प्रभात रंजन दीन
केंद्र सरकार ने नोटबंदी का फैसला काले धन पर
लगाम लगाने के लिए नहीं बल्कि आर्थिक नुकसान के कारण हांफ रही मौद्रिक स्थिति को
गति में लाने के लिए लिया. काले धन पर लगाम कसने का इरादा रहता तो नोटबंदी के
फैसले के साथ ही केंद्र सरकार उन पूंजीपतियों और नेता बने उद्योगपतियों की लिस्ट
भी सार्वजनिक करती जो बैंकों के अरबों रुपये इरादतन हड़प कर बैठ गए. केंद्र सरकार
उन बैंकों के चेयरमैन और शीर्ष प्रबंधकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की घोषणा करती
जिनकी मिलीभगत से धन्नासेठों ने बैंकों के रुपये हड़पे और देश के आम लोगों को भयंकर
तकलीफ में डाल दिया. नोटबंदी के जरिए केंद्र सरकार ने आम लोगों का पैसा बैंकों में
जबरन जमा करवा कर बैंकों और वित्तीय संस्थानों के अब तक के सारे घाटों की भरपाई कर
ली. इस तरह बैंकों के ऋण के अरबों रुपये हड़पने का नियोजित अपराध करने वाले
राष्ट्रविरोधी धनपतियों और उनके साथ साठगांठ रखने वाले बैंकों की तो मौज हो गई.
सारी तकलीफें आम लोगों को उठानी पड़ीं, जिनके पैसे बैंकों में जमा हुए, लेकिन काम के समय वे उसे निकाल नहीं पाए. इस वजह से देश के लोगों का
देश के बैंकिंग सिस्टम से भरोसा हिल गया.
तथ्यों और परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को सामने
रखते हुए यह कहा जा सकता है कि बैंकों, पूंजीपतियों, नेताओं
और नौकरशाहों की साठगांठ से जो देश का सबसे बड़ा सिलसिलेवार करेंसी घोटाला हुआ, नोटबंदी के फैसले ने उसकी एकबारगी
लीपापोती कर दी. नोटबंदी का फैसला उस नियोजित और व्यापक घोटाले से खाली हुए खजाने
को भरने के लिए लागू किया गया, जिसने
खजाना भी भर दिया और विशाल करेंसी घोटाले को कब्र में भी डाल दिया. सबसे बड़े
करेंसी घोटाले के ‘नेक्सस’ से देश के वित्त मंत्री, वित्त सचिव, कैबिनेट सचिव, आर्थिक मामलों के सचिव समेत कई प्रमुख
लोग जुड़े दिखते हैं. आप इस ‘नेक्सस’ का अंदाजा इस बात से ही लगा सकते हैं
कि नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल के सदस्य वाईएस चौधरी बैंक ऋण के सैकड़ों करोड़ रुपये
इरादतन डकार जाने वाले महामूर्धन्यों में शामिल हैं, लेकिन प्रधानमंत्री की निगाह उन पर नहीं जाती. बैंकों का ऋण
सुनियोजित घोटाले का लंबे अरसे से जरिया बना रहा. नेता, उद्योगपति, बैंक और नौकरशाह मिल कर खजाना लूटते
रहे और हम काला धन-काला धन रटते और बेवकूफ बनते रह गए. यह घोटाला अथाह है और इसे
सोचे-समझे तरीके से गुत्थियों में उलझा कर रखा गया है. इसकी गहराई में उतरते चले
जाएं तो आपको भीतर की भीषण भूलभुलैया का अहसास होगा, तल का अंदाजा तो मिलेगा ही नहीं. बैंक ऋण घोटाला और नोटबंदी उन्हीं
गुत्थियों और भूलभुलैया का हिस्सा हैं.
बैंकों के ऋण के अरबों रुपये इरादतन हड़पने
वाले विजय माल्या या ललित मोदी जैसे कुछ धन्नासेठों का नाम आपने सुना, लेकिन अधिकांश नाम गोपनीय ही रह गए. ‘चौथी दुनिया’ के पास करीब साढ़े छह हजार अन्य
उद्योपतियों की लिस्ट उपलब्ध है,
जिनके द्वारा हड़पी गई ऋण राशि कुल 4903180.79 लाख रुपये है. उन छह
हजार प्रमुख उद्योगपतियों के नाम भी हमारे पास हैं, जिन्होंने विभिन्न बैंकों के ऋण के 53,144.54 करोड़ रुपये हड़प लिए.
बैंकों का ऋण हड़पने वाले व्यापारियों, पूंजीपतियों, उद्योगपतियों
और उनका साथ देने वाले बैंकों की सूची काफी लंबी है, लिहाजा हम उसे क्रमवार छापते रहेंगे.
