Saturday 24 December 2016

राष्ट्रवाद के नारे के नीचे सेना का अपमान... नहीं मिल रहा सातवें वेतन आयोग का वेतन

प्रभात रंजन दीन
भारतीय सेना के तीनों अंगों ने केंद्र सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया है. थलसेना, वायुसेना और नौसेना ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों का पुलिंदा वापस केंद्र सरकार के मुंह पर फेंक कर विरोध जताया है. सेना के तीनों अंगों ने साझा फैसला लेकर वेतन लेने से इन्कार कर दिया है. सेना को अब भी छठे वेतन आयोग की ही सैलरी मिल रही है, जबकि सारे केंद्रीय कर्मचारी और अफसर सातवें वेतन आयोग की सिफारिश के तहत बढ़ी हुई सैलरी का लुत्फ उठा रहे हैं. सातवें वेतन आयोग ने सेना का वेतन बढ़ाने के बजाय उसे घटा दिया और भत्ते वगैरह भी काट लिए. सारी वेतन बढ़ोत्तरी आईएएस लॉबी ने अपने हिस्से में ले ली और सैनिकों को मिलने वाले भत्ते भी हथिया लिए. सेना को कमतर बना कर रखने और उसका मनोबल ध्वस्त करने का कुचक्र सत्ता केंद्र से जारी है और मोदी सरकार राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करने में लगी है. सैनिकों को देख कर उनके सम्मान में तालियां बजाने का आह्वान करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आईएएस-आईपीएस लॉबी द्वारा भारतीय सेना का खुलेआम अपमान होता नहीं देख पा रहे हैं. मोदी लालफीताशाहों के चंगुल में इस कदर फंसे हुए हैं कि उन्हें सैनिकों की त्रासद स्थिति दिख नहीं रही. नौकरशाही ने केंद्र सरकार को बुरी तरह जकड़ रखा है.
सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर को पत्र लिख कर सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें मानने से इन्कार कर दिया और वेतन लेने से मना कर दिया. सेना के तीनों अंगों का यह साझा सांकेतिक विद्रोह था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सेना में सातवां वेतन आयोग लागू करने के लिए दबाव भी बनाया, लेकिन सेना पर वह दबाव नहीं चला. सेना की समस्त इकाइयों तक सेना प्रमुखों के फैसले की बाकायदा औपचारिक सूचना भेज दी गई और देश की सम्पूर्ण सेना ने समवेत रूप से सातवें वेतन आयोग को ठोकर मार दिया. भारतीय सेना अब भी छठा वेतन आयोग का वेतन ही ले रही है. सेना अपना काम मुस्तैदी से कर रही है, देश की सुरक्षा में अपनी जान दे रही है, अपने सम्मान की फर्जी बातें और नारे सुन रही है, लेकिन इस बारे में देश के सामने अपना असंतोष जाहिर नहीं कर रही. दूसरी सेवा के अधिकारी और कर्मचारी होते तो अभी तक देशभर में धरना-प्रदर्शन और आंदोलन का सिलसिला चल निकला होता. लेकिन सेना ने अनुशासन की सीमा नहीं लांघी. सीमा पर जवानों की शहादतें जारी हैं. देश के अंदर आतंकवादियों से लड़ते जवानों की फजीहतें जारी हैं. दुरूह बर्फीली चोटियों पर तैनात सैनिकों की तकलीफदेह मुसीबतें जारी हैं. सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कार्रवाइयों पर राजनीति जारी है. सेना के कंधे पर राष्ट्रवाद को रख कर सियासत का धंधा जारी है. लेकिन उसी सेना का वेतन बंद है, जिसके बूते सत्ता को मजबूत करने का हथकंडा चल रहा है. सातवें वेतन आयोग की सिफारिश पर केंद्रीय कर्मचारी और अधिकारी मौज ले रहे हैं, लेकिन सैनिकों की सुध कोई नहीं ले रहा.
