Thursday 29 November 2018

योगी का कथन... परम-विराटता को चरम-संकीर्णता में बांधने का अनैतिक वक्तव्य

प्रभात रंजन दीन
साधो यह है मूढ़ मति का देश... योगी आदित्यनाथ ने जब अली के प्रसंग में बजरंग बली और दलित के प्रसंग में हनुमान का जिक्र किया तो स्वाभाविक रूप से यही पंक्ति योगी का स्वरूप लेकर मन में आई और अपने ही चेतन में बार-बार प्रतिध्वनित होती रही. योगी आदित्यनाथ साधु हैं. संन्यासी हैं. कोई और नेता ऐसा कहता तो उसे ऐरा गैरा नत्थू खैरा समझ कर टाल देता, लेकिन साधु-संत सत्ता लिप्सा में इतना लिप्त हो जाए कि देवी-देवताओं को भी वोट के तराजू पर तौलने लगे, तो आप समझ लें हमारा देश-समाज किस निम्नता के दौर में है कि जो भी राजनीति में गया, ऐरा गैरा और नत्थू खैरा ही हो गया. अभी कुछ दिन पहले बिहार के राज्यपाल लालजी टंडन जी से मुलाकात हुई तो बिहार के मौजूदा बुद्धिजीवियों के बौद्धिक-स्तर को लेकर भी चर्चा हुई. शिक्षा, संस्कार, अकादमिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों में शीर्ष पर स्थापित रहे बिहार के वर्तमान शैक्षणिक स्तर को लेकर हैरत और चिंता स्वाभाविक है. इस आश्चर्य और चिंता को साथ लेकर चलते हुए हमें इस बात का भी अहसास रहना चाहिए कि सर्वोत्कृष्ट-बौद्धिकता का सात्विक आनंद जब हम प्राप्त कर चुके तो निकृष्ट-बौद्धिकता का रस भी हमें ही लेना होगा. सिक्के का एक पहलू तब था, उसी सिक्के का दूसरा पहलू अब है. दर्शन भी यही कहता है कि सुपर-इंटेलिजेंस और सुपर-इडियॉसी दोनों पहलू साथ-साथ ही रहते हैं, ऊपर-नीचे... उस कालखंड में सिक्का उस तरफ था तो इस कालखंड में सिक्का इस तरफ है. दर्शन का यह प्रसंग हजरतअली-बजरंगबली और दलित-हनुमान के योगी-उवाच पर फिर से जिंदा हो उठा. सिक्के के दूसरे पहलू का दौर पूरे देश को ग्रस रहा है, योगी का कथन हमें यही बताता है.
योगी यह कह सकते हैं कि उनके वक्तव्य को संकेतों में ग्रहण करना चाहिए, लेकिन इसके पहले उन्हें देश के लोगों को यह बताना होगा कि वोट के नफा-नुकसान के भौतिक मोलभाव में वे ईश्वर का इस्तेमाल क्यों करते हैं? इस तुलना में उन्होंने तुलना की पात्रता और मर्यादा भी ताक पर रख दी, इसका क्या औचित्य है? हनुमान ऐसे देवता हैं जो सम्पूर्ण जीव-जगत को मनोबल देते हैं. सम्पूर्ण जीव-जगत को ‘बूस्ट’ करते हैं. सम्पूर्ण जीव-जगत की हीन भावना हरते हैं. इस जीव-जगत में केवल मनुष्य नहीं आते, इसमें चेतन शरीर, जीव शरीर और जड़ शरीर सब आते हैं. हनुमान इस समग्र जीव-जगत के देवता हैं, एक जाति नहीं हैं. इसलिए हनुमान को दलित कहना या उन्हें ब्राह्मण कहना या किसी जीव-शरीर की श्रेणी में रखना चरम मूर्खता या अवसरवादिता की चरम-चतुराई के सिवा कुछ नहीं है. देवता परम् ब्रह्म का लौकिक रूप हैं. उन्हें ईश्वर का सगुण रूप भी कह सकते हैं. उन्हें जाति, धर्म, वर्ण की क्षूद्रता में बांधना हीनता और मक्कारी की सनद है. हनुमान शिव के 11वें रूद्रावतार हैं. ऐसी परम-विराटता को चरम-संकीर्णता में बांधने का वक्तव्य है हनुमान को किसी मनुष्य-जनित जाति का प्रतिनिधि कहना.
राजस्थान की चुनावी सभा में हनुमान को दलित कहने वाले योगी आदित्यनाथ मध्यप्रदेश की चुनावी सभा में बजरंग बली को अली के समतुल्य रखने की धृष्टता भी कर चुके हैं. मुसलमानों के चौथे खलीफा हजरत अली (अली इब्ने अबी तालिब) देवतुल्य हैं, सम्माननीय हैं. लेकिन हजरत अली परा-प्राकृतिक नहीं हैं. बजरंग बली परा-प्राकृतिक हैं, परा-भौतिकीय हैं. हजरत अली 14 सौ साल पहले (13 मार्च 600) को पैदा हुए और सन् 661 में शहीद कर दिए गए. ज्योतिषीय गणना बताती है कि बजरंग बली का जन्म करीब एक करोड़ 85 लाख 58 हजार 115 वर्ष पहले त्रेतायुग के अंतिम चरण में चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन हुआ था. शरीर बज्र की तरह होने के कारण उन्हें बजरंग बली कहा गया. प्रकृति ने देवताओं के जिन सात लौकिक रूपों को अमरत्व का वरदान दिया, उनमें अश्वत्थामा, बलि, व्यास, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और हनुमान हैं. अमर्त्य बजरंग बली का मर्त्यलोक के महापुरुष हजरत अली से तुलना करना योगी आदित्यनाथ की संन्यासिक सीख के प्रति संदेह का भाव जाग्रत करता है.
योगी आदित्यनाथ शैव मत के प्रतिनिधि संन्यासी हैं. योगी आदित्यनाथ गोरक्षधाम (गोरखधाम) शैव-पीठ के मुख्य महंत भी हैं. शैव मतावलंबी शिव को इष्ट मानते हैं और वैष्णव मतावलंबी विष्णु को. हनुमान भगवान शिव के 11वें अवतार हैं, यह जानते हुए भी शैव मत के प्रतिनिधि संन्यासी योगी आदित्यनाथ ने पृथ्वी के एक छोटे से हिस्से में रहने वाले जातियों में खंडित समुदाय के किसी एक समूह से हनुमान को कैसे जोड़ दिया? यह घोर आश्चर्य और दुख का विषय है. राजनीतिक महत्वाकांक्षा किसी भी राजनीतिक व्यक्ति को किसी भी स्तर तक गिरा देती है, यह आधुनिक-भारत के लोगों का अनुभव तो है, लेकिन बहुत सात्विक उम्मीदों से सत्ता पर स्थापित किए गए साधु-संन्यासी योगी भी ऐसी ही ‘सद्गति’ को प्राप्त होंगे, इसकी लोगों को कल्पना भी नहीं थी... 

Saturday 24 November 2018

चुनाव एमपी-छत्तीसगढ़ का, खर्चा यूपी का

सरकारी विमान घन्न-घन्न, चुनाव प्रचार दन्न-दन्न 
तीन राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के प्रचार-प्रसार पर उत्तर प्रदेश के सरकारी खजाने का भी खूब इस्तेमाल हो रहा है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अधिक समय आसमान पर ही रहते हैं. यूपी का शासन-प्रशासन मुख्यमंत्री की हवाई यात्राओं और हवाई सर्वेक्षणों से चल जाता है. सरकार के मुखिया के बतौर मुख्यमंत्री का सारा काम-काज उड़ान-केंद्रित होकर रह गया है. मुख्यमंत्री आवास के एक कर्मचारी ने बड़े भोलेपन से कहा कि मुख्यमंत्री बहुत मेहनत करते हैं. सुबह ही हेलीकॉप्टर पर चढ़ जाते हैं और देर शाम वापस लौटते हैं, फिर सुबह हेलीकॉप्टर से कहीं चले जाते हैं. मुख्यमंत्री सचिवालय के अधिकारी भी मस्त हैं, न कोई नियंत्रण न कोई अनुशासन. यूपी की सरकार ऐसे ही मस्त उड़ान भर रही है.
पिछले दस बारह दिन का ही ब्यौरा देखें तो आपको पिछले डेढ़ साल का मुख्यमंत्री का हवाई-शासन समझ में आ जाएगा. 10 नवंबर की सुबह आठ बजे ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकारी विमान से छत्तीसगढ़ के लिए उड़ गए. छत्तीसगढ़ में मुंगेली, बेमेतरा और कबीरधाम की चुनावी सभाओं को संबोधित करने के बाद विमान से वापस लखनऊ लौट आए. मुख्यमंत्री 12 नवंबर को फिर वाराणसी के लिए उड़ गए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाराणसी दौरे पर मुख्यमंत्री का वहां रहना जरूरी था. एक दिन बाद 14 नवंबर को योगी फिर सरकारी विमान से छत्तीसगढ़ के लिए उड़े. वहां धमतरी, रायगढ़, कोरबा, बिलासपुर समेत कुछ अन्य स्थानों पर चुनावी सभाएं कर वापस लखनऊ लौटे. अगले ही दिन 15 नवंबर को सुबह ही मुख्यमंत्री फिर छत्तीसगढ़ के लिए उड़ गए. वहां योगी ने कोरिया, जशपुर, बालोद और रायपुर में चुनावी सभाओं को संबोधित किया और वापस लौटे. 17 नवंबर को योगी फिर उड़े और अपने गोरखपुर जनपद पहुंचे. पिपराइच चीनी मिल का निरीक्षण और क्षेत्रीय खेल स्टेडियम में आयोजित अंतरराष्ट्रीय कुश्ती प्रतियोगिता का उद्घाटन करने के बाद वापस लौटे. 18 नवंबर की सुबह ही योगी फिर उड़े और बिलासपुर पहुंच कर वहां प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया और भटपारा, सूरजपुर, बलदेव बाजार और रायपुर में कई चुनावी सभाएं कीं. 21 नवंबर को योगी सरकारी विमान से भोपाल गए और वहां आस्ता, सिहोर, बोडरा, नरसिंहगढ़, रायगढ़, शमशाबाद, विदिशा, उदयपुर, रायसेन, इटारसी, होशंगाबाद में चुनावी सभाएं कीं. 22 नवंबर को योगी फिर उड़े और गढ़ मुक्तेश्वर (हापुड़) होते हुए गोरखपुर पहुंचे. गोरखपुर से देर रात ही योगी उड़ते हुए लखनऊ वापस आ गए. 23 नवंबर को मुख्यमंत्री ने फिर नागपुर के लिए उड़ान भरी. नागपुर में एक एनजीओ की सभा में शरीक हुए और वहां से सीधे वाराणसी में देव दीपावली में शामिल हुए. देव दीपावली मनाकर और काशी-विश्वनाथ मंदिर परिसर में बन रहे विशेष गलियारे का निरीक्षण कर योगी देर रात लखनऊ लौटे और फिर 24 नवंबर को मध्यप्रदेश के लिए उड़ गए. मध्यप्रदेश में चुनावी सभाएं करने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राजस्थान जाएंगे और भाजपा के लिए चुनाव प्रचार करेंगे. इस तरह उत्तर प्रदेश में सरकार चलाई जा रही है.
आसमान से योगी चला रहे यूपी की सरकार
सुदूर नागपुर में एक एनजीओ की सभा में शरीक होना मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्राथमिकता थी. एनजीओ ‘एग्रो-विजन’ की तरफ से आयोजित ‘एग्रीकल्चर-समिट’ में योगी आदित्यनाथ शरीक हुए और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की प्रशंसा के ‘गीत’ गाकर वाराणसी चले आए. लगातार सरकारी विमान और हेलीकॉप्टर पर सवार मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश के सरकारी अधिकारियों को कम खर्चा करने का उपदेश देते रहे हैं. अभी हाल ही मुख्यमंत्री ने खर्च में कटौती करने का फरमान देकर विदेश यात्राओं, प्रकाशन सामग्री और विज्ञापनों पर होने वाले खर्च में कटौती करने की सख्त हिदायत दी थी. योगी ने पांच सितारा होटल की संस्कृति से भी बाज आने को कहा था और विभिन्न बैठकों में भाग लेने के लिए यात्रा पर होने वाले खर्च को सीमित करने का निर्देश दिया था. विडंबना यह है कि केंद्र में बैठी भाजपा सरकार चार वर्ष में चार हजार करोड़ रुपए केवल प्रचार-प्रसार पर खर्च कर चुकी है. प्रचार पर सबसे अधिक खर्च करने वाली पार्टी में भाजपा ही शीर्ष स्थान पर है.
सरकारी खजाना लुटाने में अखिलेश भी थे अव्वल
प्रचार-प्रसार और फिल्मों के लिए बांट दी थी रेवड़ी 
फिजूलखर्ची में अखिलेश सरकार भाजपा से कहीं कम नहीं थी. निवर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने प्रचार-प्रसार पर रिकॉर्ड तोड़ खर्च तो किया ही फिल्म वालों को भी सरकारी खजाने से खूब धन बांटे. अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में अखिलेश सरकार ने एलईडी से प्रचार में 85 करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए. प्रतिस्पर्धा में योगी आदित्यनाथ ने भी सत्ता संभालते ही एलईडी प्रचार पर 10 करोड़ रुपए खर्च कर दिए. अखिलेश यादव ने चुनावी वित्तीय वर्ष 2016-17 में एलईडी वैन से प्रचार कराने में 85 करोड़ 46 लाख 60,681 रुपए खर्च किए तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एलईडी वैन से प्रचार कराने में वर्तमान वित्तीय वर्ष 2017-18 के शुरुआती साढ़े सात महीने में 9 करोड़ 92 लाख 68,792 रुपए खर्च किए.
अखिलेश सरकार ने अगस्त 2016 तक एक हजार करोड़ रुपए टीवी अखबार के विज्ञापनों, होर्डिंग्स और एलईडी के जरिए प्रचार-प्रसार में झोंक दिए थे. इसी तरह अखिलेश सरकार ने फिल्म वालों को भी खूब धन दिए. यह खुलासा हुआ है कि एक 21 दिसम्बर 2016 को हुई एक ही बैठक में 21 विभिन्न फिल्म कंपनियों को करीब 10 करोड़ रुपए बांट दिए. इनमें सबसे अधिक दो करोड़ रुपए ‘मसान’ फिल्म बनाने वाली कंपनी मेसर्स फैंटम फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड मुंबई को दिए गए. इसके बाद के क्रम में फिल्म ‘पंडित जी बताईं न बियाह कब होई’ बनाने वाली कंपनी मेसर्स रविकिशन एंड मेधज प्रोडक्शंस लखनऊ को करीब 83 लाख रुपए, फिल्म ‘राजा बाबू’ बनाने वाली कंपनी मेसर्स शौर्या इंटरटेनमेंट लखनऊ को करीब 73 लाख, फिल्म ‘वाह ताज’ बनाने वाली कंपनी मेसर्स फन फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड दिल्ली को करीब 66 लाख रुपए, फिल्म ‘भूरी’ बनाने वाली कंपनी मेसर्स एस वीडियो पिक्चर्स मुंबई को 64 लाख रुपए, फिल्म ‘जिगरिया’ बनाने वाली कंपनी मेसर्स सौंदर्या प्रोडक्शंस मुंबई को 54 लाख रुपए, फिल्म ‘डायरेक्ट इश्क’ बनाने वाली कंपनी बाबा मोशन पिक्चर्स प्राइवेट लिमिटेड मुंबई को 46.44 लाख रुपए, फिल्म ‘नहले पर दहला’ बनाने वाली कंपनी मां कैला देवी फिल्म्स मुंबई को 44.01 लाख, फिल्म ‘अलिफ़’ बनाने वाली कंपनी एबी इन्फोसॉफ्ट क्रिएशन मुंबई को 43.48 लाख रुपए, फिल्म ‘थोड़ा लुत्फ़ थोड़ा इश्क’ बनाने वाली कंपनी चिलसाग मीडिया प्राइवेट लिमिटेड को 42.33 लाख रुपए, फिल्म ‘मिस टनकपुर हाज़िर हो’ बनाने वाली कंपनी क्रॉसवर्ड फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड लखनऊ को 37.22 लाख रुपए, फिल्म ‘मेरठिया गैंगस्टर्स’ बनाने वाली कंपनी प्रतीक इंटरटेनमेंट प्राइवेट लिमिटेड गाजियाबाद को 36.23 लाख रुपए, फिल्म ‘स्वदेश की खातिर’ बनाने वाली कंपनी शीतल मूवी टेंपल वाराणसी को 7.20 लाख रुपए और फिल्म ‘हम हईं जोड़ी नं-1’ बनाने वाली कंपनी कैलाश मानसरोवर प्रोडक्शंस मुंबई को 4.34 लाख रुपए दिए गए.
तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को फिल्म वालों को तत्काल अनुदान देने की इतनी हड़बड़ी थी कि उन्होंने फिल्म ‘मजाज-ए-गम-ए-दिल-क्या करूं’, ‘इश्केरिया’, ’तलब ’, ‘हम हईं जोड़ी न-1’, ‘अलिफ़’, ‘आई एम नॉट देवदास’ और ‘स्वदेश की खातिर’ को फिल्म रिलीज़ होने के पहले ही अनुदान का 30 प्रतिशत भुगतान जारी कर दिया. फिल्म ‘आई एम नॉट देवदास’ बनाने वाली कंपनी हूलीगन फिल्म्स लखनऊ को 30 लाख रुपए, फिल्म ‘मजाज-ए-गम-ए-दिल-क्या करूं’ बनाने वाली कंपनी ड्रीम मर्चेंट फिल्म्स अलीगढ़ को 22.55 लाख रुपए, फिल्म ‘इश्केरिया’ बनाने वाली कंपनी स्वर्प फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड मुंबई को 11.14 लाख रुपए, फिल्म ‘तलब’ बनाने वाली कंपनी बाबा इंटरटेनमेंट फिल्म्स पुणे को 21.53 लाख रुपए और फिल्म ‘बंधन’ बनाने वाली कंपनी सुनीता शिव क्रिएशन मुंबई को करीब 16 लाख रुपए दिए गए. सूचना का अधिकार के तहत समाजसेवी नूतन ठाकुर द्वारा पूछे गए सवाल पर प्रदेश सरकार ने भुगतान की यह आधिकारिक सूचना दी है.

