Thursday 22 March 2018

यूपी उपचुनाव... तालमेल नहीं, घालमेल के कारण हारी भाजपा

प्रभात रंजन दीन
जीत के मद में चूर भाजपा के अलमबरदार जब संगठन के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का अपमान करने लगे और वरिष्ठ नेताओं की पसंद नापंसद की भी कुटिल अनदेखी करने लगे, तब वही होता है, जो उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में हुआ. सत्ता और जीत से मदांध हो चुके भाजपा नेता जब अपनी बोली की मर्यादा खोने लगे, तब वही होता है, जो उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में हुआ. हार से हतप्रभ भाजपा नेता अब समीक्षा करने की बात कह कर अपनी झेंप मिटा रहे हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने स्वभाव के अनुसार बिना लाग-लपेट के कह ही दिया कि उपचुनाव में भाजपा की हार अतिरिक्त आत्मविश्वास (ओवर कॉन्फिडेंस) के कारण हुई है. यह ओवर कॉन्फिडेंस किसका था? भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का या प्रदेश संगठन के ‘कर्ताधर्ता’सुनील बंसल का? मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का या उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य का?
इसे समझने के लिए आपको अलग से राजनीति शास्त्र के किसी विद्वान के पास जाने की जरूरत नहीं. आप किसी भी आम नागरिक से पूछें, आपको इन सवालों का जवाब तुरंत मिल जाएगा. भाजपा को लगातार मिली कई राज्यों की जीत से राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिली जीत से संगठन मंत्री सुनील बंसल मदमस्त हो गए. इन नेताओं को यह प्रतीत होने लगा कि केंद्र या राज्य की सत्ता तो वे ही चला रहे हैं. इसी मनोवृत्ति का नतीजा था कि गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा के लिए होने वाले उपचुनाव में प्रत्याशी कौन होगा, इस बारे में मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री की पसंद का कोई सम्मान नहीं रखा गया. जबकि गोरखपुर संसदीय सीट योगी आदित्यनाथ की थी और फूलपुर संसदीय सीट केशव प्रसाद मौर्य की. दोनों के प्रदेश में आने के बाद दोनों संसदीय सीटें खाली हुई थीं. ऐसे में लोकतांत्रिक नैतिकता क्या थी? दोनों संसदीय सीटों से उन्हीं लोगों को प्रत्याशी बनाया जाता, जो निवर्तमान सांसदों द्वारा अनुशंसित होता. लेकिन अमित शाह और सुनील बंसल ने ऐसा नहीं होने दिया. इस मदांधता का क्या नतीजा निकला, वह सामने है. भाजपा आलाकमान क्या इस बात की ईमानदार समीक्षा करेगा? और इस समीक्षा का दंड क्या होगा? आप यह समझ कर चलिए कि इन दोनों सवालों का कोई जवाब नहीं मिलना है. अतिरिक्त आत्मविश्वास का हवाला देने वाले योगी आदित्यनाथ ने समीक्षा की बात कहते हुए उसमें अपनी उस बोली पर कोई आत्मविश्लेषण नहीं किया, जब उन्होंने सपा-बसपा तालमेल को सांप-छछूंदर का मेल बता दिया था. योगी ने अपने कैबिनेट मंत्री नंद गोपाल नंदी के उस बयान पर भी कोई अनुशासनिक तेवर नहीं अख्तियार नहीं किया जब नंदी ने सार्वजनिक मंच से मायावती को सूर्पणखा कहा था. इस तरह के अलोकतांत्रिक बयान लोकतंत्र में क्या असर दिखाते हैं, चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपाइयों को यह समझ में आना चाहिए.
अब यह साफ है कि सारे सैद्धांतिक और जरूरी मसले ताक पर रख कर भाजपा ने उसी तरह का आचरण अख्तियार कर लिया है, जो अन्य पार्टियां करती रही हैं. सत्ता के अतिरिक्त लोभ में भाजपा नेताओं ने अपने दल को आईपीएल की ‘झालमूड़ी’ टीम बना दिया. इधर से, उधर से, ला लाकर लोग भर दिए. फिर कार्यकर्ताओं ने अपना समय और अपनी पूरी उम्र पार्टी के लिए क्यों कुर्बान की? जो भाजपा कार्यकर्ता जीवन भर बसपा या सपा के खिलाफ राजनीति करते रहे, सपाइयों-बसपाइयों के हाथों उत्पीड़ित होते रहे, मरते रहे, गिरफ्तार होते रहे, उन्हीं कार्यकर्ताओं को आज बसपा या सपा नेताओं के आगे नतमस्तक होना पड़ रहा है. खुद के सम्मान के लिए ललकने और लपकने वाले अमित शाहों और सुनील बंसलों ने पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को इस तरह अपमानित क्यों किया? भाजपा के शीर्ष नेताओं के इन आचरणों की समीक्षा कौन करेगा और निष्पक्ष समीक्षा की गारंटी कौन लेगा? राज्यसभा के लिए जब प्रत्याशी तय किए जा रहे थे, उस प्रक्रिया में भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं-नेताओं को प्राथमिकता देने के बजाय सपा से आए डॉ. अशोक बाजपेयी या इन जैसे अन्य टपकू लोगों को प्रत्याशी क्यों बनाया गया? फिर प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को समुचित सम्मान कब मिलेगा, जब पार्टी फिर अपनी करतूतों से धूल में मिल जाएगी, तब? भाजपा के कार्यकर्ता हरदोई का उदाहरण देते हुए खुलेआम कहते मिले, ‘जिस नरेश अग्रवाल ने सपा की सत्ता का हमारे उत्पीड़न में इस्तेमाल किया, हमें पिटवाया, हमें गिरफ्तार कराया, हमें सारी सरकारी सुविधाओं से वंचित कराया, उसी नरेश अग्रवाल को भाजपा में क्यों शामिल किया गया? क्या ऐसे अपमान के बाद अमित शाह और सुनील बंसल जैसे नेताओं को हम सम्मान में लड्डू खिलाएं?’ कार्यकर्ताओं के ये सवाल अब सवाल नहीं बल्कि भविष्य की घोषणाएं हैं, जिनसे भाजपा को आमने-सामने होना है.
‘चौथी दुनिया’ ने अपने पिछले अंक में भी लिखा कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपने घर में भी तिकड़म करने से बाज नहीं आ रहे. अमित शाह ने गुजरात से लेकर पूर्वोत्तर तक चुनाव जीतने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भरपूर इस्तेमाल किया, लेकिन गोरखपुर लोकसभा के लिए होने वाले उपचुनाव में योगी की पसंद का उम्मीदवार नहीं दिया. अयोध्या के एक संन्यासी ने भाजपा के शीर्ष नेता के इस चरित्र पर उस बिच्छू की कथा सुनाई थी, जो उसकी प्राण रक्षा करने वाले साधु की हथेली पर बैठा था और उन्हें ही लहू-लुहान भी कर रहा था. गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ की पसंद का प्रत्याशी नहीं देने का फैसला करने वाले नेता की साधु के हाथ में बैठे बिच्छू से तुलना बिल्कुल सटीक है. गोरखपुर संसदीय सीट के लिए उपेंद्र शुक्ला को टिकट दिए जाने का फैसला योगी को डंक मारने जैसा ही था. अमित शाह ने अपने ही मुख्यमंत्री के सामने ऐसी शातिराना बिसात बिछाई थी कि योगी जीते तब भी गए और हारे तब भी गए. गोरखपुर लोकसभा सीट योगी आदित्यनाथ की पारंपरिक सीट रही है. वहां से योगी की पकड़ को कमजोर करने में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रदेश संगठन मंत्री सुनील बंसल दोनों ने भूमिका निभाई और उपेंद्र शुक्ला को उम्मीदवार बना कर थोप दिया. अमित शाह ने इस उम्मीदवार के जरिए गोरखपुर संसदीय सीट पर कायम गोरखधाम के प्रभाव को कम करने और योगी को कमजोर करने की कोशिश की. सियासत की सारी रेस जीत लेने का दंभ भरने वाले भाजपा नेता ने ऐसा करके अपने ही टायर में सुई चुभो ली, इसका एहसास उन्हें चुनाव परिणाम आने के बाद हो रहा होगा.
अब जरा गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों पर भी एक नजर डाल लेते हैं. गोरखपुर लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा के प्रत्याशी उपेंद्र शुक्ल सपा प्रत्याशी प्रवीण निषाद से 21,961 वोटों से चुनाव हार गए. इसी तरह फूलपुर से सपा प्रत्याशी नागेंद्र पटेल ने भाजपा के कौशलेंद्र पटेल को 59213 वोटों से हरा दिया. गोरखपुर में सपा प्रत्याशी को 4,56,437 वोट और भाजपा प्रत्याशी को 4,34,476 वोट मिले. फूलपुर में सपा उम्मीदवार नागेंद्र सिंह पटेल को 3,42,796 वोट और भाजपा को 2,83,183 वोट मिले. गोरखपुर से जीते सपा प्रत्याशी प्रवीण निषाद इंजीनियर हैं. प्रवीण राष्ट्रीय निषाद पार्टी के संस्थापक डॉ. संजय निषाद के पुत्र हैं. राष्ट्रीय निषाद पार्टी वर्ष 2013 में बनी. वर्ष 2015 में यह पार्टी तब सुर्खियों में आई जब निषादों के आरक्षण की मांग पर गोरखपुर के पास ट्रेनें रोकी गई थीं और पुलिस फायरिंग में एक व्यक्ति की मौत हो गई थी. उसके बाद इस आंदोलन ने व्यापक हिंसा का शक्ल ले लिया था. जिस संजय निषाद पर तत्कालीन सपा सरकार ने ढेरों मुकदमे लाद दिए थे. उसी निषाद नेता के पुत्र को समाजवादी पार्टी ने अपना मुहरा बना कर सियासत के मैदान पर ला खड़ा किया और मैदान मार लिया. संजय निषाद ने भी गोरखपुर ग्रामीण विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा था, लेकिन हार गए थे.
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने जिस तरह गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव के लिए प्रत्याशी चुना उस पर अब भाजपा कार्यकर्ता सार्वजनिक रूप से उंगलियां उठा रहे हैं. कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस बार प्रत्याशी के चयन में न तो योग्यता और पृष्ठभूमि देखी गई और न जातीय समीकरण. जीत के दंभ में मोदी और शाह का उपचुनाव के प्रचार में न आना भी आम मतदाताओं पर नागवार गुजरा. संघ की उस अंदरूनी रिपोर्ट से शाह और मोदी पूरी तरह वाकिफ थे, जिसमें यह बताया गया था कि गोरखपुर संसदीय सीट सेयोगी की पसंद का व्यक्ति और गोरक्ष पीठ से जुड़ा व्यक्ति ही जीत सकता है. लेकिन पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने संघ की जमीनी रिपोर्ट पर कोई ध्यान नहीं दिया. गोरखपुर संसदीय सीट छोड़ कर आसपास की अन्य सभी लोकसभा सीटों पर ब्राह्मण सांसद हैं, लिहाजा, गोरखपुर से ब्राह्मण प्रत्याशी का चयन शाह की अदूरदर्शिता और तिकड़मबाजी का प्रमाण साबित हुआ. शाह के इस छेद ने सपा-बसपा को पिछड़े, दलित और मुस्लिमों को गोलबंद करने का मौका दे दिया. शाह की चाल से नाराज भाजपा समर्थक मतदान करने निकले ही नहीं. शाह ने यही काम फूलपुर में भी किया. वहां से सांसद रहे केशव मौर्य अपनी पत्नी राजकुमारी देवी को टिकट दिलाना चाह रहे थे. लेकिन शाह इसके लिए तैयार नहीं हुए. शाह ने बाहरी उम्मीदवार कौशलेंद्र सिंह पटेल को टिकट देकर केशव मौर्य समेत मौर्य समुदाय के लोगों को नाराज कर दिया. इसके अलावा भाजपा के तीन नेताओं नंद गोपाल नंदी, सिद्धार्थनाथ सिंह और  केशव मौर्य की आपसी कड़वाहट भी चुनाव पर असर डाल रही थी, इसकी भी चर्चा आम है.

