Friday 8 November 2013

मंगल आह्वान...

प्रभात रंजन दीन
शास्त्रों में मंगल को शिव का पुत्र कहा गया, जिसे धरती ने पाला पोसा। इसीलिए मंगल को भूमि पुत्र या भौम भी कहते हैं। धरती के आश्रितों ने एक यंत्र रवाना कर यह सोच लिया कि वे भौम जीत लेंगे। अंगारक भौम युद्ध का देवता है। यह बात शास्त्रोक्त है जिसे आधुनिक विज्ञान खारिज कर देता है। अंतरिक्ष विज्ञानियों को परा की त्वरा समझ में नहीं आती। ईश्वर ने मनुष्य की रचना ही इसीलिए की कि वह जिज्ञासु बने, खोजे, अनुसंधान करे और अपने जीवन की सार्थकता साबित करे। उसकी सकारात्मक ऊर्जा प्रकृति की गति को बनाए रखने में योगदान दे सके। जो खोज रहे हैं वह प्रकृति में तो है ही, तभी तो हम खोज पाते हैं। प्रकृति को हमारे सद्प्रयासों से मतलब है। लेकिन चंद्रमा या मंगल पर यंत्र भेजना क्या सद्प्रयास है? इस पर जरा सोचिए। हम परमाणविक संयंत्र स्थापित कर रहे हैं, हम परमाणु बम बना रहे हैं, हम खनिजों के लिए धरती खोद-खोद कर उसे जर्जर बना रहे हैं। निर्धारित मानकों का उल्लंघन कर उसे हम खोदे चले जा रहे हैं। जंगल काटे चले जा रहे हैं। पानी से बिजली बनाने में या उद्योगपतियों के हाथों बेच डालने में अपने जल भंडार नष्ट करते चले जा रहे हैं। विज्ञान की पूरी ऊर्जा इसी में लगी हुई है। क्या यह हमारा सद्प्रयास है? आप ध्यान से देखें। विज्ञान की पूरी ऊर्जा जीवन और पर्यावरण को नष्ट करने के हथियार बनाने या सुविधा के सामान बनाने में लगी हुई है। पूरा विज्ञान संहार और सुविधा में जुटा पड़ा है। जीवन की स्थापना के बारे में विज्ञान की रत्ती भर भी रुचि नहीं है और न ही प्रयास है। कैंसर का इलाज नहीं खोज पाए। एड्स का इलाज नहीं खोज पाए। ...और बड़े-बड़े तुर्रम खां बनते फिर रहे हैं। विज्ञान की सारी पहुंच कैंसर रोगी के कैंसर ग्रस्त हिस्से को जला डालने और काट डालने तक है। कैंसर और बढ़ा तो और काटो, और जलाओ। जलता-झुलसता, कटता-कुटता कैंसर रोगी आखिरकार खुद ही धरती से कट लेता है। एड्स के रोगियों की तो और भी बुरी और वीभत्स दशा है। हमने 450 करोड़ रुपए खर्च करके एक यंत्र हवा में उछाल दिया और अपनी ही पीठ ठोकने लगे। लेकिन ऐसा करने की हरी झंडी देते हुए हमारे सत्ताधीशों ने यह क्यों नहीं सोचा कि भारत के नागरिकों के स्वास्थ्य पर भारत सरकार हर साल आठ प्रतिशत धन ही क्यों खर्च करती है? चीन अपने देशवासियों के स्वास्थ्य पर साढ़े बारह प्रतिशत धन क्यों खर्च करता है? हर साल पूर्वी उत्तर प्रदेश में अनजाने ज्वर से हजारों हजार बच्चे क्यों मर जाते हैं? इन बच्चों में जीवन फूंक देते तो क्या ये इसी धरती पर सुंदर तारों की तरह टिमटिमाते नहीं दिखते? अपने देश की धरा पर हमने जीवन को त्रासद बना दिया और चले अंतरिक्ष में जीवन की सम्भावनाएं तलाशने। क्या यही विज्ञान है? विज्ञान कुछ भी सार्थक नहीं कर रहा। और हम मीडिया वाले ढोल बजाते हैं। हम ढोलबज्जे हैं। दुर्गापूजा में जैसे कोलकाता के ढाक बजाने वालों की बूकिंग होती है, वैसे ही मीडिया वालों की भी होती है। रॉकेट लॉन्च हो रहा है तो ढोलबज्जों को बुला लो। कुछ भी प्रयोजित आयोजन हो, ढोलबज्जे बिना बुलाए भी बिना सोचे-समझे ढोल-ढाक पीटने में लग जाते हैं। जिनके पास पैसे हैं, जिनके पास समृद्धि है, जिनके पास समय है, वे चंद्रमा और मंगल खेलते रहें। जिनके पास पैसे नहीं। जिनके भ्रष्टाचार से पूरा