तीनों रक्षा प्रमुखों ने प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री को संयुक्त पत्र लिख कर सातवें वेतन आयोग की सिफारिश में सेना के प्रति बरती गई सुनियोजित विसंगतियों को तत्काल दूर करने की मांग की है. सेना के तीन प्रमुखों का पत्र केंद्र सरकार के मुंह पर तमाचा है. इस पत्र से सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों में नौकरशाही की बदमाशियां साफ-साफ उजागर हुई हैं. थल सेना, वायु सेना और नौसेना के प्रमुखों का साझा पत्र चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी के अध्यक्ष एयर चीफ मार्शल अरूप राहा के जरिए प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री तक पहुंचा. पत्र में कहा गया है कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें सेना का मनोबल ध्वस्त करने के लिए काफी है. सेना के अफसरों और अन्य रैंकों पर काम करने वाले सैन्यकर्मियों का वेतन जान-बूझकर नीचे कर दिया गया. सैन्यकर्मियों की बेसिक सैलरी के निर्धारण में अलग मापदंड अपनाए गए जबकि केंद्रीय कर्मचारियों की बेसिक सैलरी का निर्धारण अलग मा्पदंड से किया गया. सेना के साथ संकुचित व्यवहार किया गया, जबकि केंद्रीय कर्मचारियों के लिए आयोग और सरकार ने हृदय के द्वार खोल दिए. इसका नतीजा यह हुआ कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन में तो अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हो गई लेकिन सेना का वेतन अप्रत्याशित और अनपेक्षित रूप से काफी कम हो गया. सैन्य कर्मियों की बेसिक सैलरी कम हो जाने से उन्हें मिलने वाले अन्य भत्तों की राशि भी घट कर काफी कम हो गई.
छठे वेतन आयोग के समय ही केंद्रीय कर्मियों के ग्रुप-ए अफसरों के लिए नॉन फंक्शनल स्केल अपग्रेडेशन’ (एनएफयू) का फार्मूला लागू कर उनके वेतन में अतिरिक्त आकर्षक लाभ जोड़ दिया गया था. लेकिन एनएफयू फार्मूला सेना के अधिकारियों पर लागू नहीं किया गया था. विडंबना यह है कि सेना के अफसरों को न ग्रुप-ए में रखा गया है और न आईएएस-आईपीएस की तरह उन्हें सेंट्रल सर्विस में रखा गया है. एनएफयू फार्मूले के कारण सेना और सिविल अफसरों के वेतन की खाई इतनी बढ़ गई है कि सेना के अफसर हीन भावना का शिकार हो रहे हैं. सेना में भी एनएफयू फार्मूला लागू करने की मांग पर सरकार कोई सुनवाई नहीं कर रही.
सातवें वेतन आयोग ने सेना के जवान से लेकर जूनियर कमीशंड अफसर तक और कमीशंड अफसरों को रैंक के मुताबिक मिलने वाले विशेष मिलिट्री सर्विस पे’ (एमएसपी) को नासमझ तरीके से एकसाथ मिला दिया और उसे 52 सौ रुपये पर फिक्स कर दिया. जबकि जूनियर कमीशंड अफसर का एमएसपी नियमतः 10 हजार रुपये होना चाहिए था. एमएसपी के घालमेल की कार्रवाई से रैंक एंड हाइरार्की’ (पद और वरिष्ठता) की मर्यादा जाती रही, जो सैन्य अनुशासन की अनिवार्य आवश्यकता है. एमएसपी के विलय से जितना मिलिट्री सर्विस पेशुरुआती कमीशंड अफसर (लेफ्टिनेंट) को मिलेगा उतना ही ब्रिगेडियर जैसे वरिष्ठ अफसर को भी मिलेगा.
