Friday 24 August 2018

जंग की मुनादीः अब संसद घेरेंगे किसान

प्रभात रंजन दीन
‘किसानों की आय दोगुनी कर देंगे’... ऐसा बोल-बोल कर केंद्र सरकार और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी अपने ही जाल में फंस गई है. अब तक स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की मांग करने वाले किसानों ने किसानों की न्यूनतम आय घोषित करने की मांग शुरू कर दी है. किसानों का कहना है कि जब किसानों की आय ही घोषित नहीं है, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी देखा-देखी अन्य नेता यह कैसे कहते फिरते हैं कि वे किसानों की आय दोगुनी कर देंगे? देशभर के किसान नवम्बर महीने में जब संसद घेरेंगे तब प्रधानमंत्री से पूछेंगे कि किसानों की आय कितनी है? इसके बाद ही उसका दोगुना या तिगुना होना तय हो सकता है. न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर ठगे गए किसान 2019 चुनाव के पहले केंद्र सरकार से दो-दो हाथ कर लेना चाहते हैं. न्यूनतम आय के निर्धारण की मांग के साथ-साथ किसानों के लिए संसदीय और विधानसभा सीटें आरक्षित किए जाने की मांग भी शामिल है. किसान मानते हैं कि उनके वोट से जीत कर संसद पहुंचने वाले सांसद या विधानसभाओं में पहुंचने वाले विधायक सदन में किसान-हित की आवाज नहीं उठाते. लिहाजा, किसानों का अपना प्रतिनिधि चुनकर संसद और विधानसभाओं में जाना चाहिए. अनुसूचित जाति, जनजाति और शिक्षक समुदाय की तरह किसानों की सीटें भी आरक्षित होनी चाहिए.
दरअसल, केंद्र सरकार की बेजा बयानबाजियों और प्रदेश सरकार के बेजा निर्णयों के कारण खास तौर पर उत्तर प्रदेश के किसान बौखला उठे हैं. सिंचाई के लिए इस्तेमाल आने वाले मोटर पंपों पर पड़ोसी राज्य हरियाणा में बिजली का शुल्क अत्यंत कम है और पंजाब में मुफ्त है, बिहार में सब्सिडी है तो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी भारी रियायत है, ऐसे में यूपी सरकार बिजली का दर बढ़ाती चली जा रही है. एक हॉर्स पावर की मोटर पर बिजली शुल्क दो सौ रुपए है. सिंचाई के लिए किसानों को कम से कम पांच हॉर्स पावर की मोटर लगानी पड़ती है, लिहाजा किसानों का बिजली बिल भारी बोझ की तरह उनके सिर पर आ पड़ा है. किसानों के प्रति संजीदगी का प्रदर्शन करने वाली भाजपा सरकार में बिजली दर और बढ़ा दी गई है. किसानों का बकाया बिजली बिल वसूलने के लिए अलग से थाने निर्धारित कर दिए गए हैं, जो किसानों से पैसे वसूलते हैं और भुगतान में देरी होने पर एफआईआर दर्ज कर किसानों को गिरफ्तार कर लेते हैं. दूसरी तरफ चीनी मिलों पर गन्ना किसानों के जो करोड़ों रुपए बकाया हैं, उसके भुगतान को लेकर सरकार सरासर झूठ बोलती है और चीनी मिलों के मालिक किसानों के गन्ने पर अपनी समृद्धि की फसल काट रहे हैं. हर बार पेराई सत्र में सरकार झूठ परोसती है कि गन्ना बकाये का भुगतान हो रहा है. आंशिक भुगतान को बढ़ा-चढ़ा कर बताया जाता है और सियासी फायदा उठाने की कोशिश की जाती है. स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश में केवल सरकारी चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का चार हजार 176 करोड़ रुपए बकाया हैं. प्राइवेट चीनी मिलों पर किसानों का बकाया 11 हजार पांच सौ करोड़ रुपए से अधिक है. विडंबना यह है कि गन्ना किसानों के बकाये का भुगतान करने के लिए केंद्र सरकार ने चीनी मिलों के लिए जो 85 सौ करोड़ रुपए मंजूर किए, उसमें तीन हजार करोड़ रुपए अवमुक्त (रिलीज) भी हो गए, लेकिन किसानों के बकाये का भुगतान नहीं किया गया. यह रेखांकित करने वाला तथ्य है कि चीनी मिलों को केंद्र सरकार से मिलने वाला राहत पैकेज ब्याज मुक्त होता है.
लेकिन किसानों का कर्ज या बिजली बिल का बकाया ब्याज सहित वसूला जाता है. किसानों से वसूली बर्बर तरीके से की जा रही है. किसानों के कर्ज का बकाया तहसील में सार्वजनिक नोटिस बोर्ड पर चस्पा कर दिया जाता है. जबकि उद्योगपतियों और पूंजीपतियों के बकाये का ब्यौरा गोपनीय रखा जाता है. किसान पूछते हैं कि यह किस तरह का न्यायिक संतुलन है? पूंजीपति और उद्योगपति भी बैंक से कर्ज लेते हैं और किसान भी बैंक से ही कर्ज लेते हैं. पूंजीपतियों का कर्ज विशाल होता है जबकि किसानों का कर्ज अत्यंत लघु होता है. फिर ऐसा भेदभाव क्यों? कर्ज बकाया होने पर किसानों को तहसील के लॉकअप में बंद कर प्रताड़ित और अपमानित किया जाता है. जबकि बड़े बकायेदार पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के साथ ऐसा नहीं होता, बल्कि उन्हें विदेश भाग जाने का मौका दिया जाता है. किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष शिवाजी राय कहते हैं कि देश के सामने अब यह स्पष्ट होना चाहिए कि बड़ा कर्जखोर कौन है? किसान या उद्योगपति? किसानों को भी यह प्रतीत होना चाहिए कि सरकार उनकी भी है, सरकार केवल पूंजीपतियों और उद्योगपतियों का हित देखने के लिए नहीं है. देश के तकरीबन सारे उद्योगपतियों का मुनाफा लगातार बढ़ता जा रहा है, जबकि किसान लगातार बदहाल होता चला जा रहा है, ऐसा क्यों?
केंद्र सरकार, प्रदेश सरकार और सत्ताधारी पार्टी लगातार कहती रहती है कि किसानों की आय दोगुनी की जाएगी. शिवाजी राय पूछते हैं कि क्या सरकार बताएगी कि किसान की आधिकारिक न्यूनतम आय क्या है? फिर आय दोगुनी करने की दोगली बात क्यों करती है? जब किसानों की आय ही सुनिश्चित नहीं है तो सरकार या पार्टी उसे दोगुनी कैसे कर देगी? सरकार पहले यह तो बताए कि किसानों की आय दरअसल है कितनी? किसान अर्से से 22500 रुपए प्रति परिवार आय सुनिश्चित करने की मांग कर रहे हैं. लेकिन सरकार इस पर कोई ध्यान ही नहीं देती. केंद्र सरकार क्या केवल केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए है? प्रदेश सरकार क्या केवल राज्य कर्मचारियों के लिए है? सरकार क्या केवल सांसदों और विधायकों की सुख-सुविधा देखने के लिए है? क्या उन्हें महज इसलिए वोट दिया जाता है कि वे अपने लिए मौज का इंतजाम करते रहें और आम नागरिक मरता रहे? केंद्र सरकार का यह नैतिक दायित्व है कि किसान परिवारों के लिए न्यूनतम आय सुनिश्चित हो और प्रत्येक महीने उसका भुगतान किसान परिवार के खाते में चला जाए. किसानों की फसल पर पूंजीपति धनाढ्य होता चला जा रहा है. किसानों की फसल पर सरकार बीपीएल और अंत्योदय योजनाओं में मुफ्त राशन बांट कर वाह-वाही लूटती है और किसानों को उसका श्रेय (अर्थ के रूप में) देने के बजाय बोझ लादती जाती है.
सरकार जब कारपोरेट और उद्योगपति घरानों को अपने उत्पाद की कीमत तय करने के अधिकार में हस्तक्षेप नहीं करती तो किसानों को उनके उत्पाद की कीमत तय करने का अधिकार क्यों नहीं देती? किसानों पर अत्याचार क्यों? अगर सरकार किसानों को उनके उत्पाद की कीमत तय करने का अधिकार नहीं दे सकती तो उसका उत्पाद पूरा का पूरा खरीद ले. किसानों का सम्पूर्ण उत्पाद सरकार खरीदे और उसके विपणन की व्यवस्था करे तभी देश का किसान तनावमुक्त होकर देश को भोजन दे पाएगा. नेता, नौकरशाह, पूंजीपति, धन्ना सेठ और दलालों से लेकर आम नौकरीपेशा और सड़क पर जीवन घसीटता आम आदमी सब वही रोटी-दाल और सब्जी खाते हैं जिसे किसान उपजाता है. फिर किसानों को सम्मानजनक हैसीयत क्यों नहीं दी जाती? बीपीएल के नाम पर न्यूनतम सांकेतिक मूल्य पर बांटा जाने वाला अनाज हो या अंत्योदय के नाम पर मुफ्त में बांटा जाने वाला अनाज, परोक्ष रूप से उसकी कीमत किसानों से ही वसूली जा रही है. किसानों की सब्सिडी रोकी जा रही है और पूंजीपतियों के लिए सरकार का खजाना खुला हुआ है. प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सब उनकी खुशामद कर रहे हैं. देश को राजनीतिक लोग चला रहे हैं या पूंजीपति? देश के लोगों को यही प्रतीत हो रहा है.
इन्हीं मसलों पर देशभर के किसान गंभीरता से विचार कर रहे हैं. 14 जून को दिल्ली के गांधी प्रतिष्ठान में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति की बैठक हुई थी. इस बैठक में देशभर के दो सौ से अधिक किसान नेता शरीक हुए. बैठक में तय हुआ कि किसानों की सम्पूर्ण कर्ज माफी, सुब्रमण्यम समिति की सिफारिशों के सी-2 फार्मूले के मुताबिक किसानों की लागत का मूल्य निर्धारण करने और किसानों की न्यूनतम आय सुनिश्चित करने की मांग को लेकर 30 नवम्बर को देशभर के किसान संसद घेरेंगे. उसके पहले व्यापक तौर पर किसानों से बातचीत करने और तैयारी करने का सिलसिला शुरू कर दिया गया है.
उत्तर प्रदेश के बागपत के नगवां कुटी में पिछले दिनों किसानों की बैठक हुई. किसान पंचायत के रूप में हुई बैठक में 10 हजार से अधिक किसान त्वरित सूचना पर जुटे. स्थानीय लोग कहते हैं कि 20 साल के बाद उन्होंने एक साथ इतने किसानों का सम्मेलन देखा. जबकि इस सभा में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के महज तीन-चार जिले शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत और मेरठ के किसान पहुंचे थे. बैठक में शामिल किसान नेताओं में किसान अधिकार समन्वय मंच के संयोजक नरेंद्र राणा, भारतीय किसान संगठन के अध्यक्ष ठाकुर पूरन सिंह, किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष शिवाजी राय, किसान नेता गुलाम मोहम्मद जौला, महेश सिंह समेत कई किसान नेता शामिल थे.
इस बैठक के बाद किसानों का एक प्रतिनिधिमंडल लखनऊ आकर प्रदेश के ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा से मिला. किसानों ने सरकार द्वारा बढ़ाए गए बिजली दर को वापस लेने की मांग की लेकिन सरकार ने कोई भी सकारात्मक रुख नहीं दिखाया और वार्ता असफल रही. इसके बाद प्रदेश के किसानों ने सरकार से सीधे-सीधे भिड़ने का मन बना लिया है. 17 सितम्बर को बागपत के भड़ल गांव में किसानों की विशाल पंचायत बुलाई जा रही है, जिसमें यह रणनीति तय की जाएगी कि किसान बिजली बिल का बहिष्कार-आंदोलन शुरू कर जेल भरो आंदोलन के लिए तैयार रहें. किसान संगठनों की मांग है कि प्रदेश सरकार किसानों को बिजली और पानी मुफ्त में दे. ट्रैक्टर समेत अन्य कृषि उपकरणों पर लगने वाला टैक्स हटाए. खाद की कीमत कम करे और पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के बजाय किसानों को ही बीज पैदा करने की आर्थिक-सहूलियत प्रदान करे.
किसान यह भी मांग कर रहे हैं कि संसद और विधानसभाओं में वर्गीय प्रतिनिधित्व की व्यवस्था लागू हो. जिस तरह अनुसूचित जाति जनजाति के लिए संसदीय और विधानसभा क्षेत्र आरक्षित होते हैं, उसी तरह किसानों के लिए भी लोकसभा और विधानसभा सीटें आरक्षित होनी चाहिए. विधान परिषदों के लिए जिस तरह शिक्षकों के लिए सीटें आरक्षित हैं, उसी तरह किसानों के लिए भी होनी चाहिए, ताकि किसान अपनी बात संसद और विधानसभाओं में रख सकें. संवर्गीय प्रतिनिधित्व की व्यवस्था लागू होने पर केवल किसान क्या, पत्रकार, मजदूर और अन्य संवर्ग के लोग भी अपनी आवाज विधायी तौर पर उठा सकेंगे. अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर लोकतंत्र और मतदान का कोई औचित्य नहीं रह जाता.
किसान नेता शिवाजी राय कहते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों के साथ धोखा है. किसानों के पास कोई ऐसा मंच नहीं जहां से वे पूरे देश को इस धोखे के बारे में बता सकें. किसानों की पीड़ा यह भी है कि देश का मीडिया भी किसानों की बात सही तरीके से नहीं उठाता. स्वामीनाथन कमेटी न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की प्रक्रिया में पूर्ण लागत यानि सी-2 फार्मूले को आधार बनाने की सिफारिश करती है, लेकिन केंद्र सरकार आंशिक लागत के फार्मूले (2+एफएल) को आधार बनाकर मनमाने तरीके से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय कर देती है. स्वामीनाथन आयोग ने सी-2 फार्मूले के तहत कृषि उत्पादन में इस्तेमाल आने वाले उपकरणों का खर्च, ऋण पर लगने वाला ब्याज, जमीन का किराया, किसान परिवार की मजदूरी, खाद, बीज, सिंचाई, बिजली, वाहन किराया समेत सम्पूर्ण लागत जोड़कर एमएसपी तय करने की सिफारिश कर रखी है. लेकिन केंद्र सरकार ने इसे नहीं माना. केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य में 14 खाद्यानों को शामिल किया गया है, जिसमें धान, ज्वार, हाइब्रिड बाजरा, रागी, मक्का, अरहर, मूंग, ऊड़द, मूंगफली, सूरजमुखी के बीज, सोयाबीन, तिल, नाइजर सीड और कपास है. केंद्र ने धान की उपज के लिए आंशिक लागत 1166 रुपए प्रति क्विंटल तय कर 1750 रुपए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर दिया. जबकि सी-2 फार्मूले से धान की फसल पर लागत 1560 तय होती और उसमें 50 प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य 2340 रुपए होता. किसान नेता कहते हैं कि सरकार मात्र छह प्रतिशत किसानों का फसली उत्पाद खरीदती है. वह भी किसानों से न खरीदकर बड़े व्यापारियों और बिचौलियों के माध्यम से खरीदा जाता है. इसमें व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार होता है. इससे किसान समर्थन मूल्य से काफी कम दर पर क्षे़त्रीय व्यापारियों या बिचौलियों को अपना माल बेचने पर विवश हो जाता है. सरकार के क्रय केंद्र घपलेबाजी का केंद्र बने रहते हैं. सरकार द्वारा बनाए गए नियम और कटौती की आधा दर्जन शर्तें किसानों के उत्पीड़न का जरिया बनती हैं और किसान अपना उत्पाद मंडी में लाकर फंस जाता है. आखिरकार किसान बिचौलियों और दलालों की शर्तों पर माल बेच कर चला जाता है.

