Thursday 22 March 2018

यूपी उपचुनाव... तालमेल नहीं, घालमेल के कारण हारी भाजपा

प्रभात रंजन दीन
जीत के मद में चूर भाजपा के अलमबरदार जब संगठन के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का अपमान करने लगे और वरिष्ठ नेताओं की पसंद नापंसद की भी कुटिल अनदेखी करने लगे, तब वही होता है, जो उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में हुआ. सत्ता और जीत से मदांध हो चुके भाजपा नेता जब अपनी बोली की मर्यादा खोने लगे, तब वही होता है, जो उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में हुआ. हार से हतप्रभ भाजपा नेता अब समीक्षा करने की बात कह कर अपनी झेंप मिटा रहे हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने स्वभाव के अनुसार बिना लाग-लपेट के कह ही दिया कि उपचुनाव में भाजपा की हार अतिरिक्त आत्मविश्वास (ओवर कॉन्फिडेंस) के कारण हुई है. यह ओवर कॉन्फिडेंस किसका था? भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का या प्रदेश संगठन के ‘कर्ताधर्ता’सुनील बंसल का? मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का या उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य का?
इसे समझने के लिए आपको अलग से राजनीति शास्त्र के किसी विद्वान के पास जाने की जरूरत नहीं. आप किसी भी आम नागरिक से पूछें, आपको इन सवालों का जवाब तुरंत मिल जाएगा. भाजपा को लगातार मिली कई राज्यों की जीत से राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिली जीत से संगठन मंत्री सुनील बंसल मदमस्त हो गए. इन नेताओं को यह प्रतीत होने लगा कि केंद्र या राज्य की सत्ता तो वे ही चला रहे हैं. इसी मनोवृत्ति का नतीजा था कि गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा के लिए होने वाले उपचुनाव में प्रत्याशी कौन होगा, इस बारे में मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री की पसंद का कोई सम्मान नहीं रखा गया. जबकि गोरखपुर संसदीय सीट योगी आदित्यनाथ की थी और फूलपुर संसदीय सीट केशव प्रसाद मौर्य की. दोनों के प्रदेश में आने के बाद दोनों संसदीय सीटें खाली हुई थीं. ऐसे में लोकतांत्रिक नैतिकता क्या थी? दोनों संसदीय सीटों से उन्हीं लोगों को प्रत्याशी बनाया जाता, जो निवर्तमान सांसदों द्वारा अनुशंसित होता. लेकिन अमित शाह और सुनील बंसल ने ऐसा नहीं होने दिया. इस मदांधता का क्या नतीजा निकला, वह सामने है. भाजपा आलाकमान क्या इस बात की ईमानदार समीक्षा करेगा? और इस समीक्षा का दंड क्या होगा? आप यह समझ कर चलिए कि इन दोनों सवालों का कोई जवाब नहीं मिलना है. अतिरिक्त आत्मविश्वास का हवाला देने वाले योगी आदित्यनाथ ने समीक्षा की बात कहते हुए उसमें अपनी उस बोली पर कोई आत्मविश्लेषण नहीं किया, जब उन्होंने सपा-बसपा तालमेल को सांप-छछूंदर का मेल बता दिया था. योगी ने अपने कैबिनेट मंत्री नंद गोपाल नंदी के उस बयान पर भी कोई अनुशासनिक तेवर नहीं अख्तियार नहीं किया जब नंदी ने सार्वजनिक मंच से मायावती को सूर्पणखा कहा था. इस तरह के अलोकतांत्रिक बयान लोकतंत्र में क्या असर दिखाते हैं, चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपाइयों को यह समझ में आना चाहिए.
