Tuesday 6 August 2019

#नरेंद्रमोदी #अमितशाह... आधुनिक भारतीय इतिहास के अद्वितीय नायक


प्रभात रंजन दीन
72 साल बाद भारत माता की खंडित जख्मी आत्मा थोड़ा आराम महसूस कर रही होगी। देश की खंडित आजादी के 72 साल बाद देश के लोग राहत महसूस कर रहे हैं। नेहरू के हिस्से की आजादी के 72 साल बाद देश को नरेंद्र मोदी और अमित शाह के रूप में सक्रिय राजनीति के मैदान के दो योद्धा, दो हीरो, दो मीर नजर आए... देश के लोगों को बाकी सारे नेताओं का बौना कद प्रामाणिक तौर पर समझ में आ गया। बाबा साहब अंबेडकर की आत्मा भी शांति में होगी, जो देश के साजिशी विभाजन और कश्मीर को लेकर की गई निहायत निकृष्ट कोटि की दोगली सियासत से दुखी और विचलित होकर महानिर्वाण कर गई थी। भारतवर्ष के स्वाभिमान पर चस्पा किए गए अनुच्छेद-370 के ‘अस्थाई-अपमान’ को सियासत की गंदी संततियों ने स्थाई बनाने की सारी हदें लांघीं और यह लगने लगा था कि अनुच्छेद-370 का बदनुमा दाग शायद ही देश के माथे से धुल पाए... लेकिन प्रकृति ने दृढ़ इच्छाशक्ति से भरे नरेंद्र मोदी और अमित शाह को भारत का आत्मसम्मान वापस लाने और ‘अस्थाई-अपमान’ को स्थाई-प्रतिष्ठा का मार्ग प्रशस्त करने का माध्यम चुना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नायकत्व में पांच अगस्त 2019 को लिया गया देश का यह निर्णय एक नए अध्याय, एक नई आजादी, एक नई स्वाभिमान-यात्रा के प्रारंभ की तारीख बन गई। आधुनिक भारतीय राजनीति क्या, विश्व राजनीति के अध्याय में पांच अगस्त 2019 एक ऐतिहासिक तारीख के रूप में दर्ज हो गई। कुछ लोग जो गांधी-नेहरू-जिन्ना-माउंटबेटन जनित खंडित-आजादी का काल देख चुके हैं, वे यह मानते हैं कि पांच अगस्त 2019 की उद्घोषणा 15 अगस्त 1947 की घोषणा से कहीं अधिक सम्मानजनक और सार्थक है। बाद की वे पीढ़ियां जो देश को बांट कर सत्तासुख चाटने वालों की हरकतों और उनके षडयंत्रों को पढ़ा-समझा है, वे भी पांच अगस्त 2019 की उद्घोषणा को देशहित और व्यापक जनहित की मुनादी मानती हैं। जो भी व्यक्ति अनुच्छेद-370 हटाए जाने और जम्मू-कश्मीर से लद्दाख को अलग किए जाने के फैसले की निंदा करता नजर आए, आप समझ लें कि उसके मूल में खोट है। देशहित के खिलाफ कोई विरोध दर्ज करे और प्रति-तर्क उपस्थित करे, उसे अब कतई बर्दाश्त नहीं करने का समय है। आपकी जो भी विचारधारा हो, अगर उसमें राष्ट्रहित का भाव नहीं है तो आप अपनी विचार-प्रणाली में संशोधन कर लें... अब ‘टुकड़े-टुकड़े’ का दुर्बुद्धिजीवी-भाव त्याग दें, एक की हत्या पर दुष्टतापूर्ण मौन और दूसरे की हत्या पर समवेत हुआं-हुआं करना छोड़ दें, छद्मी-प्रगतिशीलता और छद्मी-बुद्धजीविता से बाज आएं... अब छद्मता (hypocrisy) का अंतकाल आ गया समझें। स्वाभाविक मानवतावादी हों और असली राष्ट्रवादी हों। आप किसी भी विचारधारा के हों, आप किसी भी धर्म के हों, किसी भी जाति के हों, मानवता और करुणा में धर्म और जाति का एंगल तलाशना और दुकान चलाना छोड़ दें। कोई भी देश एक राष्ट्र और एक संविधान से शक्तिशाली होता है, इसे समझना शुरू कर दें... 70-72 साल समझने और realize करने के लिए बहुत होता है। अब और वक्त नहीं है और न उत्तर-आजादी काल की पीढ़ियों के पास इतना धैर्य बचा है। बहुत पिला लिया दोगली-तिगली विचारधारा का जहर... अब और नहीं। अब उस लत (एडिक्शन) के शिकार लोगों के ‘विड्रॉल-सिम्पटम’ (नशेड़ियों का नशा रोक दिया जाए तो वे जिस तरह की विक्षिप्त हरकतें करते हैं) का कारगर इलाज करने की अनिवार्यता है।