Wednesday 21 November 2018

मुक्ति चाहते हैं अयोध्या के लोग

राम नाम रटने वाले नेताओं और अपराधियों का अखाड़ा बनी अयोध्या...
अपराधस्थली में तब्दील होती अयोध्या पर सरकार नहीं दे रही ध्यान...
अयोध्या में सक्रिय है नेताओं और अपराधियों का संगठित ‘सिंडिकेट’...
अकूत सम्पत्ति के कारण मंदिर-मठों पर नेताओं-अपराधियों की नजर...
मंदिर-मठों पर कब्जे के लिए चल रहा है हिंसा और हत्याओं का दौर...
ताकत और समृद्धि का प्रदर्शन करने वाले साधुओं की सत्ता तक पहुंच...
अयोध्या आने वाले श्रद्धालुओं को जरूरी सुविधाएं भी नहीं दे रहा शासन...
प्रभात रंजन दीन
भाजपा के चेहरे और उसके चरित्र का फर्क जनता समझती तो है, लेकिन जनता की आदत बन चुकी है, जुमला उछलने पर मचलने की. इस जन-चरित्र के कारण ही राजनीतिक दल और उसके नेता देश के आम लोगों को निरा-मूर्ख समझते हैं. तभी तो चुनाव आता है तो राम-राम होने लगता है और चुनाव जाते ही गया-राम हो जाता है..! हद दर्जे की घटिया राजनीति ने राम की अयोध्या को सड़ा दिया है. राजनीतिक आग्रह-पूर्वाग्रह के कूड़े को मस्तिष्क से हटा कर आप अयोध्या जाकर तो देखें कि नेताओं और बदमाशों ने धर्मस्थली अयोध्या को किस जघन्य हालत में पहुंचा दिया है..!
राजनीतिक दुष्प्रयोगों के कारण धर्मस्थली अयोध्या अधर्मस्थली में तब्दील होती जा रही है. इसके लिए सारे राजनीतिक दल अपने-अपने कोणों से दोषी हैं. इनमें भाजपा पहले स्थान पर है. क्या हिंदू, क्या मुसलमान, दोनों समुदायों के सियासी और बदमाश तत्व इस आध्यात्मिक स्थल को वोटवादी और भौतिकवादी शोषण का जरिया बना कर दुह रहे हैं. स्थानीय लोग साफ-साफ कहते हैं कि अयोध्या में नेताओं और अपराधियों का सुसंगठित ‘सिंडिकेट’ काम कर रहा है.
केंद्र में भाजपा की सरकार 2014 में आई और उत्तर प्रदेश में 2017 में. अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के मसले पर केंद्र सरकार के अलमबरदार चार साल चुप रहे और यूपी के मुखिया पौने दो साल मौन साधे रहे. 2019 का चुनाव जब नजदीक आया तो केंद्र सरकार, सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय नेता से लेकर प्रदेश सरकार और प्रदेश स्तर के नेता सब अचानक बोल पड़े. पार्टी आलाकमान ने इशारा किया और नेता कठपुतली की तरह राम-राम का प्रहसन खेलने लगे. अयोध्या की गलियों-नुक्कड़ों पर घूमते हुए आप यहां के स्थानीय लोगों से बात करें तो आप पाएंगे कि आम नागरिक नेताओं के चेहरों के पीछे की मक्कारी अच्छी तरह समझते हैं, लेकिन नेता चुनने की शातिराना प्रक्रिया से मजबूर हैं. रामघाट मुहल्ले में नुक्कड़ की एक चाय दुकान पर बैठे एक बुजुर्ग सज्जन कहते हैं, ‘कश्मीर में विधानसभा चुनाव आएगा तो फिर कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास का मसला यही नेता उठाएंगे जो इस मसले को अपने आसन के नीचे दबाए बैठे हैं. ठीक उसी तरह जैसे अब राम मंदिर का मुद्दा उठा रहे हैं. अगर उत्तर प्रदेश संसद की सर्वाधिक सीटों वाला प्रदेश नहीं होता तो भाजपा के नेता एक बार भी राम मंदिर का नाम नहीं लेते’. अयोध्या के बुजुर्ग सज्जन की कही ये बातें देश की राजनीति का यथार्थ है और अयोध्या के लोगों में नेताओं के कृत्यों और मंशा को लेकर साफ-साफ समझ.
आप मंदिर मंदिर और मस्जिद मस्जिद का जो राजनीतिक प्रलाप सुन रहे हैं, उससे अयोध्या के नागरिक आजिज आ चुके हैं. यही यहां का असली सामाजिक परिदृश्य है. अयोध्या के लोग ऐसी राजनीति से मुक्ति चाहते हैं जिसने अयोध्या का सामाजिक जीवन प्रदूषित कर रखा है. अयोध्या के लोगों को रोजगार चाहिए, काम चाहिए, भोजन चाहिए, शिक्षा चाहिए, सुरक्षा चाहिए और सुकून चाहिए. इनमें से एक भी जरूरत सत्ताधारियों की प्राथमिकता में नहीं है. उनकी प्राथमिकता केवल वोट है. कभी अयोध्या में राम-चैप्टर की शुरुआत की घोषणा तो कभी राम मंदिर के निर्माण की तारीख को लेकर बयानबाजी, कभी राम मंदिर के बजाय सरदार पटेल की प्रतिमा की तरह राम की प्रतिमा स्थापित कराने की नकलबाजी का बयान तो कभी विवादास्पद हिंदू साधु द्वारा किसी पुरानी मस्जिद के पुनर्निमाण की पहल पर मुस्लिमों की नाराजगी, कभी इस नेता की आमद तो कभी उस नेता की अगवानी से दुरूह होती आम जिंदगी, कभी इस मठ पर कब्जा और गोलीबारी तो कभी उस मठ के महंत की हत्या और हिंसा... यही अयोध्या का सच है. अयोध्या के लोग कहते हैं, ‘अब जो होना है, हो ही जाए, छुट्टी मिले. नेताओं द्वारा मुद्दे को लटकाए रखना और वोट के समय उभारना हमें बर्दाश्त नहीं. अब हमें इसका स्थायी हल चाहिए. हमें अब और राजनीति नहीं चाहिए, नेताओं से बस मुक्ति चाहिए.’
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और दक्षिण कोरिया की प्रथम नागरिक किम जुंग सूक की चकाचौंध भरी सत्ताई दीपावली के बाद ‘चौथी दुनिया’ के इस संवाददाता ने अयोध्या का जायजा लिया और सत्ता प्रायोजित चकमक के पीछे के सन्नाटे और अंधेरे की असलियत को अपने मन और नोटबुक में दर्ज किया. लोग पूछते हैं, ‘हमें इस राजनीति ने क्या दिया?’ इस लोक-प्रश्न का आप संलग्नता से जवाब तलाशें तो आपको बड़ा भयावह दृश्य दिखाई पड़ेगा. अयोध्या में सामान्य पढ़े-लिखे युवकों के लिए रोजगार का कोई इंतजाम नहीं है. सामान्य से ऊपर स्तर की पढ़ाई करने वाले युवक अयोध्या से बाहर जा चुके हैं. मंदिरों के शहर अयोध्या में धार्मिक कर्मकांड की चीजें बेचने, चाय का खोमचा लगाने और किराना परचून की दुकान चलाने का धंधा ही आजीविका का प्रमुख स्रोत है, जो आपको सामान्य रूप से दिखता है. इसके अलावा आपको हर तरफ या तो श्रद्धालु दिखेंगे या बेरोजगार युवकों की टोलियां या मजदूर वर्ग के लोग दिखेंगे, जो विभिन्न मंदिरों और मठों में चलते रहने वाले निर्माण कार्यों से अपनी आजीविका चलाते हैं. अयोध्या में नुक्कड़ों और चौराहों पर आपको दिन भर निठल्ले बैठे, चाय पीते गप्पें लड़ाते बेरोजगार युवक दिखेंगे. यह दृश्य आम है. चाहे वह मुस्लिम बहुल मुहल्ले का नुक्कड़ हो या हिंदू बहुल मुहल्ले का नुक्कड़. आप चाय की किसी दुकान पर किसी बाहरी पर्यटक की तरह निरपेक्ष और निस्पृह भाव से उनकी बातें चुपचाप गौर से सुनते रहिए, आपको अयोध्या के युवकों का रुझान, उनका आकर्षण और उनका लक्ष्य साफ-साफ समझ में आता जाएगा.
अयोध्या को राजनीतिक प्रयोगशाला बना कर नेताओं ने आध्यात्म को सत्तामुखी भौतिक सुख-साधन सम्पन्न दिखने का सारा इंतजाम कर दिया है. नेताओं की इस नासमझी के कारण धर्म-स्थली अयोध्या के मंदिर-मठ-अखाड़े और मस्जिद-मजारें सब अकूत सम्पत्ति-जनित आपराधिक आकर्षण का केंद्र बन गई हैं. अयोध्या के सभी मंदिर-मठों के महंत हथियारबंद अंगरक्षकों की भारी जमात के साथ शानदार गाड़ियों के काफिले के साथ विचरण करते नजर आते हैं. सत्ताधारी या सत्ता-वंचित नेताओं की सीधी आमद इन आलीशान साधुओं के पास होती है और साधुओं की सीधी पहुंच सत्ता तक होती है. सत्ता-भांड इन्हीं साधु वेशधारी महंतों के आगे नतमस्तक होते हैं और ऐसे साधुओं के कुपित होने पर सत्ता प्रमुख उन्हें मनाने आते हैं. आलीशान भौतिक सुख-सुविधाओं, सत्ता-सामर्थ्य और अर्थ-प्रेरित अय्याशियों में लिप्त साधु-संतों-महंतों-मुल्लाओं को देख कर बेरोजगार युवकों के मन में आपराधिक आकर्षण पैदा हो रहा है. अयोध्या के तकरीबन सारे महंत मंदिर-मठों पर जबरन कब्जा करके महंत बने हैं. जबरन कब्जे की प्रक्रिया में मारपीट, गोलीबारी, बलवा और हत्या अयोध्या के लोगों के लिए आम बात है. अयोध्या के युवाओं को लगता है कि लूटपाट या डाका डालने का जोखिम उठाने से अच्छा है किसी मंदिर-मठ पर कब्जा जमाया जाए और साधु वेश धर कर राज भोगा जाए. अयोध्या के आम युवकों की बातचीत से झलकने वाला यह आकर्षण कानून के तथ्यों से भी पुष्ट होता है. फैजाबाद जिला अदालत में चल रहे फौजदारी (अपराध) के 50 प्रतिशत से अधिक मामले मंदिर-मठों पर कब्जे या विवाद से सम्बद्ध गंभीर अपराध की धाराओं से जुड़े हैं. ये मामले अदालत में चल रहे हैं, यह कहना उचित नहीं है. मंदिर-मठों से जुड़े गंभीर अपराध के ये मामले अदालत में घिसट रहे हैं. मंदिर-मठों की अकूत सम्पत्ति के उच्छिष्ठ से अघाए प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी उन मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं लेते. मंदिर-मठों के अपराध-स्थलों में तब्दील होते जाने में शासन-प्रशासन के भ्रष्ट अधिकारी अपना फायदा देखते हैं. सत्ता पर बैठे नेता भी इन्हीं मंदिर-मठों के जरिए अपनी राजनीति की दुकान चलाते हैं. 
लोकसभा चुनाव सामने आते ही आलाकमान के इशारे पर राम-मंदिर मसला चमकाने में लगे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भगवान राम के पिता राजा दशरथ के नाम पर अयोध्या में मेडिकल कॉलेज स्थापित करने की योजना घोषित की. योगी आदित्यनाथ खुद संत हैं और प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हैं. उन्हें निश्चित तौर पर पता होगा कि हनुमान गढ़ी के नजदीक दशरथ जी की गद्दी (बड़ी जगह) का क्या हाल है और इस पर किन-किन लोगों की निगाहें गड़ी हुई हैं. योगी आदित्यनाथ अयोध्या में भगवान राम की प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा करते हैं, लेकिन योगी इस दुखद तथ्य से मुंह मोड़े रहते हैं कि गुरु वशिष्ठ मुनि का आश्रम विद्या कुंड आपराधिक घटनाओं का ‘कुंड’ बनता जा रहा है. विद्या कुंड स्थित वशिष्ठ मुनि के आश्रम में ही रहकर भगवान राम ने शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की थी. अपवित्र होते उस पवित्र स्थल के प्रति मुख्यमंत्री की कोई चिंता नहीं है. कुछ ही महीने पहले विद्या कुंड के महंत रामशरण दास की गला घोंट कर हत्या कर दी गई. इस मामले में परमात्मा दास नामके एक साधु को गिरफ्तार कर पुलिस ने औपचारिकता पूरी कर ली. अभी विद्या कुंड के महंत अवधेश प्रसाद हैं. पूर्व महंत रामशरण दास की हत्या में शक की सुई मौजूदा महंत की तरफ भी घूमी थी, लेकिन इस शक पर पुलिस ने कोई कार्रवाई आगे नहीं बढ़ाई. अब तो अवधेश प्रसाद खुद ही अपनी हत्या की आशंका जता रहे हैं.
इलाहाबाद (अब प्रयागराज) कुंभ के बहाने भाजपा देशभर के श्रद्धालुओं में खुद को हिंदू-हितैषी के रूप में स्थापित करने की आखिरी जद्दोजबद कर रही है. हिंदू आस्था के केंद्र अयोध्या में आम लोगों के विचार बताते हैं कि भाजपा अब हिंदू हृदय में वैसी ही अवसरवादी राजनीतिक पार्टी के रूप में मानी जा रही है जैसी अन्य पार्टियां. आम लोगों की इस धारणा को सामने रख कर विचार करें तब भाजपा की छटपटाहट और बेचैनी का कारण समझ में आता है. तब यह समझ में आता है कि क्यों अचानक मथुरा मुद्दा जिंदा किया जाने लगा और क्यों अचानक राम मंदिर बनाने का भाजपा नेताओं में दर्द पैदा होने लगा. प्रयागराज में होने वाले कुंभ को लेकर क्यों भाजपा को अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग नामों से लोगों को जुटाने की कवायद करने की जरूरत आ पड़ी. अयोध्या में भी समरसता कुंभ के नाम पर लाखों लोगों को जुटाने की तैयारी है. अयोध्या के स्थानीय लोग ही पूछते हैं कि कुंभ इलाहाबाद में हो रहा है तो उसे लेकर अयोध्या में लोगों को जुटाने का आखिर क्या तुक है! अयोध्या के रामघाट मुहल्ले में सौ बीघे में फैली बड़ा भक्तमाल मंदिर की बगिया में आयोजित समरसता कुंभ में भारी संख्या में लोगों को जुटाने की कोशिशों का क्या मतलब है? अभी अयोध्या के लोग यही सवाल पूछ रहे हैं. उसी रामघाट मुहल्ले में मंदिर-मठों को लेकर जो आपराधिक खींचतान का सिलसिला चल रहा है, उसके स्थायी निपटारे की भाजपा को कोई चिंता नहीं है. भाजपा के अलबरदारों को इस बात की भी चिंता नहीं है कि जानकी घाट मंदिर के महंत स्वनामधन्य जन्मेजय शरण राम मंदिर निर्माण के लिए एक अलग समानान्तर न्यास बना कर अर्से से देशभर में जो चंदा वसूली कर रहे हैं और इससे आम लोगों में जो भ्रम फैल रहा है, उसे रोकें. लेकिन यह भाजपा की प्राथमिकता में नहीं है. राम मंदिर के परिप्रेक्ष्य में जानकी घाट काफी महत्वपूर्ण है. यहीं गोस्वामी तुलसी दास ने रामचरित मानस का बाल कांड और अयोध्या कांड लिखा था. तुलसी दास जिस वट वृक्ष के नीचे बैठ कर लिखते थे, उसकी स्मृति भी मौजूद है. ऐसी पवित्र स्थली को सम्पत्ति लोलुप साधु-संतों ने अपराध का अड्डा बना रखा है. जानकी घाट बड़ा स्थान के महंत मैथिली रामशरण दास की हत्या कर दी गई थी. रामशरण दास के मारे जाने के बाद ही उनके शिष्य जन्मेजय शरण महंत बने. जन्मेजय शरण पर अपने गुरु की हत्या करने का आरोप भी दर्ज है. लेकिन प्रभुसत्ता सम्पन्न महंत पर हाथ डालने की हैसियत किसमें है! आप आश्चर्य करेंगे अयोध्या के साधु-संतों को देख कर, योग-साधना और आध्यात्मिकता से दूर वे कैसी-कैसी हरकतें करते हैं और कैसे-कैसे लोगों के साथ संगत रखते हैं! जन्मेजय शरण हों या कोई और साधु महंत, उसे आप तरह-तरह की पिस्तौलों से खेलते और आजमाते हुए आम तौर पर देख सकते हैं और आध्यात्मिकता की जितनी पढ़ाई आपने की है, उसके साथ इन हरकतों को तौल सकते हैं.
