Saturday 24 March 2012

फुरसत तो मुझे भी थी बहुत देश के लिए

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत को नमन। इसके साथ ही देश के लिए मर मिटे उन तमाम शहीदों के लिए भी श्रद्धा के भाव जो अनाम रह गए। जो आजादी के पहले शहीद हुए और जो आजादी के बाद शहीद हुए, सबके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए बात शुरू करते हैं कि इन शहादतों के मायने क्या हैं? शहादत दिवसों पर नमन और जयंतियों पर स्मरण क्या शहादत के यही मायने हैं और  यही औचित्य है? जो लोग शहीदों की प्रतिमाओं पर फूल चढ़ाते हैं, जो नेता शहीदों के लिए बड़े-बड़े कशीदे पढ़ते हैं, वे ऐसा करते समय अंतरमन में झांकते हैं कि नहीं? खुद क्या करते रहे और वे क्या करके चले गए, इसका फर्क उन्हें समझ में आता है कि नहीं? अगर आता तो वे ऐसा क्यों बनते और अगर नहीं आता तो क्यों करते हैं ये शहादतों की भी मार्केटिंग? और हम क्यों लगा देते हैं मदारियों के चारो तरफ भीड़? शहादत दिवसों के प्रायोजनों को देख कर यह तकलीफ तो होती ही है। जिस बात के लिए भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु फांसी पर लटक गए। जिस बात के लिए चंद्रशेखर आजाद ने खुद को गोली मार ली। जिस बात के लिए ऊधम सिंह ने लंदन जाकर ऊधम काट दी। जिस बात के लिए जाने कितने बेटों ने अपनी कुर्बानी दे दी। उस बात के लिए हम कितने पल देते हैं? ...कि शहादत दिवसों के आयोजनों में जाकर रोते हैं और माला पहना कर मुस्कुरा कर चल देते हैं! देश और समाज के लिए हम अगर कुछ भी सार्थक करें जिसपर हमें खुद पर संतोष हो तो ऐसे प्रायोजनों की जरूरत ही नहीं पड़े! तब हम आत्मविश्वास से शहीदों की आत्माओं को यह कह सकें कि तुम चले गए, हम भी कुछ करके आते हैं। ऐसा सोचा होता तो ऐसा ही किया होता... तब भगत सिंह की आत्मा सुकुन में होती और तथाकथित आजादी के 65 साल यूं ही बेमानी नहीं बीत गए होते। हमने कुछ भी ऐसा नहीं किया, जिस पर देश के लिए शहीद हुई आत्माओं को गौरवबोध हो। हमने देश को गर्त में धकेल दिया। समाज वह नहीं जिसके लिए हम पक्षपात करते हैं, नैतिकता-निष्पक्षता को ताक पर रख कर वोट डालते हैं, रिश्ते गांठते हैं। अपनी जाति और अपने धर्म को समाज कहना तो हम भूले नहीं, व्यापक समाज और व्यापक देशहित के बारे में हम सोच भी कैसे सकते हैं। हम कुएं के मेढक हैं जो अपनी जाति और अपने धर्म से उबरते नहीं, देश को तीसरे या चौथे दर्जे पर या उस स्तर की प्राथमिकता पर भी नहीं रखते। शहादत दिवसों पर ही हम कम से कम यह सोचें कि क्या देश हमारी प्राथमिकता पर है? ईमानदारी से सोचें। लेकिन ईमानदारी से हम सोच नहीं सकते क्योंकि ईमानदार होते तो देश प्राथमिकता पर होता और हम विश्व के धरातल पर अपना सिर ऊंचा कर चल रहे होते। हमारे घरों के वे नौनीहाल जिन्होंने सीमा की रक्षा करते हुए या बेमानी हिंसा से लड़ते हुए अपनी जान दे दी, आज हमारे बीच होते और देश को अपने जिंदा होने का सबूत दे रहे होते। वे शहीद हुए पर हम जिंदा रहते हुए भी मर चुके हैं। हमारा देश घोटालेबाजों, झूठे, लुच्चों और इनके सरगना नेताओं की पहचान से नहीं जाना जाता। हम जगत में लालू यादवों, राजाओं, कनिमोझियों और मायावतियों सरीखी हस्तियों से नहीं जाने जाते। हम मर ही तो चुके हैं कि यह सब बर्दाश्त करते हैं! और अगर जिंदा हैं तो हम अब भी शर्म करें और ऐसा करें कि हमारा देश शहीदों के नाम से और हमारा देश हमारे योगदान के नाम से जाना जाए। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि... फुरसत तो मुझे भी थी बहुत देश के लिए
        पर पेट भर गया तो मुझे नींद आ गई...

