Wednesday 30 October 2013

देश की देह पर द्रोह का दीमक!

प्रभात रंजन दीन
जानते बहुत सारे लोग हैं। लेकिन लिखने में संकोच करते हैं। सच लिखने में या बोलने में भी लोगों को डर लगता है कि उन्हें खेमों में उलझा दिया जाएगा। उनकी प्रगतिशीलता संकट में खड़ी कर दी जाएगी और उनकी धर्मनिरपेक्षता पर उंगली उठने लगेगी। दरअसल, उंगली उठाने वाले लोगों का एक मुकम्मल गिरोह है जो सुनियोजित तरीके से उंगलियां उठाता है और प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता को अपनी बपौती समझता है। ये ही लोग असलियत में धर्मांध हैं और दूसरों को अंधा बताने की साजिश करते रहते हैं। हम यह सब समझते हैं फिर भी सच कहने से चुप रहते हैं। देश की अंदरूनी गतिविधियों पर निगाह रखने वाली केंद्रीय खुफिया एजेंसी इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक वरिष्ठ अधिकारी से बात हो रही थी तो उन्होंने कुछ ऐसी बातें बताईं जिनके बारे में पत्रकारीय दृष्टि के कारण पहले से संदेह तो था, लेकिन उनकी बातों से वह संदेह आधिकारिक तौर पर पुष्ट हो गया। देश-समाज को इस बारे में जानना समझना और उसके प्रति सचेत रहना बेहद जरूरी है। समाज सेवा की आड़ में समाज में गहरी पैठ बना रहे गैर सरकारी संगठनों में से कई एनजीओ राष्ट्र विरोधी, समाज विरोधी, संस्कृति विरोधी और विघटनकारी शक्तियों के रूप में बड़ी चुप्पी से काम कर रहे हैं। देश को तबाह करने के लिए देश की पहचान और उसके सांस्कृतिक-पारम्परिक तानेबाने को ध्वस्त करने का काम हो रहा है। केवल विध्वंसक गतिविधियों में ही आईएसआई मुब्तिला नहीं है। आईएसआई के 'साइलेंट मॉड्यूल' केवल बम लगाने या तोडफ़ोड़ की कार्रवाइयों तक ही सीमित नहीं, बल्कि ये तत्व भारतवर्ष की संस्कृति को तोडऩे, पारिवारिक प्रेम को छिन्न-भिन्न करने, परिवारों में कलह का बीज बोने और खास तौर पर लड़कियों को बहकाने-फुसलाने, अपने ही सगे-सम्बन्धियों पर चारित्रिक लांछन लगाने के लिए उकसाने और 'ब्रेन-वॉश' करने से लेकर उन्हें दूसरे धर्म के लड़कों से प्रेम में फंसा कर उनका धर्म परिवर्तन कराने के काम में अधिक तेजी से सक्रिय हैं। इन 'साइलेंट मॉड्यूल्स' को आईएसआई द्वारा विभिन्न फंडिंग एजेंसियों के माध्यम से अनाप-शनाप धन मुहैया कराया जा रहा है। ये अलग-अलग आकर्षक नामों से एनजीओ के बतौर काम कर रहे हैं। ये अपने ही देश के दीमक हैं, जो विदेश से पैसा लेकर देश को खोखला कर रहे हैं। ऐसे राष्ट्र विरोधी एनजीओ के मकड़-जाले और उनमें बसने वाली मकडिय़ों को आप आराम से पहचान सकते हैं। इसके लिए अधिक मशक्कत की जरूरत नहीं। इन्हें आप देशभक्ति के काम में आगे नहीं पाएंगे। देश के खिलाफ जो भी गतिविधियां होंगी, उसमें इन्हें आप अत्यधिक सक्रिय पाएंगे। अपने देश-समाज की इन्हें फिक्र नहीं लेकिन बांग्लादेशियों के लिए सड़कों पर आंसू बहाते ये नजर आ जाएंगे। पाकिस्तानियों के लिए अमन की आशा और भारतवर्ष के लिए विष-वमन की भाषा, इनके मुंह से सुनें। अपराधियों-आतंकियों के लिए इनके हृदय में मानवाधिकार की लहरें ठाठें मारती हैं। लेकिन किसी शहीद के लिए होने वाली सम्मान सभाओं से ये बिल्कुल ही नदारद मिलेंगे। आतंकी हादसों की ये निन्दा नहीं करते और न ऐसे हादसों में मरने वाले लोगों के लिए शोक ही जताते हैं।

अब आपको कुछ खास दस्तावेजी बात बताएं। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने ऐसे 77 गैर सरकारी संगठनों की शिनाख्त की है जो विदेशों से धन लेकर अलग-अलग तरीके से भारतवर्ष को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इन संगठनों की फंडिंग कैसे हो और किस रास्ते से हो, इसे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई तय करती है और 'कोऑर्डिनेट' करती है। आईएसआई इनके लिए खाड़ी देशों के माध्यम से धन की सप्लाई करा रही है। भारतवर्ष को किस तरह अलग-अलग आयामों से खोखला किया जाए इस पर आईएसआई का 'थिंक टैंक' बाकायदा शोध करता है और सिक्कों की हड्डी फेंक कर भारतीयों से ही भारत का सत्यानाश करा रहा है। अभी तो मात्र 77 ऐसे एनजीओ की ही पहचान हुई है। इन पर पाबंदी लगाने का फैसला वोट की हड्डी  के लोलुप नेताओं के कारण सम्भव नहीं हो पा रहा है। आप सोचिए कितनी अराजक स्थिति है कि देश में करीब 70 हजार पंजीकृत एनजीओ ऐसे हैं जो विदेशी धन पर पलते और चलते हैं, लेकिन इनकी गतिविधियों पर नजर रखने की कोई व्यवस्था नहीं है। इस पर अब नागरिकों को ही नजर रखनी होगी और उनका धंधा बंद कराना होगा। इनके खिलाफ समाज एकजुट हुआ तो ये दुम दबा कर भागते नजर आएंगे। इन तत्वों की मीडिया में भी घुसपैठ है। मीडिया में साफ-साफ तौर पर तीन किस्म के लोग काम करते हैं। एक किस्म तटस्थ लोगों का है, जो मृतप्राय हैं। दूसरा किस्म निहायत बेवकूफों का है, जिनमें कोई समझदारी नहीं है, जो एनजीओ-आधुनिकता के फैशन में मूर्खतापूर्ण काम करता है। और तीसरा किस्म शातिरों का है जो महामूर्धन्यों के कंधे पर बंदूक रख कर अपने हित साधता है, अखबार में खबरें छपवाता है, टीवी चैनेलों पर खबरें दिखवाता है और समाज को वीभत्स बनाता जा रहा है। इनके खिलाफ समवेत प्रतिरोध की जरूरत है... 

Saturday 26 October 2013

जब झूठ हृदय में बस जाए!

प्रभात रंजन दीन

एक सर्वेक्षण आया था कुछ अरसा पहले। बड़ा रोचक सर्वेक्षण था। उसमें बताया गया था कि 32 फीसदी लोग दफ्तरों से 'बंक' मारने के लिए झूठ बोलते हैं। इस सर्वे से यह उम्मीद बढ़ी कि चलो कम से कम 68 प्रतिशत लोग तो ऐसा आचरण नहीं करते। लेकिन यह उम्मीद अधिक दिन तक उम्मीद बंधाए नहीं रह सकी। कुछ ही दिन में उस सर्वे के प्रसंग में यह खबर आई कि उस सर्वेक्षण की समीक्षा रिपोर्ट में 32 फीसदी वाला तथ्य गलती से 68 फीसदी वाले खाने में लिख गया था। यानी सर्वेक्षण का सच यह था कि 68 प्रतिशत लोग अपने-अपने कार्यालयों में झूठ बोलते हैं और 32 फीसदी लोग ईमानदारी से अपना कर्म करते हैं और बेमतल का झूठ नहीं बोलते। यह कुछ वर्ष पहले की बात है। यानी हर बात-बेबात झूठ बोलने वाले लोगों का प्रतिशत इतने दिन में निश्चित तौर पर 75 फीसदी के करीब पहुंच गया होगा। आप भी कहेंगे कि सम्पादकीय में यह कैसा राग ले बैठे। किसी खबर की समीक्षा नहीं। किसी खबर पर विचार नहीं। खबर की समीक्षा और खबर पर विचार तो हम आप रोज पढ़ते हैं। लेकिन हम-आप जो रोजाना झूठ गढ़ते हैं, झूठ बोलते हैं, झूठ परोसते हैं, उसे हम क्यों नहीं पढ़ते! केवल नेता ही झूठ थोड़े ही बोलते हैं! हम झूठे तो खबरें भी झूठी, विचार भी झूठे, सरोकार भी झूठे, सारे सम्बन्ध भी झूठे। तो इस झूठ पर ही क्यों नहीं हम एक दिन विचार करें! सच की तरह स्थापित होते जा रहे झूठ के साम्राज्य पर हम एक दिन तो नजर डालें, विचार करें। समाज की जो दिशा है, उसमें वह बात बेमानी हो गई है कि खुद को या किसी अन्य को खतरे से बचाने के लिए ही झूठ बोलें। अब तो झूठ बोलना समाज का स्वभाव ही हो गया है। किसी भी विषय पर झूठ बोला जा रहा है। जिस जगह साफगोई से काम चल जाए वहां भी झूठ। अभी हम लोगों ने महात्मा गांधी की जयंती पर 'कैनविज टाइम्स' के साप्ताहिक वाले हिस्से में आमुख कथा बनाई थी जिसका शीर्षक ही था 'असत्यमेव जयते'। जिस युग में सत्य कठघरे में खड़ा हो और खुद को सच साबित करने की जद्दोजहद करता हो और झूठ बहुमत में हो, उसका वर्चस्व स्थापित हो, उस युग के लिए तो कहा ही जाएगा न 'असत्यमेव जयते'। भारतीय समाज की भी इसमें क्या गलती है! इस देश को चलाने वालों ने ही झूठ और फरेब को नीति बनाई और 66 साल में नस्लों की नसों में झूठ का संस्कार पिरो दिया। बचपन में गीत सुनता था, 'सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है'... इसी गीत में एक और पंक्ति आती थी, 'भला कीजै भला होगा, बुरा कीजै बुरा होगा...। ' बाद में जाना कि यह गीत शैलेंद्र ने लिखा था और फिल्म 'तीसरी कसम' में राजकपूर के लिए गायक मुकेश ने गाया था। ...और बाद में यह भी जाना कि अब तो कोई भी कसम खिला लो, झूठ तो बोलेंगे ही। अब शैलेंद्र का जमाना तो है नहीं और न उस गीत को जीवन का गीत बना कर चलने वाले लोगों लिए ही यह जमाना रह गया है। अब जमाना बदल गया है, अब लोग बदल गए हैं, अब शब्द बदल गए हैं, अब अर्थ बदल गए हैं। तब जो सीधा लगता था, आज वह उल्टा हो गया है। अब तो साफ-साफ दिखता है कि तब, तब था। अब, अब है। तब सच और संकोच। अब झूठ और बेहयाई। तब सच का बोलबाला और झूठ का मुंह काला का जमाना था। अब तो झूठ की सत्ता, झूठ का जोर और सच का मुंह काला, सच हो गया मुंहचोर। सारे धर्मग्रंथों में लिखा है कि जब तक जान जाने का खतरा न हो, तब तक झूठ नहीं बोलना चाहिए! लेकिन इसे यह युग स्वीकार करने के लिए कतई तैयार नहीं। अब नई दुनिया नया धर्मशास्त्र गढऩे में लगी है, जिसका आधार वाक्य है, 'सच तभी बोलो, जब जान जाती हो'। अब तो नवगढ़ंत धर्मशास्त्रों में लिखा जा रहा है, 'झूठ बराबर तप नहीं, सांच बराबर पाप। जाके हिरदय झूठ है, ताके हिरदय आप।' सजन को खुदा से मतलब नहीं, सजन का झूठ से है रिश्ता। अब भला करने से बुरा होता है और बुरा करने वालों की मौज ही मौज। ...तब लगता था कि आईने तो कम से कम सच दिखाते हैं। लेकिन अब तो दर्पण भी झूठ का ही प्रतिबिंब है। वाकई, ...मुझे शिकायत है इन आईनों से / झूठ दिखाता है ये आईना / हर तरफ है झूठ पर झूठ / बदनुमा झूठ / पर हर वक्त सुंदर दिखाता है ये आईना / अब झूठ पर कोई लगाम नहीं / अब सच का कोई मुकाम नहीं...