आरोपित आजादी के 72 साल बाद भी अगर हमें एक राष्ट्र और एक संविधान की अनिवार्यता पर बहस करनी पड़े और लोगों को समझाने-बुझाने का प्रयास करना पड़े तो ऐसे समझदार और जागरूक लोकतांत्रिक भारत पर गर्व करने का कोई भी कारण नहीं दिखता। आजादी की षडयंत्रिक-आपाधापी में खंडित भारत, पाखंडी राजनीतिकों के हाथों जख्मी हुआ। नेताओं की पीढ़ियां दर पीढ़ियां राजनीति और सत्ता पर प्रकट होती आईं, लेकिन वे सब राष्ट्र के हित-चिंतन में हीन और राजनीतिक स्वार्थ में लीन रहीं। उन सबने संविधान को अपनी राजनीतिक लोलुपता का जरिया बनाया, मनमाने तरीके से संविधान संशोधन किए और अपने हित साधे। खंडित भारत के नीति नियंताओं को देश की चिंता नहीं थी, ज्यादा से ज्यादा पाने की हवस थी। देश तोड़ने के बाद कश्मीर को भी देश से अलग करने की साजिश की गई। इसके लिए संविधान को जरिया बनाया गया। अनुच्छेद-370 और 35-ए का नत्थीपत्र इसी सत्ता-हवस की साजिशों का परिणाम है। इसी सत्ता हवस की पुश्तैनी बीमारी ने पूरे देश को ग्रसित करने का काम किया। लेकिन प्रकृति ने उसके समापन का काल तय कर रखा था।
संविधान का अनुच्छेद-370... ‘जम्मू-कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अस्थाई उपबंध’ की पंक्ति को रेखांकित करता हुआ शुरू होता है। महाराजा हरि सिंह से खार खाए और शेख अब्दुल्ला से अतिरिक्त नेह लगाए बैठे जवाहर लाल नेहरू ने भी धारा-370 के प्रसंग में कहा था कि यह समय के साथ घिसकर खत्म हो जाएगी। लेकिन कांग्रेस ने इसके घिसकर खत्म होने के बजाय इसे स्थाई घाव बना कर रखा और साम्प्रदायिक-मवाद को हमेशा रिसते रहने के लिए छोड़ दिया। अनुच्छेद-370 के बारे में आप सब जानते हैं कि भारतीय संविधान में इसे कैसे साजिश करके शामिल किया गया और कैसे इसमें 35-ए का नत्थीपत्र चस्पा करने के लिए राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के साथ आपराधिक आचरण किया गया। यह धारा भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक नैतिकता, दोनों पर गहरे सवाल की तरह आरूढ़ रही है। नेहरू ने कश्मीर के मसले को क्यों उलझाया..? क्या शेख अब्दुल्ला परिवार से उनकी कोई रिश्तेदारी थी, जिसे निभाने के लिए उन्होंने अनुच्छेद-370 के जरिए कश्मीर को विशेष दर्जा दे दिया..? जब कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय पर महाराजा हरि सिंह की औपचारिक स्वीकृति मिल चुकी थी, तब नेहरू ने ऐसा क्यों किया..? नेहरू ऐसे दुर्लभ राष्ट्रभक्त राजनेता और दूरद्रष्टा निकले जिन्होंने एक ही देश में दो संविधान, दो झंडा और दो विचारधारा की व्यवस्था लागू कर दी। उस पूर्व-नियोजित-भूल (pre-planned error) को पूरा देश भुगतता रहा। इस संवैधानिक-विशेषाधिकार का ही नतीजा था कि कश्मीरी पंडितों के जीवन जीने के मौलिक अधिकार के साथ-साथ उनके सारे नागरिकीय-संवैधानिक अधिकार सार्वजनिक रूप से छीन लिए