाले गए, जो नाबार्ड से 7.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. फिर उसी दिन 47 करोड़ रुपए 5 प्रतिशत ब्याज दर पर 57 दिनों के लिए बैंक में रखे गए, जो नाबार्ड से 7.5 प्रतिशत ब्याज दर पर मिले थे. 26 फरवरी 2010 को 50 करोड़ रुपए महज 4.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर 29 दिनों के लिए बैंक में जमा किए गए, जो नाबार्ड से 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर प्राप्त हुए थे. फिर उसी दिन 36.40 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर 29 दिनों के लिए बैंक में जमा किए गए, जो नाबार्ड से 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. वर्ष 2008, 2009 और 2010 के महज चार दिनों में कुल 359.90 करोड़ रुपए बैंक में जमा हुए, जिसमें एलडीबी को 11 फीसदी ब्याज के हिसाब से 5 करोड़ 82 लाख 75 हजार 403 रुपए मिलते, लेकिन कम ब्याज पर देने के कारण एलडीबी को महज 3 करोड़ 40 लाख 49 हजार 785 रुपए ही ब्याज के बतौर प्राप्त हुए. जबकि उसे नाबार्ड को ब्याज की ऊंची दर पर भुगतान करना पड़ा. एलडीबी के भ्रष्ट अधिकारियों ने इन चार दिनों के ट्रांजैक्शन में ही 2 करोड़ 42 लाख 25 हजार 618 रुपए का वारा-न्यारा कर दिया. घोटाले के दस्तावेजों को खंगालने के क्रम में वर्ष 2009 की कुछ और कारगुजारियां देखने को मिलीं. 26 मार्च 2009 को एलडीबी ने 95.30 करोड़ रुपए महज 3.75 से 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में जमा कराए, जबकि नाबार्ड से यह राशि 8.5 प्रतिशत के ब्याज पर मिली थी. 16 अप्रैल 2009 को 88.50 करोड़ रुपए 7 प्रतिशत ब्याज दर पर जमा कराए गए, जो नाबार्ड से साढ़े आठ प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 26 जून 2009 को एल़डीबी ने 247.58 करोड़ रुपए बैंक में जमा कराए और आप आश्चर्य करेंगे कि इतनी बड़ी धनराशि अलग-अलग हिस्सों में बांट कर 1.5 प्रतिशत से लेकर अधिकाधिक 6.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर जमा कराई गई. जबकि नाबार्ड ने यह राशि 8.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर दी थी. एक और कागज दिखा, जिसमें 29 जून 2009, 29 जनवरी 2010 और 26 फरवरी 2010 के लेन-देन का ब्यौरा है. 29 जून ’09 को 52.49 रुपए 5.25 प्रतिशत के बयाज दर पर जमा कराए गए. यह राशि नाबार्ड ने साढ़े आठ प्रतिशत के ब्याज पर दी थी. 29 जनवरी 2010 को एलडीबी ने 95 करोड़ रुपए महज 5 प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में जमा कराए, जो उसे नाबार्ड से साढ़े सात प्रतिशत के ब्याज पर मिला था. 26 फरवरी 2010 को 128.40 करोड़ रुपए छह हिस्सों में बांट कर मात्र दो से पांच प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में रखे गए जो एलडीबी को नाबार्ड से सात प्रतिशत ब्याज दर पर प्राप्त हुए थे. इससे हुए भारी नुकसान का अंदाजा आप लगा सकते हैं. एलडीबी में बिल्कुल अंधेरगर्दी मची थी. इस सरकारी संस्था को अरबों रुपए का सिलसिलेवार नुकसान पहुंचाया जा रहा था. यह नुकसान भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों को अकूत सम्पत्ति का मालिक बना रहा था.
जैसा हमने ऊपर भी बताया कि एलडीबी में ब्याज घोटाला तीन दशक से भी अधिक समय से लगातार चल रहा है. वर्ष 2003 से लेकर वर्ष 2008 के बीच का भी संक्षिप्त जायजा ले लें. 10 नवम्बर 2003 को महज चार प्रतिशत के ब्याज दर पर 108 करोड़ रुपए जमा कराए गए थे, जो नाबार्ड से 6.5 से 8.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 15 दिसम्बर 2003 को एलडीबी ने चार प्रतिशत के ब्याज दर पर 121 करोड़ रुपए बैंक में जमा किए जो उसे नाबार्ड से 7.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 23 जनवरी 2004 को महज चार प्रतिशत ब्याज दर पर 70 करोड़ रुपए बैंक जमा कराए गए जो नाबार्ड ने 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर दिए थे. एक मार्च 2004 को 40 करोड़ रुपए चार प्रतिशत के ब्याज दर जमा हुए जो नाबार्ड से 6.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 25 मार्च 2004 को 150 करोड़ रुपए महज 4.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में जमा कराए गए. यह राशि नाबार्ड से 6.75 प्रतिशत के ब्याज पर मिली थी. 29 मार्च 2004 को 107 करोड़ रुपए मात्र 4.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर जमा कराए गए जो नाबार्ड ने 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर दिए थे. 29 जून 2004 को 113 करोड़ रुपए 4.5 प्रतिशत ब्याज दर पर जमा कराए गए, जो नाबार्ड ने 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर दिए थे. 24 जनवरी 2005 को 242 करोड़ रुपए चार से साढ़े चार प्रतिशत के ब्याज दर पर जमा कराए गए, जिसे नाबार्ड ने 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर दिया था. 28 फरवरी 2005 को 114 करोड़ रुपए चार प्रतिशत के ब्याज पर जमा हुए जो नाबार्ड से 6.75 प्रतिशत ब्याज दर पर मिले थे. 20 जून 2005 को 210 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में जमा कराए गए, जबकि नाबार्ड से उक्त राशि 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिली थी. 27 जून 2005 को 63 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत ब्याज दर पर जमा कराए गए जो नाबार्ड से 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 17 मार्च 2006 को 124 करोड़ रुपए 5 प्रतिशत ब्याज दर पर बैंक में जमा किए गए, जो नाबार्ड से 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 29 जून 2006 को 151 करोड़ रुपए 6.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर जमा हुए जो नाबार्ड से 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 06 फरवरी 2007 को 163.01 करोड़ रुपए पांच से लेकर छह प्रतिशत के ब्याज दर पर जमा किए गए थे, जो नाबार्ड से 7.25 प्रतिशत के दर पर मिले थे. वर्ष 2007 और 2008 के सात दिनों (2007 के 6 फरवरी, 1 मार्च, 21 जून, 26 जून और 2008 के 14 फरवरी व 26 मार्च) में हुए 651.23 करोड़ रुपए के 18 डिपॉजिट्स में से केवल तीन ऐसे डिपॉजिट दिखे, जिसे एलडीबी ने 9 प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में जमा किया.