Sunday 18 March 2012

अब भी समझने के लिए कुछ बाकी है?


भ्रष्टाचार और महंगाई की कारगुजारियां छिपाने के लिए केंद्र की कांग्रेस सरकार जिन हरकतों में लगी है, वह घोर अलोकतांत्रिक और घनघोर अमानवीय है। यह भी भेद खुल चुका है कि टैक्स से वसूली जाने वाली रकम ठीक उतनी ही है जितनी राशि टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में मंत्रियों, पूंजी घरानों, दलालों और नौकरशाहों ने लूटी। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने जिस तरह का जन विरोधी बजट पेश किया है अगर वैसा ही बजट आने वाले कुछ और वर्षों तक पेश होता रहा और कारगुजारियां ढंकने का ऐसा बेजा जतन किया जाता रहा तो आप मान लें कि आम आदमी को सड़क पर उतरना ही होगा। और कोई विकल्प नहीं। अन्ना और बाबा से कुछ नहीं होने वाला। मोमबत्तियां जलाने बुझाने का फैशन चलाने से कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि जो समय दिख रहा है वह आम आदमी की मोमबत्तियां बुझाने वाला है। आप क्या खाएंगे इस बारे में सोचें। आप कैसे पकाएंगे इस बारे में सोचें। क्या-क्या महंगा हुआ, अब इस बारे में बात करना, उसकी समीक्षा करना और उस पर सारगर्भित टिप्पणियां जारी करने का अब वक्त नहीं रहा। अब घंटों लाइन में खड़े होकर वोट देकर खुद को सत्ता निर्माता मानने की खुशफहमी पालने का भी वक्त नहीं रहा। अब तो दो टूक फैसला कर लेने का वक्त है। अब वक्त है कि सत्ता पर बैठ कर अपनी मनमानी करने वाले निकृष्ट सियासतदानों को ऐसी हरकतें करने में भय होने लगे। हिंसा ही उपाय नहीं है। भय हिंसा से ही हो, यह जरूरी नहीं है। इसके और रास्ते हैं। केंद्र सरकार की ओर से पेश बजट को देख कर एक सहकर्मी ने बिल्कुल सटीक कहा कि आम आदमी घर से जैसे ही बाहर निकलेगा, उस पर टैक्स का बोझ लद जाएगा। अपने सहकर्मी के वक्तव्य में मध्यवर्गीय विवशताओं से भरा अहसास है। जो नई पीढ़ी का है वह यही समझता है कि इस देश में वह केवल टैक्स देने के लिए पैदा हुआ है। आम आदमी घर में अभाव में है और बाहर तनाव में। भ्रष्टाचार वे करें, तनाव हम झेलें। सरकारी धन वे लूटें, अभाव में हम रहें। भ्रष्टाचार से पैदा संकट पाटने के लिए टैक्स वे लादें और हम उनके पाप का जुर्माना भरें। आम आदमी से सरकार टैक्स ऐसे वसूल रही है जैसे गुंडे वसूलते हैं। इसके खिलाफ हम खड़े होंगे कि नहीं? या कि इंतजार करेंगे कि कोई मसीहा आए और हमें उबारे! अब समाज के छद्मी मसीहाओं को भी सबक सिखाने का समय है। गुंडों का जिस तरह ऐक्यबद्ध प्रतिरोध किया जाता है और सामूहिकता के आगे जिस तरह गुंडे रंगदारी टैक्स वसूलना भूल जाते हैं, उसी तरह से नेताओं से निबटना होगा। नहीं तो हमसे आपसे टैक्स वसूल कर नेता विदेशी बैंकों में रखी अपनी-अपनी झोलियां भरते रहेंगे और हम बजट के पहाड़ के नीचे दबते कुचलते और दम तोड़ते रहेंगे। गुंडों की व्यवस्था जब हमने बनाई है तो इसे उखाड़ेंगे भी हम ही न! तो कब उखाड़ेंगे? सियासतदां मेरे इस कथन पर असंसदीय जैसी फर्जी शब्दावलियों का साबुन इस्तेमाल कर अपने गंदे चेहरे धोने का कुछ देर का प्रहसन कर सकते हैं, बिगाड़ कुछ नहीं सकते। अखबार के इस हिस्से में यह लिखा जो आप पढ़ रहे हैं, यह कोई विद्वत लेख नहीं है, यह आम आदमी का गुस्सा है, जो इन आम शब्दों से अभिव्यक्त हो रहा है।
इस अखबार को आप अपना मंच मानें, अगर आपको कहीं लगे कि हम आम आदमी के हित की बात नहीं कर रहे तो हमें टोकें, विरोध जताएं और अपनी बात लिख कर हमें सतर्क कर दें। अगर आप सहमत हों, तब भी लिखें। साथ आएं। केवल विचार-विचार न खेलें। सेमिनार और गोष्ठियों से बाज आएं। आलीशान होटलों में पंचसितारा पंच-प्रकारों का स्वाद और बिसलरी का घूंट लेते हुए भुखमरी और प्यास पर होने वाले विचार-आयोजनों को हम सार्वजनिक तौर पर धिक्कारें, उनके आयोजकों को दौड़ा लें। हम समाज में विचार को सार्थक और निर्णायक दिशा की तरफ ले जाने का प्रयास करें। जूझें। समाज को भी परिवर्तनकारी व्यवस्था के लिए जूझने को तैयार करें।