गए। जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला के संवैधानिक-षडयंत्र के कारण ही कश्मीर के इस्लामी उन्मादियों और अलगाववादियों ने कश्मीरी पंडितों और गैर मुस्लिमों की प्रतिष्ठा और सम्पत्तियां लूटीं, उनकी सार्वजनिक-सामूहिक हत्याएं कीं और जो बचे उन्हें कश्मीर से खदेड़ भगाया। भीषण त्रासदी का यह सिलसिला लगातार जारी रहा। यह विडंबना रही कि सेना और सुरक्षा बलों को उस राज्य में आतंकवादियों और पाकिस्तानियों से जूझने के लिए झोंक दिया गया। जबकि दूसरी तरफ शेख अब्दुल्ला से लेकर फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला तक, गुलाम मुहम्मद शाह से लेकर मुहम्मद इरफान शाह तक और मुफ्ती मुहम्मद सईद से लेकर महबूबा मुफ्ती तक भारत के खिलाफ आग भी उगलते रहे और सियासत की रोटियां भी सेंकते रहे। इन परिवारों ने कश्मीर को लूटने-खाने का अपने नाम पट्टा बनवा लिया। अलगाववादियों को भी पालते-पोसते रहे और कश्मीरी अवाम के सामने भी टुकड़े फेंक-फेंक कर उन्हें धर्मांध-हिंसक-पशुओं की जमात में तब्दील करने का कुचक्र किया। कश्मीर को अस्थिर बना कर लूटपाट का स्थिर एजेंडा चलता रहा।
बाबा साहब अम्बेडकर ने 370 के प्रस्ताव पर कड़ी आपत्ति जताई थी। यहां तक कि कांग्रेसियों ने भी धारा-370 का विरोध किया था। अम्बेडकर का विरोध देख कर नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को उनके पास वार्ता के लिए भेजा। बाबा साहब ने कश्मीर को विशेष दर्जा देने के औचित्य पर शेख से सवाल पूछे और उनसे कहा, ‘एक तरफ आप चाहते हैं कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, कश्मीरियों को खिलाए-पिलाए, उनके विकास और उन्नति के लिए प्रयास करे और कश्मीरियों को भारत के सभी प्रांतों से अधिक सुविधाएं और अधिकार दे, लेकिन दूसरी तरफ भारत के अन्य प्रांतों को कश्मीर जैसी सुविधाओं और अधिकारों से वंचित कर दिया जाए?’ अम्बेडकर ने शेख से कहा था, ‘मैं देश से गद्दारी नहीं कर सकता।’ अम्बेडकर ने शेख को फटकार कर अपने कक्ष से भगा दिया था। इसके बाद ही नेहरू ने शेख अब्दुल्ला, सरदार पटेल और गोपाल स्वामी अयंगार के साथ मिल कर धारा-370 की व्यूह-रचना की। कांग्रेस पार्टी का विरोध देख कर जवाहर लाल नेहरू संविधान में धारा-370 जोड़ने का ‘बड़ा-दायित्व’ सरदार वल्लभ भाई पटेल को देकर खुद अमेरिका सरक लिए। नेहरू की अनुपस्थिति में सरदार पटेल ने नेहरू की प्रतिष्ठा का हवाला देकर बड़ी मशक्कत से कांग्रेस पार्टी को राजी किया। कश्मीर को विशेष दर्जा देने का प्रस्ताव कानून मंत्री बाबा साहब अम्बेडकर से न रखवाकर गोपाल स्वामी अयंगार से रखवाया और अम्बेडकर को इस विषय पर संसद में बोलने तक नहीं दिया। इस तरह संविधान-सभा में धारा-370 स्वीकृत कराई गई। सरदार पटेल के मिशन-370 का पूरा वर्णन पटेल के निजी सचिव रहे और पटेल के पत्रों के संकलन के संपादक वी. शंकर ने किया है। वी. शंकर कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में सरदार पटेल की उल्लेखनीय सिद्धि (उपलब्धि) रही कि उन्होंने भारत के संविधान में अनुच्छेद-370 जुड़वाया।