गन्ना बकाये पर सरकार परोस रही झूठ, किसानों के हाथ में ठूंठ
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रदेश के गन्ना मंत्री सुरेश राणा बार-बार सार्वजनिक मंचों से भी गन्ना बकाये के भुगतान को लेकर भ्रामक वक्तव्य जारी करने से नहीं हिचकते. जैसा ऊपर बताया कि चीनी मिलों पर प्रदेश के गन्ना किसानों का करीब 16 हजार (15, 676) करोड़ रुपए बकाया है. राष्ट्रीय लोक दल के नेता जयंत चौधरी कहते हैं कि इस वर्ष 18 मई तक निजी और सरकारी चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का 13367 करोड़ रुपए बकाया था. बकाये की यह राशि बढ़ कर 16 हजार करोड़ पर पहुंच गई.
अभी पिछले ही दिनों गन्ना बेल्ट सहारनपुर में चीनी मिलों द्वारा बकाये के भुगतान में की जा रही हीलाहवाली के खिलाफ किसानों की नाराजगी देख कर प्रशासन को हस्तक्षेप करना पड़ा. सहारनपुर के कमिश्नर सीपी त्रिपाठी ने बकाया भुगतान पर चीनी मिलों की हठधर्मिता देखते हुए 16 चीनी मिलों के खिलाफ नोटिस जारी कर भुगतान करने की हिदायत दी है. बकाये के भुगतान में शासन-प्रशासन की रुचि इससे ही जाहिर होती है कि सहारनपुर की 16 चीनी मिलों के खिलाफ पहली बार नोटिस जारी हुई है. अकेले सहारनपुर की चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का 1766 करोड़ बकाया है. इसमें 1670 करोड़ रुपए मूल और 96 करोड़ रुपए ब्याज के हैं. देवबंद, खतौली और टिकौला चीनी मिलों पर बकाया कुल बकाये का 80 प्रतिशत से ऊपर है. सहारनपुर मंडल की 17 में से नौ चीनी मिलों पर सौ करोड़ रुपए से अधिक बकाया है. बुढ़ाना चीनी मिल पर सबसे अधिक बकाया 217 करोड़ रुपए का है. बकायेदारों में सरकारी कोऑपरेटिव चीनी मिल नानौता और सरसावां मिल भी शामिल है. बकाये का जिलेवार ब्यौरा देखें तो आपको सत्ता अलमबरदारों के झूठ का पोर-पोर दिखाई पड़ेगा. सहारनपुर जिले की छह चीनी मिलों पर 534 करोड़ रुपए बकाया हैं. मुजफ्फरनगर की आठ चीनी मिलों पर 772 करोड़ रुपए बकाया हैं. शामली की तीन चीनी मिलों पर 461 करोड़ से ज्यादा का बकाया है. देवबंद चीनी मिल पर 95 करोड़ बकाया, गांगनौली चीनी मिल पर 158 करोड़ बकाया, शेरमऊ चीनी मिल पर 83 करोड़ बकाया, गागलहेड़ी चीनी मिल पर 27 करोड़ बकाया, नानौता कोऑपरेटिव चीनी मिल पर 114 करोड़ बकाया और सरसावां कोऑपरेटिव चीनी मिल पर 56 करोड़ रुपए बकाया हैं. इसी तरह खतौली चीनी मिल पर 144 करोड़ का बकाया, तितावी चीनी मिल पर 140 करोड़ का बकाया, बुढ़ाना चीनी मिल पर 217 करोड़ का बकाया, मंसूरपुर चीनी मिल पर 110 करोड़ का बकाया, टिकौला चीनी मिल पर 27 करोड़ का बकाया, खाईखेड़ी चीनी मिल पर 76 करोड़ का बकाया, रोहाना चीनी मिल पर 24 करोड़ का बकाया, मोरना कोऑपरेटिव चीनी मिल पर 34 करोड़ का बकाया, शामली चीनी मिल पर 187 करोड़ का बकाया, ऊन चीनी मिल पर 117 करोड़ का बकाया और खुद प्रदेश के गन्ना मंत्री सुरेश राणा के विधानसभा क्षेत्र स्थित थानाभवन चीनी मिल पर 157 करोड़ का बकाया लंबित है. किसान कहते हैं कि गन्ना मंत्री अपने विधानसभा क्षेत्र की चीनी मिल से बकाये का भुगतान नहीं करा पा रहे तो फिर वे बड़े-बड़े बोल क्यों ‘फेंकते’ रहते हैं!
चीनी मिलों पर गन्ना किसानों के बकाये के भुगतान का कमोबेश यही हाल पूरे उत्तर प्रदेश में है. मुरादाबाद में भी गन्ना भुगतान नहीं होने के कारण किसानों का गुस्सा अब उफान ले रहा है. जिले के गन्ना किसान भीषण आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं. इस सिलसिले में पिछले दिनों किसानों की बैठक में गन्ना भुगतान में अप्रत्याशित देरी का मुद्दा जोरदारी से उठा. ब्लॉक अध्यक्ष काले सिंह ने कहा कि एक तरफ गन्ना किसानों के बकाये का भुगतान नहीं हो रहा और दूसरी तरफ किसानों को खसरा खतौनी के नाम पर परेशान किया जा रहा है. इन किसानों ने तय किया है कि वे 23 सितम्बर को पैदल ही दिल्ली के लिए कूच करेंगे.
उधर संभल जिले में भी गन्ना बकाये का मामला भीषण गर्म हो रहा है. किसानों का उग्र तेवर देखते हुए वहां भी जिला प्रशासन को हस्तक्षेप करना पड़ा. संभल के जिलाधिकारी ने चीनी मिलों को बकाये का भुगतान करने को कहा है. चीनी मिलों पर गन्ना किसानों के बकाये का ब्यौरा देते हुए प्रशासन ने बताया कि मझावली वीनस चीनी मिल पर 96.16 करोड़ रुपए बकाया हैं. हालांकि प्रशासन ने यह भी कहा कि इसमें 57.26 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया है. बताया गया कि असमोली शुगर मिल पर 509.40 करोड़ के बकाये में से 396.19 करोड़ का भुगतान कर दिया गया है. अब उस पर 113.21 करोड़ रुपए बकाया हैं. इसी तरह रजपुरा शुगर मिल ने 432.58 करोड़ के बकाये में से 342.11 करोड़ भुगतान किया है, अब उस पर 90.47 करोड़ रुपए बकाया हैं.

एक तो भुगतान नहीं दूसरे शिकंजे में कसने की तैयारी
एक तरफ उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के बकाये का भुगतान नहीं हो रहा, दूसरी तरफ राज्य सरकार गन्ना किसानों से घोषणा-पत्र दाखिल करने का दबाव बना रही है. जो किसान सरकार की तरफ से निर्धारित प्रपत्र पर घोषणा-पत्र दाखिल नहीं करेंगे, उनका गन्ना चीनी मिलों द्वारा नहीं खरीदा जाएगा. गन्ना किसानों को अपने शिकंजे में कसने के लिए सरकार ने घोषणा-पत्र का फितूर निकाला है. सरकार ने ऐलान किया है कि जिन गन्ना किसानों ने निर्धारित प्रारूप में घोषणा पत्र भरकर प्रस्तुत नहीं किया है उन किसानों का सट्टा संचालित नहीं होगा और पेराई सत्र 2018-19 में उन्हें गन्ना आपूर्ति की इजाजत नहीं दी जाएगी. इसके अलावा गन्ना किसानों को अपने खेत की खतौनी के दस्तावेज भी प्रस्तुत करने होंगे. किसानों को घोषणा पत्र के साथ खतौनी के दस्तावेज, आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, बैंक पासबुक की फोटो कॉपी भी जमा करनी होगी, तभी उनका गन्ना खरीदा जाएगा.

नेता-रचित भ्रांति में उलझ गई हरित-क्रांति के जनक की रिपोर्ट
सत्ता में आने के पहले भारतीय जनता पार्टी किसानों के लिए स्वमीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने के वादे करती रही, लेकिन सत्ता पर आरूढ़ होते ही भाजपा नेताओं ने तीव्र गति से अपना रंग बदल दिया. अब भाजपा स्वामीनाथ आयोग के नाम से ही बिदकती है. किसानों के लिए जो न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के विपरीत है. आप यह जानते हैं कि देश में हरित क्रांति के जनक माने जाने वाले डॉ. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में वर्ष 2004 के नवम्बर महीने में राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया गया था. आयोग ने अक्टूबर 2006 में अपनी रिपोर्ट दे दी. लेकिन इसे अब तक किसी भी सरकार ने लागू नहीं किया. स्वामीनाथन आयोग ने किसानों की हालत सुधारने से लेकर कृषि को बढ़ावा देने के लिए कई सिफारिशें की थीं. सरकार यह दावा करती है कि आयोग की कई सिफारिशें लागू कर दी गईं, लेकिन यह अर्धसत्य है. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश है, 1. फसल उत्पादन की कीमत से 50 प्रतिशत ज्यादा दाम किसानों को मिले. 2. किसानों को अच्छी क्वालिटी के बीज कम दाम में मुहैया कराए जाएं. 3. गांवों में किसानों की मदद के लिए ‘विलेज नॉलेज सेंटर’ यानि ज्ञान चौपाल बनाए जाएं. 4. महिला किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड जारी किए जाएं. 5. किसानों के लिए कृषि जोखिम फंड बनाया जाए, ताकि प्राकृतिक आपदाओं के आने पर किसानों को मदद मिल सके. 6. अतिरिक्त और इस्तेमाल नहीं होने वाली जमीन के टुकड़ों का वितरण किया जाए. 7. खेतिहर जमीन और वनभूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए कारपोरेट घरानों को कतई न दिया जाए. 8. फसल बीमा की सुविधा पूरे देश में हर फसल के लिए मिले. 9. खेती के लिए कर्ज की व्यवस्था हर गरीब और जरूरतमंद किसान तक पहुंचे. 10. सरकार की मदद से किसानों को दिए जाने वाले कर्ज पर ब्याज दर कम करके चार प्रतिशत किया जाए. 11. कर्ज की वसूली में राहत, प्राकृतिक आपदा या संकट से जूझ रहे इलाकों में ब्याज से राहत सामान्य हालत बहाल होने तक जारी रहे. 12. लगातार प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में किसान को मदद पहुंचाने के लिए ‘एग्रीकल्चर रिस्क फंड’ का गठन किया जाए.

किसानों से बर्बर वसूली, नेताओं पर अरबों बकाया
किसानों के बिजली बिल या ऋण के बकाये की मामूली रकम की वसूली गैर मामूली और अमानवीय तरीके से होती है. जबकि नेताओं पर बिजली बिल के अरबों रुपए बकाया है, लेकिन उसकी वसूली नहीं होता. सत्ता का यही दोगला चरित्र भारतीय लोकतंत्र की कठोर सच्चाई है. आप हैरत करेंगे कि उत्तर प्रदेश के मंत्रियों और विधायकों पर 10 हजार करोड़ रुपए का बिजली बिल बाकी है. इसके अलावा नेताओं के आरामगाहों यानि वीआईपी गेस्ट हाउस पर भी दो करोड़ 65 लाख रुपए का बिजली बिल बकाया है. और तो और विधानसभा में मंत्रियों विधायकों को आचार विचार की सीख देने वाले विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित पर भी 12 लाख 64 हजार का बिजली बिल बकाया है.
बिजली बिल बकाये का ब्यौरा देखेंगे तो आपको सियासत की असलियत का एहसास होगा. बहुखंडी मंत्री आवास पर एक करोड़ 47 लाख, प्रदेश के खेल मंत्री चेतन चौहान पर 17 लाख 72 हजार, खुद बिजली मंत्री श्रीकांत शर्मा पर 6 लाख 51 हजार, कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही पर 9 लाख 28 हजार, उप मुख्यमंत्री केशव मौर्या पर 10 लाख 80 हजार, शहरी विकास मंत्री सुरेश खन्ना पर 9 लाख 20 हजार, औद्योगिक विकास मंत्री सतीश महाना पर 7 लाख 83 हजार और वित्त मंत्री राजेश अग्रवाल पर करीब 9 लाख रुपए का बिजली का बिल बाकी है. कर्मचारियों का आरोप है कि निजीकरण पूंजीपतियों को फयदा पहुंचाने के लिए हो रहा है. प्रदेश के ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा जब यह कहते हैं कि बिजली विभाग 72 हजार करोड़ के घाटे में है तो खुद पर उंगली उठाने का नैतिक साहस नहीं कर पाते.

आजादी के 71 साल बाद निर्णायक शक्ल लेने लगा है किसान आंदोलन
वर्ष 2017 से 2018 के बीच देश के लोगों ने किसान आंदोलन को भाषाई और सीमाई बॉर्डर पार कर देशव्यापी शक्ल लेते हुए देखा है. आजादी के बाद से लेकर अब तक कई प्रमुख और कई क्षेत्रीय स्तर के किसान आंदोलन हुए, लेकिन राजनीति ने इन किसान आंदोलनों को निर्णायक शक्ल तक नहीं पहुंचने दिया. किसान आंदोलनों से जुड़े नेताओं को प्रलोभन के जरिए स्खलित किया और किसान आंदोलनों को फेल कराने का काम किया.
आप याद करें पिछले साल 13 मार्च 2017 को तमिलनाडु के किसानों ने दिल्ली के जंतर मंतर पर आंदोलन शुरू किया था. तमिलनाडु के किसानों का वह आंदोलन तकरीबन 40 दिन चला और 23 अप्रैल 2017 को खत्म हुआ. इसके बाद एक जून 2017 से महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के किसानों ने आंदोलन शुरू किया. मध्य प्रदेश के किसानों का आंदोलन नियोजित हिंसा की भेंट चढ़ा और पांच किसानों की मौत हुई और सैकड़ों वाहन आग के हवाले कर दिए गए. हिंसा की चपेट में आकर बिखर गया मध्य प्रदेश का किसान आंदोलन सियासी षडयंत्रों का शिकार बना. राजनीतिक दलों ने एक दूसरे पर आरोप लगाए, लेकिन यथार्थ यही है कि किसानों के आंदोलन को हिंसक रूप देने के लिए असामाजिक और अराजक तत्वों का सहारा लिया गया. राजस्थान में भी किसानों का आंदोलन असरकारक रहा, लेकिन महाराष्ट्र और राजस्थान दोनों राज्यों के किसान आंदोलन व्यापक परिणाम हासिल करने के बजाय क्षेत्रीय हित पर संतोष कर समाप्त हो गए. किसानों की मूल भूत समस्या वहीं की वहीं रह गई. इस वर्ष एक से 10 जून तक 130 किसान संगठनों ने विभिन्न शहरों में सांकेतिक आंदोलन चलाया और कृषि उत्पाद खास तौर पर फल, सब्जियां और दूध आदि की पूर्ति बंद रखी. देश के 30 विभिन्न नेशनल हाईवे पर किसानों के धरना प्रदर्शन से भी देशभर में संदेश गया. मध्य प्रदेश के 10 स्थानों पर किसानों का क्रमिक धरना प्रदर्शन आयोजित होता रहा. महाराष्ट्र के आठ, हरियाणा के चार, राजस्थान के तीन, कर्नाटक के दो, केरल और जम्मू कश्मीर के एक एक स्थान पर किसानों ने अपना डेरा जमाया. इस आंदोलन का रेखांकित करने वाला पहलू जम्मू कश्मीर के किसानों का आंदोलन में साथ आना है. किसानों की इस एकजुटता से जागरूकता भी बनी है. इसी का नतीजा है कि हर एक घंटे में दर्ज होने वाली एक किसान की आत्महत्या कम होने लगी है. हालांकि उसका श्रेय लेने के लिए सत्ताधारी दल अवांछित हरकतों से लेकर बयान तक जारी करते रहे. एकजुटता और आंदोलन से देशभर के किसानों में यह जागरूकता प्रगाढ़ हुई है कि सत्ता सियासतदानों के साथ मिल कर कारपोरेट घराने किसानों को खेती छोड़ देने के लिए विवश करने का षडयंत्र कर रहे हैं. कारपोरेट घराने किसानों की खेती पर कब्जा करना चाहते हैं. लिहाजा, किसानों को अब यह बात समझ में आ रही है कि उन्हें अपना मूल काम किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ना है. जबकि इसके पहले किसान खेती छोड़ कर दूसरा धंधा अपनाने का मन बना रहे थे. पूर्वी उत्तर प्रदेश के गन्ना बेल्ट के किसानों ने तो कृषि कार्य छोड़ कर दूसरे प्रदेशों में दिहाड़ी मजदूर तक बनना मंजूर कर लिया. जागरूकता के कारण देश के 60 से अधिक किसान संगठनों का किसान एकता मंच शक्ल में आया और एक बार फिर आंदोलनों का दौर शुरू हुआ. भट्टा परसौल, बेतुल, मंदसौर के आंदोलन भले ही समय के पहले बिखर गए, लेकिन इन आंदोलनों ने व्यापक पैमाने पर किसानों को एकजुट होने का संदेश दिया.
किसानों के आंदोलन को एकजुट शक्ल में आता देख कर आर्थिक विश्लेषक कहते हैं कि भारत का बाजार ग्रामीण केंद्रित होने वाला है इसीलिए कारपोरेट घराने किसी भी कीमत पर किसानों को आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होने देना चाहते. किसान आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होगा तो भविष्य में ग्रामीण सेक्टर में विकसित होने वाले कृषि आधारित मझोले, लघु और सूक्ष्म उद्योग-धंधों पर किसानों का मालिकाना हक नहीं हो पाएगा और उस ग्रामीण बाजार को भी कारपोरेट घराने ही कंट्रोल कर पाएंगे. इस षडयंत्र में सत्ता भी कारपोरेट घरानों का ही साथ दे रही है, क्योंकि राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए पैसा भी कारपोरेट घरानों से ही मिलता है. देश के 650 जिलों में से 500 जिलों के बाजार ग्रामीण आधारित हैं. कारपोरेट घराने इस बाजार पर अपना नियंत्रण चाहते हैं. देश में अनाज का उत्पादन करीब तीन सौ मिलियन टन है और करीब ढाई सौ मिलियन टन अन्य फसलों का उत्पादन है. दूध का उत्पादन 150 मिलियन टन है, जो देश की अर्थव्यवस्था को 30 से 40 लाख करोड़ का व्यापार देता है. अगर किसान एकजुट हुए तो इतने बड़े ग्राम्य आधारित बाजार का नियंत्रक किसान समुदाय ही होगा. लड़ाई का मूल बिंदु यहां है.