Wednesday 23 October 2013

कैसी घड़ी है! सबको सोने की पड़ी है...


प्रभात रंजन दीन
कई मित्रों ने कहा कि स्वर्ण भंडार से सम्पन्न स्वप्न के बारे में कुछ क्यों नहीं लिखते! अब क्या लिखें और क्या कहें... इस संत-स्वप्न ने शब्द और अभिव्यक्ति की दिशा ही भटका दी है। संतों के स्वप्न में भी सोने के सिक्के दिखने लगें तो युग की दिशा दिखने लगती है। फिर सत्य का दिव्यस्वरूप किसे दिखे! फिर माया के प्रति निस्पृह भाव कैसे जगे! फिर लोभ-लिप्सा से मन कैसे डिगे! खैर, हम तो गृहस्थ हैं। वह भी माटी के मोल वाले। फिर हम क्यों सोचें संतों के सपनों के स्वर्ण-स्तर के बारे में! जब संत स्वप्न और सत्य में फर्क न कर पाए। जब स्विस और स्वप्न में देश का हित विलय कर जाए, जब काला धन और गड़ा धन का सत्य एक दूसरे पर चढ़ बैठे, जब अध्यात्म भौतिक-भ्रांतियों का प्रवक्ता बन बैठे, तब आप समझ लें कि यह संतों और फंतों के मेलमिलाप और साठगांठ का युग है। गड़ा सोना खोदने की सरकारी जल्दीबाजी और 'स्वर्ण-स्वप्न-द्रष्टा' की बयानबाजी का मेल समझने में कहां है कोई झमेल! इतनी ही जल्दीबाजी में नेता विकास का काम करता तो सोना ही सोना दिखता सब तरफ। 66 साल नुकसान नहीं होता। इतने लम्बे त्रासद साल में न कोई संत आया और न कोई स्वप्न। बस, सब नेता मिल कर हमें ही कोड़-कोड़ कर, हमें ही फोड़-फोड़ कर हमारा सोना लूटते रहे और हम अपना भाग कूटते रहे...  

सच कहूं, सपनों में उनके जब से सोना आने लगा है, तबसे मेरा सोना मुझसे जाने लगा है। मन में झुंझलाहट भी होती है कि सोना क्यों नहीं आता मेरे सपने में! ख्वाबों की जमीन कोड़ कर सोना उगा लेने का जज्बा तो है, लेकिन सोना हमारे जज्बे की अब जरूरत नहीं है। हमारे ख्वाबों में आता तो फावड़ा चलाने वाली किसी एजेंसी को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ती। हमारे जैसे जिद्दी फाकाकशों की टोली ऐसे जाने कितने गहरे सपने खोद डालती और सोना निकाल लेती। इसे निकलना नहीं है इसीलिए तो ये उनका सपना है। सोना सपने में भी देख-समझ कर ही आता है। सामंती सौंदर्य वाला सोना सर्वहारा जमात के सपने में भी क्यों दिखे? हमारा तो लोहा भी नहीं, हम तो ठहरे लोहे को धार देने वाले लोग, शब्द को तलवार देने वाले लोग। हम तो धार धारण करने वाले साधारण हैं। ...और सोना बुर्जुआ। तभी तो वह स्वप्न में भी पूंजीपतियों और सुख-सेवा-सम्पन्न संतों के सोने में आता है। और पूरी दुनिया की नींद हर लेता है। जबसे सोना वाला सपना सुर्खियों में आया है, उसने तो मेरा सोना छीन लिया है। अब मेरे सड़कछाप सपने मुझे सोने नहीं दे रहे। कभी चोरी गए मां और बीवी के गहनों की याद दिला कर कील की तरह चुभते हैं मेरे ख्वाब। तो कभी एहसास कराते हैं कि सोना चोरों को ही शोभा देता है। देर रात आने वाली नींद का सपना जलती धूप सा बरसने लगता है। तो अक्सर रात में ही उठ कर दिमाग में दुपहरी को जगाना पड़ता है। न रात होती है, न नींद होती है, न सुबह होती है... सब कुछ एक स्वांग की तरह बीतता जाता है। और जीवन का सोना भी इसी तरह रीतता जाता है। सोना का सपना दिखता है तो सपना खुद भोंपू बन जाता है। असलियत वाला दर्द सपना समझ कर मौन सहना पड़ता है, कोई जान भी नहीं पाता। न संत जान पाता है न फंत... सबको तो सोने की पड़ी है। पता नहीं यह कैसी घड़ी है...