सहकारिता विभाग के तत्कालीन प्रमुख सचिव सह निबंधक संजय अग्रवाल ने सहकारिता विभाग के वित्तीय सलाहकार और चार्टर्ड एकाउंटेंट पीके अग्रवाल से ब्याज घोटाले की जांच की औपचारिकता कराई थी. पीके अग्रवाल ने सैम्पल के रूप में एक छोटी अवधि की जांच की और उसमें करोड़ों का घोटाला पकड़ा. उन्होंने अपनी जांच रिपोर्ट में घोटाले की आधिकारिक पुष्टि की और कहा कि पूर्ण अवधि की जांच कराई जाए तो केवल ब्याज के नुकसान की राशि ही अरबों में पहुंच जाएगी. कमीशन और रिश्वत खाने की राशि इससे अलग होगी. प्रबंध निदेशक की कमेटी ने एक साल की अवधि में आठ करोड़ 96 लाख 61 हजार 754 रुपए की कमीशनखोरी पकड़ी थी. जांच रिपोर्ट के आधार पर सहकारिता विभाग के निबंधक ने दोषियों के खिलाफ तत्काल प्रभाव से कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दिया. उन्होंने अपर निबंधक ओंकार यादव को एलडीबी के सात दोषी अधिकारियों; मुख्य महाप्रबंधक (वित्त) आरके दीक्षित, उप महाप्रबंधक (लेखा) अशोक कुमार द्विवेदी, उप महाप्रबंधक (लेखा) एससी बिष्ट, सहायक महाप्रबंधक (लेखा) सत्यनारायण चौरसिया, सहायक महाप्रबंधक (लेखा) अनिल कुमार पांडेय, सहायक महाप्रबंधक (लेखा) सुभाष चंद्र और सहायक महाप्रबंधक (लेखा) धर्मेंद्र कुमार सिंह के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने की जिम्मेदारी दी. लेकिन सत्ता-संरक्षित ओंकार यादव ने शासन का वह निर्देश दबा दिया. ओंकार यादव द्वारा कोई कार्रवाई नहीं किए जाने पर अपर निबंधक अशोक कुमार माथुर को इसका जिम्मा दिया गया, लेकिन माथुर ने भी कुछ नहीं किया. फिर अतिरिक्त निबंधक और भंडारागार निगम के एमडी भूपेंद्र बिश्नोई को कार्रवाई शुरू करने की जिम्मेदारी दी गई. बिश्नोई ने घोटाले के दोषियों पर कार्रवाई करने के बजाय सारे दोषियों को क्लीनचिट दे दी. फिर यह मामला एलडीबी के चेयरमैन के पास गया तो चेयरमैन भी घोटालेबाजों के पक्ष में खड़े हो गए और घोटाले को हरी झंडी दे दी. इसके बाद घोटाले की फाइलों का ढक्कन बंद कर दिया गया. घोटाला बदस्तूर जारी रहा. आठ प्रतिशत के ब्याज पर लिए गए नाबार्ड के अरबों रुपए को डेढ़ प्रतिशत से सेकर पांच-छह प्रतिशत ब्याज पर बैंक में रखने से जो सरकार को नुकसान हुआ और कम ब्याज पर रुपए देकर जो भारी कमीशन खाया गया उस धनराशि का हिसाब लेने और दोषियों पर कार्रवाई करने के बारे में सरकार ने कोई सुध ही नहीं ली.
सहकारिता विभाग के संयुक्त निबंधक डीके शुक्ल ने घोटाले के दोषियों पर दायित्व (लायबिलिटी) निर्धारित करने के लिए जिला सहायक निबंधक रविकांत सिंह, सहकारी निरीक्षक एमडी द्विवेदी और बीएल गुप्ता को अधिकृत किया था. इस जांच टीम ने भी एक छोटी अवधि की जांच की और 10 करोड़ 22 लाख 90 हजार 486 रुपए का नुकसान पकड़ा. रविकांत सिंह ने अपनी जांच रिपोर्ट में लिखा कि कम अवधि में करीब 11 करोड़ रुपए का घोटाला किया गया तो लंबी अवधि के दरम्यान कितना घोटाला किया गया होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है. सिंह ने लिखा है कि पूरी अवधि की जांच संभव नहीं है. इसकी जांच किसी विशेषज्ञ एजेंसी से ही संभव है.
इस तरह अलग-अलग तीन जांच समितियों ने छोटी-छोटी अवधि का सैम्पल बना कर उसकी जांच की और अलग-अलग करोड़ों रुपए की घपलेबाजी पकड़ी. उधर, नाबार्ड ने भी इतनी बड़ी धनराशि को कम ब्याज पर बैंक में रखने पर औपचारिक तौर पर आपत्ति जताई और अपने स्तर पर मामले की जांच कर बड़े घोटाले की पुष्टि की. नाबार्ड ने भूमि विकास बैंक को धन देना करीब-करीब बंद ही कर दिया. इससे उबारने के लिए अखिलेश सरकार ने एलडीबी का 1650 करोड़ रुपए का ऋण माफ कर दिया. अखिलेश सरकार ने कहा कि किसानों का ऋण माफ किया जा रहा है, जबकि असलियत में एलडीबी का डूबा हुआ धन माफ किया गया था. क्योंकि एलडीबी किसानों को दिया हुआ ऋण पहले ही वसूल कर चुका था. यहां तक कि किसानों को राहत देने के लिए उनके ऋण पर मिलने वाले केंद्रीय अनुदान की राशि भी एलडीबी ने हड़प ली. सवाल है कि जब अखिलेश सरकार ने किसानों का 1650 करोड़ रुपए का ऋण माफ ही कर दिया था तो वर्ष 2012-13 और 2013-14 में ऋण-वसूली की मांग क्यों बढ़ी? उसे तो कम होना चाहिए था? फिर इस दरम्यान नाबार्ड ने एलडीबी को धन देना क्यों बंद कर दिया? घोटाले की परतें उघाड़ने वाले इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है. न सरकार के पास और न एलडीबी के पास. इस महाघोटाले में उत्तर प्रदेश सरकार के अलमबरदार बराबर के शरीक थे, इसलिए मामले की सीबीआई से जांच कराने की पहल कभी नहीं की गई. विडंबना यह है कि एलडीबी के अधिकारी कम ब्याज पर नाबार्ड का धन बैंकों में जमा कर कमीशन खाते रहे, लेकिन किसानों को दिए जाने वाले ऋण पर 14 से 15 प्रतिशत तक ब्याज वसूलते रहे. लघु सिंचाई और पशुपालन के लिए दो लाख रुपए के ऋण पर किसानों से 14 प्रतिशत और दो लाख से अधिक के ऋण पर 14.25 प्रतिशत ब्याज वसूला गया. डेयरी, मधुमक्खी, मत्स्य पालन या ऐसे लघु रोजगार के लिए दो लाख के ऋण पर किसानों से 14.25 प्रतिशत और दो लाख रुपए से अधिक के ऋण पर 14.50 प्रतिशत ब्याज वसूला गया. कमीशन देने वाले बैंकों पर नरम रहने वाले अफसर किसानों से अधिक ब्याज वसूलने में जल्लाद बने रहते हैं.
