Wednesday 5 July 2017

योगी जी! यह घोटाला नहीं दिख रहा आपको..!

प्रभात रंजन दीन
जिस महकमे में हर महीने अरबों रुपए का लेन-देन होता हो, वहां सूद की हेराफेरी से हर महीने करोड़ों रुपए झटके जा सकते हैं. जिस अधिकारी के आदेश पर अरबों रुपए कुछ खास बैंक में जमा होते हों वह अधिकारी उस उपकृत-बैंक से लाखों रुपए की रिश्वत अलग से कमा सकता है. अगर बैंक से कम दर पर सूद लेने का राजीनामा हो जाए, तो चोर-रास्ते से अधिकारी की अतिरिक्त अकूत कमाई हो सकती है. घोटाले का यह नायाब फार्मूला उत्तर प्रदेश ग्राम विकास बैंक का आविष्कार है. यह संस्था भूमि विकास बैंक के नाम से मशहूर है. संक्षिप्त में इसे अब भी एलडीबी ही कहते हैं. लैंड डेवलपमेंट बैंक (एलडीबी) दरअसल नेताओं और नौकरशाहों के संरक्षण में चलने वाले घपले, घोटालों और फर्जीवाड़ों के लिए कुख्यात रहा है. लेकिन इस बार जो घोटाला हम उजागर करने जा रहे हैं वह देश का संभवतः सबसे बड़ा ब्याज-घोटाला साबित हो सकता है. घोटाले का बोझ इतना भारी है कि एलडीबी डूब चुका है, बस उसके बंद होने की औपचारिक घोषणा होनी ही बाकी है.
नेता, नौकरशाह और एलडीबी के अधिकारी मिल कर घपला करते रहे हैं. इस पर कोई रोक नहीं है. अंदरूनी जांच होती है, सीबीआई से जांच की सिफारिशें होती हैं, फिर लीपापोती होती है और घोटाला जारी रहता है. यह इतना विकराल है कि जांच कमेटियां भी हार मान गईं और कहा कि घोटाला इतना भारी और विस्तृत है कि सीबीआई जैसी विशेषज्ञ एजेंसी ही इसकी जांच कर सकती है. लेकिन उन सिफारिशों को सत्ता-व्यवस्था अंगूठा दिखाती रहती है. सहकारिता विभाग की नसों से वाकिफ लोगों का कहना है कि एलडीबी का ब्याज घोटाला पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से हो रहा है, लेकिन सत्ता-व्यवस्था को इसकी कोई फिक्र नहीं है. घोटालों की जांच कराने के बजाय एलडीबी को बंद करने की कोशिशें हो रही हैं. योगी सरकार के सहकारिता मंत्री मुकुट बिहारी वर्मा की एलडीबी के तत्कालीन समाजवादी भ्रष्ट निजाम से खूब छन रही है और वे एलडीबी का अस्तित्व समाप्त कर अरबों-खरबों के घोटाले का हमेशा-हमेशा के लिए पटाक्षेप कर देने पर आतुर हैं. योगी जी भी एलडीबी के तत्कालीन भ्रष्ट निजाम से खूब शिष्टाचारी हो रहे हैं.
एलडीबी के विकराल घोटाले की एक बानगी देखते हुए फिर इसके विस्तार में चलते हैं... वर्ष 2008 के केवल मई महीने का एक उदाहरण हम सैम्पल के तौर पर उठा लेते हैं. इस एक महीने में एलडीबी ने भारतीय स्टेट बैंक और यूपी कोऑपरेटिव बैंक में 01 अरब 72 करोड़ रुपए जमा किए. सूद के बतौर एलडीबी को आधिकारिक तौर पर 02 करोड़ 84 लाख 3 हजार 493 रुपए मिले. लेकिन इसी एक महीने में एलडीबी के सम्बद्ध अधिकारी ने 01 करोड़ 23 लाख 36 हजार 714 रुपए कमा लिए. रुपए जमा कराने के एवज में मिलने वाला कमीशन और कम ब्याज पर रुपए जमा करने के एवज में मिली घूस के करोड़ों रुपए इससे अलग हैं. आप सोचेंगे, कैसे? एलडीबी के भ्रष्ट अधिकारी स्टेट बैंक और यूपी कोऑपरेटिव बैंक के प्रबंधन से अनैतिक करार करते हैं और काफी कम ब्याज पर इतनी भारी रकम उन दो बैंकों में जमा करा देते हैं. इस तरह एलडीबी अधिकारी एक तरफ कम ब्याज के अंतर की कमाई करते हैं और दूसरी तरफ दोनों बैंकों से अलग से भारी कमीशन और घूस भी खाते हैं. किसानों को ऋण देने के लिए नाबार्ड (राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक) से एलडीबी को मिलने वाला धन करीब आठ प्रतिशत के ब्याज दर पर प्राप्त होता है, लेकिन एलडीबी के कमीशनखोर अधिकारी उसी राशि को कम ब्याज पर बैंक में जमा कराते हैं. यानि, एलडीबी को ब्याज का नुकसान अलग से उठाना पड़ रहा है. इसका ब्यौरा भी देखते चलें. 