Monday 21 October 2013

हिंडाल्को कर रहा यूपी में जमीनों पर कब्जा


कोयला घोटाले की चपेट में उत्तर प्रदेश भी
प्रभात रंजन दीन
नवीन जिंदल फिलहाल छाया-क्षेत्र में हैं। अभी सीबीआई की कोप-दृष्टि उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला और कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव वरिष्ठ नौकरशाह पीसी पारिख पर है। अभी कुछ ही दिन पहले 'कैनविज टाइम्स' ने आपको बताया था कि सीबीआई के निदेशकों को रिटायरमेंट के बाद जिंदल के विभिन्न प्रतिष्ठानों में शीर्ष सुविधासम्पन्न पदों पर नौकरी दी जाती रही है। जिंदल से उपकृत करीब आधा दर्जन निदेशकों और लगभग इतने ही अन्य बड़े नौकरशाहों के बारे में उनकी सुंदर फोटो के साथ खबर प्रकाशित हुई थी। जिंदल पर फिलहाल सधी हुई चुप्पी की सीधी और साफ वजह है। प्रधानमंत्री भी नहीं चाहते कि जिंदल पर कोई आंच आए और सीबीआई भी नहीं चाहती। लिहाजा, बिड़ला और पारिख पर ध्यान केंद्रित किया गया है। अब कुछ दिन बिड़ला-पारिख चलेगा। होना-जाना किसी का कुछ भी नहीं है, बस लोगों में यह भ्रम बना रहे कि कुछ हो रहा है। प्रधानमंत्री ने कह ही दिया है कि जो हुआ वह सही हुआ है। तो भारतीय लोकतंत्र के ऐसे सत्ताधीशों के राज में हम आम लोग कुछ कर तो नहीं सकते, पर यह जानते जरूर चलें कि इन कुलीन चेहरों की कितनी-कितनी काली करतूतें हैं। जानकारी और जागरूकता बनाए रखने की धारा के क्रम में हम यह जानते चलें कि कोयला घोटाले से हमारा उत्तर प्रदेश भी अछूता नहीं है। कोयला घोटाले में लिप्त आदित्य बिड़ला समूह का प्रतिष्ठान 'हिंडाल्को' (हिंदुस्तान अल्युमिनियम कॉरपोरेशन लिमिटेड) भूमाफिया की तरह उत्तर प्रदेश में जमीनें हड़प रहा है। उत्तर प्रदेश के किसानों की जमीनें कोयले की अकूत कमाई के साम्राज्य के नीचे दबती जा रही हैं, लेकिन यूपी सरकार इस तरफ ध्यान नहीं दे रही है। केंद्र सरकार के सीधे संरक्षण में यह अवैध कृत्य हो रहा है इसलिए भी उत्तर प्रदेश सरकार कुछ बोल नहीं रही। नियम कानून ताक पर रख कर हिंडाल्को को उत्तर प्रदेश में जमीनें दिलाने और कब्जा कराने में केंद्र सरकार के अधिकारी और केंद्र सरकार के उपक्रम तो शामिल हैं ही, प्रधानमंत्री भी जानकारी के बावजूद आंखें मूंदे रहे हैं। कोयला घोटाला केवल कोयले के अवैध खनन-आवंटन से ही नहीं बल्कि कोयला साम्राज्य के अवैध विस्तार से भी सम्बद्ध है। हालत यह है कि कब्जे की जमीन पर भी बोर्ड लगवा कर हिंडाल्को उसे अपनी निजी सम्पत्ति बता रहा है।
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में ककरी कोल परियोजना के रोप-वे के लिए दस किलोमीटर का क्षेत्र हिंडाल्को को लीज़ पर दिए जाने का औपचारिक फैसला 21 फरवरी 2009 को हुआ। लेकिन गैरकानूनी तरीके से इतना बड़ा क्षेत्र 1997 में ही हिंडाल्को को दे दिया गया था। शासनिक-प्रशासनिक अंधेरगर्दी का हाल यह है कि इस पर सरकार ने ध्यान ही नहीं दिया। अवैध तरीके से ली गई इस जमीन पर हिंडाल्को बाकायदा अपना रोप-वे बना कर सोनभद्र को प्रदूषित करने का धंधा करता रहा, कोयले की राख फेंकता रहा और सरकारी अधिकारी उपकृत होते रहे। 11 साल बाद जब इसकी जानकारी केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) को मिली और सीवीसी सक्रिय हुए तो आनन-फानन कोयला मंत्रालय के उपक्रम नॉरदर्न कोल फील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) ने हिंडाल्को को एक महीने के अंदर जमीन खाली करने की नोटिस दे दी। सत्ता को अपनी पकड़ में रखने वाले बिड़ला एनसीएल की नोटिस पर जवाब दें या जमीन खाली कर दें, ऐसा कहां सम्भव था! हिंडाल्को सीधे कोयला मंत्रालय के सचिव के पास पहुंच गया। ...और अब केंद्र सरकार के आला नौकरशाह बिड़ला के नौकर में तब्दील हो गए। सात मई 2008 को हिंडाल्को की चिट्ठी मंत्रालय पहुंचती है और आठ मई 2008 को ही फाइल भी खुल जाती है और कार्रवाई के लिए तीव्र गति से चल भी पड़ती है। बीच में थोड़ा 'ब्रेक' लेते हुए हम इसे रेखांकित करते चलें कि सरकारी कार्रवाइयों में इतनी ही तीव्रता आम लोगों के लिए होती तो अब तक देश दूसरी ही काया में होता। बहरहाल, आप वह फाइल देखेंगे तो हैरत में पड़ जाएंगे। उसमें केंद्र सरकार की यह चिंता दिखाई देती है कि हिंडाल्को को दी गई जमीन उससे छिन न जाए। उसी फाइल में एक कोने में यह भी स्वीकारोक्ति है कि एनसीएल ने हिंडाल्को को जमीन देने के लिए केंद्र से कोई मंजूरी नहीं ली। कोई सूचना भी नहीं दी। आपराधिक दुस्साहस यह है कि एनसीएल ने 'कोल वियरिंग एक्वीजिशन ऐक्ट' को ताक पर रख दिया और हिंडाल्को को एक लाख 79 हजार 32 रुपए के सालाना लीज़ पर जमीन दे दी। तब कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के हाथ में ही था। ...और मंत्रालय इतना पूंजी-प्रमाद में मत्त था कि एक दशक से अधिक समय तक ऐसे गम्भीर अपराध पर चुप्पी साधे बैठा रहा। एनसीएल और मंत्रालय का अपराध साबित मानते हुए भी केंद्र ने दोषी अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं की। उल्टा कोयला मंत्रालय में बैठे शीर्ष नौकरशाह शरद गोडके हिंडाल्को की चिट्ठी मिलने के छह दिन बाद ही जमीन खाली करने वाली नोटिस रोकने का फैक्स आदेश तैयार किए बैठे थे। 21 दिन बाद 29 जुलाई 2008 को फैक्स आदेश भेज कर जमीन खाली कराने की कार्रवाई औपचारिक तौर पर रोक दी गई। जमीनी तौर पर कार्रवाई हो भी नहीं रही थी।
केंद्र सरकार ने गैर-कानूनी लीज़ की स्वीकारोक्ति, एनसीएल और केंद्र सरकार के अधिकारियों की मिलीभगत की पुष्टि और सरकारी राजस्व की हानि की आधिकारिक स्थापना के बाद 21 फरवरी 2009 को हिंडाल्को के साथ लीज़ का औपचारिक करार किया। यह केंद्र सरकार का ऐतिहासिक कुकृत्य है। इस लीज़ करार ने खुद ही यह साबित कर दिया कि पिछले 12 साल से बना हिंडाल्को का कब्जा अवैध था। यह कब्जा अब भी अवैध है। क्योंकि ऐक्ट में किसी गैर सरकारी संस्थान को जमीन लीज़ पर देने की स्पष्ट मनाही है। 'कोल वियरिंग एक्वीजिशन ऐक्ट' में कोई संशोधन भी नहीं किया जा सकता। लीज़ करार आठ लाख 32 हजार 430 रुपए का हुआ। और इस तरह केंद्र ने मान लिया कि पिछले 12 साल में 78 लाख 40 हजार 776 रुपए का राजस्व नुकसान हुआ। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है! जहां लाखों करोड़ रुपए लूटे जा रहे हैं, वहां 78 लाख क्या है! पर, सफेदपोश चेहरों पर कालिख पोतने का क्रम हम जारी रखेंगे...


