Tuesday 26 September 2017

योगी सरकार का छह महीनाः न ख़ुदा ही मिला, न विसाल-ए-सनम

प्रभात रंजन दीन
निंदा और प्रशंसा प्रस्तावों के लोकार्पण के दो दिवसीय आयोजन के साथ योगी सरकार के छह महीने का पूर्णाहुति-यज्ञ सम्पन्न हुआ. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सरकार के छह महीने पूरे होने पर 18 और 19 सितम्बर को दो दिन का कार्यक्रम रखा. पहले दिन उन्होंने पूर्ववर्ती सरकारों का निंदा-पत्र जारी किया, उसे उन्होंने श्वेत-पत्र कहा. दूसरे दिन उन्होंने अपनी सरकार का प्रशंसा-पत्र जारी किया, जिसे उन्होंने उपलब्धि-पत्र नाम दिया. पूर्ववर्ती सरकार की निंदा से शुरू हुआ आयोजन योगी सरकार के छह महीने के क्रियाकलाप की प्रस्तुति के पहले पेशबंदी की तरह सामने आया. प्रदेश के लोगों को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से जिस तरह की साफगोई की उम्मीद थी, वह पूरी नहीं हुई. छह महीने पहले की योगी की जो छवि रही है उससे बिल्कुल अलग उन्होंने आम चलताऊ नेता की तरह अपना काम बताने के बजाय दूसरों की बखिया उधेड़ने से कार्यक्रम की शुरुआत की. योगी ठीक से बखिया भी नहीं उधेड़ पाए. घोटाले और भ्रष्टाचार करने वाली पूर्ववर्ती सरकारों के मुखिया का नाम तक नहीं लिया. यहां तक कि पार्टी का भी नाम नहीं लिया. योगी का श्वेत-पत्र पूर्ववर्ती सरकारों की पारदर्शिता से सटीक आलोचना भी नहीं कर पाया, वह नौकरशाहों के सेंसर-बोर्ड से नपुंसक होकर बाहर निकला. श्वेत-पत्र की जगह वह संकोच-पत्र होकर रह गया. इससे तो अच्छा होता कि योगी आदित्यनाथ सच्चाई और साफगोई से जनता के समक्ष पहले अपनी सरकार की उपलब्धियां और कार्यक्रम प्रस्तुत करते, फिर वे पूर्ववर्ती सरकारों की निंदा करने के बजाय उनके भ्रष्टाचारों के खिलाफ की गई ठोस कार्रवाइयों का ब्यौरा रखते. यह सार्थक होता. सत्ता गलियारे की गतिविधियों पर नजर रखने वाले जानकार कहते हैं कि पूर्ववर्ती सरकारों के भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई हुई ही नहीं तो सरकार उसका ब्यौरा क्या रखे! मुख्यमंत्री जब चाटुकार नौकरशाहों और अवरसवादी सिपहसालारों के चंगुल में फंस जाएगा, तो ऐसा ही होगा. नौकरशाह उसे भरमाए रखेगा और पांच साल बाद जनता इस भरमाहट को दूर कर देगी. ऐसा ही अखिलेश के साथ हुआ, ऐसा ही मायावती के साथ हुआ और ऐसा ही योगी के साथ होने का लक्षण दिख रहा है.
भाजपा सरकार की छह महीने की उपलब्धियां गिनाने में जिस तरह आंकड़ों की बाजीगरी की गई, उसकी हम समीक्षा करेंगे. गन्ना किसानों के बकाये के भुगतान की जो सरकारी तस्वीर पेश की गई, उसके बरक्स हम आपको जमीनी असलियत दिखाएंगे. एक लाख क्विंटल आलू की खरीद की योगी सरकार की घोषणा पर क्या कार्रवाई हुई, उसकी भी हम परतें खोलेंगे. इन्काउंटर के आंकड़े पेश कर कानून व्यवस्था दुरुस्त करने के दावे कितने खोखले हैं, उसका भी हम जायजा लेंगे और यह भी देखेंगे कि योगी सरकार राजधानी लखनऊ समेत प्रदेश की तमाम सड़कों पर गड्ढे तो नहीं भर सकी, लेकिन सरकार खुद कितने गड्ढों से भर गई. मुख्यमंत्री जब अपने ही उप-मुख्यमंत्री (जो सड़कों का गड्ढा भरने के लिए जिम्मेदार थे) का ‘गड्ढा’ नहीं भर पा रहे तो सड़कों का गड्ढा कैसे भर पाएंगे. खैर, पहले हम पूर्ववर्ती सरकारों के अश्वेत-कारनामों पर जारी श्वेत-पत्र का अवलोकन करते चलें. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 18 सितम्बर को ‘श्वेत-पत्र-2017’ जारी करते हुए कहा कि पिछले 15 वर्षों के दौरान सत्ता में रही सरकारों के कार्यकाल में यूपी पूरी तरह कुव्यवस्था में रही. उनका स्पष्ट इशारा मुलायम-मायावती-अखिलेश कार्यकाल की तरफ था. साफ-साफ तौर पर तीनों कार्यकाल के मुखिया का नाम लेने से जो सरकार हिचकती हो, वह उनके कारनामों पर कार्रवाई क्या करेगी, यह समझा जा सकता है. योगी सरकार ने श्वेत-पत्र के जरिए इतना ही कहा कि पिछली सरकारों ने जनता के प्रति असाधारण संवेदनहीनता का परिचय देते हुए असामाजिक तत्वों और भ्रष्टाचारियों को प्रश्रय दिया और एक के बाद एक घोटाले किए. उन घोटालों पर योगी सरकार ने क्या कार्रवाई की, यह योगी ने श्वेत पत्र में नहीं बताया.