जब यह बजट आ रहा था तो बाबा नागार्जुन की एक कविता याद आ रही थी। उसका कुछ हिस्सा थोड़े संशोधन की धृष्टता के साथ आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। आप पढ़ें और मनन करें कि ये सियासतदां हमारे समाज को किस भयावह दिशा की तरफ ले जा
रहे हैं। ...किसकी है जनवरी किसका अगस्त है/ कौन यहां सुखी है कौन यहां मस्त है/ जैसे भी टिकट मिला जहां भी टिकट मिला/ शासन के घोड़े पर वह ही सवार है/ उसी की जनवरी छब्बीस उसी का पन्द्रह अगस्त है/ कौन है बुलंद आज कौन आज मस्त है/ लखनऊ है दिल्ली है वहीं सब जुगाड़ है/ मेला है ठेला है भारी भीड़-भाड़ है/ फ्रिज है सोफा है बिजली का झाड़ है/ फैशन की ओट है सबकुछ उघाड़ है/ पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है/ गिन लो जी गिन लो, गिन लो जी गिन लो/ मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है/ गिन लो जी गिन लो, गिन लो जी गिन लो/ मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है/ गिन लो जी गिन लो, गिन लो जी गिन लो/ घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है/ गिन लो जी गिन लो, गिन लो जी गिन लो/ बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है/ देख लो जी देख लो, देख लो जी देख लो/ पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है/ महल आबाद है झोपड़ी उजाड़ है/ गरीबों की बस्ती में उखाड़ है पछाड़ है/ ताड़ का तिल है तिल का ताड़ है/ ताड़ के पत्ते हैं पत्तों के पंखे हैं/ पंखों की ओट है पंखों की आड़ है/ पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है/ किसकी है जनवरी किसका अगस्त है/ कौन यहां सुखी है कौन यहां मस्त है/ नेता ही सुखी है सेठ ही मस्त है/ मंत्री ही सुखी है मंत्री ही मस्त है/ उसी की है जनवरी उसी का अगस्त है।
आपने कुछ समझा या अब भी समझने के लिए कुछ बाकी है...

Sunday 11 March 2012

यह महज उत्तराधिकार का हस्तांतरण नहीं...