इन्हीं में से एक नाम है मोदी सरकार में मंत्री
वाईएस चौधरी का, जो
घोषित ‘विलफुल डिफॉल्टर’ हैं. यानि, मंत्री महोदय ने इरादा बना कर नियोजित
तरीके से बैंक ऋण के सैकड़ों करोड़ रुपये हड़प लिए. वाईएस चौधरी की कंपनी सुजाना
मेटल्स का बैंकों से लिया गया ऋण पांच साल में 765 करोड़ रुपये से बढ़ कर 1572
करोड़ रुपये हो गया. जबकि कंपनी का लाभ उन पांच वर्षों में महज 26 करोड़ रहा.
कंपनी का मार्केट-कैपिटलाइजेशन महज 75 करोड़ रुपये था, फिर बैंकों ने अनाप-शनाप लोन क्यों दि
दिए? यह सवाल हवा में
ही रह गया और 2013 में कंपनी को सीडीआर बेलआउट पैकेज का लाभ देकर डिफॉल्टर होने के
दाग से मुक्त करने का कुचक्र रच दिया गया. इसी तरह सुजाना टावर्स का टर्नओवर 1803
करोड़ रुपये था जबकि बैंकों का बकाया दो हजार करोड़ रुपये. इस कंपनी को भी सीडीआर
(कॉरपोरेट डेब्ट रीस्ट्रक्चरिंग) बेलआउट पैकेज देकर मुक्त कर दिया गया. सुजाना
युनिवर्सल का नेट लाभ 1 प्रतिशत से कभी ऊपर नहीं गया. इसके बावजूद इसे ऋण देने का
सिलसिला जारी रहा और वह 195 करोड़ से बढ़ता हुआ 425 करोड़ रुपये तक चला गया.
बैंकों पर इस कंपनी का बकाया 1609 करोड़ रुपये है. सेंट्रल बैंक और बैंक ऑफ इंडिया
के डिफॉल्टरों की लिस्ट में इस कंपनी का नाम शामिल है, जिसने इन दो बैंकों के 920 करोड़ रुपये
नहीं दिए.
बैंकों के ऋण के रुपये खाने का लंबे अरसे से चल
रहा सिलसिलेवार घोटाला देश का ही नहीं, विश्व का अब तक का सबसे बड़ा घोटाला है. इसमें बैंकों की पूरी
मिलीभगत है. बैंकों ने उद्योगपतियों के साथ मिल कर यह घोटाला किया. एनपीए के टैग
से बचने के लिए बैंकों द्वारा उद्योगपतियों को लोन पर लोन दिए जाते रहे.
उद्योगपतियों के बकाये को दीर्घ अवधि ऋण (लौंग टर्म लोन) के रूप में बदला जाता रहा
और मिलीभगत से खजाना सोखा जाता रहा. बैंकों पर बड़े उद्योगपतियों को डिफॉल्टर न
घोषित करने का भारी दबाव रहा, ऐसे
में बैंकों के शीर्ष अधिकारियों ने उसका फायदा उठा कर उद्योगपतियों से खुद भी खूब
धन कमाया. बैंकों ने बड़े बकायेदार उद्योगपतियों के खिलाफ कभी कोई कानूनी कार्रवाई
के लिए पहल नहीं की. वह तो मॉरिशस कॉमर्शियल बैंक ने जब 'हीस्टा होल्डिंग्स' के खिलाफ कानून का सहारा लिया, तब पोल खुल कर सार्वजनिक हुई. तब यह भी
सार्वजनिक हुआ कि तमाम अन्य बैंक चुप्पी साधे क्यों बैठे थे. किंग फिशर, लैंको, प्रोग्रेसिव कंस्ट्रक्शंस जैसी कंपनियां तो घोटालों की हांडी के कुछ
चावल भर हैं. केंद्र सरकार में बैठा मंत्री भी इसी हांडी का एक चावल है. जिसके
खिलाफ वारंट तक जारी हो गया था. मॉरिशस कॉमर्शियल बैंक के 106 करोड़ रुपये का
बकाया नहीं देने पर केंद्रीय मंत्री यलामनचिलि सत्यनारायण (वाईएस) चौधरी के खिलाफ
गिरफ्तारी वारंट जारी हो गया था. मॉरिशस स्थित कंपनी हीस्टा होल्डिंग्स केंद्रीय
मंत्री की सुजाना युनिवर्सल इंडस्ट्रीज़ का उपक्रम है. शीर्ष ‘विलफुल डिफॉल्टर्स’ की लिस्ट में सुजाना ग्रुप की दो
कंपनियों सुजाना टावर्स और सुजाना युनिवर्सल इंडिया लिमिटेड के नाम शामिल हैं.