अंतरिक्ष शरमाया हुआ है। जिनकी करतूतों से नागरिकों को खाना नहीं मिल पा रहा है। जिन्हें पानी नहीं मिल रहा। जिन्हें दवाएं नहीं मिल पा रही हैं। जहां बेरोजगारी खुद ही रॉकेट बनी हुई है। वहां हमें मंगल और चंद्रमा दिख रहा हो तो यह वाकई शर्म की बात है। यह भोले-भाले आम नागरिकों के साथ सरासर धोखेबाजी है। मंगल पर फलां खनिज मिलने की सम्भावना है, मंगल पर गैस मिलने की सम्भावना है, पानी मिलने की सम्भावना है, मंगल पर जीवन मिलने की सम्भावना है। सम्भावना की खोज करने के लिए अरबों रुपए फूंक दिए गए। ढोलबज्जों ने ढोल बजा दिया ताकि हम प्रसन्न होकर चुनाव के माया-जगत में प्रवेश कर जाएं और रॉकेट-विकास पर वोट डाल दें। इन खरबों रुपए से भूखों को खाना खिलाते, प्याज-सब्जी ही ले आते तो कुछ सार्थक होता। ...और मंगल ग्रह पर अगर जीवन मिल भी गया तो क्या सोचते हैं कि धरती के लोगों को अपने यहां वे टिकने देंगे? और वह भी भारत के लोगों को? भ्रष्टाचार-झूठ-अनैतिकता की बदबू लेकर दूसरे ग्रहों को भी गंधाने जाएंगे तो वे भारत के नागरिक थोड़े ही हैं कि 'टॉलरेट' कर लेंगे? वे उस ग्रह के सम्भावित जीव होंगे जो शारीरिक ऊर्जा, आत्मविश्वास, शक्ति, क्रोध, आवेग, वीरता और साहसिकता का प्रतिनिधित्व करता है। तो ऐसी ऊर्जावान धरती के वासियों को 'टोपी-चरित्र' के लोग कैसे पसंद आएंगे? खर्चीले यंत्रों को ऐसी यात्राओं पर भेजने के पहले यह तो विचार कर लिया होता कि चंद्रमा पर जाकर अमेरिका ने क्या हासिल कर लिया? रूस तो पहले से ही इस अंतरिक्षी दौड़ में आगे था, क्या मिला उसे? विखंडन और संताप के सिवा सोवियत यूनियन को क्या मिला? सर्वशक्तिमान रूस आज अकेला टूटा हुआ अलग-थलग क्यों पड़ा है? अंतरिक्ष में अपने-अपने उपग्रह स्थापित करने की मारामारी दरअसल संहार की क्षमता बढ़ाने के लिए है। ये जितनी भी बैलिस्टिक गाइडेड मिसाइलें आप देखते-सुनते हैं, अंतरिक्ष में बैठे उपग्रहों से संचालित होने पर इनकी मारक क्षमता अत्यधिक बढ़ जाती है। यानी, ये उम्मीद से अधिक लोगों को मार पाने में सक्षम होंगे। आगे आने वाली मार अंतरिक्ष से ही संचालित होने वाली है। उसमें अधिकाधिक लोगों की हत्या कर पाएं इसी की आपाधापी मची है। तो आप बताएं कि यह विज्ञान संहारक है या सृजनात्मक? हमारा विज्ञान सृजन के लिए क्या कर रहा है? इसके पहले भी हम चंद्रमा-मिशन के सफल होने का दावा कर चुके हैं। क्या पाया हमने उस चंद्र-मिशन के जरिए? चंद्रमा-मिशन में क्या खोया-क्या पाया का हिसाब किसी ने दिया आज तक? मंगल अभियान में चीन पिछड़ गया, जापान पिछड़ गया, हम आगे हो गए। पतंगबाजी का कम्पीटीशन है क्या ये? विकास में, समृद्धि में, शक्ति में, सामर्थ्य में, स्वाभिमान में, ईमानदारी में, नैतिकता में क्या हमने चीन और जापान से प्रतियोगिता की? हमारे एक मित्र अभी हाल ही जापान से अध्ययन-यात्रा कर लौटे हैं। उन्होंने जापानियों को कभी बेमानी बातें करते देखा ही नहीं। ट्रेन में बस में कितनी भी भीड़ हो, कोई एक दूसरे से चपड़-चपड़ नहीं करता। गाड़ियां हॉरन नहीं बजातीं। कोई नेता सड़क-चौराहे भाषण देता नहीं नजर आता। सब लोग काम करते नजर आते हैं। मुंह बंद रख कर जापान के लोग पर्यावरण की रक्षा करते हैं और अपनी ऊर्जा भी बेमतलब बर्बाद नहीं करते। जापानियों का यह मौन-संस्कार भारत के नेताओं में 'इंजेक्ट' हो पाता तो भारत का कितना मंगल होता!