अखिलेश का चयन कर समाजवादी पार्टी ने देश को दिया परिवर्तनकारी फैसले का संदेश
अखिलेश यादव को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाए जाने को लेकर न चौसर की कोई बिसात बिछी और न कोई सियासी तिकड़म रचा गया। समाजवादी पार्टी के पास और कोई विकल्प ही नहीं था। पार्टी को बृहत्तर विरोध या विद्रोह से बचाने के लिए लघुतर असंतोष को स्वीकार कर लिया गया। अखिलेश के नेतृत्व की पुकार के आगे समाजवादी पार्टी नेतृत्व ने घुटने टेक दिए।
समाजवादी पार्टी अखिलेश यादव की झंडाबरदारी में लोकसभा चुनाव में अपना परचम लहराता देख रही है। पार्टी संगठन में दो असंतोषी व्यक्तित्वों के धुर हैं, एक शिवपाल सिंह यादव और दूसरे आजम खान। दोनों के चेहरे पर असंतोष के बावजूद स्वीकार्यता की बेबसी का भाव दरअसल संक्रमण की पीड़ा का भाव है, जब संगठन पके-पकाए, घुटे-घुटाए और थके-थकाए लोगों से उबर रही हो और ताजा तरीन लोगों की ऊर्जावान टीम नेतृत्व का अधिग्रहण कर रही हो... यह बात दर्शक नहीं सुन पाए, क्योंकि यह आवाज टीवी चैनल के लाइव-शो में ‘एयर’ ही नहीं हो पाई। यह स्वाभाविक तकनीकी दोष था या अस्वाभाविक, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह बात तब बोली गई थी, जब दिल्ली के एक राष्ट्रीय चैनल के राष्ट्रीय एंकर ने इस क्षेत्रीय संपादक से यह सवाल पूछा था कि शिवपाल सिंह या आजम खान जैसे वरिष्ठ नेताओं के होते हुए अखिलेश को नेता चुना जाना क्या उचित है? इस सवाल पर दिल्ली स्टूडियो में बैठे एक सज्जन पहले ही अपना विद्वत वक्तव्य जारी कर चुके थे कि अखिलेश को मुख्यमंत्री चुनना भारी भूल है। ऐसे पारंपरिक सवाल और ऐसे पारंपरिक उत्तर के बीच परंपरा से हट कर आने वाले मेरे प्रतिउत्तर का स्वर तो घुट ही जाएगा या घोंट ही दिया जाएगा।
अखिलेश को मुख्यमंत्री के रूप में चुन कर समाजवादी पार्टी ने देशभर में एक परिवर्तनकारी संदेश दिया है कि संभावनाओं की ऊर्जा से भरे और भ्रष्टाचार को खारिज कर नई लीक गढऩे वालों के लिए अब नेतृत्व लेने का समय आ गया है। समाजवादी पार्टी के इस फैसले को इस कोण से देखे जाने की जरूरत है।
समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री चुने जाने के फैसले पर अपनी मुहर लगाते समय पार्टी के दीर्घजीवी होने का पूर्वानुमान लगा लिया होगा, क्योंकि मुलायम जैसे अगरधत्त नेता के जेहन में बाल ठाकरे जैसे नेता की वह जीवनकालिक-भूल जरूर याद रही होगी जो भाजपा-शिवसेना के शक्तिकाल में उन्होंने उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री न बना कर की थी। बाल ठाकरे की प्रभावशाली छत्रछाया में उद्धव ठाकरे उस समय मुख्यमंत्री हो गए होते तो आज न राज ठाकरे होते और न नारायण राणे जैसे विरोधी छत्रप अस्तित्व में होते।
अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जाना आम लोगों को उत्तराधिकार का हस्तांतरण भले ही दिखता हो, लेकिन यह समाजवादी पार्टी के हित के लिए मुलायम द्वारा लिया गया दूरगामी और दूरंदेशी फैसला है। इस फैसले का संकेत-संदेश आजम खान या शिवपाल सिंह यादव जैसे नेता तो समझ ही रहे होंगे। अखिलेश यादव के सामने चुनौतियां कम नहीं होंगी, और इसे वे अच्छी तरह भांप ही रहे होंगे। जब मुख्यमंत्री बनाए जाने की आधिकारिक घोषणा होने के बाद वे अपने पिता मुलायम सिंह यादव के साथ-साथ आजम खान और शिवपाल सिंह यादव के पैर छू रहे थे और उसे अपने माथे पर लगा रहे थे, तो वे चुनौतियों का विनम्रभाव से सामना करने का संदेश ही तो दे रहे थे। अखिलेश की यह दृढ़ विनम्रता देख कर मुलायम के चेहरे पर जो संतोष अभिव्यक्त हो रहा था, उसे कोई भी पढ़ सकता था।
कोई जब यह कहता है कि अखिलेश को 224 विधायकों को साथ लेकर चलने का जोखिम उठाना है, तो यह बात प्रदेश के इस युवा मुख्यमंत्री को मिले करोड़ों मतदाताओं के जनादेश की अनदेखी जैसी लगती है, क्योंकि जनादेश जन को साथ लेकर चलने के लिए है। लोकतांत्रिक मर्यादा यही कहती है कि आमजन की प्राथमिकता को सामने रख कर चलने पर सारी टेढ़ी चुनौतियां खुद ब खुद सीधी नियंत्रित और अनुशासित होकर काबू में आने लगती हैं। कानून व्यवस्था का मसला बड़ा नहीं है। बड़ा है विकास का मसला। बड़ा है भ्रष्टाचार से आक्रांत होती राजनीति, नौकरशाही और समाज को मुक्त कराने का मसला... कानून व्यवस्था अपने आप मुट्ठी में आ जाएगी। और अगर यह नया नेतृत्व भी चुनौतियों का मुकाबला नहीं कर पाया, तो उसके बाद नई और पुरानी के फर्क पर बात बंद हो जाएगी। फिर परिवारवाद जैसी बातों से उबर कर नई दिशा में सोचने की जो जनधारा बनी है, उससे लोग विमुख हो जाएंगे और उन शक्तियों को फिर से मौका मिलेगा, जो संक्रमणकाल के पार उतरने के बजाय लोकतंत्र को गंदा तालाब बना कर उसी में डूबते उतराते रहना चाहते हैं... लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए...