02 मई 2008 को स्टेट बैंक में 10 करोड़ रुपए 3.50 प्रतिशत के ब्याज पर 11 दिनों के लिए फिक्स्ड डिपॉडिट खाते में जमा किए जाते हैं. उसी दिन उसी बैंक में छह अलग-अलग खातों में सात-सात करोड़ रुपए यानि 42 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज पर क्रमशः 16 दिन, 26 दिन, 31 दिन, 39 दिन, 47 दिन और 54 दिन के लिए फिक्स किए जाते हैं. दो मई को ही उसी बैंक में आठ करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत ब्याज पर 61 दिन के लिए फिक्स किए जाते हैं. उसी तारीख को उसी बैंक में एलडीबी की तरफ से 90 करोड़ रुपए जमा होते हैं, जिसे 7.5 प्रतिशत ब्याज दर पर 91 दिनों के लिए फिक्स किया जाता है. हफ्तेभर बाद नौ मई को यूपी कोऑपरेटिव बैंक में छह अलग-अलग खातों में तीन-तीन करोड़ रुपए यानि 18 करोड़ रुपए क्रमशः 3.75 प्रतिशत ब्याज दर पर नौ दिन के लिए, 5 प्रतिशत ब्याज दर पर 19 दिन के लिए, 5 प्रतिशत ब्याज दर पर 24 दिन के लिए, 5 प्रतिशत ब्याज दर पर 32 दिन के लिए, 5 प्रतिशत ब्याज दर पर 40 दिन के लिए और 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 47 दिन के लिए फिक्स किए जाते हैं. उसी दिन 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर कोऑपरेटिव बैंक में 54 दिनों के लिए चार करोड़ रुपए भी फिक्स किए जाते हैं. दो बैंकों में महज दो दिन में कुल एक अरब 72 करोड़ रुपए जमा होते हैं, लेकिन इस पर एलडीबी को महज दो करोड़ 84 लाख तीन हजार 493 रुपए ही ब्याज के बतौर मिल पाते हैं. जबकि 11 प्रतिशत ब्याज की दर से यह राशि तीन करोड़, 31 लाख 80 हजार 206 रुपए होनी चाहिए थी. यह बीच की रकम एलडीबी के भ्रष्ट अधिकारियों ने डकार ली. दस्तावेज बताते हैं कि 02 मई 2008 से 29 जून 2009 के बीच नाबार्ड से प्राप्त धनराशि को कम ब्याज पर विनियोजित करने से 08 करोड़ 96 लाख 754 रुपए से अधिक का नुकसान पहुंचा.
एक वर्ष (2007-08) का एलडीबी का नुकसान देखें तो आपको हैरत होगी. उस वित्तीय वर्ष का बैलेंस शीट बताता है कि एलडीबी को 02 अरब 80 करोड़ 26 लाख 90 हजार 444 रुपए का नुकसान हुआ. एक ईमानदार अफसर कहते हैं कि घपले और घोटालों की बुनियाद पर खड़ा एलडीबी जाने कितने नेताओं-नौकरशाहों की आर्थिक बुनियाद मजबूत करता रहा है. यह जो आपने एक उदाहरण देखा, इससे आपको पता चला कि एलडीबी के भ्रष्ट अधिकारी कितनी निपुणता और कितनी स्पीड से अवैध कमाई करते रहे हैं और नेताओं को कमवाते रहे हैं. ऐसे ढेर सारे आंकड़े और दस्तावेज ‘चौथी दुनिया’ के पास हैं जो भीषण ब्याज-घोटाले का पर्दाफाश करते हैं. आगे भी हम इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे. किसानों को ऋण देने के लिए नाबार्ड की तरफ से भारी धनराशि आठ फीसदी ब्याज पर दी जाती है और उस धनराशि को पूरी बेशर्मी से लेकिन बड़े ही सुनियोजित तरीके से कम ब्याज पर देकर अंधाधुंध कमाई होती रहती है. एलडीबी का घाटा बढ़ता है तो बढ़ता रहे, एलडीबी की गैर-उत्पादक आस्तियां (एनपीए) बढ़ती हैं तो बढ़ती रहें, क्या फर्क पड़ता है. एलडीबी की गैर-उत्पादक आस्तियां आज उत्पादक आस्तियों के सिर चढ़ कर बोल रही हैं. राष्ट्रीयकृत (नेशनलाइज्ड) बैंकों का एनपीए बढ़ने पर खाई को ढंकने के लिए केंद्र सरकार देश में नोटबंदी लागू कर देती है. लेकिन एलडीबी का बढ़ता एनपीए नेताओं-नौकरशाहों की अकूत कमाई का थर्मामीटर मीटर माना जाता है. जिस बैंक का एनपीए 74 फीसदी तक पहुंच जाए तो उस संस्था का क्या हाल होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है.