हालांकि जानकार यह भी बताते हैं कि सुजाना समूह पर बैंकों का पांच हजार करोड़
रुपये बकाया हैं.
बैंकों से इरादतन हड़पे गए ऋण का ब्यौरा
चौंकाने वाला है. राष्ट्रीयकृत बैंकों के 3192 खातों से 29 हजार 775 करोड़ रुपये
हड़पे गए. स्टेट बैंक और उससे सम्बद्ध बैंकों के 1546 खातों के जरिए 18 हजार 576
करोड़ रुपये हड़प लिए गए. प्राइवेट बैंकों के 792 खातों के जरिए 10 हजार 250 करोड़
रुपये हड़पे गए. वित्तीय संस्थानों के 42 खातों के जरिए 728 करोड़ रुपए और विदेशी
बैंकों के 38 खातों के जरिए 463 करोड़ रुपये, यानि, कुल
5610 खातों के जरिए 58 हजार 792 करोड़ रुपये की ऋण-राशि नियोजित तरीके से हड़प ली
गई. बैंकों का ऋण इरादतन हड़पे जाने के खेल में सारे बैंकों की भूमिका रही. यह कोई
अनजाने में नहीं हुआ बल्कि इसे बड़े ही सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया. आप ऋण
हड़पे जाने के खेल के विस्तार में जाएं तो देश के सारे बैंक आपको अपराधी नजर आएंगे, यह अलग बात है कि सरकार की नजर में
इरादतन ऋण हड़पने वाले (विलफुल डिफॉल्टर्स) उद्योगपति या उनका साथ देने वाले बैंक
अपराधी नहीं हैं.
ऋण हड़पने के खेल का विस्तृत दृश्य यह है कि
पंजाब नेशनल बैंक के 944505.71 लाख रुपये के ऋण हड़पे गए. इसी तरह सेंट्रल बैंक ऑफ
इंडिया के 357409 लाख रुपये, ओरिएंटल
बैंक ऑफ कॉमर्स के 354583 लाख रुपये, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के 299087.09 लाख, आंध्रा बैंक के 242847 लाख, विजया बैंक के 189491.46 लाख, बैंक ऑफ बड़ौदा के 136879 लाख, इंडियन बैंक के 120027.69 लाख, देना बैंक के 80230 लाख, बैंक ऑफ महाराष्ट्र के 77555.65 लाख, इलाहाबाद बैंक के 48774.05 लाख, पंजाब एंड सिंध बैंक के 24755.53 लाख
और इंडियन ओवरसीज़ बैंक के 1380.09 लाख रुपये मिलाकर 2877525.27 लाख रुपये के ऋण
इरादतन यानि, सोची-समझी
रणनीति बना कर हड़प लिए गए.
ऋण हड़पने के खेल का यहीं विराम नहीं है. अब
जरा भारतीय स्टेट बैंक और उससे सम्बद्ध बैंकों का भी खेल देखते चलें. पूंजीपतियों
और बैंकों की मिलीभगत से भारतीय स्टेट बैंक के 1209122.59 लाख रुपये, स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद से 208871.82
लाख रुपये, स्टेट
बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर के 160906 लाख रुपये, स्टेट बैंक ऑफ मैसूर के 102984.67 लाख रुपये, स्टेट बैंक ऑफ त्रावनकोर के 90976 लाख
रुपये और स्टेट बैंक ऑफ पटियाला के 84785.43 लाख रुपये, यानि, स्टेट बैंक और उससे जुड़े बैंकों के कुल 1857646.51 लाख रुपये के ऋण
साजिश करके खा लिए गए.
ऋण डकारने के खेल में राष्ट्रीयकृत
(नेशनलाइज्ड) बैंकों के साथ-साथ प्राइवेट सेक्टर के बैंक, विदेशी बैंक और वित्तीय संस्थाएं भी
शामिल रही हैं. प्राइवेट सेक्टर के बैंक कोटक महिंद्रा से 544219.57 लाख रुपये के
ऋण हड़पे गए. इसी तरह एक्सिस बैंक के 99388.40 लाख रुपये, इंडसइंड बैंक लिमिटेड के 89975.18 लाख
रुपये, दि फेडरल बैंक लिमिटेड
के 80309.06 लाख रुपये, दि
साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड के 52497 लाख रुपये, आईसीआईसीआई बैंक लिमिटेड के 39353.63 लाख रुपये, करुर वैश्य बैंक लिमिटेड के 37537.28
लाख रुपये, एचडीएफसी
बैंक लिमिटेड के 24267.41 लाख रुपये, तमिलनाडु मर्केंटाइल बैंक लिमिटेड के 17854.88 लाख रुपये, धनलक्ष्मी बैंक लिमिटेड के 16463 लाख
रुपये, कैथलिक सीरियन
बैंक के 10873 लाख रुपये, कर्णाटक
बैंक लिमिटेड के 6054 लाख रुपये,
येस बैंक के 3023 लाख रुपये, दि रत्नाकर बैंक लिमिटेड के 3017 लाख रुपये, दि जम्मू एंड कश्मीर बैंक लिमिटेड के
122.18 लाख रुपये और डेवलपमेंट क्रेडिट बैंक लिमिटेड के 20.39 लाख रुपये, यानि, निजी बैंकों के कुल 1024974.98 लाख रुपये के ऋण इरादतन डकार लिए गए.