आम लोग भी समझ रहे हैं किसानों की मूलभूत समस्याएं
दो वर्षों में घनीभूत हुए किसान आंदोलनों ने किसानों की मूलभूत समस्याओं के बारे में देश के आम लोगों को जानने समझने का मौका दिया है. किसानों की इन समस्याओं को पिछले 71 साल से सियासतदानों ने दबा-छुपा कर रखा और उस पर राजनीति की रोटियां सेंकते रहे. आजादी के सात दशक बाद भी देश में खेतों के बंटवारे का कोई संतुलित नियम नहीं बनाया गया. आज भी देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर होने वाले विवाद सबसे अधिक हैं. असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन सरकारें साहूकारों और सामंतों के पक्ष में ही खड़ी रही हैं. जमीनों का बड़ा हिस्सा बड़े धनपतियों,  नेता और नौकरशाहों के रूप में नव-सामंतों, दलालों और साहूकारों के पास है. भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े फार्म हाउस हैं, जहां कृषक मजदूर काम करते हैं. छोटे और मझोले किसानों की दुर्दशा है. फसल अच्छी नहीं हुई तो बर्बाद हुए, मौसम की मार हुई तो मारे गए और कर्ज डूबा तो फांसी लगा ली.
छोटे रकबे में फसल उगाने की जद्दोजहद करने के बाद भी किसानों को उनकी फसल का वाजिब मूल्य नहीं मिलता. यह इस कृषि प्रधान देश का ‘कैंसर’ है, जिसे नेताओं ने पाल कर रखा है. सरकार हर फसल के मौसम में किसानों का अनाज खरीदने की घोषणा करती है, क्रय केंद्र खोलती है और उन क्रय केंद्रों में नौकरशाह, कर्मचारी और दलाल मिल कर भ्रष्टाचार की दुकान खोल लेते हैं. किसानों का अनाज क्वालिटी के आधार पर रिजेक्ट कर देने का डर दिखा कर मनमानी कीमत पर खरीदा जाता है और उसी अनाज से भ्रष्टाचारी अपना धन साम्राज्य खड़ा करते हैं. किसान औने-पौने दाम पर अपना माल बेच कर घर लौट जाता है. गेहूं और धान की सरकारी खरीद में भीषण घोटाला होता है, लेकिन वह सरकार को नहीं दिखता. आलू, टमाटर और दूसरी सब्जियों को लेकर भी किसान मरता रहा है. आपने अभी देखा ही कैसे किसानों ने अपना आलू टमाटर सड़क पर फेंक दिया. उत्तर प्रदेश का अलीगढ़ से लेकर फर्रुखाबाद तक का पूरा बेल्ट आलू उत्पादन के लिए न केवल देश बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर है. लेकिन किसानों को आलू की लागत का मूल्य भी नहीं मिल पाता. बाजार में आलतू-फालतू दाम पर आलू बेच कर किसान को लौटना पड़ता है या सड़क पर आलू फेंक कर किसान घर लौट जाता है. आजादी के 71 साल बाद भी सरकार ने आलू के भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की और कोल्ड स्टोरेज में आलू रखने के लिए व्यापारी मनमाना किराया वसूल करते हैं. किसान इतना दबाव में आ जाता है कि वह कोल्ड स्टोरेज में ही अपना आलू छोड़ देता है. गन्ना किसानों की स्थिति के बारे में आपने ऊपर जाना ही. धन्ना सेठों की चीनी मिलों पर किसानों के अरबों रुपए बकाया हैं, लेकिन सरकार को झूठ बोलने से ही फुर्सत नहीं.
यह भी अजीब विडंबना है कि फसल किसान बोते हैं, लेकिन बीज पैदा करने का अधिकार कारपोरेट और व्यापारिक घरानों के पास है. बीज उत्पादन के लिए सरकार सारी सुविधाएं व्यापारिक घरानों को ही देती है. यही सुविधा किसानों को मिले तो किसान अपने लिए बीज का उत्पादन खुद करने लगें. किसानों को बाजार से महंगा बीज खरीदना पड़ता है. किसान लगातार यह मांग कर रहे हैं कि बीज पैदा करने का अधिकार और सुविधाएं उन्हें दी जाएं, लेकिन सरकार ऐसा क्यों करे? बीजों की वितरण व्यवस्था भी ठीक नहीं है. बीज महंगा होने के बावजूद अच्छी क्वालिटी का नहीं होता, जिसका असर कृषि उत्पाद पर पड़ता है. उच्च स्तरीय बीज और हाइब्रीड बीज के नाम पर किसानों को खूब ठगा भी जाता है. किसानों का दुर्भाग्य ही है कि आजादी के सात दशक बाद भी देश में सिंचाई की समुचित व्यवस्था नहीं हो पाई है. किसान खुद अपना मोटर पंप लगा कर सिंचाई करते हैं तो सरकार बिजली शुल्क बढ़ा कर इन्हें लूटती है और उत्पीड़न करती है. किसान बारिश के भरोसे ही खेती करता है. केवल उत्तर प्रदेश ही क्या देश के तमाम दूसरे राज्यों में भी सिंचाई व्यवस्था पर सरकारों का कोई ध्यान नहीं है. नहरें, रजबहे सब सूख गए हैं. नहरें रजबहे मलबों से पट गए, लेकिन सफाई नहीं हुई. कागज पर सफाई हो जाती है और सरकारी धन मंत्री से लेकर अफसर और कर्मचारी के जेबाय नमः हो जाता है. पंजाब और हरियाणा ही ऐसा राज्य है, जहां सिंचाई व्यवस्था पर सरकारों ने ध्यान दिया.
फसलों को बाजार तक पहुंचाने की भारी दिक्कत का सामना किसानों को हर फसली मौसम के बाद करना पड़ता है. कृषि उत्पाद को बाजार तक पहुंचाने के लिए समुचित ट्रांसपोर्टेशन की व्यवस्था आज तक नहीं की गई. किसान खुद अपना प्रोडक्ट किसी तरह ऊंचा किराया देकर बाजार तक लाता है और वहां उसे अपने उत्पाद की उचित कीमत नहीं मिल पाती. जल्दी खराब होने वाले कृषि उत्पादों को लेकर किसान और मार खाते हैं. किसानों के लिए आफत यह है कि एक बार किसी तरह अनाज या सब्जियां बाजार तक पहुंचा दीं तो वापस नहीं लाई जा सकतीं. इससे पार पाने के लिए किसान हर बार अपना माल औने-पौने दाम पर बेच कर वापस लौट आता है. बाजार में किसानों के रुकने के लिए कहीं भी कोई विश्रामगृह आज तक नहीं बनाया गया. किसानों पर हावी साहूकारी और महाजनी की समानान्तर व्यवस्था खून चूसने का काम कर रही है. इसमें बैंक भी नव-साहूकार के रूप में आ गए हैं और प्रशासन की मदद से वे किसानों पर जुल्म ढा रहे हैं. महंगे बीज, महंगी खाद, महंगी सिचाई और महंगी तकनीकी जरूरतों ने किसान को कर्जखोर बना कर रख दिया है. कर्ज देने में बैंक किसानों से घूस वसूलते हैं तो सूदखोर, साहूकार और महाजन किसानों से ऊंचा ब्याज वसूलते हैं. किसानों की बेतहाशा हुई आत्महत्याओं की मूल वजह यही है.

पर किसानों के रहनुमा भी उतने ही बड़े ‘अपराधी’...
देश में किसानों की दुर्दशा के लिए किसानों के रहनुमा भी कम दोषी नहीं रहे हैं. बिना नाम छापे आप समझ लेंगे कि इस देश में कौन कौन से स्वनामधन्य नेता सियासत की दुकान में किसानों के मसले बेच-बेच कर प्रभावशाली, समृद्धशाली, बलशाली और भूशाली होते गए. किसानों के रहनुमा बनने वाले लोग बड़े बड़े नेता और मंत्री बने, लेकिन ‘बड़ा’ बनने के बाद उन नेताओं ने किसानों के मसले छोटे कर दिए. आप सुनते और बोलते हैं कि नक्सली संगठनों के नेता (कमांडर) कैसे धनाढ्य होते गए. उनके बच्चे पश्चिमी देशों में आलीशान स्कूल-कॉलेजों में पढ़ते हैं या बेहतरीन नौकरी करते हैं. कश्मीर के अलगाववादी नेतों का भी यही हाल है. किसानों के रहनुमा नेताओं की लंबी जमात को भी आप उन्हीं नक्सलियों और अलगाववादियों की फेहरिस्त में शामिल कर सकते हैं. आंदोलनों के फेल होने की सबसे बड़ी वजह यही है. आप झांक कर देखें तो किसानों के रहनुमा नेताओं की आज की समृद्धियां उनकी चारित्रिक-दुष्यात्रा की कहानियां कहती मिलेंगी. इनकी हजारों एकड़ जमीनें और करोड़ों-अरबों रुपए की आर्थिक औकात यह बताने के लिए काफी है कि इस देश में किसान एकजुट क्यों नहीं हो पाए, किसानों की समस्या का समाधान आज तक क्यों नहीं निकला और किसान आंदोलन आज तक फेल क्यों होते रहे..! 

Thursday 23 August 2018

राजनीतिक इतिहास का अटल व्यक्तित्व...