सत्ता पर बैठे नेता और नौकरशाह मिल बैठ कर घोटालों की किस तरह लीपापोती करते हैं, उसे जानना भी कम रोचक नहीं है. जो ब्याज घोटाला पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से लगातार चल रहा था, उसका भांडा एलडीबी मुख्यालय के महाप्रबंधक अशोक कुमार द्विवेदी के खिलाफ आई एक शिकायत से फूटा. शिकायत सही अधिकारी के हाथ लग गई और उसकी जांच करा दी गई. इस जांच से ही भारी-भरकम घोटाले की परतें उधड़ने लगीं. लेकिन इस जांच से यह भी भेद खुल गया कि महाप्रबंधक द्विवेदी के खिलाफ जांच करने वाली कमेटी के सदस्य भी उस भीषण घोटाले में लिप्त हैं. घोटाला निकला नाबार्ड की तरफ से मिलने वाली हजारों करोड़ रुपए की विशाल धनराशि को बैंक में जमा करने के एवज में कमीशन खाने का. कमीशन खाने के चक्कर में घोटालेबाज अधिकारियों ने नियमों को पूरी तरह ताक पर रख दिया. यह भी धयान नहीं रखा कि नाबार्ड से जितने प्रतिशत ब्याज पर रुपए लिए, बैंक में उससे अधिक के ब्याज दर पर रुपए रखे जाएं. आश्चर्य है कि घोटालेबाज अधिकारी अरबों रुपए की धनराशि महज चार से पांच प्रतिशत के ब्याज पर स्टेट बैंक और यूपी कोऑपरेटिव बैंक में जमा कराते रहे और उन बैंकों से करोड़ों रुपए कमीशन और घूस खाते रहे. जांच करने वाली कमेटी में मुख्य महाप्रबंधक (प्रशासन) एसके त्रिपाठी, सहायक महाप्रबंधक राम प्रकाश और सहायक महाप्रबंधक राजमणि पांडेय शामिल थे. कमेटी ने मामले की जांच किसी विशेषज्ञ एजेंसी से कराने की संस्तुति की. इस जांच कमेटी ने अनियमितताएं तो बहुत सारी पकड़ीं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण था नाबार्ड से आठ प्रतिशत से अधिक ब्याज दर पर मिलने बड़ी धनराशियों का अत्यंत कम ब्याज दर पर बैंकों में जमा कराया जाना. इस धंधे से अधिकारियों ने खूब अवैध धन कमाया और सरकारी संस्था को भीषण घाटे में झोंक दिया. कमेटी ने पाया कि भ्रष्ट अधिकारियों ने महज एक साल की अवधि में 08 करोड़ 96 लाख 754 रुपए का घपला किया. जांच कमेटी ने केवल एक दिन (26 जून 2008) का नमूना उठा कर उसकी सूक्ष्म जांच की तो पता चला कि इस एक दिन में क्रमशः 02 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 47 दिनों के लिए, 2.75 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर 47 दिनों के लिए, 02 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत ब्याज दर पर 54 दिनों के लिए, 04 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 54 दिनों के लिए, 02 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 61 दिनों के लिए, 04 करोड़ रुपए 2.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर 61 दिनों के लिए, 02 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 69 दिनों के लिए, 04 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर 69 दिनों के लिए, 02 करोड़ रुपए 5.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर 77 दिनों के लिए और इसी तारीख को 04 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर 77 दिनों के लिए अपने एक ‘पसंदीदा’ बैंक में जमा करा दिए. उस एक दिन में कुल 100.73 करोड़ रुपए कम ब्याज पर अपने ‘मनचाहे’ बैंकों में जमा कराए गए. इसी तरह 14 फरवरी 2008 को एक ही दिन में 185.99 करोड़ रुपए कम ब्याज दर पर जमा कराए गए. यह धनराशि नाबार्ड से 8.5 प्रतिशत के ब्याज दर मिली थी. जांच कमेटी ने यह सवाल भी पूछा कि जब ऋण वितरण 24 मार्च 2008 को करना था तो इतनी बड़ी धनराशि फरवरी महीने में क्यों मंगवाई गई और करोड़ों का नुकसान क्यों कराया गया? लेकिन इन सवालों का आज तक कोई जवाब नहीं मिल पाया. एक दिन में कितनी तीव्र गति से कमाई की जा सकती है उसका बड़ा उदाहरण आप ऊपर भी देख चुके हैं. जांच कमेटी ने यह माना है कि ऋण वितरण की आवश्यकता के अनुरूप नाबार्ड से धनराशि मंगाई गई होती और लेखा अनुभाग द्वारा अपने खाते में उपलब्ध धनराशि का विनियोजन योजनाबद्ध तरीके से किया गया होता तो एलडीबी को इतना भारी नुकसान नहीं पहुंचता. स्पष्ट है कि नाबार्ड से भारी भरकम राशि मंगा कर उसे बैंक में कम ब्याज पर रख कर अकूत कमाई होती रही है. कमेटी ने साफ तौर पर कहा कि खुले बाजार में उपलब्ध ब्याज की प्रतिस्पर्धात्मक (कम्पीटीटिव) दर प्राप्त कर धन का विनियोजन नहीं किया गया, बल्कि भारतीय स्टेट बैंक और यूपी कोऑपरेटिव बैंक को चुन कर उनमें बहुत कम ब्याज पर बड़ी-बड़ी धनराशियां जमा की जाती रहीं. कमेटी ने खातों में गलतियों और अनियमितताओं का अंबार पाया.
एक शिकायतनामे की जांच में ब्याज घोटाला पकड़ में आने के बाद एलडीबी के तत्कालीन प्रबंध निदेशक नवल किशोर ने स्टेट बैंक और यूपी कोऑपरेटिव बैंक से धनराशि निकाल कर उसे इलाहाबाद बैंक और पंजाब नेशनल बैंक को 11 फीसदी ब्याज पर ट्रांसफर कर दिया. नवल किशोर ने इसके पहले तकरीबन सारे राष्ट्रीयकृत बैंकों को बुलाकर इतनी बड़ी धनराशि के ब्याज को लेकर रेट मांगी और 11 प्रतिशत ब्याज देने पर राजी हुए इलाहाबाद बैंक और पंजाब नेशनल बैंक में धनराशि ट्रांसफर कर दी. इस त्वरित कदम से एलडीबी को करीब एक करोड़ रुपए का त्वरित फायदा पहुंचा. और इस प्रकरण से प्रथम द्रष्टया हजारों करोड़ की धनराशि को बैंक में जमा करने के एवज में कमीशन खाने का घोटाला आधिकारिक तौर पर प्रमाणित हो गया. एमडी के इस कदम से बौखलाए स्टेट बैंक ने शासन के समक्ष विरोध जताया, लेकिन मुख्य सचिव ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया. इसका नतीजा यह निकला कि घोटालेबाजों और सत्ताधारी नेता ने नवल किशोर को ही तमाम षडयंत्रों में फंसाना शुरू कर दिया. उनका तबादला किया गया, झूठे मुकदमे दर्ज कराए गए, गिरफ्तार कराया गया और सारे तिकड़म रच कर उन्हें परिदृश्य से बाहर कर दिया गया. बहरहाल, यह सड़े हुए सिस्टम की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी.