मुख्यमंत्री ने इतना ही कहा कि पिछले 15 साल में उत्तर प्रदेश के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (पीएसयू) बदहाल हो गए. पीएसयू का वर्ष 2011-12 का नुकसान 6489.58 करोड़ रुपए से बढ़ कर 2015-16 में 17789.91 करोड़ रुपए हो गया. राज्य के पीएसयू की संचित हानि 2011-12 में 29380.10 करोड़ रुपए थी जो 2015-16 में बढ़कर 91401.19 करोड़ रुपए हो गई. वर्ष 2011-12 में पीएसयू का ऋण 35952.78 करोड़ रुपए था, वह 2015-16 में बढ़कर 75950.27 करोड़ हो गया. सार्वजनिक उपक्रमों के संचालन में वित्तीय अनुशासनहीनता और घोटालों के कारण ऐसा हुआ. पूर्ववर्ती सरकारों की इन गैर-जिम्मेदाराना हरकतों के कारण प्रदेश की वित्तीय स्थिति डंवाडोल हो गई. सरकारों ने कर-राजस्व बढ़ाने का कोई उपाय नहीं किया, जबकि अनाप-शनाप तरीके से राजस्व व्यय बढ़ा दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि जब प्रदेश में भाजपा की सरकार आई तो उसे राज-खजाना खाली मिला. सरकार पर कर्जे का बोझ अत्यधिक था. 31 मार्च 2007 को सरकार पर कर्ज का बोझ 1,34,915 करोड़ रुपए था, जो 31 मार्च 2017 तक बढ़कर 3,74,775 करोड़ रुपए हो गया. मुख्यमंत्री ने पूर्ववर्ती सरकारों के दरम्यान बदहाल कानून-व्यवस्था से लेकर किसानों की तबाही, चीनी मिलों की बर्बादी, लोक निर्माण विभाग (पीडब्लूडी) की बेजा कार्य-प्रणाली, सरकारी नौकरियों में भेदभाव और पक्षपात समेत तमाम विभागों के अराजक कामकाज का जिक्र किया और कहा कि 19 मार्च 2017 को सत्ता सम्भालने के साथ ही उन्हें अराजकता, गुंडागर्दी, अपराध, भ्रष्टाचार और वित्तीय अराजकता विरासत में मिली. ध्वस्त कानून-व्यवस्था का जिक्र करते हुए मुख्यमंत्री ने जून 2016 में मथुरा के जवाहरबाग हत्याकांड का हवाला दिया लेकिन मथुरा के जिस तत्कालीन जिलाधिकारी राजेश कुमार की गैर-जिम्मेदारी के कारण जवाहरबाग हत्याकांड घटित हुआ उस अधिकारी को उन्होंने सपा नेता रामगोपाल यादव की सिफारिश पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्लैग-शिप योजना ‘कौशल विकास मिशन’ का निदेशक क्यों बना दिया, इस पर योगी ने कुछ नहीं कहा.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पूर्ववर्ती सरकारों की किसान-विरोधी नीतियों के कारण किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य न मिलने और चीनी मिलों द्वारा किसानों के बकाये का भुगतान न करने का मुद्दा भी उठाया. योगी ने निजीकरण के नाम पर प्रदेश की चीनी मिलों को कौड़ियों के भाव बेचे जाने का जिक्र किया और इसमें अनियमितता बरते जाने की भी बात कही, लेकिन मायावती का नाम नहीं लिया. योगी ने श्वेत-पत्र में पूर्व के शासनकाल में गेहूं की खरीद में दलाली और आलू किसानों की बदहाली का मसला भी उठाया और कहा कि मजबूरी के कारण किसानों को अपनी फसल सड़कों पर फेंक देनी पड़ी और किसानों ने आलू की खेती छोड़ दी. योगी ने उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग समेत अन्य संस्थाओं में तैनाती से लेकर भर्ती तक जातिवाद और भ्रष्टाचार का उल्लेख किया, लेकिन कहीं भी इसके लिए दोषी निवर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का नाम नहीं लिया. योगी को पूर्ववर्ती शासनकाल में विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय द्वारा विधानसभा सचिवालय में की गई हजारों अवैध नियुक्तियों का गंभीर घोटाला याद नहीं रहा. योगी को उस शासनकाल की सड़क से लेकर सिंचाई तक की बदहाली याद रही, लेकिन पूर्ववर्ती सरकार के मंत्री शिवपाल यादव का नाम याद नहीं रहा. लखनऊ मेट्रो रेल से लेकर आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे,  जय प्रकाश नारायण अन्तरराष्ट्रीय शोध केंद्र, गोमती रिवर फ्रंट, अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम, कैंसर इंस्टीट्यूट, एसजीपीजीआई ट्रॉमा सेंटर जैसी आधी-अधूरी योजनाओं का उन्होंने जिक्र किया, लेकिन अखिलेश यादव का नाम नहीं लिया. पूर्ववर्ती शासनकाल में चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवा के चरमरा जाने की बात कही, लेकिन अपने जमाने में हुए गोरखपुर जैसे हादसे का नाम तक नहीं लिया. गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 60 से अधिक बच्चों और फर्रुखाबाद के लोहिया अस्पताल में 50 बच्चों की ऑक्सीजन की कमी के कारण हुई मौत स्वास्थ्य क्षेत्र में योगी सरकार की पहली छह-मासिक उपलब्धि के बतौर दर्ज हो चुकी है. श्वेत-पत्र में योगी ने अखिलेश का नाम लिए बगैर कहा कि पूर्ववर्ती शासन में अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए कुछ नहीं किया गया. अल्पसंख्यक कल्याण के लिए वर्ष 2012-13 से वर्ष 2016-17 तक बजट में मंजूर 13,804 करोड़ रुपए भी खर्च नहीं किए जा सके. सरकार केवल अल्पसंख्यकों के कल्याण का ढोल बजाती रही.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने श्वेत-पत्र में वर्ष 2007-08 से वर्ष 2009-10 के दरम्यान लखनऊ और नोएडा में बनाए गए स्मारकों के निर्माण में हजारों करोड़ रुपए के घोटाले की बात तो कही, लेकिन कहीं भी मायावती का नाम नहीं लिया. यहां तक कि स्मारक घोटाला का हवाला देने के लिए योगी को महालेखाकार की रिपोर्ट का सहारा लेना पड़ा. उन्होंने कैग-रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि स्मारक-परियोजना की मूल वित्तीय स्वीकृति 944 करोड़ रुपए थी, लेकिन उस पर चार हजार 558 करोड़ रुपए खर्च किया गया. मायावती के शासनकाल में स्मारकों के निर्माण पर मंजूर धनराशि से 483 प्रतिशत अधिक खर्च किए जाने पर पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की और न योगी ने अपने शासनकाल में किसी ठोस कानूनी कार्रवाई की संभावना जताई.