एलडीबी में ब्याज घोटाला पकड़ में आने के बाद कमर्शियल बैंकों के लिए प्रतिस्पर्धा के रास्ते नीतिगत तरीके से खोल दिए जाने और नाबार्ड के सख्त रुख के कारण इधर ब्याज की लूट तो कम हुई लेकिन फर्जी ऋण बांटने का धंधा तेजी से बढ़ गया. इसका भी एक उदाहरण देखिए, ऋण पाने वाले किसानों की संख्या 23.96 लाख थी, लेकिन फर्जी नाम जोड़ कर इस संख्या को 29.15 लाख कर दिया गया और ऋण-राशि हड़प ली गई. फर्जी ऋण बांटने के ऐसे ढेर सारे उदाहरण हैं. इसके अलावा एलडीबी के अधिकारियों ने किसानों को मिलने वाली सब्सिडी का पैसा भी खाना शुरू कर दिया. बकाया ऋण जमा करने वाले किसानों को यह बताया भी नहीं जाता कि उनके लिए केंद्र सरकार से सब्सिडी आई है. किसान किसी तरह जद्दोजहद करके अपना ऋण जमा करते हैं और एलडीबी अधिकारी उनके लिए आई सब्सिडी का पैसा खाते रहते हैं. इसके अलावा एलडीबी में घूस लेकर ट्रांसफर-पोस्टिंग का धंधा भी खूब चल रहा है. भ्रष्टाचार और अराजकता के कारण एलडीबी का दिवालिया निकल चुका है. कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल रहा. नाबार्ड का पैसा तक जमा नहीं हो रहा. नौबत यहां तक आ गई कि एलडीबी को पिछले महीने कोऑपरेटिव बैंक में जमा रिजर्व फंड से 200 करोड़ रुपए निकाल कर काम चलाना पड़ा. रिजर्व फंड का यह रुपया ओवरड्राफ्ट के जरिए निकाला गया. इसी पैसे से वेतन बांटे गए. रिजर्व फंड से पैसा निकालना मना है. लेकिन एलडीबी में नियम-कानून कौन मानता है!

ब्याज की हेराफेरीः देखिए 13 दिन का नुकसान
एलडीबी के ब्याज घोटाले के छोटे-छोटे सैम्पल निकाल कर उनकी जांच करने वाले अधिकारियों ने भी कहा है कि यह इतना बड़ा और विकराल घोटाला है कि इसकी जांच सीबीआई जैसी विशेषज्ञ एजेंसी ही कर सकती है. अधिक ब्याज दर पर नाबार्ड से मिलने वाली बड़ी रकमों को कम ब्याज दर पर बैंक में फिक्स करने का एलडीबी अधिकारियों का ‘खेल’ कितना नुकसानदायक रहा, इसका हम अंदाजा ही लगा सकते हैं. इसका सटीक पता तो सीबीआई की छानबीन से ही लग पाएगा. घोटाले के दस्तावेजों को खंगालते हुए एक ऐसा भी दस्तावेज हाथ लगा जिसमें ब्याज-घोटाले के कारण एलडीबी को हुए नुकसान (लॉस) का जिक्र है. लेन-देन की कुछ तारीखों में कितना नुकसान हुआ, इसका जिक्र है, लेकिन इसे देखने से नुकसान की गहरी भयानक खाई का अंदाजा लग जाएगा. महज 13 दिनों में एलडीबी को कितनी हानि पहुंचाई गई, उसका एक छोटा विवरण देखिएः-
तारीख नुकसान
01 मार्च 2007 2919332.19
21.06.2007 11203682.19
26.06.2007 9398700.00
28.06.2007 4202071.23
14.02.2008 3465489.04
26.03.2008 459465.76
02.05.2008 4156643.84
09.05.2008 634931.51
26.06.2008 4982767.12
26.03.2009 6568801.37
16.04.2009 10474520.55
26.06.2009 30380004.11
29.06.2009 7507875.34
उपरोक्त 13 दिनों का नुकसान   64705543.84 (करोड़)

घोटाले की नहीं कराएंगे सीबीआई जांच, एलडीबी को ही कर देंगे बंद
अलग-अलग शासनकाल में नेताओं और नौकरशाहों ने भूमि सुधार बैंक (एलडीबी) के जरिए खूब कमाई की. लेकिन घोटालों की जांच करने और घोटाले बंद करने की कभी कोई पहल नहीं हुई. घोटाला कर-करके एलडीबी को भीषण नुकसान में धकेल दिया और उसे आखिरी तौर पर बंद होने की स्थिति में ला खड़ा किया. समाजवादी पार्टी की सरकार के कार्यकाल में एलडीबी को पूरी तरह खोखला कर दिया गया. अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार भी घोटाले की सीबीआई जांच करने के बजाय एलडीबी को ही बंद करके उत्तर प्रदेश कोऑपरेटिव बैंक में उसका विलय करने जा रही है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक कमेटी गठित कर 15 दिनों के अंदर विलय के सारे बिंदुओं का अध्ययन करके रिपोर्ट सौंपने को कहा है. विलय होने से एलडीबी के सारे दायित्व यूपी कोऑपरेटिव बैंक के मत्थे चले जाएंगे और घोटालेबाज चैन की सांस लेंगे.
एलडीबी को यूपी कोऑपरेटिव बैंक में शामिल करने के साथ-साथ जिला सहकारी बैंकों का भी यूपी कोऑपरेटिव बैंक  में विलय कर दिया जाएगा. सहकारिता मामलों के विशेषज्ञ ने बताया कि अंग्रेजों ने 1913 में जो क्रेडिट पॉलिसी बनाई थी, उसी पॉलिसी पर अब भी ये बैंक चल रहे हैं. वैद्यनाथन कमेटी ने कहा भी था कि शॉर्ट-टर्म लोन और लॉन्ग टर्म लोन के लिए अलग-अलग बैंक रखने का कोई औचित्य नहीं है, सबको एक में विलय कर देना चाहिए. मध्यप्रदेश, उत्तराखंड व कुछ अन्य राज्यों में एलडीबी और कोऑपरेटिव बैंक का मर्जर हो चुका. यूपी सरकार भी मर्जर की तैयारी में जुटी है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस सिलसिले में चार मई को नाबार्ड के अफसरों के साथ बैठक की. नाबार्ड ने एलडीबी समेत अन्य सहकारी बैंकों के विलय को लेकर एक प्रस्ताव योगी सरकार को भेजा था. उत्तर प्रदेश में कोऑपरेटिव बैंकों की स्थापना किसानों को लघु और दीर्घ काल के ऋण देने के लिए की गई थी. इसमें जिला सहकारी समितियों को अल्पकालिक ऋण वितरण का दायित्व दिया गया था और सहकारी कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों को दीर्घकालिक ऋण वितरण की जिम्मेदारी दी गई थी. लेकिन भ्रष्टाचार और अराजकता के कारण एलडीबी टाइटैनिक जहाज हो गया और सहकारी बैंक बंद होते चले गए. इन्हें जिंदा रखने की तमाम कोशिशें भी फेल हो गईं. बैंकों की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए नाबार्ड ने कई सुझाव शासन को भेजे हैं. उत्तर प्रदेश भूमि विकास बैंक (ग्राम विकास बैंक) की स्थापना वर्ष 1959 मे सहकारी अधिनियम के अन्तर्गत हुई थी. अभी उत्तर प्रदेश में एलडीबी की कुल 323 शाखाएं हैं. उत्तरांचल की 19 शाखाएं बंद हो चुकी हैं. 262 शाखाएं तहसील स्तर पर और 80 शाखाएं विकास खंड स्तर पर हैं.

महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के निगमों में निवेश कर डुबो दिए ईपीएफ के करोड़ों रुपए
उत्तर प्रदेश सहकारी ग्राम विकास बैंक लिमिटेड कर्मचारी भविष्य निधि ट्रस्ट ने महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के निगमों में कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ) के करोड़ों रुपए इन्वेस्ट कर दिए और वह धनराशि डूब गई. ट्रस्ट ने बिना किसी आधिकारिक गारंटी के उक्त धन इन्वेस्ट किया. निगमों ने वह पैसा खर्च कर दिया और उत्तर प्रदेश का करोड़ों रुपया मूल धन और ब्याज समेत डूब गया. इतनी बड़ी धनराशि के डूब जाने के बावजूद अब भी ईपीएफ में जमा धन को इन्वेस्ट करने का खेल जारी है.
एलडीबी के ईपीएफ ट्रस्ट ने नई दिल्ली के एलियांज सिक्युरिटीज़, महाराष्ट्र के कोंकण इरीगेशन डेवलपमेंट कॉरपोरेशन, कृष्णावेली डेवलपमेंट कॉरपोरेशन, मेनन फाइनैंस सर्विसेज़, एके कैपिटल सर्विसेज़ लिमिटेड और मध्यप्रदेश के तमाम निगमों में ईपीएफ में जमा करोड़ों की धनराशि इन्वेस्ट कर दी. इस निवेश के बदले उन निगमों से मूलधन की वापसी और ब्याज के भुगतान की कोई औपचारिक गारंटी नहीं ली गई. ट्रस्ट में शामिल अधिकारियों को 20 पैसे प्रति सैकड़ा (प्रति सौ रुपए) के हिसाब से कमीशन मिला, सबने उसका बंदरबांट किया और मस्त हो गए. एलडीबी के ईपीएफ ट्रस्ट में एलडीबी के मुख्य महाप्रबंधक (वित्त) दामोदर सिंह, महाप्रबंधक (प्रशासन) राम जतन यादव, महाप्रबंधक (ग्रैच्युइटी) अरुण कुमार बहुखंडी, सचिव (ट्रस्ट) मजहर हुसैन और कर्मचारी प्रतिनिधि नेत्रपाल सिंह वगैरह शरीक थे.
मध्यप्रदेश स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड (एमपीएसआईडीसी) में एलडीबी द्वारा इन्वेस्ट किया गया करोड़ों रुपया भी डूब गया. न मूलधन मिला, न ब्याज. एमपीएसआईडीसी को 12 प्रतिशत ब्याज पर धन दिया गया था. इसी तरह एलडीबी ने प्रदेशीय इंडस्ट्रियल एंड इन्वेस्टमेंट कॉरपोरेशन ऑफ यूपी (पिकअप) में भी ईपीएफ की राशि इन्वेस्ट की, उसमें भी भारी नुकसान हुआ. गनीमत मानिए कि बड़ी जद्दोजहद के बाद सरकारी हस्तक्षेप से किसी तरह मूल धन रिकवर हो सका. ब्याज तो पूरा का पूरा डूब ही गया. सहकारिता विभाग के अतिरिक्त निबंधक व एलडीबी के चीफ जनरल मैनेजर प्रेम शंकर ने मामले की जांच की. जांच में पाया गया कि गंभीर अनियमितताएं हुई हैं. जांच रिपोर्ट में इस प्रकरण की भी सीबीआई से जांच कराने की सिफारिश की गई. इस सिफारिश पर मुख्य सचिव की अध्यक्षता में राज्य सतर्कता समिति की बैठक हुई और उत्तर प्रदेश सहकारी ग्राम विकास बैंक लिमिटेड कर्मचारी भविष्य निधि ट्रस्ट में हुए करोड़ों रुपए के घोटाले की जांच आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा से कराए जाने का निर्णय लिया गया. शासन ने एलडीबी प्रबंधन को इस मामले में तत्काल एफआईआर करा कर शासन को सूचित करने का निर्देश दिया, ताकि आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) से मामले की जांच शुरू हो सके. लेकिन एलडीबी प्रबंधन ने धृष्टतापूर्वक शासन के निर्देशों को ताक पर रख दिया. एलडीबी के एमडी रामजतन यादव ने इस मामले में एफआईआर दर्ज नहीं होने दी, क्योंकि इस घपले में वे खुद भी लिप्त थे. यहां तक कि रामजतन यादव ने मामले को रद्द करने के लिए शासन को पत्र लिख डाला. शासन ने यादव के इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. लेकिन मामला यथावत रह गया. न एफआईआर हुई और न जांच आगे बढ़ी. घोटालेबाज आज भी अपनी हरकतें जारी रखे हुए हैं. एलडीबी के मौजूदा एमडी श्रीकांत गोस्वामी हैं. गोस्वामी ने भी ईपीएफ घोटाला मामले में एफआईआर दर्ज नहीं कराई. गोस्वामी की खूबी है कि जब वे पद पर नहीं होते हैं तो घपले-घोटाले पर सख्त कार्रवाई के लिए लिखते रहते हैं और जब खुद पद पर आते हैं तो घपले-घोटालों की फाइल दबा कर बैठ जाते हैं. बेवजह तो नहीं ही बैठते होंगे! फर्जी ऋण घोटाले की जांच कराने के लिए लखीमपुर खीरी के तत्कालीन जिलाधिकारी ने सहकारिता निबंधक को पत्र लिखा था. निबंधक ने तब सहकारिता विभाग के संयुक्त निबंधक रहे श्रीकांत गोस्वामी को जांच के लिए कहा. गोस्वामी ने जांच के बाद एलडीबी के तत्कालीन एमडी आलोक दीक्षित को दोषियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने और कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दिया. लेकिन मामला दबा रह गया. अब गोस्वामी खुद एलडीबी के एमडी हैं. अब वे खुद ऐसे तमाम घोटालों की फाइलें दबा कर बैठे हैं. ऐसा वे बेवजह तो नहीं ही करते होंगे! 

Monday 3 July 2017

एनडी रोहित के और मुलायम प्रतीक के कभी नहीं हो सकते कानूनी पिता

प्रभात रंजन दीन
नारायण दत्त तिवारी के जैविक पुत्र रोहित शेखर के पैतृक अधिकार को लेकर जो कानूनी पेंच फंसा हुआ है, वही पेंच आने वाले समय में मुलायम सिंह के दूसरे पुत्र प्रतीक यादव को लेकर भी फंसने वाला है. भारत का कानून सामाजिक पिता को ही कानूनी पिता मानता है. जैविक (बायोलॉजिकल) पिता को भारतीय कानून मान्यता नहीं देता. ऐसे में एनडी तिवारी का डीएनए टेस्ट कराने की अदालती जिद ने कानून को कई सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है. यह ऐसा सवाल है, जिसका जवाब संविधान पीठ को देना होगा और सामाजिक या बायोलॉजिकल में से किसी एक पक्ष में कानूनन खड़ा होना होगा. प्रख्यात कानूनविद्, फॉरेंसिक विज्ञान के विशेषज्ञ और सामाजिक चिंतक डॉ. जीके गोस्वामी ने ऐसे तकनीकी और कानूनी सवाल उठाए हैं, जिनमें देश की पूरी न्यायिक व्यवस्था ही कठघरे में आ गई है.