जानकी घाट के सामने ही छोटी छावनी के पास प्रसिद्ध वेदांती जी का स्थान है. यहां के महंत राजकुमार दास हैं. वेदांती जी का स्थान के महंत की हत्या के बाद राजकुमार दास वहां के महंत बन बैठे. उन पर भी गुरु की हत्या का आरोप लगा, लेकिन अर्थ-सामर्थ्य और सत्ता-साधना के आगे कानून कहां टिकता है! राजकुमार दास की उठक-बैठक सीधे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ होती है. ये सारे संत-महंत भाजपा नेताओं के साथ राम मंदिर की चिंता-बैठकों और मंत्रणा-सभाओं में शरीक रहते हैं. इसीलिए सत्ता सियासतदान संतों-महंतों की आपराधिक गतिविधियों पर आंखें मूंदे रहते हैं. रामघाट पर ही मानस भवन के पास मशहूर संत देवराहा बाबा का स्थान था. ‘था’ शब्द इसलिए लिखा कि अब उस पांच बीघे से अधिक रकबे में फैले देवराहा बाबा के स्थान पर अन्य साधु वेशधारियों का कब्जा हो चुका है. स्थान के कर्ताधर्ता रहे लक्ष्मण दास को इतना प्रताड़ित किया गया कि लक्ष्मण दास देवराहा बाबा का स्थान छोड़ कर भाग गए. लक्ष्मण दास का कोई अता-पता नहीं है, इस गुमशुदगी पर अयोध्या के लोग तमाम किस्म के संदेह जाहिर करते हैं. पुलिस में देवराहा बाबा का स्थान पर आपराधिक कब्जे को लेकर दर्ज एक मुकदमे के सिवा अब कोई सूत्र मौजूद नहीं है. प्रशासन से इतना पता चला कि देवराहा बाबा का स्थान पर दातुन कुंड के लोगों ने कब्जा किया और उसे बेच डाला. इस मामले में पुलिस की कार्रवाई भी आगे नहीं बढ़ी और देवराहा बाबा की स्मृतियां नष्ट कर डाली गईं. विडंबना देखिए कि इस स्थान के ठीक सामने हनुमान गढ़ी की जमीन पर स्थित मंदिर के महंत रामाज्ञा दास को जीते जी मृत बता कर मंदिर की जमीन पर कब्जा कर लिया गया. मंदिर की जमीन पर कब्जा कर वहां मार्केट बना दिया गया, लेकिन प्रशासन को यह आपराधिक कृत्य नहीं दिखा. पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की. महंत रामाज्ञा दास जीवित हैं और खुद को जीवित साबित करने के लिए अथक प्रयास भी कर रहे हैं, लेकिन शासन-प्रशासन उन्हें जीवित नहीं मानता. राम खिलौना मंदिर के महंत के साथ भी ऐसा ही हुआ. मंदिर के महंत को उनके ही शिष्य शंकर दास ने धक्का मारकर बाहर निकाल दिया और खुद महंत बन बैठा. राम खिलौना मंदिर के महंत को स्थानीय लोग वर्षों तक सरयू के किनारे राम की पौड़ी पर भीख मांगकर गुजारा करते देखते रहे, उसी राम की पौड़ी पर जहां इस दीपावली पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तीन लाख दीप जला कर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करा रहे थे.
अयोध्या के लोग मुमुक्षु भवन के महंत स्वामी सुदर्शनाचार्य की सनसनीखेज हत्या का प्रसंग भी बताते हैं. सुदर्शनाचार्य अचानक मंदिर से गायब हो गए थे. उनके गायब होने के बाद उनका शिष्य जीतेंद्र पांडेय महंत बना. कुछ दिन बाद जीतेंद्र पांडेय भी लापता हो गया. बाद में भेद खुला कि महंत जीतेंद्र पांडेय मंदिर से सारे माल-असबाब लेकर गायब हुआ था. सीवर टैंक से सुदर्शनाचार्य और उनकी शिष्या की लाश बरामद किए जाने के बाद जीतेंद्र पांडेय की गिरफ्तारी हुई, जिसने अपने गुरु और अपनी गुरु-बहिन की हत्या कराई थी.
राम राज और भगवान राम के मर्यादित आचरणों पर भारी भारी भाषण देने वाले मोदी, योगी, शाह या उनके राग-दरबारियों की जमात को साधु-संतों के ये अमर्यादित आचरण नहीं दिखते. इन्हें आम श्रद्धालुओं और पर्यटकों की तकलीफों की भी कोई फिक्र नहीं. राम जन्म भूमि और उस विस्तृत क्षेत्र में स्थापित कनक भवन, दशरथ जी का स्थान, बड़ी जगह, अमावा राज मंदिर और रंग महल समेत कई मंदिरों का दर्शन करने आने वाले पर्यटकों के लिए प्रसाधन का कोई इंतजाम नहीं है. लोग इससे बेहद परेशान रहते हैं. जबकि स्थानीय लोग बताते हैं कि हनुमान गढ़ी के सामने राज द्वार मंदिर के बृहद पार्क क्षेत्र को पर्यटकों की सुविधा के लिए व्यवस्थित किया जा सकता था. राज द्वार मंदिर का पार्क भारी दुर्गति में है. स्थानीय लोग कहते हैं कि राज मंदिर पार्क की दुर्गति और उपेक्षा शातिराना तरीके से हो रही है. लोग यह आशंका जताते हैं कि यह स्थान भी आने वाले दिनों में कब्जे को लेकर भीषण हिंसा का शिकार हो सकता है. लेकिन सरकार का इस पर कोई ध्यान नहीं है. सरकार का ध्यान नाम बदलने और धर्म स्थानों पर मांस-मदिरा पर रोक लगाने पर है. साधु-संतों की आचार-संहिता बनाने को लेकर सरकार कतई चिंतित नहीं है. अयोध्या के लोग कहते हैं कि साधु वेशधारी बदमाशों की भारी जमात है जो मदिरा और मांस का खुलेआम भक्षण करती है.
मंदिर बना नहीं, पर मस्जिद बनाने में लगे हैं ज्ञान दास और श्रीश्री
हनुमान गढ़ी की बसंतिया पट्टी के महंत ज्ञान दास नए घाट पर अड़गड़ा मस्जिद बनवाने में जुटे हुए हैं. राजनीतिक महंतों की श्रृंखला में महंत ज्ञान दास धर्म निरपेक्ष होने का दावा करने वाले राजनीतिक दल मसलन, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के करीबी संत हैं. इसलिए ज्ञान दास को राम मंदिर से अधिक अड़गड़ा मस्जिद की चिंता रहती है. अड़गड़ा मस्जिद हनुमान गढ़ी की जमीन पर बनी है. हाईकोर्ट के आदेश पर जब शासन ने लावारिस, विवादास्पद और अवैध मंदिर-मस्जिद हटाने की कार्रवाई शुरू की, तब ज्ञान दास खंडहर बनी अड़गड़ा मस्जिद को बचाने के लिए आगे आए और उन्होंने उसे आलीशान शक्ल में बदलना शुरू किया. महंत की इस पहल को मुसलमानों ने अनुचित करार दिया. बाबरी मामले के मुस्लिम पक्षकार हाजी महबूब सहित कई मुस्लिम नेताओं ने महंत ज्ञान दास की इस पहल पर आपत्ति जताई और कहा कि सस्ती लोकप्रियता पाने और कुछ राजनीतिक दलों के इशारे पर महंत ने यह काम शुरू किया. महंत का यह कृत्य इस्लाम धर्म के विरुद्ध है. मस्जिद मुस्लिम समुदाय की है इसलिए मस्जिद का कोई भी निर्माण कार्य या फेरबदल केवल मुस्लिम ही कर सकता है. अयोध्या के लोग कहते हैं कि महंत ज्ञान दास मनमानी करते रहते हैं और हनुमान गढ़ी के मुख्य महंत रमेश दास कैंसर से पीड़ित रहने के कारण कोई कार्रवाई नहीं कर पाते. 
दूसरी तरफ आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर पर भी राम मंदिर बनवाने के बजाय मस्जिद बनवाने में अधिक रुचि लेने के आरोप लग रहे हैं. कभी श्रीश्री के सहयोगी रहे अयोध्या सद्भावना समिति के अध्यक्ष अमरनाथ मिश्रा श्रीश्री रविशंकर पर राम मंदिर सुलह के नाम पर मामले को अपनी मुट्ठी में लेने और अयोध्या में मस्जिद बनाने की गुपचुप योजना बनाने का आरोप लगा चुके हैं. यह सही है कि श्रीश्री के दूत गौतम विज ने बाबरी मस्जिद के पक्षकार हाजी महबूब के आवास पर उनसे मुलाकात की थी. उस भेंट में करीब एक दर्जन अन्य मुस्लिम नेता भी मौजूद थे. मिश्रा का कहना है कि लखनऊ में राम जन्मभूमि के हिंदू पक्षकारों ने जब श्रीश्री से मुलाकात करने की कोशिश की तो उन्होंने मिलने से मना कर दिया था, जबकि श्रीश्री सलमान नदवी के साथ मिलकर अयोध्या के युसूफ आरा मशीन के पास बड़ी मस्जिद बनवाने का कुचक्र कर रहे थे.
अयोध्या में ढूंढ़े नहीं मिलते चरित्रवान साधु-संत
अयोध्या के लोग कहते हैं कि अथाह सम्पत्ति के कारण देशभर के छंटे हुए अपराधियों और बदमाशों ने अयोध्या को अपना अड्डा बना लिया है. गेरुआ या सफेद वस्त्र धारण कर वे साधुओं की जमात में तो शामिल हैं, लेकिन उनके साथ हथियारबंद गिरोह रहता है. अयोध्या के पुराने वाशिंदे बताते हैं कि राम जन्मभूमि मंदिर के महंत लालदास की हत्या के बाद जब नए महंत के रूप में बेदाग और चरित्रवान महंत की तलाश हो रही थी तो एक भी साधु उस मापदंड पर खरा उतरता नहीं मिल रहा था. बहुत मशक्कत के बाद आखिरकार सत्येंद्र दास को महंत चुना गया था. वर्ष 2013 में दो महंतों भावनाथ दास और हरिशंकर दास के बीच जमीन के एक छोटे-से टुकड़े को हुई खूनी भिड़ंत को लोग आज भी याद करते हैं, दोनों ओर से हुई अंधाधुंध फायरिंग में एक आदमी मारा गया था और दर्जनों लोग गंभीर रूप से जख्मी हुए थे. अयोध्या के लोग हनुमानगढ़ी के महंत हरिशंकर दास पर हुए कातिलाना हमले की घटना को अब भी रोमांच से सुनाते हैं. महंत हरिशंकर दास को छह गोलियां लगी थीं. हरिशंकर दास के एक शिष्य ने ही हमला कराया था. हनुमानगढ़ी के गद्दीनशीन महंत रमेश दास भी कई बार अपनी हत्या की आशंका जता चुके हैं. अखिल भारतीय निर्वाणी अनी अखाड़ा के महामंत्री और हनुमानगढ़ी के पुजारी गौरीशंकर दास भी अपनी हत्या की आशंका जताते रहे हैं. उनका साफ-साफ कहना था कि उनके गुरु रामाज्ञा दास की हत्या कराने वाले महंत त्रिभुवन दास अब उनकी हत्या कराना चाहते हैं. वर्ष 2012 में हनुमानगढ़ी के संत हरिनारायण दास का गोंडा में पुलिस मुठभेड़ में मारा जाना भी आध्यात्मिक अयोध्या के आपराधिक अयोध्या में बदलते जाने की कहानी कहता है. हरिनारायण पर हत्या समेत कई संज्ञेय अपराध के मामले दर्ज थे. महंत रामप्रकाश दास भी 1995 में अयोध्या के बरहटा माझा इलाके में पुलिस की गोली से मारा गया था. पुलिस का आधिकारिक दस्तावेज बताता है कि आपराधिक गतिविधियों के कारण अयोध्या के सैकड़ों साधु विभिन्न पुलिस मुठभेड़ों में मारे जा चुके हैं.
लोग कहते हैं कि अयोध्या में हनुमान गढ़ी के उज्जैनिया पट्टी के महंत त्रिभुवन ने कभी आतंक मचा रखा था. त्रिभुवन दास को उसकी आपराधिक गतिविधियों के कारण हनुमानगढ़ी से बाहर निकाल दिया गया था. इसके बाद त्रिभुवन ने अपना अलग मठ स्थापित किया और मठ को अपराध का अड्डा बना लिया. लोग कहते हैं कि त्रिभुवन दास ने सौ से अधिक हत्याएं कराईं. हनुमानगढ़ी अयोध्या का सबसे बड़ा मंदिर है. यहां करीब 700 नागा वैरागी साधु रहते हैं. हनुमानगढ़ी का नाम भी आपराधिक गतिविधियों की फेहरिस्त में जुड़ा है. 1984 में हनुमानगढ़ी के महंत हरिभजन दास को उन्हीं के शिष्यों ने गोली मार दी थी. 1992 में यहां गद्दीनशीन महंत दीनबंधु दास पर कई बार जानलेवा हमले हुए. लगातार हो रहे हमलों से वे इतने परेशान हुए कि गद्दी छोड़ कर चले गए. 1995 में मंदिर परिसर में ही एक साधु नवीन दास ने अपने चार साथियों के साथ मिलकर गढ़ी के ही महंत रामज्ञा दास की हत्या कर दी थी. 2005 में दो नागा साधुओं में हुई भीषण बमबाजी भी अयोध्या के लोगों में चर्चा में शामिल रहती है. वर्ष 2010 में हनुमान गढ़ी के साधु बजरंग दास और हरभजन दास की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. लोग कहते हैं कि हनुमानगढ़ी के महंत प्रहलाद दास जब तक जीवित रहे तब तक उनकी पहचान लंबे समय तक ‘गुंडा बाबा’ के रूप में बनी रही. वर्ष 2011 में प्रहलाद दास की साधुओं के एक गैंग ने गोली मारकर हत्या कर दी.
अयोध्या के लोगों को मंदिर-मस्जिद पचड़े से मुक्ति चाहिए
अयोध्यावासी चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, अब मंदिर-मस्जिद के पचड़े से मुक्ति चाहते हैं. अयोध्या के लोग साफ-साफ कहते हैं कि भाजपा या कोई भी राजनीतिक पार्टी अयोध्या में न राम मंदिर बनने देगी और न मस्जिद बनेगी. केवल इसे दो समुदाय में लड़ाई का मुद्दा बना कर रखा जाएगा और वोट निचोड़ा जाएगा. सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का रोना रोने वाली मोदी सरकार दलित एक्ट पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जाकर अध्यादेश ला सकती है, क्योंकि उसमें उसे वोट दिखता है. लेकिन राम मंदिर मसले में अध्यादेश नहीं लाएगी, क्योंकि अयोध्या में राम मंदिर बन गया तो फिर मुद्दे का क्या होगा! फिर तो भाजपा को दूसरा कोई मसला ढूंढ़ना पड़ेगा. अयोध्या के लोग इस बात पर खासे खफा हैं कि जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 30 सितंबर 2010 को राम मंदिर के पक्ष में फैसला दे ही दिया था तो अध्यादेश लाने में केंद्र सरकार के समक्ष क्या अड़चन थी? अयोध्या के लोग सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को उचित बताते हैं कि राजनीति प्रेरित छटपटाहटों की अनदेखी कर सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर मामले में त्वरित सुनवाई की मांग खारिज कर दी.

