Friday, 2 March 2012

बुतों का सूबा मौतों पर बुत!

तड़के ही लौटा था दफ्तर से और सुबह ही हड़बड़ा कर उठ गया। जल्दी-जल्दी अखबार देखे। अपना नहीं, दूसरे सारे अखबार। सोनभद्र में पहाड़ धंसने से अनगिनत मजदूरों के मारे जाने की खबर कहीं नहीं थी, थी भी तो अंदर। कल भी तो वैसे ही छपी थी बहुत दब कर। तब से परेशान हूं। समझ में नहीं आ रहा कि पचासों मजदूरों के इस तरह मरने की खबर अपने अखबार के पहले पन्ने पर लीड छाप कर और अगले दिन रिपोर्टर की ओर से मौके से भेजी गई वीभत्स मौत की जिंदा तस्वीरें पहले पन्ने पर पसार कर हमने गलती की या उन लोगों ने, जिन्होंने खबर दबा दी? एक कद्दावर मंत्री का भांजा और सत्ताधारी पार्टी के नेताओं पर हत्या का मुकदमा दर्ज होने की खबर किसी भी अखबार में सुर्खियां नहीं बनी... उसे पहले पन्ने पर छाप कर हमने गलती की, या नहीं छाप कर उन लोगों ने? इसी सही-गलत पर चल रहे मानसिक संवाद में खलल डालते हुए कुछ अखबारनवीसों के फोन आए और यह नसीहत दी गई कि ‘सेंसेशनल’ नहीं होना चाहिए था। ...इस सीख के साथ ही सुबह से चल रहे मंथन का जैसे एकबारगी समाधान मिल गया। अमानुषों के काले धंधों के कारण खोखले हो रहे पहाड़ों के गिरने से बहुतेरे मजदूरों का मर जाना उनमें ‘सेंसेशन’ क्यों नहीं पैदा करता, नसों में सनसनी क्यों नहीं बनती... क्यों वे खबरों को ‘सेंसेशनल’ नहीं बनाते! उनकी नसों में उपकार का इतना काला द्रव्य भरा है कि नेता मारे तो उनके लिए सनसनी नहीं और नेता मरे तो उनके लिए सनसनी! पहाड़ से दब कर निरीह मजदूरों की मौत और अखबारों में दब कर खबर की मौत, दोनों एक हैं। दोनों अलग-अलग दिखने वाली घटनाएं हैं, पर हैं अंदर-अंदर मिली हुई। मजदूरों की हत्या में सब शामिल हैं। प्राकृतिक वजहों से होने वाले भूस्खलन से होने वाली मौतें पहले पेज की खबर बनती हैं, लेकिन काले धंधों के कारण जर्जर होते पहाड़ के गिरने से अनगिनत लोगों का मर जाना खबर नहीं बनता। और ऐसा करने वाले पत्रकार या अखबार, नेताओं के सफेद वस्त्रों पर पड़े खून के छींटे साफ करने वाले ड्राइ-क्लीनर बने रहते हैं। भ्रष्टाचार के जहरीले नाग से डंसे इस दौर में सही वही लोग हैं जो नेताओं-नौकरशाहों-दलालों के पाप दबाते हैं, धोते हैं, बदले में पाते हैं और ढोल बजाते हैं। गलतियां तो वे करते हैं जो आजीविका की तलाश में पत्थर खोदते हैं और उसी में दब कर मर जाते हैं। दुर्घटनास्थल का दृश्य देखें तो आप कांप जाएंगे... विशाल बियाबान मरघट जैसे क्षेत्र में धंसे हुए पहाड़ की बिखरी चट्टानों में झांक-झांक कर सीता अपने पति रामपदारथ को खोज रही है। कोई कमली अपने भाई नगीने को तलाश रही है। कोई लालबहादुर अपनी पत्नी लछमी खोज रहा है। तो बुढिय़ा रामसखी एक चट्टान पर खड़ी उचक-उचक कर जेसीबी मशीन से मलबे की तरह उठाई गई लाशों में अपने बेटे का चेहरा ढूंढ़ रही है... धूल गर्द से भरे इलाके में टूटे बिखरे पत्थरों के बीच बदहवासी भरी निगाहों से अपनों को तलाशती ऐसी कई सीता, कमली, रामसखी मिल जाएंगी। उन्हें यह भी होश नहीं कि अपनों को तलाशने में उनके पैर कहां पड़ रहे हैं, कहां फूट रहे हैं। ...ऐसी मासूम निरीह जमात के लिए कोई कंट्रोल रूम नहीं है, कोई आपदा प्रबंधन नहीं, लाशों को घर ले जाने के लिए कोई सरकारी इंतजाम नहीं, घायलों के इलाज के लिए कोई प्रशासनिक बंदोबस्त नहीं है, इनके लिए नहीं है नोटिस बोर्ड पर मृतकों और घायलों की चस्पा कोई लिस्ट। ...और इनके लिए नहीं है सत्ताई-संवेदना के दो शब्द। बुतों का सूबा निरीह मौतों पर बुत! आप यह सब देख कर सनसनाहट से भर जाएंगे और ‘सेंसेशनल’ बता कर आपकी संवेदना को कठघरे में डालने की कोशिश करने वाले साजिशी अमानवीय दुष्ट शब्द-संबोधनों के प्रति आपका मन घृणा से भर जाएगा। कितनी सटीक पंक्तियां हैं कवि चंडीदत्त शुक्ल की ...‘चुप हो जाओ रामरती की अम्मा/ धूल भरे कस्बे में रात हो गई है/ और जेसीबी मशीन भी कितनी देर तक रामप्रताप की लाश टांगे रहेगी/ उसे शहर लौटना है/ सुना है मंत्री जी के घर के आगे सड़क बन रही है... एक सौ बीस किलोमीटर दूर बनारस के लहरतारा में जब कबीर चुपचाप हैं/ तब तुम ही रोकर क्या कर लोगी रामकली की अम्मा?’
...तो ऐसे रामप्रतापों और ऐसी रामरतियों के लिए है कौन? पूरी सत्ता पूरी संसद मौन...

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