रोहित शेखर बनाम नारायण दत्त तिवारी के बहुचर्चित मामले में रोहित शेखर ने न्यायालय में याचिका दाखिल कर नारायण दत्त तिवारी को अपना पिता बताया था और इसकी पुष्टि के लिए डीएनए टेस्ट कराने की मांग की थी. रोहित शेखर की मां उज्जवला शर्मा 1979 में रोहित के जन्म के समय बीपी शर्मा से विवाहित थीं. दोनों का विवाह-विच्छेद वर्ष 2006 में हुआ. अदालत ने न्यायिक-सक्रियता दिखाते हुए नारायण दत्त तिवारी का जबरन डीएनए टेस्ट तो करा लिया और डीएनए टेस्ट के आधार पर नारायण दत्त तिवारी को रोहित शेखर का जैविक पिता भी साबित कर दिया, लेकिन न्यायालय नारायण दत्त तिवारी को रोहित शेखर का कानूनी पिता घोषित नहीं कर सका. यह अजीबोगरीब तथ्य है, जिसे आम नागरिकों को जानना चाहिए. आम नागरिकों ने तो यही समझा कि डीएनए (डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड) टेस्ट में जैविक पिता घोषित होने के बाद नारायण दत्त तिवारी रोहित शेखर के पिता हो गए और उसे नारायण दत्त तिवारी का स्वाभाविक सामाजिक पैतृक अधिकार प्राप्त हो गया. नहीं... ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ. डीएनए टेस्ट से केवल इतना ही हुआ कि किसी महिला की निजता भंग हुई और रोहित को यह कन्फर्म हो गया कि उसके जैविक पिता बीपी शर्मा नहीं, नारायण दत्त तिवारी हैं. इसके अलावा कुछ भी नहीं हुआ, क्योंकि कानूनन रोहित शेखर अभी भी बीपी शर्मा का ही बेटा है. सामाजिक नजरिए से देखें तो कोर्ट ने पितृत्व कानून को बिना सोचे-समझे नारायण दत्त तिवारी के नहीं चाहते हुए भी उनका डीएनए टेस्ट कराया और कानून और सामाजिक दोनों दृष्टिकोणों से रोहित शेखर को अधर में लाकर छोड़ दिया.
डॉ. जीके गोस्वामी कहते हैं कि भारतीय कानून में भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 के तहत पितृत्व निर्धारण के लिए एकमात्र प्रावधान धारा-112 के अंतर्गत है. इसके अनुसार बच्चे का पिता वह व्यक्ति होगा जो बच्चे के जन्म के समय उसकी माता से कानूनी रूप से विवाहित होगा अथवा विवाह-विच्छेद के 280 दिन के अंदर बच्चे का जन्म हुआ हो. कानून ऐसा मानता है कि नियमानुसार विवाहित पति-पत्नी से जन्मे बच्चे ही वैध होंगे. कानून की यह भी परिकल्पना है कि पिता के शुक्राणु से ही बच्चा जन्मेगा. लेकिन वास्तविक जीवन में विवाहेतर संबंधों के कारण या कृत्रिम गर्भाधान के अंतर्गत जैविक पिता (शुक्राणु दाता) एवं सामाजिक पिता अलग-अलग हो सकते हैं. वर्तमान समय में एकल पुरुष अथवा स्त्री भी कृत्रिम रूप से बच्चे को जन्म दे रहे हैं. अकेला व्यक्ति बच्चे को गोद भी ले सकता है. ऐसे में पितृत्व (पैरेंटेज) निर्धारण एक गूढ़ विषय हो गया है, जिसे बदलते सामाजिक परिवेश में पुराने कानून से संचालित करना दुर्लभ कार्य होकर रह गया है.
दरअसल, रोहित शेखर बनाम नारायण दत्त तिवारी मामले ने इस बहस को नया आयाम दिया कि किसी बच्चे को अपने जैविक पिता को जानने का अधिकार है कि नहीं? लेकिन यह अधिकार माता के यौन अधिकार की निजता (प्राइवेसी) को प्रभावित करता है. चाइल्ड राइट्स कन्वेंशन भी इस मुद्दे पर चुप है. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने नंदलाल वासुदेव बाद्विक बनाम लता वासुदेव बाद्विक मामले में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि डीएनए जैसी वैज्ञानिक खोज के बाद बच्चे के पिता का जैविक सत्यापन पुराने कानून में उल्लिखित अनुमान पर न छोड़कर सत्यता पर आधारित होना चाहिए. यह सब मानते हैं कि सत्य की जीत ही न्याय का प्रमाण होता है. लेकिन यह सवाल अनुत्तरित ही रह गया कि डीएनए टेस्ट में सत्य का पता चलने के बावजूद कानून किसी बच्चे को पैतृक अधिकार क्यों नहीं दिलवा पाता? फिर शीर्ष न्यायालय ही न्याय को अधर में छोड़ कर क्यों टल जाता है? दीपन्विता रॉय बनाम रोनोब्रतो रॉय (2014) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक को इस आधार पर मंजूरी दी थी कि डीएनए टेस्ट ने उनके बच्चे को विवाहेतर संबंध से पैदा होना साबित कर दिया था. अब तो संवैधानिक न्यायालय विभिन्न वादों में डीएनए टेस्ट के आधार पर न केवल पितृत्व परीक्षण को मान्यता प्रदान कर रहे हैं, वरन सम्पत्ति विवादों में भी वादीगण डीएनए का सहारा लेकर धारा-112 के प्रावधानों के प्रतिकूल न्यायालय से फैसले प्राप्त कर रहे हैं. देश का पितृत्व कानून विचित्र किस्म की गैर-कानूनी गुत्थियों में फंस गया है और डीएनएट टेस्ट की इजाजत देने वाली अदालतों के पास भी इसका कोई कानूनी जवाब नहीं है. डॉ. गोस्वामी का मानना है कि ऐसे बदलते सामाजिक एवं वैज्ञानिक परिवेश में बच्चे के पितृत्व परीक्षण को फिर से पारिभाषित किए जाने की आवश्यकता है. डॉ. गोस्वामी कहते हैं कि वैज्ञानिक और तकनीकी विकास का कानून पर प्रभाव सर्वविदित है. वर्ष 1978 में टेस्ट ट्यूब बेबी एवं 1986 में डीएनए फिंगरप्रिंट ने बच्चे के वंशजता के अधिकार पर गहरा प्रभाव डाला. विज्ञान के चमत्कार से कृत्रिम प्रजनन तकनीक (असिस्टेड रिप्रोडक्‍शन टेक्‍नोलॉजी) और सरोगेसी लाखों ऐसे लोगों के चेहरे पर मुस्कान ले कर आई जो संतान उत्पन्न करने में अक्षम थे. सरोगेसी का शाब्दिक अर्थ है, स्थानापन्न. यानि किसी अन्य के शुक्राणु, अंडाणु अथवा कोख से संतान की उत्पत्ति. इस विधि ने बच्चे के दो से अधिक माता-पिता संभव कर दिए जिससे माता-पिता के निर्धारण में विषम परिस्थिति उत्पन्न हो गई. इस जटिलता को डीएनए टेस्ट की खोज ने नए आयाम दिए.