अखिलेश होंगे यूपी के मुख्यमंत्री

मुलायम परिवार में एक राय से फैसला, मुखिया ने लगाई मुहर, शाम तक सारी अड़चनें दूर
शनि नहीं शुक्र रहा निर्णायक, आजम और शिवपाल दोनों माने

राजनीति में कभी भी परिदृश्य बदल जाता है, लिहाजा निश्चित बात भी निश्चयपूर्वक कहने में लोग संकोच करते हैं। लेकिन हम यह निश्चयपूर्वक कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव हो रहे हैं। अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने के बारे में पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व फैसला ले चुका है। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव फैसला ले चुके हैं। अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह यादव यह फैसला ले चुके हैं। ...और मुलायम सिंह यादव के संयुक्त बृहत्तर परिवार में यह निर्णय हो चुका है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता का सेहरा अखिलेश यादव के सिर पर ही बांधा जाए। विधानसभा चुनाव में अभिभूत करने वाली जीत का सेहरा अखिलेश के सिर बंध ही चुका है।
अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला पारिवारिक भी है और राजनीतिक भी। परिवार के सभी सदस्यों ने आपस में गहन विचार-विमर्श कर यह तय किया है कि अखिलेश को ही मुख्यमंत्री बनना चाहिए। इस पर पिता मुलायम सिंह यादव ने भी अपनी मुहर लगा दी। शनिवार को विधायक दल की बैठक में औपचारिक रूप से यह प्रस्ताव आएगा और अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने पर मुहर लग जाएगी। जनादेश से स्वीकृत अखिलेश की विजेता-छवि का समाजवादी पार्टी लाभ उठाना चाहती है और अभी मिले जनमत को संजोए रख कर 2014 के लोकसभा चुनाव में उतरना चाहती है। मुलायम का लक्ष्य अब दिल्ली है और पार्टी का भी। समाजवादी पार्टी का शीर्ष नेतृत्वकारी संसदीय बोर्ड अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने पर सहमत है और उस बारे में सपा के राष्ट्रीय महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव संकेत दे भी चुके हैं। संसदीय बोर्ड के अधिकतर सदस्य अखिलेश के प्रदेश में और मुलायम के राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय भूमिका पर हामी दे रहे हैं। सपा नेताओं का मानना है कि विधानसभा चुनाव में मिले जनादेश ने समाजवादी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर उभर कर आने का सुनहरा अवसर दिया है, इसे चूकना नहीं चाहिए। 224 विधायकों की असरकारी ताकत और प्रभावकारी जूझारू छवि स्थापित करने वाले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के बूते लोकसभा चुनाव में बेहतरीन प्रदर्शन करने की तैयारियां शुरू करने का यह एक ठोस संकेत है।
शनिवार को विधायक दल की बैठक में अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव उस नेता के जरिए पेश कराया जाएगा, जिसकी महत्वाकांक्षा के भविष्य में हिलोरे मारने की संभावना और आशंका दोनों है। और उन नेताओं को सम्माननीय पद देकर महत्वाकांक्षा का शमन किया जा सकता है। मसलन, आजम खान को विधानसभा अध्यक्ष बना दिया जाए या उत्तर प्रदेश में गृह विभाग को केंद्र की तर्ज पर गृह मंत्रालय का स्वरूप देकर चाचा शिवपाल सिंह यादव को सौंप दिया जाए। आज देर शाम मुलायम सिंह यादव की शिवपाल सिंह यादव और आजम खान के साथ जो बैठक हुई, वह अहम है। इस बैठक में अखिलेश यादव भी शामिल थे। उनकी मौजूदगी शाम की बैठक की अखिलेश कोण से अहमियत बढ़ाती है।
लब्लोलुबाव यह है कि अब यह वक्त नहीं कि चुनाव परिणाम आने के बाद से अखिलेश को ही क्यों लगातार मीडिया के सामने प्रस्तुत किया जाता रहा और कानून व्यवस्था से लेकर राजनीतिक मसलों तक अखिलेश ही बयान देने के लिए क्यों आगे आते रहे और राज्यपाल से मिलने के लिए मुलायम अखिलेश को ही लेकर क्यों गए और ऐसा करके मुलायम क्या संदेश प्रसारित करना चाहते थे या विधायक दल की बैठक के एक दिन पहले शुक्रवार को प्रदेश के डीजीपी अतुल से मुलाकात कर निर्णायक तेवर के साथ अखिलेश ही मीडिया के समक्ष क्यों मुखातिब हुए...! इसकी समीक्षा की न अब जरूरत है और न समय। जन-जन तक यह संदेश प्रसारित करने में मुलायम कामयाब रहे कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हो रहे हैं...