अनुच्छेद-370 हटाने की कभी कोशिश क्यों नहीं की गई? इसे जानने से पहले इस सवाल का जवाब जानना अधिक जरूरी है कि धारा-370 लागू ही क्यों की गई? दरअसल, नेहरू-अब्दुल्ला की साजिश पाकिस्तान और भारत के बीच कश्मीर को बफर स्टेट बनाने की थी। जबकि माउंट बेटन कश्मीर का पाकिस्तान में विलय चाहता था। महाराजा हरी सिंह ने इन षडयंत्रों को भांपते हुए ‘एनेक्सेशन-एक्ट’ पर हस्ताक्षर कर दिया। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला की कुटिल चालों, धार्मिक कट्टरता और अलगाववादी विचार को समझते थे। वे यह भी जानते थे कि ‘क्विट-कश्मीर मूवमेंट’ के जरिए शेख अब्दुल्ला उन्हें हटाकर, स्वयं शासन संभालने के तिकड़म में लगा है और नेहरू उसका साथ दे रहे हैं। नेहरू भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री बन गए थे, तब शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर में एक अधिवेशन आयोजित किया और उसमें नेहरू को आमंत्रित किया। अधिवेशन में कश्मीर के महाराजा को हटाने का प्रस्ताव रखा जाने वाला था। महाराजा हरि सिंह ने नेहरू से इस कांफ्रेस में शरीक न होने का आग्रह किया। लेकिन नेहरू नहीं माने और दिल्ली से श्रीनगर के लिए चल पड़े। आखिरकार महाराजा की सेना ने नेहरू को जम्मू सीमा पर रोक लिया और उन्हें वापस लौटने पर विवश कर दिया। नेहरू ने इसे अपना व्यक्तिगत अपमान समझा और हरि सिंह को सबक सिखाने का अवसर तलाशते रहे। यही वजह है कि कबायलियों के वेश में पाकिस्तानी सेना द्वारा कश्मीर में रक्तपात मचाए जाने के बावजूद नेहरू ने सेना नहीं भेजी। आजाद होने के बाद भी भारत का गवर्नर जनरल बने बैठे लॉर्ड माउंटबेटन ने भी सेना भेजने से नेहरू को मना किया। जम्मू-कश्मीर आर्मी के ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को वर्दी पहनने तक का समय नहीं मिला। सिविल कपड़ों में ही ढाई सौ जवानों के साथ लड़ते हुए वे सब शहीद हो गए। महाराजा को सबक सिखाने के लिए नेहरू ने पूरे देश को दांव पर रख दिया। आखिरकार सरदार पटेल के सख्त विरोध और हस्तक्षेप के बाद भारतीय सेना कश्मीर भेजी गई। वहां पहुंचते ही भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को खदेड़ भगाया और पाकिस्तान के अंदर बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया। भारतीय सेना ने पाकिस्तानी क्षेत्र पर जैसे ही कब्जा जमाया, वैसे ही नेहरू ने एकतरफा युद्धविराम लागू कर दिया। नेहरू ने भारतीय सेना को जीता हुआ क्षेत्र छोड़ कर वापस लौटने का फरमान जारी कर दिया। नतीजा यह हुआ कि कश्मीर का एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलगित वगैरह शामिल थे, दुबारा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया, जिसे पाकिस्तानी आजाद-कश्मीर कहते हैं और हम पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) कहते हैं। इतना ही नहीं, नेहरू ने उसी समय कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में पेश करने का शातिराना कदम भी उठाया, ताकि भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर के स्वतंत्र राष्ट्र (बफर स्टेट) बनने का रास्ता सरल हो जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। तब अनुच्छेद-370 का तिकड़म रचा गया।