विदेशी बैंकों में स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के
30141.47 लाख रुपये, दोहा
बैंक के 7205 लाख रुपये, ड्यूश
बैंक के 3184 लाख रुपये, बैंक
ऑफ बहरीन एंड कुवैत के 2331 लाख रुपये, सिटी बैंक के 1829.80 लाख रुपये और क्रेडिट एग्रीकोल कॉरपोरेट एंड
इन्वेस्टमेंट बैंक के 1606.15 रुपये, यानि विदेशी बैंकों के भी कुल 46297.42 लाख रुपये के ऋण हड़पे गए.
वित्तीय संस्थानों में यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया के 37853.93 लाख रुपये के ऋण हड़पे
गए. एक्सपोर्ट इम्पोर्ट बैंक ऑफ इंडिया के 22311.12 लाख रुपये और यूटीआई म्युचुअल
फंड के 12628.66 लाख रुपये मिला कर वित्तीय संस्थाओं के भी कुल 72793.71 लाख रुपये
के ऋण हड़प लिए गए.
31 मार्च 2002 से लेकर मौजूदा साल 2016 के 31 मार्च
तक बैंकों की 18 लाख 24 हजार 675 करोड़ रुपये की भारी धनराशि डूब चुकी. विचित्र
किंतु सत्य यह है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यानि, वर्ष 2014 से लेकर 2016 के बीच बैंकों
के 1035611 करोड़ रुपये डूबे. वर्ष 2013 में बैंकों के रुपये डूबने का आंकड़ा
1,64,461 करोड़ रुपये था, जो
2014 में बढ़कर 2,16,739 करोड़,
2015 में 2,78,877 करोड़ और 2016 में 5,39,995 करोड़ रुपये हो गया.
डूबा हुआ या डुबोया गया धन देश के आम लोगों का पैसा है, जिसकी उगाही के लिए केंद्र सरकार या
बैंकों ने कुछ भी नहीं किया. बड़े आराम से इतनी बड़ी धनराशि को बट्टे खाते में डाल
कर डूबा हुआ मान लिया. जिन हस्तियों ने इतनी बड़ा मात्रा में देश का धन खाया, उनके नाम तक (कुछ लोगों के छोड़ कर)
सरकार ने प्रकाशित नहीं होने दिए. केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने डूबी हुई
राशि को बड़े आराम से ‘राइट
ऑफ’ कर दिया बताकर
निश्चिंत हो गए. इसे ही शुद्ध हिंदी में डूबा हुआ धन कहते हैं. करीब 400 ‘विलफुल डिफॉल्टर्स’ ने बैंक ऋण के 70 हजार करोड़ रुपये हजम
कर लिए हैं. मार्च 2008 में बैंकों का डूबा हुआ ऋण (बैड लोन) 39 हजार करोड़ रुपये
था, जो सितम्बर 2013
में बढ़ कर दो लाख 36 हजार रुपये पर पहुंच गया. पिछले सात वर्षों में डूबे ऋण की
राशि 4.95 लाख करोड़ तक पहुंच गई. इनमें 24 बैंकों के महज 30 डूबे-ऋण (बैड-लोन) की
राशि 70 हजार तीन सौ करोड़ है. प्राइवेट सेक्टर के बैंकों के डूबे हुए ऋण की राशि
48 हजार 406 करोड़ रुपए है.