हे मंगल! तू तो सूर्य, चंद्र और गुरु बृहस्पति का सखा है... नेताओं के नीच ग्रह में जकड़े भारत देश को सूर्य जैसा तेज, चंद्रमा जैसी विनम्रता, बृहस्पति जैसी बुद्धि और अपने जैसी वीरता दे। बस यही आह्वान है तुमसे...

Sunday 3 November 2013

कब मनाएंगे हम भारतवर्ष का मुक्ति-पर्व!

इस दीपावली में उतारें सोनिया माता राहुल भ्राता और मनमोहन दाता की आरती
प्रभात रंजन दीन

दीवाली पर क्या लिखें और क्या मनाएं! समाज का, देश का जो हाल है, उसमें पर्व-त्यौहार अपना प्रसंग खो चुके हैं। दीवाली मुक्ति पर्व के रूप में समझी और मनाई जाती थी। राम ने पाप-संकेत रावण से मुक्ति दिलाई तो देश दीपों से सज गया था। भारतवर्ष एक लम्बे समय से मुगलों और अंग्रेजों का हवस-केंद्र बना रहा और अब वह मुगलों-अंग्रेजों की मिश्रित संतानों के पाप में फंसा है। भारतवर्ष का मुक्ति-पर्व कब मनेगा, कब होगी उसकी दीवाली / कब चमकेगी देश-ललाट पर ताजे कुमकुम की लाली! यह सवाल खास तौर पर इन छियासठ वर्षों में रावण से अधिक शैतान नजर आने लगा है। अपनी तथाकथित आजादी के इन छियासठ साल को ही सामने रखें और इन तकरीबन सात दशकों के सत्ता-सरोकारों का जायजा लें तो हमें दिखाई पड़ेगा रौशनी का अंधकार से समझौता करने का बदनुमा दृश्य। तभी तो लिखा गया, 'वक्तआने पर मिला लें हाथ जो अंधियार से, सम्बन्ध कुछ उनका नहीं है सूर्य के परिवार से!' वाकई अभी एक सदी भी नहीं गुजरी और जिंदगी इतनी बेमानी हो गई कि पूरी पीढ़ी को अपनी आजादी जहर की तरह लगने लगी। देश का यह मामला है, घोर काली रात है / कौन जिम्मेवार है, यह सभी को ज्ञात है। भारतवर्ष नेताओं नौकरशाहों दलालों और पूंजी-जीवों का देश होकर रह गया है और रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में केवल चुनाव ही एकमात्र उत्सव में तब्दील हो गया है। अब नेता ही गणेश है और नेता ही लक्ष्मी। अब नेता-गणेश केवल अपने लिए शुभ करता है और नेता-लक्ष्मी केवल अपने लिए धन बरसाती है। इन्हें अब आम नागरिकों से क्या लेना-देना! बस सच यही है कि खादी ने मलमल से साठगांठ कर डाली है / टाटा-बिड़लों, नेता-दल्लों की तीसों दिन दीवाली है। अब बहस या चिंता नेताओं की चोरी नहीं। चोरी के कारण आम आदमी पर थोपी गई महंगाई बहस या चिंता का मसला नहीं। देश की सुरक्षा को बाहरी दुश्मनों और घर के भितरघातियों से खतरा बहस और चिंता का मुद्दा नहीं। अब तो बहस केवल