प्रभात रंजन दीन
सत्य का संघर्ष सत्ता से / न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है / किरण अंतिम अस्त होती है…
अटल जी की कविता की ये चार पंक्तियां देश की वास्तविकता का परिचय देने के लिए काफी हैं. वाकई, अटल बिहारी वाजपेयी के जाने से भारतवर्ष में नैतिक, ईमानदार, मानवीय, दंभहीन, विनम्र और विद्वान राजनीतिक शख्सियत की आखिरी किरण भी अस्त हो गई. संत कबीर कहते हैं कि वे हद और अनहद के बीच खड़े हैं... अटल जी के व्यक्तित्व पर समग्र दृष्टि डालें तो आपको साफ-साफ दिखेगा कि अटल भी हद और अनहद के बीच ही खड़े रहे! अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस तरह विराट हृदय वाली राजनीति की धारा चलाई, उस पर चलना या उसका अनुकरण करना बड़ी तपस्या और अटल की कवित्व-भाषा में दधीचि की हड्डियां गलाने जैसे त्याग से ही संभव है. कहने से थोड़े ही होता है कि ‘मैं अटल जी के रास्ते पर चल रहा हूं’, उस तरह बनने का योग और जतन करना पड़ता है.
देखिए, शब्द-ब्रह्म और शब्द-व्यायाम में मौलिक फर्क है, जिसे अटल जी का व्यक्तित्व रेखांकित करता है. मेधा, ज्ञान और तपस्या के सुंदर समन्वय से ही शब्द-ब्रह्म प्रकट होता है. यह प्रकृति का उपहार है. शब्द-व्यायाम तो भौतिक कसरत है, उसमें आत्मा नहीं होती. अटल जी के शब्दों में ब्रह्म की झलक प्रकृति के उसी अनमोल उपहार की अभिव्यक्ति थी. दो विपरीत छोर वाली राजनीतिक धारा के बीच अटल जी संतुलन-सेतु की तरह काम करते थे. दोनों के बीच ‘बैलेंसिंग-बीम’ बनने में स्वार्थ नहीं बल्कि सौहार्द समाहित था. दक्षिणपंथी और वामपंथी राजनीतिक विचारधाराओं के बीच समझदार सेतु के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी अटल खड़े रहे, ठीक वैसे ही जैसे संत कबीर हद और अनहद के बीच निर्लिप्त और निस्पृह भाव से खड़े रहते हैं. ऐसे ही व्यक्तित्व के लिए दुश्मन देश का प्रधानमंत्री भी कह उठता है, ‘अटल जी पाकिस्तान में भी इतने पसंद किए जाते हैं कि वे यहां भी चुनाव लड़ें तो जीत जाएं.’ शांति का संदेश लेकर 19 फरवरी 1999 को बस से लाहौर गए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के पाकिस्तान में हुए अभूतपूर्व स्वागत और अटल जी के प्रति पाकिस्तानियों का प्रेम देख कर तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा था, 'वाजपेयी साहब, आप पाकिस्‍तान में भी चुनाव जीत सकते हैं.'
आपने देखा ही है कि कश्मीर के आम लोग, नेता और यहां तक कि अलगाववादी विचारधारा रखने वाले लोग भी अटल जी को कितना पसंद करते हैं. यह दुर्लभ बात है कि भारतीय जनता पार्टी के धुर (एक्सट्रीम) विरोधी भी अटल जी के प्रशंसक थे और उनसे जुड़ा महसूस करते थे. कोई तो हो जो आलोचना करे! ऐसा कोई नहीं मिलता... न राजनीतिक जीवन में रहते हुए और न जीवन से मुक्त होने के बाद. हिंदूवादी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की कट्टर मुस्लिम जमातें हों या धुर वामपंथी या विपक्षी दल, सब में अटल जी की स्वीकार्यता अटल जी को महापुरुषों की श्रेणी में खड़ा करती है.
खुर्राट वामपंथी ईएमएस नम्बूदरीपाद रहे हों या वामपंथी पुरोधा ज्योति बसु या ईके नयनार, सब अटल बिहारी वाजपेयी के प्रशंसक थे. वामपंथी नेताओं से अटल जी की निकटता को अखबार वाले कभी-कभार संदेहास्पद भी बना देते थे. एक बार तो बंगाल में अखबार वालों ने यह भी लिख डाला कि ज्योति बसु अटल बिहारी वाजपेयी से ‘गुपचुप’ मिलते रहते हैं. विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाले ‘जन मोर्चा’ का विजयोत्सव जब वामराज वाले पश्चिम बंगाल में मनाया गया तो अटल जी उसमें शरीक हुए थे. कलकत्ता के शहीद मिनार मैदान में आयोजित उस विजयोत्सव में वीपी सिंह, ज्योति बसु के साथ बैठे अटल जी की वह पुरानी तस्वीर आप भी देखें और यह जानते चलें कि इसी तस्वीर को लेकर कांग्रेस और बाद में तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा और वाम दलों के बीच ‘खिचड़ी पकने’ का आरोप लगा कर सतही सियासत की थी. वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब ‘माई लाइफ, माई कंट्री’ में लिखा है कि वाम दलों और भाजपा के सहयोग से केंद्र में बनी नेशनल फ्रंट की सरकार के दौरान अटल जी और ज्योति बसु की गोपनीय मीटिंग हुई थी, जिसमें आडवाणी खुद भी शामिल थे. यह बैठक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने बीरेन साहा के आवास पर हुई थी. ज्योति बसु ने भी ऐसी दो गोपनीय बैठकों के बारे में स्वीकारोक्ति दी थी, इसमें एक बैठक लालकृष्ण आडवाणी के घर पर हुई थी. ज्योति बसु ने कहा था कि आडवाणी की रथ-यात्रा रोकने के लिए वह बैठक हुई थी. गोपनीय बैठक राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए नहीं थी. वाजपेयी जी की केरल के धुरंधर कम्युनिस्ट नेता ईके नयनार से भी खूब अंतरंगता थी. निकटता का यह आलम था कि एक बार केरल हवाई अड्डे पर प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों ने मजाक में अटल जी से पूछ दिया था कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में क्या ईके नयनार भी शामिल होंगे? अटल हंसने लगे थे और नयनार किनारे बैठे केरल भाजपा के अध्यक्ष ओ राजगोपाला की तरफ उंगली से इशारा कर रहे थे, जैसे कह रहे हों, ‘मैं नहीं, वो बनेंगे...’
अटल का ज्ञान और उनकी भाषण-शैली में झलकने वाली ओजस्विता उन्हें विश्व के पटल पर शीर्ष स्थान देती है. 80 के दशक में ही ‘टाइम’ मैगजिन ने आचार्य रजनीश और अटल बिहारी वाजपेयी को सबसे प्रभावशाली वक्ताओं में शुमार किया था. उनकी ओजस्विता और उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि महज एक वोट से राजनीतिक कुचक्र का शिकार हुए अटल अगले ही चुनाव में कांग्रेस जैसी उस समय की सशक्त पार्टी को धकेल कर केंद्र की सत्ता पर आरूढ़ हुए और पूरे पांच वर्ष देश को स्थिर सरकार दी. भारतीय जनता पार्टी को अटल के चेहरे का भरोसा रहा... तब भी और अब भी. अटल की जब भी उपेक्षा हुई भाजपा चुनाव हारी. अटल उपेक्षा से विचलित नहीं होते, राजनीतिक बयानबाजी नहीं करते, किसी तिकड़म में नहीं उतरते... बस कविता लिख कर रख लेते, ‘अपनी ही छाया से बैर, गले लगने लगे हैं गैर, कलेजे में कटार गड़ गई, दूध में दरार पड़ गई...’ अटल जी की कविताएं बहुत कुछ कहती हैं, ‘कौरव कौन, कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है / दोनों ओर शकुनि का फैला कूटजाल है…’ अटल जी और देश के अन्य नेताओं में मर्यादा का यही फर्क है. यह विशाल फर्क है. अपने विद्वत और मधुर अंदाज में अटल जी की चुटकियां और मुस्कुराहट विरोधियों को भी भीतर तक बेध जाती थीं. विरोधियों पर अमर्यादित टिप्पणियां करने और आत्मप्रशंसा में लगे नेताओं को अब भी अटल जी से सीख लेनी चाहिए. चाहे वह भाजपा के नेता हों या किसी अन्य राजनीतिक दल के. इसी अटल व्यक्तित्व की तो सीख थी कि प्रधानमंत्री रहते हुए अटल जी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, ‘शासक के लिए प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता, न जन्म के आधार पर, न जाति के आधार पर  और न सम्प्रदाय के आधार पर… मुझे विश्वास है कि नरेंद्र भाई यही कर रहे हैं.’ उस समय नरेंद्र मोदी भी अटल जी के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद थे.
अटल जी के विशाल व्यक्तित्व का वह पहलू बार-बार ध्यान में आता है. वर्ष 2001 में लखनऊ के राजभवन में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित थी. राजभवन का सभा कक्ष पत्रकारों से भरा था. अटल जी आए. अभी प्रेस कॉन्फ्रेंस शुरू भी नहीं हुई थी कि इस संवाददाता ने अटल जी से पूछा कि दो दिन पहले गुजरात में आए भूकंप में तकरीबन एक लाख लोग मरे, अधिकांश बच्चों की मौत हुई जो गणतंत्र दिवस समारोह मनाने स्कूल गए थे, क्या हजारों बच्चों की मौत पर राष्ट्रीय शोक की घोषणा नहीं होनी चाहिए थी? क्या राष्ट्रीय शोक पर केवल नेताओं का एकाधिकार है? मेरे इस सवाल पर सामने बैठे कुछ पत्रकार हंस पड़े. अटल जी ने चुटकी लेने वाले अंदाज में कहा, ‘आपसे मुलाकात नहीं हुई, नहीं तो घोषणा हो जाती.’ इस पर कुछ ‘विद्वत’ पत्रकार फिर हंसे. क्या यह विषय मजाक का है? मेरे यह कहने पर अटल जी की मुख-मुद्रा अचानक गंभीर हो गई, उन्होंने कहा, ‘चूक हो गई.’ अटल जी की इस एक पंक्ति की स्वीकारोक्ति उन्हें कहां से कहां उठा कर रख देती है. आज कोई प्रधानमंत्री इस तरह क्या अपनी गलती सार्वजनिक रूप से कबूल कर सकता है? आज तो स्थिति यह है कि ऐसे सवाल पूछने वाले पत्रकार को धक्के मार कर कक्ष से बाहर निकाल दिया जाएगा. उसे गिरफ्तार करने की स्थिति भी आ सकती है. यह अटल के राजनीतिक युग और वर्तमान युग के बीच का चारित्रिक-संस्कारिक फर्क है. अटल जी का ऐसा ही ऊंचा चरित्र और संस्कार था जो जनता पार्टी की सरकार के धराशाई होने के बाद लोकनायक जयप्रकाश से माफी मांगने से नहीं हिचकता. अटल जी ने लिखा था, ‘क्षमा करो बापू तुम हमको, वचन भंग के हम अपराधी / राजघाट को किया अपावन, मंज़िल भूले, यात्रा आधी / जयप्रकाश जी! रखो भरोसा, टूटे सपनों को जोड़ेंगे / चिताभस्म की चिंगारी से, अंधकार के गढ़ तोड़ेंगे.’
परमाणु परीक्षण से लेकर करगिल युद्ध का इतिहास अटल के योद्धा चरित्र की सनद देता है. एक तरफ विनम्रता तो दूसरी तरफ शौर्य, इन दो विलक्षण पहलुओं का सम्मिश्रण थे अटल जी. वे अटल ही थे जो एक तरफ कहते थे, ‘धमकी, जेहाद के नारों से, हथियारों से कश्मीर कभी हथिया लोगे, यह मत समझो / हमलों से, अत्याचारों से, संहारों से भारत का भाल झुका लोगे, यह मत समझो…’ दूसरी तरफ अटल ही थे जो ‘इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ की पुरजोर हिमायत करते थे. अटल जी के ये तीन शब्द कश्मीरियों के दिल में बसते हैं और पूरी दुनिया इन तीन शब्दों को ही ‘अटल डॉक्टरिन’ की संज्ञा देती है. कश्मीरी यह मानते हैं कि अटल जी को कुछ और मौका मिलता तो वे कश्मीर की समस्या को अपने इन तीन नायाब शब्दों के फार्मूले से हल करके ही मानते.

कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने भाजपाई अटल के जरिए बचाई थी देश की इज्जत
तब देश में नरसिम्हा राव की सरकार थी. अटल बिहारी वाजपेयी विपक्ष के नेता था. कांग्रेस सरकार के प्रस्ताव पर अटल जी पार्टी लाइन से ऊपर उठकर कश्मीर मसले पर फंसी नरसिम्हा राव सरकार का साथ दिया और उन्हें उबारा. नरसिम्हा राव ने अटल जी को संयुक्त राष्ट्र भेजे गए प्रतिनिधिमंडल में न केवल शामिल किया बल्कि उसे नेतृत्व करने का दायित्व सौंपा. तब पाकिस्‍तान ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ मानवाधिकार उल्‍लंघन का आरोप लगाया था. पाकिस्तान ने ‘ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन’ (ओआईसी) के जरिए प्रस्ताव रखवाया और भारत के खिलाफ कुचक्र रचा. अटल जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व ने सारे विरोधियों का पटाक्षेप कर दिया. अटल जी ने इस मसले पर उदार इस्लामिक देशों से सम्पर्क स्थापित किया और अपनी मुहिम में कामयाब हुए. कामयाबी भी ऐसी हासिल हुई कि पाकिस्तान के प्रस्‍ताव पर संयुक्त राष्ट्र में इस्लामी देशों ने भारत का साथ दिया और पाकिस्‍तान को समर्थन देने वाले मुस्लिम देशों ने प्रस्‍ताव के पक्ष में मतदान करने से इन्कार कर दिया. इंडोनेशिया और लीबिया ने ओआईसी के प्रस्ताव से ही खुद को अलग कर लिया. सीरिया ने भी पाकिस्तान के प्रस्ताव से दूरी बना ली और ईरान ने प्रस्ताव को संशोधित करने को कह दिया. तब चीन ने भी भारत का साथ दिया था. आखिरकार विवश होकर पाकिस्तान को वह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा.

Tuesday 14 August 2018

देवरिया-कांड: धिक्कार है... धिक्कार है...

प्रभात रंजन दीन
नारी संरक्षण गृहों, संप्रेक्षण गृहों और अनाथालयों में बच्चियों की दुर्दशा का ताजा अध्याय बिहार के मुजफ्फरपुर के बाद उत्तर प्रदेश के देवरिया में भी खुला. बेसहारा और मजबूर लड़कियों के साथ प्रायोजित दुर्व्यवहार कोई नई घटना नहीं है. निकृष्टतम स्तर का यह धंधा देश में लगातार चल रहा है. कभी-कभार घटनाएं उजागर हो जाती हैं तो चिल्लपों मचती है. जांच और कार्रवाई की औपचारिकताएं होती हैं, फिर मामला ठंडा पड़ते ही धंधा चालू हो जाता है. हर बार यही होता है कि ऐसे घृणित धंधे में नेता, नौकरशाह, सफेदपोश, दलाल और सामाजिक संस्थाएं चलाने वालों का ‘नेक्सस’ उजागर होता है. लेकिन सत्ता व्यवस्था इस करतूत को स्थायी तौर पर काबू करने का कोई कारगर उपाय नहीं करती. यह उपाय क्यों नहीं होता? इस सवाल का जवाब बारी-बारी से सत्ता पर आरूढ़ होने वाले नेता और उनके तीमारदार नौकरशाह नहीं दे सकते, क्योंकि उनकी अय्याशियों और बदमिजाजियों का ‘उपाय’ इन्हीं लाचार महिलाओं की देह से होकर निकलता है.
मुजफ्फरपुर-देवरिया की ताजा घटना पर दुखी मेनका गांधी ने कितनी सटीक और असली बात कही कि वे दो साल से प्रत्येक सांसद को पत्र लिख कर आग्रह कर रही थीं कि सांसद अपने-अपने क्षेत्र में निराश्रित महिलाओं, लड़कियों और अनाथ बच्चों के लिए चलने वाली संस्थाओं का कम से कम एक बार निरीक्षण करें और वहां की स्थिति के बारे में उन्हें सूचित करें. लेकिन किसी भी सांसद ने मेनका के पत्र पर ध्यान नहीं दिया. मेनका की चिंता एक नेता या मंत्री की नहीं, बल्कि एक महिला की चिंता थी. इस चिंता ने तमाम सांसदों के असली सरोकार को भरी संसद में रेखांकित किया.
मेनका ने कहा है कि मुजफ्फरपुर-देवरिया की घटनाएं भयावह हैं. सांसदों के प्रति मेनका की नाराजगी संसद में अभिव्यक्त हुई, फिर भी सांसदों में इतना नैतिक बल नहीं था कि कोई एक भी सांसद उठ कर अपनी गलती के लिए माफी मांगता और इस दिशा में सक्रिय होकर समाज में उतरने की घोषणा करता. मेनका का सवाल और उस पर सांसदों की चुप्पी ही उस सवाल का जवाब है कि आखिर क्यों नहीं सत्ता ऐसे गलीज धंधे को काबू में करने का कोई स्थायी उपाय करती है.
मामला उजागर होने के बाद जब पुलिस ने तलाशी ली तो उत्तर प्रदेश के देवरिया स्थित नारी संरक्षण गृह से 42 में से 18 लड़कियां गायब मिलीं. लड़कियां आखिर कहां गईं? देवरिया संरक्षण गृह से भागी और बाद में बरामद हुई एक लड़की का बयान इस सवाल का जवाब है. उस लड़की ने कहा है कि हर रात काली, सफेद और लाल रंग की कारें आती हैं और लड़कियों को संरक्षण गृह से बाहर ले जाती हैं. सुबह इन लड़कियों को वापस छोड़ दिया जाता है. लेकिन फिर वो लड़कियां जार-जार रोने के अलावा कुछ बोल नहीं पातीं. अदालतों का रोल भी कोई दूध का धुला नहीं है. ऐसे मामलों में अदालतों का रोल डंवाडोल ही है. देवरिया के विंध्यवासिनी महिला प्रशिक्षण एवं समाजिक सेवा संस्थान द्वारा संचालित नारी संरक्षण गृह में अनिमियता पाए जाने के बाद जब उसकी मान्यता स्थगित कर दी गई थी, तब कोर्ट ने उस पर रोक क्यों लगा दी थी? क्या अदालत को भी ऐसी घटनाओं के घटित होने की प्रतीक्षा रहती है? संरक्षण गृह की जिस संरक्षिका गिरिजा त्रिपाठी को कोर्ट का स्थगनादेश मिला था, वही महिला जरायम धंधा चलाने के आरोप में आज गिरफ्तार है. उसका पूरा परिवार इस धंधे में लिप्त था. संचालिका का पति और उसकी बेटी कंचनलता त्रिपाठी भी पकड़ी गई है. संचालिका की बेटी ही संस्था की अधीक्षिका थी. इन सब पर मानव तस्करी करने, देह व्यापार चलाने और बाल श्रम से जुड़ी धाराओं की धज्जियां उड़ाने का मुकदमा दर्ज किया गया है. अब स्थगनादेश के औचित्य के बारे में अदालत से कौन पूछे? अदालत का मान-सम्मान है. निराश्रित महिलाओं और लड़कियों का मान-सम्मान थोड़े ही है? अब जब मुजफ्फरपुर और देवरिया में ऐसी घटना घट गई तब अदालत ने पूछना शुरू किया, 'हर तरफ से बलात्कार और अनाचार की खबरें! देश में यह क्या हो रहा है?' देश की सर्वोच्च अदालत ने यह सवाल सामने रखा, लेकिन उन अदालतों से यह हिसाब नहीं मांगा जिन्हें सड़कों के गड्ढे और ट्रैफिक जाम तो दिखता है, लेकिन निराश्रित महिलाओं की त्रासदी नहीं दिखती. चलिए देर से ही सही, कुछ ठोस हो जाए तो गनीमत. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे निर्लज्ज धंधे को रोकने के लिए सख्त कदम उठाने की जरूरत महसूस की है और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से देशभर के तीन हजार आश्रय गृहों के सामाजिक अंकेक्षण (ऑडिट) के तथ्य और सर्वेक्षणों की रिपोर्ट पेश करने को कहा है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इतनी बड़ी घटना हो जाती है और सरकार इतनी देर से जागती है, यह आश्चर्यजनक है. सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि इन घटनाओं को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि ये सब राज्य प्रायोजित गतिविधियां हैं.
इसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय भी हरकत में आया. उच्च अदालत ने कहा कि सीबीआई जांच की मॉनिटरिंग वह खुद करेगी. इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीबी भोसले और न्यायाधीश यशवंत वर्मा की खंडपीठ ने स्पष्ट कहा कि अगर यह यौन शोषण का मामला है तो राजनेताओं, वीआईपी और पुलिसवालों की मिलीभगत के बिना यह कतई मुमकिन नहीं है. न्यायाधीशों ने राज्य सरकार को यह निर्देश दिया कि इस गोरखधंधे को मिल रहे नेताओं और वीआईपी हस्तियों के संरक्षण का पता लगाया जाए. हाईकोर्ट ने इतने बड़े अमानवीय कृत्य में केवल चार अफसरों के खिलाफ कार्रवाई को संतोषजनक नहीं माना और पुलिसवालों के खिलाफ कार्रवाई न होने पर गहरे सवाल उठाए. हाईकोर्ट ने संरक्षण गृह की सभी लड़कियों के मजिस्ट्रेटी बयान की कॉपी तलब कर ली है और सरकार से पूछा है कि इन लड़कियों को अब कहां रखा गया है, उनकी सुरक्षा के क्या इंतजाम किए गए हैं और लापता लड़कियों का पता लगाने के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं. कोर्ट ने लड़कियों को ढूंढ़ने और पुलिसवालों की जांच का जिम्मा गोरखपुर जोन के एडीजी को सौंपने के यूपी सरकार के फैसले पर मुहर लगाई लेकिन स्पष्ट कहा कि एडीजी ने चार दिनों में ठोस कदम नहीं उठाए तो अदालत अगली सुनवाई में यह जिम्मेदारी किसी अन्य एजेंसी को दे सकती है.