Wednesday 7 March 2012

प्रतिमा नहीं, प्रतिमान स्थापित करना होगा...

प्रतिमा नहीं, प्रतिमान स्थापित करना होगा... समाजवादी पार्टी की ऐतिहासिक जीत का सेहरा बंधने के बाद जब अखिलेश यादव टीवी पर यह कह रहे थे कि सपा की सरकार कोई प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई नहीं करेगी, मूर्तियां नहीं तोड़ेगी... तो अखिलेश से आह्वान का यह संदेश मन में गूंज रहा था। एक आम नागरिक की उम्मीदों और उसके भरोसे से जुड़ा आह्वान। पांच साल तक लखनऊ समेत प्रदेशभर में गली-मोहल्लों और चौराहों के सीने पर जिस तरह पत्थर के दुर्ग और पत्थर की प्रतिमाएं ठोकी गईं, उखाड़ी गईं और फिर ठोकी गईं, वह उसी पल धराशाई हो गईं जब जनादेश ने पूरा सत्ता-साम्राज्य ही उखाड़ फेंकने की मुनादी कर दी। अब प्रतिमाओं को तोडऩे की जरूरत ही क्या है!
2007 में उत्तर प्रदेश के लोगों ने जब बहुजन समाज पार्टी को अपना प्रतिनिधि दल चुना था तो यह सोचा नहीं था कि जन-प्रतिनिधित्व पर पत्थर पड़ जाएगा। पांच साल की जन-यंत्रणा का असर यह हुआ कि 2012 आते-आते बसपा पर ही पत्थर पड़ गया। आजादी के बाद के 65 साल में कभी सत्ता पक्ष में रहते हुए तो कभी विपक्ष में रह कर सत्ता के लिए घिसटते हुए नेताओं के कृत्य देख समझ कर ही हम बड़े हुए और बाद की नस्लें बड़ी हो रही हैं। 65 साल से भ्रष्टाचार, महंगाई, चोरी, झूठ, मक्कारी, अनैतिकता, अपराध हर साल लगता है कि चरम पर है और आने वाले हर साल में यह पुष्ट होता है कि स्खलन-यात्रा जारी है। यह सब हमें भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति के निकृष्ट प्रतिउत्पाद के रूप में नेताओं ने गिफ्ट दिया है। यह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का अनुभव-जनित वक्तव्य है। अभी प्रसंग उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव का है, इसलिए हम देश नहीं प्रदेश की बात करते हैं। इस अर्ध-दशक में सत्ता से आम आदमी को क्या मिला, यह सामने है। पूर्वांचल में हर साल हजारों बच्चे किसी अनजाने रोग से मरते रहे। अनजान इसलिए कि इन मौतों पर रोक कैसे लगे, इस बारे में मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक अनजान बने रहे और इसलिए शासन प्रशासन ने कोई परिणामात्मक उपाय नहीं किए। अब तक हजारों बच्चे पूर्वांचल में मारे जा चुके हैं। हजारों लोग सूखे बुंदेलखंड में भूखे मर चुके। पूर्वांचल हो या बुंदेलखंड, ये वही इलाके हैं जिसे राजनीति के केंद्र