साजिशपूर्वक इरादा बना कर बैंकों का ऋण हड़पने
वाले 50 शीर्ष ‘हड़पुओं’ में किंग फिशर का नाम सुर्खियों में
रहा, लेकिन उससे अधिक
पैसा खाया विन्सम डायमंड एंड ज्वेलरी कंपनी लिमिटेड ने. विजय माल्या की किंगफिशर
एयरलाइंस ने 2673 करोड़ रुपये हड़पे जबकि विन्सम डायमंड एंड ज्वेलरी कंपनी लिमिटेड
ने 2982 करोड़ रुपये डकारे. इलेक्ट्रोथर्म इंडिया लिमिटेड ने 2211 करोड़, ज़ूम डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड ने
1810 करोड़ रुपये, स्टर्लिंग
बायो टेक लिमिटेड ने 1732 करोड़,
एस कुमार्स नेशनवाइड लिमिटेड ने 1692 करोड़, सूर्य विनायक इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड ने
1446 करोड़, कॉरपोरेट
इस्पात एलॉएज़ लिमिटेड ने 1360 करोड़, फॉरएवर प्रेसस ज्वेलरी एंड डायमंड्स ने 1254 करोड़, स्टर्लिंग ऑयल रिसोर्सेज़ लिमिटेड ने
1197 करोड़, वरुण
इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड ने 1129 करोड़,
ऑर्चिड केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल लिमिटेड ने 938 करोड़, केमरॉक इंडस्ट्रीज़ एंड एक्सपोर्ट्स
लिमिटेड ने 929 करोड़, मुरली
इंडस्ट्रीज़ एंड एक्सपोर्ट्स लिमिटेड ने 884 करोड़, नेशनल एग्रीकल्चरल को-ऑपरेटिव ने 862 करोड़, एसटीसीएल लिमिटेड ने 860 करोड़, सूर्या फर्मा प्राइवेट लिमिटेड ने 726
करोड़, ज़ाइलॉग सिस्टम्स
इंडिया लिमिटेड ने 715 करोड़, पिक्सिऑन
मीडिया प्राइवेट लिमिटेड ने 712 करोड़, डेक्कन क्रॉनिकल होल्डिंग्स लिमिटेड ने 700 करोड़, केएस ऑयल रिसोर्सेज़ लिमिटेड ने 678
करोड़, आईसीएसए
(इंडिया) लिमिटेड ने 646 करोड़,
इंडियन टेक्नोमैक कंपनी लिमिटेड ने 629 करोड़, सेंचुरी कम्युनिकेशन लिमिटेड ने 624
करोड़, मोज़ेर बायर
इंडिया लिमिटेड एंड ग्रुप ऑफ कंपनीज़ ने 581 करोड़, पीएसएल लिमिटेड ने 577 करोड़, आईसीएसए इंडिया लिमिटेड ने 545 करोड़, लैंको हॉसकोट हाईवे लिमिटेड ने 533 करोड़, हाउसिंग डेवलपमेंट एंड इन्फ्रा लिमिटेड
ने 526 करोड़, एमबीएस
ज्वेलर्स प्राइवेट लिमिटेड ने 524 करोड़, यूरोपियन प्रोजेक्ट्स एंड एविएशन लिमिटेड ने 510 करोड़, ली मेरीडियन इन्फ्रा प्रोजेक्ट्स ने
488 करोड़, पर्ल
स्टूडियोज़ प्राइवेट लिमिटेड ने 483 करोड़, एडुकॉम्प इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड स्कूल मैन ने 477 करोड़, जैन इन्फ्रा प्रोजेक्ट्स लिमिटेड ने
472 करोड़, केएमपी
एक्सप्रेसवे लिमिटेड ने 461 करोड़,
प्रदीप ओवरसीज़ लिमिटेड ने 437 करोड़, रजत फार्मा व रजत ग्रुप ने 434 करोड़, बंगाल इंडिया ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड ने 428 करोड़, स्टर्लिंग एसईजेड एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर
प्राइवेट लिमिटेड ने 408 करोड़,
शाह एलॉएज़ लिमिटेड ने 408 करोड़, शिवानी ऑयल एंड गैस एक्सप्लोरेशन लिमिटेड ने 406 करोड़, आंध्र प्रदेश राजीव स्वगृह कॉरपोरेशन
लिमिटेड ने 385 करोड़, प्रोग्रेसिव
कंस्ट्रक्शंस लिमिटेड ने 351 करोड़,
डेलही एयरपोर्ट मेट एक्स लिमिटेड ने 346 करोड़, ग्वालियर झांसी एक्सप्रेस वे लिमिटेड
ने 346 करोड़, आल्प्स
इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड ने 338 करोड़,
स्टर्लिंग पोर्ट लिमिटेड ने 334 करोड़, अभिजीत फेर्रोटेक लिमिटेड ने 333 करोड़ और केंद्रीय मंत्री की वाईएस
चौधरी की एक कंपनी सुजाना यूनिवर्सल इंडस्ट्रीज़ ने 330 करोड़ रुपये का बैंक ऋण
सुनियोजित तरीके से हड़प लिया. इस तरह इन शीर्ष 50 उद्योगपतियों ने ही बैंकों की
मिलीभगत से ऋण के 40,528 करोड़ रुपये खा लिए. लेकिन केंद्र सरकार ने इनके खिलाफ
कोई कार्रवाई नहीं की. इनके अलावा बड़े हड़पुओं में बेटा नैप्थॉल भी शामिल है
जिसने 960 करोड़ रुपये हड़पे. रज़ा टेक्सटाइल्स लिमिटेड ने 695 करोड़ रुपये हड़पे
तो री एग्रो लिमिटेड ने 589 करोड़,
एग्नाइट एडुकेशन लिमिटेड व टेलीडाटा मेरीन सॉल्यूशंस प्राइवेट
लिमिटेड ने 578 करोड़ रुपए और ज़ाइलॉग सिस्टम्स लिमिटेड ने 565 करोड़ रुपये हड़प
लिए.