Monday 7 October 2013

सीबीआई के निदेशकों को जिंदल देता है नौकरियां

सीबीआई जांचों के फेल होने की वजहों का भयानक सच
प्रभात रंजन दीन
सीबीआई के निदेशक रहे अश्वनी कुमार सीबीआई से रिटायर होने के बाद और नगालैंड के राज्यपाल बनाए जाने के पहले नवीन जिंदल के प्रतिष्ठान में नौकरी कर रहे थे। सीबीआई के कई पूर्व निदेशक व वरिष्ठ नौकरशाह जिंदल संगठन में अभी भी नौकरी कर रहे हैं। सीबीआई के निदेशकों को रिटायर होते ही जिंदल के यहां नौकरी कैसे मिल जाती है? सत्ता के गलियारे में पैठ रखने वाले वरिष्ठ नौकरशाहों को जिंदल से जुड़े प्रतिष्ठानों में प्रभावशाली ओहदों पर क्यों बिठाया जाता है? ताकतवर नौकरशाह जिंदल के संस्थानों से महिमामंडित और उपकृत क्यों होते रहे हैं? और उन पर केंद्र सरकार ध्यान क्यों नहीं दे रही? कोयला घोटाले में जिंदल समूह की संलिप्तता और घोटाले की सीबीआई जांच से जुड़ी फाइलों की रहस्यमय गुमशुदगी को देखते हुए इन सवालों को सामने रखना जरूरी हो गया है। उद्योगपति व ताकतवर कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल की कोयला घोटाले में भूमिका जगजाहिर है। सत्ता से उनकी नजदीकियां और उन नजदीकियों के कारण कोयला घोटाले की हो रही लीपापोती भी उजागर है। घोटाले में लिप्त हस्तियों की साजिशी पहुंच कितनी गहरी है, यह घोटाले से जुड़ी फाइलें गायब होने के बाद देश को पता चल रहा है। लेकिन अब आप इस खबर के जरिए देखेंगे कि पर्दे के पीछे पटकथाएं कैसे लिखी जाती हैं और कौन लोग लिखते हैं!
कोयला घोटाले में प्रमुख भूमिका निभाने वाले जिंदल समूह के जरिए केंद्र सरकार के वरिष्ठ नौकरशाहों को उपकृत कराने का सिलसिला लंबे अरसे से चल रहा है। आप तथ्यों को खंगालें तो आप पाएंगे कि सत्ता के अंतरंग जिन नौकरशाहों को केंद्र सरकार खुद उपकृत नहीं कर पाई, उन्हें जिंदल के यहां शीर्ष पदों पर नौकरी मिल गई। ऐसा भी हुआ कि नौकरी करते हुए भी कई नौकरशाहों को जिंदल के मंच से महिमामंडन का 'सुअवसर' प्रदान किया जाता रहा।
कांग्रेस के बेहद करीबी रहे अश्वनी कुमार उस समय सीबीआई के निदेशक थे, जब कोयला घोटाला पूरे परवान पर था। दो साल की निर्धारित सेवा अवधि में चार महीनों का विस्तार अश्वनी कुमार की सत्ता-अंतरंगता का ही प्रमाण है। कुमार दो अगस्त 2008 को सीबीआई के निदेशक बनाए गए थे और उन्हें दो अगस्त 2010 को रिटायर हो जाना चाहिए था, लेकिन उन्हें एक्सटेंशन दिया गया और सत्ता की मंशा पूरी होने के बाद कुमार नवम्बर 2010 को सीबीआई के निदेशक पद से रिटायर हुए। ...और अश्वनी कुमार जैसे ही सीबीआई के निदेशक पद से रिटायर हुए, उन्हें जिंदल समूह ने लपक लिया। सीबीआई के पूर्व निदेशक अश्वनी कुमार को जिंदल समूह के ओपी जिंदल ग्लोबल बिजनेस स्कूल का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया गया। केंद्र सरकार ने अश्वनी कुमार को ओपी जिंदल ग्लोबल बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर के रूप में महिमामंडित कराने के बाद मार्च 2013 में उन्हें नगालैंड का राज्यपाल मनोनीत कर दिया। कोयला घोटाला, घोटाले की लीपापोती, जिंदल की भूमिका और जिंदल समूह में सीबीआई निदेशकों की नियुक्ति के सूत्र आपस में मिलते हैं कि नहीं, इसकी पड़ताल का काम तो जांच एजेंसियों का है। हमारा दायित्व तो उन सिरों को रौशनी में लाने भर का है।
अश्वनी कुमार को सीबीआई का निदेशक बनाए जाने के पीछे की अंतरकथा भी कम रोचक नहीं है। 17 साल से अधिक समय से सीबीआई को अपनी सेवा दे रहे खांटी ईमानदार 1972 बैच के राजस्थान कैडर के आईपीएस अधिकारी एमएल शर्मा का निदेशक बनना तय हो गया था। चयनित निदेशक को प्रधानमंत्री के साथ चाय पर बुलाने की परम्परा के तहत शर्मा को पीएमओ में आमंत्रित भी कर लिया गया। उधर, सीबीआई कार्यालय तक इसकी सूचना पहुंच गई और वहां लड्डू भी बंट गए। लेकिन अचानक केंद्र सरकार ने एमएल शर्मा का नाम हटा कर हिमाचल प्रदेश के डीजीपी व 1973 बैच के आईपीएस अधिकारी अश्वनी कुमार को सीबीआई का निदेशक बना दिया। जबकि शर्मा उनसे सीनियर थे। शर्मा ने प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड और उपहार सिनेमा हादसा जैसे कई महत्वपूर्ण मामले निपटाए थे। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें आखिरी वक्त पर सीबीआई का निदेशक बनने लायक नहीं समझा, क्योंकि शर्मा वह नहीं कर सकते थे जो केंद्र सरकार सीबीआई से कराना चाहती थी। आपको मालूम है कि सीबीआई की नियुक्ति को देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त, कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय के सचिव और केंद्रीय गृह सचिव हरी झंडी देते हैं। शर्मा के लिए यह तीन सदस्यीय समिति अपनी सहमति दे चुकी थी। प्रधानमंत्री भी इसकी मंजूरी दे चुके थे आखिरी वक्त में प्रधानमंत्री ने अपनी मर्जी या किसी पर्दानशीन-मर्जी के दबाव में शर्मा का नाम ड्रॉप कर अश्वनी कुमार को सीबीआई का निदेशक बना दिया। अचानक एमएल शर्मा को हटा कर अश्वनी कुमार को सीबीआई का निदेशक कैसे और क्यों बनाया गया, यह देश के सामने आए बाद के घटनाक्रम ने स्पष्ट कर दिया है। अश्वनी कुमार ऐसे पहले सीबीआई निदेशक हैं जो राज्यपाल बने। आरुषि हत्याकांड की लीपापोती करने और सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में अमित शाह को घेरे में लाने वाली सीबीआई को अश्वनी कुमार ही नेतृत्व दे रहे थे। लिहाजा, कोयला घोटाले में उनका रोल क्या रहा होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है।
सीबीआई के पूर्व निदेशक डीआर कार्तिकेयन जिंदल समूह के ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी की एकेडेमिक काउंसिल के वरिष्ठ सदस्य हैं। कार्तिकेयन 1998 में सीबीआई के निदेशक रह चुके हैं। सीबीआई के अलावा सीआरपीएफ के विशेष डीजी और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के महानिदेशक जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहने के बाद कार्तिकेयन अभी जिंदल की सेवा कर रहे हैं। इसी तरह चार जनवरी 1999 से लेकर 30 अप्रैल 2001 तक सीबीआई के निदेशक रहे आरके राघवन भी जिंदल समूह की सेवा में हैं। जिंदल समूह ने राघवन को ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट का वरिष्ठ सदस्य बना रखा है।
जैसा ऊपर भी बताया कि सीबीआई के जिन निदेशकों को जिंदल अपने समूह में नियुक्त नहीं कर पाया उन्हें अपने शैक्षणिक प्रतिष्ठान से महिमामंडित कराता रहा। 30 नम्बर 2010 से 30 नवम्बर 2012 तक सीबीआई के निदेशक रहे और टूजी स्पेक्ट्रम जैसे बड़े घोटाले की जांच से जुड़े रहे अमर प्रताप सिंह को रिटायर होने के महज महीने डेढ़ महीने के अंदर केंद्र सरकार ने लोक सेवा आयोग का सदस्य मनोनीत कर दिया। उधर जिंदल अपने संस्थान के जरिए इनके भी प्रतिष्ठायन में पीछे नहीं रहा। ओपी जिंदल ग्लोबल विश्वविद्यालय के कई शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रमों में एपी सिंह शरीक रहे हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय पुलिस अकादमी तक में अपनी घुसपैठ बना चुका जिंदल वहां भी सैकड़ों वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों के विशेषज्ञीय प्रशिक्षण का प्रायोजन कराता रहता है और उसी माध्यम से शीर्ष नौकरशाही को उपकृत करता रहता है। ऐसा ही सीबीआई के पूर्व निदेशक पीसी शर्मा के साथ भी हुआ। 30 अप्रैल 2001 से लेकर छह दिसम्बर 2003 तक सीबीआई के निदेशक रहे पीसी शर्मा भी अपने रिटायरमेंट के महीने भर के अंदर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य मनोनीत कर दिए गए। जिंदल ने पीसी शर्मा को भी अपने समूह से जोड़े रखा और शैक्षणिक प्रतिष्ठानों; ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी व जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल के जरिए उनका महिमामंडन करता रहा।
सत्ता से जुड़े रहे वरिष्ठ नौकरशाहों के जिंदल से नजदीकियां वाकई रेखांकित करने लायक हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व सदस्य, भारत सरकार की नीति बनाने और उसे कार्यान्वित कराने की समिति के पूर्व निदेशक, प्रधानमंत्री, कैबिनेट सचिवालय और राष्ट्रपति तक के मीडिया एवं संचार मामलों के निदेशक रह चुके वाईएसआर मूर्ति को जिंदल ने ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी का रजिस्ट्रार बना रखा है। मूर्ति न केवल विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार हैं बल्कि वे मैनेजमेंट बोर्ड और एकेडेमिक काउंसिल के भी सदस्य हैं। वर्ष 2002 से 2007 तक देश के ऊर्जा सचिव रहे राम विनय शाही और भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन रहे अरुण कुमार पुरवार जिंदल स्टील्स प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्टर हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं। जिंदल देश का अकेला ऐसा पूंजी प्रतिष्ठान है जिसने सत्ता से जुड़े शीर्ष नौकरशाहों को अपने समूह में सेवा में रखा। खास तौर पर सीबीआई के पूर्व निदेशकों को अपनी सेवा में रखने में जिंदल का कोई सानी नहीं है।
आपको याद होगा कि कोयला घोटाले की जांच से जुड़े एक सामान्य अधिकारी विवेक दत्त को कुछ महीने पहले 15 लाख रुपए घूस लेते हुए पकड़ा गया था। विवेक दत्त को तत्काल प्रभाव से निलम्बित भी कर दिया गया और उसका पूरा करियर दागदार भी कर दिया गया। ऐसे जिन भी दागी अफसरों पर आपकी निगाह जाए, वे सभी मामूली अफसर ही होंगे। इनमें कोई भी आईपीएस अधिकारी नहीं होगा। जिंदल से उपकृत सीबीआई के पूर्व निदेशकों या वरिष्ठ नौकरशाह हस्तियों पर किसी की निगाह नहीं जाती। अगर वह अधिकारी सत्ता का करीबी, खास तौर पर सोनिया-राहुल-प्रियंका का अंतरंग रहा हो तो ऐसे अधिकारी पर कोई हाथ नहीं रख पाएगा। ऐसा अफसर जिंदल जैसे घोटालेबाज पूंजीपति सियासतदानों के यहां नौकरी भी पा जाएगा, आयोगों में पीठासीन भी हो जाएगा और राज्यपाल भी बना दिया जाएगा। ट्रान्सपैरेंसी इंटरनेशनल ने 2010 में कहा था कि भारत में 100 में से 54 लोग भ्रष्ट हैं। यह 2010 में कहा था। तीन साल में 54 की संख्या अब 94 हो चुकी होगी। बहरहाल, हम आंकड़ों पर न जाएं। नेता-नौकरशाह इन आंकड़ों से कहीं ऊपर खड़े हैं और कुकृत्यों के गंदे दलदल में कहीं गहरे धंसे हैं।

कहीं माओवादियों की न हो जाए गोरखा रेजीमेंट!