सरकार का उपलब्धि-पत्र बनाम जमीनी-सचः बढ़ता ही जा रहा है अपराध का आंकड़ा
योगी सरकार के छह महीने के दो-दिवसीय बखान-आयोजन के अगले दिन यानि, 19 सितम्बर को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने काबीनाई सहयोगियों के साथ सरकार के छह महीने के किए-धरे का लेखा-जोखा पेश किया. इस लेखे-जोखे में भी योगी ने किसानों की कर्ज-माफी और कानून व्यवस्था के मसलों पर बिना नाम लिए अखिलेश सरकार पर निशाना साधा. योगी ने प्रदेश में कानून व्यवस्था में सुधार का दावा किया और छह महीने में हुई 430 मुठभेड़ों में 17 खूंखार अपराधियों के मारे जाने के संदर्भ से अपने दावे में दम भरा. योगी ने 868 इनामशुदा बदमाशों को मिला कर कुल 1106 अपराधियों की गिरफ्तारी का पुलिसिया आंकड़ा भी पेश किया. सब जानते हैं कि प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के फौरन बाद शुरुआती दिनों में पुलिसिया सख्ती और गश्ती की सरगर्मी कितनी दिखी. एंटी रोमियो स्क्वायड का भौकाल दिखा. लेकिन यह जितनी तेजी से दिखा उतनी ही तेजी से विलुप्त भी हो गया. सरकार की चालाकी देखिए कि अपराध के आंकड़ों में चोरी की घटनाओं का जिक्र नहीं करती. योगी सरकार जब महज दो महीने की हुई थी, तब प्रदेश के संसदीय कार्यमंत्री सुरेश खन्ना ने विधानसभा में आधिकारिक आंकड़ा पेश करते हुए कहा था कि वर्ष 2017 के प्रथम चार महीनों में यूपी में 729 हत्याएं, 803 बलात्कार, 60 डकैती, 799 लूट और 2682 अपहरण की घटनाएं हुईं. अपराध के इन आंकड़ों में योगी सरकार की हिस्सेदारी 60 दिनों की थी. लेकिन योगी शासन के शुरुआती सौ दिन का हिसाब-किताब भी हम सामने रखें तो अपराध का ग्राफ कहीं नीचे जाता नहीं दिखा. हत्या, बलात्कार, साम्प्रदायिक हिंसा और यौन हिंसा की घटनाएं खूब हुईं. यहां तक कि नौकरशाहों और सिपसालारों ने योगी को एक सुरक्षा सलाहकार रखने तक की सलाह दे डाली. खैर, योगी सरकार के पहले सौ दिन में अपराध के कुल 22297 मामले दर्ज हुए. पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार के शुरुआती सौ दिन में अपराध के 13062 मामले दर्ज हुए थे. आप याद करें कि अपराध का ग्राफ बढ़ता देख कर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गृह विभाग के प्रमुख सचिव से लेकर डीजीपी तक को सख्त हिदायत दी थी. योगी सरकार के पहले 90 दिन में डकैती के मामलों में 13.85 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई, लूट की घटनाएं 20.46 फीसदी बढ़ीं, फिरौती के लिए अपहरण की घटनाओं में 44.44 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई और बलात्कार के मामलों में 40.83 फीसदी का इजाफा हुआ. शुरुआती तीन महीनों में एंटी रोमियो स्क्वायड की खूब शोशेबाजी चली. लेकिन छेड़छाड़ की घटनाओं को रोकने के लिए बनाया गया पुलिस का यह दस्ता विवादों में आ गया और इसके बाद यह ढीला ही पड़ गया. सरकार ने अपराध के आंकड़ों में चोरी और राहजनी की घटनाओं को शुमार नहीं किया, जबकि चोरी और राहजनी की घटनाएं राजधानी लखनऊ समेत प्रदेश के सभी शहरी इलाकों में बहुत तेजी से बढ़ी हैं. चोरी का आलम तो यह है कि घर का ताला दो दिन के लिए बंद तो चोरी सुनिश्चित. इसकी रोकथाम में पुलिस फेल है, क्योंकि चोरों के साथ पुलिस का मेल है.

भू-माफियाओं के बजाय किसानों की ही जमीनें छीन लीं
योगी सरकार ने अपनी उपलब्धियों में भू-माफियाओं के खिलाफ चलाए गए अभियान को भी शामिल किया और दावा किया कि एंटी भू-माफिया टास्क फोर्स ने प्रदेशभर में भू-माफियाओं की 35 करोड़ की सम्पत्ति जब्त की. सरकार ने कहा कि भू-माफियाओं के कब्जे से 8038.38 हेक्टेयर भूमि मुक्त कराई गई. इस सरकारी दावे के समानान्तर तथ्य यह है कि मू-माफियाओं के कब्जे से जमीन मुक्त कराने का टार्गेट प्रशासन ने किसानों और ग्राम समाज की जमीनें छीन कर उसे भू-माफियाओं के खिलाफ की गई कार्रवाई बताया और सरकार को झांसे में रखा. लखनऊ के नजदीक हरदोई जिले के कसमंडी (गोपामऊ) गांव का नायाब उदाहरण सामने है. तहसीलदार और कानूनगो ने भू-माफियाओं से साठगांठ करके इस गांव के दर्जनों गरीब किसानों की खेती की जमीनों को जंगल की भूमि पर कब्जा बता दिया और किसानों को उन जमीनों से बेदखल कर दिया. जंगल की जमीन पर कब्जा करने का मुकदमा भी किसानों पर लिखवा दिया गया और भूमिधर किसान बेदखल होकर हरदोई जिला प्रशासन के अधिकारियों के दरवाजे-दरवाजे भटक रहे हैं. हरदोई के कसमंडी गांव के वे छोटे किसान क्या भू-माफिया हैं? अराजक सरकार का कोई भी नुमाइंदा इस सवाल का जवाब नहीं दे रहा. खबर मिलने पर ‘चौथी दुनिया’ ने हरदोई की जिलाधिकारी और वहां के उप जिलाधिकारी दोनों को पूर्व में ही कानूनगो की हरकतों के बारे में इत्तिला की थी, लेकिन डीएम और एसडीएम किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ा और किसानों को उनकी ही जमीनों से बेदखल कर दिया गया. ऐसी घटनाएं पूरे प्रदेश में हुईं और इसी तरह भू-माफियाओं के कब्जे से जमीनें मुक्त कराई गईं.
उल्लेखनीय है कि पुलिस में दर्ज शिकायतों और राजस्व अभिलेखों के मुताबिक यूपी में एक लाख हेक्टेयर से अधिक सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा है. प्रदेश के प्रत्येक थाने में कम से कम 50 भू-माफियाओं के नाम दर्ज हैं. इन माफियाओं से जमीन मुक्त कराने का अभियान फर्जी सियासी जुमलों से पूरा नहीं हो सकता. मथुरा के जवाहरबाग की जमीन और पूर्ववर्ती सरकार के मंत्री गायत्री प्रजापति व शारदा प्रताप शुक्ला के कब्जे से कुछ जमीनें छुड़ाने के अलावा योगी सरकार ने भू-माफियाओं के कब्जे से जमीन छुड़वाने का कोई शिनाख्त में रखने लायक काम नहीं किया है. राजस्व के दस्तावेज बताते हैं कि केवल राजधानी लखनऊ में ही करीब पांच हजार हेक्टेयर सरकारी जमीन पर भू-माफियाओं का कब्जा है. सरकार इन्हें जानती है, लेकिन इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करती.

यह कर्ज-माफी है या किसानों के साथ क्रूर मजाक!
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किसानों की कर्ज-माफी को प्रदेश सरकार की बड़ी उपलब्धि के बतौर पेश किया. योगी ने कहा कि सरकार ने 86 लाख किसानों का फसली ऋण माफ किया. किसानों का कर्ज माफ हुआ और उन्हें कर्जमाफी के सर्टिफिकेट भी बांट दिए गए. आप याद करें कि योगी सरकार ने एक लाख रुपए तक का कर्ज माफ करने का ऐलान किया था, लेकिन जमीनी हकीकत क्या है? कर्ज माफी के तहत किसानों का एक पैसा, 9 पैसा, 18 पैसा, 1 रुपया, 20 रुपये जैसी छोटी रकम के कर्ज माफ हुए. इस तरह की कर्ज-माफी से योगी सरकार की काफी किरकिरी हुई. इस ऐतिहासिक कर्ज-माफी के प्रमाणपत्र भी किसानों को दे दिए गए. सोशल मीडिया पर ऐसे हास्यास्पद प्रमाणपत्र बड़े पैमाने पर दिखने लगे तब आनन-फानन योगी सरकार ने ऐसे प्रमाणपत्र दिए जाने को रोका और आदेश जारी किया कि दस हजार से कम की कर्ज माफी का सर्टिफिकेट जारी नहीं किया जाए.