नोटबंदी या आर्थिक नाकाबंदी
नोटबंदी से उबरने में देश को अभी छह से आठ
महीने और लगेंगे. इस लंबी अवधि तक बाजार में नकदी का संकट बना रहेगा. इसका सबसे
बुरा असर भवन निर्माण क्षेत्र और छोटे खुदरा व्यापार और कृषि उत्पादों के धंधे पर
पड़ रहा है. भवन-निर्माण (कंस्ट्रक्शन) में तकरीबन साढ़े चार करोड़ मजदूरों को काम
मिलता है. इसमें संगठित क्षेत्र में डेढ़ करोड़ मजदूर और असंगठित क्षेत्र में करीब
तीन करोड़ मजदूर हैं. मुद्रा की कमी से इन मजदूरों के अपने रोजगार से हाथ धो बैठने
का अंदेशा है. इनसे सम्बन्धित अन्य उद्योग, व्यापार, व्यवसाय
भी प्रभावित होंगे. इस तरह की खबरें भी आ रही हैं कि सीमेंट और निर्माण कंपनी
लार्सन एंड टुब्रो ने हजारों मजदूरों को हटा दिया है. उधर, भीलवाड़ा से लेकर दिल्ली तक की
औद्योगिक इकाइयों में उत्पादन आधा रह गया है, जिसके कारण मजदूरों को काम से हटाया जा रहा है. गुजरात में मोरबी
टाइल्स, मेरठ का कैंची
उद्योग, लुधियाना का
साइकिल कारोबार, आगरा
का चमड़े के जूते बनाने का कारोबार,
भदोही का कालीन कारोबार और बुनकरों का कारोबार नोटबंदी का शिकार हो
रहा है और इनसे जुड़े लाखों लोग घर बैठ गए हैं. नोटबंदी का असर कृषि पर भी है. अभी
खरीफ की बिक्री और रबी की बुवाई का समय है. किसानों को मुद्रा चाहिए, लेकिन पहले तो नोटबंदी के नाम पर
किसानों की सारी मुद्रा उनके बैंकों में रखवा ली गई और अब यह नियम लगा दिया गया कि
पुराने पांच सौ और हजार के नोट से कोऑपरेटिव से बीज खरीद सकेंगे. लेकिन अब किसानों
के पास मुद्रा ही नहीं है तो वे बीज कहां से खरीदें? कृषि क्षेत्र में 10 करोड़ मजदूर हैं और खेतिहर मजदूर गांव से शहर भी
आते हैं, लेकिन शहरों में
काम नहीं मिलने के कारण उन्हें वापस गांव लौटना पड़ रहा है.
रिजर्व बैंक की धारा 26 (2) में यह प्रावधान है
कि नोटबंदी में कोई खास सीरीज बंद किया जा सकता है, लेकिन पूरी सीरीज बंद नहीं की जा सकती. लेकिन सरकार ने पांच सौ और
हजार के नोटों की सारी सीरीज एकबारगी बंद कर दी. सवाल यह भी है कि नोटबंदी का
फैसला गोपनीय कैसे था? केंद्र
की इच्छा पर नोटबंदी का औपचारिक फैसला रिजर्व बैंक बोर्ड के डायरेक्टर करते हैं.
आरबीआई के निदेशकों को इस बारे में एक महीने पहले सूचना देनी पड़ती है और सरकार को
एजेंडा बताना पड़ता है. रिजर्व बैंक के बोर्ड में तीन डायरेक्टर निजी कंपनियों से
जुड़े हैं, जिन्हें
नियमतः नोटबंदी के फैसले की जानकारी एक महीने पहले दी गई होगी. अब सरकार को यह
स्पष्ट करना चाहिए कि नोटबंदी के बारे में नियमानुसार आरबीआई बोर्ड को एक महीने
पहले सूचना दी गई थी या आरबीआई रूल्स एंड गाइड-लाइंस को किनारे रख कर नोटबंदी का
फैसला ले लिया गया. आरबीआई के डायरेक्टर डॉ. नचिकेता आईसीआईसीआई बैंक से जुड़े रहे
हैं. डॉ. नटराजन टाटा कंसल्टेंसी सर्विस (टीसीएस) के एमडी और सीईओ रह चुके हैं.