युद्ध या ऑपरेशन के दौरान जख्मी हुए सैनिक या अफसरों को मिलने वाले शत प्रतिशत पेंशन (लास्ट ड्रॉन सैलरी) लाभ को सातवें वेतन आयोग में नया फार्मूला लागू कर कम कर दिया गया. युद्ध विकलागों को मिलने वाले पेंशन की राशि काफी कम हो गई, जबकि अन्य केंद्रीय कर्मचारियों के ड्यूटी के दौरान जख्मी हो जाने पर उनका वेतन-लाभ बढ़ा दिया गया. सातवें वेतन आयोग की इस अजीबोगरीब सिफारिश पर केंद्र सरकार की कार्रवाई कम आश्चर्यजनक और हास्यास्पद नहीं है. इसकी विचित्रता देखिए कि सिविल सेवा में तैनात अतिरिक्त सचिव (एडिशनल सेक्रेटरी) स्तर के केंद्रीय कर्मी को विकलांगता पेंशन 70 हजार रुपये मिल रही है जबकि जनरल स्तर के सैन्य अधिकारी को महज 27 हजार रुपये विकलांगता पेंशन निर्धारित की गई है. देश के किसी आम नागरिक को भी इतनी जानकारी रहती है कि सेना में ड्यूटी के दौरान हुई विकलांगता कितनी घातक और गंभीर होती है. नॉन फंक्शनल स्केल अपग्रेडेशन’ (एनएफयू) के निर्धारण में भी ऐसी ही शैतानी उजागर हुई है. छठे वेतन आयोग के समय से ही सैनिकों को मिलने वाले मिलिट्री सर्विस पेमें जूनियर कमीशंड अफसर और जवानों को एक ही धरातल पर ला खड़ा किया गया. दूसरी तरफ कमीशंड अफसरों में सबसे जूनियर अफसर लेफ्टिनेंट और ब्रिगेडियर जैसे कमांड स्तर के वरिष्ठ अधिकारी को एक ही धरातल पर लाकर रख दिया गया है. सेना के तीनों अंगों की यह साझा मांग है कि सैन्य बलों के लिए भी नॉन फंक्शनल स्केल अपग्रेडेशन’ (एनएफयू) तत्काल प्रभाव से लागू हो और सिविल व मिलिट्री सेवाओं के लिए एक समान पे-मैट्रिक्स का नियम बहाल हो.
ताजा हालत यह है कि भारतवर्ष की सम्पूर्ण सेना सातवें वेतन आयोग द्वारा निर्धारित वेतन नहीं ले रही है. पूरी सेना पुराने वेतन से काम चला रही है. सेना प्रमुखों के विरोध पत्र मिलने से हड़बड़ाए प्रधानमंत्री के दबाव में रक्षा मंत्रालय ने सेना के लिए अलग से वेतन निर्धारण किए जाने की अधिसूचना तो जारी कर दी, लेकिन सेना में कोई भी नया वेतनमान अब तक (खबर लिखे जाने तक) लागू नहीं हुआ है. सशक्त आईएएस लॉबी के प्रभाव में मीडिया इस खबर को दबाए हुए है. केंद्र सरकार नौकरशाही की गिरफ्त में है. नेताओं को तो कुछ समझ में नहीं आता और आईएएस लॉबी उन्हें बेवकूफ बना-बना कर अपना हित साधती रहती है.
सातवें वेतन आयोग के प्रसंग में प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री को सेना प्रमुखों द्वारा लिखे गए विरोध-पत्र पर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने एयर चीफ मार्शल अरूप राहा और नौसेना प्रमुख एडमिरल सुनील लांबा पर सिफारिशें लागू करने का दबाव बनाया. लेकिन रक्षा मंत्री का कोई हथकंडा काम नहीं आया. अब रक्षा मंत्रालय के वित्त सलाहकार और कार्मिक प्रशिक्षण विभाग के सचिव की अध्यक्षता में 22 सदस्यीय समिति वेतन आयोग की विसंगतियों का अध्ययन कर रही है. अध्ययन कब पूरा होगा और विसंगतियों को दूर कर सेना में संशोधित वेतनमान कब लागू होगा, इसका किसी के पास कोई जवाब नहीं है. सातवें केंद्रीय वेतन आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति एके माथुर की रिपोर्ट ने भारतीय सेना को असंतोष से