Sunday 18 November 2018

कानून की दो वर्दियों का गैरकानूनी 'शो'...

पिछले दिनों सीतापुर जिले में शराब और जुए का अड्डा हटाने की कार्रवाई से बिफरे वकीलों ने जिला न्यायाधीश के कक्ष में घुस कर पुलिस अधिकारियों को पीटा और पुलिस अधीक्षक के साथ बदसलूकी की. ऐसे अराजक वकीलों के समर्थन में राजधानी लखनऊ के वकील भी सड़क पर उतर आए. कानून की वर्दी में गुंडागर्दी देख कर आम लोग बहुत शर्मिंदा हुए, पर उन्हें शर्म नहीं आई. वकीलों की अभद्रता लखनऊ के पुलिस अधीक्षक को इतनी भाई कि वे भी अपने मातहत अफसरों को सरेआम बेइज्जत करने सड़क पर उतर आए. आप भी विस्तार से पढ़ें-देखें कानून की दो वर्दियों का गैरकानूनी 'शो'...
प्रभात रंजन दीन
ये देश के संभ्रांत नागरिक हैं. काला कोट पहनते हैं. खुद को बुद्धिजीवी मानते हैं और न्याय का वाहक कहते हैं. ये सरकारी जमीन पर कब्जा करके क्लब चलवाते हैं. क्लब-अड्डे पर दारू पीते और पिलाते हैं, जुआ खेलते और खेलवाते हैं. पकड़े जाने पर पुलिस के साथ मारपीट करते हैं. कानून व्यवस्था बिगाड़ते हैं और बिगड़ती कानून व्यवस्था के लिए शासन और प्रशासन को जिम्मेदार ठहराते हैं.
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के बिल्कुल पड़ोस का जिला है सीतापुर. सीतापुर के वकीलों का एक तबका खुद को लोकतंत्र के ऊपर समझता है और शासन-प्रशासन को ठोकर पर रखता है. कानून की कोट पहनता है, लेकिन कानून को ठेंगे पर रखता है. बीते कुछ दिनों से सीतापुर के इन कुछ कानून-नापसंद वकीलों ने माहौल खराब कर रखा है. सीतापुर के जिला न्यायाधीश राजेंद्र कुमार और मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी विमल त्रिपाठी के समक्ष ही जिले के पुलिस अधीक्षक प्रभाकर चौधरी और दो अन्य पुलिस अधिकारियों पर हमला करने वाले सीतापुर के वकीलों के समर्थन में अब राजधानी लखनऊ के वकीलों ने भी सड़क पर उतरने का ऐलान किया है. वकीलों को ऐतराज है कि हमलावर वकीलों के खिलाफ एफआईआर क्यों दर्ज की गई और कुछ वकीलों को गिरफ्तार क्यों किया गया. वकील समुदाय के ही कुछ वरिष्ठों का स्पष्ट कहना है कि काले कोट की आड़ में काले धंधे चलाए जा रहे हैं और यदि किसी ने उसे रोकने की कोशिश की तो वे न्यायिक प्रक्रिया में बाधा पहुंचाते हैं और कानून व्यवस्था की समस्या पैदा करते हैं. यह समस्या केवल सीतापुर की नहीं, बल्कि लखनऊ समेत प्रदेश के कई अन्य जिलों की भी है, जहां वकील समुदाय के नाम पर गिरोहबंदी कायम है.
सीतापुर नगर पालिका परिषद की जमीन पर अवैध कब्जा कर कुछ वकील वहां शराब और जुए का अड्डा चला रहे थे. शराब-जुए का अड्डा सीतापुर क्लब के नाम से चल रहा था और उससे स्थानीय नागरिक आजिज थे. इसके खिलाफ आम लोगों की शिकायतें लगातार प्रशासन के पास पहुंच रही थीं. प्रशासन की छानबीन में पता चला कि क्लब चलाने के लिए न तो प्रशासन की तरफ से कोई औपचारिक मंजूरी है और न क्लब का कोई पंजीयन है. जिस जमीन पर क्लब चल रहा था, वह जमीन भी नगर पालिका परिषद की नजूल भूमि है. पुलिस ने जब क्लब की तलाशी ली तो वहां शराब की बोतलें, ताश की गड्डियां,  जुआ खेलने (कसीनो) के टोकन, नगदी और जेवर वगैरह बरामद किए गए. पुलिस ने क्लब चलाने वाले ओमप्रकाश गुप्त, रामपाल सिंह और विजय कुमार गुप्त के खिलाफ जुआ निषेध अधिनियम, उत्पाद शुल्क एवं आबकारी अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज कर तथाकथित क्लब के अध्यक्ष और वकील ओम प्रकाश गुप्त और सचिव रामपाल सिंह को हिरासत में ले लिया. पुलिस ने अतिक्रमण विरोधी अभियान चला कर क्लब के ढांचे को भी हटा दिया और उसे नगर पालिका प्रशासन के सुपुर्द कर दिया.
जिला प्रशासन और पुलिस की इस कार्रवाई से कुछ वकील बिफर पड़े. उनके धंधे पर हाथ डालने की आखिर हिम्मत किसने कर दी! बस आव न देखा ताव और जिला न्यायाधीश राजेंद्र कुमार की अध्यक्षता में उन्हीं के कक्ष में चल रही समीक्षा बैठक में ही घुस पड़े. वहां मौजूद सब इंसपेक्टर प्रदीप पांडेय और विनोद कुमार मिश्र पर हमला कर दिया और उन्हें लातों, घूसों और चप्पलों से पीटा. गिरोहबंद वकील उसके बाद जिला न्यायाधीश राजेंद्र कुमार, प्रभारी मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी विमल त्रिपाठी एवं अन्य अधिकारियों की मौजूदगी में ही वहां बैठे सीतापुर के एसपी प्रभाकर चौधरी पर पिल पड़े, उनका मोबाइल फोन छीन लिया और उनके साथ भी हाथापाई की कोशिश की. एसपी के सुरक्षा अधिकारी विनोद कुमार मिश्र और प्रदीप पांडेय ने किसी तरह बीच में कूद कर उन्हें बचाया. वकील गंदी गालियों पर भी उतर आए थे. वकीलों की इस आपराधिक हरकत से क्षुब्ध जिला न्यायाधीश कक्ष से बाहर चले गए. वकील शराबबाजी और जुएबाजी के अड्डे के खिलाफ जिला प्रशासन और पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई से भीषण नाराज थे. उग्र वकीलों ने हिरासत में लिए गए दो वकीलों को पहले ही छुड़ा भी लिया था. हिंसा पर उतारू वकीलों के बीच से किसी तरह एसपी को वहां से सुरक्षित बाहर निकाला जा सका. पुलिस ने इस मारपीट और आपराधिक कृत्य के दोषी दीपक राठौर, चंद्रभाल गुप्ता, चंद्रगुप्त श्रीवास्तव, हरीश त्रिपाठी, अरुण मिश्रा, सुनील सिंह और करीब एक दर्जन अज्ञात वकीलों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर दीपक राठौर और चंद्रभाल गुप्त को गिरफ्तार कर लिया. अन्य अभियुक्त फरार हैं और बाहर-बाहर से वकील समुदाय को आंदोलन के लिए भड़का रहे हैं. फरार वकीलों की गिरफ्तारी के लिए उन पर प्रशासन ने नकद इनाम की भी घोषणा की है.
उधर, वकीलों ने कानून अपने हाथ में भी लिया और पुलिस ‘उत्पीड़न’ के खिलाफ सड़क पर भी उतर आए. धरना प्रदर्शन किए गए और जब विरोध प्रदर्शनों का रुख उग्र होने की ओर बढ़ा तब जिला प्रशासन को निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी. निषेधाज्ञा लागू रहने और न्यायालय परिसरों में धरना-प्रदर्शनों पर प्रतिबंध के इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद सीतापुर कोर्ट परिसर में वकीलों का धरना प्रदर्शन जारी रहा. कुछ वकीलों को खुली पिस्तौल लेकर घूमते हुए भी देखा गया और इसे आधिकारिक तौर पर दर्ज भी किया गया. सीतापुर की जिलाधिकारी शीतल वर्मा और पुलिस अधीक्षक प्रभाकर चौधरी दोनों ही कानून व्यवस्था हाथ में लेने वाले तत्वों के साथ सख्ती से निपटने की बात कहते हैं तो वकीलों के नेता इसे पुलिस अधीक्षक की छोटी मानसिकता बताते हैं. अवैध क्लब पर की गई कार्रवाई को कुछ वकीलों ने वकील समुदाय से जोड़ दिया और इस पर लखनऊ के वकीलों ने भी सीतापुर पुलिस प्रशासन के खिलाफ ताबड़तोड़ नारेबाजी और पुतला फूंकने और समर्थन जताने का अपना पुराना चिर-परिचित हथकंडा अख्तियार कर लिया. लखनऊ के वकील तो और एक कदम आगे बढ़ कर सीतापुर के एसपी को बर्खास्त ही करने की मांग करने लगे. विरोध में उतरे लखनऊ के कुछ वकीलों ने सीतापुर कूच करने और आंदोलन को प्रदेशभर में फैलाने की भी चेतावनी दे डाली. मैनपुरी के वकीलों ने तो सीतापुर के एसपी के खिलाफ मैनपुरी कोर्ट में मुकदमा दर्ज करा दिया.
दूसरी तरफ सीतापुर की जिलाधिकारी शीतल वर्मा और पुलिस अधीक्षक प्रभाकर चौधरी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को पूरे घटनाक्रम की तथ्यवार जानकारी देते हुए घटना के दोषी वकीलों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने और उनका रजिस्ट्रेशन रद्द करने की अपील की है. मुख्य न्यायाधीश और रजिस्ट्रार जनरल को यह भी बताया गया है कि पुलिस अधिकारियों के साथ मारपीट की घटना सीतापुर के जिला न्यायाधीश राजेंद्र कुमार के कक्ष में उनके समक्ष की गई. पूरे घटना की जो वीडियो फुटेज थी, उसे भी मुख्य न्यायाधीश और रजिस्ट्रार जनरल के समक्ष प्रस्तुत किया गया है. जिला प्रशासन ने उत्तर प्रदेश बार काउंसिल के अध्यक्ष को भी घटनाक्रम की जानकारी भेज कर दोषी वकीलों के खिलाफ बार की तरफ से कार्रवाई करने की अपील की है. जिला प्रशासन और जिला पुलिस के प्रमुखों ने गृह विभाग के प्रमुख सचिव को भी पूरे प्रकरण की औपचारिक सूचना और वीडियो फुटेज भेजी है. पुलिस अधीक्षक प्रभाकर चौधरी ने मारपीट की घटना के चश्मदीद जिला न्यायाधीश राजेंद्र कुमार और प्रभारी मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी विमल त्रिपाठी से भी दोषी वकीलों के खिलाफ उचित कानूनी कार्रवाई करने का औपचारिक आग्रह किया है.
हाईकोर्ट ने दिए जांच के आदेश  
सीतापुर पुलिस द्वारा नामजद अभियुक्त बनाए गए वकीलों हरीश त्रिपाठी, चंद्रगुप्त श्रीवास्तव और अरुण मिश्र की तरफ से इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में दाखिल रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने पूरे प्रकरण की जांच दूसरे सर्किल के सर्किल अफसर से कराने और लखनऊ जोन के आईजी को पूरी विवेचना की रोजाना मॉनिटरिंग करने का आदेश जारी किया. न्यायालय ने यह भी कहा कि गिरफ्तार वकीलों को जेल मैनुअल के मुताबिक सुविधाएं दी जाएं और इस पर सीजेएम और एडीएम स्तर के अधिकारी हफ्ते में दो बार इसकी तस्दीक करें. दूसरी तरफ सीतापुर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश राजेंद्र कुमार ने गिरफ्तार वकीलों के स्वास्थ्य की जांच के लिए मेडिकल बोर्ड गठित करने का आदेश दिया. उल्लेखनीय है कि जिला एवं सत्र न्यायाधीश राजेंद्र के समक्ष उनके कक्ष में ही पुलिस अधिकारियों के साथ वकीलों ने मारपीट की वारदात की थी.
दोषी वकीलों पर रासुका और गुंडा एक्ट!
जिला प्रशासन ने दोषी वकीलों पर रासुका तामील करने की शासन से मांग की है. इसकी औपचारिक अनुशंसा शासन को भेजी गई है. दूसरी तरफ स्थानीय पुलिस ने कुछ वकीलों पर गुंडा एक्ट के तहत कार्रवाई करने की भी जिला प्रशासन के समक्ष अनुशंसा भेजी है. पुलिस का कहना है कि एक वकील विवेक शुक्ला पर डकैती और छेड़छाड़ करने के क्रमशः एक और दो मामले दर्ज हैं. दूसरे वकील विकास दीक्षित पर शांतिभंग का एक और छेड़छाड़ के दो मामले दर्ज हैं. जिला पुलिस के मुताबिक कुछ वकीलों की आपराधिक पृष्ठभूमि की भी गहराई से छानबीन शुरू कराई गई है.
लखनऊ में भी गुंडागर्दी पर उतारू वकील
सीतापुर में जिला जज के चैंबर में घुस कर पुलिस अधिकारियों से मारपीट करने का दुस्साहस करने वाले वकीलों से लखनऊ के वकील कोई कम थोड़े ही हैं! सीतापुर की घटना के अगले ही दिन लखनऊ के अलीगंज थाना इलाके के बड़ा-चांदगंज मुहल्ले में वकीलों ने कुछ लोगों के साथ मारपीट की. पीड़ित पक्ष के प्रदीप शर्मा और अभय प्रजापति जब थाने में शिकायत दर्ज करने पहुंचे तब वकीलों ने थाने में घुस कर उन्हें फिर पीटा. करीब दो दर्जन लोगों द्वारा थाने में घुस कर पीटे जाने से एक व्यक्ति बुरी तरह जख्मी हुआ, जिसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. थाने में मारपीट रोकने की कोशिश करने वाले पुलिसकर्मियों को भी पीटा गया और जो पत्रकार अपने मोबाइल फोन से घटना की रिकॉर्डिंग कर रहे थे उनके साथ भी बदसलूकी की और भाग निकले. इस मामले में पुलिस कार्रवाई की बात तो कहती रही, लेकिन कुछ कर नहीं पाई. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि वकीलों द्वारा इस तरह की घटनाएं करना तो उनकी रुटीन आदतों में शुमार है. जब अदालतें ही उनके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेतीं तो पुलिस क्या करे!
अपराधी वकीलों पर अर्से से हो रही है चिंता, पर कार्रवाई सिफर
आपराधिक पृष्ठभूमि के वकीलों को लेकर अदालतों से लेकर सरकार तक चिंता तो जताई जाती रही है, लेकिन कार्रवाई कुछ नहीं हो रही. अर्सा पहले आपराधिक पृष्ठभूमि के वकीलों का पता लगाने के लिए सीबीआई को जिम्मा दिया गया था. उत्तर प्रदेश पुलिस की क्राइम ब्रांच से भी इस बारे में छानबीन के लिए कहा गया था. जांच के दौरान पता चला कि केवल लखनऊ में ढाई सौ से अधिक वकीलों पर हत्या, अपहरण, जमीन-मकान हड़पने से लेकर संज्ञेय अपराध के कई मामले दर्ज हैं. इनमें से करीब सौ वकीलों पर दो और दो से अधिक आपराधिक मामले हैं. आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में तो अनगिनत वकीलों के नाम आए जिनके खिलाफ आयकर विभाग ने जांच-पड़ताल की थी. इन पड़तालों के हुए वर्षों बीत गए, लेकिन कार्रवाई एक कदम भी आगे नहीं बढ़ी. कानून-पसंद वरिष्ठ वकीलों का कहना है कि कार्रवाई के नाम पर अदालत से लेकर सरकार तक चुप्पी साध लेती है. इतना अहम मसला केवल जुबानी-जुंबिश होकर रह गया है. नेता हों या जज, सब मंचों से चिंता जताते हैं कि आपराधिक पृष्ठभूमि के वकीलों या दागी वकीलों के कारण न्यायिक प्रक्रिया में बाधा पड़ती है और वकालत का पेशा भी बदनाम हो रहा है. लेकिन वे कार्रवाई के लिए कोई पहल नहीं करते. एक वरिष्ठ वकील ने कहा कि वकीलों के पंजीकरण की प्रक्रिया को दुरुस्त करने की जरूरत है. कोई भी व्यक्ति लॉ की डिग्री और साफ चरित्र का शपथ-पत्र लेकर आता है और बार काउंसिल में अपना पंजीकरण करवा कर वकील बन जाता है. पंजीकरण की लचर प्रक्रिया के कारण लाखों की संख्या में वकील रजिस्टर्ड हैं और उनमें अधिकतर ऐसे लोग हैं जो ठेकेदारी, दलाली, रियल इस्टेट जैसे धंधों में लगे हैं.