कश्मीर को पाकिस्तान के साथ विलय कराने के लिए माउंटबेटन ने महाराजा हरि सिंह पर काफी दबाव डाला था। यहां तक कि माउंटबेटन श्रीनगर में डेरा डाल कर बैठ गया था और महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री मेहरचन्द महाजन के जरिए महाराजा पर यह दबाव डलवाता रहा कि ‘भौगोलिक स्थिति’ को देखते हुए कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनना उचित है। लेकिन महाराजा ने माउंट बेटन की एक नहीं सुनी। इसी बीच सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर से इस सिलसिले में मदद मांगी और उन्हें महाराजा हरि सिंह से बात करने के लिए कश्मीर भेजा। इस वार्ता के बाद महाराजा हरि सिंह भारत में कश्मीर के विलय पर राजी हुए।
ये बातें अब इतिहास के पिछले पन्नों में चली गई हैं। उत्तर-आजादी काल की सियासी संततियों ने अपने राजनीतिक पुरखों द्वारा किए गए राष्ट्रविरोधी गंभीर अपराध (उस अपराध को भूल कह कर सरलीकृत नहीं कर सकते) से कोई सीख नहीं ली और उस पर कोई कार्रवाई नहीं की। ...लेकिन कोई था जो इस गंभीर आपराधिक कृत्य को पढ़ रहा था, समझ रहा था और कारगर कार्रवाई के लिए समय का इंतजार कर रहा था। समय ने उन व्यक्तित्वों को माकूल समय पर देश के सामने ला खड़ा किया। अभी बहुत काम बाकी है... कश्मीर घाटी में धार्मिक समरसता की स्थापना होनी है, कश्मीरी पंडितों को अपने घर वापस जाना है, शेष भारत के लोगों को कश्मीर घाटी में बसना है, वहां नौकरी करनी है जैसे अन्य राज्यों में करते हैं। घाटी को अंधकूप से निकाल कर उसे भारत के छद्मियों से नहीं, बल्कि भारत की मौलिकता से आत्मसात कराना है। पाकिस्तान के कब्जे से कश्मीर के शेष हिस्से को निकालना है। चीन के कब्जे से अक्सई-चिन को वापस लेना है। अभी काम बहुत बाकी है...
कश्मीर से धारा-370 हटने के बाद प्रगतिशील और बुद्धिजीवी होने का ढोंग करने वाले छद्मजीवी विचित्र-विचित्र किस्म के तर्क देने लगे हैं। बौखला उठे हैं। कहते हैं कि इस फैसले से पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत का दावा कमजोर हो गया और इस फैसले से संविधान का उल्लंघन हुआ। छद्मजीवियों की रुदाली यह भी है कि कश्मीरियों की इच्छा और उनकी संस्कृति रौंद डाली गई। वगैरह, वगैरह... जिसने संविधान को सूक्ष्मता से पढ़ा और समझा, उसने संविधान के अनुरूप फैसला लेकर एक झटके में धारा-370 का खात्मा कर दिया। जिन नासमझों ने संविधान पढ़ा ही नहीं, उसके पास अल्ल-बल्ल बोलने के सिवा बचा ही क्या है..! अरे छद्मियों..! कश्मीरियों की इच्छा और कश्मीर की संस्कृति क्या कश्मीरी पंडितों की नहीं थी..? जब घाटी में कश्मीरी पंडितों और गैर मुस्लिमों को मारा जा रहा था, उनकी बहनों-बेटियों के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहे थे, मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से सारे गैर-मुस्लिमों को घाटी से चले जाने की धमकियां एनाउंस की जा रही थीं, तब कश्मीरियों की इच्छा और कश्मीर की संस्कृति कहां थी छद्मियों..? जब लेह-लद्दाख में लव-जेहाद का धार्मिक-प्रदूषण फैलाया जा रहा था, तब भोले-भाले लद्दाखी बौद्धों की रौंदी जाती संस्कृति की चिंता किसने की थी छद्मियों..? लद्दाख के लोग तो अर्से