भर दिया है. इस वेतन आयोग ने इतना असंतुलन बढ़ा दिया है कि न केवल आईएएस, आईएफएस और आईपीएस बल्कि अर्धसैनिक बलों के अधिकारी भी वेतन और भत्तों के मामले में सेना से काफी आगे निकल गए हैं. दूरदराज के इलाकों में तैनात भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी, अर्धसैनिक बलों के अधिकारियों और सेना के अधिकारियों को मिलने वाले स्पेशल ड्यूटी भत्ते में भी भीषण विसंगति और भेदभाव बरता गया है. उत्तर-पूर्व में तैनात होने वाले आईएएस अधिकारी को विशेष भत्ते के तौर पर 60 हजार रुपये मिलेंगे लेकिन सियाचिन ग्लेशियर जैसी दुर्गम जगह पर तैनात सेना अधिकारी को विशेष भत्ते के तौर पर बमुश्किल 30 हजार रुपये प्राप्त होंगे. आपने देखा ही कि विकलांगता भत्ते को भी बदलकर किस तरह सिंगल स्लैब व्यवस्था में ला दिया गया जिसमें सभी को एक समान भत्ता मिलेगा. सड़क पर गिर कर जख्मी होने वाले सिविल सेवा के अधिकारी जितनी विकलांगता पेंशन पाएंगे, सीमा पर दुश्मन और आतंकियों की गोली से जख्मी होकर विकलांग होने वाले सैन्य अधिकारियों और जवानों को भी उतनी राशि विकलांगता पेंशन के रूप में मिलेगी. यह मोदी सरकार का राष्ट्रवाद है, सैन्य प्रेम है और सेना के प्रति सम्मान-भाव है.
सेना के प्रति नौकरशाहों का रवैया हमेशा से ऐसा ही रहा है. छठे वेतन आयोग के समय भी सेना के स्तर को नीचे करने की कोशिशों के खिलाफ तत्कालीन नौसेना अध्यक्ष एडमिरल सुरेश मेहता ने यूपीए-1 काल में प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री को पत्र लिख कर सख्त विरोध जताया था. इस पर वर्ष 2008 में प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया गया था. लेकिन इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला. आजादी के बाद से ही सेना को कमजोर बना कर रखने की नौकरशाहों की कोशिश जारी है. संयुक्त कमान को तोड़ कर सेना को तीन विभिन्न शाखाओं में बांटने का निर्णय इसका पहला अध्याय है. इसके बाद आईएएस लॉबी नेताओं को बहका कर सत्ता-सुविधाओं पर अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगी रही. पांचवां और छठा वेतन आयोग आते-आते आईएस लॉबी की यह भूख सारी हदें पार कर गई. सेना के अफसरों को न केवल नीचे के दर्जे पर रखे जाने की साजिश की गई, बल्कि सेना को कम वेतन देकर उनका मनोबल गिरा कर रखने की प्रक्रिया भी लगातार जारी रही. सेना नौकरशाही की गंदी मंशा समझती है. आईएएस लॉबी की शातिराना साजिशों का ही परिणाम है कि सेना के तीनों प्रमुखों को महत्वपूर्ण सरकारी पदाधिकारियों की वरीयता सूची में धीरे-धीरे काफी नीचे खिसका दिया गया. सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों को कैबिनेट सचिव और अटॉर्नी जनरल के बाद के क्रम में 13वें स्थान पर जगह दी गई है. वेतन निर्धारण की प्रक्रिया में भी सेना को कभी शामिल नहीं किया जाता. तीसरे वेतन आयोग के समय सेना को प्रक्रिया में शामिल किया गया था. लेकिन उसके बाद सेना को पूरी तरह दरकिनार ही कर दिया गया. वर्ष 2009 में अलग सैन्य वेतन आयोग के गठन का प्रस्ताव आया था, लेकिन लालफीताशाहों ने उसका गला घोंट दिया. अब उसका कोई नामलेवा भी नहीं रहा.