सपा-बसपा तालमेल जीत की अकेली वजह नहीं
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि सपा-बसपा के तालमेल के कारण भाजपा दोनों जगह हार गई, यह कहना उचित नहीं है. इसके लिए वे पिछले चुनावों के कुछ आंकड़े पेश करते हैं और कहते हैं कि पिछले चुनावों में इन दोनों पार्टियों को जितने भी वोट मिले उन्हें अगर जोड़ लिया जाए, तब भी वह संख्या इतनी नहीं होती कि भाजपा उम्मीदवार को हरा पाए. 2009 के लोकसभा चुनाव में मनोज तिवारी सपा के प्रत्याशी थे. तब उन्हें 11 प्रतिशत वोट मिले थे. तब वहां से बसपा के प्रत्याशी विनय शंकर तिवारी को 24.4 प्रतिशत वोट मिले थे. दोनों प्रत्याशी मिल कर भी योगी आदित्यनाथ को हरा नहीं पाते क्योंकि योगी को 54 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे. अब 2014 का लोकसभा चुनाव देखते हैं. इस चुनाव में हालांकि योगी को कुछ कम वोट (प्रतिशत में) मिले, लेकिन सपा प्रत्याशी को मिले 22 प्रतिशत वोट और बसपा प्रत्याशी को मिले 17 प्रतिशत वोट मिला कर भी यह संख्या योगी को हराने के लिए नाकाफी थी.

जिन-जिन से की वादाखिलाफी, गिन-गिन कर वे लेंगे हिसाब
मुख्यमंत्री ने जिस तालमेल को सांप-छछूंदर का मेल बताया और एक मंत्री ने जिस महिला नेता को सूर्पणखा बता कर भाजपा के वृक्ष पर कुल्हाड़ी मारी, उससे अब एक ही फार्मूले से निपटा जा सकता है, वह है भाजपा में किसी दलित नेता का समानांतर उभार. मायावती जिस दलित जाति की हैं उससे इतर ताकतवर दलित जाति के नेता को उभार कर सांप-छछूंदर और सूर्पणखा जैसे शब्द-संबोधनों से पनपे विद्वेष को कम किया जा सकता है. जाटव जाति के बाद उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक ताकतवर और जागरूक दलित जाति पासी है. लेकिन इस जाति का कोई नेता न केंद्र में कैबिनेट में है और न प्रदेश की कैबिनेट में है. राजनीतिक समीक्षक भाजपा के प्रति लोगों में तेजी से हो रहे मोहभंग का एक और विश्लेषण करते हैं. उनका कहना है कि भाजपा के आश्वासन पर उत्तर प्रदेश के शिक्षा मित्रों, आशा बहुओं, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, सहायिकाओं, शिक्षा प्रेरकों, अनुदेशकों, चौकीदारों, सरकारी स्कूलों की रसोइयों, विशेष शिक्षकों, पैरावेटनरी कर्मचारियों, होमगार्ड्स, पीआरडी के जवानों, रोजगार सेवकों, बिजली और स्वास्थ्य सहित विभिन्न विभागों में कार्यरत लाखों संविदाकर्मियों ने भाजपा को अपना समर्थन दिया था. लेकिन सरकार बनने के बाद भाजपा ने इन कर्मचारियों के नियमितिकरण का अपना ही आश्वासन भुला दिया और उन्हीं कर्मचारियों पर लाठियां बरसाईं. भाजपा की सरकार बनने के बाद पार्टी के किसी कार्यकर्ता और जन-प्रतिनिधि की बात थाना, ब्लॉक, तहसील, जिला प्रशासन और शीर्ष नौकरशाही में नहीं सुनी गई. रिश्वतखोरी और दलाली भीषण बढ़ गई. जो दलाल सपा और बसपा की सरकार में दलाली करके काम कराते थे वही दलाल भाजपा की सरकार में भी शासन-प्रशासन पर हावी हो गए. नतीजा यह हुआ कि प्रदेश में सरकार के एक साल पूरा होने के पहले ही आम लोग और भाजपा कार्यकर्ता सब शासन-प्रशासन से बुरी तरह रुष्ट हो गए. फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में मतदान का कम प्रतिशत यह बताता है कि भाजपा का वोटर ही मतदान करने बाहर नहीं निकला.

Monday 19 March 2018

विपक्ष ही जिताएगा भाजपा को...