इस नायाब कर्ज माफी पर कटाक्ष करने का विपक्ष को मौका मिल गया. निवर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने फौरन ही योगी सरकार पर निशाना साधा. अखिलेश ने मथुरा के गोवर्धन तहसील के एक किसान की कर्ज-माफी का सर्टिफिकेट ट्वीटर पर पोस्ट कर दिया, जिसमें कर्ज-माफी योजना के तहत उक्त किसान के खाते में एक पैसा क्रेडिट किए जाने की बात लिखी गई थी. अखिलेश ने अपने ट्वीट में लिखा, 'भूल चुके जो अपना 'संकल्प पत्र', 'श्वेतपत्र' तो उनका बहाना है.' छोटे किसानों की कर्ज-माफी के लिए 36 हजार करोड़ रुपए की व्यवस्था करने का दावा करने वाली योगी सरकार ने अब तक किसानों का एक पैसा, एक रुपया और 10 रुपए से लेकर हजार रुपए तक का कर्ज माफ किया है. सरकार के इस रवैये से गरीब किसानों में क्षोभ है. कर्ज के बोझ से दबे लाखों किसान खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं.

आलू किसानों को मिला समर्थन मूल्य का झुनझुना
उत्तर प्रदेश में पहली बार आलू का समर्थन मूल्य घोषित हुआ. इसका श्रेय निश्चित तौर पर योगी सरकार को जाता है. सरकार ने 487 रुपए क्विंटल की दर से एक लाख मीट्रिक टन आलू खरीदने का लक्ष्य तय किया. यह तय हुआ कि आलू की खरीद केंद्र की संस्था नेफेड, यूपी की संस्था पीसीएफ, यूपी एग्रो और नैफेड के जरिए होगी. कैबिनेट मंत्री श्रीकांत शर्मा और तत्कालीन मुख्य सचिव राहुल भटनागर ने बड़े उत्साह से कहा कि इन संस्थाओं के माध्यम से किसानों का फेयर एवरेज क्वालिटी (एफएक्यू) का आलू खरीदा जाएगा, जिसे प्रदेश के 1708 शीतगृहों में रखे जाने की व्यवस्था की जाएगी, जिनमें 130 लाख मीट्रिक टन आलू की भंडारण क्षमता है. शर्मा ने कहा था कि योगी सरकार का उद्देश्य आलू उत्पादकों को पर्याप्त कीमत देना है. लेकिन सरकार का दावा हवा-हवाई ही रह गया. किसानों से एक लाख मीट्रिक टन आलू खरीदने की योजना बुरी तरह फेल हो गई. सरकार 13 हजार क्विंटल आलू भी नहीं खरीद सकी. जबकि इस साल यूपी में 15.5 करोड़ क्विंटल से अधिक आलू पैदा हुआ. सरकार इसका एक फीसदी भी नहीं खरीद सकी. सरकार बमुश्किल 12 हजार क्विंटल आलू खरीद पाई. सरकार द्वारा आलू के आकार का मानक 33 एमएम से 55 एमएम के बीच तय करने के कारण आलू खरीद नहीं हो सकी. सौ क्विंटल आलू में करीब 20 क्विंटल आलू ही इस मानक के तहत पास हुआ. आलू बेचने आए किसान को सौ में से 80 क्विंटल आलू वापस ले जाना पड़ा, जो किसानों के लिए मरण साबित हुआ. लिहाजा, किसानों ने उसे कौड़ियों के भाव वहीं बेच डाला या सड़क पर फेंक कर वापस लौट गया.

चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का बकाया अब भी बाकी है
छह महीने की उपलब्धियां गिनाते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कह दिया कि किसानों के गन्ना बकाये का 95 फीसदी भुगतान कराया जा चुका है. योगी ने मुख्यमंत्री बनते ही गन्ना किसानों के बकाये के भुगतान के लिए चीनी मिलों को सख्त आदेश जारी किए थे और भुगतान के लिए दो महीने का समय निर्धारित कर दिया था. सरकार कभी कहती है कि 85 फीसदी भुगतान हो गया तो कभी 90 फीसदी भुगतान की बात कहने लगती है. उपलब्धियां गिनाते हुए तो योगी ने 95 फीसदी तक भुगतान होने की बात कह दी. लेकिन असलियत यही है कि भुगतान का बड़ा हिस्सा अभी भी बाकी है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का दावा भाजपा के ही सांसद हुकुम सिंह के पत्र से झूठा साबित हो जाता है. कैराना के सांसद और भाजपा के वरिष्ठ नेता हुकुम सिंह ने संसद में यह तथ्य प्रस्तुत किया है कि योगी आदित्यनाथ सरकार के बनने के पांच महीने बाद भी चीनी मिलों ने किसानों के लगभग दो हजार करोड़ रुपए के बकाये का भुगतान नहीं किया. गन्ना आयुक्त कार्यालय के दस्तावेज भी बताते हैं कि 22 अगस्त तक यूपी की गन्ना मिलों ने 25,386.77 करोड़ रुपए के बकाये में से 23,442.94 करोड़ रुपए का भुगतान किया था. इस बकाये का एक बड़ा हिस्सा तीन बड़े उद्योग समूहों पर है. इनमें बजाज हिंदुस्तान पर 779.35 करोड़ रुपए बकाया, यूके मोदी पर 390.93 करोड़ रुपए बकाया और सिम्भौली शुगर्स लिमिटेड पर 140.30 करोड़ रुपए का बकाया है. वर्ष 2016-17 के खाते में शादीलाल एंटरप्राइजेज लिमिटेड पर 70.12 करोड़ रुपए का बकाया, मवाना शुगर्स पर 58.04 करोड़ रुपए बकाया, राणा शुगर्स पर 33.44 करोड़ रुपए बकाया, गोविंद शुगर मिल्स पर 29.13 करोड़ बकाया, नवाबगंज शुगर मिल्स पर 21.71 करोड़ रुपए बकाया, कनोरिया शुगर मिल पर 10.95 करोड़ रुपए बकाया और यदु शुगर मिल पर 10.16 करोड़ रुपए बकाया हैं. इनमें 19 चीनी मिलें सरकारी नियंत्रण की हैं. इन पर 398.98 करोड़ रुपए का बकाया है. बलरामपुर चीनी मिल्स, त्रिवेणी इंजीनियरिंग, धामपुर शुगर मिल्स, केके बिड़ला ग्रुप, डीसीएम श्रीराम लिमिटेड, द्वारिकेश शुगर इंडस्ट्रीज, डालमिया भरत शुगर्स, उत्तम शूगर, इंडियन पोटाश लिमिटेड, दौरलाल चीनी वर्क्स और वेव ग्रुप ने किसानों के बकाये का भुगतान कर दिया है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना से भाजपा सांसद हुकुम सिंह ने पत्र लिख कर संसद में गन्ना बकाये का मसला उठाया और कहा कि प्रत्येक मिल मालिक ने उत्तर प्रदेश में अरबों रुपए का लाभ कमाया, लेकिन वही उद्योगपति गन्ना किसानों का भुगतान दबाए बैठे हैं. हुकुम सिंह ने कहा कि गन्ना किसानों के बकाये का भुगतान चीनी मिलों की प्राथमिकता पर नहीं है. योगी सरकार ने गठन के 15 दिनों के भीतर ही गन्ना किसानों के बकाये के पूर्ण भुगतान का दावा किया था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. गन्ना किसान अपनी सालभर की कमाई गन्ना मिलों में झोंक देते हैं लेकिन उसके वाजिब भुगतान से भी वंचित रह जाते हैं. भाजपा सांसद ने कहा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शामली सबसे छोटा जनपद है, जहां की चीनी मिलों पर 200 करोड़ से भी अधिक का गन्ना भुगतान बकाया है. प्रदेश के गन्ना मंत्री सुरेश राणा ने करीब दो महीने पहले विधानसभा को यह जानकारी दी थी कि पेराई सत्र 2016-17 के तहत 14 जुलाई तक कुल बकाया 25386.46 करोड़ रुपए के सापेक्ष 22807.53 करोड़ रुपए का भुगतान हो चुका है. मंत्री ने कहा कि भुगतान की राशि कुल बकाये की 89.84 फीसदी है. जबकि तथ्य यह है कि गन्ना पेराई सीजन खत्म होने के साथ ही उत्तर प्रदेश की चीनी मिलें बंद हो गईं, लेकिन गन्ना किसानों के बकाये का भुगतान नहीं हुआ. चीनी मिलों पर यूपी के गन्ना किसानों का 2755 करोड़ रुपए अभी भी बकाया हैं.