18 लड़कियां तो लापता हैं ही, सात नवजात शिशु भी गायब हैं
देवरिया के मां विंध्यवासिनी बालिका संरक्षण गृह से 18 लड़कियों के अलावा सात नवजात शिशुओं के भी लापता होने की सूचना आम नागरिकों को व्यथित कर रही है. जबकि अब शासन-प्रशासन लापता लड़कियों की संख्या साबित करने की हरकतों में भी लग गया है. लड़कियों और नवजात शिशुओं की रहस्यमय गुमशुदगी दिसम्बर 2017 में ही हुई, लेकिन शासन, प्रशासन और ‘भाषण’ पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. नवजात शिशुओं की गुमशुदगी की सूचना सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी को भी मिली थी. अथॉरिटी ने बाल कल्याण समिति और डिस्ट्रिक्ट प्रोबेशन अफसर (डीपीओ) से जानकारी मांगने की औपचारिकता पूरी कर ली, लेकिन देवरिया से जानकारी नहीं भेजे जाने पर कोई रेस्पॉन्स नहीं लिया. पुलिस और प्रशासन की खाल पर भी नवजातों के गुम होने का कोई असर नहीं पड़ा. घटना के बाद मुंह खोलने का साहस कर रहे बाल कल्याण समिति के अध्यक्ष डॉ. एसके यादव ने  कहा कि संरक्षण गृह की संचालिका गिरिजा त्रिपाठी के आगे पूरी सत्ता नतमस्तक रहती थी. यादव ने माना कि सात नवजात बच्चों का रजिस्ट्रेशन होने के छह माह बाद भी उन्हें गोद देने (अडॉप्शन) की प्रक्रिया शुरू नहीं की गई. अथॉरिटी की तरफ से बच्चों के ‘अडॉप्शन’ की प्रक्रिया शुरू करने को लेकर डीपीओ को कई चिट्ठियां लिखीं गईं, पर वहां से जवाब नहीं मिला. नवजात शिशुओं को गिरिजा त्रिपाठी के रजला स्थित शिशु गृह में रखा गया था. बाल कल्याण समिति ने बच्चों को गोरखपुर स्थित दत्तक केंद्र में रखे जाने की काफी कोशिश की, लेकिन गिरिजा त्रिपाठी के आगे समिति की एक नहीं चली. आखिरकार नवजात शिशु गायब ही हो गए. पता चला कि कई और नवजात शिशु लापता हैं, जिन्हें विभिन्न स्थानों से बरामदगी के शिशु गृह लाया गया था. लेकिन सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी में उनका पंजीकरण नहीं कराया गया और आज वे लापता हैं.
अब यह बात खुल कर सामने आ रही है कि देवरिया के मां विध्यवासिनी बालिका संरक्षण गृह समेत पांच संस्थाओं की संचालिका गिरिजा त्रिपाठी और उसके परिवार ने सत्ता तक सीधी पहुंच का जमकर फायदा उठाया और मासूमों का भीषण शोषण किया. तब सारे जिम्मेदार अधिकारी और संस्थाएं चुप्पी साधे या चिट्ठियां लिखते रहे. घटना उजागर होने के बाद सब एक-दूसरे को दोषी ठहराने में लगे हैं. 23 जून 2017 को गिरिजा त्रिपाठी की संस्था को ब्लैक लिस्टेड किया गया था. इसके बाद भी पुलिस और प्रशासन की शह पर बच्चियों को बाल कल्याण समिति को बताए बगैर वहां भेजा जाता रहा. समिति ने आपत्तियां दर्ज कीं, जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखा. लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. यह भी पता चल रहा है कि पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों का भी संरक्षण गृह में आना-जाना लगा रहता था. देवरिया संरक्षण गृह को वर्ष 2011 से अनुदान मिलना शुरू हुआ, लेकिन संस्था 2009 से ही चल रही थी. जून 2017 में अनुदान बंद होने के बाद भी संरक्षण गृह चलता रहा. साफ है कि बिना अनुदान पाए संस्था कैसे चल रही थी.

योगी और जोशी ने पूर्व की सरकारों पर दोष मढ़े, पर कुछ तथ्य भी खुले
देवरिया घटना के उजागर होते ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फौरन सक्रियता दिखाते हुए मामले की सीबीआई से जांच कराने की घोषणा कर दी. योगी ने बचाव का बेहतर रास्ता निकाला. सीबीआई जांच की घोषणा के बाद आम लोग चुप हो जाते हैं, वे ‘टोपी-ट्रांसफर’ की त्वरित प्रक्रिया नहीं समझ पाते. योगी ने पिछली सरकार पर ठीकरा फोड़ा और देवरिया की संस्था वर्ष 2009 से ही चल रही थी और पिछली सरकारों, यानि बसपा और सपा सरकारों ने उसे खूब धन-लाभ कराया. योगी ने सीबीआई जांच की घोषणा करते हुए यह भी जोड़ा कि देवरिया प्रकरण में पुलिस की संदेहास्पद भूमिका की भी जांच की जाएगी. मुख्यमंत्री ने बाल कल्याण समिति भी भंग कर दी.
योगी ने कहा कि सीबीआई द्वारा औपचारिक रूप से जांच ‘टेक-ओवर’ करने तक तीन सदस्यीय एसआईटी साक्ष्यों की निगरानी करेगी, ताकि उससे कोई छेड़छाड़ न हो. स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) इस टीम की सहायता करेगी. मुख्यमंत्री ने जानकारी दी कि देवरिया प्रकरण की जांच के लिए महिला कल्याण विभाग की अपर मुख्य सचिव रेणुका कुमार और ‘महिला-हेल्पलाइन’ की अपर पुलिस महानिदेशक अंजू गुप्ता की जांच कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है. इसके बाद ही देवरिया के संरक्षण गृह की बालिकाओं को वाराणसी के संरक्षण गृह में शिफ्ट करने का निर्णय लिया गया. मुख्यमंत्री ने यह माना कि जून 2017 में देवरिया के उक्त संरक्षण गृह की मान्यता समाप्त कर दी गई थी. जिला प्रशासन को इस संरक्षण गृह को बंद करने और वहां रह रही बालिकाओं को स्थानांतरित किए जाने के निर्देश भी दिए गए थे, लेकिन प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की. इस दोष के लिए देवरिया के जिलाधिकारी का तबादला कर उनके खिलाफ चार्जशीट जारी की जा रही है. देवरिया के पूर्व जिला प्रोबेशन अधिकारी को भी निलम्बित कर दिया गया. सरकार ने देवरिया के मां विंध्यवासिनी महिला प्रशिक्षण एवं समाज सेवा संस्थान का पंजीकरण निरस्त कर दिया और रजिस्ट्रार चिट फंड ने भी हरकत में आते हुए गोरखपुर के वृद्ध आश्रम का पंजीकरण भी खारिज कर दिया.
योगी सरकार में महिला एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ. रीता बहुगुणा जोशी ने ऐसे मौके पर विपक्ष पर प्रहार करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. डॉ. जोशी ने कहा, ‘जिनके समय में इन संस्थाओं ने जन्म लिया, आज वही इसे राजनीतिक रूप देने में लगे हैं.’ मंत्री ने कहा कि देवरिया की संदर्भित संस्था को वर्ष 2009-10 में मान्यता देकर बाल संरक्षण गृह, बालिका संरक्षण गृह और सुधार गृह का काम दिया गया था. उस समय प्रदेश में बसपा और सपा की सरकारें थीं. डॉ. जोशी ने सपा सरकार के कार्यकाल में हुए ‘सचल’ पालना गृह भ्रष्टाचार प्रकरण का भी उल्लेख किया. मौजूदा सरकार के कार्यकाल में जो लापरवाही, अनदेखी और मिलीभगत हुई उस बारे में पूछे गए सवाल पर मंत्री ने कहा कि इन सारे पहलुओं की छानबीन कर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. डॉ. जोशी ने कहा कि प्रतिबंध लगने के बाद भी पुलिस लावारिस बच्चों-बच्चियों को संरक्षण गृह कैसे पहुंचाती रही, यह गंभीर विषय है और इसकी जांच कराई जा रही है.
विडंबना यह है कि उत्तर प्रदेश के प्रत्येक जिले में बाल कल्याण समिति गठित है. इन समितियों को हर महीने कम से कम 20 संस्थाओं की जांच करनी होती है. जांच के लिए समिति को सरकार की तरफ से धन मिलता है. जब धन खर्च हुआ तो जांच क्यों नहीं हुई? और अगर जांच हुई तो संरक्षण गृहों में चलने वाले जरायम धंधे का पता क्यों नहीं चला? ये सवाल संदेहास्पद स्थितियों और आपसी मिलीभगत की ओर इशारा करते हैं. यह बात सही है कि सपा सरकार के आखिरी दौर में समितियों का गठन कर सदस्यों की नियुक्ति कर दी गई थी. डॉ. रीता बहुगुणा जोशी कहती हैं कि सपा सरकार में जब लोक सेवा आयोग तक में सदस्यों की नियुक्ति में धांधली हुई, तो इन संस्थाओं में धांधली नहीं होने की क्या गारंटी है. डॉ. जोशी कहती हैं कि देवरिया कांड के खिलाफ आज जो खास राजनीतिक दलों के लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उन्हें बताना चाहिए कि बाल कल्याण समिति में सदस्यों का गठन किसने किया था और उन सदस्यों ने कितनी संस्थाओं की जांच की थी? देवरिया में उस महिला को बाल कल्याण समिति का सदस्य बना दिया गया था, जो पहले देवरिया कांड की मुख्य अभियुक्त गिरिजा त्रिपाठी की संस्था की काउंसलर थी.
उल्लेखनीय है कि देवरिया की उक्त विवादास्पद संस्था उत्तर प्रदेश राज्य समाज कल्याण बोर्ड द्वारा संचालित 'सचल पालना गृह' में हुए भ्रष्टाचार की सीबीआई जांच में भी शामिल है. बोर्ड की पूर्व अध्यक्ष डॉ. रूपल अग्रवाल का कहना है कि उन्होंने केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड, यूपी सरकार के महिला कल्याण विभाग, और महिला कल्याण मंत्रालय को पत्र लिख कर यह सूचित किया था कि विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ लाभार्थियों तक नहीं पहुंच रहा है और इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं की मिलीभगत है. लेकिन इन सूचनाओं का संज्ञान लेने के बजाय डॉ. अग्रवाल को ही अध्यक्ष पद से हटा दिया गया. डॉ. रूपल अग्रवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख कर कहा है कि उनके द्वारा उजागर किए गए तथ्यों की जांच करवा कर उचित कार्रवाई करें.

महिलाएं लापता? कहीं दूसरा देवरिया तो नहीं बनने जा रहा हरदोई?
हरदोई के बेनीगंज स्थित निराश्रित महिलाओं के संरक्षण गृह (स्वाधार गृह) में भी कुछ संदेहास्पद गतिविधियां चल रही हैं, लेकिन प्रशासन इसकी छानबीन या समयानुकूल कार्रवाई करने के बजाय उसे अभी से ढंकने की कोशिश में लगा है. हरदोई के स्वाधार-गृह का रजिस्टर बताता है कि वहां से 19 महिलाएं गायब हैं. हरदोई की यह संस्था भी एक एनजीओ द्वारा संचालित है. स्वाधार गृह में 21 महिलाओं के होने के बजाय वहां केवल दो महिलाएं ही पाई गईं. जिला प्रशासन ने 19 महिलाओं की गुमशुदगी प्रकरण की गहराई में जाने के बजाय यह कह दिया कि यह आर्थिक फर्जीवाड़ा है. सरकारी सहायता लेने के लिए स्वाधार गृह के रजिस्टर में 19 महिलाओं के फर्जी नाम भर दिए गए थे. विडंबना यह है कि जो डायलॉग संस्था दोहराती, वह संवाद जिला प्रशासन दोहरा रहा है. जबकि खुद हरदोई के जिलाधिकारी ने बेनीगंज में आयशा ग्रामोद्योग समिति पिहानी द्वारा संचालित स्वाधार गृह का निरीक्षण किया था. जिलाधिकारी ने स्वाधार गृह के रजिस्टर में 21 महिलाओं के नाम पाए, लेकिन मौके पर केवल दो महिलाएं मिली. पहले तो जिला प्रशासन ने कड़ी कार्रवाई करने की बात कही, फिर क्या हुआ कि अचानक जिला प्रशासन के सुर-ताल बदल गए. फिर डिस्ट्रिक्ट प्रोबेशन अफसर सुशील कुमार, संडीला के तहसीलदार पंकज सक्सेना, कानूनगो राम प्रकाश मिश्रा और बेनीगंज कोतवाल ने स्वाधार गृह का निरीक्षण किया. दोबारा निरीक्षण के बाद बताया गया कि रजिस्टर में 19 महिलाओें के नाम फर्जी हैं. जबकि स्वाधार गृह के संचालक मोहम्मद रजी और अधीक्षका आरती गृह में 21 महिलाओं के होने की बात पर अड़ी हैं. उनका कहना है कि जिलाधिकारी के निरीक्षण के समय संरक्षण गृह की महिलाओं मंदिर गई थीं. अधिकारियों को दोबारा निरीक्षण में उसी गृह में 13 महिलाएं मौजूद पाई गई थीं. जिला प्रशासन इस मसले पर चुप्पी साधे है कि स्वाधार गृह के रजिस्टर में दर्ज 19 महिलाओं के नाम फर्जी हैं, तो वे 13 महिलाएं कौन थीं जो मौके पर पाई गईं? दाल में काला है, लेकिन काला हटाने के बजाय प्रशासनिक अधिकारी दाल को घोंटने में लगे हैं. प्रशासन ने स्वाधार गृह के संचालक और अधीक्षिका के खिलाफ फर्जीवाड़ा करने और काम में लापरवाही बरतने का मुकदमा दर्ज कराने की औपचारिकता निभा ली है. दबाव बढ़ने पर जिला प्रशासन ने स्वाधार गृह की अधीक्षिका आरती को गिरफ्तार कर लिया है. संस्था का संचालक मोहम्मद रजी फरार बताया जा रहा है.