भरत नरोत्तम दोषी महिंद्रा एंड महिंद्रा लिमिटेड के सीईओ रह चुके हैं और गोदरेज से
भी जुड़े रहे हैं. सरकार की गोपनीयता वाली बात देश के आम लोगों के समक्ष स्पष्ट
नहीं है. रिजर्व बैंक के नियमों के तहत मौद्रिक नीति सम्बन्धी कोई भी निर्णय
औपचारिक तौर पर रिजर्व बैंक बोर्ड ही करता है और फिर केंद्र सरकार से इसे लागू
करने के लिए अग्रसारित करता है. ऐसे में गोपनीयता बरतने का सरकारी दावा नियमसंगत
नहीं है.
8 नवंबर को नोटबंदी की घोषणा के बाद से ही
सरकार रोज ही कोई न कोई नई अधिसूचना ला रही है. अब तक दर्जनभर से अधिक अधिसूचनाएं
आ चुकी हैं. सरकार की ये अधिसूचनाएं सरकार के विवेक पर भी सवाल उठाती हैं, जिसमें पुराने नोटों के एयरपोर्ट, पेट्रोल पंपों, मॉल, रेलवे वगैरह पर चलने की इजाजत दी जाती है, लेकिन कोऑपरेटिव बैंकों को इससे अलग कर
दिया जाता है. यह भारतीय लोकतंत्र की विडंबना है कि विमान से चलने वाले वर्ग की
सरकार चिंता करती है, लेकिन
हल चलाने वाले किसानों के बारे में सरकार कोई फिक्र नहीं करती. सहकारी ग्रामीण
बैंकों पर गरीब किसानों की निर्भरता कितनी रहती है, इसे लोग जानते हैं. लेकिन फिर भी सहकारी बैंकों को मुद्रा विनिमय से
दूर रखा गया. केंद्र सरकार ने पहले ही यह स्वप्न देख लिया था कि काला धन पांच सौ
और हजार के नोट की शक्ल में ही है और नोटबंदी के बाद वह (करीब तीन लाख करोड़
रुपये) वापस नहीं आ पाएगा. लेकिन जिस रफ्तार से बैंकों में पैसा आ रहा है और जमा
हो रहा है उससे भारत सरकार का वह स्वप्निल-दावा मुंगेरी ही नजर आ रहा है. सरकार को
उम्मीद थी कि पांच सौ और हजार के नोटों की शक्ल के कुल 14.6 लाख करोड़ रुपये में
से 10 फीसदी बैंकों में जमा नहीं हो पाएगा. लेकिन जिस गति से रुपये जमा हो रहे हैं
वह सारे आकलन और आंकड़े पार कर रहा है और काले धन के सरकारी ‘कॉन्सेप्ट’ की खिल्लियां उड़ा रहा है. नोटबंदी
लागू होने के महीनेभर के अंदर 11.55 लाख करोड़ रुपये बैंक में वापस आ गए. यह पांच
सौ हजार के नोटों की कुल धनराशित 14.17 लाख करोड़ का 81 प्रतिशत है. यानि, अब केवल 2.62 लाख करोड़ रुपये ही जमा
होना बाकी हैं. नोटंबदी लागू होने के बाद 17 दिनों तक प्रति घंटे 5522 करोड़ रुपये
और प्रति दिन 50 हजार करोड़ रुपये की गति से धन बैंकों में जमा हुए. 17 दिन में ही
8.44 लाख करोड़ रुपये जमा हो गए थे. इसमें मात्र 33 हजार 948 करोड़ रुपये एक्सचेंज
(अदला-बदली) के लिए गए, जबकि
8,11,033 करोड़ रुपये बाकायदा जमा हुए. इस दरम्यान एटीएम के जरिए 2.16 करोड़ रुपये
की निकासी हुई. 17 दिनों के दौरान एटीएम से 1415 करोड़ रुपये प्रति घंटे और 12,800
करोड़ रुपये प्रति दिन की दर से निकासी हुई.
यूपी के जनधन खातों में जमा हुआ रिकॉर्ड धन
नोटबंदी लागू होने के 14 दिन की अवधि में सबसे
अधिक धनराशी उत्तर प्रदेश के जन धन खातों में जमा हुई. यूपी में 3.8 करोड़ जनधन
खाते हैं, जिनमें
मात्र 14 दिनों में 11,781 करोड़ रुपये जमा हो गए. दूसरे नंबर पर पश्चिम बंगाल रहा
जहां जनधन खातों में 8840 करोड़ रुपये जमा हुए. तीसरे नंबर पर राजस्थान रहा, जहां 6104 करोड़ रुपये और चौथे स्थान
पर बिहार के जनधन खातों में 6088 करोड़ रुपये जमा हुए. देशभर के 25.68 करोड़ जनधन
खातों में 14 दिन में 27,200 करोड़ रुपये जमा हुए. जबकि नौ नवम्बर तक यह राशि 70
हजार करोड़ पार कर गई थी. उत्तर प्रदेश के जनधन खातों में सर्वाधिक राशि जमा होने
के मामले को आने वाले विधानसभा चुनाव से जोड़ कर देखा जा रहा है. दिलचस्प यह है कि
जो 16.47 लाख नए जनधन खाते खुले उसमें से भी 22.3 प्रतिशत खाते उत्तर प्रदेश के
हैं.