पूर्वांचल बीमारी और बुंदेलखंड भूख से त्रस्त है, सरकार मस्त है
उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल बीमारी से ग्रस्त है और बुंदेलखंड भूख से त्रस्त है. गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 60 से अधिक बच्चों की मौत तो महज एक उदाहरण है. उस हादसे के बाद भी सैकड़ों बच्चों की मौत हो चुकी है. बच्चों की दुखद मौत का यह सिलसिला पिछले लंबे अर्से से चल रहा है. योगी आदित्यनाथ जब गोरखपुर के सांसद थे, तब इस मसले पर उनकी तल्खी सड़क से संसद तक अभिव्यक्त होती थी, लेकिन आज जब वे खुद प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं तो बचाव की मुद्रा में हैं. पूर्वांचल की बीमारी पर वे राजनीतिक तो करते रहे, लेकिन आज सत्ता में आए तो सवालों से कन्नी काट रहे हैं. मुख्यमंत्री होने के बावजूद योगी आदित्यनाथ गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज जैसे प्रमुख अस्पताल को पीजीआई का दर्जा देकर उसे स्तरीय बनाने की पहल क्यों नहीं कर रहे, इसमें उनकी क्या विवशता है, इसका गैर-सियासी जवाब तो उन्हें ही देना पड़ेगा. पूर्वांचल में हर साल मौत का कहर बन कर आने वाली बीमारी को रोकने में सरकार पहले भी अक्षम थी और अब भी अक्षम ही साबित हो रही है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने छह महीने के अपने काम-काज में पूर्वांचल की बीमारी का जिक्र नहीं किया. पूर्वांचल की बीमारी और बुंदेलखंड की भूख का जिक्र करने के बजाय योगी यहां की बदहाल सड़कों का ही रोना रोते रहे. योगी ने ढांचागत विकास पर जोर दिया, पलायन की चर्चा की, लेकिन बुंदेलखंड से पलायन जिस भूख की वजह से हो रहा है उसका त्वरित उपाय किए जाने पर कुछ नहीं कहा. इस बार भी आपने देखा कि किस तरह पूरा पूर्वांचल भीषण बाढ़ से आक्रांत रहा और बुंदेलखंड सूखे में सूखता रहा. बुंदेलखंड के लोगों की नियति ही बन चुकी है साल दर साल सूखा, अकाल और भुखमरी की त्रासदी झेलना. सियासत भी इन्हीं बदहाल लोगों के बूते फल-फूल रही है. बुंदेलखंड की सबसे विकराल पीड़ा यहां से पानी का विलुप्त होना है. सरकार इसका कोई ठोस उपाय नहीं कर रही है, वह सड़क पर ही उलझी पड़ी है. गांवों में हैंडपंपों से पानी निकलना बंद हो गया है. कुएं सूखे हैं. भूगर्भजल का स्तर पाताल में चला गया है. बुंदेलखंड के 80 प्रतिशत किसान कर्ज में डूबे हैं. रोजी-रोटी की तलाश में शहरों में मजदूरी के लिए भाग चुके हैं. गांव के गांव खाली पड़े हैं. केंद्र सरकार की संसदीय समिति की रिपोर्ट तक यह बता चुकी है कि बुंदेलखंड से लोगों का अंधाधुंध पलायन हो रहा है. केंद्र की रिपोर्ट कहती है कि बांदा से सात लाख 37 हजार 920, चित्रकूट से तीन लाख, 44 हजार 920, महोबा से दो लाख, 97 हजार 547, हमीरपुर से चार लाख, 17 हजार 489, उरई से पांच लाख, 38 हजार 147, झांसी से पांच लाख, 58 हजार 377 और ललितपुर से तीन लाख 81 हजार 316 लोग पलायन कर चुके हैं. केंद्र सरकार की यह रिपोर्ट दो साल पहले की है. अब यह आंकड़ा और ऊपर बढ़ गया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बुंदेलखंड आकर यह कह चुके हैं कि पांच-पांच नदियां होते हुए भी बुंदेलखंड का प्यासा होना दुर्भाग्यपूर्ण है. प्रधानमंत्री ने यह माना कि असली समस्या पानी के प्रबंधन की अराजकता है. लेकिन समस्या जानने के बावजूद उसे सुधारा नहीं गया. यमुना, चंबल, धसान, बेतवा और केन जैसी नदियों के होते हुए लाखों लोगों का पानी के लिए पलायन दुर्भाग्यपूर्ण है. यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए भी है कि बुंदेलखंड के सात जिलों झांसी, हमीरपुर, बांदा, महोबा, जालौन और चित्रकूट की सभी 19 विधानसभा सीटें भाजपा के पास हैं. जिस इलाके के 19 विधायक सत्ताधारी हों, उस क्षेत्र की बदहाली दुर्भाग्यपूर्ण भी है और शर्मनाक भी. 

Tuesday 19 September 2017

घूस पर कब तक चलता रहेगा यूपी पुलिस में प्रमोशन!