प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश के दो उप चुनावों में भाजपा को मिली हार भाजपा की अंदरूनी तिकड़मबाजी का परिणाम है. जब पार्टी का शीर्ष नेता ही प्रदेश के शीर्ष नेताओं के साथ तिकड़म और घात करता हो, तो पराजय मिलेगी ही. यूपी के उप चुनाव में भाजपा की पराजय का श्रेय विपक्ष को या सपा-बसपा तालमेल को नहीं जाता. यह हार भाजपा के अपने चारित्रिक विरोधाभासों के कारण हुई. हम भाजपा के अतिरिक्त-गुरूर, अंदरूनी घात-प्रतिघात और चारित्रिक खंडन पर क्रमशः चर्चा करेंगे... अभी पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के जरिए देश की राजनीति, खास तौर पर विपक्ष की राजनीति का लेखा-जोखा लेते हैं. विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है. यह स्खलन पिछले पांच वर्षों में तेजी से हुआ है. विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस 2014 तक 13 राज्यों में शासन कर रही थी, इन्हीं चार वर्षों में वह 13 से तीन पर पहुंच गई. वामपंथी दल भी कहीं के नहीं रहे, बस केरल के होकर रह गए. दूसरी कोई पार्टी है ही नहीं, जिसका नाम राष्ट्रीय स्तर पर लिया जा सके.
विपक्ष ने भारतीय जनता पार्टी को आखेट करने के लिए खुला मैदान छोड़ दिया है. अंदरूनी कलह ने कांग्रेस को और गपोड़बाजी ने वाम दलों को देश में अप्रासंगिक बना दिया है. रणनीति और तिकड़म में कांग्रेस और वाम दल दोनों ही भाजपा के आगे फेल साबित हो रहे हैं. इस कौशल में कमजोर होने के कारण ही मेघालय में 21 सीटें जीतने के बावजूद कांग्रेस पार्टी सरकार नहीं बना पाई और महज दो सीटें पाने वाली भाजपा अपने गठबंधन के साथ वहां सरकार बनाने में कामयाब हो गई. त्रिपुरा और नगालैंड में तो कांग्रेस इस बार खाता भी नहीं खोल पाई. त्रिपुरा में भाजपा ने अपने बूते सरकार बना ली और नगालैंड में गठबंधन के दम पर भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार बन गई. यानि, एकमात्र मिजोरम छोड़ कर पूर्वोत्तर से कांग्रेस का पत्ता कट गया है. त्रिपुरा में हार के बाद वामदल पूर्वोत्तर में कहीं अस्तित्व में नहीं रहे. त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में अभी हुए विधानसभा चुनाव के बाद अब पूर्वोत्तर के छह राज्यों पर भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का कब्जा हो गया है. जबकि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले तक पूर्वोत्तर के सात राज्यों में कांग्रेस का ही वर्चस्व कायम था.
आजादी के बाद लोकतांत्रिक भारत की सत्ता पर सबसे अधिक समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी का दायरा सिमट कर आज तीन राज्यों और एक केंद्र शासित राज्य तक रह गया है. तीन राज्यों में से भी कर्नाटक और मिजोरम में इसी साल के आखिर में चुनाव होने हैं. इसके अलावा पंजाब और केंद्र शासित पुडुचेरी में कांग्रेस का शासन बचा है. मेघालय में भाजपाई बिसात पर धराशाई हुई कांग्रेस ने अगर अपनी रणनीति पुख्ता नहीं बनाई तो पूरा पूर्वोत्तर साफ हो जाएगा. पिछले लोकसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस पार्टी को एक-दो राज्य छोड़कर हर विधानसभा चुनाव में हार का ही सामना करना पड़ा है. 2014 तक कांग्रेस के पास 13 राज्यों में सरकार थी. पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के नतीजे मिजोरम और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों पर जरूर असर डालेंगे. गुजरात चुनाव में कांग्रेस के संतोषजनक प्रदर्शन और मध्य प्रदेश के उप चुनाव में कांग्रेस को जीत मिलने से जो माहौल बना था, कांग्रेस के नेता उस माहौल को कैश कराने में पूरी तरह विफल रहे. कांग्रेस के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने अब मिजोरम और कर्नाटक को प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया तो मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बना बनाया माहौल ढह जाएगा. मेघालय से कांग्रेस को भीषण घाव लगा, लेकिन फिर भी सीख लेने का कोई भाव कांग्रेस नेताओं के चेहरे पर नजर नहीं आ रहा. सीख लेने के बजाय आरोप प्रत्यारोप का दौर और तेज और भद्दा हो गया है. पूर्वोत्तर राज्यों के प्रभारी वरिष्ठ कांग्रेस नेता सीपी जोशी कांग्रेस के शामियाने में सार्वजनिक निंदा के पात्र बने हुए हैं. मेघालय कांग्रेस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा भी कांग्रेस में चल रही निंदा प्रतियोगिता में निशाने पर हैं. कांग्रेसियों को यह नहीं समझ में आ रहा कि असम में चुनाव जीतने के बाद से भाजपा ने उस धार को बनाए रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, जबकि कांग्रेस अपने पंजे से अपनी ही सीटें गंवाती चली जा रही है. नगालैंड के कांग्रेस अध्यक्ष केवे खाप थेरी ने तो साफ-साफ कहा भी कि कांग्रेस नेतृत्व पूर्वोत्तर से भाग खड़ा हुआ है. इस तरह के बयानों से यह साफ लगता है कि कांग्रेस पार्टी का अंदरूनी माहौल मिजोरम के चुनाव का वातावरण खराब करेगा.
दूसरी तरफ पूर्वोत्तर में वर्चस्व स्थापित करने वाले भाजपा-गठबंधन ने त्रिपुरा में 25 साल पुराना वामपंथियों का ‘लाल-किला’ ध्वस्त कर दिया. लाल सलामियों को पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा पर गर्व रहा है. धीरे-धीरे उनका लाल सलाम केरल में सिमट गया. त्रिपुरा से वामदल का सत्ता से जाना काफी अहम राजनीतिक घटनाक्रम है, क्योंकि बीते 25 वर्षों से माणिक सरकार के नेतृत्व में त्रिपुरा वाम दलों का ‘लाल-किला’ बना हुआ था. त्रिपुरा में भाजपा ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया और 60 में से 43 सीटों पर जीत हासिल की. इनमें 35 सीटें अकेले भाजपा की हैं और बाकी अन्य सहयोगी दलों की. पिछले विधानसभा चुनाव में सहयोगियों समेत 50 सीटें जीतने वाले वाम मोर्चा को इस बार के चुनाव में महज 16 सीटों पर जीत हासिल हुई. त्रिपुरा में भाजपा के बिप्लव कुमार देब के नेतृत्व में राजग की सरकार बनी है.
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भाजपा गठबंधन की जीत के जरिए हम विपक्ष की हार की राजनीतिक समीक्षा करें तो पाते हैं कि त्रिपुरा का ‘लाल-किला’ ढहाने में कांग्रेस ने परोक्ष रूप से भाजपा की ही मदद की. 40 लाख से अधिक आबादी वाले त्रिपुरा में मतदाताओं की संख्या 25 लाख है. इनमें से करीब 74 प्रतिशत वोटरों ने इस बार अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया. छोटे से इस राज्य में हो रहे चुनाव पर दुनियाभर के अखबारों और समाचार चैनेलों की निगाह थी. यह दुर्लभ राजनीतिक परिदृश्य था कि 25 साल में पहली बार सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) को कांग्रेस के बजाय भाजपा से सीधी टक्कर मिल रही थी. भाजपा ने इस चुनाव में त्रिपुरा की साफ-सुथरी और ईमानदार वाम सरकार को पानी, सड़क और रोजगार जैसे विकास के बुनियादी मुद्दों पर घेर लिया और इन मसलों पर जनता ने भाजपा का साथ दिया. किसी ने सोचा नहीं था कि पिछले विधानसभा चुनाव में जिस भाजपा के 50 में से 49 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी, वही पार्टी अगले ही चुनाव में माकपा जैसे खुर्राट राजनीतिक दल को धराशाई कर देगी. पूर्वोत्तर मामलों के जानकार राजनीतिक विश्लेषक जीवानंद बोस कहते हैं कि त्रिपुरा में भाजपा ने ठोस रणनीति तो बनाई ही, लेकिन वाम दलों की काम से अधिक बेमानी बहसबाजी पर अधिक एकाग्रता और कांग्रेस की लचर नीतियों और ढीलेपन ने भाजपा को अधिक मजबूती दी. 2013 के चुनाव में त्रिपुरा में कांग्रेस ने 10 सीटों पर जीत हासिल की थी. उस चुनाव में कांग्रेस को 36.53 प्रतिशत वोट मिले थे. हैरत की बात है कि इस बार के चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर घटकर महज 1.8 प्रतिशत रह गया. दूसरी ओर भाजपा का वोट प्रतिशत डेढ़ से बढ़कर 43 प्रतिशत तक पहुंच गया. यानि, पिछले पांच साल में वाम सरकार को चुनौती देने और अपनी स्थिति मजबूत करने के बजाय अंदरूनी कलह में घिरी और ‘मूर्खत्व से भरे कल्पनालोक’ में जीती कांग्रेस लगातार अपना जनाधार खोती चली गई. भाजपा ने इसका भरपूर फायदा उठाया.
जीवानंद बोस कहते हैं कि कांग्रेस का हाल तो यह रहा कि उसने अपनी लंगोट बचाने पर भी ध्यान नहीं दिया. 2013 के चुनाव में 10 सीटें जीतने वाले कांग्रेसी विधायकों में से छह नेता पहले तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे. बाद में वे भाजपा में शामिल हो गए. पिछले साल दिसम्बर में एक अन्य कांग्रेसी विधायक रतन लाल नाथ भी भाजपा में शामिल हो गए. भाजपा ने राज्य में स्थानीय नेताओं को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां देकर उनका मान बढ़ाया, जबकि कांग्रेस अपने स्थानीय नेताओं की उपेक्षा करती रही और सारे कांग्रेस नेता अपनी अलग-अलग डफली बजाते रहे और अपना अलग-अलग राग गाते रहे. कांग्रेस आलाकमान ने इस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया. चुनाव हारने के बाद एक दूसरे को कोसने और गरियाने वाले कांग्रेसियों को राज्य के पुराने प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की शिकायतें याद नहीं, जब वे कांग्रेस आलाकमान द्वारा त्रिपुरा की उपेक्षा किए जाने के बारे में लगातार उलाहना दे रहे थे. पूर्वोत्तर के प्रभारी सीपी जोशी दो-तीन बार ही राज्य के दौरे पर गए और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तो बिल्कुल आखिरी वक्त पर त्रिपुरा पहुंचे, जब जहाज डूबने की सनद हो चुकी थी. दूसरी तरफ भाजपा नेताओं ने अलग-अलग क्रम में लगातार अपनी मौजूदगी बनाए रखी. बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का सघन दौरा होता रहा.   
त्रिपुरा के आम लोग भी कांग्रेस के त्रिपुरा-रवैये को लेकर निंदा प्रस्ताव ही जारी करते हैं. वे कहते हैं कि त्रिपुरा में कांग्रेस हमेशा वाम दलों के दबाव में रही है. त्रिपुरा के लोग 1993 की उस घटना को अब भी याद करते हैं जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने केंद्र में वाम दलों का समर्थन हासिल करने के लिए त्रिपुरा की समीर रंजन बर्मन की सरकार बर्खास्त कर दी थी. इस फैसले का नतीजा यह हुआ कि अगले ही चुनाव में वहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी. कांग्रेस उस समय जो वहां से उखड़ी, उसके बाद वहां पैर नहीं जमा पाई. त्रिपुरा के लोगों ने कांग्रेस को उसकी बेजा और ढुलमुल नीतियों की सजा दी. अपने ही मुख्यमंत्री समीर रंजन बर्मन को अपमानित करने का परिणाम यह हुआ कि बर्मन का बगावती रुख लगातार कांग्रेस को नुकसान पहुंचाता रहा. पिछले चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर जीत हासिल करने वाले उनके बेटे सुदीप राय बर्मन भी कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हो गए. सुदीप राय बर्मन इस बार के चुनाव में अगरतला विधानसभा सीट पर भाजपा के टिकट से चुनाव जीते हैं. गैर वाम दलों के असंतुष्ट नेताओं को अपनी पार्टी में प्रतिष्ठा के साथ शामिल करने की भाजपा की रणनीति भी सियासत की बिसात पर कारगर साबित हुई.
इसी तरह नगालैंड में भी भाजपा-गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन किया. वहां सर्वाधिक सीटें सत्तारूढ़ नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) ने जीतीं. नगा पीपुल्स फ्रंट ने पहले ही प्रस्ताव पारित कर भाजपा गठबंधन में रहने की प्रतिबद्धता घोषित कर दी थी. वहां नीफिउ रीयो के नेतृत्व में सरकार बनी. मेघालय में 21 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी का तमगा लेने के बाद भी कांग्रेस वहां सरकार नहीं बना पाई और दो सीटें पाने वाली भाजपा ने अपने गठबंधन दलों के साथ नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) नेता कॉनराड संगमा के नेतृत्व में सरकार बना ली. एनपीपी ने मेघालय में 19 सीटें जीती हैं. पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में सरकार बनाने के बाद अब देश के कुल 21 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकार हो गई है. पूर्वोत्तर से शुरू करें तो अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, नगालैंड, मेघालय, मणिपुर, असम, त्रिपुरा, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, गुजरात, गोवा और जम्मू-कश्मीर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के छाते के नीचे आ चुके हैं.

अपने घर में भी तिकड़म करने से बाज नहीं आए अमित शाह
तिकड़म रचने की आदत है तो अपने घर में भी तिकड़म से बाज नहीं आते भाजपा के शीर्ष नेता. हिमाचल चुनाव से लेकर गुजरात और पूर्वोत्तर तक चुनाव जीतने के लिए भाजपा आलाकमान ने उत्तर प्रदेश के ‘फायर-ब्रांड’ और ‘ऑनेस्ट-ब्रांड’ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का पूरा इस्तेमाल किया, लेकिन गोरखपुर लोकसभा के लिए होने वाले उप चुनाव में योगी की पसंद का उम्मीदवार नहीं दिया. अयोध्या के एक संन्यासी ने भाजपा के शीर्ष नेता के इस चरित्र पर उस बिच्छू की कथा सुनाई, जो उसकी प्राण रक्षा करने वाले साधु की हथेली पर बैठा भी था और उन्हें लहू-लुहान भी कर रहा था. गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ की पसंद का प्रत्याशी नहीं देने का फैसला करने वाले नेता की साधु के हाथ में बैठे बिच्छू से तुलना बिल्कुल सटीक है. गोरखपुर संसदीय सीट के लिए उपेंद्र शुक्ला को टिकट दिए जाने का फैसला योगी को डंक मारने जैसा ही रहा. अमित शाह ने अपने ही मुख्यमंत्री के सामने ऐसी शातिराना बिसात बिछाई कि जीते तब भी गए और हारे तब भी गए. गोरखपुर लोकसभा सीट योगी आदित्यनाथ की पारंपरिक सीट रही है. वहां से योगी की पकड़ को कमजोर करने के लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उपेंद्र शुक्ला को उम्मीदवार बनाया. गोरखपुर सीट से हमेशा राजपूत प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरता और जीतता रहा है, लेकिन इस बार शाह ने ब्राह्मण को सामने करके राजपूत वर्चस्व को समाप्त करने का तानाबाना बुन दिया. गोरखपुर सीट से योगी आदित्यनाथ पिछले पांच बार से चुनाव जीतते आए. उनके मुख्यमंत्री बनने से यह सीट खाली हुई. 30 साल बाद गोरखपुर संसदीय सीट के लिए कोई ब्राह्मण प्रत्याशी भाजपा के टिकट से चुनाव लड़ा. अमित शाह ने इस उम्मीदवार के जरिए गोरखपुर संसदीय सीट पर कायम गोरखधाम के प्रभाव को कम करने और योगी को कमजोर करने की कोशिश की. प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य फूलपुर से अपनी पत्नी को टिकट दिलाना चाह रहे थे, लेकिन पर-दुख से सुख लेने वाले अमित शाह ने ऐसा नहीं होने दिया और बाहरी प्रत्याशी ला खड़ा किया. सियासत की सारी रेस जीत लेने का दंभ भरने वाले भाजपा नेता ने टायर में सुई चुभो ली, इसका एहसास उन्हें परिणाम आने के बाद मिल ही गया होगा...