देवरिया के बाद भी खाल पर असर नहीं, लखनऊ में हालत बदतर
देवरिया घटना से भी महिला और बाल कल्याण महकमे से जुड़े अधिकारियों की गैंडे जैसी खाल पर कोई असर नहीं पड़ रहा है. राजधानी लखनऊ में जितने भी संरक्षण गृह, अनाथालय और रिमांड होम्स हैं, उनकी बदतर हालत की आधिकारिक पुष्टि हुई है. लखनऊ के जिलाधिकारी कौशलराज शर्मा द्वारा गठित आठ टीमों ने विभिन्न इलाकों में स्थित संरक्षण गृहों की जांच की तो हालात जघन्य स्थिति में पाए गए. पूरी रिपोर्ट सरकार के समक्ष पेश कर दी गई है. लेकिन इस रिपोर्ट में भी ‘लोचा’ है. रिपोर्ट में कुछ संस्थानों की मान्यता का ही जिक्र है, बाकी संस्थानों की मान्यता का कोई जिक्र नहीं है. इससे राजधानी लखनऊ में कई केंद्रों के अवैध रूप से चलने की आशंका है. शासन को पेश रिपोर्ट पर कार्रवाई कब होगी? इस पर एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी ने कहा, ‘भगवान जाने.’
बहरहाल, जिलाधिकारी द्वारा गठित टीमों ने लखनऊ के 23 बालिका केंद्रों और महिला संरक्षण गृहों की त्वरित जांच कराई. दर्जनभर से अधिक केंद्रों में कोई सुरक्षा गार्ड नहीं है और साफ-सफाई की स्थिति भयावह है. लखनऊ के माल इलाके में तिवारीखेड़ा स्थित कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय में जांच के दौरान आगंतुक रजिस्टर में गड़बड़ी पाई गई. लोग बालिका विद्यालय में धड़ल्ले से आते-जाते रहते हैं, लेकिन इसे रजिस्टर में दर्ज नहीं किया जाता. जांच करने पहुंचे मलिहाबाद के एसडीएम जयप्रकाश अग्निहोत्री ने मुख्य वॉर्डन रंजीता सिंह को नया रजिस्टर बनाने की सख्त हिदायत दी. राजकीय महिला शरणालय: प्राग नारायण रोड स्थित इस संस्था में पंजीकृत सभी 76 लड़कियां मौके पर पाई गईं, लेकिन शरणालय की सफाई और दूसरी व्यवस्था अराजक स्थिति में मिली. संस्था में एक भी महिला होमगार्ड तैनात नहीं है, जबकि 29 जुलाई को इस संस्थान से एक संवासिनी भाग चुकी है. दयानंद बाल सदन: मोतीनगर स्थित इस संस्था में रजिस्टर्ड सभी 30 लड़कियां मौके पर मिलीं. गंदगी का अंबार पाया. खंदारी बाजार के लखनऊ चिल्ड्रेन होम में रजिस्टर्ड सभी 17 लड़कियां मौके पर पाई गईं. इस संस्थान में कोई सुरक्षा गार्ड नहीं है. परिसर में अपार गंदगी मिली. इंदिरा नगर के स्नेह वेलफेयर सोसायटी (मानसिक महिला आश्रम गृह) में पंजीकृत सभी 14 युवतियां मौके पर पाई गईं. युवतियों ने जांच दल को बताया कि उन्हें न तो समय पर खाना दिया जाता है और निर्धारित मेनू का पालन होता है. संस्थान में सुरक्षा का भी की इंतजाम नहीं है. इंदिरा नगर के आशा ज्योति (मानसिक) में रजिस्टर्ड सभी 16 बालक मौके पर थे. सुरक्षा के लिए कोई गार्ड नहीं पाया गया. कमरों और परिसर में गंदगी पाई गई. अलीगंज स्थित श्रीराम औद्योगिक अनाथालय में रजिस्टर्ड सभी 9 लड़के और 12 लड़कियां मौके पर मिलीं. सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं पाया गया. त्रिवेणी नगर के गंगोत्री शिशु गृह में पंजीकृत सभी 12 बच्चे मौके पर पाए गए. सफाई की बेहद कमी पाई गई. छत पर बनी चारदीवारी इतनी छोटी पाई गई कि बच्चों के फांद कर भागने में कोई दिक्कत नहीं होगी. सुरक्षा का भी बंदोबस्त नहीं है. जानकीपुरम स्थित दृष्टि सामाजिक संस्थान में पंजीकृत सभी 212 लड़के-लड़कियां मौके पर मिलीं. लेकिन इस संस्थान में लड़के-लड़कियों की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है. मोहान रोड के ममता मानसिक मंदित बालिका विद्यालय में 18 लड़कियां रजिस्टर्ड हैं, लेकिन मौके पर सिर्फ 15 लड़कियां पाई गईं. बताया गया कि कि तीन लड़कियां घर गई हैं. मोहान रोड स्थित राजकीय संकेत मूक बधिर विद्यालय में 95 बच्चे रजिस्टर्ड हैं, लेकिन जांच के दौरान 17 लापता मिले. विद्यालय प्रबंधन ने बताया 17 बच्चे अपने घर गए हैं. विद्यालय के शौचालय में भीषण गंदगी पाई गई. मोहान रोड स्थित प्रयास विद्यालय में 39 बच्चे रजिस्टर्ड हैं, लेकिन उनमें से पांच बज्जे नदारद मिले. उनके बारे में भी कहा गया वे घर गए हैं. विद्यालय में रहन-सहन और कमरों की सफाई जघन्य हालत में मिली. मोहान रोड के ही राजकीय विशेषीकृत बालगृह में सभी 99 रजिस्टर्ड बच्चे मौके पर तो मिले, लेकिन बालगृह में गंदगी का अंबार मिला. सफाई का कोई इंतजाम ही नहीं है. मोहान रोड स्थित स्पर्श दृष्टि बाधित बालिका इंटर कॉलेज में 97 लड़कियां रजिस्टर्ड हैं, लेकिन मौके से पांच लड़कियां गायब मिलीं. कॉलेज में सुरक्षा को कोई इंतजाम नहीं मिला. मोतीनगर स्थित लीलावती मुंशी (बालिका) निराश्रित बालगृह में रजिस्टर्ड सभी 62 लड़कियां मौके पर मिलीं. सफाई की हालत बहुत खराब पाई गई. मोतीनगर स्थित राजकीय बालिका गृह में रजिस्टर्ड सभी 60 लड़कियां मौके पर मिलीं. लेकिन बालिका गृह के शौचालयों और परिसर में सफाई जघन्य हालत मिली. मोतीनगर स्थित राष्ट्रीय पश्चातवर्ती देखरेख संगठन (महिला) संस्थान में भी सभी 47 पंजीकृत बच्चे मौके पर मिले, लेकिन सफाई की स्थिति खराब मिली. गोलागंज स्थित ब्लू हैवन चिल्ड्रेन असाइलम में रजिस्टर्ड सभी 26 बच्चे मौके पर मिले. लेकिन यहां भी सफाई की हालत खराब है. चौक स्थित आल इंडिया शिया यतीमखाना में रजिस्टर्ड सभी 34 बच्चे मौके पर पाए गए. सफाई का इंतजाम संतोषजनक नहीं पाया गया. तकरोही स्थित स्वैच्छिक संस्था निर्वाण (बालिका) में रजिस्टर्ड सभी 90 बच्चे मौके पर पाए गए. संस्था में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं और गार्ड भी तैनात पाया गया. आलमबाग स्थित स्नेहालया में पंजीकृत सभी 18 लड़कियां मौके पर पाई गईं. भोजन के साथ सुरक्षा, सफाई और शौचालय की स्थिति अपेक्षाकृत सही पाई गई. अमीनाबाद स्थित मुमताज़ दारुल यतामा संस्थान में रजिस्टर्ड सभी 87 बच्चे मौके पर थे. सफाई का बेहतर इंतजाम नहीं मिला और एक ही गार्ड की तैनाती सुरक्षा व्यवस्था की खामी है. मोहनलालगंज स्थित डॉन बास्को में रजिस्टर्ड सभी 57 बच्चे मौके पर मिले. यहां भी महज एक गार्ड तैनात पाया गया. कुर्सी रोज स्थित स्वैच्छिक संस्थान आशीर्वाद ट्रस्ट में रजिस्टर्ड सभी 19 लड़कियां मौके पर मिलीं. भोजन व साफ-सफाई संतोषजनक पाई गई.

जिन्हें निगरानी करनी थी, वे सोए थे या मिले हुए थे?
निराश्रित महिलाओं, लड़कियों और बच्चों की संस्थाओं पर नजर रखने के लिए बनी संस्थाएं क्या कर रही थीं? आम लोग कहते हैं कि ये संस्थाएं भी अवैध धंधे में बराबर की लिप्त हैं. यह महज लापरवाही का मसला नहीं है. प्रशासन से लेकर पुलिस और महिला एवं बाल कल्याण विभाग की जिला इकाई से लेकर स्थानीय थाना, लोकल इंटेलिजेंस यूनिट (एलआईयू), बीट के सिपाही और एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग महकमे के अधिकारी-कर्मचारी आखिर क्या करते रहे कि जरायम धंधा निर्बाध गति से होता रहा? संरक्षण गृहों की लड़कियां दुराचारियों के लिए बाहर भेजी जाती रहीं, लेकिन किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया? यह केवल लापरवाही नहीं है. बात जिलाधिकारी से शुरू होती है. जिलाधिकारी की ड्यूटी में शामिल है संरक्षण और आश्रय गृहों का समय-समय पर औचक निरीक्षण करते रहना. फिर इस ड्यूटी का पालन क्यों नहीं किया गया? अगर यह ड्यूटी प्रतिबद्धता से की जाती तो क्या देवरिया जैसी घटना घटती? जिलों के एसपी क्या करते रहे? निराश्रित महिलाओं और बच्चियों से देह का धंधा कराया जाता रहा और एसपी को पता नहीं चला? यह असंभव है. संरक्षण गृहों का निरीक्षण करने के एकमात्र काम के लिए प्रत्येक जिले में प्रोबेशन अफसर तैनात हैं. वे क्या करते रहे? शासन के समक्ष डीपीओ की एक भी रिपोर्ट ऐसी नहीं है जो संरक्षण गृहों में चल रहे जरायम धंधे का जिक्र करती हो. पुलिस की स्थानीय खुफिया इकाई (एलआईयू) क्या करती रही कि उसे संरक्षण गृहों के धंधे की सूचना नहीं मिली? एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग सेल भी संदेह के घेरे में है. संरक्षण गृह की लड़कियों को देवरिया से गोरखपुर और अन्य स्थानों पर ले जाया जाता रहा, यहां तक कि विदेशों में भी भेज दिया गया, लेकिन सेल सोता रहा, या मिला रहा. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के उत्तर प्रदेश राज्य मंत्रिपरिषद ने देवरिया घटना पर निंदा प्रस्ताव पारित करते हुए सही कहा कि बच्चियों के साथ इस तरह का घोर अमानवीय नृशंसतम अपराध अधिकारियों और नेताओं के संरक्षण के बगैर संभव ही नहीं है. 

Monday 13 August 2018

गंदगी और गड्ढ़ों से भरे लखनऊ में सत्ता ने मनाया ‘स्मार्ट-सिटी’ महोत्सव

प्रभात रंजन दीन
बदसूरती पर पर्दा डाल कर मनाया गया सौंदर्य का सियासी उत्सव
शहर के बजाय आरोपों की सफाई, चुनाव के पहले निवेश-धुन बजाई
मोदी के स्वागत में योगी ने झोंक दिया सरकार का खजाना
मेहमानों के लिए फर्राटा भर रही थीं दो सौ लक्ज़री गाड़ियां
लखनऊ के सभी स्टार होटल पहले से बुक कर लिए गए थे
एयरपोर्ट से आयोजन स्थल तक थी वीवीआईपी शादी जैसी सजावट
वीआईपी इलाकों में दो दिन मनती रही दीवाली, बाकी डूबे रहे अंधेरे में
पीएम के चार बार आने-जाने के कारण शहर के आम लोग त्रस्त रहे