जहां नेपाली माओवादी कर रहे कब्जा, वहीं मिल रहे थे भारत-नेपाल के सेनाध्यक्ष
प्रभात रंजन दीन
भारतीय सेना में नेपाल के माओवादियों की भर्ती की खबर लेकर सुबह जब 'कैनविज टाइम्स' पाठकों के हाथ में था ठीक उसी समय भारतीय सेना के प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह और नेपाली सेना के प्रमुख जनरल गौरव शमशेर जंग बहादुर राणा पिथौरागढ़ में हाथ मिला रहे थे। मध्य कमान के जनरल अफसर कमांडिंग इन चीफ लेफ्टिनेंट जनरल राजन बख्शी भी वहीं मौजूद थे। उत्तराखंड भी मध्य कमान के सैन्य क्षेत्र में आता है और माओवादियों का भीषण जमावड़ा इस क्षेत्र में कुछ अलग किस्म की खिचड़ी पकने का संदेश दे रहा है। इस पर खुफिया एजेंसियां न केवल सेना बल्कि गृह मंत्रालय को भी सतर्क कर रही हैं। मिजोरम के विरांगटे स्थित 'काउंटर इनसरजेंसी एंड जंगल वारफेयर स्कूल' और नेपाल के अमलेखगंज स्थित इसी तरह के सैन्य ट्रेनिंग संस्थान में दोनों देशों की सेनाएं प्रशिक्षण साझा कर रही हैं, यह तो अच्छा संदेश है, क्योंकि नेपाल के रास्ते पाकिस्तानी आतंकवाद भारत पहुंच रहा है और नेपाल को भी अपने चंगुल में लेता जा रहा है, इससे निपटने की गुरिल्ला तैयारियां तो होनी ही चाहिए। लेकिन भारतीय सेना में भर्ती के जरिए माओवादियों की जो भारी घुसपैठ हो चुकी है, उससे निपटने का रास्ता क्या हो, इस पर सेना ने अब तक कोई रणनीति नहीं बनाई है।
सोमवार के अंक में 'कैनविज टाइम्स' ने आपको बताया कि नेपाल के हथियारबंद माओवादियों की किस तरह भारतीय सेना में भर्तियां हो रही हैं। इसमें माओवादी कमांडर रोम बहादुर खत्री का नाम आया जो माओवादियों को सेना में भर्ती कराने में सक्रिय है। उसने अपने दो बेटों को भी भारतीय सेना में भर्ती कराया और उसके साथ ही बड़ी तादाद में अन्य माओवादियों को भी भर्ती करा लिया। माओवादी कमांडर का एक बेटा भोजराज बहादुर खत्री नेपाली सेना में फौजी था लेकिन माओवादियों के लिए मुखबिरी करता था। बाद में उसे भगा कर भारत लाया गया और यहां गोरखा रेजीमेंट में भर्ती करा दिया गया। सारी भर्तियां फर्जी दस्तावेजों पर हुईं, चाहे वह शैक्षणिक प्रमाण पत्र हों या डोमिसाइल प्रमाण पत्र। यह सोमवार के अंक में प्रकाशित हुई खबर का निचोड़ है।
आप यह जानते चलें कि भारत में तकरीबन 50 हजार गोरखा सैनिक हैं और गोरखा रेजीमेंट की 39 बटालियनें भारत में सक्रिय हैं। नेपाल के माओवादियों की भारतीय सेना में हो रही या हो चुकी भर्तियां भविष्य में हमारे सामने भीषण समस्याएं खड़ी कर सकती हैं। हम खुफिया एजेंसियों की कुछ सूचनाएं आपके समक्ष रखेंगे। इससे आप आने वाले समय की भयावह स्थिति का अंदाजा खुद लगा लेंगे। भारत की सारी अंतरराष्ट्रीय सीमा किस बदहाली में है यह सब जानते हैं। अब नेपाल से लगने वाली सीमा भी आफत का सबब बनने वाली है। खुफिया एजेंसियां यह बता चुकी हैं कि माओवादी संगठन 2050 तक भारत की सत्ता पर काबिज होने की योजना पर तेज गति से काम कर रहे हैं और नेपाल की तरफ से घेराबंदी इस योजना का अहम हिस्सा है। बिहार और नेपाल की सीमा पर नक्सलियों द्वारा आपत्तिजनक पोस्टर बांटे जा रहे हैं। इन पोस्टरों से भारत विरोधी भावनाएं सुलगाने का काम हो रहा है। ऐसे कुछ पोस्टर हम आपको बाद में दिखाएंगे। खुफिया एजेंसियों ने सतर्क किया है कि नेपाली माओवादी भारत-नेपाल सीमा की शिनाख्त कराने वाले पुराने सीमा स्तम्भ हटा रहे हैं, जिससे सीमा की पहचान ही समाप्त हो जाए। माओवादियों ने ऐसे करीब साढ़े पांच सौ स्तम्भ गायब कर दिए हैं। आधिकारिक तौर पर बताया गया कि भारत नेपाल की करीब 18 सौ किलोमीटर सीमा पर तकरीबन साढ़े तीन हजार स्तम्भ लगाए गए थे, इनमें से अधिकांश का कोई अता-पता नहीं है। उत्तराखंड के उस इलाके में जहां सोमवार को भारत और नेपाल के सेनाध्यक्ष साझा ऑपरेशन देख रहे थे, वहां के बारे में खुफिया रिपोर्ट कहती है कि वह क्षेत्र माओवादियों के घेरे में कसता जा रहा है। उत्तराखंड का नैनीताल, चम्पावत, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, पीलीभीत के जंगलों में माओवादी अपनी जड़ें जमा रहे हैं। भारत नेपाल सीमा पर तैनात एसएसबी इन्हें काबू करने में नाकाम है। उत्तराखंड से लगी नेपाल की सीमा पर 'नो मैन्स लैंड' पर माओवादियों ने बाकायदा अपने घर बना लिए हैं और 'नो मेन्स लैंड' अब माओवादियों के कब्जे में है। वहां नेपाली यंग कम्युनिस्ट लीग के झंडे फहराते हैं। उल्लेखनीय है कि भारतीय सेना में माओवादियों की भर्ती कराने में यंग कम्युनिस्ट लीग ही सक्रिय है। रोम बहादुर खत्री इसी लीग का नेता है। पता नहीं, दोनों देश के सेनाध्यक्षों की इस ओर निगाह गई कि नहीं! या मध्य कमान के अभिभावक लेफ्टिनेंट जनरल बख्शी ने उनका ध्यान दिलाया कि नहीं!
बहरहाल, नेपाली माओवादी और भारतीय माओवादी मिल कर घेरेबंदी कर रहे हैं। उनका लक्ष्य वर्ष 2050 है। उन्हें भरोसा है कि जब उनकी तैयारी पूरी होगी तो सेना का एक बड़ा हिस्सा उनके साथ आ जाएगा। कुछ अर्सा पहले उत्तराखंड के जगलों में माओवादियों को हथियारों की ट्रेनिंग देने वाला कमांडर पकड़ा गया था। उसका नाम प्रशांत राही है। उत्तराखंड के जंगलों में माओवादियों को प्रशिक्षण दे रहे ऐसे भारतीय कमांडरों की कोई कमी नहीं है। हम भारतीय सेना में नेपाली माओवादियों की भर्ती के जरिए हो रही घुसपैठ को इन गतिविधियों से जोड़ कर देखें तो इनके सिरे मिलते हुए दिखाई देते हैं। जैसा पहले बताया कि भारतीय सेना में नेपाली गोरखा समुदाय के 50 हजार से अधिक लोग भर्ती हैं। ये हर साल सात-आठ सौ करोड़ रुपए अपने परिवारों के लिए नेपाल भेजते हैं। एक लाख से अधिक गोरखा भारतीय सेना से रिटायर होने के बाद नेपाल में रहते हैं। इन्हें भी 500 करोड़ से अधिक की राशि सालाना पेंशन मिलती है। यह तादाद अगर माओवादियों के सक्रिय हितचिंतकों में तब्दील हो गई तो दृश्य क्या होगा? खुफिया एजेंसियां यह बता-बता कर थक गईं कि भारत में माओवादी बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश, ओड़ीशा, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल को तेजी से अपने 'ग्रिप' में ले रहे हैं। लेकिन कोई समानान्तर सरकारी तैयारी नहीं। केंद्र और राज्य की सरकारों को घटिया सियासत से फुर्सत नहीं है...

राहुल गांधी हैं कि चुलबुल पांडे हैं!


