Sunday 18 March 2012

अब भी समझने के लिए कुछ बाकी है?


भ्रष्टाचार और महंगाई की कारगुजारियां छिपाने के लिए केंद्र की कांग्रेस सरकार जिन हरकतों में लगी है, वह घोर अलोकतांत्रिक और घनघोर अमानवीय है। यह भी भेद खुल चुका है कि टैक्स से वसूली जाने वाली रकम ठीक उतनी ही है जितनी राशि टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में मंत्रियों, पूंजी घरानों, दलालों और नौकरशाहों ने लूटी। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने जिस तरह का जन विरोधी बजट पेश किया है अगर वैसा ही बजट आने वाले कुछ और वर्षों तक पेश होता रहा और कारगुजारियां ढंकने का ऐसा बेजा जतन किया जाता रहा तो आप मान लें कि आम आदमी को सड़क पर उतरना ही होगा। और कोई विकल्प नहीं। अन्ना और बाबा से कुछ नहीं होने वाला। मोमबत्तियां जलाने बुझाने का फैशन चलाने से कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि जो समय दिख रहा है वह आम आदमी की मोमबत्तियां बुझाने वाला है। आप क्या खाएंगे इस बारे में सोचें। आप कैसे पकाएंगे इस बारे में सोचें। क्या-क्या महंगा हुआ, अब इस बारे में बात करना, उसकी समीक्षा करना और उस पर सारगर्भित टिप्पणियां जारी करने का अब वक्त नहीं रहा। अब घंटों लाइन में खड़े होकर वोट देकर खुद को सत्ता निर्माता मानने की खुशफहमी पालने का भी वक्त नहीं रहा। अब तो दो टूक फैसला कर लेने का वक्त है। अब वक्त है कि सत्ता पर बैठ कर अपनी मनमानी करने वाले निकृष्ट सियासतदानों को ऐसी हरकतें करने में भय होने लगे। हिंसा ही उपाय नहीं है। भय हिंसा से ही हो, यह जरूरी नहीं है। इसके और रास्ते हैं। केंद्र सरकार की ओर से पेश बजट को देख कर एक सहकर्मी ने बिल्कुल सटीक कहा कि आम आदमी घर से जैसे ही बाहर निकलेगा, उस पर टैक्स का बोझ लद जाएगा। अपने सहकर्मी के वक्तव्य में मध्यवर्गीय विवशताओं से भरा अहसास है। जो नई पीढ़ी का है वह यही समझता है कि इस देश में वह केवल टैक्स देने के लिए पैदा हुआ है। आम आदमी घर में अभाव में है और बाहर तनाव में। भ्रष्टाचार वे करें, तनाव हम झेलें। सरकारी धन वे लूटें, अभाव में हम रहें। भ्रष्टाचार से पैदा संकट पाटने के लिए टैक्स वे लादें और हम उनके पाप का जुर्माना भरें। आम आदमी से सरकार टैक्स ऐसे वसूल रही है जैसे गुंडे वसूलते हैं। इसके खिलाफ हम खड़े होंगे कि नहीं? या कि इंतजार करेंगे कि कोई मसीहा आए और हमें उबारे! अब समाज के छद्मी मसीहाओं को भी सबक सिखाने का समय है। गुंडों का जिस तरह ऐक्यबद्ध प्रतिरोध किया जाता है और सामूहिकता के आगे जिस तरह गुंडे रंगदारी टैक्स वसूलना भूल जाते हैं, उसी तरह से नेताओं से निबटना होगा। नहीं तो हमसे आपसे टैक्स वसूल कर नेता विदेशी बैंकों में रखी अपनी-अपनी झोलियां भरते रहेंगे और हम बजट के पहाड़ के नीचे दबते कुचलते और दम तोड़ते रहेंगे। गुंडों की व्यवस्था जब हमने बनाई है तो इसे उखाड़ेंगे भी हम ही न! तो कब उखाड़ेंगे? सियासतदां मेरे इस कथन पर असंसदीय जैसी फर्जी शब्दावलियों का साबुन इस्तेमाल कर अपने गंदे चेहरे धोने का कुछ देर का प्रहसन कर सकते हैं, बिगाड़ कुछ नहीं सकते। अखबार के इस हिस्से में यह लिखा जो आप पढ़ रहे हैं, यह कोई विद्वत लेख नहीं है, यह आम आदमी का गुस्सा है, जो इन आम शब्दों से अभिव्यक्त हो रहा है।
इस अखबार को आप अपना मंच मानें, अगर आपको कहीं लगे कि हम आम आदमी के हित की बात नहीं कर रहे तो हमें टोकें, विरोध जताएं और अपनी बात लिख कर हमें सतर्क कर दें। अगर आप सहमत हों, तब भी लिखें। साथ आएं। केवल विचार-विचार न खेलें। सेमिनार और गोष्ठियों से बाज आएं। आलीशान होटलों में पंचसितारा पंच-प्रकारों का स्वाद और बिसलरी का घूंट लेते हुए भुखमरी और प्यास पर होने वाले विचार-आयोजनों को हम सार्वजनिक तौर पर धिक्कारें, उनके आयोजकों को दौड़ा लें। हम समाज में विचार को सार्थक और निर्णायक दिशा की तरफ ले जाने का प्रयास करें। जूझें। समाज को भी परिवर्तनकारी व्यवस्था के लिए जूझने को तैयार करें।

जब यह बजट आ रहा था तो बाबा नागार्जुन की एक कविता याद आ रही थी। उसका कुछ हिस्सा थोड़े संशोधन की धृष्टता के साथ आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। आप पढ़ें और मनन करें कि ये सियासतदां हमारे समाज को किस भयावह दिशा की तरफ ले जा
रहे हैं। ...किसकी है जनवरी किसका अगस्त है/ कौन यहां सुखी है कौन यहां मस्त है/ जैसे भी टिकट मिला जहां भी टिकट मिला/ शासन के घोड़े पर वह ही सवार है/ उसी की जनवरी छब्बीस उसी का पन्द्रह अगस्त है/ कौन है बुलंद आज कौन आज मस्त है/ लखनऊ है दिल्ली है वहीं सब जुगाड़ है/ मेला है ठेला है भारी भीड़-भाड़ है/ फ्रिज है सोफा है बिजली का झाड़ है/ फैशन की ओट है सबकुछ उघाड़ है/ पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है/ गिन लो जी गिन लो, गिन लो जी गिन लो/ मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है/ गिन लो जी गिन लो, गिन लो जी गिन लो/ मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है/ गिन लो जी गिन लो, गिन लो जी गिन लो/ घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है/ गिन लो जी गिन लो, गिन लो जी गिन लो/ बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है/ देख लो जी देख लो, देख लो जी देख लो/ पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है/ महल आबाद है झोपड़ी उजाड़ है/ गरीबों की बस्ती में उखाड़ है पछाड़ है/ ताड़ का तिल है तिल का ताड़ है/ ताड़ के पत्ते हैं पत्तों के पंखे हैं/ पंखों की ओट है पंखों की आड़ है/ पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है/ किसकी है जनवरी किसका अगस्त है/ कौन यहां सुखी है कौन यहां मस्त है/ नेता ही सुखी है सेठ ही मस्त है/ मंत्री ही सुखी है मंत्री ही मस्त है/ उसी की है जनवरी उसी का अगस्त है।
आपने कुछ समझा या अब भी समझने के लिए कुछ बाकी है...

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