प्रभात रंजन दीन
कई मित्रों ने कहा कि स्वर्ण
भंडार से सम्पन्न स्वप्न के बारे में कुछ क्यों नहीं लिखते! अब क्या लिखें और क्या
कहें... इस संत-स्वप्न ने शब्द और अभिव्यक्ति की दिशा ही भटका दी है। संतों के स्वप्न
में भी सोने के सिक्के दिखने लगें तो युग की दिशा दिखने लगती है। फिर सत्य का दिव्यस्वरूप
किसे दिखे! फिर माया के प्रति निस्पृह भाव कैसे जगे! फिर लोभ-लिप्सा से मन कैसे डिगे!
खैर, हम तो
गृहस्थ हैं। वह भी माटी के मोल वाले। फिर हम क्यों सोचें संतों के सपनों के स्वर्ण-स्तर
के बारे में! जब संत स्वप्न और सत्य में फर्क न कर पाए। जब स्विस और स्वप्न में देश
का हित विलय कर जाए, जब काला धन और गड़ा धन का सत्य एक दूसरे पर चढ़ बैठे, जब अध्यात्म भौतिक-भ्रांतियों
का प्रवक्ता बन बैठे, तब आप समझ लें कि यह संतों और फंतों के मेलमिलाप और साठगांठ का
युग है। गड़ा सोना खोदने की सरकारी जल्दीबाजी और 'स्वर्ण-स्वप्न-द्रष्टा' की बयानबाजी का मेल समझने में
कहां है कोई झमेल! इतनी ही जल्दीबाजी में नेता विकास का काम करता तो सोना ही सोना दिखता
सब तरफ। 66 साल नुकसान नहीं होता। इतने लम्बे त्रासद साल में न कोई संत आया और न कोई
स्वप्न। बस, सब नेता मिल कर हमें ही कोड़-कोड़ कर, हमें ही फोड़-फोड़ कर हमारा सोना लूटते रहे और हम अपना भाग कूटते
रहे...
सच कहूं, सपनों में उनके जब से सोना आने लगा है, तबसे मेरा सोना मुझसे जाने लगा है। मन में झुंझलाहट भी होती है
कि सोना क्यों नहीं आता मेरे सपने में! ख्वाबों की जमीन कोड़ कर सोना उगा लेने का जज्बा
तो है, लेकिन सोना हमारे जज्बे की अब जरूरत नहीं है। हमारे ख्वाबों
में आता तो फावड़ा चलाने वाली किसी एजेंसी को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ती। हमारे जैसे
जिद्दी फाकाकशों की टोली ऐसे जाने कितने गहरे सपने खोद डालती और सोना निकाल लेती। इसे
निकलना नहीं है इसीलिए तो ये उनका सपना है। सोना सपने में भी देख-समझ कर ही आता है।
सामंती सौंदर्य वाला सोना सर्वहारा जमात के सपने में भी क्यों दिखे? हमारा तो लोहा भी नहीं, हम तो ठहरे लोहे को धार देने
वाले लोग, शब्द को तलवार देने वाले लोग। हम तो धार धारण करने वाले
साधारण हैं। ...और सोना बुर्जुआ। तभी तो वह स्वप्न में भी पूंजीपतियों और सुख-सेवा-सम्पन्न
संतों के सोने में आता है। और पूरी दुनिया की नींद हर लेता है। जबसे सोना वाला सपना
सुर्खियों में आया है, उसने तो मेरा सोना छीन लिया है।
अब मेरे सड़कछाप सपने मुझे सोने नहीं दे रहे। कभी चोरी गए मां और बीवी के गहनों की
याद दिला कर कील की तरह चुभते हैं मेरे ख्वाब। तो कभी एहसास कराते हैं कि सोना चोरों
को ही शोभा देता है। देर रात आने वाली नींद का सपना जलती धूप सा बरसने लगता है। तो
अक्सर रात में ही उठ कर दिमाग में दुपहरी को जगाना पड़ता है। न रात होती है, न नींद होती है, न सुबह होती है... सब कुछ एक
स्वांग की तरह बीतता जाता है। और जीवन का सोना भी इसी तरह रीतता जाता है। सोना का सपना
दिखता है तो सपना खुद भोंपू बन जाता है। असलियत वाला दर्द सपना समझ कर मौन सहना पड़ता
है, कोई जान भी नहीं पाता। न संत जान पाता है न फंत... सबको
तो सोने की पड़ी है। पता नहीं यह कैसी घड़ी है...
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