जनता की नाराजगी के कारण राजस्थान के उप चुनावों में हारी भाजपा
अब आते हैं मध्य प्रदेश और राजस्थान के उप चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता के बावजूद अपेक्षित जन-समर्थन न मिलने के कारणों पर. राजस्थान में अलवर और अजमेर की दो लोकसभा और मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) की एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनावों में कांग्रेस ने जीत हासिल की. इस जीत का प्रदेश में जो ‘मैसेज’ गया वह कांग्रेस की जीत से अधिक भाजपा की हार का था. यानि, हार के बावजूद भाजपा ही चर्चा के केंद्र में रही. कांग्रेस इस जीत की ‘मार्केटिंग’ करने के बजाय अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट में ही फंसी रही. राजस्थान के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक भी राजस्थान उप चुपनाव के नतीजों को कांग्रेस की जीत से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी की हार के एंगल से देखते हैं. उनका मानना है कि जिस तरह पूर्वोत्तर में भाजपा ने रणनीतिक रफूगीरी की, वैसा ही ‘होमवर्क’ अगर राजस्थान में भी कर लिया तो उसका फायदा मिल सकता है. हालांकि राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया के कार्यकाल में चौपट हुई विकास-यात्रा के कारण लोगों में व्याप्त नाराजगी को भाजपा की ‘कलाकारी’ कितना कम कर पाएगी, इस बारे में राजनीतिक विश्लेषक अभी कुछ नहीं कह पा रहे हैं. उनका कहना है कि राजस्थान के उप चुनावों में कांग्रेस की जीत कांग्रेस की रणनीति के कारण नहीं, बल्कि मतदाताओं की भाजपा से नाराजगी के कारण हुई. तीनों सीटों पर आम मतदाता कांग्रेस के साथ दिखने के बजाय भाजपा के खिलाफ खड़े दिख रहे थे. नोटबंदी और जीएसटी के साथ-साथ स्थानीय मुद्दों, मसलन, ढांचागत बदहाली, सड़कों की खराब हालत, किसान विरोधी नीति, खाद-बीज की सब्सिडी काटना, कर्मचारियों की उपेक्षा, पानी की अव्यवस्था, भ्रष्टाचारी मंत्रियों और अधिकारियों को बचाने के लिए काले कानून की सिफारिश, स्कूलों, बसों, चिकित्सकीय जांचों जैसे जनता से जुड़े अनिवार्य सरकारी काम को ‘पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप’ के फार्मूले से जोड़ने जैसे बेजा सरकारी फैसलों ने भी राजस्थान के मतदाताओं को भाजपा से दूर किया है. अधिकतर विश्लेषक और जानकार प्रदेश के विकास की तरफ सिंधिया सरकार की उपेक्षा और पार्टी की प्रदेश इकाई में मची अंदरूनी कलह को इस हार की मुख्य वजह बताते हैं. अलवर में पहलू खान की हत्या पर कानूनी कार्रवाई में ढिलाई बरतने, मेव समुदाय की उपेक्षा करने, राजसमंद में बुजुर्ग की हत्या पर चुप्पी साधने, धार्मिक उन्माद फैलाने, अजमेर में बाहुबली आनंदपाल को फर्जी इन्काउंटर में मारने और राजपूतों के विरोध के बावजूद पद्मावत फिल्म के प्रदर्शन को मंजूरी देने जैसे कई अहम स्थानीय मुद्दे भी वसुंधरा सरकार के खिलाफ गए हैं.
राजधानी जयपुर में मुख्यमंत्री सचिवालय और सरकार का कवरेज करने वाले कई वरिष्ठ पत्रकारों ने भी कहा कि मुख्यमंत्री समेत कई भाजपा नेताओं पर सत्ता का अहंकार हावी रहा, जिससे आम जनता के साथ-साथ कार्यकर्ता भी बिदक गए. नाराजगी इस हद तक पहुंच गई कि उप चुनाव के परिणाम पर भाजपा के कार्यकर्ता भी खुश नजर आए. कांग्रेस खेमे से ही यह बात भी निकल कर आई कि अजमेर में कई बूथों पर भाजपा के कार्यकर्ताओं ने अपनी पार्टी के खिलाफ वोट डलवाए. एक बूथ पर तो भाजपा के पक्ष में एक भी वोट नहीं पड़ा. दूसरे एक बूथ पर भाजपा को महज एक वोट मिला. इससे भाजपा के खिलाफ लोगों की नाराजगी स्पष्ट तौर पर समझी जा सकती है. स्थिति इतनी विपरीत है कि इन उपचुनावों से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी खुद को अलग ही रखा. संघ से जुड़े एक वरिष्ठ स्वयं सेवक ने बताया कि चुनाव में जब संघ के कार्यकर्ता ही बाहर नहीं निकले तो वे मतदाताओं को कैसे बाहर निकालते. अजमेर में तो पार्टी की बैठक में संघ के पदाधिकारियों ने प्रदेश भाजपा के नेताओं के साथ बैठने से ही इन्कार कर दिया था.

मध्य प्रदेश उप चुनावः कलह में भंग हो गया जीत का उत्साह
मध्य प्रदेश में भी दो विधानसभा सीटों कोलारस और मुंगावली में कांग्रेस की जीत ने कांग्रेस समर्थकों और कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार किया, लेकिन यह उत्साह ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के तीन खेमों में खिंच कर छिन्नभिन्न हो गया. विधानसभा की महज दो सीटों पर मिली जीत के आधार पर कांग्रेस का कोई नेता ज्योतिरादित्य को भावी मुख्यमंत्री बनाए दे रहा है तो कोई कमलनाथ को. कांग्रेस नेता दिग्विजय के पर कतरे जाने की चौपाल-चर्चा में लगे हैं और यह नहीं समझ रहे कि इसका असर फाइनल मैच पर कितना पड़ेगा. उप चुनाव के परिणाम आने के बाद से यह चर्चा भी सरगर्म है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश का जिम्मा कमलनाथ संभालेंगे या फिर ज्योतिरादित्य. दोनों नेताओं के समर्थक अपने-अपने तरीके से दावेदारी पेश कर रहे हैं और दिग्विजय सिंह खेमा चुप्पी साधे हुए इस दोधारी दावेदारी के छेद तलाश रहा है.
मध्य प्रदेश की कांग्रेसी राजनीति में दिग्विजय सिंह को खलनायक साबित करने की मुहिम चल पड़ी है. उप चुनाव में वैसे तो दिग्विजय की भूमिका हाशिए पर रही, लेकिन भविष्य में दिग्विजय फिर न उठ कर खड़े हो जाएं, इसके लिए अभी से पेशबंदी हो रही है. प्रदेश कांग्रेस कमेटी द्वारा इंदौर जिला कार्यकारिणी भंग किए जाने का मसला भी प्रतिष्ठा का विषय बना हुआ है. दिग्विजय सिंह और उनके विधायक पुत्र जयवर्धन सिंह की सिफारिश पर जिला कमेटी में की गई नियुक्तियों के अलावा कांग्रेस से निष्कासित कमलेश खंडेलवाल के कहने पर बोरिंग के लिए दिग्विजय द्वारा अपनी सांसद निधि से 10 लाख रुपए देना भी जंजाल बना हुआ है. वार्ड चुनाव में मुहम्मद गौरी को दिग्विजय सिंह का समर्थन मिलना और दिग्विजय के बेटे जयवर्धन द्वारा कांग्रेस के बागी इकबाल खान के बेटे शाहनवाज को शहर कांग्रेस का महामंत्री बनवा देना आफत का सबब बन गया.

कलह और अराजकता के बीच कांग्रेस नेतृत्व का लाचार चेहरा
लब्लोलुबाव यह है कि कांग्रेस पार्टी में अनुशासन बनाए रखना भी पार्टी नेतृत्व के लिए भीषण चुनौती का विषय बन गया है. प्रदेश इकाइयों में मची कलह और अराजकता के बीच कांग्रेस आलाकमान का चेहरा बेहद कमजोर दिख रहा है. इस कमजोरी का असर विभिन्न राज्यों के चुनाव पर पड़ रहा है. केंद्रीय नेताओं द्वारा प्रदेश की इकाइयों पर बेवजह दादागीरी करने के आरोप भी सतह पर आ रहे हैं. ऐसी ही दादागीरी के कारण बिहार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक चौधरी कांग्रेस छोड़ कर जनता दल (यू) में शामिल हो गए. उनके साथ चार विधान परिषद सदस्य भी जदयू में चले गए. अशोक चौधरी ने कांग्रेस नेता सीपी जोशी पर गुटबाजी का आरोप लगाया और कहा कि कांग्रेस का आंतरिक प्रबंधन बिल्कुल लचर है. कांग्रेस के कई और नेताओं के भाजपा, जदयू या राजद में जाने की संभावना है. उल्लेखनीय है कि कांग्रेस की पूर्व अध्यक्षा सोनिया गांधी ने सीपी जोशी के कहने पर ही अशोक चौधरी को बिहार कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया था. अशोक चौधरी बिहार के वरिष्ठ नेता महावीर चौधरी के बेटे हैं. सीपी जोशी पश्चिम बंगाल, असम और पूर्वोत्तर के भी प्रभारी रहे हैं. पूर्वोत्तर में पार्टी की दुर्गति से जोशी की मुश्किलें बढ़ गई हैं. अरुणाचल प्रदेश के बाद अब नगालैंड में कांग्रेस विद्रोह पर उतारू है. अंतरकलह के कारण कांग्रेस उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में अपनी दुर्गति पहले ही देख चुकी है.
बहरहाल, कांग्रेस की प्रदेश इकाइयों को मजबूत करने और प्रभावशाली प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति करने की मांग तेजी से बढ़ी है. कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मानना है कि कमजोर नेतृत्व के कारण ही आपस का झगड़ा बढ़ा है और हाथ की सीटें भी हारनी पड़ी हैं. राहुल गांधी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के ठीक पहले उनके समक्ष हिमाचल प्रदेश और गुजरात की चुनौती थी और राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के फौरन बाद पूर्वोत्तर के तीन राज्यों की चुनौती सामने आई. दोनों चुनौतियों में कांग्रेस पास नहीं हुई. गुजरात में कांग्रेस को सम्मानजनक सीटें तो मिलीं, लेकिन सरकार नहीं बन पाई. हिमाचल में कांग्रेस के हाथ से सत्ता निकल गई. यही हाल पूर्वोत्तर में हुआ. अब राहुल गांधी के समक्ष कर्नाटक फिर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान विधानसभा चुनाव की चुनौतियां सामने खड़ी हैं. विधानसभा चुनावों में जूझने के साथ ही संगठन को नए सिरे से खड़ा करने और फिर पार्टी को 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी भी सिर पर है.