1990 के दशक में न्यायालयों में डीएनए टेस्ट के माध्यम से बच्चे के पितृत्व निर्धारण के लिए शक और संदेह की पुष्टि के लिए पतियों की ओर से याचिकाओं की बाढ़ आ गई थी. गौतम कुंडू बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले (1993) में सुप्रीम कोर्ट ने पांच निर्देश जारी कर इस पर लगाम लगाई. लेकिन बाद के दौर में खुद अदालतों ने ही सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना की. नारायण दत्त तिवारी का डीएनए टेस्ट जबरना कराया जाना भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना ही है. गौतम कुंडू बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पांच स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करते हुए कहा था, (1) भारतवर्ष की अदालतें नियमित तौर पर या धड़ल्ले से किसी का डीएनए टेस्ट नहीं करा सकतीं. (2) महज सतही और शक की पुष्टि के आधार पर डीएनए टेस्ट के आवेदन की सुनवाई बिल्कुल न हो. (3) डीएनए टेस्ट का आदेश तभी दिया जाए जब भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 की धारा- 112 के तहत पितृत्व निर्धारण में जरूरी अड़चन खड़ी हो गई है. (4) डीएनए टेस्ट की जांच का आदेश करने के पहले न्यायालय को यह विचार कर लेना होगा कि आदेश का परिणाम क्या होगा. ऐसा न हो कि डीएनए टेस्ट से बच्चा दोगला और मां चरित्रहीन साबित हो जाए. (5) किसी को दबाव में लेकर डीएनए टेस्ट के लिए उसका खून नहीं लिया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट के इन पांच दिशा-निर्देशों का किस तरह उल्लंघन हुआ, नारायण दत्त तिवारी का केस इसका सटीक उदाहरण है. नारायण दत्त तिवारी के बार-बार मना करने के बावजूद अदालत ने उन पर दबाव बनाया और यहां तक कहा था कि उनके घर जाकर जबरन उनका खून निकाल कर जांच के लिए भेजा जाए. डीएनए जांच से रोहित शेखर के जैविक पिता की पुष्टि तो हो गई, लेकिन इससे उज्जवला शर्मा की यौन-निजता भी भंग हुई और रोहित शेखर के पिता की कानूनी वैधता भी साबित नहीं हो पाई. खैर, ऐसे कई उदाहरण और हैं, जिनमें अदालतों ने शीर्ष अदालत के आदेशों को ताक पर रख कर अपना आदेश जारी किया. अदालतें पुरुषों पर डीएनए टेस्ट का दबाव देती हैं, लेकिन महिलाओं पर दबाव नहीं देतीं. इस मामले में अदालतें खुद लैंगिक भेदभाव का रवैया रखती हैं.
डॉ. जीके गोस्वामी कहते हैं कि बच्चे को उसे जन्म देने वाले के बारे में जानने का पूरा हक है, लेकिन इस जानकारी को मुहैया कराने में सामाजिक मर्यादा का धागा न टूटे, इसका पूरा ख्याल रखा जाना चाहिए, अन्यथा पूरे समाज का ताना-बाना बिखर कर रह जाएगा. जन्म देने वाले के बारे में जानने का अधिकार व्यक्तित्व विकास के लिए जरूरी है और यह जानना व्यक्ति का अधिकार भी है, लेकिन यह भी समझना चाहिए कि पितृत्व के बारे में जानने का अधिकार एक जटिल कानूनी अवधारणा है. मूलत: संबंध और प्रजनन धर्मानुसार सिविल कानून से नियंत्रित होते हैं. वंशानुगत शुद्धता को अक्षुण्ण रखने के लिए प्रजनन में विवाहेतर तीसरे व्यक्ति का योगदान कानून की दृष्टि से प्रतिबंधित है. यही वजह है कि कानूनन विवाहित जोड़े के अतिरिक्‍त अन्य से जन्मा बच्चा अवैध कहलाता है और सामाजिक भय के कारण ही कई बार अविवाहित माताएं ऐसे नवजात शिशुओं को लावारिस छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं. समाज और कानून की नजर में ऐसे बच्चे अवैध हो जाते हैं, जबकि दार्शनिक जॉर्ज बरनार्ड शॉ का महत्वपूर्ण कथन है कि बच्चा अवैध नहीं हो सकता, बल्कि बच्चे को जन्म देने वाले माता-पिता का संबंध अवैध हो सकता है.

...पर एनडी तिवारी रोहित के कानूनी पिता नहीं हैं
डीएनए टेस्ट में नारायण दत्त तिवारी के रोहित शेखर का जैविक पिता प्रमाणित होने के बावजूद वे रोहित के कानूनी पिता साबित नहीं हो सकते. रोहित के कानूनी पिता बीपी शर्मा ही रहेंगे. डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट के आधार पर 27 जुलाई 2012 को एनडी के जैविक पिता साबित होने के बाद रोहित की मां उज्जवला शर्मा ने मई 2014 में नारायण दत्त तिवारी से बाकायदा शादी कर ली. इसके बावजूद रोहित एनडी तिवारी के कानूनी पुत्र नहीं हुए क्योंकि रोहित के जन्म के समय बीपी शर्मा और उज्जवला पति-पत्नी थे. दोनों की शादी 1963 में हुई थी, रोहित का जन्म 1979 में हुआ और दोनों का तलाक वर्ष 2006 में हुआ. वर्ष 2007 में रोहित शेखर ने अपने जैविक पिता की आधिकारिक पुष्टि के लिए सिविल सूट के जरिए अदालत में याचिका दाखिल की थी. 2010 में दिल्ली हाईकोर्ट ने रोहित शेखर की इस जिज्ञासा को उसका वाजिब अधिकार माना और नारायण दत्त तिवारी का डीएनए टेस्ट कराए जाने की मंजूरी दे दी. एनडी के ना-नुकर करने पर अदालत ने जबरन खून का सैम्पल निकालकर उसकी जांच कराने का फरमान जारी किया और टेस्ट रिपोर्ट आने पर उसे सार्वजनिक भी कर दिया. गौतम कुंडू बनाम प. बंगाल सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशॆं की ऐसी-तैसी हो गई. हालांकि इस जरिए रोहित शेखर के जैविक पिता के बारे में तो आधिकारिक पुष्टि हो गई, लेकिन कानूनी सवाल वहीं का वहीं रह गया कि इससे क्या रोहित शेखर को कानूनी पिता के रूप में नारायण दत्त तिवारी का नाम मिल गया? क्या रोहित शेखर को पितृत्व अधिकार मिल गया? इस सवाल का जवाब ‘ना’ है और अदालतें इस सवाल का जवाब देने में अक्षम हैं.

प्रतीक यादव के सामने भी आएगा पितृत्व कानून का रोड़ा
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सौतेले भाई प्रतीक यादव के समक्ष भी पितृत्व अधिकार का कानूनी संकट खड़ा होने वाला है. समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह को प्रतीक के पिता के रूप में कानून मान्यता नहीं देता. प्रतीक यादव का जन्म 7 जुलाई 1987 को हुआ था, लेकिन मुलायम की पहली पत्नी मालती देवी का निधन वर्ष 2003 में हुआ. पहली पत्नी के निधन के बाद ही 23 मई 2003 को मुलायम ने साधना गुप्ता को अपनी पत्नी घोषित किया. 1994 में प्रतीक यादव के स्कूल फॉर्म में पिता के नाम पर एमएस यादव और पते की जगह मुलायम सिंह यादव के ऑफिस का पता दिया गया था. वर्ष 2000 में प्रतीक के अभिभावक के रूप में मुलायम का नाम दर्ज हुआ. साधना गुप्ता इटावा के बिधुना तहसील की रहनेवाली हैं. 4 जुलाई 1986 को साधना गुप्ता की शादी फर्रुखाबाद के चंद्र प्रकाश गुप्ता से हुई थी. इनकी शादी के बाद 7 जुलाई 1987 में प्रतीक यादव का जन्म हुआ था. इसके दो साल बाद साधना और चंद्र प्रकाश अलग-अलग हो गए थे. देश में लागू पितृत्व कानून के मुताबिक प्रतीक यादव अभी भी चंद्र प्रकाश गुप्ता का ही बेटा है. गोद लेने के लिए भी चंद्र प्रकाश गुप्ता की औपचारिक सहमति अनिवार्य होगी. लिहाजा, आने वाले समय में यह मसला भी कानूनी पेंच में फंसने वाला है.