एलडीबी के दस्तावेजों में इस संवाददाता को एक और अध्याय मिला जो वर्ष 2008 से वर्ष 2010 के बीच भारी ब्याज घोटाले की ओर ध्यान दिलाता है. इसके मुताबिक 02 मई 2008 को एक और ट्रांजैक्शन हुआ था, जिसे अलग की फाइल में दबा कर रख दिया गया था. दो मई 2008 को हुए बड़े ट्रांजैक्शन का हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं. उसके अतिरिक्त भी उसी तारीख को 7.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर 90 करोड़ रुपए 56 दिनों के लिए बैंक में डाले गए थे. जबकि यह राशि नाबार्ड से 8.5 प्रतिशत ब्याज दर पर मिली थी. फिर 16 अप्रैल 2009 को 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर 88.50 करोड़ रुपए 72 दिनों के लिए बैंक में डाले गए, जो नाबार्ड से 8.5 प्रतिशत के ब्याज पर मिले थे. 29 जनवरी 2010 को 48 करोड़ रुपए 6 प्रतिशत ब्याज दर पर 57 दिनों के लिए बैंक में डाले गए, जो नाबार्ड से 7.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. फिर उसी दिन 47 करोड़ रुपए 5 प्रतिशत ब्याज दर पर 57 दिनों के लिए बैंक में रखे गए, जो नाबार्ड से 7.5 प्रतिशत ब्याज दर पर मिले थे. 26 फरवरी 2010 को 50 करोड़ रुपए महज 4.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर 29 दिनों के लिए बैंक में जमा किए गए, जो नाबार्ड से 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर प्राप्त हुए थे. फिर उसी दिन 36.40 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर 29 दिनों के लिए बैंक में जमा किए गए, जो नाबार्ड से 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. वर्ष 2008, 2009 और 2010 के महज चार दिनों में कुल 359.90 करोड़ रुपए बैंक में जमा हुए, जिसमें एलडीबी को 11 फीसदी ब्याज के हिसाब से 5 करोड़ 82 लाख 75 हजार 403 रुपए मिलते, लेकिन कम ब्याज पर देने के कारण एलडीबी को महज 3 करोड़ 40 लाख 49 हजार 785 रुपए ही ब्याज के बतौर प्राप्त हुए. जबकि उसे नाबार्ड को ब्याज की ऊंची दर पर भुगतान करना पड़ा. एलडीबी के भ्रष्ट अधिकारियों ने इन चार दिनों के ट्रांजैक्शन में ही 2 करोड़ 42 लाख 25 हजार 618 रुपए का वारा-न्यारा कर दिया. घोटाले के दस्तावेजों को खंगालने के क्रम में वर्ष 2009 की कुछ और कारगुजारियां देखने को मिलीं. 26 मार्च 2009 को एलडीबी ने 95.30 करोड़ रुपए महज 3.75 से 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में जमा कराए, जबकि नाबार्ड से यह राशि 8.5 प्रतिशत के ब्याज पर मिली थी. 16 अप्रैल 2009 को 88.50 करोड़ रुपए 7 प्रतिशत ब्याज दर पर जमा कराए गए, जो नाबार्ड से साढ़े आठ प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 26 जून 2009 को एल़डीबी ने 247.58 करोड़ रुपए बैंक में जमा कराए और आप आश्चर्य करेंगे कि इतनी बड़ी धनराशि अलग-अलग हिस्सों में बांट कर 1.5 प्रतिशत से लेकर अधिकाधिक 6.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर जमा कराई गई. जबकि नाबार्ड ने यह राशि 8.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर दी थी. एक और कागज दिखा, जिसमें 29 जून 2009, 29 जनवरी 2010 और 26 फरवरी 2010 के लेन-देन का ब्यौरा है. 29 जून ’09 को 52.49 रुपए 5.25 प्रतिशत के बयाज दर पर जमा कराए गए. यह राशि नाबार्ड ने साढ़े आठ प्रतिशत के ब्याज पर दी थी. 29 जनवरी 2010 को एलडीबी ने 95 करोड़ रुपए महज 5 प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में जमा कराए, जो उसे नाबार्ड से साढ़े सात प्रतिशत के ब्याज पर मिला था. 26 फरवरी 2010 को 128.40 करोड़ रुपए छह हिस्सों में बांट कर मात्र दो से पांच प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में रखे गए जो एलडीबी को नाबार्ड से सात प्रतिशत ब्याज दर पर प्राप्त हुए थे. इससे हुए भारी नुकसान का अंदाजा आप लगा सकते हैं. एलडीबी में बिल्कुल अंधेरगर्दी मची थी. इस सरकारी संस्था को अरबों रुपए का सिलसिलेवार नुकसान पहुंचाया जा रहा था. यह नुकसान भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों को अकूत सम्पत्ति का मालिक बना रहा था.