ओआरओपी का ढिंढोरा, पर सच कुछ और
सेना को वन रैंक वन पेंशनदेने का मसला भी इसी तरह लालफीताशाही में फंस गया है. ओआरओपी के बारे में सरकार जो कुछ भी दावा करती है, व्यवहार में वह सच नहीं है. जमीनी सच्चाई यही है कि वन रैंक वन पेंशनके नाम पर पेंशन की राशि एक बार (वन-टाइम) बढ़ा दी गई. सरकार इसे ही ओआरओपी कहती है और ढिंढोरा पीटती है. जबकि ओआरओपी की व्याख्या यह नहीं है. ओआरओपी की संसद में दर्ज परिभाषा समान रैंक को समान पेंशनलगातार दिए जाने के रूप में है. लेकिन यहां भी नौकरशाहों ने इसे तोड़ मरोड़ कर वन-टाइम पेंशनबना दिया और पेंशन की राशि में एक बार बढ़ोत्तरी कर ओआरओपी का सियासी-परचम लहरा दिया. सरकार के सामने मुश्किल यह भी है कि सेना में ओआरओपी व्यवस्था लागू होने पर दूसरी सरकारी सेवाओं में इसकी मांग न उठने लगे. कई दूसरी सेवाओं में ऐसी मांग उठी भी है. सेना के समानान्तर ओआरओपी देने की मांगें बिल्कुल बेमानी हैं और इसे सरकार एकबारगी ही खारिज कर सकती थी, लेकिन नौकरशाह इसे हवा देकर जिंदा रखना चाहते हैं. बहरहाल, सैन्य अधिकारियों और कर्मचारियों के पेंशन की राशि में वर्ष 2006 और 2009 में भी बढ़ोत्तरी की गई थी, लेकिन उसे तत्कालीन यूपीए सरकार ने वन रैंक वन पेंशननहीं कहा था. इसी तरह एनडीए-2 के कार्यकाल में भी सैनिकों के पेंशन की राशि एक बार बढ़ाई गई थी. लेकिन तब भाजपा ने भी इसे वन रैंक वन पेंशननाम नहीं दिया था. केंद्र सरकार कहती है कि ओआरओपी जारी कर दिया गया है और केवल डेढ़ लाख पूर्व सैनिकों के ओआरओपी का बकाया (एरियर) भुगतान बाकी रह गया है. सरकार के इस दावे के बरक्स सच्चाई यह है कि डीफेंस एकाउंट्स (पेंशन) के प्रिंसिपल कंट्रोलर ने सभी बैंकों को यह सख्त निर्देश दे रखा है कि पेंशन पेमेंट ऑर्डर (पीपीओ) में रिटायर कर्मी के ग्रुप, सेवा की अवधि और रैंक दर्ज न हो तो एरियर का भुगतान नहीं किया जाए. क्लर्कीय भूल की वजह से लाखों पीपीओ आधे-अधूरे हैं और उनका भुगतान रुका पड़ा है.

सेना को नाराज करने वाली विसंगतियां
1. सातवें वेतन आयोग की सिफारिश में सेना के विभिन्न स्तर के अफसरों के वेतन में मनमाने तरीके से कटौती कर दी गई. सेना के प्रत्येक रैंक के अफसरों का वेतन उनके रैंक के मुताबिक बढ़ने के बजाय घट गया.
2. अन्य केंद्रीय कर्मचारियों और सेना के वेतन में भीषण खाई बना दी गई है.
3. सातवें वेतन आयोग ने सेना के जवान से लेकर जूनियर कमीशंड अफसर तक को रैंक के मुताबिक मिलने वाला विशेष मिलिट्री सर्विस पे’ (एमएसपी) एक कर उसे 52 सौ रुपये पर फिक्स कर दिया. एमएसपी के घालमेल की कार्रवाई से रैंक एंड हाइरार्की’ (पद और वरिष्ठता) की मर्यादा जाती रही, जो सैन्य अनुशासन का अनिवार्य पहलू है. सेना अधिकारी इसे सैन्य अनुशासन और वरिष्ठता-पंक्ति की ऐतिहासिक परम्परा को ध्वस्त करने का षडयंत्र बताते हैं.

4. सातवें वेतन आयोग ने युद्ध या ऑपरेशन के दौरान जख्मी हुए सैनिक या अफसरों को मिलने वाले विशेष पेंशन लाभ में भी सिविल अफसरों-कर्मचारियों की विकलांगता को घुसा दिया और युद्ध विकलांगता के गौरव को मटियामेट कर दिया.

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