समाज पर आफत की तरह टूटेगा सरोगेसी का फैशन
यह जानते हुए भी कि भारतवर्ष में पितृत्व की कानूनी मान्यता के आधार दूसरे हैं, इस देश में सरोगेसी का धंधा अंधाधुंध चल रहा है. पिता के मेडिकली अनफिट होने पर दूसरे पुरुष का शुक्राणु लेकर किराए की कोख में बच्चे विकसित किए जा रहे हैं. ऐसे लाखों बच्चे हर साल देश की धरती पर आ रहे हैं, जिनके कानूनी पिता कोई और हैं और जैविक पिता कोई और. ये बच्चे बड़े होकर पैतृक अधिकार के तहत डीएनए टेस्ट कराएंगे तो उन नस्लों में कौन सी मानसिकता विकसित होगी और वह कितनी प्रतिक्रियावादी होगी, इसकी वीभत्स कल्पना की जा सकती है. भारतवर्ष अराजकताओं का देश है, इसलिए सारे धंधे यहां निर्बाध चल रहे हैं. देश की राजधानी दिल्ली हो या उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ. यूपी से लगे राष्ट्रीय राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के जिले हों या हरियाणा के, सब जगह ‘प्रजनन-पर्यटन’ बेतहाशा फल-फूल रहा है. सब तरफ आईवीएफ सेंटर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं. यूरोप अमेरिका से कई गुना सस्ते दर पर भारत में किराए की कोख (सरोगेट माताएं) उपलब्ध है. टेस्ट ट्यूब बेबी और सरोगेसी पर पश्चिमी देशों में प्रतिबंध होने की वजह से भी भारतवर्ष बेहतर विकल्प बना हुआ है. इसमें दिल्ली,  नोएडा, गाजियाबाद, गुड़गांव, मेरठ, कानपुर, लखनऊ के अलावा मुंबई, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बंगलुरू, गुजरात, हैदराबाद और कोलकाता के आईवीएफ सेंटर प्रजनन-पर्यटन का केंद्र बने हुए हैं. दिल्ली में ही तमाम आईवीएफ केंद्र भरे पड़े हैं. अवैध रूप से चलने वाले सरोगेसी के धंधे की तो कोई गिनती नहीं है. अवैध इसलिए क्योंकि सरोगेसी की मूल कमाई डॉक्टर झटक लेते हैं और किराए की मां बनने वाली महिला को बहुत कम पैसे देते हैं. गरीब महिलाएं विवशता में इस धंधे में शामिल हो रही हैं. गरीब महिलाओं को सरोगेसी का धंधा वेश्यावृत्ति के धंधे से अच्छा और साफ-सुथरा लगता है. गरीब महिलाओं की विवशता का फायदा डॉक्टर उठा रहे हैं. जितने क्लिनिक उतना धंधा. डॉक्टर ही किराए की कोख का इंतजाम करते हैं. मोटी रकम पर डॉक्टर इसका ठेका लेते हैं. लखनऊ में कई डॉक्टरों के लिए सरोगेसी का धंधा ही उनकी कमाई का मुख्य स्रोत है. किराए की मां को फीस देने से लेकर बच्चा होने तक का ख्याल डॉक्टर और उनके गुर्गे रखते हैं. ग्राहक से किराए की मां का सीधा सम्पर्क नहीं होने देते. बच्चा पाने वाले परिवार का कोई एक व्यक्ति ही डॉक्टर की निगरानी में किराए की मां का बीच-बीच में हाल-चाल ले सकता है. बच्चा पाने के बाद ग्राहक उन महिला की तरफ रुख भी नहीं कर सकता. इस बात की उसे खास तौर पर हिदायत दी जाती है. किराए की मां बनने वाली महिला को नौ महीने तक बच्चा गर्भ में रखने के एवज में लाख डेढ़ लाख रुपए मिलते हैं, बाकी रकम डॉक्टर रख लेते हैं. विदेशियों के लिए यह फायदे का जरिया है, इसलिए पश्चिम यूरोपीय देशों और दक्षिण एशियाई देशों खास तौर पर जापान से लोग भारत आकर किराए की कोख से बच्चा पैदा करा कर ले जाते हैं. जानकार कहते हैं कि यह धंधा 25 अरब रुपए के सालाना कारोबार के रूप में विकसित हुआ है. भारत में सरोगेसी के इस कदर बढ़ने का मुख्य कारण इसका सस्ता और मान्य होना है. आज देश भर में कृत्रिम गर्भाधान, आईवीएफ और सरोगेसी मुहैया कराने वाले करीब दो लाख से अधिक क्लिनिक हैं. भारत में सरोगेसी को नियंत्रित करने के लिए कोई कानून नहीं है. कानून के अभाव को देखते हुए भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् (आईसीएमआर) ने भारत में एआरटी क्लिनिकों के प्रमाणन, निरीक्षण और नियंत्रण के लिए 2005 में दिशा-निर्देश जारी किए थे, लेकिन इसे कोई मानता नहीं और बड़े पैमाने पर सरोगेट मांओं के शोषण और जबरन वसूली का धंधा बेतहाशा चल रहा है. यूपी की राजधानी लखनऊ में सरोगेसी का धंधा खूब पनपा है. अस्पतालों, नर्सिंग होम्स और क्लिनिक्स में सक्रिय दलाल गरीब महिलाओं को गर्भधारण के लिए पैसे का झांसा देकर चंगुल में फंसा रहे हैं. दलालों और अस्पताल के अमानुषिक रवैये से परेशान सीतापुर की एक महिला ने अभी हाल ही सरोगेसी के धंधा का भंडाफोड़ किया. महिला ने पुलिस में शिकायत की कि तेलीबाग इलाके के एक नर्सिंग होम में सरोगेसी का धंधा चलता है और वह खुद भी इस धंधे से जुड़ी थी. एक मामले में उसे दो लाख रुपए देने का झांसा दिया गया था. गर्भधारण के दरम्यान महिला के इलाज पर जो खर्च हुआ, उस पैसे को लेने के लिए अस्पताल संचालक ने महिला और उसके पति को बुरी तरह पीटा. सरोगेसी के धंधे में गरीब महिलाओं के भीषण शोषण के बावजूद देश में हर साल करीब 15 से 20 लाख बच्चे किराए की कोख से पैदा हो रहे हैं. गरीब और मजबूर महिलाओं की कोख को किराए पर लेकर सम्पन्न भारतीय और विदेशियों के लिए बच्चों को पैदा कराया जा रहा है. सरोगेसी के जरिए बच्चा प्राप्त करने की रेट भी अलग-अलग है. अत्याधुनिक सुविधाओं वाले स्टार अस्पतालों और सेंटरों में इसकी रेट 50 लाख रुपए तक है. सामान्य सेंटर और अस्पतालों में सेरोगेट मदर की रेट 10 से 15 लाख रुपए और लुकाछिपी से चलने वाले सेंटरों पर ग्राहक की आर्थिक औकात से रेट तय होता है. कई कॉल सेंटर्स भी इस काम में लगे हैं जो ग्राहकों को उनकी सुविधानुसार यूपी, दिल्ली, मुंबई या किसी अन्य जगह सरोगेट मां और स्थानीय डॉक्टर उपलब्ध कराते हैं.