प्रभात रंजन दीन
दिल्ली के प्रेस क्लब में शुक्रवार को एक शूटिंग हो रही थी, उसमें कैमरे के सामने अचानक एक अभिनेता की इंट्री का सीन आता है, डायलॉग मारता है और एक्जिट कर जाता है। इसमें रॉल... ऐक्शन... कट... रीटेक... जैसी कोई आवाज नहीं आती और फिल्म पर्दे पर दिखाई जाने लगती है। यह बॉलीवुड की फिल्म नहीं थी। यह पॉलीवुड की फिल्म थी। पॉलीवुड की फिल्म शूटिंग के पहले ही सेंसर बोर्ड से पास हो जाती है, तब उसकी शूटिंग होती है और शूटिंग होते ही उसका 'ग्रैंड गाला रिप्रेजेंटेशन' भी हो जाता है। जिस तरह नसीर हुसैन या ओमप्रकाश को देख कर लोग कभी सिनेमा हॉल में सुबकने लगते थे, जिस तरह ललिता पवार या नादिरा को देख कर लोग कुढ़ने लगते थे, जिस तरह राजेश खन्ना या देवानंद को देख कर श्रृंगार भाव जाग उठता था, जिस तरह धर्मेंद्र या अमिताभ बच्चन को देख कर लोगों की मांसपेशियां फड़कने लगती थीं, ...ठीक उसी तरह पॉलीवुड की फिल्म देख कर मीडिया, विश्लेषक, नागरिक, राजनीतिक सब भावुक होने लगे, फड़कने और धड़कने लगे। सबके समीक्षा के भाव पर सिनेमा हॉल के अंदर छाए घुप्प अंधेरे की तरह का अंधकार छा गया। लोग पॉलीवुड की इस फिल्म में ऐसे 'इन्वॉल्व' हो गए कि जैसे ऐसा कुछ सच में हुआ हो। यह 'हिप्नॉटिक फिल्म' की तरह का प्रायोजित मंचन था, इसका नशा कह लें या मतिभ्रम, अब तक छाया हुआ है। ...लेकिन अब आप बाहर आ जाएं और असलियत के कटु-संसार में लौटें। आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कांग्रेस कुछ अधिक ही मर्माहत थी। सर्वोच्च अदालत के फैसले को ताक पर रखने की ताक में लगे कांग्रेसी आपस में गहरी मंत्रणा करते रहे और मानसून सत्र समाप्त होने के बाद तत्काल एक अध्यादेश ले आए। राष्ट्रपति अगर इसे मंजूर कर लेते तो यह अध्यादेश अगले सत्र तक के लिए लागू हो जाता। राशिद मसूद और लालू यादव जैसे कई नेता बच जाते और इतने में चुनाव करा लेते, फिर संसद से पास कराने की अनिवार्यता आगे देख ली जाती। इस बीच अध्यादेश को लेकर कोई ललिता पवार सामने नहीं आईं, न कोई नसीर हुसैन आए और न कोई अमिताभ बच्चन। जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अध्यादेश को लेकर तीन वरिष्ठ मंत्रियों को हांक लगाई और अपनी तल्खी जताई तो अगली शूटिंग का प्लॉट तय होने लगा। पहली शूटिंग में एंग्री यंग मैन की भूमिका के लिए बच्चा मिलिंद देवड़ा चुना गया, लेकिन ट्रेलर ही फ्लॉप कर गया। इसके बाद तो समय भी नहीं था, लिहाजा 'दबंग' की तर्ज पर राहुल गांधी की इंट्री तय की गई। इसके लिए अजय माकन को साइड रोल दिया गया और प्रेस क्लब में शूटिंग का सेट लगा दिया गया। अजय माकन की डायलॉग डिलिवरी चल रही थी कि धमाके से चुलबुल पांडे की इंट्री हुई। धड़धड़ा कर डायलॉग चला और पांडे जी की किरदारी निभा कर राहुल गांधी पतली गली से निकल लिए। अपने ही किए को लीपने की पेशबंदी में शायद पॉलीवुड में ऐसी फिल्म पहली ही बार बनी होगी। ...और मीडिया तो पतंग ले उडऩे में माहिर है। राहुल की पतंग उडऩे लगी। किसी ने फाड़ डाला रे... किसी ने मार डाला रे... की तरह खबरें तानीं और छापीं और दिखाईं। जनता को जिस तरह राहुल पैदल मानते हैं, वैसा ही मीडिया भी मानता है। जनता के प्रति लोकतंत्र के चारों स्तम्भों की एक ही राय है... सब मिलकर इसी को बनाते हैं। उसी जनता में से किसी की टिप्पणी थी कि जिसने भी इस पॉली-फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी थी, उसने भारत के लोगों की बुद्धिमता का स्तर बहुत ही नीचे वाला आंका था। इसीलिए लगता है कि इतनी घटिया स्क्रिप्ट या तो दिग्गी बुरकावाला लिख सकता है या फिर मनीष टपोरी! आप समझ ही सकते हैं कि दिग्गी बुरकावाला और मनीष टपोरी किसके लिए कहा गया होगा। इसे भले ही दिग्विजय सिंह या मनीष तिवारी न समझें।
...आप यह देखें और चिंता करें कि हमारा देश किस दौर से गुजर रहा है। कितना बचकानापन और फूहड़पन आ गया है हमारे देश की राजनीति में। इसका चारित्रिक असर शासन पर, प्रशासन पर, अदालतों पर, मीडिया पर आएगा ही और इसका घातक परिणामकारी असर आखिरकार जनता को झेलना होगा। जो व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बनने का ख्बाब देख रहा हो। जो चौकड़ी प्रधानमंत्री के भावी सिपहसालार बनने का सपना बुन रही हो, उनका मनोविज्ञान 'फटा पोस्टर निकला हीरो'... टाइप के बाल-चमत्कार की फंतासी से भरा हो तो आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं? ऐसे लोगों से आप फाड़ डाला... मार डाला जैसे फूहड़ ऐक्शन नहीं पाएंगे तो क्या आप गम्भीर विचार और आचरण पाएंगे? पाकिस्तान की सेना घुस कर भारतीय सैनिकों के सिर काट डाले, गोलियों से भून डाले, आतंकी वेश में विध्वंस फैलाए... तब आप इनसे फाड़ डालो-मार डालो का डायलॉग नहीं सुनेंगे। क्योंकि सीमा पर लफ्फा-शूटिंग से तो काम चलेगा नहीं। वहां पक्का-शूटिंग और असली ऐक्शन से मामला निपटता है। अध्यादेश पर समय पर नहीं, बाद में बड़ी-बड़ी बोलियां निकालने वाले राहुल तब कहां थे जब जीजाजी घोटाला कर रहे थे? चलिए जीजाजी छोडि़ए... टूजी, सीडब्लूजी, हेलीजी और कोलजी हो रहा था तब राहुल जी कहां थे?
हर तरफ हर जगह सच की सुरक्षा और ईमान की हिफाजत पर कोई न कोई नेता बोलता है। हर तरफ हर जगह देश की सुरक्षा और खुशहाली पर कोई न कोई नेता बोलता है। हर तरफ हर जगह कानून व्यवस्था और न्याय की बहाली पर कोई न कोई नेता बोलता है। अद्भुत होगा वह दिन जब नेता बोलेगा तो जनता रौंदेगी। अद्भुत होगा वह दिन जब हम मोमबत्तियां जला कर अपनी हीनता नहीं जताएंगे। अद्भुत होगा वह दिन जब सत्ता-पूंजी की मनोरोगी संतानें वर्तमान को बींधती हुई भविष्य को क्षत-विक्षत करने का षडयंत्र नहीं कर पाएंगी। अद्भुत होगा वह समय जब हम मौकानुकूलित सामाजिक परिवेश से खुद को अलग कर लेंगे और सत्तानुकूलित दुर्बुद्धिजीवी विद्वत्ता से देश को मुक्त करा देंगे। उनका मकसद है अपनी आवाज को उछालना हमारी आवाज को दबाना। उनका मकसद है अपने कुकृत्यों से हमें झुलसाना और हमारी अग्नि को बुझाना। उनका मकसद है अपने को सुवासित रखना और हमारे हिस्से की सुगंध को कैद में रखना। हमारा लक्ष्य है अपनी आवाज बुलंद करना। हमारा लक्ष्य है अपनी अग्नि को जिंदा रखना और हवा देना। हमारा लक्ष्य है अपने हिस्से के सुगंध को और पसार देना। हमारा लक्ष्य है भगत सिंह जैसे देशभक्तों की आत्मा को प्रत्येक हृदय में विस्तार देना। 28 सितम्बर शहीद भगत सिंह की जन्मतिथि है। उनके प्रति हार्दिक श्रद्धा के साथ...

सेना में माओवादियों और अर्ध सैनिक बलों में जालसाजों की हो रही है भर्ती


बीएसएफ-सीआरपीएफ में फर्जी प्रमाणपत्र पर हो रही भर्तियां
दलितों के कोटे पर पिछड़ों की मौज
प्रभात रंजन दीन
भारतीय सेना में नेपाल के माओवादियों की बेतहाशा हुई भर्ती का 'कैनविज टाइम्स' ने जब खुलासा किया तो सेना ने तीन अक्टूबर से कानपुर में प्रस्तावित भर्ती रैली स्थगित कर दी। सेना ने आधिकारिक बयान दिया कि मौसम खराब रहने की वजह से भर्ती स्थगित हुई। मामूली बारिश सेना के लिए कब से व्यवधान बनने लगी, यह खुद सेना के ही अधिकारियों को समझ में नहीं आया। मध्य कमान के ही एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि बारिश तो इसके पहले भी होती रही है और घोषित तारीख पर भर्तियां भी होती रही हैं। सामान्य बारिश से इस पर कोई असर नहीं पड़ता। प्रशासनिक या कानून व्यवस्था की दिक्कतों या किसी 'अन्य गम्भीर हालात' में ही भर्ती रैली के स्थगित होने का निर्णय होता है। हम यह मानते हैं कि भारतीय सेना में माओवादियों की भर्ती ऐसे ही 'गम्भीर हालात' की सनद है, जिसमें भर्ती रैली स्थगित की गई। बहरहाल, समाज और देशहित से जुड़े सराकारों पर 'कैनविज टाइम्स' की चौकसी जारी रहेगी। माओवादियों की भर्ती से जुड़े कई और पहलुओं को हम रौशनी में लाएंगे।
अभी हम खुलासा करने जा रहे हैं बीएसएफ और सीआरपीएफ जैसे महत्वपूर्ण अर्ध सैनिक बलों और बीएसएनएल जैसे केंद्र सरकार के प्रतिष्ठान में दलितों के कोटे पर पिछड़ी जाति के लोगों की भर्ती के बारे में। पिछड़ी जातियों के लोग अनुसूचित जाति और जनजाति का फर्जी प्रमाणपत्र हासिल कर हजारों की तादाद में बीएसएफ, सीआरपीएफ और बीएसएनएल में भर्ती हो रहे हैं। सैकड़ों नहीं, हजारों की तादाद में। ...और विचित्र यह है कि इन नियुक्तियों के पकड़ में आने के बावजूद उन पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही। इसमें प्रदेश सरकार से लेकर अर्ध सैनिक बल के अधिकारियों तक की मिलीभगत है। उत्तर प्रदेश सरकार के प्रशासनिक अधिकारी इसे सख्ती से ऊपर इसलिए नहीं बढ़ाते क्योंकि इसमें प्रशासन के ही अधिकारी फंसेंगे।
हमारे पास ऐसे कई मामले हैं, जिनमें उत्तर प्रदेश शासन ने छानबीन की, फर्जी सर्टिफिकेट पर की गई नियुक्तियां पकड़ीं, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। शासन-प्रशासन कहता है कि सीआरपीएफ और बीएसएफ के महानिदेशकों को इस बारे में लिख दिया गया है। लेकिन ऐसा कोई तथ्य नहीं दिखता कि शासन की तरफ से लिखा गया पत्र बीएसएफ या सीआरपीएफ के महानिदेशकों या बीएसएनएल के शीर्ष प्रबंधन को भेजा भी गया कि नहीं। इन संस्थाओं में फर्जी लोग बाकायदा नौकरी कर रहे हैं। इसका मतलब ही है कि सब मिले हुए हैं। उत्तर प्रदेश शासन की तरफ से इस बारे में केंद्र सरकार को, गृह मंत्रालय को, कार्मिक मंत्रालय और संचार मंत्रालय को पत्र क्यों नहीं लिखा गया, यह संदेह का विषय है। केवल दो ही मामले ऐसे मिले जो सीधे बीएसएफ और सीआरपीएफ के पास पहुंचे और उनमें सीधी कार्रवाई हुई। एक मामला बीएसएफ का है जिसने फर्जी प्रमाणपत्र पर भर्ती हुए अशोक को नौकरी से बर्खास्त किया और दूसरा सीआरपीएफ का है जिसने अमर सिंह को न केवल नौकरी से निकाला बल्कि जालसाजी के आरोप में गिरफ्तार भी किया। लेकिन अन्य मामलों में कुछ भी नहीं हुआ और दलितों के कोटे पर पिछड़े आराम से नौकरी कर रहे हैं।
हमें सैकड़ों ऐसे लोगों नाम मिले हैं जो अनुसूचित जाति का फर्जी प्रमाणपत्र लेकर बीएसएफ और सीआरपीएफ में भर्ती हो गए हैं। 31 लोगों के बारे में तो शासन द्वारा की गई छानबीन की रिपोर्ट भी 'कैनविज टाइम्स' के पास है। इन 31 लोगों में से 19 लोग यादव व अहीर जाति के हैं और अनुसूचित जाति के नाम पर बीएसएफ और सीआरपीएफ में भर्ती हैं। बाकी के 12 लोग भी पिछड़ा वर्ग या अन्य पिछड़ा वर्ग के ही हैं। इनमें से दो लोग बीएसएनएल में भर्ती हैं। यानी, शासन की जांच में इन 31 लोगों के बारे में आधिकारिक तौर पर यह पुष्टि हुई कि पिछड़ा वर्ग से आने वाले इन लोगों ने तहसील से अनुसूचित जाति का फर्जी प्रमाणपत्र प्राप्त किया और इस आधार पर अर्ध सैन्य बलों में नौकरी पा ली। जिन लोगों के नाम पर फर्जीवाड़े की आधिकारिक मुहर लग चुकी है, हम उनके नाम भी छाप रहे हैं। सरकारी जांच में यह पाया गया कि अलीगंज और एटा की तहसील से फर्जी प्रमाणपत्र जारी हुए थे। लेकिन प्रदेश प्रशासन के स्तर पर भी कोई कार्रवाई नहीं की गई।  प्रशासन कहता है कि बीएसएफ और सीआरपीएफ के महानिदेशकों को इस बारे में इत्तिला कर दी गई है। लेकिन पुष्ट सूचना है कि वे सभी नौकरी कर रहे हैं। बीएसएनएल में हुई नियुक्तियों के बारे में तो कोई कुछ बोल भी नहीं रहा।
दलितों के कोटे पर नौकरी कर रहे यादव-अहीर
1. शिवनंदन पुत्र कश्मीर सिंह, कठिंगरा             अहीर  सीआरपीएफ
2. मुकेश पुत्र कृपाल सिंह, टिकाथर                 यादव    बीएसएफ
3. अशोक पुत्र बृजराज सिंह, जालिम मधुमरी अहीर  निष्कासित
4. कृष्णवीर सिंह पुत्र चंद्रपाल सिंह, मुकटीखेड़ा        अहीर  बीएसएफ
5 पुष्पेंद्र कुमार पुत्र पंत सिंह, शेखपुरा             यादव  सीआरपीएफ
6. नरेंद्र सिंह पुत्र  रामनिवास, जैथरा              अहीर  सीआरपीएफ
7. सुशील कुमार पुत्र बदन सिंह, परौली सुहागपुर      अहीर  बीएसएफ
8. रवींद्र सिंह पुत्र ताराचंद, परौली सुहागपुर          अहीर  सीआरपीएफ
9. यदुवीर सिंह पुत्र अच्छेलाल, कठिंगरा            अहीर  सीआरपीएफ  
10. जसवीर सिंह पुत्र चंद्रपाल, तरंगवा             अहीर  बीएसएफ    
11. अशोक कुमार पुत्र अमर सिंह, तरंगवा           अहीर  बीएसएफ
12. ध्यान सिंह पुत्र रामचंद्र, तरंगवा         अहीर  बीएसएफ
13. अशोक पुत्र अनार सिंह, तरंगवा                अहीर     बीएसएफ
14. सुभाषचंद्र पुत्र सूरजपाल सिंह, भाऊपुर         अहीर   बीएसएफ
15. नीरज कुमार पुत्र हाकिम सिंह, लाडमपुर कटारा   अहीर   सीआरपीएफ
16. देशराज पुत्र हाकिम सिंह, भलौल             अहीर   सीआरपीएफ
17. अमर सिंह पुत्र हरनारायण सिंह, एटा          अहीर   सीआरपीएफ
18. यतेंद्र सिंह पुत्र शेषपाल सिंह, एटा            अहीर   सीआरपीएफ
19. रामवृक्ष पुत्र राजवीर सिंह यादव, एटा          यादव   सीआरपीएफ