अब यह साफ है कि सारे सैद्धांतिक और जरूरी मसले ताक पर रख कर भाजपा ने उसी तरह का आचरण अख्तियार कर लिया है, जो अन्य पार्टियां करती रही हैं. सत्ता के अतिरिक्त लोभ में भाजपा नेताओं ने अपने दल को आईपीएल की ‘झालमूड़ी’ टीम बना दिया. इधर से, उधर से, ला लाकर लोग भर दिए. फिर कार्यकर्ताओं ने अपना समय और अपनी पूरी उम्र पार्टी के लिए क्यों कुर्बान की? जो भाजपा कार्यकर्ता जीवन भर बसपा या सपा के खिलाफ राजनीति करते रहे, सपाइयों-बसपाइयों के हाथों उत्पीड़ित होते रहे, मरते रहे, गिरफ्तार होते रहे, उन्हीं कार्यकर्ताओं को आज बसपा या सपा नेताओं के आगे नतमस्तक होना पड़ रहा है. खुद के सम्मान के लिए ललकने और लपकने वाले अमित शाहों और सुनील बंसलों ने पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को इस तरह अपमानित क्यों किया? भाजपा के शीर्ष नेताओं के इन आचरणों की समीक्षा कौन करेगा और निष्पक्ष समीक्षा की गारंटी कौन लेगा? राज्यसभा के लिए जब प्रत्याशी तय किए जा रहे थे, उस प्रक्रिया में भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं-नेताओं को प्राथमिकता देने के बजाय सपा से आए डॉ. अशोक बाजपेयी या इन जैसे अन्य टपकू लोगों को प्रत्याशी क्यों बनाया गया? फिर प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को समुचित सम्मान कब मिलेगा, जब पार्टी फिर अपनी करतूतों से धूल में मिल जाएगी, तब? भाजपा के कार्यकर्ता हरदोई का उदाहरण देते हुए खुलेआम कहते मिले, ‘जिस नरेश अग्रवाल ने सपा की सत्ता का हमारे उत्पीड़न में इस्तेमाल किया, हमें पिटवाया, हमें गिरफ्तार कराया, हमें सारी सरकारी सुविधाओं से वंचित कराया, उसी नरेश अग्रवाल को भाजपा में क्यों शामिल किया गया? क्या ऐसे अपमान के बाद अमित शाह और सुनील बंसल जैसे नेताओं को हम सम्मान में लड्डू खिलाएं?’ कार्यकर्ताओं के ये सवाल अब सवाल नहीं बल्कि भविष्य की घोषणाएं हैं, जिनसे भाजपा को आमने-सामने होना है.
‘चौथी दुनिया’ ने अपने पिछले अंक में भी लिखा कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपने घर में भी तिकड़म करने से बाज नहीं आ रहे. अमित शाह ने गुजरात से लेकर पूर्वोत्तर तक चुनाव जीतने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भरपूर इस्तेमाल किया, लेकिन गोरखपुर लोकसभा के लिए होने वाले उपचुनाव में योगी की पसंद का उम्मीदवार नहीं दिया. अयोध्या के एक संन्यासी ने भाजपा के शीर्ष नेता के इस चरित्र पर उस बिच्छू की कथा सुनाई थी, जो उसकी प्राण रक्षा करने वाले साधु की हथेली पर बैठा था और उन्हें ही लहू-लुहान भी कर रहा था. गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ की पसंद का प्रत्याशी नहीं देने का फैसला करने वाले नेता की साधु के हाथ में बैठे बिच्छू से तुलना बिल्कुल सटीक है. गोरखपुर संसदीय सीट के लिए उपेंद्र शुक्ला को टिकट दिए जाने का फैसला योगी को डंक मारने जैसा ही था. अमित शाह ने अपने ही मुख्यमंत्री के सामने ऐसी शातिराना बिसात बिछाई थी कि योगी जीते तब भी गए और हारे तब भी गए. गोरखपुर लोकसभा सीट योगी आदित्यनाथ की पारंपरिक सीट रही है. वहां से योगी की पकड़ को कमजोर करने में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रदेश संगठन मंत्री सुनील बंसल दोनों ने भूमिका निभाई और उपेंद्र शुक्ला को उम्मीदवार बना कर थोप दिया. अमित शाह ने इस उम्मीदवार के जरिए गोरखपुर संसदीय सीट पर कायम गोरखधाम के प्रभाव को कम करने और योगी को कमजोर करने की कोशिश की. सियासत की सारी रेस जीत लेने का दंभ भरने वाले भाजपा नेता ने ऐसा करके अपने ही टायर में सुई चुभो ली, इसका एहसास उन्हें चुनाव परिणाम आने के बाद हो रहा होगा.