प्रभात रंजन दीन
हाईकोर्ट से लगी रोक के बावजूद राज्य सरकार ने चोर-दरवाजे से एक फरमान निकाला और अपने चहेते पुलिसकर्मियों को आउट ऑफ टर्न तरक्की दे दी. यह संख्या एक दो नहीं, पूरे 990 है. इस शासनादेश को सरकारी अधिसूचना के बतौर गजट में प्रकाशित नहीं किया गया. उसे गुपचुप लागू कर दिया गया. मतलब सधने के बाद सरकार ने उस गैर-संवैधानिक फरमान को दबा दिया. ऐसा करके यूपी सरकार ने पूरे पुलिस संगठन को तो झांसा दिया ही, अदालत से भी गंभीर छल किया. हाईकोर्ट के निर्देश पर यूपी पुलिस में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन पर रोक लागू है. तत्कालीन समाजवादी सरकार के घपले-घोटालों की लंबी फेहरिस्त में शुमार यह एक ऐसी आपराधिक करतूत है, जिसके साजिशी पहलू को पहली बार ‘चौथी दुनिया’ उजागर कर रहा है. इसपर सरकार और अदालत द्वारा संज्ञान लिया जाना जरूरी है, यदि इसे वह अपना नैतिक दायित्व समझे. बड़ी तादाद में पुलिसकर्मियों और अधिकारियों से हुई बातचीत के बाद यह साफ हुआ है कि सरकारी रवैये से प्रदेश के पुलिस संगठन में भीषण असंतोष व्याप्त है. पुलिस समुदाय राजनीतिक, जातिगत और पूंजीगत कई खेमों और गुटों में बंट चुका है. इसका असर कानून व्यवस्था पर दिख रहा है और आने वाले दिनों की विकृत दशा का संकेत दे रहा है.
बसपा के भ्रष्टाचार को बेच कर सपा सरकार में आई थी, पर सत्ता मिलते ही बसपा के सारे कुकृत्य भूल गई. वह बसपा के उपकार का बदला था, क्योंकि मायावती ने मुलायम-काल के भ्रष्टाचार को ताक पर रख दिया था. उसी तरह सपा के भ्रष्टाचार भुना कर भाजपा सत्ता में आई, लेकिन सरकार में आते ही वह सपाई भ्रष्टाचार से भाईचारा दिखाने लगी. भाजपा किस उपकार का सपा को फल दे रही है? दरअसल, भ्रष्टाचार के मसले पर सारे राजनीतिक दलों में परस्पर समझदारी है. इसीलिए जिसे सत्ता मिलती है, वह बेखौफ खाता है. एक दूसरे का विरोध कर आम नागरिकों को बेवकूफ बनाना और सत्ता हासिल करके एक-दूसरे का पाप भूल जाना सियासी चलन बन गया है. योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बने आधा वर्ष से ऊपर हो गए, लेकिन इस दरम्यान सपा सरकार के घोटालों में से कोई भी एक मामला ठोस कानूनी शक्ल नहीं ले पाया. केवल एक-दो जांचों का ऐलान भर हुआ. समाजवादी पार्टी के अखिलेश-कालीन शासन में गोमती रिवर फ्रंट घोटाला, एक्सप्रेस हाई-वे घोटाला, साइबर सिटी घोटाला, पुलिस भर्ती घोटाला, यश भारती पुरस्कार घोटाला, आयोगों के अध्यक्षों और आयुक्तों के चयन का घोटाला, जातिवाद घोटाला, पीसीएस चयन घोटाला, जनेश्वर मिश्र पार्क निर्माण घोटाला, खनन घोटाला, एम्बुलेंस घोटाला, यादव सिंह संरक्षण घोटाला, किसानों के गन्ना बकाये के भुगतान का घोटाला, ऊर्जा घोटाला जैसे तमाम घोटाले हुए जिन पर सख्त कार्रवाई का नारा और आश्वासन देती हुई भाजपा सत्ता तक आई, लेकिन सत्ता मिलते ही उसे सपा के घोटाले याद नहीं रहे. फिर पांच वर्ष इसी तरह बीत जाएंगे.
अखिलेश यादव के कार्यकाल में एक नायाब घपला हुआ था, जिसकी तरफ ‘चौथी दुनिया’ आपका ध्यान दिला रहा है. अखिलेश सरकार में पुलिस-प्रमोशन का घोटाला बड़े ही शातिर तरीके से अंजाम दिया गया था. सपा सरकार की इस हरकत से पूरी यूपी पुलिस राजनीतिक और जातिगत कई खेमों में बंट गई है. जो कर्तव्य-परायण पुलिस वाले हैं वे अल्पमत में हैं और खुद को अनाथ समझ रहे हैं. पांच वर्षों के शासनकाल में समाजवादी पार्टी ने यूपी पुलिस में जातिवादी भर्तियां करके, खेमेबाजियां करके, राजनीतिक पूर्वाग्रह और घूस-आग्रह से तरक्की और तैनातियां देकर पुलिस संगठन को इतना कमजोर कर दिया है कि इसका असर कानून व्यवस्था पर साफ-साफ दिख रहा है. पक्षपातवादी सरकार के कारण पुलिस का नैतिक-मनोबल इतना नीचे गिर चुका है कि अपराध की घटनाओं में भी पुलिस को सपा और गैर सपा, पूंजी-सम्पन्न और पूंजी-विपन्न का भेद दिखता है. इसी भेदभाव पर पुलिस की कार्रवाई चलती है. 
अंगरक्षकों का खास गुट बना कर उसमें शामिल पुलिसकर्मियों को अनाप-शनाप तरीके से आउट ऑफ टर्न तरक्की देने में समाजवादी पार्टी की सरकारों को विशेषज्ञता हासिल रही है. पुलिसकर्मियों को तरक्की देने के सपा सरकार के बेजा तौर-तरीकों को देखते हुए ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी. हाईकोर्ट के आदेश पर राज्य सरकार को इस पाबंदी के बारे में बाकायदा अधिसूचना जारी करनी पड़ी थी. लेकिन कानून को ठेंगे पर रखने वाली समाजवादी सरकार के मुखिया अखिलेश यादव मुलायम सिंह के जमाने के 32 अंगरक्षकों और अपने जमाने के 42 अंगरक्षकों को मर्यादा लांघ कर तरक्की देने पर आमादा थे. सत्ता गलियारे के सूत्र बताते हैं कि मुख्यमंत्री सचिवालय की प्रमुख सचिव अनीता सिंह और गृह विभाग के सचिव मणि प्रसाद मिश्र ने मिल कर ऐसा तिकड़म बुना कि अखिलेश और मुलायम खुश हो जाएं और कारगुजारी करने वाले अफसर भी सराबोर हो जाएं. शासन के इन स्वनामधन्य अफसरों ने मुलायम और अखिलेश के चहेते अंगरक्षकों को आउट ऑफ टर्न तरक्की देने के लिए कुल 990 पुलिसकर्मियों की लिस्ट तैयार की जिनमें कान्सटेबल से लेकर दारोगा और इन्सपेक्टर तक शामिल थे. अखिलेश सरकार ने इन सबको इनकी नियुक्ति की तारीख से तरक्की दे दी और इन्हें बाकायदा संवर्गीय (कैडर) स्तर में स्थापित कर दिया. आउट ऑफ टर्न प्रमोशन (ओओटीपी) प्रक्रिया के तहत पुलिसकर्मियों को मिलने वाली तरक्की गैर-संवर्गीय और तदर्थ (एड्हॉक) होती है. लेकिन अखिलेश सरकार ने नियम-कानून की सारी हदें पार कर दीं. 23 जुलाई 2015 को जारी फरमान के जरिए सरकार ने न केवल हाईकोर्ट की पाबंदी लांघी, बल्कि पुलिस अधिकारियों-कर्मचारियों की सेवा नियमावली को भी ताक पर रख दिया. इस सरकारी फरमान का कोई गजट-नोटिफिकेशन भी नहीं किया गया. तकरीबन एक वर्ष बाद ही 11 जुलाई 2016 को शासन ने फिर एक ‘विज्ञप्ति’ जारी कर 94 इन्सपेक्टरों को तरक्की देकर डीएसपी बनाए जाने की मुनादी कर दी. यह ‘विज्ञप्ति’ भी सरकारी गजट में प्रकाशित नहीं की गई. अखिलेश सरकार के इन आदेशों को गृह विभाग के अधिकारी पूर्ण रूप से राजनीतिक बताते हैं, क्योंकि तब प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारियां जोर-शोर से शुरू हो गई थीं और सपा सरकार पूरे पुलिस संगठन को सपाई कलेवर देकर ताकतवर बनने के जतन में लगी थी. इसीलिए चुन-चुन कर सपा समर्थक पुलिसकर्मियों और अधिकारियों को तरक्की दी जा रही थी और उन्हें महत्वपूर्ण जगहों पर तैनात किया जा रहा था.