भारत-नेपाल सीमा क्षेत्र में भी 'किराये की कोख' का धंधा पसरता जा रहा है. सीमा क्षेत्र की गरीब महिलाएं इस धंधे में उतर रही हैं और धंधेबाजों के शोषण का जरिया बन रही हैं. नेपाल की राजधानी काठमांडू, नेपालगंज, पोखरा, बीरगंज और बिहार के रक्सौल, अररिया, किशनगंज जैसे क्षेत्र इस धंधे का केंद्र बने हुए हैं. इन स्थानों पर दिल्‍ली, मुंबई, हैदराबाद, कर्णाटक से भी लड़कियां ओवम (अंडाणु) दान करने आती हैं. ओवम को नेपालगंज और पोखरा के  टेस्‍ट ट्यूब सेंटर में फ्रीज करके रखा जाता है. इसके बाद आईवीएफ तकनीक से नेपाली महिलाओं को गर्भधारण कराया जाता है. भारत-नेपाल सीमा क्षेत्र के रुपईडीहा में पकड़ी गईं दो महिलाओं ने सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) के समक्ष यह खुलासा किया है. उनसे यह भी उजागर हुआ कि किराये की कोख के कारोबार में दिल्‍ली और नेपाल के डॉक्‍टर करोड़ों की कमाई कर रहे हैं. पूछताछ में दोनों महिलाओं ने बताया कि दिल्‍ली की एक डॉक्‍टर ओवम डोनेट करने के लिए लड़कियों को यहां भेजती है. पोखरा के कुछ डॉक्‍टरों के साथ मिलकर इस नेटवर्क को चलाया जा रहा है. पकड़ी गई महिलाओं ने बताया कि नेपालगंज के सेंटर में उन्होंने ओवम डोनेट किया. उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय मूल की युवतियों का ओवम चीन, जापान और कुछ अन्‍य देशों में निर्यात भी किया जा रहा है और इससे खूब कमाई की जा रही है. खुफिया एजेंसियां यह भी कहती हैं कि युवतियों का अपहरण करके भी उनसे सरोगेसी का धंधा कराया जा रहा है. गुजरात की 30 साल की प्रेमिला वाघेला की मौत का मसला काफी चर्चा में आया था. वाघेला बच्चे पैदा करने के लिए स्वास्थ्य के आधार पर फिट नहीं थी, लेकिन पैसों के लिए उससे जबरदस्ती यह काम कराया जा रहा था. डिलीवरी के दौरान ही उसकी मौत हो गई थी. वाघेला की मौत की छानबीन में यह बात सामने आई कि इस धंधे में लगे दलाल विदेश से आने वाले ग्राहकों को महज तीन महीने में बच्चे दिला देते हैं. दलालों के गैंग के डॉक्टरों की मिलीभगत रहती है. यहां तक कि किराए की मां की कोख में एक से ज्यादा एम्ब्रियो डाल कर ये डॉक्टर एक बार में कई बच्चे पैदा कराते हैं और एक साथ कई ग्राहकों को बच्चे बेच देते हैं.
केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ने यह आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया है कि किराये की कोख का अवैध धंधा तकरीबन दो अरब डॉलर का हो गया है. केंद्रीय मंत्री ने यह भी माना है कि यह धंधा आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं के शोषण का जरिया बन गया है और गरीब महिलाएं 'बच्चे पैदा करने वाली फैक्ट्री' बन गई हैं. उन्होंने कहा कि किराये की कोख अंतिम विकल्प होना चाहिए.

स्कूलों में बच्चों के पहचान-पत्र पर लगेगा डीएनए चिप
जैविक पिता की पहचान जानने के अधिकार की जागरूकता समाज में इस तरह पैठ बनाती जा रही है कि अब बच्चे के पैदा होते ही उसका और उसके पिता का डीएनए मैच करा लेने की प्रक्रिया अनिवार्य करने पर विचार हो रहा है. इस प्रक्रिया के लागू होने के बाद बच्चों के डीएनए चिप युक्त पहचान पत्र बनाने की व्यवस्था भी लागू कर दी जाएगी. महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि नवजात बच्चों का डीएनए टेस्ट आसान होता है. बच्चों के आइडेंटिटी कार्ड पर डीएनए-चिप लगाए जाने के बारे में पूछने पर उक्त अधिकारी ने कहा कि बच्चों के डीएनए चिप में माता-पिता का नाम, स्थाई पता समेत उसके जन्म लेने का स्थान और तारीख दर्ज रहेगी. बच्चों की यह पहचान पितृत्व अधिकार को कानूनी रूप से सरल बनाने के साथ-साथ भविष्य में पासपोर्ट और मतदाता परिचय पत्र जैसी तमाम जरूरतों में कारगर तरीके से काम आएगा. इस कॉन्सेप्ट पर तेजी से काम हो रहा है. देश के बड़े शहरों से लेकर नोएडा, गाजियाबाद, आगरा, लखनऊ, चंडीगढ़, गुड़गांव जैसे भारत के मंझोले शहरों में भी बच्चे के पिता की पुष्टि के लिए डीएनए टेस्ट का चलन बढ़ता जा रहा है. इन शहरों में बच्चे के जैविक पिता की जांच के लिए पैटरनिटी केंद्र खुलते जा रहे हैं. यहां पुरुष बच्चे और अपना ब्लड-सैंपल डॉक्टरों के माध्यम से दिल्ली, हैदराबाद, पुणे और अहमदाबाद की प्रयोगशालाओं में भेज रहे हैं. यूपी के मंझोले शहरों के अस्पतालों में हर महीने 10 से 15 मामले पैटरनिटी टैस्ट के आ रहे हैं. दस हजार रुपए की फीस और टेस्ट के लिए तीन एमएल खून देना होता है, जिसकी रिपोर्ट एक हफ्ते में आती है. नेशनल एक्रेडिटेशन बोर्ड ऑफ हॉस्पिटल (एनबीएच) से सम्बद्ध कोई भी सेंटर डीएनए परीक्षण के लिए खून के नमूने ले सकता है. यदि बच्चों और पिता के नमूने मेल नहीं खाते तो यह तलाक का आधार बन जाता है. पैटरनिटी टेस्ट बाकायदा कॉमर्शियल हो चुका है. कोई भी दम्पति अपना संशय मिटाने के लिए पैथोलाजी लैब से टेस्ट करा सकते हैं. इसके लिए कोई कानूनी रास्ता अख्तियार करने की भी जरूरत नहीं रही, एनएबीएच से सम्बद्ध किसी भी लैब की रिपोर्ट को अदालत भी मान्यता देती है.