जैसा हमने ऊपर भी बताया कि एलडीबी में ब्याज घोटाला तीन दशक से भी अधिक समय से लगातार चल रहा है. वर्ष 2003 से लेकर वर्ष 2008 के बीच का भी संक्षिप्त जायजा ले लें. 10 नवम्बर 2003 को महज चार प्रतिशत के ब्याज दर पर 108 करोड़ रुपए जमा कराए गए थे, जो नाबार्ड से 6.5 से 8.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 15 दिसम्बर 2003 को एलडीबी ने चार प्रतिशत के ब्याज दर पर 121 करोड़ रुपए बैंक में जमा किए जो उसे नाबार्ड से 7.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 23 जनवरी 2004 को महज चार प्रतिशत ब्याज दर पर 70 करोड़ रुपए बैंक जमा कराए गए जो नाबार्ड ने 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर दिए थे. एक मार्च 2004 को 40 करोड़ रुपए चार प्रतिशत के ब्याज दर जमा हुए जो नाबार्ड से 6.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 25 मार्च 2004 को 150 करोड़ रुपए महज 4.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में जमा कराए गए. यह राशि नाबार्ड से 6.75 प्रतिशत के ब्याज पर मिली थी. 29 मार्च 2004 को 107 करोड़ रुपए मात्र 4.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर जमा कराए गए जो नाबार्ड ने 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर दिए थे. 29 जून 2004 को 113 करोड़ रुपए 4.5 प्रतिशत ब्याज दर पर जमा कराए गए, जो नाबार्ड ने 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर दिए थे. 24 जनवरी 2005 को 242 करोड़ रुपए चार से साढ़े चार प्रतिशत के ब्याज दर पर जमा कराए गए, जिसे नाबार्ड ने 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर दिया था. 28 फरवरी 2005 को 114 करोड़ रुपए चार प्रतिशत के ब्याज पर जमा हुए जो नाबार्ड से 6.75 प्रतिशत ब्याज दर पर मिले थे. 20 जून 2005 को 210 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में जमा कराए गए, जबकि नाबार्ड से उक्त राशि 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिली थी. 27 जून 2005 को 63 करोड़ रुपए 5.25 प्रतिशत ब्याज दर पर जमा कराए गए जो नाबार्ड से 6.75 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 17 मार्च 2006 को 124 करोड़ रुपए 5 प्रतिशत ब्याज दर पर बैंक में जमा किए गए, जो नाबार्ड से 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 29 जून 2006 को 151 करोड़ रुपए 6.5 प्रतिशत के ब्याज दर पर जमा हुए जो नाबार्ड से 7 प्रतिशत के ब्याज दर पर मिले थे. 06 फरवरी 2007 को 163.01 करोड़ रुपए पांच से लेकर छह प्रतिशत के ब्याज दर पर जमा किए गए थे, जो नाबार्ड से 7.25 प्रतिशत के दर पर मिले थे. वर्ष 2007 और 2008 के सात दिनों (2007 के 6 फरवरी, 1 मार्च, 21 जून, 26 जून और 2008 के 14 फरवरी व 26 मार्च) में हुए 651.23 करोड़ रुपए के 18 डिपॉजिट्स में से केवल तीन ऐसे डिपॉजिट दिखे, जिसे एलडीबी ने 9 प्रतिशत के ब्याज दर पर बैंक में जमा किया.
सहकारिता विभाग के तत्कालीन प्रमुख सचिव सह निबंधक संजय अग्रवाल ने सहकारिता विभाग के वित्तीय सलाहकार और चार्टर्ड एकाउंटेंट पीके अग्रवाल से ब्याज घोटाले की जांच की औपचारिकता कराई थी. पीके अग्रवाल ने सैम्पल के रूप में एक छोटी अवधि की जांच की और उसमें करोड़ों का घोटाला पकड़ा. उन्होंने अपनी जांच रिपोर्ट में घोटाले की आधिकारिक पुष्टि की और कहा कि पूर्ण अवधि की जांच कराई जाए तो केवल ब्याज के नुकसान की राशि ही अरबों में पहुंच जाएगी. कमीशन और रिश्वत खाने की राशि इससे अलग होगी. प्रबंध निदेशक की कमेटी ने एक साल की अवधि में आठ करोड़ 96 लाख 61 हजार 754 रुपए की कमीशनखोरी पकड़ी थी. जांच रिपोर्ट के आधार पर सहकारिता विभाग के निबंधक ने दोषियों के खिलाफ तत्काल प्रभाव से कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दिया. उन्होंने अपर निबंधक ओंकार यादव को एलडीबी के सात दोषी अधिकारियों; मुख्य महाप्रबंधक (वित्त) आरके दीक्षित, उप महाप्रबंधक (लेखा) अशोक कुमार द्विवेदी, उप महाप्रबंधक (लेखा) एससी बिष्ट, सहायक महाप्रबंधक (लेखा) सत्यनारायण चौरसिया, सहायक महाप्रबंधक (लेखा) अनिल कुमार पांडेय, सहायक महाप्रबंधक (लेखा) सुभाष चंद्र और सहायक महाप्रबंधक (लेखा) धर्मेंद्र कुमार सिंह के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने की जिम्मेदारी दी. लेकिन सत्ता-संरक्षित ओंकार यादव ने शासन का वह निर्देश दबा दिया. ओंकार यादव द्वारा कोई कार्रवाई नहीं किए जाने पर अपर निबंधक अशोक कुमार माथुर को इसका जिम्मा दिया गया, लेकिन माथुर ने भी कुछ नहीं किया. फिर अतिरिक्त निबंधक और भंडारागार निगम के एमडी भूपेंद्र बिश्नोई को कार्रवाई शुरू करने की जिम्मेदारी दी गई. बिश्नोई ने घोटाले के दोषियों पर कार्रवाई करने के बजाय सारे दोषियों को क्लीनचिट दे दी. फिर यह मामला एलडीबी के चेयरमैन के पास गया तो चेयरमैन भी घोटालेबाजों के पक्ष में खड़े हो गए और घोटाले को हरी झंडी दे दी. इसके बाद घोटाले की फाइलों का ढक्कन बंद कर दिया गया. घोटाला बदस्तूर जारी रहा. आठ प्रतिशत के ब्याज पर लिए गए नाबार्ड के अरबों रुपए को डेढ़ प्रतिशत से सेकर पांच-छह प्रतिशत ब्याज पर बैंक में रखने से जो सरकार को नुकसान हुआ और कम ब्याज पर रुपए देकर जो भारी कमीशन खाया गया उस धनराशि का हिसाब लेने और दोषियों पर कार्रवाई करने के बारे में सरकार ने कोई सुध ही नहीं ली.