दलितों के कोटे पर नौकरी कर रहे अन्य पिछड़े
1. महेशपाल पुत्र रघुनाथ सिंह, फगनौल    गड़रिया सीआरपीएफ
2. सतीशचंद्र पुत्र दफेदार, परौली सुहागपुर   गड़रिया सीआरपीएफ
3. रामकरन पुत्र रामऔतार, फगनौल       गड़रिया सीआरपीएफ
4. यशपाल पुत्र सूरजपाल, फगनौल         गड़रिया    सीआरपीएफ
5. वीरपाल पुत्र खेतपाल, फगनौल         गड़रिया सीआरपीएफ
6. सतीशचंद्र पुत्र रामलड़ैते, फगनौल       गड़रिया सीआरपीएफ
7. गिरीशचंद्र पुत्र रामलडै़ते, फगनौल       गड़रिया सीआरपीएफ
8. उमेशचंद्र पुत्र रामऔतार, फगनौल       गड़रिया सीआरपीएफ
9. प्रवेश कुमार पुत्र बलराम, फगनौल      गड़रिया सीआरपीएफ
10. सुशील कुमार पुत्र धर्मपाल, भदुडयामठ  गड़रिया बीएसएनएल
11. संग्राम सिंह पुत्र सौदान सिंह, उमेद     शाक्य   बीएसएनएल

