Sunday 11 March 2012

यह महज उत्तराधिकार का हस्तांतरण नहीं...

अखिलेश का चयन कर समाजवादी पार्टी ने देश को दिया परिवर्तनकारी फैसले का संदेश
अखिलेश यादव को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाए जाने को लेकर न चौसर की कोई बिसात बिछी और न कोई सियासी तिकड़म रचा गया। समाजवादी पार्टी के पास और कोई विकल्प ही नहीं था। पार्टी को बृहत्तर विरोध या विद्रोह से बचाने के लिए लघुतर असंतोष को स्वीकार कर लिया गया। अखिलेश के नेतृत्व की पुकार के आगे समाजवादी पार्टी नेतृत्व ने घुटने टेक दिए।
समाजवादी पार्टी अखिलेश यादव की झंडाबरदारी में लोकसभा चुनाव में अपना परचम लहराता देख रही है। पार्टी संगठन में दो असंतोषी व्यक्तित्वों के धुर हैं, एक शिवपाल सिंह यादव और दूसरे आजम खान। दोनों के चेहरे पर असंतोष के बावजूद स्वीकार्यता की बेबसी का भाव दरअसल संक्रमण की पीड़ा का भाव है, जब संगठन पके-पकाए, घुटे-घुटाए और थके-थकाए लोगों से उबर रही हो और ताजा तरीन लोगों की ऊर्जावान टीम नेतृत्व का अधिग्रहण कर रही हो... यह बात दर्शक नहीं सुन पाए, क्योंकि यह आवाज टीवी चैनल के लाइव-शो में ‘एयर’ ही नहीं हो पाई। यह स्वाभाविक तकनीकी दोष था या अस्वाभाविक, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह बात तब बोली गई थी, जब दिल्ली के एक राष्ट्रीय चैनल के राष्ट्रीय एंकर ने इस क्षेत्रीय संपादक से यह सवाल पूछा था कि शिवपाल सिंह या आजम खान जैसे वरिष्ठ नेताओं के होते हुए अखिलेश को नेता चुना जाना क्या उचित है? इस सवाल पर दिल्ली स्टूडियो में बैठे एक सज्जन पहले ही अपना विद्वत वक्तव्य जारी कर चुके थे कि अखिलेश को मुख्यमंत्री चुनना भारी भूल है। ऐसे पारंपरिक सवाल और ऐसे पारंपरिक उत्तर के बीच परंपरा से हट कर आने वाले मेरे प्रतिउत्तर का स्वर तो घुट ही जाएगा या घोंट ही दिया जाएगा।
अखिलेश को मुख्यमंत्री के रूप में चुन कर समाजवादी पार्टी ने देशभर में एक परिवर्तनकारी संदेश दिया है कि संभावनाओं की ऊर्जा से भरे और भ्रष्टाचार को खारिज कर नई लीक गढऩे वालों के लिए अब नेतृत्व लेने का समय आ गया है। समाजवादी पार्टी के इस फैसले को इस कोण से देखे जाने की जरूरत है।
समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री चुने जाने के फैसले पर अपनी मुहर लगाते समय पार्टी के दीर्घजीवी होने का पूर्वानुमान लगा लिया होगा, क्योंकि मुलायम जैसे अगरधत्त नेता के जेहन में बाल ठाकरे जैसे नेता की वह जीवनकालिक-भूल जरूर याद रही होगी जो भाजपा-शिवसेना के शक्तिकाल में उन्होंने उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री न बना कर की थी। बाल ठाकरे की प्रभावशाली छत्रछाया में उद्धव ठाकरे उस समय मुख्यमंत्री हो गए होते तो आज न राज ठाकरे होते और न नारायण राणे जैसे विरोधी छत्रप अस्तित्व में होते।
अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जाना आम लोगों को उत्तराधिकार का हस्तांतरण भले ही दिखता हो, लेकिन यह समाजवादी पार्टी के हित के लिए मुलायम द्वारा लिया गया दूरगामी और दूरंदेशी फैसला है। इस फैसले का संकेत-संदेश आजम खान या शिवपाल सिंह यादव जैसे नेता तो समझ ही रहे होंगे। अखिलेश यादव के सामने चुनौतियां कम नहीं होंगी, और इसे वे अच्छी तरह भांप ही रहे होंगे। जब मुख्यमंत्री बनाए जाने की आधिकारिक घोषणा होने के बाद वे अपने पिता मुलायम सिंह यादव के साथ-साथ आजम खान और शिवपाल सिंह यादव के पैर छू रहे थे और उसे अपने माथे पर लगा रहे थे, तो वे चुनौतियों का विनम्रभाव से सामना करने का संदेश ही तो दे रहे थे। अखिलेश की यह दृढ़ विनम्रता देख कर मुलायम के चेहरे पर जो संतोष अभिव्यक्त हो रहा था, उसे कोई भी पढ़ सकता था।
कोई जब यह कहता है कि अखिलेश को 224 विधायकों को साथ लेकर चलने का जोखिम उठाना है, तो यह बात प्रदेश के इस युवा मुख्यमंत्री को मिले करोड़ों मतदाताओं के जनादेश की अनदेखी जैसी लगती है, क्योंकि जनादेश जन को साथ लेकर चलने के लिए है। लोकतांत्रिक मर्यादा यही कहती है कि आमजन की प्राथमिकता को सामने रख कर चलने पर सारी टेढ़ी चुनौतियां खुद ब खुद सीधी नियंत्रित और अनुशासित होकर काबू में आने लगती हैं। कानून व्यवस्था का मसला बड़ा नहीं है। बड़ा है विकास का मसला। बड़ा है भ्रष्टाचार से आक्रांत होती राजनीति, नौकरशाही और समाज को मुक्त कराने का मसला... कानून व्यवस्था अपने आप मुट्ठी में आ जाएगी। और अगर यह नया नेतृत्व भी चुनौतियों का मुकाबला नहीं कर पाया, तो उसके बाद नई और पुरानी के फर्क पर बात बंद हो जाएगी। फिर परिवारवाद जैसी बातों से उबर कर नई दिशा में सोचने की जो जनधारा बनी है, उससे लोग विमुख हो जाएंगे और उन शक्तियों को फिर से मौका मिलेगा, जो संक्रमणकाल के पार उतरने के बजाय लोकतंत्र को गंदा तालाब बना कर उसी में डूबते उतराते रहना चाहते हैं... लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए...

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