सहकारिता विभाग के संयुक्त निबंधक डीके शुक्ल ने घोटाले के दोषियों पर दायित्व (लायबिलिटी) निर्धारित करने के लिए जिला सहायक निबंधक रविकांत सिंह, सहकारी निरीक्षक एमडी द्विवेदी और बीएल गुप्ता को अधिकृत किया था. इस जांच टीम ने भी एक छोटी अवधि की जांच की और 10 करोड़ 22 लाख 90 हजार 486 रुपए का नुकसान पकड़ा. रविकांत सिंह ने अपनी जांच रिपोर्ट में लिखा कि कम अवधि में करीब 11 करोड़ रुपए का घोटाला किया गया तो लंबी अवधि के दरम्यान कितना घोटाला किया गया होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है. सिंह ने लिखा है कि पूरी अवधि की जांच संभव नहीं है. इसकी जांच किसी विशेषज्ञ एजेंसी से ही संभव है.
इस तरह अलग-अलग तीन जांच समितियों ने छोटी-छोटी अवधि का सैम्पल बना कर उसकी जांच की और अलग-अलग करोड़ों रुपए की घपलेबाजी पकड़ी. उधर, नाबार्ड ने भी इतनी बड़ी धनराशि को कम ब्याज पर बैंक में रखने पर औपचारिक तौर पर आपत्ति जताई और अपने स्तर पर मामले की जांच कर बड़े घोटाले की पुष्टि की. नाबार्ड ने भूमि विकास बैंक को धन देना करीब-करीब बंद ही कर दिया. इससे उबारने के लिए अखिलेश सरकार ने एलडीबी का 1650 करोड़ रुपए का ऋण माफ कर दिया. अखिलेश सरकार ने कहा कि किसानों का ऋण माफ किया जा रहा है, जबकि असलियत में एलडीबी का डूबा हुआ धन माफ किया गया था. क्योंकि एलडीबी किसानों को दिया हुआ ऋण पहले ही वसूल कर चुका था. यहां तक कि किसानों को राहत देने के लिए उनके ऋण पर मिलने वाले केंद्रीय अनुदान की राशि भी एलडीबी ने हड़प ली. सवाल है कि जब अखिलेश सरकार ने किसानों का 1650 करोड़ रुपए का ऋण माफ ही कर दिया था तो वर्ष 2012-13 और 2013-14 में ऋण-वसूली की मांग क्यों बढ़ी? उसे तो कम होना चाहिए था? फिर इस दरम्यान नाबार्ड ने एलडीबी को धन देना क्यों बंद कर दिया? घोटाले की परतें उघाड़ने वाले इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है. न सरकार के पास और न एलडीबी के पास. इस महाघोटाले में उत्तर प्रदेश सरकार के अलमबरदार बराबर के शरीक थे, इसलिए मामले की सीबीआई से जांच कराने की पहल कभी नहीं की गई. विडंबना यह है कि एलडीबी के अधिकारी कम ब्याज पर नाबार्ड का धन बैंकों में जमा कर कमीशन खाते रहे, लेकिन किसानों को दिए जाने वाले ऋण पर 14 से 15 प्रतिशत तक ब्याज वसूलते रहे. लघु सिंचाई और पशुपालन के लिए दो लाख रुपए के ऋण पर किसानों से 14 प्रतिशत और दो लाख से अधिक के ऋण पर 14.25 प्रतिशत ब्याज वसूला गया. डेयरी, मधुमक्खी, मत्स्य पालन या ऐसे लघु रोजगार के लिए दो लाख के ऋण पर किसानों से 14.25 प्रतिशत और दो लाख रुपए से अधिक के ऋण पर 14.50 प्रतिशत ब्याज वसूला गया. कमीशन देने वाले बैंकों पर नरम रहने वाले अफसर किसानों से अधिक ब्याज वसूलने में जल्लाद बने रहते हैं.
एलडीबी में ब्याज घोटाला पकड़ में आने के बाद कमर्शियल बैंकों के लिए प्रतिस्पर्धा के रास्ते नीतिगत तरीके से खोल दिए जाने और नाबार्ड के सख्त रुख के कारण इधर ब्याज की लूट तो कम हुई लेकिन फर्जी ऋण बांटने का धंधा तेजी से बढ़ गया. इसका भी एक उदाहरण देखिए, ऋण पाने वाले किसानों की संख्या 23.96 लाख थी, लेकिन फर्जी नाम जोड़ कर इस संख्या को 29.15 लाख कर दिया गया और ऋण-राशि हड़प ली गई. फर्जी ऋण बांटने के ऐसे ढेर सारे उदाहरण हैं. इसके अलावा एलडीबी के अधिकारियों ने किसानों को मिलने वाली सब्सिडी का पैसा भी खाना शुरू कर दिया. बकाया ऋण जमा करने वाले किसानों को यह बताया भी नहीं जाता कि उनके लिए केंद्र सरकार से सब्सिडी आई है. किसान किसी तरह जद्दोजहद करके अपना ऋण जमा करते हैं और एलडीबी अधिकारी उनके लिए आई सब्सिडी का पैसा खाते रहते हैं. इसके अलावा एलडीबी में घूस लेकर ट्रांसफर-पोस्टिंग का धंधा भी खूब चल रहा है. भ्रष्टाचार और अराजकता के कारण एलडीबी का दिवालिया निकल चुका है. कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल रहा. नाबार्ड का पैसा तक जमा नहीं हो रहा. नौबत यहां तक आ गई कि एलडीबी को पिछले महीने कोऑपरेटिव बैंक में जमा रिजर्व फंड से 200 करोड़ रुपए निकाल कर काम चलाना पड़ा. रिजर्व फंड का यह रुपया ओवरड्राफ्ट के जरिए निकाला गया. इसी पैसे से वेतन बांटे गए. रिजर्व फंड से पैसा निकालना मना है. लेकिन एलडीबी में नियम-कानून कौन मानता है!