28 अक्तूबर, 2010 को ही इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के न्यायाधीश उमानाथ सिंह और वीरेंद्र कुमार दीक्षित ने सीबीआई को 11 अभियोगों में शामिल डेढ़ दर्जन से अधिक वकीलों की जांच सौंपी थी. इनमें कई मामले ऐसे थे जिनमें नामजद के अलावा करीब 80 अज्ञात वकीलों के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज था. इनमें हत्या के प्रयास, लूट, डकैती, सरकारी कार्य में बाधा, मारपीट, अभिलेखों में हेर-फेर, भूमि विवाद के मुकदमे शामिल थे. सीबीआई ने मामले की जांच भी की, लेकिन मामला ढाक के तीन पात होकर रह गया. वकीलों के आचरण पर नजर रखने वाली बार काउंसिल की समिति भी बेमानी ही साबित हुई है. हर साल बार काउंसिल के पास वकीलों के खराब आचरण की तकरीबन हजार शिकायतें आती हैं. हर साल कई वकीलों को निलंबित भी किया जाता है, लेकिन वे सेंट्रल बार काउंसिल से यूपी बार काउंसिल का आदेश खारिज करवा लेते हैं. हालत यह है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के वकील अच्छी-खासी संख्या में सरकारी वकील भी बने बैठे हैं, जबकि हाईकोर्ट ने सख्त आदेश दे रखा है कि ऐसे वकील सरकारी वकील न बन पाएं.
वरिष्ठ वकील की 'आत्महत्या' पर चुप रह गए हड़बोंग मचाने वाले 
पूर्व मुख्य स्थायी अधिवक्ता रमेश पांडेय के लखनऊ हाईकोर्ट की चौथी मंजिल से कूदकर खुदकुशी किए जाने की रहस्यमय घटना पर वकील समुदाय ने चुप्पी साध रखी है. वकील समुदाय शराब और जुए के धंधे पर रोक के खिलाफ पूरी कानून व्यवस्था को आड़े हाथों ले सकता है, लेकिन अपने वरिष्ठ साथी की संदेहास्पद मौत पर दम साध लेता है. पूर्व मुख्य स्थायी अधिवक्ता रमेश पांडेय (55) ने पिछले दिनों हाईकोर्ट की चौथी मंजिल से कूदकर खुदकुशी कर ली थी. रमेश पांडेय पर इतना ‘दबाव’ था कि उन्हें मुख्य स्थायी अधिवक्ता के पद से इस्तीफा देना पड़ा था. रमेश पांडेय के चचेरे भाई प्रियांक पांडेय ने रमेश पांडेय की मौत को हत्या बताया और कहा उनके भाई किसी भी परिस्थिति में आत्महत्या नहीं कर सकते थे. रमेश पांडेय की मौत के संदेहास्पद होने की सारी स्थितियां सामने रहने के बावजूद हाईकोर्ट प्रशासन ने कोई भी समुचित कार्रवाई नहीं की और न उच्च स्तरीय जांच का आदेश दिया. बार एसोसिएशन ने भी इस मसले पर चतुर-मौन साध लिया. मरहूम रमेश पांडेय के परिवार की तरफ से भी कोई मुकदमा दर्ज नहीं कराया गया और हर बात पर हड़बोंग मचाने वाले वकील समुदाय ने भी अपने साथी वरिष्ठ वकील की संदेहास्पद मौत को मुद्दा नहीं बनाया.
पुलिस के अफसर ही तोड़ रहे हैं पुलिस का मनोबल
एक तरफ पुलिस पर हमले की घटनाएं बढ़ रही हैं तो दूसरी तरफ पुलिस अधिकारी ही पुलिसकर्मियों का मनोबल तोड़ने पर लगे हैं. प्रशासनिक अक्षमता के कारण भी उत्तर प्रदेश पुलिस संगठन में अराजकता और अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है. हाल की कुछ घटनाएं आला पुलिस अधिकारियों की प्रशासनिक क्षमता की कलई खोलती हैं. पिछले दिनों लखनऊ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कलानिधि नैथानी ने मीडिया वालों को बुला कर बीच चौराहे पर अलीगंज कोतवाली के एसएचओ आनंद शुक्ला को फटकार लगाई, अपमानित किया और उन्हें दिया गया सीयूजी मोबाइल फोन छीन लिया. एसएसपी ने एसएचओ की गाड़ी छीन ली और लाइन हाजिर करने का फरमान जारी करते हुए उन्हें पैदल ही पुलिस लाइन रवाना कर दिया. एसएसपी के निरीक्षण के दौरान तमाम पुलिस अधिकारी और अन्य पुलिसकर्मी मौजूद थे, उन सबके सामने कोतवाली प्रभारी को डांट-फटकार लगाई गई. पुलिस अधिकारियों का कहना है कि यह काम एसएसपी अपने कक्ष में भी सम्बन्धित अधिकारी को बुला कर कर सकते थे. कोतवाली प्रभारी को भी अपने अधीन अफसरों और कर्मचारियों से काम लेना होता है.
लखनऊ के एसएसपी की इस हरकत से मध्यम दर्जे के पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों में भीषण नाराजगी है. उनका कहना है कि अलीगंज कोतवाली के प्रभारी को एसएसपी अपने कक्ष में बुला कर उन्हें डांट-फटकार लगा सकते थे. सार्वजनिक रूप से अपमानित करने से पुलिस के मनोबल पर इसका बुरा असर पड़ता है. एसएसपी ने चौराहे पर ही ट्रांस गोमती के एएसपी हरेंद्र कुमार को भी कड़ी फटकार लगाई. जबकि अलीगंज कोतवाली जिस सर्किल अफसर के तहत आता है, उसे कुछ नहीं कहा. सर्किल अफसर दीपक कुमार वहीं खड़े रहे और ट्रांस गोमती के एएसपी हरेंद्र कुमार एसएसपी की फटकार सुनते रहे. लखनऊ के एसएसपी अलीगंज कोतवाल से इस बात के लिए नाराज थे कि अलीगंज के एक सिपाही ने नैथानी साहब के किसी परिचित से घूस मांग ली थी. महज शिकायत पर किसी आला पुलिस अफसर का यह रवैया संगठनात्मक मर्यादा के विपरीत है.
छोटी शिकायत पर आपा खोने वाले लखनऊ के एसएसपी कलानिधि नैथानी बड़े मामलों पर इतने शिथिल बने रहते हैं कि पुलिस संगठन में विद्रोह की स्थिति बन जाती है. पिछले दिनों जब लखनऊ पुलिस के सिपाही प्रशांत चौधरी की गोली से विवेक तिवारी के मारे जाने की घटना घटी थी तब भी लखनऊ पुलिस के आला अधिकारियों की प्रशासनिक अक्षमता उजागर हुई थी. एसएसपी को तब समझ में ही नहीं आया कि मामले को कैसे ‘हैंडल’ किया जाए. पहले मुजरिम को दूसरे थाने पर भेजा गया फिर उसे देर रात गोमती नगर थाने पर बुलाया गया. वहां मीडिया के सामने पंचायत होती रही. हत्यारोपी सिपाही वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से बदतमीजी करता रहा और मीडिया पर अपना भाषण झाड़ता रहा, लेकिन एसएसपी ने उसे फौरन गिरफ्तार कर लॉकअप में डालने की जरूरत नहीं समझी. इस प्रकरण में यूपी पुलिस क्या, पूरी प्रदेश सरकार की छीछालेदर हो गई. इसके बाद पुलिस संगठन में खुला विद्रोह हो गया और काली पट्टी बांध कर विरोध जताने का सिलसिला लंबे समय तक चलता रहा. ऐसा उत्तर प्रदेश पुलिस के इतिहास में कभी नहीं हुआ, जिसका श्रेय लखनऊ पुलिस के अलमबरदारों को ही जाता है. गोमती नगर थाना इलाके में ही एक कैशियर की हत्या कर 10 लाख रुपए लूटे जाने की घटना में भी लखनऊ के एसएसपी की प्रशासनिक अक्षमता सामने आई. एसएसपी ने स्थानान्तरित दारोगा को निलंबित किया लेकिन थानेदार और सर्किल अफसर को कुछ नहीं कहा. राज्य सरकार को कुछ खास पुलिस अधिकारियों की अक्षमता में भी क्षमता दिखती है, लेकिन इसके लिए उन खास अधिकारियों का मुख्यमंत्री या गृह विभाग के प्रमुख सचिव का नजदीकी रहना जरूरी होता है.
चाटुकारों और भ्रष्टों को तरक्की देंगे तो पुलिस कैसे सुधरेगी!
पुलिस के आला अफसरों और सत्ता पर बैठे नेताओं को यह समझ में ही नहीं आता कि उत्तर प्रदेश के 20 करोड़ लोगों की सुरक्षा के लिए महज ढाई लाख पुलिसकर्मी हैं. यानि, 10 लाख लोगों पर मात्र 125 पुलिसकर्मी. प्रदेश के लगभग 45 प्रतिशत पुलिस पोस्ट अधिकारी-कर्मचारी के अभाव में बंद पड़े हैं. अधिकांश पुलिस अधिकारी और कर्मचारी नेताओं की तीमारदारी और वीआईपी ड्यूटी में लगे हैं. मझोले दर्जे के पुलिस अधिकारियों और अन्य पुलिसकर्मियों पर काम का भीषण बोझ है. ऐसे में उनका मनोबल बनाए रखना अत्यंत जरूरी है. लेकिन आला अफसरों की नासमझी के कारण पुलिस हतोत्साहित है और अपनी ड्यूटी के प्रति उनमें कोई लगाव नहीं रह गया है. इन्हीं वजहों से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था का बुरा हाल है. एक अधिकारी ने ही कहा कि केवल इन्काउंटर करने से कानून व्यवस्था थोड़े ही सुदृढ़ हो जाती है! गिरे मनोबल के कारण ही पुलिस पर हमले की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. कुछ ही अर्सा पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सत्ता पोषित दबंगों द्वारा पुलिस पर हमला करने की घटनाओं पर कड़ा रुख अपनाते हुए कहा था कि जब कानून का रक्षक ही सुरक्षित नहीं तो आम आदमी खुद को कैसे सुरक्षित महसूस कर सकता है. कोर्ट ने पुलिस को निर्देश दिया था कि अपराधियों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की जाए चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े हों. लेकिन अदालत की सुनता कौन है! पुलिस के आला अफसर चाटुकार और भ्रष्ट पुलिसकर्मियों को आउट ऑफ टर्न तरक्की देने की सिफारिश करते रहे और सरकारें आंख बंद कर उन बेजा सिफारिशों पर मुहर लगाती रहीं. साहस, शौर्य, पराक्रम दिखाने वाले कर्तव्यपरायण और ईमानदार मझोले पुलिस अफसरों और पुलिसकर्मियों को दुत्कार कर हाशिए पर रखा गया. आप आश्चर्य करेंगे कि 1980-81, 81-82 और 82-83 बैच के उप निरीक्षकों (दारोगाओं) की सालाना तरक्की के लिए आज तक केवल तीन बार डीपीसी हुई. पिछले 37 वर्षों में उप निरीक्षकों (दारोगाओं) के प्रमोशन के लिए महज तीन बार डिपार्टमेंटल प्रमोशन कमेटी (डीपीसी) की बैठक का होना, सरकारों की घनघोर अराजकता की सनद है. 1982 बैच के उप निरीक्षकों के रुटीन प्रमोशन के लिए 15 साल बाद 1997 में डीपीसी हुई. उसके आठ साल बाद वर्ष 2005 में डीपीसी बैठी और फिर आठ साल बाद वर्ष 2013 में डीपीसी हुई. सत्ता के शीर्ष आसनों पर बैठे नेता तरक्की की दुकान खोले बैठे रहे और घूस लेकर तरक्कियां बेचते रहे. विडंबना यह है कि 80-81 और 81-82 बैच के उप निरीक्षक-निरीक्षकों को वर्ष 2007 और 2008 से एडिशनल एसपी का वेतन मिल रहा है, लेकिन सरकार ने उन्हें उनका रुटीन प्रमोशन नहीं होने दिया. रुटीन प्रमोशन से वंचित ऐसे अधिकारियों की संख्या तकरीबन दो हजार है.
पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार ने तो बड़े शातिराना तरीके से पुलिस में प्रमोशन का घोटाला किया. अंगरक्षकों का खास गुट बना कर उसमें शामिल पुलिसकर्मियों को अनाप-शनाप तरीके से आउट ऑफ टर्न तरक्की देने में समाजवादी पार्टी की सरकारों को विशेषज्ञता हासिल रही है. इसे देखते हुए ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आउट ऑफ टर्न तरक्की की प्रक्रिया पर रोक लगा दी थी. लेकिन कानून को ठेंगे पर रख कर समाजवादी सरकार ने मुलायम सिंह के जमाने के 32 अंगरक्षकों और अखिलेश काल के 42 अंगरक्षकों को तरक्की दे दी. मुख्यमंत्री सचिवालय की तत्कालीन प्रमुख सचिव अनीता सिंह और गृह विभाग के तत्कालीन सचिव मणि प्रसाद मिश्र ने मिल कर कुल 990 पुलिसकर्मियों की लिस्ट तैयार की जिनमें कान्सटेबल से लेकर दारोगा और इन्सपेक्टर तक शामिल थे और 23 जुलाई 2015 को फरमान जारी कर तरक्की दे दी. इस सरकारी फरमान का कोई गजट-नोटिफिकेशन भी नहीं किया गया. तकरीबन एक वर्ष बाद ही 11 जुलाई 2016 को शासन ने फिर एक 'विज्ञप्ति' जारी कर 94 इन्सपेक्टरों को तरक्की देकर डीएसपी बनाए जाने की मुनादी कर दी. यह 'विज्ञप्ति' भी सरकारी गजट में प्रकाशित नहीं की गई. उक्त आदेश पूरी तरह गैर-कानूनी था. उस आदेश से पुलिस महकमे के सभी कर्मचारियों का वरिष्ठता-क्रम छिन्न-भिन्न हो गया. इन्सपेक्टरों (निरीक्षकों) की तरक्की के आदेश में राज्य सरकार ने बड़े शातिराना तरीके से निरीक्षकों की भर्ती के वर्ष का कॉलम गायब कर दिया और इसकी आड़ लेकर मनमाने तरीके से निरीक्षकों के नाम भर दिए. इससे वरीयता-क्रम गड्डमड्ड हो गया. किसी में ट्रेनिंग का वर्ष, बैच नंबर और प्रमोशन का वर्ष अंकित है तो कई में प्रमोशन का वर्ष ही गायब कर दिया गया है. सेवा नियमावली के प्रावधानों को दरकिनार कर वरिष्ठता सूची में बैकलॉग वाले 119 नाम भी ठूंस दिए गए. सीनियर जूनियर हो गए और जूनियर अपने सीनियर के माथे पर बैठ गया. पुलिस के कामकाज और अनुशासन पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा. लेकिन बाद में सत्ता में आई भाजपा सरकार ने भी इसे दुरुस्त करने में कोई रुचि नहीं दिखाई.
ऑउट ऑफ टर्न तरक्की के बदले विशेष भत्ता की योजना विलुप्त हो गई
ऑउट ऑफ टर्न प्रमोशन पर पाबंदी लगाने के बाद उत्तर प्रदेश के जांबाज पुलिसकर्मियों को विशेष भत्ता देकर पुरस्कृत करने की योजना बनी थी, लेकिन सरकार के विवादास्पद फरमान से यूपी पुलिस की इस विशेष योजना पर ग्रहण लग गया. योजना बनी थी कि साहस और शौर्य दिखाने वाले जांबाज पुलिसकर्मियों को एक हजार रुपए प्रतिमाह का विशेष भत्ता सेवा की अवधि तक दिया जाता रहेगा. इसके साथ ही हर साल 10 पुलिसकर्मियों को विशेष सम्मान के लिए चुन कर उन्हें मुख्यमंत्री प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित किए जाने की योजना बनी थी. सराहनीय काम करने वाले 25 पुलिसकर्मियों में से प्रत्येक को 25 हजार रुपए का इनाम दिए जाने की भी योजना बनी थी. लेकिन सारी योजनाएं प्रमोशन के विवादास्पद खेल की छाया में विलुप्त हो गईं. 