अपनी करनी से नाकाम दल में तब्दील हो गया वाम दल
पूर्वोत्तर से वाम दल का पत्ता साफ हो गया. पश्चिम बंगाल की ‘कालजयी’ वाममोर्चा सरकार को इसके पहले ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस उखाड़ चुकी है. वर्ष 2011 में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों को 41 प्रतिशत वोट मिले थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में वाम दलों का वोट प्रतिशत 29.6 रह गया. वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में वाम दलों को 26.1 प्रतिशत वोट ही हासिल हुए. यानि, गिरावट लगातार होती रही. पश्चिम बंगाल ही क्यों, जहां-जहां भी लेफ्ट की कोई भी पार्टी अस्तित्व में रही है, वहां-वहां से उसका सफाया होता गया. अब केरल ही वाम दलों का अकेला ठौर बचा है. इस पतन-यात्रा की वजहें भी साफ-साफ दिखती हैं. वाम दलों का शीर्ष नेतृत्व आम देशवासियों के विचार से बिल्कुल ही अलग वैचारिक धरातल पर विचरण करता रहता है. कभी वह सर्जिकल स्ट्राइक के प्रमाण मांगने लगता है तो कभी कश्मीर के पत्थरबाजों के प्रति सार्वजनिक सहानुभूति जताने लगता है. पाकिस्तान और चीन के उकसावों पर चुप्पी साध लेता है तो नेपाल के मसले पर भारत विरोधी बयान जारी करने लगता है. वाम नेताओं के ऐसे बयानों ने उन्हें जनता से दूर कर दिया और धीरे-धीरे वाम दल देश की राजनीति से अप्रासंगिक होते चले गए. वाम की नीतियों, कार्यक्रमों और विचारों को जनता ने एक तरह से खारिज ही कर दिया. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) हो या भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) या कोई अन्य वाम दल, किसी ने भी आम आदमी के मसले को जमीनी धरातल पर हल करने के व्यवहारिक उपाय नहीं तलाशे केवल वैचारिक आकाश पर पतंगबाजी करते रहे. इसी वजह से सियासी आसमान से वाम दलों की पतंग भक्क-काटा हो गई. कभी उत्तर प्रदेश में भी वाम दलों की अच्छी पकड़ रही है, लेकिन आज उनका हाल झख मारने से भी बदतर हो गया है. यूपी के विधानसभा चुनाव में पहली बार भाकपा, माकपा और माले ने मिल कर सौ सीटों पर साझा उम्मीदवार उतारे थे. वाम के साझा प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार में वाम दलों के सभी स्टार प्रचारक सीताराम येचुरी, डी. राजा, वृंदा करात, दीपंकर भट्टाचार्य समेत दर्जनों दिग्गज चुनावी सभाओं में जूझते रहे, लेकिन वोट नहीं दिला पाए. वाम दलों के नेताओं को फिर भी यह समझ में नहीं आया कि वे राजनीति की किस काल्पनिक जमीन पर खड़े हैं. सौ प्रत्याशियों के लिए देश के सभी वाम दल मिल कर भी डेढ़ लाख वोट नहीं जुटा पाए. प्रत्याशियों को अपना वोट देने के बजाय ‘इनमें से कोई नहीं’ (नोटा) का बटन दबाने वाले मतदाताओं ने भी वाम दलों के सौ प्रत्याशियों के कुल वोट से कहीं अधिक ‘नोटा’ के वोट डाले. वाम दलों के प्रत्याशियों को कुल एक लाख 38 हजार 763 वोट मिले, जबकि ‘नोटा’ के खाते में सात लाख 57 हजार 643 मत पड़े. यूपी के विधानसभा चुनाव में वाम दलों की बुरी हालत का संक्षिप्त जायजा इससे भी मिल जाएगा कि अयोध्या में वाम दलों के साझा प्रत्याशी भाकपा के सूर्यकांत पांडेय को मात्र 1353 वोट हासिल हुए. मुजफ्फरनगर दंगे के गर्म तवे पर सियासत की रोटी सेंकने वाले वाम दलों के साझा प्रत्याशी माकपा के मुर्तजा सलमानी को महज 491 वोट मिले. आजमगढ़ में वाम दलों के साझा प्रत्याशी माकपा के रामबृक्ष को 1040 वोट मिले और गाजियाबाद के साहिबाबाद में वाम के साझा प्रत्याशी माकपा के जगदंबा प्रसाद को 1087 वोट मिल पाए. वाम दलों के सभी साझा प्रत्याशी अपनी-अपनी जमानतें भी नहीं बचा पाए. आप समझ सकते हैं कि देश में वाम दल किस बुरी हालत में पहुंच गए हैं. फिर भी वे मान नहीं रहे और न अपनी नीतियों में समय की मांग के मुताबिक फेरबदल कर रहे हैं. 1991 के लोकसभा चुनाव में वाम दलों ने नौ राज्यों में जीत दर्ज की थी. आज लेफ्ट पार्टी एक राज्य में सिमट गई है. माकपा ने पश्चिम बंगाल में 1977 से लेकर 2011 तक राज किया. माकपा नेता ज्योति बसु सबसे लंबे समय तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे. लेकिन आज माकपा की दुर्दशा सियासी इतिहास की अजीबोगरीब बानगी है. देश के युवकों ने वाम दलों को पूरी तरह खारिज कर दिया है. अब वाम दल बुड्ढों की पार्टी होकर रह गए हैं. माकपा के कुल सदस्यों में महज साढ़े छह प्रतिशत सदस्य 25 वर्ष या उससे कम उम्र के हैं.

ऐसी ईमानदारी किस काम की जब विकास की फाइलों पर बैठे रहे 25 साल
वाम दलों के नेताओं ने व्यक्तिगत ईमानदारी तो बरती, लेकिन जिन राज्यों में वे राज करते रहे उन्हें विकास की दौड़ में काफी पीछे धकेल दिया. विकास की फाइलें वाम-राज में रुकी रहीं. वाम नेता विकास की फाइलों को अंडे की तरह सेते रहे, लेकिन एक चूजा भी क्यों नहीं निकाल पाए, विकास में काफी पीछे रह गए त्रिपुरा के लोग यह सवाल पूछते हैं. पिछले 25 साल में बढ़ी गरीबी की वजहें वे ईमानदार माणिक सरकार की वाम सरकार से जानना चाहते हैं. 13वें वित्त आयोग से त्रिपुरा को मिले 7283 करोड़ रुपए और 14वें वित्त आयोग के तहत मिले 25,396 करोड़ रुपए के बड़े फर्क ने भी त्रिपुरा के लोगों को राजनीतिक तौर पर सतर्क करने का काम किया. त्रिपुरा के लोग वाम दलों से 18 हजार करोड़ रुपए की अतिरिक्त राशि का हिसाब मांग रहे थे, हिसाब नहीं मिला तो लोगों ने अपनी नाराजगी को वाम-विरोधी वोट में तब्दील कर दिया.

सपा-बसपा के अवसरवादी तालमेल से सशंकित कांग्रेस
बिहार में महागठबंधन से अलग होने वाली समाजवादी पार्टी के साथ उत्तर प्रदेश में हाथ मिलाने वाली कांग्रेस अब बसपा को लेकर फंस गई है. समाजवादी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी जैसी बैरी पार्टी से तालमेल कर लिया है. अब कांग्रेस को तय करना है कि 2019 के पहले वह यूपी में सपा बसपा के साथ तिकड़ी में शामिल होती है या अपना अलग रास्ता अख्तियार करती है, जैसा उसने इस बार यूपी के दो उप चुनाव को लेकर अपना अलग रास्ता अख्तियार किया. कांग्रेस ने एक-एक सीट पर चुनाव लड़ने का सपा को प्रस्ताव दिया था, लेकिन सपा ने इन्कार कर दिया. सपा को बसपा से गठजोड़ पसंद आया. हालांकि सपा-बसपा का गठबंधन भी 2019 के लोकसभा चुनाव तक शायद ही चल पाए. 23 साल बाद मिले हाथ जल्दी ही विलग भी हो सकते हैं. मायावती ने ऐसे संकेत भी दिए हैं. बहरहाल, अभी गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर हो रहे उप चुनाव में मायावती की पार्टी सपा प्रत्याशी का समर्थन करेगी. राजनीतिक पंडित इसे अवसरवादी करार बता रहे हैं. उनका मानना है कि मायावती ने राज्यसभा में अपनी एक सीट पक्की करने के लिए सपा से हाथ मिलाया है. बसपा अपने बूते राज्यसभा में एक भी प्रतिनिधि नहीं भेज सकती थी. बसपा ने कांग्रेस को भी यह कह कर अपने जाल में फंसाया है कि कांग्रेस अगर मध्य प्रदेश में राज्यसभा चुनाव जीतना चाहती है तो उसे यूपी के राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के सात विधायकों के जरिए बसपा को वोट देना होगा. मध्य प्रदेश में बसपा के चार विधायक हैं. प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सपा-बसपा समझौते को 'केर बेर का करार' कहा है. बसपा के साथ हाथ मिलाने के बाद सपा ने दिन में सपना देखना शुरू कर दिया है. सपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष किरणमय नंदा कहते हैं कि सपा और बसपा के एक होने से फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में साम्प्रदायिक ताकतें पराजित होंगी, क्योंकि भाजपा दोनों उप चुनाव हारने जा रही है. ‘स्वप्निल’ नंदा यह भी कहते हैं कि फूलपुर उप चुनाव 2019 के चुनावों की दिशा और दशा तय करेगा.
राज्यसभा पहुंचने के लिए सीटों का गणित बसपा के रास्ते में बाधा डाल रहा था. 19 विधायकों के बूते बसपा के किसी प्रतिनिधि का राज्यसभा पहुंच पाना मुश्किल था. इसलिए बसपा ने सपा का हाथ थाम लिया. बसपा प्रमुख मायावती ने कहा भी कि सपा राज्यसभा में बसपा का समर्थन करेगी और बसपा सपा को विधान परिषद में मदद करेगी. इससे सपा को विधान परिषद में एक सीट का फायदा हो जाएगा. पिछले साल जुलाई में मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया था. मायावती की खाली सीट समेत राज्यसभा की यूपी से 10 सीटों पर 23 मार्च को चुनाव होगा. सपा छोड़कर कोई भी विपक्षी दल अपना एक भी उम्मीदवार राज्यसभा भेजने की स्थिति में नहीं है. सपा-बसपा करार हो जाने के बाद साझा उम्मीदवार के तौर पर बसपा का एक सदस्य राज्यसभा पहुंच जाएगा. राज्यसभा पहुंचने के लिए कम से कम 37 वोटों की जरूरत है. संख्या गणित के हिसाब से भाजपा अपने आठ उम्मीदवारों को राज्यसभा पहुंचा देगी. सपा के पास 47 विधायक हैं. मायावती के 19 विधायकों को मिला कर यह संख्या 66 हो जाएगी. सपा-बसपा का साथ देने के अलावा सात विधायकों वाली कांग्रेस पार्टी के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है. बसपा का साथ मिलने से 12 सीटों के लिए अप्रैल में होने वाले विधान परिषद चुनाव में सपा एक और सीट हासिल कर लेगी. विधान परिषद की एक सीट के लिए 32 वोटों की जरूरत है. लिहाजा संख्या बल के मुताबिक भाजपा 10 सीटें हासिल कर लेगी. गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा के उपचुनाव और राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव सपा-बसपा के भविष्य के तालमेल को भी निर्धारित करेंगे.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि तालमेल के जरिए सपा और बसपा दोनों ने मिल कर कांग्रेस को दबाव में लिया है. उप चुनाव में कांग्रेस ने अपना प्रत्याशी उतारा है, लेकिन उसकी मजबूरी है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा से भिड़ने के लिए वह सपा, बसपा, वाम दलों और राजग विरोधी छोटे दलों के साथ रहे. सपाई प्रेक्षकों की यह ‘कल्पना’ है कि उप चुनाव में यदि सपा का कोई प्रत्याशी जीता तो भाजपा के खिलाफ व्यापक गठबंधन तैयार करने में अखिलेश यादव का हाथ ऊपर रहेगा. गोरखपुर और फूलपुर के उप चुनाव में निषाद पार्टी और पीस पार्टी ने सपा का समर्थन किया है. सपा ने निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय कुमार निषाद के बेटे प्रवीण कुमार निषाद को गोरखपुर से अपना उम्मीदवार बनाया है. फूलपुर से सपा ने नागेंद्र पटेल को अपना प्रत्याशी बनाया है. फूलपुर से निर्दलीय प्रत्याशी के बतौर माफिया सरगना अतीक अहमद के खड़े होने और कांग्रेस द्वारा ब्राह्मण उम्मीदवार मनीष मिश्र को उतार दिए जाने से सपा का रास्ता मुश्किल और भाजपा के लिए आसान हो गया है. गोरखपुर में भी कांग्रेस द्वारा मुस्लिम प्रत्याशी मशहूर डॉक्टर सुरहिता करीम को उम्मीदवार बनाने से सपा के सामने अड़चन खड़ी हो गई है. डॉ. सुरहिता करीम समाजवादी पार्टी के वोट में असरकारक सेंध लगा सकती हैं.