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपना बंगला सजाने-संवारने में लगे रहे और उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगवानी के लिए चमकदार पर्दे से राजधानी लखनऊ की असलियत को ढांकने का काम करते रहे. प्रधानमंत्री मोदी के साथ प्रमुख उद्योपतियों की लखनऊ निवेश-यात्रा की दूसरी किस्त को लेकर आम नागरिकों की राय यही थी. मोदी ने इस बार कहा कि पिछली सरकार के अलमबरदार का ‘वन पॉइंट प्रोग्राम’ था, अपना बंगला संवारना. मोदी ने ऐसे समय यह बात कही, जब बजबजाते लखनऊ की जगमग पर्देदारी के सत्ताई-कृत्य को लोग अपनी आंखों से देख रहे थे. उद्योगपतियों के शाहंशाहाना स्वागत की दूसरी किस्त अभी जुलाई महीने में हुई, उसका पहला एपिसोड फरवरी में प्रदर्शित हो चुका है. पहले खेप का नाम ‘इन्वेस्टर्स समिट’ रखा गया था. दूसरे एपिसोड का नाम ‘ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी’ रखा गया. आयोजनस्थल इंदिरा प्रतिष्ठान के चारों तरफ का रास्ता पुलिस ने सील कर रखा था. आम लोगों के लिए विकास के प्रदर्शन का आयोजन आम लोगों के देखने के लिए नहीं था. आम लोग शहर के विभिन्न नुक्कड़ों चौराहों पर जाम में फंसे ‘ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी’ का हूबहू हिंदी अनुवाद कर मजे ले रहे थे और समय काट रहे थे. ‘भूमि ध्वंस समारोह’ के जरिए विकास की कितनी मीनारें खड़ी हो पाएंगी, उसका आकलन सरकारों की पिछली करतूतों और अभी तक के अनुभवों से किया जा सकता है. दो दिवसीय आयोजन के बाद आयोजन स्थल के इर्द-गिर्द और मोदी के गुजरने वाले रास्ते से जब चमक-धमक हटाई जा रही थी और असलियत उघाड़ हो रही थी, तब आम लोगों को वोट के बाद के नेताओं के उघाड़-रवैये बेसाख्ता याद आ रहे थे. दो दिवसीय ‘ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी’ के आयोजन में प्रधानमंत्री शहरी आवास योजना, अमृत योजना और स्मार्ट सिटी मिशन की तीसरी वर्षगांठ का उत्सव समाहित था. ‘उत्सव’ 28 जुलाई को मना और ‘सेरेमनी’ 29 जुलाई को मनी.
उत्तर प्रदेश के ‘विकास-निवेश-महोत्सव’ के दूसरे अध्याय ‘ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी’ के लिए योगी सरकार ने प्रधानमंत्री मोदी और आगत अतिथियों के स्वागत में किस तरह खजाना खोल दिया, उसका थोड़ा जायजा लेते चलें. आयोजन स्थल तक आने-जाने के रास्ते और आसपास को शादी-ब्याह के मौके पर होने वाली साज-सज्जा के तर्ज पर झालर-बत्तियों से ढांप दिया गया था. पूरी लखनऊ पुलिस, पूरा नगर निगम, पूरा जिला प्रशासन आयोजन के बंदोबस्त में ही संलग्न था. राजधानी लखनऊ के सभी आलीशान सितारा होटल बुक कर लिए गए थे. शासन के निर्देश पर लखनऊ नगर निगम ने अतिथियों की अगवानी के लिए आलीशान किस्म की करीब दो सौ गाड़ियां किराए पर ले रखी थीं. इन गाड़ियों में इनोवा, फॉर्चुनर, हौंडा सिटी, सियाज से लेकर मर्सिडीज़ गाड़ियां तक शामिल हैं. इसके अलावा और ऊपर स्तर की 10 मर्सिडीज़ और 25 फॉर्चुनर गाड़ियां अलग से ली गई थीं जो थोड़ा और ऊपर के स्तर वाली ‘वीआईपी’ हस्तियों को ढो रही थीं. ये गाड़ियां 26 जुलाई को ही बुक कर ली गई थीं. जबकि आयोजन 28 और 29 जुलाई को था. मुख्यमंत्री आवास से लेकर आयोजन स्थल विभूति खंड तक धो-पोंछ कर बिजली-बत्ती-झालर से चकमका दिया गया था. इसी साल फरवरी महीने में हुए ‘इन्वेस्टर्स समिट’ के दौरान भी लखनऊ की सड़कों को सजाया गया था, लेकिन इस बार ‘ढांपने’ पर कुछ अधिक ही ध्यान दिया गया. आयोजन की खासियत यह भी रही कि जहां-जहां से प्रधानमंत्री और ‘वीआईपी’ हस्तियों का काफिला गुजरना था, वहां के खास-खास स्थानों पर अलग-अलग किस्म के सांस्कृतिक प्रदर्शन भी दिखाए जाते रहे. राज्य सरकार ने इस आयोजन पर धन झोंक दिया था और प्रधानमंत्री भी सरकारी धन पर खूब दरियादिली दिखा रहे थे. लखनऊ में प्रधानमंत्री का कार्यक्रम दो-दिवसीय था, लेकिन नरेंद्र मोदी को ‘खूबसूरत’ और ‘स्मार्ट-सिटी’ लखनऊ में रात्रि विश्राम करना गवारा नहीं हुआ. 28 जुलाई को प्रधानमंत्री का विशेष विमान लखनऊ आया. लखनऊ के पश्चिमी छोर पर स्थित हवाई अड्डे से लेकर लखनऊ के पूरबी छोर पर स्थित आयोजन स्थल तक पूरा शहर रुका रहा. प्रधानमंत्री के स्वागत के लिए हवाई अड्डा जाने वाले राज्यपाल राम नाईक, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह समेत कई मंत्रियों, नौकरशाहों और खास सियासी ‘लग्गुओं-भग्गुओं‘ के काफिले के लिए काफी पहले से ट्रैफिक रोक दिया गया था. प्रधानमंत्री के काफिले की लंबी कतार के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान तक पहुंचने का रास्ता पूरी तरह सील कर दिया गया था. 28 जुलाई को प्रधानमंत्री को लेकर विशेष विमान अमौसी हवाई अड्डे उतरा. फिर उसी दिन शाम को विमान उन्हें लेकर दिल्ली गया. 29 जुलाई को फिर मोदी को लेकर विशेष विमान लखनऊ आया और फिर शाम को रवाना हुआ. इस दरम्यान जितनी बार प्रधानमंत्री का काफिला और उनके पीछे लगी मुख्यमंत्री, राज्यपाल, केंद्रीय मंत्री, अन्य मंत्रियों और नौकरशाहों की गाड़ियां आती-जाती रहीं, रास्ता नागरिक-आवागमन के लिए पूरी तरह बंद रहा. प्रधानमंत्री के दो दिन में चार बार लखनऊ आने-जाने को लेकर नागरिकों को हुई परेशानी और सरकारी खजाने के खर्चे के औचित्य पर आम लोगों में सवाल उठ रहे हैं. इन चर्चाओं में फरवरी महीने में हुए ‘इन्वेस्टर्स समिट’ के दौरान हुए एलईडी लाइट घोटाले की भी खास चर्चा रही. इस बार भी खास इलाके एलआईडी लाइटों से जगमगाते रहे. नागरिकों की सेवा में आर्थिक किल्लत का रोना रोने वाले नगर निगम की ‘ग्राउंड ब्रेकिंग’ दरियादिली देखते ही बन रही थी. शहर की जर्जर हालत, गड्ढों से भरी लखनऊ की सड़कें, गंदगी से बजबजाते मोहल्ले, उसी स्मार्ट सिटी की असलियत हैं, जिस पर मोदी और योगी मंच से इतरा रहे थे. राजधानी के आम नागरिकों के साथ-साथ प्रमुख बुद्धिजीवियों और ईमानदार छवि वाले नेताओं ने कहा कि प्रधानमंत्री के स्वागत में आम लोगों का धन इस तरह बर्बाद करना बिल्कुल अनुचित और अवांछनीय है. इस पैसे का इस्तेमाल शहर की गंदगी दूर करने में, सड़कों का गड्ढा भरने में, दूषित जलापूर्ति ठीक करने में, जल भराव हटाने और बिजली समस्या दूर करने में किया जा सकता था. उल्लेखनीय है कि दो दिवसीय सरकारी आयोजन की चकाचौंध में इतनी बिजली जलाई गई कि शहर के कई इलाकों मसलन, चिनहट, गोमतीनगर विस्तार, खुर्रम नगर, कुर्सी रोड, सरोजनी नगर, कृष्णानगर, अमौसी, बिजनौर जैसे इलाकों में रात-रात भर बिजली सप्लाई बंद रही. यह चर्चा का हिस्सा नहीं, बल्कि आधिकारिक तथ्य है.
बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी’ का उद्घाटन कांग्रेस पर सीधे प्रहार से किया. कहा, ‘मेरे ऊपर इल्जाम लगाया गया कि मैं भागीदार हूं. लेकिन मैं इसे इल्जाम नहीं, इनाम मानता हूं. मैं भागीदार हूं. मैं उस कोशिश का भागीदार हूं, जो गरीबों के सिर पर छत मुहैया करवाए. मैं बीमारी से जूझ रहे लोगों के इलाज का भागीदार हूं. पीने के लिए साफ पानी देने की कोशिशों का भागीदार हूं. मैं भागीदार हूं बेरोजगारों की मदद करने का. मैं भागीदार हूं उस मां की पीड़ा का जो चूल्हे से आंखें खराब कर लेती है. मैं उस चूल्हे को बदलने का भागीदार हूं. मैं उस किसान का भागीदार हूं, जिसकी फसल खराब हो जाती है. उस फौजी का भागीदार हूं, जो विपरीत परिस्थितियों में देश की रक्षा करता है.’ इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान के ठीक बगल में स्थित लोहिया अस्पताल में इलाज के लिए आने वाले बीमार लोगों की ‘सील्ड’ सड़कों पर अटकी पड़ी भीड़ प्रधानमंत्री के डायलॉग के यथार्थ से रूबरू हो रही थी. नरेंद्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को लखनऊ को सुधार की प्रयोगशाला बनाने का श्रेय दिया और कहा कि लखनऊ उनकी कर्मभूमि है. मोदी ने प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर भी कटाक्ष किया और कहा कि अपना बंगला सजाना-संवारना ही उनका ‘वन पॉइंट प्रोग्राम’ था. प्रधानमंत्री ने यूपी के लिए आवास, पेयजल और बुनियादी सुविधाओं की 3397 करोड़ रुपए की 99 परियोजनाओं का लोकार्पण और शिलान्यास किया और यह वादा किया कि वर्ष 2022 तक हर व्यक्ति के सिर पर छत होगी. मोदी ने कहा कि आजादी के बाद से देश के शहरों को भविष्य की आवश्यकताओं के हिसाब से विकसित नहीं किया गया. शहर बेतरतीब और अव्यवस्थित तरीके से फैले. इसका बुरा असर शहरवासी भुगत रहा है. देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में शहरों की 65 प्रतिशत हिस्सेदारी है. लिहाजा, शहर अव्यवस्थित और अविकसित रहेंगे तो विकास बाधित होगा और ऐसी स्थिति में 21वीं सदी का भारत पारिभाषित नहीं किया जा सकेगा. इसी सोच के तहत भारत के सौ शहरों को स्मार्ट सिटी मिशन के लिए चयनित किया गया, जिन्हें विकसित करने के लिए दो लाख करोड़ रुपए के निवेश की योजनाएं बनी हैं. मोदी ने कहा कि स्मार्ट सिटी सिर्फ एक प्रोजेक्ट नहीं, बल्कि देश को बदलने का मिशन है. चयनित सौ शहरों में से 11 ने काम करना शुरू कर दिया है. अगले कुछ महीनों में 50 शहरों में किए जा रहे कार्यों के परिणाम मिलने लगेंगे. शहरों में न सिर्फ नई व्यवस्था का निर्माण हो रहा है, बल्कि वैकल्पिक फंडिंग के तहत पुणे, हैदराबाद और इंदौर में म्युनिसिपल बॉन्ड के जरिए करीब 550 करोड़ रुपए जुटाए गए हैं. उत्तर प्रदेश के लखनऊ और गाजियाबाद शहर भी इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और आने वाले समय में फंडिंग की वैकल्पिक व्यवस्था म्युनिसिपल बॉन्ड के माध्यम से की जाएगी. मोदी ने कहा कि स्मार्ट सिटी मिशन के तहत देशभर में सात हजार करोड़ रुपए से अधिक की योजनाओं का काम पूरा हो चुका है. 52 हजार करोड़ रुपए की योजनाओं पर तेजी से काम चल रहा है. वर्ष 2022 तक भारत की आजादी के 75 वर्ष होने पर प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर छत होगी. बीते तीन वर्षों में शहरों के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना शहरी के तहत 54 लाख आवास स्वीकृत किए जा चुके हैं. सिर्फ शहरों में ही नहीं, गांवों में भी एक करोड़ से अधिक आवास जनता को दिए जा चुके हैं. मोदी बोले कि ये आवास महिलाओं के सशक्तिकरण का भी सबूत हैं. बीते तीन वर्षों में 87 लाख महिलाओं के नाम या उनके साथ साझेदारी पर प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत उपलब्ध कराए गए आवास की रजिस्ट्री की जा चुकी है.
इस मौके पर मोदी ने प्रधानमंत्री शहरी आवास योजना के तहत ऋण प्रदान करने में अच्छा काम करने वाले एचडीएफसी और एसबीआई बैंकों को पुरस्कृत किया. पुणे, हैदराबाद और इंदौर को म्युनिसिपल बॉन्ड द्वारा फंडिंग का इंतजाम करने के लिए पुरस्कृत किया गया. पुणे को गुड गवर्नेंस के लिए पुरस्कार दिया गया. अहमदाबाद और भोपाल को इन्नोवेटिव आइडिया के लिए बेस्ट इन्नोवेटिव अवार्ड से पुरस्कृत किया गया. स्मार्ट सिटी मिशन के तहत सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए सूरत को बेस्ट परफॉर्मिंग सिटी का अवार्ड दिया गया. प्रधानमंत्री शहरी आवास योजना के यूपी के 60 हजार 426 लाभार्थियों के बैंक खाते में 606.85 करोड़ रुपए ऑनलाइन ट्रांसफर भी किए गए.
आयोजन के दूसरे दिन ‘ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी’ में प्रधानमंत्री ने 60 हजार करोड़ रुपए के 81 निवेश की परियोजनाओं की शुरुआत की और कहा कि यह उत्तर प्रदेश सरकार के लिए अद्भुत और अभूतपूर्व उपलब्धि है. मोदी ने सफाई भी दी कि अगर नीयत साफ हो तो उद्योगपतियों के साथ खड़े होने से दाग नहीं लगते. मोदी इसी मंच के जरिए उन आरोपों का खंडन प्रस्तुत कर रहे थे, जिसमें उन्हें उद्योगपतियों को बेजा लाभ पहुंचाने की शिकायतों में घेरा जाता है. मोदी ने कहा, 'हम उन लोगों में से नहीं हैं, जो उद्योगपतियों के साथ खड़े होने या फोटो खिंचवाने से डरते हैं. ऐसे भी लोग हैं, जिनकी उद्योगपतियों के साथ तस्वीरें तो नहीं हैं, लेकिन ऐसा कोई उद्योगपति नहीं, जिसने उनके घर पर साष्टांग दंडवत न किया हो.' मोदी ने समारोह में उपस्थित पूर्व सपा नेता अमर सिंह का जिक्र किया और कहा, 'अमर सिंह यहीं बैठे हैं, ये नेताओं के यहां दंडवत करने वाले सारे पूंजीपतियों की हिस्ट्री निकाल कर रख देंगे.' मोदी ने कहा कि बापू को बिड़ला के यहां रहने में कभी संकोच नहीं हुआ, क्योंकि उनकी नीयत साफ थी. जब नीयत साफ हो, इरादे नेक हों तो किसी के भी साथ खड़े होने से दाग नहीं लगते. जिस तरह देश को बनाने में किसान, मजदूर, कारीगर, सरकारी कर्मचारी, बैंकर की मेहनत होती है. वैसे ही देश को बनाने में उद्योगपतियों की भी मेहनत है. हम उन्हें चोर-लुटेरा कहेंगे, उन्हें अपमानित करेंगे? यह कौन सा तरीका है, लेकिन अगर कोई कुछ गलत करेगा, उसे या तो देश छोड़कर भागना पड़ेगा या फिर जेल जाना पड़ेगा. पहले ऐसा नहीं होता था क्योंकि बहुत कुछ परदे के पीछे होता था. कौन किसके जहाज में बैठता था, पता नहीं है क्या? मोदी ने कहा, ‘कुछ लोग हमारे पीछे पड़े हैं. जो लोग मेरे खिलाफ मामले ढूंढ रहे हैं. उनके खिलाफ सबसे ज्यादा मामले निकलेंगे. मेरे खाते में तो बस चार साल हैं, जबकि उनके खाते में तो 70 साल हैं.’
मोदी ने फरवरी महीने में आयोजित हुए ‘इन्वेस्टर्स समिट’ का संदर्भ लेते हुए कहा कि उस आयोजन के महज पांच महीने के अंदर 60 हजार करोड़ रुपए की परियोजनाओं को धरातल पर उतारने का प्रयास सराहनीय होने के साथ-साथ आश्चर्यचकित करने वाला भी है. प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की खूब प्रशंसा की. फरवरी 2018 में आयोजित ‘इन्वेस्टर्स समिट’ में लगभग सवा चार लाख करोड़ रुपए के निवेश का प्रस्ताव आया था. पांच महीने में इनमें से 60 हजार करोड़ रुपए की परियोजनाएं कार्यरूप में धरातल पर उतरीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मौके और मंच का पूरा फायदा उठाया और विकास के तमाम जुमले, मसलन, ‘होलिस्टिक विजन’, ‘इन्क्लूसिव एक्शन’, न्यू इंडिया, इंटेलीजेंट अर्बन सेंटर्स, इंटीग्रेटेड कमांड सेंटर, म्युनिसिपल बॉन्ड, ईज़ ऑफ लिविंग, ‘ईज़ ऑफ गेटिंग इलेक्ट्रिसिटी’, ‘इन्टेन्ट एंड इन्वेस्टमेंट’,  जैसी अनगिनत शब्दावलियां उछालकर लोगों को सियासी-जादू दिखाते रहे. बिजली-पानी-गंदगी-गड्ढों में फंसी हुई यूपी की आम जनता चकाचौंध भरे दो दिवसीय आयोजन के समाप्त होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उन भारी-भारी जुमलों का जमीनी अर्थ और औचित्य तलाशने में लगी हुई है.
‘ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अच्छी सड़कों को विकास की मुख्य शर्त और कारक बता रहे थे तो आयोजन में मौजूद लखनऊ के जानकार लोग और पत्रकार मुस्कुरा रहे थे और लखनऊ की गड्ढों से भरी सड़कों को लेकर हास-परिहास कर रहे थे. कई लोगों ने यह कल्पना भी कर डाली कि लखनऊ की पर्देदारी से अलग वाली सड़कों के औचक निरीक्षण पर प्रधानमंत्री अचानक निकल पड़ें तो योगी सरकार को गड्ढे में धकेलने वाले उपमुख्यमंत्री और सड़क की मरम्मत के जिम्मेदार विभाग पीडब्लूडी के मंत्री केशव प्रसाद मौर्य का क्या होगा! खैर, प्रधानमंत्री भी चमक-दमक के प्रायोजन से वाकिफ हैं, इसलिए औचक निरीक्षण की बातें तो आम नागरिक की आम कल्पना ही हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रधानमंत्री शहरी आवास योजना, अमृत योजना और स्मार्ट सिटी मिशन की तीसरी वर्षगांठ के आयोजन के लिए लखनऊ को चुने जाने पर प्रधानमंत्री के प्रति आभार जताया और कहा कि इन योजनाओं की सफलता में उत्तर प्रदेश की बड़ी भूमिका है. उत्तर प्रदेश की 21 प्रतिशत आबादी शहरों में निवास करती है. देशभर में सबसे अधिक 653 नगर निकाय उत्तर प्रदेश में हैं. योगी ने दावा किया कि यूपी के शहरी लोगों को योजना से लाभ मिल है. योगी ने कहा कि प्रधानमंत्री शहरी आवास योजना के तहत पिछले एक वर्ष में चार लाख 32 हजार आवास दिए गए. योगी ने यह भी कहा कि स्वच्छ भारत मिशन पर भी उत्तर प्रदेश में तेजी से काम हो रहा है. योगी की इस बात पर लखनऊ शहर की गंदगी पर सरकार के नाकारेपन के खिलाफ अभियान चलाने वाले विजय गुप्ता कहते हैं, ‘उन्हें कहने दीजिए. कहने में क्या हर्ज है! राजनीति में सच का क्या स्थान! नेताओं को वास्तविकता से क्या लेना-देना है इसे सब जानते हैं!
मुख्यमंत्री ने कहा कि 15 जुलाई 2018 से प्रदेश में 50 माइक्रॉन से कम की पॉलिथीन के इस्तेमाल  पर पाबंदी लगाई जा चुकी है और आने वाले समय में प्लास्टिक के कप और प्लेटों को भी प्रतिबंधित किया जाएगा. स्मार्ट सिटी के तहत सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को सुधारा जा रहा है. तीन शहरों में मेट्रो रेल का संचालन हो रहा है. आने वाले समय में मेट्रो रेल के संचालन का काम अन्य शहरों के लिए भी किया जा रहा है. योगी ने कहा कि छह लाख 35 हजार एलईडी स्ट्रीट लाइटों को नगर निकायों में बदला गया है जिनसे 115 करोड़ रुपए की बचत हुई है. प्रदेश के 10 शहर स्मार्ट सिटी के लिए चयनित किए गए हैं, जिनके विकास का कार्य चल रहा है. पूरी प्रतिबद्धता के साथ शहरों का नियोजित और व्यवस्थित विकास किया जा रहा है. प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित परियोजनाओं की जिलावार हिस्सेदारी का ब्यौरा देते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि क्षेत्रवार ढंग से इन परियोजनाओं की 50 प्रतिशत हिस्सेदारी पश्चिमी उत्तर प्रदेश, 22 प्रतिशत पूर्वी उत्तर प्रदेश, 23 प्रतिशत केंद्रीय उत्तर प्रदेश और चार प्रतिशत बुंदेलखंड में है. निवेश का विश्लेषण यह है कि खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में 17 प्रतिशत निवेश हुआ है. जबकि भारी उद्योग में 30 प्रतिशत निवेश आया है. सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योग के क्षेत्र में महज 6.2 प्रतिशत, डेयरी क्षेत्र में मात्र पांच प्रतिशत और पशुपालन के क्षेत्र में मात्र चार प्रतिशत का निवेश आया है.
योगी ने कहा कि पहले जो निवेशक प्रदेश से बाहर जाना चाहते थे, अब वे बाहर नहीं जाना चाहते, बल्कि अपनी परियोजनाओं का विस्तार कर रहे हैं. पहले प्रदेश में ऐसा निराशापूर्ण माहौल था कि कोई निवेशक आने को तैयार नहीं था. योगी ने कहा कि अभी 60 हजार करोड़ की परियोजनाओं का शिलान्यास हुआ. इसके अलावा 50 हजार करोड़ की परियोजनाएं पाइपलाइन में हैं. इन परियोजनाओं को भी जल्द जमीन पर उतारा जाएगा. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री आवास योजना, अमृत योजना और स्मार्ट सिटी मिशन की तीसरी वर्षगांठ को विकास पर्व बताया और कहा कि वर्ष 2022 तक नए भारत के निर्माण का सपना पूरा होगा. केंद्रीय आवास एवं शहरी कार्य राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) हरदीप सिंह पुरी ने कहा कि प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत एक करोड़ आवास बनाए जाएंगे, जिनमें से 54 लाख स्वीकृत किए जा चुके हैं, इससे वर्ष 2022 तक हर परिवार को छत मिलने का सपना साकार होगा. इस दो दिवसीय आयोजन में प्रधानमंत्री के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक, उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, डॉ. दिनेश शर्मा, नगर विकास मंत्री सुरेश कुमार खन्ना, औद्योगिक विकास मंत्री सतीश महाना समेत कई मंत्री, अधिकारी, कई शहरों के महापौर और प्रमुख उद्योगपति शरीक हुए. कार्यक्रम को उद्योगपति कुमार मंगलम बिरला, गौतम अडानी, सुभाष चन्द्रा, संजीव पुरी, युसुफ अली और बीआर शेट्टी ने भी सम्बोधित किया.