में रख कर बेचा गया और वहां के लोगों को ‘आजाद-प्रदेश’ का सपना देकर दोबारा सत्ता पाने की कोशिश की गई। जिस प्रदेश में साक्षरता दर, विकास दर, नागरिकों की जिंदगी का दर... सब दरिद्र है, जहां छह करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे मरने के लिए जी रहे हैं, जहां महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी के बोझ से आदमी दोहरा हुआ जा रहा हो, वहां तन कर खड़ी पत्थर की मूर्तियां निर्धन आत्मसम्मान को चिढ़ाती ही तो हैं...! प्रदेश को पत्थरों से पाटने में कितने हजार करोड़ रुपए नष्ट हुए, कुछ खास माफियाओं और पूंजी घरानों के हाथों प्रदेश को गिरवी रखने में सरकारी धन का कितना विनाश किया गया, पूरे प्रदेश में अवैध खदानों के जरिए कितना धन हड़पा गया और उन खदानों में कितनी जानें दफ्न कर दी गईं...? मूर्तियां भले ही न तोड़ें अखिलेश जी, स्मारक भले ही आप पर्यटन विभाग को सौंप दें, लेकिन खोखले हुए सरकारी खजाने का जायजा लिया जाएगा कि नहीं? उसका कोई दायित्व तय होगा कि नहीं? पूर्ण बहुमत की ताकत का इस्तेमाल हरियाली नष्ट करने, नदियों का अपहरण करने, पत्थरों से प्रदेश को चुनवा देने और लोकतंत्र को ताक पर रख कर चलने की फासिस्ट बसपाई हरकतों के समानान्तर समाजवादी पार्टी को मिले सम्पूर्ण बहुमत का इस्तेमाल लोकतांत्रिक नैतिकता की बहाली के प्रति पूर्ण समर्पण में होगा कि नहीं? सत्ता संभालने आ रही आपकी समाजवादी पार्टी को इसका जवाब देने के बजाय जवाबदेह होने के बारे में दृढ़ निश्चय करना होगा... अन्यथा, पांच साल बीतते अधिक देर नहीं लगती। प्रतिमाओं के बरक्स प्रतिमान स्थापित करना होगा... इसका दायित्व नई पीढ़ी का है... अखिलेश आपका है। जिस लोकतंत्र का पांच साल गला घोंटा गया और
सिर जूतों से कुचला गया, उसे स्वस्थ बनाने और आत्मसम्मान से जमीन पर खड़ा करने का दायित्व अखिलेश आपका है। जिस सभ्य समाज में नौकरशाह असभ्य और नेता अराजक हो, उसे बाड़े में बांधने और अनुशासित करने की जिम्मेदारी आपकी है। युवकों का साथ समाज बदलने के लिए हो, विकास के लिए हो, महज चुनावी न हो... इसे देखना और संभाल कर रखना तो आप ही को है। ...ताकि धूमिल की तरह कोई यह न कहे कि ‘मेरे देश का समाजवाद मालगोदाम में लटकती हुई उन बाल्टियों की तरह है जिस पर लिखा तो ‘आग’ है, पर उनमें बालू और पानी भरा है!’ ...बल्कि दुष्यंत की तरह सूरत बदलने का मकसद चाहिए... आग हो चाहे कहीं भी, आग जलनी चाहिए...