बदलता गया समीकरण और ध्वस्त होता गया चुनावी गणित
पिछले ढाई दशक में उत्तर प्रदेश ने सियासी समीकरणों को बनते और बिगड़ते, टूटते और बिखरते देखा है. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा 177 सीटें जीती थी. सपा को तब 109 सीटें हासिल हुई थीं. बसपा को 67 और कांग्रेस को 28 सीटें मिली थीं. 177 सीटें जीत कर भी भाजपा सरकार नहीं बना पाई थी और सपा बसपा गठबंधन ने कांग्रेस से समर्थन लेकर मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सरकार बना ली थी. गठबंधन में शामिल होने के बावजूद मायावती द्वारा सार्वजनिक मंचों से मुलायम की निंदा किए जाने से तल्खी बढ़ती गई. दो जून 1995 को हुए गेस्ट हाउस कांड के बाद मायावती भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं. राजनीतिक काल-परिस्थिति ने ऐसी करवट बदली कि गेस्ट हाउस कांड की अभियुक्त पार्टी के साथ तालमेल करने से मायावती ने परहेज नहीं किया. राजनीति इसी मौकापरस्ती का नाम है.
हम यहां तीन चुनावों का जिक्र कर रहे हैं. 1993 का विधानसभा चुनाव, 2014 का लोकसभा चुनाव और 2017 का विधानसभा चुनाव. इन तीनों चुनावों के परिणाम और उसके बाद के हालात ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में भूचाल लाने का काम किया है. 1993 के चुनाव और प्रतिउत्पाद के दृश्य आपने देखे. अब आते हैं 2014 के लोकसभा चुनाव पर. लोकसभा के इस चुनाव ने उत्तर प्रदेश की राजनीति के सारे आंकड़े और समीकरण ध्वस्त कर डाले. 2014 के चुनाव में भाजपा को 71 सीटों पर जीत मिली. प्रदेश में सरकार में होने के बावजूद सपा को महज पांच सीटें हासिल हुईं और बसपा शून्य पर पहुंच गई. राहुल गांधी और सोनिया गांधी अपनी सीटें बचा ले गए. दो सीटें पाकर कांग्रेस ने अपनी इज्जत बचाई. इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ. भाजपा ने रिकॉर्ड जीत हासिल करते हुए अकेले 312 सीटें अपने खाते में कर लीं. भाजपा गठबंधन को 325 सीटें मिलीं, जिसमें अपना दल को नौ और भारतीय समाज पार्टी (सुहेलदेव) को चार सीटें शामिल हैं. सरकार पर बैठी सपा को 47 सीटें मिल पाईं. बसपा को 19 और कांग्रेस को महज सात सीटों पर संतोष करना पड़ा. आजाद भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. लोकसभा चुनाव में 71 सीटों पर जीत और विधानसभा चुनाव में 312 सीटों पर भाजपा की जीत ने भविष्य के सारे राजनीतिक समीकरण गड्डमड्ड कर दिए. इसी में सारे विपक्षी दल चक्करघिन्नी हैं.

छोटे दल भी खोते जा रहे हैं अपना औचित्य
बदलते समय में छोटे और क्षेत्रीय दल भी अपना औचित्य खोते चले गए. 80 के दशक में उत्तर प्रदेश में जब जातिवादी राजनीति और क्षेत्रीयतावाद सिर चढ़ कर बोल रहा था, उस समय छोटे क्षेत्रीय दल भी प्रभावी तरीके से उभर रहे थे. हालांकि छोटे गैर मान्यता प्राप्त दलों के चुनाव मैदान में उतरने की शुरुआत 1962 में ही हो चुकी थी, जब दलितवादी रिपब्लिकन पार्टी और धर्मवादी हिन्दू महासभा और राम राज्य परिषद चुनाव मैदान में उतरी थी. उस वक्त रिपब्लिकन पार्टी को आठ सीटें और हिन्दू महासभा को दो सीटें मिली थीं. 1969 के चुनाव में चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांतिदल को 98 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और वह पार्टी उत्तर प्रदेश की 425 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. 1985 में बसपा ने कामयाबी हासिल की और उसके बाद अपना दल, राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी, इंडियन जस्टिस पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी जैसे कई राजनीतिक दल सामने आते गए. बाद के दौर में शिवसेना और उलमा कौंसिल ने भी यूपी में चुनावी दाव खेले. इसी में पीस पार्टी ने भी अपने कुछ विधायक जिता कर शिनाख्त दर्ज करा ली. यानि, 1985 के बाद छोटे दलों की संख्या लगातार बढ़ी. 2007 में विधानसभा चुनाव लड़ने वाले छोटे दलों की तादाद 111 तक पहुंच गई. लेकिन संख्या बढ़ोत्तरी के साथ-साथ इनका औचित्य भी खोता गया. वर्ष 1991 के विधानसभा चुनाव में 34 छोटे दलों ने कुल 645 उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें केवल दो ही जीत सके और 641 की जमानत जब्त हो गई. हालांकि 1993 में ग्राफ बढ़ा और 59 छोटे दलों के 1205 प्रत्याशियों में से 110 प्रत्याशी जीत गए. मुलायम सिंह यादव गैर मान्यता प्राप्त समाजवादी पार्टी (सपा) ने 109 सीटें जीती थीं. फिर यह ग्राफ नीचे गिरा और 1996 के विधानसभा चुनाव में 61 छोटे दलों के 1102 उम्मीदवारों में से महज 11 ही जीत पाए. 2002 के विधानसभा चुनाव में 58 छोटी पार्टियों ने 1332 प्रत्याशी उतारे जिनमें से 29 जीते. 2007 के विधानसभा चुनाव में 111 छोटे दलों ने 1356 प्रत्याशी उतारे लेकिन उनमें से महज सात जीत पाए और 1329 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई. वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में छोटे दलों ने बड़े समीकरणों को ‘डस्टर्ब’ करने का खेल जरूर किया. पीस पार्टी और महान दल जैसे छोटे दल तमाम सीटों पर चौथे, पांचवें और छठे स्थान पर तो जरूर रहे, पर इन दलों ने सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों का कई सीटों पर संतुलन बिगाड़ दिया था. 2012 के विधानसभा चुनाव में रालोद ने जो नौ सीटें जीती थीं उनमें से आठ सीटों पर बसपा के उम्मीदवार हारे थे. पीस पार्टी ने जो चार सीटें जीती थीं उनमें से तीन पर बसपा और एक पर सपा प्रत्याशी को हराया था. नौ सीटों पर अपना दल दूसरे नंबर पर और 23 सीटों पर तीसरे स्थान पर आया था. पीस पार्टी तीन सीटों पर दूसरे स्थान, आठ सीटों पर तीसरे और 24 सीटों पर चौथे स्थान पर रही थी. 2012 के चुनाव में इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल ने बरेली की भोजीपुरा सीट जीतकर सबको हैरत में डाल दिया था. उसने बरेली शहर, कैंट और बिथरी चैनपुर सीट पर समाजवादी पार्टी का खेल भी बिगाड़ दिया था. इन तीनों सीट पर वह तीसरे स्थान पर रही थी. काउंसिल ने बरेली की छह विधानसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे. 2017 के विधानसभा चुनाव में विपक्षी खेमे के सारे छोटे दल हवा में उड़ गए. भाजपा गठबंधन के साथ रहे अपना दल (सोनेलाल) को नौ सीटें मिलीं और भारतीय समाज पार्टी (सुहेलदेव) को चार सीटें मिलीं. भाजपा अकेले ही 312 सीटों पर जीत गई. 

Thursday 8 March 2018

नोटबंदी इनके लिए नहींः आज भी चल रहे हैं पांच सौ और हजार के प्रतिबंधित नोट..!