आतंकियों तक कैसे पहुंच रहे नए नोट
नोटबंदी लागू करने के बाद केंद्र सरकार ने दावा
किया था कि इससे आतंकवादियों की फंडिंग रुक गई. लेकिन खबरें बताती हैं कि कश्मीर
में पकड़े जा रहे या मारे जा रहे आतंकियों के पास दो हजार के नए नोटों के बंडल
बरामद किए जा रहे हैं. नकली नोटों पर काबू का दावा ठीक है. लेकिन नए आए नोटों की
नकल का धंधा भी शुरू हो गया है. नोटबंदी के बाद 10 नवम्बर से 27 नवम्बर के बीच 9.6
करोड़ रुपये के जाली नोट पकड़े गए. इनमें हजार के नोट के 5.3 करोड़ रुपये और पांच
सौ के नोट के 4.3 करोड़ रुपये शामिल हैं. आकलन है कि देश में चार सौ करोड़ रुपये
के नकली नोट चलन में थे, जो
नोटबंदी के कारण चलन से बाहर हो गए. कुछ ऐसी भी खबरें आईं कि नया नोट आने के साथ
ही दो हजार का नकली नोट भी बाजार में आ गया. नकली नोट देखने में बिल्कुल नए नोट
जैसा है. चिकमगलूर के एपीएमसी बाजार में दो हजार रुपये का नकली पकड़ा गया, जिसे बाद में वापस कर दिया गया. वह
नकली नोट नए दो हजार के नोट जैसा था. इस प्रकरण के बाद ही आरबीआई ने नए नोट की
पहचान के ‘सिक्युरिटी
फीचर्स’ सार्वजनिक किए.
बिना पैन के 90 लाख ट्रांजैक्शन, तब क्यों नहीं चेती थी सरकार!
नोटबंदी के पहले केंद्र सरकार की तरफ से चलाए
गए इन्कम डिस्क्लोज़र स्कीम के दरम्यान ही यह खुलासा हो गया था कि 90 लाख
बैंक-ट्रांजैक्शन पैन नंबर के बगैर किए गए. स्वाभाविक है कि बैंकों की मिलीभगत के
बगैर यह लेन-देन नहीं हुआ. बिना पैन नंबर इंट्री के हुए 90 लाख ट्रांजैक्शन में 14
लाख बड़े (हाई वैल्यू) ट्रांजैक्शन पाए गए थे और सात लाख बड़े ट्रांजैक्शन ‘हाई-रिस्क’ वाले. उन सात लाख बैक-ट्रांजैक्शन के
सिलसिले में नोटिसें जारी की गई थीं, लेकिन वे सब लौट कर वापस आ गईं. ‘इन्कम डिस्क्लोज़र स्कीम’ (आईडीएस) की धज्जियां उड़ जाने के बावजूद केंद्र
सरकार ने इस नियोजित घोटाले में शामिल बैंकों पर शिकंजा नहीं कसा. ‘चौथी दुनिया’ ने तब भी इसे प्रकाशित कर केंद्र सरकार
को आगाह किया था. आयकर विभाग के आला अधिकारी ने बताया था कि बैंकों की मिलीभगत से फॉर्म 60, 61 की सुविधा का बेजा इस्तेमाल हो रहा
है. यह कृषि आय को कर से छूट देने की सुविधा है. लेकिन इसका इस्तेमाल आयकर चुराने
के लिए किया जा रहा है. वर्ष 2011 में कृषि आय के नाम पर करीब दो हजार लाख करोड़
रुपये की अघोषित सम्पत्ति उजागर हुई थी. यह वह रकम थी जिसे फॉर्म 60 और 61 से
मिलने वाली सुविधा की आड़ लेकर बचाई गई थी. तभी इसका आधिकारिक तौर पर खुलासा हुआ
था कि किसानों के वेश में काले धन का धंधा करने वाले सक्रिय हैं और बैंकों की
मिलीभगत से फॉर्म 60 और 61 का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं. कृषि क्षेत्र के नाम पर होने
वाली आय की इस भारी राशि पर सरकार का ध्यान भी गया, लेकिन फिर भी कर चोरी रोकने का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं हुआ.