अब जरा गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों पर भी एक नजर डाल लेते हैं. गोरखपुर लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा के प्रत्याशी उपेंद्र शुक्ल सपा प्रत्याशी प्रवीण निषाद से 21,961 वोटों से चुनाव हार गए. इसी तरह फूलपुर से सपा प्रत्याशी नागेंद्र पटेल ने भाजपा के कौशलेंद्र पटेल को 59213 वोटों से हरा दिया. गोरखपुर में सपा प्रत्याशी को 4,56,437 वोट और भाजपा प्रत्याशी को 4,34,476 वोट मिले. फूलपुर में सपा उम्मीदवार नागेंद्र सिंह पटेल को 3,42,796 वोट और भाजपा को 2,83,183 वोट मिले. गोरखपुर से जीते सपा प्रत्याशी प्रवीण निषाद इंजीनियर हैं. प्रवीण राष्ट्रीय निषाद पार्टी के संस्थापक डॉ. संजय निषाद के पुत्र हैं. राष्ट्रीय निषाद पार्टी वर्ष 2013 में बनी. वर्ष 2015 में यह पार्टी तब सुर्खियों में आई जब निषादों के आरक्षण की मांग पर गोरखपुर के पास ट्रेनें रोकी गई थीं और पुलिस फायरिंग में एक व्यक्ति की मौत हो गई थी. उसके बाद इस आंदोलन ने व्यापक हिंसा का शक्ल ले लिया था. जिस संजय निषाद पर तत्कालीन सपा सरकार ने ढेरों मुकदमे लाद दिए थे. उसी निषाद नेता के पुत्र को समाजवादी पार्टी ने अपना मुहरा बना कर सियासत के मैदान पर ला खड़ा किया और मैदान मार लिया. संजय निषाद ने भी गोरखपुर ग्रामीण विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा था, लेकिन हार गए थे.
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने जिस तरह गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव के लिए प्रत्याशी चुना उस पर अब भाजपा कार्यकर्ता सार्वजनिक रूप से उंगलियां उठा रहे हैं. कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस बार प्रत्याशी के चयन में न तो योग्यता और पृष्ठभूमि देखी गई और न जातीय समीकरण. जीत के दंभ में मोदी और शाह का उपचुनाव के प्रचार में न आना भी आम मतदाताओं पर नागवार गुजरा. संघ की उस अंदरूनी रिपोर्ट से शाह और मोदी पूरी तरह वाकिफ थे, जिसमें यह बताया गया था कि गोरखपुर संसदीय सीट सेयोगी की पसंद का व्यक्ति और गोरक्ष पीठ से जुड़ा व्यक्ति ही जीत सकता है. लेकिन पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने संघ की जमीनी रिपोर्ट पर कोई ध्यान नहीं दिया. गोरखपुर संसदीय सीट छोड़ कर आसपास की अन्य सभी लोकसभा सीटों पर ब्राह्मण सांसद हैं, लिहाजा, गोरखपुर से ब्राह्मण प्रत्याशी का चयन शाह की अदूरदर्शिता और तिकड़मबाजी का प्रमाण साबित हुआ. शाह के इस छेद ने सपा-बसपा को पिछड़े, दलित और मुस्लिमों को गोलबंद करने का मौका दे दिया. शाह की चाल से नाराज भाजपा समर्थक मतदान करने निकले ही नहीं. शाह ने यही काम फूलपुर में भी किया. वहां से सांसद रहे केशव मौर्य अपनी पत्नी राजकुमारी देवी को टिकट दिलाना चाह रहे थे. लेकिन शाह इसके लिए तैयार नहीं हुए. शाह ने बाहरी उम्मीदवार कौशलेंद्र सिंह पटेल को टिकट देकर केशव मौर्य समेत मौर्य समुदाय के लोगों को नाराज कर दिया. इसके अलावा भाजपा के तीन नेताओं नंद गोपाल नंदी, सिद्धार्थनाथ सिंह और  केशव मौर्य की आपसी कड़वाहट भी चुनाव पर असर डाल रही थी, इसकी भी चर्चा आम है.