चुन-चुन कर तरक्की देने के तमाम उदाहरण सामने हैं. रवींद्र कुमार सिंह, नियाज अहमद, परमेंद्र सिंह, भारत सिंह, जगदीश यादव, सदानंद सिंह, अशोक कुमार वर्मा जैसे कई नाम हैं, जिन्हें सपा सरकार की कृपा से इन्सपेक्टर से डीएसपी बनाया गया. जगदीश यादव 1990 में यूपी पुलिस में सिपाही के पद पर भर्ती हुए थे. उनकी पहली पोस्टिंग फैजाबाद के रौनाही थाने में हुई थी. मुख्यमंत्री सुरक्षा समूह में शामिल हो जाने के कारण उनकी तरक्की-यात्रा इतनी तीव्र गति से हो पाई. इसी तरह अमौसी एयरपोर्ट पर तैनात रहे दारोगा सदानंद सिंह मुलायम और अमर सिंह का पैर छूते-छूते डीएसपी बन गए. आउट ऑफ टर्न तरक्की के लिए एसपी की तरफ से लिखा जाने वाला दृष्टांत (साइटेशन) जरूरी होता है. समस्या यह खड़ी हुई कि कोई एसपी साइटेशन लिखने के लिए तैयार नहीं था. आखिरकार गोंडा के तत्कालीन एसपी के साइटेशन पर उन्हें डीएसपी बनाया गया. इसी तरह तब के ताकतवर सपा नेता अमर सिंह के सुरक्षाकर्मी रहे चमन सिंह चावड़ा को भी डीएसपी के पद पर तरक्की मिली. चावड़ा के लिए लिखे गए साइटेशन को पुलिस महकमे में चुटकुले के बतौर पेश किया जाता है. उनके साइटेशन में लिखा गया कि अदम्य साहस और शौर्य का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने फिल्म अभिनेत्री जया प्रदा को सुरक्षा प्रदान की. अमर सिंह के अंगरक्षक को जया प्रदा की सुरक्षा के लिए आउट ऑफ टर्न तरक्की दी गई. यह चुटकुला ही तो है. इसी तरह अशोक कुमार वर्मा को घोर सपाई होने और मुलायम अखिलेश दोनों के शासनकाल में मुख्यमंत्री की प्रमुख सचिव रहीं अनीता सिंह का करीबी होने के कारण तरक्की मिली. तरक्की प्रकरण में अशोक कुमार वर्मा की अतिरिक्त-सक्रियता भी पुलिस महकमे में चर्चा का विषय है.
तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पिता मुलायम के साथ-साथ बाद उनके भी खास अंगरक्षक रहे शिव कुमार यादव को प्रमोट करने के लिए नैतिकता और वैधानिकता की क्रीज़ से बाहर हटकर बैटिंग की. उन्होंने गृह विभाग के जरिए एक आदेश जारी करा कर 15 मार्च 2013 को शिव कुमार यादव को एडिशनल एसपी के पद पर तरक्की दे दी थी. मुलायम ने अपने पहले कार्यकाल में शिव कुमार को दारोगा से इन्सपेक्टर बना दिया था. मुलायम के दूसरे कार्यकाल में शिव कुमार डीएसपी बनाए गए और अखिलेश ने अपने कार्यकाल में उन्हें एएसपी बना दिया. आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के बेजा इस्तेमाल के जरिए 15 वर्ष के करियर में इतना भारी उछाल पुलिस संगठन में चर्चा और नकल दोनों का विषय है. इसका सीधा असर पुलिस के काम और प्रतिबद्धता पर पड़ रहा है.
गृह विभाग के ही एक अधिकारी कहते हैं कि 990 पुलिसकर्मियों को तरक्की देने और उसमें से 94 इन्सपेक्टरों को डीएसपी बनाए जाने के लिए जारी किया गया आदेश पूरी तरह गैर-कानूनी है. इस आदेश से पुलिस महकमे के सभी कर्मचारियों का वरिष्ठता-क्रम छिन्न-भिन्न हो गया है. सीनियर जूनियर हो गए और जूनियर अपने सीनियर के माथे पर बैठ गया. पुलिस के कामकाज और अनुशासन पर इसका बहुत बुरा असर पड़ रहा है. जिन पुलिसकर्मियों और अधिकारियों को इस फरमान के जरिए प्रमोशन मिला वे अब पुलिस संगठन में सपा के एजेंट की तरह काम कर रहे हैं. उक्त अधिकारी ने बताया कि प्रदेश सरकार ने मनमाने तरीके से इन्सपेक्टरों का वरिष्ठता-क्रम बनाया और सुप्रीम कोर्ट के नौ मई 2002 के फैसले को भी ताक पर रख दिया. वरिष्ठता-क्रम और 23 जुलाई 2015 को जारी तरक्की-आदेश दोनों ही यूपी पुलिस उप-निरीक्षक एवं निरीक्षक (नागरिक पुलिस) सेवा नियमावली-2015 का सरासर उल्लंघन है. इन्सपेक्टरों (निरीक्षकों) की तरक्की के आदेश में राज्य सरकार ने बड़े शातिराना तरीके से निरीक्षकों की भर्ती के वर्ष का कॉलम गायब कर दिया और इसकी आड़ लेकर मनमाने तरीके से निरीक्षकों के नाम भर दिए. इससे वरीयता-क्रम गड्डमड्ड हो गया. किसी में ट्रेनिंग का वर्ष, बैच नंबर और प्रमोशन का वर्ष अंकित है तो कई में प्रमोशन का वर्ष ही गायब कर दिया गया है. सेवा नियमावली के प्रावधानों को दरकिनार कर वरिष्ठता सूची में बैकलॉग वाले 119 नाम भी ठूंस दिए गए. गृह विभाग के अधिकारी ने कहा कि सरकार की ये सारी हरकतें गैर-कानूनी हैं और हाईकोर्ट से खारिज होने लायक हैं, इसीलिए इस मामले को लंबे अर्से तक लटकाए रखने की कोशिशें चल रही हैं, ताकि सरकार के इस कुकृत्य का विरोध करने वाले सारे पुलिस अधिकारी रिटायर हो जाएं और उनकी कानूनी लड़ाई किसी नतीजे तक नहीं पहुंच पाए.