धर्मनिरपेक्षता की है। अब तो चिंता केवल धर्मनिरपेक्षता की है। नेताओं का यह छद्म देश-समाज पर आरोपित है। धर्मनिरपेक्षता की नेताऊ-परिभाषा आजादी के बाद से ही देश पर छींट दी गई। यह ऐसे ही है कि, 'धोती बांधने के आग्रह पर केरल के मंदिर में नेहरू जी का आग बबूला हो जाना और निजामुद्दीन की दरगाह पर बड़ी प्रसन्नता से टोपी लगा कर जाना, इसी का नाम है धर्मनिरपेक्षता निभाना...' नेताओं की इसी धोखेबाज-धर्मनिरपेक्षता के कारण लोगों का पर्व-त्यौहार तो छोडि़ए, पूरा जीवन ही कुचक्र में फंस गया है। आप न कुछ खरीद सकते हैं। न आप धार्मिकता का सात्विक उल्लास सार्वजनिक तरीके से अभिव्यक्त कर सकते हैं। आप मूर्तियों का विसर्जन भी पुलिस के घेरे में करने लगे। आप गिरोहबंद हों तो सब कुछ कर सकते हैं। सड़क घेर कर धार्मिकता का भौंडा प्रदर्शन कर सकते हैं। क्योंकि तब आप धर्मनिरपेक्षता की नेताऊ-परिभाषा को संतुष्टि देते हैं। आप दुर्गा पूजा मनाएं तो मरें। आम मोहर्रम मनाएं तो मरें। लेकिन हम सोचते नहीं कि यह कैसी धर्मनिरपेक्षता हम अपने देश में पाल-पोस रहे हैं! दीपावली के मौके पर काफी पुराना एक फिल्मी भजन याद आता है। उस दौरान खूब चला था, 'मैं तो आरती उतारूं रे, संतोषी माता की।' उस समय से इस समय के बीच एक शब्द तेजी से बदल गया, संतोषी माता की जगह 'सोनिया माता' आ गईं। तब का भजन-गायन आज के भांड गायन में रूपान्तरित हो गया। देश का एक दशक जो बर्बाद हुआ, उसने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। इन दस वर्षों को हम खास तौर पर रेखांकित कर सकते हैं, क्योंकि इस दरम्यान सत्ताई भ्रष्टाचार और भांड गायन के प्रायोजित आयोजनों ने सारे प्रतिमान ध्वस्त कर डाले। अनैतिकता और झूठ-लफ्फाजी ने नए सिरे से भारतवर्ष की अंतरराष्ट्रीय छवि बनाई। इसी अवधि में काला धन पूरी सियासत का मुंह काला कर गया। इस दरम्यान राज-सत्ता खीसें निपोरती रही और सत्ता-नेपथ्य कठपुतलियां नचाता रहा और पगडिय़ां उछालता रहा। इसी काल में पौरुष हाशिए पर जाता रहा और नपुंसकता  मुख्यधारा में छाई रही। तो ऐसे नायाब समय में आई इस दीपावली में हम सोनिया माता, राहुल भ्राता और मनमोहन दाता की आरती उतारें, जिन्होंने भारत देश को इतना कुछ दिया। ...कि चोरों-बटमारों का चेहरा खिल गया और हमारा अस्तित्व हिल गया। इतना कि उनकी दीवाली उजास और हमारी दीवाली में कोठरी के कोने में जल रही मोमबत्ती उदास...