Tuesday 6 November 2018

मोदी-गवर्नेंस : सरेआम नीलाम हो गई सीबीआई की साख...

प्रभात रंजन दीन
सीबीआई की साख की चौराहे पर हुई सरेआम नीलामी कांग्रेस के ‘मैनेजमेंट’ और भाजपा के ‘मिस-मैनेजमेंट’ का परिणाम है. खुद को संतरी बताने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नाकारा बने बैठे रह गए. भ्रष्टाचार के मामले की जांच करने वाली देश की इस अकेली केंद्रीय खुफिया एजेंसी की प्रासंगिकता और उसके औचित्य को नष्ट करने की तैयारी पिछले कई वर्ष से चल रही थी. इस तैयारी में लगी कांग्रेस के साथ कुछ पुराने भाजपाई भी शामिल हो गए थे. लेकिन सब की अपनी वजहें थीं और बचाव की पेशबंदी थी. सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच जो कुछ हुआ, उसमें ये दोनों अधिकारी महज मुहरे थे. इन दो मुहरों का इस्तेमाल किया गया और कांग्रेस को इसमें कामयाबी मिली. इन दो मुहरों को लड़ा कर सीबीआई की साख और उसके औचित्य को धराशाई करने में कांग्रेसियों और उनका साथ दे रहे भाजपाइयों को सफलता मिली. अब सीबीआई कांग्रेस नेता राहुल गांधी, पी. चिदंबरम, अहमद पटेल या पूर्व भाजपा नेता अरुण शौरी पर कोई कार्रवाई भी करे तो अब उसकी उतनी धार नहीं रह जाएगी. ये जो चार नेताओं के नाम लिए गए, वो सामने के चेहरे हैं, इनके पीछे एक लंबी कतार है उन घोटालेबाजों और भ्रष्टाचारियों की, जो सीबीआई के शिकंजे में आने वाले थे, लेकिन अब कुछ दिनों के लिए राहत पा गए हैं. कांग्रेस इस मनोविज्ञान में है कि 2019 के चुनाव में केंद्र में अगर कांग्रेस नेतृत्व वाले संप्रग की सत्ता नहीं भी आई तो भाजपा विरोधी ताकतें मिल कर सरकार बनाएंगी और कांग्रेस की उसमें अहम भूमिका रहेगी. यही वजह है कि न केवल सीबीआई, बल्कि तमाम ऐसी जांच एजेंसियों और संवेदनशील महकमों के अधिकारियों को यह प्रलोभन दिया जाने लगा है कि सत्ता बदलते ही उन्हें अहम ओहदों पर बिठाया जाएगा. सीबीआई में मची रार का सार यही है.
पिछले साल जुलाई और सितम्बर के दो संस्करणों में ‘चौथी दुनिया’ ने मीट कारोबारी से हवाला कारोबारी और मनी-लॉन्ड्रिंग के सरगना बने मोइन कुरैशी और सीबीआई के शीर्ष अधिकारियों के अंतरसम्बन्ध की अंतरगाथा प्रकाशित की थी. उस समय ही यह संकेत मिल गया था कि सीबीआई का अंदरूनी ढांचा विस्फोट के दहाने पर खड़ा है, कभी भी धमाका हो सकता है और किला बिखर सकता है. लेकिन केंद्र की सत्ता पर बैठे भाजपाइयों को तो केवल भांड-गायन पसंद है. नव-सत्ता-स्वादू भाजपाई आलोचना पसंद नहीं करते और न आगाह करने वाली खबरें पढ़ते हैं. अगर उसी समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘क्राइसिस मैनेजमेंट’ कर लिया होता तो आज यह किरकिरी नहीं हुई होती और न केंद्र सरकार को हड़बड़ाहट में कोई बेवकूफाना कदम उठाने की जरूरत पड़ती. एम नागेश्वर राव को सीबीआई का अंतरिम निदेशक बनाने का निर्णय केंद्र सरकार का बेवकूफाना फैसला ही तो है. भ्रष्टाचार के आरोपों और विवादों में घिरे एम नागेश्वर राव को सीबीआई का अंतरिम निदेशक बनाने का फैसला, भाजपा सरकार की ईमानदारी और पारदर्शिता के दावों की असलियत बताता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सार्वजनिक मंचों से चाहे जितने दृढ़ शब्दों का इस्तेमाल करें, उसे कार्यरूप में उतारने में वे कमजोर साबित होते रहे हैं. प्रधानमंत्री के अधीन विभागों में केंद्रीय खुफिया एजेंसी सबसे अहम है, लेकिन सीबीआई में ‘कांग्रेसजकता’ की घुसपैठ रोकने में वे नाकाम रहे और यह खुफिया एजेंसी पूरी तरह अराजक हो गई. आलोक वर्मा या राकेश अस्थाना तो एपी सिंह, रंजीत सिन्हा, अरुण कुमार या जावीद अहमद जैसे अधिकारियों के बाद के ‘प्रोडक्ट’ हैं. पहले ही कीटाणु-नाशक का छिड़काव हो जाता तो कीड़ों की अगली जमात पैदा ही नहीं होती. लेकिन मोदी चूक गए. सीबीआई को सड़ाने के लिए ये सारे अधिकारी जिम्मेदार हैं, जो कांग्रेस के इशारे पर अपने मौलिक काम की शातिराना अनदेखी और लीपापोती करते रहे. इस वजह से केवल मनी लॉन्ड्रिंग ही नहीं, बल्कि टू-जी स्कैम, एयरसेल-मैक्सिस स्कैम, स्टर्लिंग-बायोटेक-संदेसारा स्कैम, अगस्टा-वेस्टलैंड स्कैम, नेशनल हेराल्ड स्कैम, होटल लक्ष्मी विलास पैलेस बिक्री स्कैम समेत कई अहम मामले अंदरूनी अराजकता में फंसे रह गए. दूसरी तरफ सीबीआई भाजपा के इशारे पर कभी मायावती के भाई को पूछताछ के बहाने दो-दो दिन तक दफ्तर में बिठा कर दबाव बनाती रही तो कभी अलग-अलग घोटालों के नाम पर लालू-परिवार को हड़काती रही. इस तरह के राजनीति-प्रेरित आचरणों के कारण ही तीन मुख्य केंद्रीय खुफिया एजेंसियों में तनाव बढ़ा, मारपीट तक हुई और परस्पर वैमनस्यता बढ़ी. सीबीआई और आईबी का बैर सड़क तक आ गया. राजनीति और भ्रष्टाचार ने इन केंद्रीय एजेंसियों की साख का बंटाधार कर दिया. केंद्रीय खुफिया एजेंसी से अंतरसम्बन्धित प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और आयकर जैसे विभागों को भी सियासी-दीमकों ने खाया. करनैल सिंह और राजेश्वर सिंह जैसे कई विवादास्पद अधिकारियों ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की ‘शोहरत’ चारों दिशाओं में फैलाई. यह सब जानते समझते हुए भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोई रोकथाम नहीं की, केवल मंचों से बेहतर ‘गवर्नेंस’ पर भाषण देते रह गए.
सीबीआई की मौजूदा छीछालेदर मनी-लॉन्ड्रिंग सरगना मोइन अख्तर कुरैशी के कंधे पर रख कर की गई, इसलिए बात कुरैशी से ही शुरू करते हैं. असलियत यह है कि इस प्रकरण के केंद्र में कांग्रेस नेताओं की घबराहट है. मोइन कुरैशी के मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला धंधे की चपेट में यूपीए शासनकाल के दो मंत्री सीधे तौर पर फंस रहे हैं. आयकर विभाग ने इन नेताओं और कुरैशी के साथ बड़ी धनराशि के लेनदेन के लिंक पकड़े हैं. इन दोनों मंत्रियों के हवाला रैकेट में शामिल होने के सबूत मिले हैं. यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुए 2-जी स्कैम में फंसी एक बड़ी कंपनी से ली गई 1,500 करोड़ रुपए की रिश्वत की रकम मोइन कुरैशी ने ही हवाला के जरिए बाहर भेजी थी. पैसे का लेनदेन हांगकांग में हुआ था. छानबीन में यह बात भी सामने आई है कि मोइन कुरैशी ने हवाला के काम में केंद्रीय खुफिया एजेंसी के अधिकारी के रिश्तेदारों के हांगकांग के बैंक अकाउंट्स का भी इस्तेमाल किया था. इन दो पूर्व मंत्रियों के नाम आप खबर में आगे पाएंगे. कई और पूर्व मंत्रियों के नाम सामने आने की उम्मीद थी, लेकिन फिलहाल यह धुंधला गया है. यह आधिकारिक तौर पर पुष्ट हो चुका है कि मोइन कुरैशी शीर्ष सत्ता गलियारे में दलाली का नेटवर्क फैला कर मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला का कारोबार चमका रहा था. इस प्रकरण पर रायता फैलाने की सुनियोजित योजना के तहत मोइन कुरैशी के खास सतीश बाबू सना के जरिए सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना को करोड़ों रुपए घूस दिए जाने का आरोप लगाया गया. बौखलाए अस्थाना ने सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा पर सतीश सना से दो करोड़ रुपए लेने का आरोप लगाया. सतीश सना पर कुरैशी के साथ मिल कर मनी लॉन्ड्रिंग का धंधा करने और नेताओं-अफसरों को रिश्वत खिलाने के आरोप हैं. मोइन कुरैशी के सीबीआई के पूर्व निदेशक एपी सिंह और रंजीत सिन्हा से गहरे भ्रष्टाचारी-ताल्लुकात पहले उजागर हो चुके हैं. सतीश सना ने कहा है कि उसने मनोज प्रसाद नामक बिचौलिए को उसके दुबई स्थित ऑफिस में एक करोड़ रुपए दिए थे. उसके बाद सोमेश प्रसाद के कहने पर सुनील मित्तल को भी करीब दो करोड़ (1.95) रुपए दिए. सतीश सना के आदमी ने मित्तल को यह पैसा 13 दिसम्बर 2017 को दिल्ली प्रेस क्लब परिसर में दिया था. सतीश का कहना है कि उसके खिलाफ चल रही सीबीआई जांच को खत्म करने के लिए यह रिश्वत दी जा रही थी. सतीश सना ने राकेश अस्थाना को पिछले साल 10 महीने के अंतराल में करीब तीन करोड़ रुपए रिश्वत देने की बात कही.
दरअसल, मोइन कुरैशी के कीचड़ में आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना के साथ-साथ कई और अधिकारी सने हुए हैं. वर्मा ने अस्थाना पर घूस लेने का आरोप लगाया तो अस्थाना ने वर्मा पर. अस्थाना ने मुख्य सतर्कता आयुक्त और कैबिनेट सचिव को पत्र लिख कर कहा कि सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा खुद को बचाने के लिए उन पर आरोप मढ़ रहे हैं. इस मामले में हैदराबाद के व्यवसायी और कुरैशी का करीबी सतीश बाबू सना मुख्य भूमिका निभा रहा है. उसने राकेश अस्थाना पर घूस लेने का आरोप लगाया और मंच से नेपथ्य में चला गया. कुरैशी के मनी लॉन्ड्रिंग सिंडिकेट की जांच राकेश अस्थाना के नेतृत्व में स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम कर रही थी. सतीश सना के जरिए कुरैशी से घूस लेने के आरोप-प्रत्यारोप में तथ्यों को घालमेल करने का षडयंत्र समानान्तर तरीके से चलता रहा. आप ध्यान दें... 25 सितंबर को सतीश सना ने हैदराबाद हवाई अड्डे से दुबई भागने की कोशिश की थी, लेकिन ‘लुक आउट सर्कुलर’ के कारण इमिग्रेशन अधिकारियों ने उसे रोक दिया. कुरैशी के मनी लॉन्ड्रिंग सिंडिकेट से जुड़े सतीश सना से पूछताछ करने के लिए राकेश अस्थाना ने निदेशक आलोक वर्मा से औपचारिक इजाजत मांगी थी. लेकिन वर्मा ने अस्थाना का प्रस्ताव चार दिनों तक रोके रखा और उसके बाद राकेश अस्थाना को बताए बगैर वह फाइल अभियोजन निदेशक (डायरेक्टर प्रॉजिक्यूशन) को भेज दी. यह सब हो जाने के बाद सतीश सना का प्रकरण अचानक उभर कर सामने आया और राकेश अस्थाना को घूस देने का आरोप उछल कर छा गया. सतीश सना के शिकायती-पत्र पर 15 अक्टूबर को सीबीआई ने राकेश अस्थाना के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर दी और निदेशक आलोक वर्मा ने आनन-फानन कुरैशी मामले की जांच एसआईटी से वापस भी ले ली. स्टेज सेट हो जाने के बाद बाहर घात लगाए बैठे सियासी-जीवों ने बवाल मचाना शुरू कर दिया. यह भी बताते चलें कि सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना ने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और उनके बेटे संदीप दीक्षित को भी भ्रष्टाचार के मामले में घेरे में लेने की कोशिश की थी, लेकिन वर्मा ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया था.