ब्याज की हेराफेरीः देखिए 13 दिन का नुकसान
एलडीबी के ब्याज घोटाले के छोटे-छोटे सैम्पल निकाल कर उनकी जांच करने वाले अधिकारियों ने भी कहा है कि यह इतना बड़ा और विकराल घोटाला है कि इसकी जांच सीबीआई जैसी विशेषज्ञ एजेंसी ही कर सकती है. अधिक ब्याज दर पर नाबार्ड से मिलने वाली बड़ी रकमों को कम ब्याज दर पर बैंक में फिक्स करने का एलडीबी अधिकारियों का ‘खेल’ कितना नुकसानदायक रहा, इसका हम अंदाजा ही लगा सकते हैं. इसका सटीक पता तो सीबीआई की छानबीन से ही लग पाएगा. घोटाले के दस्तावेजों को खंगालते हुए एक ऐसा भी दस्तावेज हाथ लगा जिसमें ब्याज-घोटाले के कारण एलडीबी को हुए नुकसान (लॉस) का जिक्र है. लेन-देन की कुछ तारीखों में कितना नुकसान हुआ, इसका जिक्र है, लेकिन इसे देखने से नुकसान की गहरी भयानक खाई का अंदाजा लग जाएगा. महज 13 दिनों में एलडीबी को कितनी हानि पहुंचाई गई, उसका एक छोटा विवरण देखिएः-
तारीख नुकसान
01 मार्च 2007 2919332.19
21.06.2007 11203682.19
26.06.2007 9398700.00
28.06.2007 4202071.23
14.02.2008 3465489.04
26.03.2008 459465.76
02.05.2008 4156643.84
09.05.2008 634931.51
26.06.2008 4982767.12
26.03.2009 6568801.37
16.04.2009 10474520.55
26.06.2009 30380004.11
29.06.2009 7507875.34
उपरोक्त 13 दिनों का नुकसान   64705543.84 (करोड़)

घोटाले की नहीं कराएंगे सीबीआई जांच, एलडीबी को ही कर देंगे बंद
अलग-अलग शासनकाल में नेताओं और नौकरशाहों ने भूमि सुधार बैंक (एलडीबी) के जरिए खूब कमाई की. लेकिन घोटालों की जांच करने और घोटाले बंद करने की कभी कोई पहल नहीं हुई. घोटाला कर-करके एलडीबी को भीषण नुकसान में धकेल दिया और उसे आखिरी तौर पर बंद होने की स्थिति में ला खड़ा किया. समाजवादी पार्टी की सरकार के कार्यकाल में एलडीबी को पूरी तरह खोखला कर दिया गया. अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार भी घोटाले की सीबीआई जांच करने के बजाय एलडीबी को ही बंद करके उत्तर प्रदेश कोऑपरेटिव बैंक में उसका विलय करने जा रही है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक कमेटी गठित कर 15 दिनों के अंदर विलय के सारे बिंदुओं का अध्ययन करके रिपोर्ट सौंपने को कहा है. विलय होने से एलडीबी के सारे दायित्व यूपी कोऑपरेटिव बैंक के मत्थे चले जाएंगे और घोटालेबाज चैन की सांस लेंगे.
एलडीबी को यूपी कोऑपरेटिव बैंक में शामिल करने के साथ-साथ जिला सहकारी बैंकों का भी यूपी कोऑपरेटिव बैंक  में विलय कर दिया जाएगा. सहकारिता मामलों के विशेषज्ञ ने बताया कि अंग्रेजों ने 1913 में जो क्रेडिट पॉलिसी बनाई थी, उसी पॉलिसी पर अब भी ये बैंक चल रहे हैं. वैद्यनाथन कमेटी ने कहा भी था कि शॉर्ट-टर्म लोन और लॉन्ग टर्म लोन के लिए अलग-अलग बैंक रखने का कोई औचित्य नहीं है, सबको एक में विलय कर देना चाहिए. मध्यप्रदेश, उत्तराखंड व कुछ अन्य राज्यों में एलडीबी और कोऑपरेटिव बैंक का मर्जर हो चुका. यूपी सरकार भी मर्जर की तैयारी में जुटी है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस सिलसिले में चार मई को नाबार्ड के अफसरों के साथ बैठक की. नाबार्ड ने एलडीबी समेत अन्य सहकारी बैंकों के विलय को लेकर एक प्रस्ताव योगी सरकार को भेजा था. उत्तर प्रदेश में कोऑपरेटिव बैंकों की स्थापना किसानों को लघु और दीर्घ काल के ऋण देने के लिए की गई थी. इसमें जिला सहकारी समितियों को अल्पकालिक ऋण वितरण का दायित्व दिया गया था और सहकारी कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों को दीर्घकालिक ऋण वितरण की जिम्मेदारी दी गई थी. लेकिन भ्रष्टाचार और अराजकता के कारण एलडीबी टाइटैनिक जहाज हो गया और सहकारी बैंक बंद होते चले गए. इन्हें जिंदा रखने की तमाम कोशिशें भी फेल हो गईं. बैंकों की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए नाबार्ड ने कई सुझाव शासन को भेजे हैं. उत्तर प्रदेश भूमि विकास बैंक (ग्राम विकास बैंक) की स्थापना वर्ष 1959 मे सहकारी अधिनियम के अन्तर्गत हुई थी. अभी उत्तर प्रदेश में एलडीबी की कुल 323 शाखाएं हैं. उत्तरांचल की 19 शाखाएं बंद हो चुकी हैं. 262 शाखाएं तहसील स्तर पर और 80 शाखाएं विकास खंड स्तर पर हैं.

महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के निगमों में निवेश कर डुबो दिए ईपीएफ के करोड़ों रुपए
उत्तर प्रदेश सहकारी ग्राम विकास बैंक लिमिटेड कर्मचारी भविष्य निधि ट्रस्ट ने महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के निगमों में कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ) के करोड़ों रुपए इन्वेस्ट कर दिए और वह धनराशि डूब गई. ट्रस्ट ने बिना किसी आधिकारिक गारंटी के उक्त धन इन्वेस्ट किया. निगमों ने वह पैसा खर्च कर दिया और उत्तर प्रदेश का करोड़ों रुपया मूल धन और ब्याज समेत डूब गया. इतनी बड़ी धनराशि के डूब जाने के बावजूद अब भी ईपीएफ में जमा धन को इन्वेस्ट करने का खेल जारी है.
एलडीबी के ईपीएफ ट्रस्ट ने नई दिल्ली के एलियांज सिक्युरिटीज़, महाराष्ट्र के कोंकण इरीगेशन डेवलपमेंट कॉरपोरेशन, कृष्णावेली डेवलपमेंट कॉरपोरेशन, मेनन फाइनैंस सर्विसेज़, एके कैपिटल सर्विसेज़ लिमिटेड और मध्यप्रदेश के तमाम निगमों में ईपीएफ में जमा करोड़ों की धनराशि इन्वेस्ट कर दी. इस निवेश के बदले उन निगमों से मूलधन की वापसी और ब्याज के भुगतान की कोई औपचारिक गारंटी नहीं ली गई. ट्रस्ट में शामिल अधिकारियों को 20 पैसे प्रति सैकड़ा (प्रति सौ रुपए) के हिसाब से कमीशन मिला, सबने उसका बंदरबांट किया और मस्त हो गए. एलडीबी के ईपीएफ ट्रस्ट में एलडीबी के मुख्य महाप्रबंधक (वित्त) दामोदर सिंह, महाप्रबंधक (प्रशासन) राम जतन यादव, महाप्रबंधक (ग्रैच्युइटी) अरुण कुमार बहुखंडी, सचिव (ट्रस्ट) मजहर हुसैन और कर्मचारी प्रतिनिधि नेत्रपाल सिंह वगैरह शरीक थे.
मध्यप्रदेश स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड (एमपीएसआईडीसी) में एलडीबी द्वारा इन्वेस्ट किया गया करोड़ों रुपया भी डूब गया. न मूलधन मिला, न ब्याज. एमपीएसआईडीसी को 12 प्रतिशत ब्याज पर धन दिया गया था. इसी तरह एलडीबी ने प्रदेशीय इंडस्ट्रियल एंड इन्वेस्टमेंट कॉरपोरेशन ऑफ यूपी (पिकअप) में भी ईपीएफ की राशि इन्वेस्ट की, उसमें भी भारी नुकसान हुआ. गनीमत मानिए कि बड़ी जद्दोजहद के बाद सरकारी हस्तक्षेप से किसी तरह मूल धन रिकवर हो सका. ब्याज तो पूरा का पूरा डूब ही गया. सहकारिता विभाग के अतिरिक्त निबंधक व एलडीबी के चीफ जनरल मैनेजर प्रेम शंकर ने मामले की जांच की. जांच में पाया गया कि गंभीर अनियमितताएं हुई हैं. जांच रिपोर्ट में इस प्रकरण की भी सीबीआई से जांच कराने की सिफारिश की गई. इस सिफारिश पर मुख्य सचिव की अध्यक्षता में राज्य सतर्कता समिति की बैठक हुई और उत्तर प्रदेश सहकारी ग्राम विकास बैंक लिमिटेड कर्मचारी भविष्य निधि ट्रस्ट में हुए करोड़ों रुपए के घोटाले की जांच आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा से कराए जाने का निर्णय लिया गया. शासन ने एलडीबी प्रबंधन को इस मामले में तत्काल एफआईआर करा कर शासन को सूचित करने का निर्देश दिया, ताकि आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) से मामले की जांच शुरू हो सके. लेकिन एलडीबी प्रबंधन ने धृष्टतापूर्वक शासन के निर्देशों को ताक पर रख दिया. एलडीबी के एमडी रामजतन यादव ने इस मामले में एफआईआर दर्ज नहीं होने दी, क्योंकि इस घपले में वे खुद भी लिप्त थे. यहां तक कि रामजतन यादव ने मामले को रद्द करने के लिए शासन को पत्र लिख डाला. शासन ने यादव के इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. लेकिन मामला यथावत रह गया. न एफआईआर हुई और न जांच आगे बढ़ी. घोटालेबाज आज भी अपनी हरकतें जारी रखे हुए हैं. एलडीबी के मौजूदा एमडी श्रीकांत गोस्वामी हैं. गोस्वामी ने भी ईपीएफ घोटाला मामले में एफआईआर दर्ज नहीं कराई. गोस्वामी की खूबी है कि जब वे पद पर नहीं होते हैं तो घपले-घोटाले पर सख्त कार्रवाई के लिए लिखते रहते हैं और जब खुद पद पर आते हैं तो घपले-घोटालों की फाइल दबा कर बैठ जाते हैं. बेवजह तो नहीं ही बैठते होंगे! फर्जी ऋण घोटाले की जांच कराने के लिए लखीमपुर खीरी के तत्कालीन जिलाधिकारी ने सहकारिता निबंधक को पत्र लिखा था. निबंधक ने तब सहकारिता विभाग के संयुक्त निबंधक रहे श्रीकांत गोस्वामी को जांच के लिए कहा. गोस्वामी ने जांच के बाद एलडीबी के तत्कालीन एमडी आलोक दीक्षित को दोषियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने और कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दिया. लेकिन मामला दबा रह गया. अब गोस्वामी खुद एलडीबी के एमडी हैं. अब वे खुद ऐसे तमाम घोटालों की फाइलें दबा कर बैठे हैं. ऐसा वे बेवजह तो नहीं ही करते होंगे! 

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