प्रभात रंजन दीन
नोटबंदी के बाद प्रतिबंधित नोटों के चलन पर लगाई गई सख्ती भारत सरकार का दिखावा है. पांच सौ और हजार के प्रतिबंधित नोट्स आज भी चल रहे हैं. कुछ पड़ोसी देशों के बैंक भारत के प्रतिबंधित नोट्स अब भी जमा कर रहे हैं. जिन पड़ोसी देशों से भारत का सीधा व्यापारिक सम्बन्ध है और जहां भारतीय मुद्रा का चलन है, भारत में नोटबंदी लागू होने के बाद वहां के बैंकों में पांच सौ और हजार के नोट जमा तो हुए लेकिन भारत सरकार ने उसका हिसाब-किताब नहीं लिया. सारे नोट वहीं डंप पड़े हुए हैं. पड़ोसी देशों के बैंकों ने इसका फायदा उठाया और भारत के नेताओं, व्यापारियों, माफियाओं और काले धन के जमाखोरों से मिलीभगत करके वे मनमाने रेट पर प्रतिबंधित नोट अपने यहां नामी-बेनामी खातों में जमा कर रहे हैं. इस काम में पड़ोसी देशों के स्थानीय व्यापारियों के खाते भी काम आ रहे हैं.
नोटबंदी के दरम्यान भारतीय बैंकों के भ्रष्ट अधिकारियों-कर्मचारियों ने जिस तरह अनापशनाप तरीके से काला धन सफेद कर माल कमाया, उसी तरह पड़ोसी देशों के बैंक अधिकारी भी भारत की नोटबंदी का लाभ कमा रहे हैं. फर्क यह है कि विदेशी बैंकों पर भारत का कोई नियंत्रण नहीं है, लिहाजा वे बेखौफ हैं. भारतीय रिजर्व बैंक के कुछ अधिकारी यह भी कहते हैं कि पड़ोसी देशों के बैंकों में डंप प्रतिबंधित भारतीय करंसी को नोटबंदी के सवा साल बाद भी वापस लाने में कोताही बरतना सुनियोजित लापरवाही है. ऊंची पहुंच वाले धनपशुओं को काला धन सफेद करने की यह सुविधा बड़े ही सोचे-समझे तरीके से मुहैया कराई जा रही है. भारत सरकार को यह पता ही नहीं है कि नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और श्रीलंका, बर्मा, अफगानिस्तान, भूटान, मालदीव और थाईलैंड समेत दक्षिण एशियाई मित्र देशों के बैंकों में कितनी प्रतिबंधित भारतीय करंसी डंप पड़ी है. भारत सरकार जब इसका हिसाब-किताब लेगी, तब तक तो यह धंधा जारी रहेगा! नोट बदली का गोरखधंधा खास तौर पर उन मित्र देशों के बैंकों में चल रहा है, जहां जाने के लिए वीज़ा लेने का नियम नहीं है. नेपाल इसमें अव्वल है. नोटबंदी के बाद प्रतिबंधित हुए पांच सौ और हजार के नोटों को मौद्रिक मुख्यधारा में चलाने का जाल इस कदर फैल चुका है कि अगर वहां डंप पड़े नोट्स भारत सरकार ने शीघ्र वापस नहीं लिए तो यह अलग प्रकार के आर्थिक असंतुलन की मुश्किलें पैदा कर देगा. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के रिसर्च एंड इन्वेस्टिगेशन डिपार्टमेंट से सम्बद्ध एक अधिकारी ने बताया कि नेपाल के ढाई दर्जन कमर्शियल बैंकों के अलावा 36 विकास बैंक, 25 वित्तीय संस्थान और करीब 50 माइक्रो क्रेडिट डेवलपमेंट बैंकों के जरिए प्रतिबंधित भारतीय मुद्रा को चलाने का काम हो रहा है.
विचित्र बात यह है कि भारत सरकार ने पांच सौ और दो हजार के नए नोटों के चलन को वैध करने के लिए विदेशी मुद्रा विनिमय प्रबंधन अधिनियम (फेमा) के तहत अधिसूचना तो आनन-फानन जारी कर दी, लेकिन नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका समेत दक्षिण एशियाई मित्र देशों के बैंकों में जो भारतीय मुद्रा नोटबंदी के बाद से डंप है उसे वापस लेने का कोई प्रबंधन आजतक नहीं किया. भारतीय मुद्रा की वापसी के तौर-तरीके पर दोपक्षीय सहमति कैसे बने, इसे लेकर कोई कवायद नहीं हो रही है. स्पष्ट है कि भारत सरकार यह जानबूझ कर कर रही है, ताकि खास-खास लोगों का काला धन सफेद हो सके.
भारत में नोटबंदी लागू होने के दो दिन के अंदर ही नेपाल राष्ट्र बैंक में 33,600,000 (336 लाख) रुपए जमा हो गए थे. विदेश मंत्रालय के नेपाल डेस्क के अधिकारी कहते हैं कि अब तक यह रकम हजारों करोड़ रुपए हो चुकी होगी. प्रतिबंधित भारतीय मुद्रा आज भी नेपाल के बैंकों में जमा हो रही है. भारत सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) इस पर चुप्पी साधे है. आरबीआई के एक अधिकारी ने इस चुप्पी या लापरवाही को भौंडा तर्क देकर ढंकने की कोशिश की और कहा कि नेपाल जाली करंसी का बड़ा जरिया बना रहा है इसलिए नेपाल के बैंकों में जमा भारतीय मुद्रा को वापस लेने के पहले नकली नोटों की पहचान जरूरी है. जबकि नेपाल राष्ट्र बैंक (एनआरबी) यह कह चुका है कि आरबीआई जो तकनीक सुझाएगा उसे वह नेपाल में आजमाने को तैयार है, जिससे नकली नोटों की पहचान हो सके और बाकी नोटों को भारतीय अथॉरिटी को औपचारिक तरीके से सुपुर्द किया जा सके. एनआरबी ने यह भी विकल्प दिया था कि आरबीआई खुद अपने विशेषज्ञों को भेज कर नोटों की पहचान करा ले और अपनी मुद्रा वापस ले ले. लेकिन आरबीआई ने न तकनीक सुझाई और न अपनी टीम भेजी, बस चुप्पी साध ली. नेपाल की अत्यधिक निर्भरता उन नेपाली श्रमिकों पर भी है जो भारत में कमाते हैं और छुट्टियों में भारतीय मुद्रा नकद लेकर नेपाल जाते हैं. यह रकम अरबों में होती है. वर्ष 2016 में यह रकम 42 अरब 36 करोड़ 35 लाख 55 हजार रुपए थी. स्वाभाविक है कि नोटबंदी के बाद इस मुद्रा में से भी पांच सौ और हजार का हिस्सा बैंकों में डंप हुआ होगा.
भूटान से नकली और फर्जी नोटों की आमद अत्यंत कम है, इसके बावजूद भूटान के बैंकों में डंप भारतीय मुद्रा अब तक वापस क्यों नहीं ली जा सकी? इस सवाल का जवाब भारत सरकार के पास नहीं है. भूटान में भारतीय मुद्रा का चलन भूटानी मुद्रा से अधिक है. लिहाजा, नोटबंदी का भूटान पर व्यापक असर पड़ा. भूटान ने पांच सौ और हजार के प्रतिबंधित नोटों को फौरन अपने बैंकों में जमा कराना शुरू कर दिया था, लेकिन भारत इन नोटों को वापस नहीं ले सका. भूटान की रॉयल मॉनिटरी अथॉरिटी का कहना है कि उसके पास तीन हजार करोड़ रुपए की भारतीय मुद्रा रिजर्व में है. इसके अलावा नोटबंदी के बाद जमा हुई भारतीय मुद्रा भी है, जिसे औपचारिक रूप से भारत सरकार को सुपुर्द करना है.
आठ नवम्बर 2016 के नोटबंदी आदेश के बाद खास तौर पर दो पड़ोसी देशों नेपाल और भूटान की बैंकिंग व्यवस्था हिल गई थी. भूटान में भारतीय मुद्रा के चलन को सरकारी तौर पर मंजूरी मिली हुई है और नेपाल में भारतीय मुद्रा का चलन पारंपरिक है. नोटबंदी के बाद भारत सरकार ने दोनों देशों को करंसी-एक्सचेंज का कोई कारगर रास्ता नहीं दिखाया. भारतीय रिजर्व बैंक और नेपाल राष्ट्र बैंक के बीच अब तक कोई औपचारिक सहमति का रास्ता नहीं निकल पाया जिससे नेपाल के बैंकों में जमा प्रतिबंधित भारतीय मुद्रा का समुचित विनिमय हो सके और वह भारत लौट सके. यही छेद काले धन को सफेद करने का जरिया बना हुआ है. नेपाल राष्ट्र बैंक और नेपाल स्थित बैंकों के अलावा वहां के वित्तीय संस्थानों और नेपाल के नागरिकों के पास भी भारतीय मुद्रा है. यह कितनी है और इसकी गिनती कैसे हो, इसका कोई मैकेनिज्म अब तक नहीं ढूंढ़ा जा सका है. भारतीय रिजर्व बैंक ने नेपाल सरकार को साढ़े चार हजार रुपए की भारतीय मुद्रा का विनिमय करने की सलाह दी थी, लेकिन नेपाल सरकार ने प्रत्येक नेपाली नागरिक को कम से कम 25 हजार रुपए भारतीय मुद्रा रखने की मंजूरी पहले से दे रखी थी. पूर्व गोरखा सैनिकों समेत लाखों लोगों के पास भारत सरकार की ओर से मिलने वाले पेंशन की राशि भारतीय मुद्रा में ही रखी थी. नेपाल के बैंकों में डंप प्रतिबंधित भारतीय मुद्रा की वापसी के लिए नेपाल राष्ट्र बैंक के फॉरेन एक्सचेंज मैनेजमेंट के प्रमुख भीष्मराज धूंगना और आरबीआई के अधिकारियों के बीच कई राउंड की बैठक हो चुकी, लेकिन सारी बैठकें बेनतीजा रही. नेपाल के वित्त मंत्री और भारतीय वित्त मंत्री के बीच भी बातचीत हुई लेकिन कोई ठोस रास्ता नहीं निकला. भारत के वित्त मंत्री ने एक्सचेंज सुविधा देने का वादा भी किया था, लेकिन अपने वादे पर वे कायम नहीं रहे.
उधर म्यांमार (बर्मा) के बैंकों में भी प्रतिबंधित नोटों का डंप भारत वापस लौटने की प्रतीक्षा कर रहा है. आरबीआई के अधिकारी बर्मा के बैंकों में महज 18 लाख प्रतिबंधित भारतीय मुद्रा पड़े होने का दावा करते हैं, जबकि जानकार बताते हैं कि बर्मा के गोल्डन पैगोडा को ही दान में मिले करोड़ों रुपए डंप पड़े हुए हैं. प्रतिबंधित भारतीय करंसी म्यांमार इकोनॉमिक बैंक और म्यांमार फॉरेन ट्रेड बैंक में जमा है. विडंबना यह है कि इन दोनों बर्मी बैंकों के कोलकाता के यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया में ‘वोस्ट्रो’ अकाउंट हैं, इसके बावजूद वह रकम भारत ट्रांसफर नहीं हो पा रही है. म्यांमार और भारत के बीच व्यापारिक सम्बन्ध हैं. म्यांमार स्थित तामू विद्युत प्रबंधन इंफाल से बिजली खरीदता है. यूबीआई के जरिए पैसे का लेनदेन होता है, लेकिन प्रतिबंधित करंसी बर्मा में डंप पड़ी हुई है. बर्मा सरकार की तरफ से लगातार इस बारे में लिखा जा रहा है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही. बांग्लादेश सरकार भी अपने बैंकों में डंप प्रतिबंधित भारतीय नोट्स भारत सरकार को वापस नहीं कर पा रही है. बांग्लादेश के जनता बैंक, अग्रणी बैंक, रूपाली बैंक और सोनाली बैंक में भारत की प्रतिबंधित मुद्राएं डंप पड़ी हुई हैं. पहले यह कहा गया था कि सोनाली बैंक अपनी सिलिगुड़ी स्थित शाखा के जरिए भारतीय मुद्रा भेज सकता है, लेकिन वह भी विलंबित ताल में चला गया. जानकार बताते हैं कि बांग्लादेशी बैंकों के जरिए भी प्रतिबंधित भारतीय मुद्रा को ‘सफेद’ करने का गोरखधंधा चालू है. पड़ोसी देशों के साथ व्यापार पर नोटबंदी का बुरा असर पड़ा है. खास तौर पर अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान, थाईलैंड और श्रीलंका के साथ. यहां के बैंकों में डंप पड़े भारतीय नोट्स के हस्तांतरण का काम अब तक नहीं होने से विदेश व्यापार प्रभावित हो रहा है. इन देशों के साथ भारत का व्यापार वर्ष 2015-16 में 2160 करोड़ डॉलर का था, जो वर्ष 2016-17 में काफी घट गया.
नोटबंदी के सवा साल बाद भी पांच सौ और हजार के प्रतिबंधित नोटों की बरामदगी जारी है. सवाल है कि इतनी सख्ती और पाबंदी के बावजूद लोग अपने पास ये नोट क्यों रख रहे हैं? इसका जवाब है कि प्रतिबंधित नोटों को सफेद करने के लिए नेपाल, बांग्लादेश व अन्य पड़ोसी देशों के बैंकों से मदद ली जा रही है. देश में जो नोट बरामद हो रहे हैं और जो नोट पड़ोसी मुल्क के बैंकों के जरिए बदले जा रहे हैं उनके ‘वजन’ में काफी फर्क है. नोटों की बरामदगी दिखावा है और अदला-बदली असलियत. यह खबर सार्वजनिक हो चुकी है कि नेपाल के जुआखानों (कैसीनो) और डांस बार के अड्डों पर भी भारत के प्रतिबंधित नोट्स खुलेआम चल रहे हैं. नेपाल में दो हजार से अधिक कैसीनो और डांस बार हैं. नेपाल के कैसीनो में पांच सौ के पुराने प्रतिबंधित नोट के बदले तीन सौ से चार सौ नेपाली रुपया मिलता है जबकि पांच सौ के नए नोट के बदले आठ सौ नेपाली रुपया मिलता है. नेपाल के जुआघरों और डांस-बार में पांच सौ और हजार रुपए के प्रतिबंधित नोट अधिक तादाद में ले जाने पर ही बदले जा रहे हैं. कैसीनो से इसके बदले में ग्राहकों को टोकन मिलते हैं. जानकार कहते हैं कि जुआघरों और डांस-बार से अधिक मुफीद रास्ता बैंकों का है. नेपाल के ‘सम्पर्क’ वहां के बैंक अधिकारियों से मिलवाते हैं और ऊंचे कमीशन पर भारतीय मुद्रा जमा कर ली जाती है. नेपाल के कैसीनो व्यापारियों के बैंकों से लिंक हैं, कैसीनो व्यापारी भी प्रतिबंधित भारतीय करंसी बैंकों में जमा करा रहे हैं. भारत में प्रतिबंधित नोटों को नेपाल में किस तरह खपाया जा रहा है उसे इस आधिकारिक सूचना से भी समझा जा सकता है कि नगालैंड के गृह मंत्री नौ लाख रुपए के प्रतिबंधित नोट लेकर एक शादी समारोह में शरीक होने काठमांडू गए थे. आप यह भी ध्यान में रखते चलें कि नेपाल के जुआखानों और डांस-बार्स पर भारतीय मूल के व्यापारियों का ही वर्चस्व है. काठमांडू में कई बड़े कैसीनो हैं, जिनमें होटल सॉलटे, होटल याक एंड येति, होटल हयात रीजेंसी और होटल संगरीला भी शामिल है. इसके अलावा काठमांडू में कुछ मिनी कैसीनो और नेपाल-भारत सीमा पर भी कई मिनी कैसीनो हैं. कैसीनो के लगभग दो तिहाई ग्राहक भारतीय ही हैं. इसी तरह मिनी कैसीनो में 95 फीसदी ग्राहक भारतीय ही आते हैं. ऐसे में प्रतिबंधित भारतीय करंसी का विनिमय कितनी आसानी से होता होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है.
प्रतिबंधित नोटों को बदलने का ‘मौका’ देने के लिए ही नेपाल सरकार और भारत सरकार के बीच मुद्रा विनियम को लेकर होने वाली सहमति लगातार टाली जा रही है. आधिकारिक तौर पर दोनों सरकारों को यह नहीं पता है कि कितनी करंसी जमा है और किन शर्तों पर उसे वापस लिया जाना है. जब सहमति औपचारिक शक्ल लेगी तब नेपाल के बैंक जितनी करंसी लौटाएंगे, उतनी भारत सरकार को वापस लेनी होगी. तब तक काले धन के धंधेबाज बहती गंगा में हाथ धो चुके होंगे. नेपाल के सेंटर फॉर इकोनॉमिक एंड टेक्निकल स्टडीज़ के एक्जेक्यूटिव डायरेक्टर डॉ. हरिवंश झा का कहना है कि भारत सरकार के आग्रह पर नेपाल में पहले भी पांच सौ और हजार के नोट पर प्रतिबंध लगा था. जाली नोटों का चलन रोकने के लिए भारत सरकार ने नेपाल सरकार से ऐसा करने का आग्रह किया था. भारत में नोटबंदी लागू होते ही नेपाल में उन भारतीय नोटों की आमद बेतहाशा बढ़ गई जो भारत में प्रतिबंधित किए गए थे. पांच सौ के बदले चार सौ नेपाली रुपए पर भारतीय करंसी सफेद की गई. जबकि नेपाल में भारत के सौ रुपए की कीमत 160 रुपए से अधिक है, लेकिन नोटबंदी में नेपाल में भी इससे खूब कमाई की गई. झा कहते हैं कि नेपाल में जितना प्रतिबंधित नोट जमा बताया जा रहा है वास्तविक स्थिति उससे कहीं अधिक है. नेपाल के बैंकों में भारतीय मुद्रा के 40 करोड़ रुपए पहले से डंप पड़े हुए हैं, जब वहां इन नोटों को पहले दौर में प्रतिबंधित किया गया था. नेपाल ने इसे भारत सरकार को सुपुर्द करने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन उस पर भी कोई सुनवाई नहीं हुई. आरबीआई के सूत्र बताते हैं कि नेपाल के बैंकों में डंप पड़े पांच सौ और हजार रुपए के प्रतिबंधित भारतीय नोटों की अदलाबदली का फार्मूला निकालने के लिए 22 फरवरी को एक उच्चस्तरीय टीम नेपाल भेजी जाने वाली थी, लेकिन वह टीम नहीं गई. नेपाल राष्ट्र बैंक भारतीय टीम की प्रतीक्षा ही करता रह गया. इससे यह सूचना पुख्ता हुई कि बचे हुए प्रतिबंधित नोटों की खेप को नेपाल में खपाने के बाद ही अब कोई आधिकारिक पहल होगी.