स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार और काला धन सफेद करने (मनी लॉन्ड्रिंग) के आरोपी कांग्रेसी नेताओं को बचाने की कोशिशें चल रही थीं. आप गौर करें कि 15 सितम्बर को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए कांग्रेस ने ‘भाजपा सरकार के सहयोग से’ 23 पूंजीपतियों के देश से भागने की बात कही, लेकिन जो लिस्ट प्रेस को सौंपी उसमें केवल 19 लोगों के नाम थे. कांग्रेस ने बड़े शातिराना तरीके से तीन-चार नाम नहीं बताए. वे पूंजीपति थे स्टर्लिंग-बायोटेक कंपनी से जुड़े संदेसारा ग्रुप के कर्ताधर्ता नितिन संदेसारा, दीप्ति संदेसारा और चेतन संदेसारा. वरिष्ठ कांग्रेस नेता अहमद पटेल से जुड़े इन पूंजीपतियों ने आंध्रा बैंक के साथ पांच हजार करोड़ का फ्रॉड किया और दुबई भाग गए. अब उनके नाइजीरिया में होने की सूचना है. संदेसारा परिवार और अहमद पटेल परिवार के सदस्यों पर मनी लॉन्ड्रिंग के भी गहरे और गंभीर आरोप हैं. कांग्रेस ने बड़ी चालाकी से इन लोगों के नाम लिस्ट से हटा दिए. इस गोरखधंधे में पकड़े गए कुछ अन्य लोगों ने यह कबूल भी किया है कि उन लोगों ने कई खेप में अहमद पटेल के सरकारी आवास पर धन पहुंचाए. अहमद पटेल के बेटे फैसल पटेल और दामाद इरफान सिद्दीकी का नाम तो सीबीआई की एफआईआर में भी है. कांग्रेस को सीबीआई की यह फाइल नहीं दिखी. सड़क पर कांग्रेस भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करती दिख रही है, लेकिन चारित्रिक रूप से ठीक इसके उलट है. कांग्रेस ने केंद्र सरकार पर आरोपों की झड़ी लगाते हुए भी हथियार कारोबारी संजय भंडारी का नाम नहीं लिया. भंडारी के राहुल के बहनोई स्वनामधन्य रॉबर्ट वाड्रा से गहरे कारोबारी ताल्लुकात हैं. संजय भंडारी सीबीआई और ईडी की पूछताछ में रॉबर्ड वाड्रा की अकूत सम्पत्ति के बारे में खुलासा कर चुका है. लंदन की एक आलीशान कोठी तो रॉबर्ट वाड्रा ने संजय भंडारी के नाम पर ही ले रखी है. अगस्टा से लेकर राफेल की सौदेबाजी में संजय भंडारी ने यूपीए-कालीन दलाली में अहम भूमिका अदा की थी. यूपीए काल में हथियारों की खरीद में भंडारी ने खूब दलाली खाई और कांग्रेस नेताओं और उनके रिश्तेदारों को खिलाई. संजय भंडारी भी देश से गुपचुप भाग गया, लेकिन कांग्रेस ने एक बार भी उसका नाम नहीं लिया.
स्टर्लिंग-बायोटेक और संदेसारा ग्रुप द्वारा किए गए पांच हजार करोड़ के बैंक फ्रॉड में गिरफ्तार हवाला कारोबारी रंजीत मलिक उर्फ जॉनी ने प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ में यह स्वीकार किया है कि उसने अपने कुरियर एजेंट राकेश चंद्रा के जरिए 25 लाख रुपए सीधे अहमद पटेल को उनके दिल्ली के 23, मदर टेरेसा क्रीसेंट स्थित आवास पर पहुंचवाए थे. मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी की पकड़ में आए संदेसारा ग्रुप के मुलाजिम सुनील यादव ने अहमद पटेल के बेटे फैसल पटेल के भी इस गोरखधंधे में शामिल होने की बात बताई. प्रवर्तन निदेशालय को सुनील यादव ने लिखित तौर पर बताया है कि संदेसारा ग्रुप के मालिक चेतन संदेसारा के निर्देश पर उसने फैसल पटेल के ड्राइवर के हाथों बड़ी धनराशि फैसल के लिए भेजी थी. इसके अतिरिक्त चेतन संदेसारा खुद अहमद पटेल के घर पर लगातार आया-जाया करते थे.
अब तक यह सवाल अनुत्तरित है कि स्टर्लिंग-बायोटेक कंपनी द्वारा किए गए पांच हजार करोड़ के फ्रॉड की सीबीआई या इन्फोर्समेंट निदेशालय ने जांच क्यों नहीं आगे बढ़ाई! पांच हजार करोड़ के फ्रॉड में आंध्रा बैंक के पूर्व निदेशक अनूप गर्ग की गिरफ्तारी के बाद से यह सवाल गहराया हुआ है कि स्टर्लिंग-बायोटेक कंपनी के अलमबरदारों और कंपनी से जुड़े कांग्रेस नेता अहमद पटेल से अब तक सीबीआई या ईडी ने पूछताछ क्यों नहीं की? जबकि अहमद पटेल के बेटे फैसल पटेल का नाम आयकर अधिकारियों को घूस देने के क्रम में सीबीआई की एफआईआर और ईडी की एफआईआर में आ चुका है. ईडी ने अहमद पटेल के खास गगन धवन के खिलाफ तो चार्जशीट भी दाखिल कर रखी है. गुजरात के वड़ोदरा स्थित स्टर्लिंग-बायोटेक ग्रुप द्वारा आयकर विभाग के आला अधिकारियों को भारी रिश्वत दिए जाते रहने का खुलासा हो चुका है.
अब आते हैं सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना पर. राकेश अस्थाना का बेटा अंकुश अस्थाना स्टर्लिंग बायोटेक कंपनी में 2010 से 2012 के बीच ऊंचे ओहदे और ऊंची सैलरी पर काम करता था. अस्थाना की बिटिया की नवम्बर 2016 में हुई आलीशान शादी स्टर्लिंग फार्म हाउस में ही हुई थी, जो काफी विवादों में रही. स्टर्लिंग-संदेसारा ग्रुप से घूस खाने वाले लोगों की सूची में राकेश अस्थाना का नाम भी शामिल रहा है. सीबीआई द्वारा बरामद की गई डायरी से यह खुलासा हुआ था कि वर्ष 2011 में अस्थाना को करीब साढ़े तीन करोड़ रुपए कुछ किस्तों में दिए गए थे. उस समय अस्थाना सूरत के पुलिस कमिश्नर थे. सीबीआई ने तब इस मामले में दो एफआईआर भी दर्ज की थी. पहली एफआईआर कंपनी से घूस खाने वाले तीन आयकर आयुक्तों के खिलाफ थी और दूसरी एफआईआर बैंक के साथ पांच हजार करोड़ की धोखाधड़ी किए जाने के मामले से जुड़ी थी. आप देख रहे हैं न विचित्र सा घालमेल!
सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना को तरक्की देकर सीबीआई का स्पेशल डायरेक्टर बनाने का विरोध किया था. लेकिन केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और केंद्र सरकार ने निदेशक की बात को टाल कर अस्थाना को त्वरित गति से प्रमोट कर दिया. जब राकेश अस्थाना के क्लोज-लिंक कांग्रेस नेता अहमद पटेल से थे, तब मोदी सरकार ने ऐसा क्यों किया? यह सियासत है, इसके पेचोखम आपस में इतने उलझे होते हैं कि आम आदमी क्या, कई खास लोगों को भी समझ में नहीं आते. पर्दे के पीछे का सच यह है कि गुजरात के राज्यसभा चुनाव में  कांग्रेस प्रत्याशी अहमद पटेल को लेकर कांग्रेस के साथ भाजपा की एक ‘समझदारी’ बन रही थी. कांग्रेस की सीटें भी कम थीं और भाजपा के लिए वह इज्जत से जुड़ा चुनाव था. कांग्रेस भी भाजपा को अंदर-अंदर समझा रही थी कि अहमद पटेल की उम्मीदवारी कांग्रेस की सियासी तौर पर जरूरी है, जबकि उनकी हार सुनिश्चित है. इस ‘समझदारी’ के तहत भाजपा सरकार ने अहमद पटेल के खिलाफ सीबीआई जांच की गति मंद कर दी थी. भाजपा की तरफ से अमित शाह, स्मृति इरानी और बलवंत सिंह राजपूत प्रत्याशी थे. लेकिन कांग्रेस ने भाजपा को भ्रम में रख कर अंदरूनी तिकड़म ऐसी बनाई कि भाजपा के तिकड़मबाज धराशाई हो गए और मात्र 44 वोट पाकर भी अहमद पटेल राज्यसभा चुनाव जीत गए. इस खेल में कांग्रेस से झटका खाने के बाद भाजपा ने पैंतरा बदला और अहमद पटेल के खिलाफ सीबीआई जांच ने तेजी पकड़ ली. नौ अगस्त 2017 को अहमद पटेल ने राज्यसभा का चुनाव जीता और सीबीआई ने 30 अगस्त 2017 को एफआईआर दर्ज कर दी. इसके बाद ताबड़तोड़ कई एफआईआर दर्ज हुईं. सीबीआई की एफआईआर में अहमद पटेल के दामाद इरफान भाई का नाम शामिल है, जिसने आयकर आयुक्तों को रिश्वत दी थी. धन के लेनदेन के सूत्र से अहमद पटेल के करीबी गगन धवन का नाम भी मजबूती से जुड़ा पाया गया है. सीबीआई ने एफआईआर में उन शीर्ष अधिकारियों को भी भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत अभियुक्त बनाया जिन्हें अहमद पटेल के दामाद ने रिश्वत दी थी. इनमें आईआरएस अफसर सुनील कुमार ओझा, डॉ. सुभाषचंद्र और मानस शंकर राय के नाम शामिल हैं. फिर से बताते चलें कि स्टर्लिंग बायोटेक और संदेसारा ग्रुप के कर्ताधर्ता नितिन संदेसारा और उसके भाई चेतन संदेसारा के अहमद पटेल से काफी नजदीकी सम्बन्ध हैं. सीबीआई की एफआईआर कहती है कि स्टर्लिंग-बायोटेक और संदेसारा ग्रुप के वड़ोदरा, मुंबई और ऊटी के ठिकानों पर की गई व्यापक छापामारी में वह डायरी और कम्प्यूटरी-ब्यौरे बरामद किए गए थे, जो नेताओं, नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों को रिश्वत देने का खुलासा करते हैं. इसी डायरी से पता चला कि अहमद पटेल के दामाद इरफान सिद्दीकी ने आईआरएस अधिकारी डॉ. सुभाषचंद्र को एक करोड़ रुपए रिश्वत के बतौर दिए थे. इसके अलावा भी इस आईआरएस अधिकारी को 75 लाख रुपए दिए जाने के दस्तावेजी प्रमाण मिले हैं. रिश्वत के ऐसे कई लेन-देन उजागर हुए हैं. इरफान सिद्दीकी अहमद पटेल की बिटिया मुमताज पटेल का पति है.
सीबीआई पर कांग्रेस की मजबूत पकड़ का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि कांग्रेस के इशारे पर सीबीआई के अधिकारियों ने ही सीबीआई का पूरा ढांचा चरमरा कर रख दिया. कांग्रेस को सीबीआई की अंदरूनी सूचनाएं मिल रही थीं. तभी राहुल गांधी के ट्वीट पर कांग्रेस के ही नेता शहजाद पूनावाला ने सवाल खड़े किए कि आखिर राहुल गांधी को कैसे पता कि सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा राफेल के दस्तावेज इकट्ठा कर रहे थे? राहुल ने ट्वीट कर कहा था कि राफेल सौदे से जुड़े दस्तावेज जुटाने में लगे होने के कारण आलोक वर्मा को हटाया गया. आलोक वर्मा की निगरानी में ही अगस्टा वेस्टलैंड मामले की जांच चल रही थी, जो आजतक निर्णायक कानूनी नतीजे तक नहीं पहुंची. उस मामले में चार्ज शीट भी दाखिल नहीं की गई और दुबई में पकड़े जाने के बावजूद अगस्टा वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर खरीद घोटाले के मुख्य आरोपी दलाल क्रिश्चियन मिशेल को भारत नहीं लाया जा सका. पी. चिदंबरम एयरसेल-मैक्सिस घोटाले से बचे रहे और उनके बेटे कार्ति चिदंबरम आईएनएक्स मीडिया मनी लॉन्ड्रिंग मामले में कानून के शिकंजे में नहीं आए. पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव आईआरसीटीसी रेल-होटल घोटाले से बचे रहे तो संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा बिकानेर जमीन घोटाले में बचे रह गए.