यूपी वालों को नहीं मिला कोई ईनाम
प्रधानमंत्री की तमाम योजनाओं की उत्तर प्रदेश में कामयाबी के तो बड़े-बड़े दावे किए जाते रहे हैं, लेकिन किए गए काम पर पुरस्कृत करने और इनाम देने का समय आया तो उत्तर प्रदेश से कोई विभाग या की अधिकारी नहीं चुना गया. समारोह में ईडब्ल्यूएस क्रेडिट स्कीम में सबसे अच्छा प्रदर्शन के लिए एचडीएफसी बैंक को पुरस्कृत किया गया. एमआईजी के लिए लोन देने में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने के लिए एसबीआई को पुरस्कृत किया गया. अमृत योजना के तहत म्युनिसिपल बॉन्ड जारी करने के लिए पुणे, हैदराबाद और इंदौर को पुरस्कृत किया गया. स्मार्ट सिटी में गुड गवर्नेंस के लिए पुणे को सम्मानित किया गया. स्मार्ट सिटी में इनोवेटिव आइडिया के लिए भोपाल और अहमदाबाद को सम्मानित किया गया. स्मार्ट सिटी में सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए सूरत को सम्मानित किया गया. लखनऊ या यूपी का कोई भी शहर ठनठन-गोपाल ही रह गया.

आयोजन पर बेपनाह खर्च, शासन ने चुप्पी साधी
लखनऊ में फरवरी महीने में हुए ‘इन्वेस्टर्स समिट’ के सजावट पर आधिकारिक तौर पर 65 करोड़ 15 लाख रुपए खर्च हुए थे. इसमें सबसे अधिक खर्च लखनऊ नगर निगम ने किया था. आम नागरिकों की सेवा के नाम पर आर्थिक बदहाली का रोना रोने वाले लखनऊ नगर निगम ने ‘इन्वेस्टर्स समिट’ की साज-सज्जा पर 24 करोड़ 25 लाख रुपए खर्च किए थे. इस बार के दो दिवसीय आयोजन पर नगर निगम ने कितना धन न्यौछावर किया, इसका हिसाब आना अभी बाकी है. ‘इन्वेस्टर्स समिट’ के नाम पर पीडब्लूडी ने 12.5 करोड़ खर्च रुपए किए थे. लखनऊ विकास प्राधिकरण (एलडीए) ने 13 करोड़ आठ लाख रुपए खर्च किए थे. इस बार के आयोजन पर हुए खर्च पर सरकार और नौकरशाह फिलहाल चुप्पी साधे बैठे हैं. जबकि जानकारों का कहना है कि इस बार का खर्च पिछले आयोजन की तुलना में बहुत अधिक है.

अमर सिंह की मौजूदगी और मोदी की तवज्जो
लखनऊ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो दिवसीय कार्यक्रम में पूर्व सपा नेता अमर सिंह की मौजूदगी और मोदी की तवज्जो खास तौर पर चर्चा में रही. अपने भाषण में मोदी ने अमर सिंह का जिक्र करते हुए यहां तक कह दिया कि कौन-कौन पूंजपति किन-किन नेताओं के यहां दंडवत होते हैं, इसका पूरा कच्चा चिट्ठा अमर सिंह के पास है. फिर क्या था, भाजपा मंडली में भी चारो तरफ अमर सिंह छा गए. दो दिवसीय आयोजन के पहले 23 जुलाई को भी अमर सिंह की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ मुलाकात हुई थी. लेकिन तब इतनी चर्चा सरगर्म नहीं हुई. जब मोदी की सभा में अमर सिंह की प्रभावशाली मौजूदगी दर्ज हुई और मोदी ने उनकी चर्चा की तब जाकर भाजपाइयों को लगा कि मामला तो सीरियस है. इसके बाद ही अमर सिंह के भाजपा में शामिल होने, आजमगढ़ से लोकसभा का चुनाव लड़ने जैसी तमाम बातें हवा में तैरने लगीं. योगी से अदावत रखने वाले सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता और प्रदेश सरकार में मंत्री ओमप्रकाश राजभर ने फौरन ही अमर सिंह के लिए अपनी पार्टी से टिकट देने का प्रस्ताव भी उछाल मारा. लेकिन अमर सिंह ने इस सारे कयासों को रोकते हुए भाजपा में शामिल होने से लेकर आजमगढ़ से चुनाव लड़ने तक की बात को नकार दिया. अमर सिंह ने कहा कि वे मोदी और योगी के लिए चुनाव में काम करेंगे और बुआ-बबुआ (मायावती-अखिलेश) को धूल चटाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देंगे. अमर सिंह ने कहा, ‘मैं भाजपा में शामिल होने का प्रयास नहीं कर रहा हूं. मैं मोदी जी को पसंद करता हूं और उनके समर्थन में खड़ा हूं. मैं अमर सिंह हूं और मेरे नाम की जो भी हैसियत है, वह योगी और मोदी के लिए है न कि बुआ-बबुआ  के लिए.’

मोदी-अमर निवेश-उत्सव में खो गया सपा सम्मेलन
राजधानी लखनऊ में जिस समय निवेश उत्सव मनाया जा रहा था और मोदी-अमर उवाच चल रहा था, उसी समय समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सम्मेलन भी चल रहा था. लेकिन सपा के सम्मेलन की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया और न उसे अखबारों में प्रमुखता मिली. सपा नेतृत्व ने कोई उल्लेखनीय सार्थक कृत्य भी नहीं किया. सपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मुलायम सिंह यादव को आमंत्रित नहीं किया जाना अशोभनीय कृत्य माना जा रहा है. इसी तरह सपा नेता आजम खान और शिवपाल यादव को भी बैठक में नहीं बुलाया गया. इन नेताओं की अनुपस्थिति को लेकर पूछे गए सवाल पर रामगोपाल यादव ने गैर-राजनीतिक और गैर-मर्यादित रवैया अख्तियार करते हुए कहा, ‘जरूरी नहीं कि सब लोग आएं.’ सपा की कार्यकारिणी किसी तरह बैठक निपटा ली गई और सदस्यों ने चुनावी गठबंधन से लेकर सीटों के एडजस्टमेंट और तमाम अन्य मसलों पर फैसला लेने के लिए राष्ट्रीय अध्यक्ष यानि, अखिलेश यादव को अधिकृत करने की रुटीन औपचारिकता निभा ली.

यूपी के किस हिस्से को किस प्रोजेक्ट का झुनझुना
पश्चिमी उत्तर प्रदेश : 81 में से 41 प्रोजेक्ट पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगाए जाएंगे. इसमें मुख्य रूप से टेग्ना इलेक्ट्रॉनिक्स, इन्फोसिस, टीसीएस, पतंजलि, लुलू ग्रुप जैसी मशहूर कंपनियां यूपी में काम करेंगी. इनमें ज्यादातर कंपनियां आईटी क्षेत्र हैं. इसके अलावा लुलू ग्रुप ने भविष्य में नोएडा और वाराणसी में भी मॉल बनाने की बात कही है.
पूर्वी उत्तर प्रदेश : पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा स्थान पूर्वी उत्तर प्रदेश का है जहां विभिन्न कंपनियों ने निवेश करने में रुचि दिखाई है. 18 कंपनियों ने अपने प्रोजेक्ट्स की शुरुआत की. इसमें गोरखपुर में स्टील प्लांट लगाया जाना है. इसके अलावा एम प्लस एनर्जी मीरजापुर में सोलर प्लांट लगाएगी. अग्रहरि फूड्स अमेठी में डेयरी प्लांट लगाएगा. इसके अलावा उबर वाराणसी, लखनऊ और गोरखपुर में उबर मोटो सर्विसेज की शुरुआत करेगी.
मध्य उत्तर प्रदेश : मध्य उत्तर प्रदेश में 16 विभिन्न कंपनियां निवेश करने जा रही हैं. इसमें स्पर्श इंडस्ट्रीज 600 करोड़ के निवेश से कानपुर देहात में सीपीपी फिल्म, अल्युमिनियम फॉयल और पॉलिस्टर फॉयल बनाने का प्लांट लगाएगी. इसके अलावा एसएलएमजी ब्रीवरेज लखनऊ में अपना बॉटलिंग प्लांट लगाएगी. ग्रीनप्लाई इंडस्ट्रीज हरदोई में प्लाईवुड मैनुफैक्चरिंग प्लांट लगाएगी. इसमें कंपनी 500 करोड़ रुपए का निवेश करेगी.
बुंदेलखंड : बुंदेलखंड में मात्र दो कंपनियां निवेश कर रही हैं. इनमें इंडो गल्फ एक्सप्लोसिव्स झांसी में एक्सप्लोसिव मैनुफैक्चरिंग यूनिट लगाएगी. इसके अलावा आरएसपीएल डिटर्जेंट प्लांट लगाएगी.
लखनऊ को मिले सात प्रॉजेक्ट : लखनऊ के 1417.74 करोड़ की सात परियोजनाओं का भी शिलान्यास हुआ. इनमें पीटीसी इंडस्ट्रीज 205 करोड़, अनहिता हॉस्पिटैलिटी एलएलपी 75 करोड़, डेस्टिनी हॉस्पिटैलिटी सर्विस 800 करोड़, कैरा लाइसस्पेस 100 करोड़, श्री केएलएस मेमोरियल सोसाइटी 100 करोड़, पुरुषोत्तम राम फूड्स इंडस्ट्रीज 37.74 करोड़ और उबर 100 करोड़ रुपए का निवेश करेगी.
रायबरेली में मिल्क प्लांट : रायबरेली में एक लाख लीटर प्रतिदिन क्षमता का मिल्क प्रॉसेसिंग प्लांट लगाया जाएगा. यह प्रोजेक्ट पीएचडी चैंबर के को-चेयरमैन मुकेश बहादुर सिंह की कंपनी एसबीएस प्रॉडक्ट्स एंड सर्विसेज लगा रही है.