12. देवेंद्र सिंह पुत्र रामरक्षपाल, रामनगर    नाई    सीआरपीएफ

सेना में भर्ती हो रहे हैं नेपाल के माओवादी


भारत के सैन्य ढांचे में बिछाई जा रही है 'बारूदी सुरंग'
प्रभात रंजन दीन
भारतीय सेना में नेपाल के माओवादी उग्रपंथियों की भर्ती हो रही है। गोरखा रेजीमेंट की विभिन्न बटालियनों में इनकी बाकायदा पोस्टिंग भी हो चुकी है। सेना को इसकी भनक लगी तो भर्ती की प्रक्रिया में थोड़ा रद्दोबदल किया गया। लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। भारतीय सेना में माओवादियों की इंट्री अब भी जारी है। सेना के सामने विकट प्रश्न यह भी है कि गोरखाओं के नाम पर जिन माओवादियों की सेना में भर्ती कर ली गई और वे देश के विभिन्न संवेदनशील सैन्य इकाइयों में तैनात हैं उन्हें निकाला कैसे जाए। सेना कहती है कि यह संवेदनशील मसला है इसलिए इस पर वह कुछ नहीं कहेगी। हम कहते हैं कि यह राष्ट्रहित का मसला है इसलिए हम उन माओवादियों का नाम भी बताएंगे जिनकी लखनऊ, वाराणसी व कुछ अन्य भर्ती केंद्रों पर बहाली हुई और उन्हें ट्रेनिंग के बाद बाकायदा सेना में शामिल कर लिया गया। इन माओवादियों की भर्ती फर्जी सर्टिफिकेट्स के आधार पर हुई। और आप यह जानकर हैरान हो जाएंगे कि लखनऊ और आसपास के स्कूलों ने उन माओवादियों को आठवीं पास के फर्जी सर्टिफिकेट प्रदान किए। नेपाली माओवादियों को फर्जी दस्तावेजों के आधार पर भारतीय नागरिक साबित कराया गया या उन्हें जिला प्रशासन की तरफ से डोमिसाइल प्रमाण पत्र देकर उन्हें सेना में भर्ती किया गया। फर्जी दस्तावेजों के आधार पर हो रही भर्ती के बारे में संदेह होने पर गोरखों की भर्ती के लिए शैक्षणिक योग्यता आठवीं पास से दसवीं पास कर दी गई। लेकिन इस फेरबदल के पहले जिन गोरखों की नियुक्तियां फर्जी प्रमाण पत्रों पर हो गईं, उनका क्या किया जाएगा? दसवीं का फर्जी प्रमाणपत्र बनवाने में मुश्किलें पेश आ रही हैं, लेकिन स्कूलों से आठवीं पास का फर्जी प्रमाण पत्र हासिल कर जो धड़ाधड़ नियुक्तियां कराई गईं, उनका क्या होगा? सेना के अधिकारी कहते हैं कि इस बारे में ठोस जानकारी हम मुहैया कराएं तो वे छानबीन करेंगे। तो लीजिए हम देते हैं ठोस जानकारी। लेकिन साथ ही यह भी बता देते हैं कि हम जो जानकारी दे रहे हैं वह चावल के कुछ दाने टटोलने के लिए हैं। असलियत यह है कि गोरखा रेजीमेंट की हांडी में माओवादी चावल पक कर भरता जा रहा है। आने वाले दिनों की हम कल्पना कर सकते हैं। 
नेपाल में माओवादी गुरिल्ला युद्ध में अग्रणी रहा यंग कम्युनिस्ट लीग का कमांडर रोम बहादुर खत्री भारतीय सेना में नेपाली माओवादियों को भर्ती कराने में सबसे अधिक सक्रिय है। आप याद करें, नेपाल में सत्ता मिलने के बाद बड़ी तादाद में हथियारबंद माओवादियों ने समर्पण किया था। उन्हें सेना की बैरकों में रखा गया था। उन माओवादियों को आत्मसमर्पण के समय आश्वासन दिया गया था कि उन्हें नेपाल की नियमित सेना में शामिल कर लिया जाएगा। लेकिन सेना में इसका भारी विरोध हुआ। अपेक्षित भर्ती नहीं होने पर माओवादियों में नाराजगी फैली और उनके फिर से हथियार उठा लेने की आशंका बनने लगी। उन माओवादियों को भारतीय सेना में भर्ती कराने का बीड़ा उठाया नेपाली माओवादी संगठन यंग कम्युनिस्ट लीग के नेता रोम बहादुर खत्री जैसे कट्टर माओवादी कमांडरों ने। उसने भारतीय सेना की मध्य कमान के अधिकारियों से अपने सम्बन्ध बनाए। नेपाल का विशाल सीमा क्षेत्र मध्य कमान के दायरे में ही आता है। नेपाल का उत्तर-पूर्व का सीमाई हिस्सा पूर्वी कमान के क्षेत्र में है। रोम बहादुर खत्री ने मध्य कमान मुख्यालय लखनऊ के साथ-साथ वाराणसी, बरेली, बाराबंकी, फैजाबाद, गोरखपुर में भी अपना जाल मजबूत किया। उसने सेना के अफसरों समेत फौजी भर्ती के धंधे में लगे दलालों और स्थानीय स्कूलों को अपने प्रभावक्षेत्र में लिया जिनसे फर्जी प्रमाणपत्र लिए जा सकें। लखनऊ में खत्री को एक ऐसा आदमी भी मिल गया जो भर्ती में दलाली करता था और हाईकोर्ट परिसर में टाइपिंग का काम भी करता था अब धंधा मंदा पडऩे पर वह काला कोट पहन कर वकालत का धंधा भी कर रहा है। 
बहरहाल, इस गिरोहबंदी में सात-आठ साल तक माओवादियों की खूब भर्तियां कराई गईं। शैक्षणिक योग्यता का पैमाना बढ़ा दिए जाने के बाद ऐसी भर्तियों की गति में थोड़ी कमी आई है। नेपाल से आने वाले माओवादियों को आठवीं क्लास पास का प्रमाणपत्र देने में लखनऊ के कई स्कूल आगे रहे और राष्ट्रद्रोह के एवज में पैसे कमाते रहे। इनमें बालागंज के कैम्पबेल रोड स्थित स्कूल, आनंद नगर स्थित एक स्कूल, उदयगंज स्थित एक स्कूल, माल में रहिमाबाद रोड स्थित एक स्कूल, इटौंजा रोड स्थित एक स्कूल अव्वल हैं। 'कैनविज टाइम्स' के पास इन स्कूलों का नाम भी है। हम इन स्कूलों का नाम भी प्रकाशित करेंगे, लेकिन सेना ने आग्रह किया है कि छानबीन तक हम उन स्कूलों का नाम न खोलें। ऐसे अनगिनत स्कूल हैं, लखनऊ के बाहर के भी हैं, जिन्होंने नेपाली युवकों को अपने स्कूल का छात्र बताया और आठवीं क्लास पास का प्रमाणपत्र देकर उनकी वैधता पर मुहर लगा कर राष्ट्र के साथ द्रोह किया। लखनऊ, गोरखपुर, गाजीपुर, वाराणसी जैसे कई जिलों की प्रशासनिक इकाइयां भी राष्ट्रद्रोह में शामिल हैं, जिन्होंने बाहरी नेपालियों को स्थाई निवास प्रमाणपत्र प्रदान किए और इस आधार पर माओवादियों ने सेना में नौकरी पा ली। 
डोमिसाइल सर्टिफिकेट देने वाली प्रशासनिक इकाइयों ने पता का सत्यापन (ऐड्रेस वेरिफिकेशन) कराने की भी जरूरत नहीं समझी। अब इसका वीभत्स रूप देखिए। बलराम गुरुंग नामके निपट अनपढ़ नेपाली ने स्थानीय स्कूल से आठवीं पास का फर्जी प्रमाणपत्र हासिल किया और अपना पता 28/बी, आवास विकास कॉलोनी, माल एवेन्यु लिखा दिया। बलराम गुरुंग मई 2010 में सेना में भर्ती होकर गोरखा रेजीमेंट में तैनाती पर भी चला गया। उसके आधिकारिक दस्तावेजों में बाकायदा माल एवेन्यु का पता दर्ज है। जब इस ऐड्रेस की छानबीन की गई तो पता चला कि वह घर सेना के ही एक कर्नल साहब का है। कर्नल साहब अब सेना से रिटायर हो चुके हैं। उनका नाम कर्नल अजित सिंह है। जब कर्नल साहब से सम्पर्क साधा गया तो उन्होंने कहा, 'मुझे क्या पता कि किसने मेरे घर का ऐड्रेस लिखा दिया! किसी ने मुझसे पूछताछ करने की जरूरत भी नहीं समझी। मैं किसी बलराम गुरुंग को जानता भी नहीं।' 
...तो देखा आपने कि देश में कैसी अंधेरगर्दी मची है! इस फर्जी ऐड्रेस के एक और रोचक प्रसंग पर हम बाद में आते हैं। अभी नेपाली माओवादियों की भर्ती के प्रकरण में सबसे सनसनीखेज पहलू पर आते हैं। माओवादी गुरिल्ला कमांडर व यंग कम्युनिस्ट लीग के नेता रोम बहादुर खत्री ने भारतीय सेना में जिन माओवादियों को भर्ती कराया, वे खत्री तक सेना की सूचनाएं पहुंचाते हैं। उसी माओवादी नेता रोम बहादुर खत्री ने अपने दो बेटों संतोष बहादुर खत्री और भोजराज बहादुर खत्री को भी भारतीय सेना में भर्ती करा दिया है। संतोष बहादुर खत्री III-9 गोरखा रेजीमेंट में भर्ती है और भोजराज बहादुर खत्री 17वीं जैक राइफल्स में भर्ती है। विचित्र और सनसनीखेज तथ्य यह है कि रोम बहादुर खत्री का एक बेटा भोजराज बहादुर खत्री पहले नेपाली सेना में था। तीन साल तक नेपाल सेना में रहते हुए वह माओवादियों के लिए मुखबिरी करता था। भोजराज की मुखबिरी पर माओवादियों ने नेपाल सेना की कई युनिटों पर हमले किए। ऐसे ही एक हमले में माओवादियों ने नेपाली सैनिकों को मारा, हथियार लूटे, लेकिन भोजराज को वहां से भगा लिया गया। नेपाल सेना से भागा हुआ माओवादी बाकायदा भारतीय सेना के महत्वपूर्ण रेजीमेंट में नौकरी कर रहा है। माओवादी कमांडर खत्री ने अपने भतीजे सुरेश बहादुर खत्री को भी भारतीय सेना की नौकरी में लगवाया। वह भी एक कर्नल साहब के जरिए। वे कर्नल साहब फिलहाल पुणे में तैनात हैं। है न विचित्र किंतु सत्य?
मध्य कमान मुख्यालय लखनऊ में सेना भर्ती के निदेशक कर्नल संदीप दहिया से इस सिलसिले में बात हुई। कर्नल दहिया कहते हैं कि ठोस जानकारी मिलने पर वे छानबीन जरूर कराएंगे। जब उनसे आठवीं पास का फर्जी सर्टिफिकेट हासिल कर सेना में भर्ती होने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, 'हो सकता है रक्षा मंत्रालय ने इसी वजह से शैक्षणिक योग्यता का स्तर आठवीं पास से बढ़ा दसवीं पास कर दिया हो। क्योंकि दसवीं का प्रमाणपत्र तो बोर्ड से मिलेगा। इसमें फर्जीवाड़े की सम्भावना नहीं रहती।' जाली डोमिसाइल सर्टिफिकेट पर कर्नल दहिया ने कहा, 'हम लोग तो सिविल प्रशासन से जारी होने वाले डोमिसाइल और गोरखा काउंसिल से मिलने वाले प्रमाण पत्र देखते हैं और उन्हीं से वैरिफाई भी कराते हैं। अगर वे ही फर्जीवाड़ा कर रहे हों तो इसमें हम क्या कर सकते हैं। फिर भी स्पेसिफिक सूचना मिलने पर हम छानबीन कराएंगे और आवश्यक कार्रवाई करेंगे।'
...अब आप एक सेनाधिकारी से और क्या उम्मीद कर सकते हैं! कर्नल दहिया ने इतना कहा, यह कम नहीं है। क्योंकि सेना के बड़े-बड़े अफसर तक मीडिया से बातें करने से कन्नी काटते हैं। हम अपनी तरफ से उन सेनाधिकारियों को यह जानकारी देते हैं कि माओवादी कमांडर रोम बहादुर खत्री नेपाल के बरदिया जिले के तारातल गांव का रहने वाला है। वहां से उसके बारे में खुफिया जानकारियां मंगाई जा सकती हैं। खत्री के दोनों बेटों, भतीजों और तमाम माओवादी काडरों की भारतीय सेना में हुई भर्ती का भी सेना अगर चाहे तो पता लगा कर कार्रवाई कर सकती है। लेकिन इसमें संदेह है। माओवादी कमांडर के गांव के ही दो और युवकों के बारे में जान लीजिए। दीपक छेत्री फर्जी दस्तावेजों के जरिए सेना में भर्ती हो चुका है। वह III-9 गोरखा बटालियन में तैनात है। भर्ती की प्रक्रिया कितनी अंधी है कि दीपक छेत्री के दाहिने हाथ की वह उंगली कटी हुई है जिससे राइफल का ट्रिगर दबाया जाता है। ऐसे सिपाही से सेना क्या काम लेती होगी? और वह मुखबिरी के सिवा क्या करता होगा? दीपक का भाई रमेश छेत्री भी IV-9 गोरखा बटालियन में भर्ती है। यहां फिर से फर्जी ऐड्रेस का रोचक प्रसंग आता है, जिसका चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं। रमेश छेत्री के सैन्य दस्तावेजों में 8/5 विक्रमादित्य मार्ग का पता दर्ज है। निश्चित तौर पर इसी ऐड्रेस के आधार पर उसने डोमिसाइल सर्टिफिकेट हासिल किया होगा। उस ऐड्रेस की भी 'कैनविज टाइम्स' ने छानबीन की। वह भी फर्जी पाया गया। यह पता भी कर्नल अजित सिंह के दूसरे घर का है। इस पर भी कर्नल की वही प्रतिक्रिया थी जो ऊपर दी जा चुकी है। जैसा पहले बताया कि दीपक छेत्री और रमेश छेत्री भी माओवादी कमांडर रोम बहादुर खत्री के गांव बरदिया तारातल के रहने वाले हैं। लिहाजा, उनके माओवादी कनेक्शन आसानी से समझे जा सकते हैं। रमेश छेत्री की फोटो हमने हासिल कर ली है, उसे हम इस खबर के साथ प्रकाशित कर रहे हैं। बाद के अंकों में हम आपको बताएंगे भारतीय सेना में भर्ती हो रहे नेपाली माओवादी हमारे लिए कितने भारी पडऩे वाले हैं...