बचाव की पेशबंदी में शौरी के शौर्य का शोशा
हाल के दिनों में पूर्व भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी कुछ अधिक ही बौखलाए नजर आ रहे थे. राफेल के मसले पर शौरी के तीखे तेवर की असलियत लक्ष्मी विलास पैलेस होटल बिक्री घोटाले में फंसने की छटपटाहट थी. अब यह बात खुल कर सामने आ रही है कि इस मसले पर शौरी और सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा की गोपनीय मुलाकात हुई थी. वर्ष 2002 में जब अरुण शौरी केंद्र में विनिवेश मंत्री हुआ करते थे, तब उदयपुर का आलीशान पांच सितारा लक्ष्मी विलास होटल बिका था. घाटे के उपक्रमों को बेचने के क्रम में भारी घोटाले हुए. 29 एकड़ में फैले लक्ष्मी विलास पैलेस होटल को महज 7.52 करोड़ रुपए में बेच डाला गया. जबकि उस समय होटल की कीमत सरकारी दर के हिसाब से डेढ़ सौ करोड़ रुपए से अधिक थी. यह तथ्य सीबीआई की प्राथमिक जांच (पीई) रिपोर्ट में दर्ज है. अरुण शौरी के विनिवेश मंत्रालय ने इसके साथ-साथ कई अन्य होटल भी कौड़ियों के भाव बेच डाले थे, जिनमें दिल्ली के कुतुब होटल और लोधी होटल भी शामिल थे. सीबीआई ने लक्ष्मी विलास पैलेस होटल बिक्री घोटाले की छानबीन शुरू की थी और शौरी के करीबी भरोसेमंद नौकरशाह प्रदीप बैजल के खिलाफ 29 अगस्त 2014 को केस दर्ज किया था. शौरी के ही कार्यकाल में मुंबई का सेंटूर एयरपोर्ट होटल 83 करोड़ में सहारा समूह को बेचा गया था. दिलचस्प यह है कि उसी होटल को सहारा समूह ने 115 करोड़ में बेच डाला. यह सरकार की बिक्री-प्रक्रिया पर करारे तमाचे की तरह था.

विवादास्पद नागेश्वर राव भाजपा का नया मोहरा
वर्मा-अस्थाना भिड़ंत के कारण हो रही फजीहत से बचने के लिए केंद्र सरकार ने आनन-फानन ऐसे अधिकारी को सीबीआई का अंतरिम निदेशक बना दिया, जिससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की और किरकिरी हो गई. मन्नम नागेश्वर राव काफी विवादित आईपीएस अफसर रहे हैं. भ्रष्टाचार-विधा में भी उनका काफी नाम है. उनकी खासियत यह है कि वे उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू के खास और मुख्य सतर्कता आयुक्त केवी चौधरी के निकटवर्ती हैं. चेन्नई के गिंडी (एचटीएल) जमीन घोटाले की जांच की लीपापोती करने में राव ने अहम भूमिका अदा की. उस समय नागेश्वर राव सीबीआई चेन्नई जोन के एंटी करप्शन ब्रांच के प्रमुख थे. गिंडी भूमि घोटाले के जरिए उस समय सरकार को करीब डेढ़ सौ करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचाया गया था. उस घोटाले की जांच में घालमेल करके नागेश्वर राव ने तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्य सचिव आर राममोहन राव, उनके करीबी निरंजन मार्डी आईएएस और सिडको के तत्कालीन अध्यक्ष हंसराज वर्मा आईएएस समेत घोटाले में शामिल रहे एसबीआई के उप महाप्रबंधक लियोन थेरटिल, चीफ मैनेजर एन रामदास, मेसर्स वीजीएन डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक डी प्रथीश और एचटीएल के सीओओ डीपी गुप्ता को बचाया. राव ने इस मामले में सीबीआई की जांच आगे नहीं बढ़ने दी और घोटाले के सबूत गायब कर दिए गए. सीबीआई ने वह दस्तावेज भी दबा दिया जिसमें विभिन्न नेताओं और अफसरों को घूस दिए जाने का ब्यौरा दर्ज था. राव का दुस्साहस यह रहा कि जमीन घोटाले की जांच का मामला उन्होंने अपनी मर्जी से इंडियन बैंक के अधिकारी वेलायुथम को दे दिया. तमाम शिकायतों के बावजूद ओड़ीशा कैडर के आईपीएस नागेश्वर राव की सीबीआई दिल्ली में तैनाती हो गई और आज उन्हें अंतरिम निदेशक के पद पर बैठा दिया गया. सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा नागेश्वर राव को सीबीआई से हटा कर वापस मूल कैडर में भेजने की कोशिशें करते रहे, लेकिन नाकाम रहे. आखिरकार वर्मा को ही हटना पड़ा. नागेश्वर राव की पत्नी मन्नम संध्या ने आंध्र प्रदेश के गुंटुर जिले में करीब 14 हजार वर्ग फीट जमीन खरीदी, जिसे कोलकाता की एक कागजी (शेल) कंपनी एंजेला मर्केंटाइल्स प्राइवेट लिमिटेड से लोन लेकर खरीदा दिखाया गया. छानबीन की गई तो पता चला कि नागेश्वर राव की पत्नी एम. संध्या ने ही उक्त कंपनी को ही 38,27,141 रुपए कर्ज दे रखा है. दस्तावेजों पर एम. संध्या ने पति का नाम दर्ज कराने के बजाय अपने पिता चिन्नम विष्णु नारायणा लिखवाया हुआ है. एम. संध्या एंजेला मर्केंटाइल्स प्राइवेट लिमिटेड की शेयर होल्डर हैं. नागेश्वर राव पर ओड़ीशा में वन भूमि खरीदने का मामला भी लंबित है.

सीबीआई के वकील भी हैं सब ‘गंगा-नहाए’
दो शीर्ष अधिकारियों की प्रायोजित कुश्ती में वकील भी दो खेमों में बंट गए और कई वकीलों के छद्म भी खुल गए. जब विशेष निदेशक राकेश अस्थाना ने अपने खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करने के लिए अदालत में याचिका दाखिल की, तो सीबीआई को भी वकील की जरूरत पड़ी. अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता कहीं अन्यत्र खिसक लिए और सीबीआई के स्थायी वरिष्ठ वकील अमरेंद्र शरण ने अस्थाना के पक्ष में कानूनी लड़ाई लड़ने का बीड़ा उठा लिया. आखिरकार सीबीआई ने वकील कोंडुरी राघवचार्युलू को तैनात किया. राघवचार्युलु खुद सीबीआई की निगरानी में रहे हैं. 'डायरी गेट' प्रकरण में राघवचार्युलु का नाम था. सीबीआई के तत्कालीन निदेशक रंजीत सिन्हा के आधिकारिक आवास के प्रवेश-निकास लॉगबुक से खुलासा हुआ था कि राघवचार्युलु कम से कम 54 बार रंजीन सिन्हा से मिलने गए थे. कोंडुरी राघवचार्युलू कोल-खनन सरगना जनार्दन रेड्डी के वकील थे. सीबीआई ने फिर बीच में ही राघवाचार्युलु को हटा कर विक्रमजीत बनर्जी को अपना वकील बना लिया तो दोनों वकील ही आपस में भिड़ गए.