सपा-बसपा तालमेल जीत की अकेली वजह नहीं
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि सपा-बसपा के तालमेल के कारण भाजपा दोनों जगह हार गई, यह कहना उचित नहीं है. इसके लिए वे पिछले चुनावों के कुछ आंकड़े पेश करते हैं और कहते हैं कि पिछले चुनावों में इन दोनों पार्टियों को जितने भी वोट मिले उन्हें अगर जोड़ लिया जाए, तब भी वह संख्या इतनी नहीं होती कि भाजपा उम्मीदवार को हरा पाए. 2009 के लोकसभा चुनाव में मनोज तिवारी सपा के प्रत्याशी थे. तब उन्हें 11 प्रतिशत वोट मिले थे. तब वहां से बसपा के प्रत्याशी विनय शंकर तिवारी को 24.4 प्रतिशत वोट मिले थे. दोनों प्रत्याशी मिल कर भी योगी आदित्यनाथ को हरा नहीं पाते क्योंकि योगी को 54 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे. अब 2014 का लोकसभा चुनाव देखते हैं. इस चुनाव में हालांकि योगी को कुछ कम वोट (प्रतिशत में) मिले, लेकिन सपा प्रत्याशी को मिले 22 प्रतिशत वोट और बसपा प्रत्याशी को मिले 17 प्रतिशत वोट मिला कर भी यह संख्या योगी को हराने के लिए नाकाफी थी.

जिन-जिन से की वादाखिलाफी, गिन-गिन कर वे लेंगे हिसाब
मुख्यमंत्री ने जिस तालमेल को सांप-छछूंदर का मेल बताया और एक मंत्री ने जिस महिला नेता को सूर्पणखा बता कर भाजपा के वृक्ष पर कुल्हाड़ी मारी, उससे अब एक ही फार्मूले से निपटा जा सकता है, वह है भाजपा में किसी दलित नेता का समानांतर उभार. मायावती जिस दलित जाति की हैं उससे इतर ताकतवर दलित जाति के नेता को उभार कर सांप-छछूंदर और सूर्पणखा जैसे शब्द-संबोधनों से पनपे विद्वेष को कम किया जा सकता है. जाटव जाति के बाद उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक ताकतवर और जागरूक दलित जाति पासी है. लेकिन इस जाति का कोई नेता न केंद्र में कैबिनेट में है और न प्रदेश की कैबिनेट में है. राजनीतिक समीक्षक भाजपा के प्रति लोगों में तेजी से हो रहे मोहभंग का एक और विश्लेषण करते हैं. उनका कहना है कि भाजपा के आश्वासन पर उत्तर प्रदेश के शिक्षा मित्रों, आशा बहुओं, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, सहायिकाओं, शिक्षा प्रेरकों, अनुदेशकों, चौकीदारों, सरकारी स्कूलों की रसोइयों, विशेष शिक्षकों, पैरावेटनरी कर्मचारियों, होमगार्ड्स, पीआरडी के जवानों, रोजगार सेवकों, बिजली और स्वास्थ्य सहित विभिन्न विभागों में कार्यरत लाखों संविदाकर्मियों ने भाजपा को अपना समर्थन दिया था. लेकिन सरकार बनने के बाद भाजपा ने इन कर्मचारियों के नियमितिकरण का अपना ही आश्वासन भुला दिया और उन्हीं कर्मचारियों पर लाठियां बरसाईं. भाजपा की सरकार बनने के बाद पार्टी के किसी कार्यकर्ता और जन-प्रतिनिधि की बात थाना, ब्लॉक, तहसील, जिला प्रशासन और शीर्ष नौकरशाही में नहीं सुनी गई. रिश्वतखोरी और दलाली भीषण बढ़ गई. जो दलाल सपा और बसपा की सरकार में दलाली करके काम कराते थे वही दलाल भाजपा की सरकार में भी शासन-प्रशासन पर हावी हो गए. नतीजा यह हुआ कि प्रदेश में सरकार के एक साल पूरा होने के पहले ही आम लोग और भाजपा कार्यकर्ता सब शासन-प्रशासन से बुरी तरह रुष्ट हो गए. फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में मतदान का कम प्रतिशत यह बताता है कि भाजपा का वोटर ही मतदान करने बाहर नहीं निकला.

No comments:

Post a Comment