प्रतिबंधित नोटों की वापसी पर आरबीआई का दावा झूठा
पड़ोसी देशों के बैंकों में जिस तरह भारत की प्रतिबंधित करंसी के डंप होने की सूचनाएं मिल रही हैं, उससे यह आशंका बढ़ी है कि नोटबंदी के बाद भारतीय रिजर्व बैंक ने जितने नोट जमा होने का दावा किया था, वह झूठा तो नहीं था! भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने यह दावा किया था कि अवैध घोषित किए गए नोटों में 15.28 लाख करोड़ की कीमत के नोट्स वापस जमा हो चुके हैं. आरबीआई के मुताबिक जमा हुए नोट्स पांच सौ और हजार के कुल छपे नोट्स का 99 प्रतिशत हैं. फिर वे नोट्स किस प्रतिशत में शामिल होंगे जो नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, बर्मा समेत पड़ोसी देशों के बैंकों में जमा हैं, या भारत में विभिन्न छापेमारियों में बरामद हो रहे हैं? आरबीआई ने बताया था कि कुल 15 लाख 44 हजार करोड़ के पुराने नोट प्रतिबंधित किए गए थे. इनमें से 15 लाख 28 हजार करोड़ की रकम बैंकों में लौट गई. नोटबंदी के बाद पुराने 1,000 रुपए के कुल 632.6 करोड़ नोटों में से 8.9 करोड़ नोट अब तक नहीं लौटे. यानि, हजार के डिनॉमिनेशन के 8,900 करोड़ रुपए बैंक के पास वापस नहीं पहुंचे. आरबीआई के मुताबिक नोटबंदी के बाद 1,000 रुपए के 1.4 प्रतिशत नोट छोड़कर इस डिनॉमिनेशन के बाकी सभी नोट बैंकों में वापस आ गए. आरबीआई ने यह भी दावा किया था कि वर्ष 2016-17 में 7.62 लाख नकली नोटों का पता चला. इसके पहले वर्ष 2015-16 में 6.32 लाख नकली नोट पकड़े गए थे. आरबीआई के इन दावों के बरक्स आपको यह बता दें कि नोटबंदी के बाद संसद की आकलन समिति ने आरबीआई को नए सिरे से रिपोर्ट को अद्यतन कर उसे दोबारा प्रस्तुत करने की सलाह दी थी. संसदीय समिति ने यह शिकायत की थी कि आरबीआई ने पांच सौ और हजार के नोटों का ब्यौरा नहीं दिया था और नोटबंदी के बाद के हालात पर अद्यतन जानकारियां नहीं दी थीं. आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल संसदीय समिति के सामने दो बार उपस्थित हुए थे, लेकिन दोनों बार यह नहीं बता पाए कि नोटबंदी के बाद कितने प्रतिबंधित नोट बैंकों के पास वापस आए.

रिजर्व बैंक को लिंचेस्टाइन बैंक या पनामा स्कैम नहीं पता!
नेपाल और अन्य पड़ोसी देशों के बैंकों में जमा प्रतिबंधित भारतीय नोटों के बारे में रिजर्व बैंक को कुछ नहीं पता. रिजर्व बैंक को यह भी नहीं पता कि काला धन सफेद करने वाला बैंक एचएसबीसी क्या बला है और लिंचेस्टाइन, पनामा गेट, पैराडाइज स्कैम जैसे महाघोटाले क्या हैं. जब आरबीआई इतनी ‘इन्नोसेंट’ है तो भारत सरकार की मासूमियत तो और भी रिकार्डतोड़ होगी. फिर भारत सरकार को क्या पता होगा कि अनाज और दूसरे सामानों से लदे ट्रकों में छुपा कर प्रतिबंधित नोट्स नेपाल भेजे जा रहे हैं.
हम आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश और बिहार को नेपाल से जोड़ने वाले विशाल सीमा-क्षेत्र से यह गोरखधंधा खूब चल रहा है. पश्चिम बंगाल से लगने वाली नेपाल सीमा के जरिए भी यह धंधा चल रहा है, लेकिन अपेक्षाकृत कम. पश्चिम बंगाल से प्रतिबंधित भारतीय मुद्रा बांग्लादेश जा रही है और वहां से जाली नोट्स भारत आ रहे हैं. पश्चिम बंगाल इस आवागमन का केंद्र बना हुआ है. उधर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम और नगालैंड से कम मात्रा में भारतीय करंसी बर्मा जा रही है. लेकिन प्रतिबंधित भारतीय मुद्रा के जाने की गति असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा से बांग्लादेश की तरफ तेज बनी हुई है. खुफिया एजेंसी के सूत्रों का कहना है कि म्यांमार के तामू और रिह बॉर्डर को मणिपुर से जोड़ने वाले मोर और मिजोरम को जोड़ने वाले जॉखथर बॉर्डर पर प्रतिबंधित भारतीय नोट्स पकड़े भी जा चुके हैं.
नेपाल, बर्मा या बांग्लादेश सीमा पर पकड़े जाने वाले प्रतिबंधित भारतीय नोट्स की तादाद कम है जबकि निकल जाने वाले नोटों की तादाद कहीं अधिक. नेपाल में जाली नोटों की बढ़त के कारण वर्ष 2011 में जब भारत सरकार ने वहां पांच सौ और हजार के नोट बैन किए थे, तभी तीन करोड़ रुपए से अधिक के भारतीय नोट जब्त किए गए थे, जबकि खातों में बाकायदा जमा किए गए प्रतिबंधित नोटों की तादाद करीब 50 करोड़ थी. यानि, पकड़ा जाना केवल दिखावा साबित हो रहा है. अभी पिछले ही दिनों नेपाल में पांच करोड़ के भारतीय नोट के साथ 15 लोग पकड़े गए थे. पकड़े गए लोगों के कहने पर काठमांडू के कालीमाटी से 29 लाख 59 हजार के भारतीय नोट के साथ कृष्णा श्रेष्ठ और काठमांडू के बूढ़ा नीलकंठ इलाके से हरियाणा निवासी किरण वर्मा उर्फ सोनी को साढ़े 50 लाख के प्रतिबंधित भारतीय नोट्स के साथ पकड़ा गया था. लेकिन छापामारी और बरामदगी करने वाले अधिकारी ही बताते हैं कि नेपाल के विभिन्न सरकारी बैंकों के माध्यम से खपाने के लिए करोड़ों के प्रतिबंधित भारतीय नोट्स स्टॉक किए गए हैं, इसमें दो-चार करोड़ रुपए की बरामदगी कुछ भी नहीं.
अब आते हैं सबसे दिलचस्प लेकिन दुखद तथ्य की तरफ. भारतीय रिजर्व बैंक ने यह आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया है कि उसे काला धन सफेद करने का धंधा करने वाले हॉन्गकॉन्ग एंड शंघाई बैंकिंग कॉरपोरेशन (एचएसबीसी), लिंचेस्टाईन बैंक, पनामा-गेट, पैराडाइज जैसे महाघोटालों के बारे में कुछ भी नहीं पता. गैर-जिम्मेदार भारतीय रिजर्व बैंक के कारण ही देश का धन विजय माल्या या नीरव मोदी जैसे घोटालेबाज व्यापारियों और भ्रष्ट बैंक अधिकारियों के जरिए विदेश जा रहा है. सूचना के अधिकार के तहत संजय शर्मा द्वारा पूछे गए सवाल पर आरबीआई ने कहा है कि एचएसबीसी और लिंचेस्टाइन बैंक के काले धन को सफेद करने के कारोबार की जांच के लिए क्या कार्रवाई की गई और कार्रवाई का क्या नतीजा सामने आया इसकी उसे कोई जानकारी नहीं है. आरबीआई को यह भी नहीं पता है कि पनामा पेपर्स और पैराडाइज पेपर्स प्रकरण में कौन लोग और कौन प्रतिष्ठान लिप्त थे. देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले घोटालों और काले धन से जुड़े बड़े मामलों के बारे में आरबीआई का यह रुख वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है.