Friday 2 March 2012

बुतों का सूबा मौतों पर बुत!

तड़के ही लौटा था दफ्तर से और सुबह ही हड़बड़ा कर उठ गया। जल्दी-जल्दी अखबार देखे। अपना नहीं, दूसरे सारे अखबार। सोनभद्र में पहाड़ धंसने से अनगिनत मजदूरों के मारे जाने की खबर कहीं नहीं थी, थी भी तो अंदर। कल भी तो वैसे ही छपी थी बहुत दब कर। तब से परेशान हूं। समझ में नहीं आ रहा कि पचासों मजदूरों के इस तरह मरने की खबर अपने अखबार के पहले पन्ने पर लीड छाप कर और अगले दिन रिपोर्टर की ओर से मौके से भेजी गई वीभत्स मौत की जिंदा तस्वीरें पहले पन्ने पर पसार कर हमने गलती की या उन लोगों ने, जिन्होंने खबर दबा दी? एक कद्दावर मंत्री का भांजा और सत्ताधारी पार्टी के नेताओं पर हत्या का मुकदमा दर्ज होने की खबर किसी भी अखबार में सुर्खियां नहीं बनी... उसे पहले पन्ने पर छाप कर हमने गलती की, या नहीं छाप कर उन लोगों ने? इसी सही-गलत पर चल रहे मानसिक संवाद में खलल डालते हुए कुछ अखबारनवीसों के फोन आए और यह नसीहत दी गई कि ‘सेंसेशनल’ नहीं होना चाहिए था। ...इस सीख के साथ ही सुबह से चल रहे मंथन का जैसे एकबारगी समाधान मिल गया। अमानुषों के काले धंधों के कारण खोखले हो रहे पहाड़ों के गिरने से बहुतेरे मजदूरों का मर जाना उनमें ‘सेंसेशन’ क्यों नहीं पैदा करता, नसों में सनसनी क्यों नहीं बनती... क्यों वे खबरों को ‘सेंसेशनल’ नहीं बनाते! उनकी नसों में उपकार का इतना काला द्रव्य भरा है कि नेता मारे तो उनके लिए सनसनी नहीं और नेता मरे तो उनके लिए सनसनी! पहाड़ से दब कर निरीह मजदूरों की मौत और अखबारों में दब कर खबर की मौत, दोनों एक हैं। दोनों अलग-अलग दिखने वाली घटनाएं हैं, पर हैं अंदर-अंदर मिली हुई। मजदूरों की हत्या में सब शामिल हैं। प्राकृतिक वजहों से होने वाले भूस्खलन से होने वाली मौतें पहले पेज की खबर बनती हैं, लेकिन काले धंधों के कारण जर्जर होते पहाड़ के गिरने से अनगिनत लोगों का मर जाना खबर नहीं बनता। और ऐसा करने वाले पत्रकार या अखबार, नेताओं के सफेद वस्त्रों पर पड़े खून के छींटे साफ करने वाले ड्राइ-क्लीनर बने रहते हैं। भ्रष्टाचार के जहरीले नाग से डंसे इस दौर में सही वही लोग हैं जो नेताओं-नौकरशाहों-दलालों के पाप दबाते हैं, धोते हैं, बदले में पाते हैं और ढोल बजाते हैं। गलतियां तो वे करते हैं जो आजीविका की तलाश में पत्थर खोदते हैं और उसी में दब कर मर जाते हैं। दुर्घटनास्थल का दृश्य देखें तो आप कांप जाएंगे... विशाल बियाबान मरघट जैसे क्षेत्र में धंसे हुए पहाड़ की बिखरी चट्टानों में झांक-झांक कर सीता अपने पति रामपदारथ को खोज रही है। कोई कमली अपने भाई नगीने को तलाश रही है। कोई लालबहादुर अपनी पत्नी लछमी खोज रहा है। तो बुढिय़ा रामसखी एक चट्टान पर खड़ी उचक-उचक कर जेसीबी मशीन से मलबे की तरह उठाई गई लाशों में अपने बेटे का चेहरा ढूंढ़ रही है... धूल गर्द से भरे इलाके में टूटे बिखरे पत्थरों के बीच बदहवासी भरी निगाहों से अपनों को तलाशती ऐसी कई सीता, कमली, रामसखी मिल जाएंगी। उन्हें यह भी होश नहीं कि अपनों को तलाशने में उनके पैर कहां पड़ रहे हैं, कहां फूट रहे हैं। ...ऐसी मासूम निरीह जमात के लिए कोई कंट्रोल रूम नहीं है, कोई आपदा प्रबंधन नहीं, लाशों को घर ले जाने के लिए कोई सरकारी इंतजाम नहीं, घायलों के इलाज के लिए कोई प्रशासनिक बंदोबस्त नहीं है, इनके लिए नहीं है नोटिस बोर्ड पर मृतकों और घायलों की चस्पा कोई लिस्ट। ...और इनके लिए नहीं है सत्ताई-संवेदना के दो शब्द। बुतों का सूबा निरीह मौतों पर बुत! आप यह सब देख कर सनसनाहट से भर जाएंगे और ‘सेंसेशनल’ बता कर आपकी संवेदना को कठघरे में डालने की कोशिश करने वाले साजिशी अमानवीय दुष्ट शब्द-संबोधनों के प्रति आपका मन घृणा से भर जाएगा। कितनी सटीक पंक्तियां हैं कवि चंडीदत्त शुक्ल की ...‘चुप हो जाओ रामरती की अम्मा/ धूल भरे कस्बे में रात हो गई है/ और जेसीबी मशीन भी कितनी देर तक रामप्रताप की लाश टांगे रहेगी/ उसे शहर लौटना है/ सुना है मंत्री जी के घर के आगे सड़क बन रही है... एक सौ बीस किलोमीटर दूर बनारस के लहरतारा में जब कबीर चुपचाप हैं/ तब तुम ही रोकर क्या कर लोगी रामकली की अम्मा?’
...तो ऐसे रामप्रतापों और ऐसी रामरतियों के लिए है कौन? पूरी सत्ता पूरी संसद मौन...