से यह मांग कर रहे थे कि लद्दाख को अलग कर उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाए। तब लद्दाखियों की इच्छा के सम्मान की चिंता छद्मियों में क्यों नहीं दिखी..? आज देखिए, सारे छद्मियों की एक ही जुबान है। कहते मिलेंगे कि पीछे की बात याद दिलाना वर्तमान की सच्चाई की उपेक्षा करना है। इन छद्मी-बुद्धिजीवियों का यह अजीब मूर्खों जैसा तर्क है। घाटी में गैर मुस्लिमों को मारे जाने का सिलसिला लगातार चलता रहा है और अब भी जारी है। आप तथ्यों में जाएं तो कश्मीर घाटी में सामूहिक बर्बर हत्याकांडों के नृशंस कृत्यों का सिलसिलेवार क्रम आपके दिमाग में तेजाब भर देगा। इन घटनाओं से बेहूदा-बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार के दुकानदारों को पीड़ा नहीं होती। 20 मार्च 2000 को श्रीनगर से महज 70 किलोमीटर दूर अनंतनाग जिले के छत्तीसिंह पुरा गांव के 36 सिखों को लाइन में खड़ा करके उन्हें गोलियों से भून दिया गया था। 30 अप्रैल 2006 को कश्मीर के डोडा में 35 हिन्दुओं को लाइन में खड़ा करके गोलियों से भून दिया गया था। उस लाइन में तीन साल की बच्ची भी शामिल थी। मारे गए सिखों और हिन्दुओं के रिश्तेदार आपको आज भी राजधानी दिल्ली के सत्ता गलियारों में न्याय के लिए भटकते मिल जाएंगे। यह तो मैंने महज दो उदाहरण सामने रखे। ऐसे अनगिनत पीड़ितों की कतारें आपको यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखेंगी। इन्हें देख कर क्या यह नहीं लगता कि पीछे की घटनाएं वर्तमान की सच्चाई से जुड़ी होती हैं..? अपने ही देश में कश्मीरी पंडित शरणार्थी हैं। इन्हें देख कर क्या यह कहना उचित है कि पीछे की बात याद दिलाने से वर्तमान की सच्चाई की उपेक्षा होती है..? छद्मी कहते हैं कि हम छत्तीसिंह पुरा या डोडा नरसंहार जैसी घटनाएं याद न करें, इससे वर्तमान की सच्चाई की उपेक्षा होती है... फिर हम जलियांवाला बाग गोलीकांड क्यों याद करते हैं और इसे याद करने से वर्तमान की कौन सी सच्चाई उपेक्षित होती है..? छद्मियों की बेगैरत जमात छत्तीसिंह पुरा या डोडा पर खतरनाक चुप्पी साधे रहती है। जबकि यह सवाल हर वक्त पूछा जाना चाहिए कि क्यों मारे गए थे वे निर्दोष लोग..? तब पुरस्कार क्यों नहीं लौटाया गया था और तब क्यों नहीं लिखी गई थी प्रधानमंत्री को चिट्ठी..?
बहुत सारी बातें हैं, जो क्रम से लिखी जाएंगी... कही जाएंगी। अभी सामाजिक माध्यमों (सोशल-मीडिया) के जरिए आप तक अपनी बात रख रहा हूं। कई मित्र सहमत होते हैं... कई मित्र असहमत भी होते हैं, लेकिन उनकी असहमति के स्वस्थ तर्क होते हैं। तार्किक सहमति और तार्किक असहमति, दोनों ही लोकतांत्रिक चरित्र की शोभा और संतुलन हैं। लेकिन कुछ लोगों के पास न तथ्य होते हैं और न तर्क... उनके पास केवल कीचड़ होता है, जिसमें वे रहते हैं और उसे ही दूसरों पर उछालते हैं। यह भी ठीक है, आप छद्मियों को सामने से पहचान तो लेते हैं..! हम बहुत जल्दी एक अखबार के जरिए भी आपसे मिलेंगे... सच बोलना-लिखना नहीं छोड़ेंगे... जो अच्छा होगा या अच्छा करेगा, उसकी सराहना करेंगे। जो गलत होगा या गलत करेगा, उसका पोस्टमॉर्टम करेंगे; धर्म, जाति, राजनीति और वर्ण का भेद किए बगैर...