समाजवादी पार्टी के नेताओं ने आउट ऑफ टर्न प्रमोशन को अपनी सियासत और कमाई दोनों का धंधा बना लिया था. इसी वजह से हाईकोर्ट ने जनवरी 2014 में इस पर रोक लगा दी थी. हाईकोर्ट के निर्देश पर राज्य सरकार को पुलिस में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की प्रक्रिया पर रोक लगाने का सात जून 2014 को शासनादेश जारी करना पड़ा था. पुलिस महकमे में आम चर्चा है कि इस पाबंदी से सपा नेताओं का जब धंधा बंद हो गया तब चोर दरवाजे से इसका जुगाड़ निकाला गया और कॉन्सटेबल, दारोगा और इन्सपेक्टर मिला कर 990 पुलिसकर्मियों को तरक्की दे दी गई. इसके पीछे ठोस-पार्टी-लाइन और ठोस-धन की ठोस-भूमिका रही. एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि चोर रास्ते से तरक्की के लिए पुलिसकर्मियों ने यह ठोस-धन जनता से ही तो वसूल कर चुकाए होंगे. आप इतने से ही समझ लें कि डीएसपी बनने की लाइन में खड़े 94 इन्सपेक्टरों ने केस लड़ने के लिए एलपी मिश्रा, एसके कालिया, जयदीप नारायण माथुर, अनूप त्रिवेदी जैसे महंगे वकीलों को पिछले एक वर्ष से नियुक्त (इन्गेज) कर रखा है. इनमें से एक वकील की एक सुनवाई पर इजलास में खड़े होने की फीस साढ़े तीन लाख रुपए है, दूसरे की फीस तीन लाख रुपए और तीसरे-चौथे वकील की फीस दो लाख रुपए है. इसके अलावा याचिका दाखिल करने वाले को याचिका वापस ले लेने के लिए करोड़ों रुपए का ऑफर अलग से दिया जा रहा है. कहां से आ रहे हैं इतने ढेर सारे पैसे? प्रदेश की आम जनता इस सवाल का जवाब जानती है, क्योंकि भुक्तभोगी वही है.
उल्लेखनीय है कि आउट ऑफ टर्न प्रमोशन से इंस्पेक्टरों को डीएसपी बनाए जाने के फैसले पर भी हाईकोर्ट की भृकुटियां तनी हुई हैं. कमल सिंह यादव की याचिका पर सुनवाई के क्रम में हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया. हाईकोर्ट राज्य सरकार के उस शासनादेश पर अपनी सहमति की मुहर लगा चुकी है जिसमें आउट ऑफ टर्न प्रमोशन देने के नियम को समाप्त किए जाने का निर्णय लिया गया था. इसके पूर्व वर्ष 2014 में हाईकोर्ट ने आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की प्रक्रिया को गैर-कानूनी और गैर-वाजिब करार दिया था. उत्तर प्रदेश पुलिस में हेड कांस्टेबल पद पर तरक्की पाए साढ़े आठ हजार से अधिक कांस्टेबलों के खिलाफ भी हाईकोर्ट में याचिका लंबित है. आरोप है कि सरकार ने पुलिस भर्ती नियमावली का उल्लंघन करते हुए योग्यता और वरीयता को ताक पर रख कर जूनियरों को प्रमोशन दे दिया. वरिष्ठ कांस्टेबलों को प्रमोशन से वंचित कर दिया गया. प्रमोशन के लिए 12 हजार 492 कांस्टेबल योग्यता सूची में थे. वरिष्ठता के आधार पर इनमें से ही हेड कांस्टेबल बनाया जाना था. लेकिन मनमाने तरीके से तरक्की दे दी गई.

दलाल के जरिए रिश्वत लेकर तरक्की देते थे नेता-नौकरशाह
आपको थोड़ा फ्लैश-बैक में लेते चलें. कुछ ही अर्सा पहले ऊंची पहुंच वाले एक दलाल ने घूस लेकर पुलिस वालों को तरक्की देने के नेताओं-नौकरशाहों के गोरखधंधे का पर्दाफाश किया था. दलाल ने कुछ बड़े नेता और बड़े नौकरशाहों का नाम लिया था. लेकिन नेता का नाम दबा दिया गया. हालांकि रिश्वत लेकर तरक्की दिलाने वाले उस सपा नेता के बारे में पुलिस के लोग अच्छी तरह जानते हैं. पकड़े जाने के पहले तक वह दलाल नहीं, बल्कि सपा नेता शैलेंद्र अग्रवाल के रूप में जाना जाता था और सत्ता के शीर्ष गलियारे तक उसकी सीधी पहुंच थी. मोटी रकम लेकर पुलिसकर्मियों को तरक्की देने के धंधे में उस दलाल ने करोड़ों रुपए कमाए तो आप समझ सकते हैं कि सपा नेता और नौकरशाहों ने कितनी रकम एंठी होगी. इसमें दो पुलिस महानिदेशकों एसी शर्मा और एएल बनर्जी का नाम आया, लेकिन दूसरे नाम दब गए. दारोगाओं के प्रमोशन में प्रत्येक से आठ से 10 लाख रुपए लिए जाते थे. इस तरह सपा सरकार के कार्यकाल में बड़ी तादाद में दारोगाओं को इन्सपेक्टर के पद पर तरक्की मिली. तरक्की के धंधे में शैलेंद्र अग्रवाल ही बिचौलिया रहता था. केवल शैलेंद्र के माध्यम से ही प्रदेश के करीब 40 दरोगाओं को प्रोन्नति देकर इंस्पेक्टर बनाया गया था. जिन दारोगाओं की तरक्की की फाइलें विभिन्न जांचों के कारण रुकी पड़ी थीं, वे फाइलें भी घूस के दम पर चल पड़ीं और दारोगाओं को प्रमोशन मिल गया. 40 दारोगाओं की तरक्की में करोड़ों का लेनदेन हुआ और नेता से लेकर अफसर तक को हिस्सा मिला. इस धंधे के नेटवर्क में कई आईपीएस और आईएएस अफसर शरीक थे, लेकिन उनके नाम दब गए और शैलेंद्र को जेल में ठूंस दिया गया. 

जांबाज रह गए और चाटुकार पा गए आउट ऑफ टर्न तरक्की
आउट ऑफ टर्न तरक्की पाने की निर्धारित शर्त थी साहस, शौर्य, पराक्रम और कर्तव्यपरायणता. खूंखार अपराधियों से निपटने या खुद की जान जोखिम में डाल कर आम लोगों की सेवा करने वाले प्रतिबद्ध पुलिसकर्मियों को आउट ऑफ टर्न तरक्की देने का प्रावधान किया गया था. लेकिन सपा सरकार ने इसे धंधा बना दिया. साहस, शौर्य, पराक्रम और कर्तव्यपरायणता के बजाय घूसखोरी, चाटुकारिता, अवसरवाद और व्यक्तिपूजा ने उसकी जगह ले ली. ऐसे तमाम जांबाज पुलिस अधिकारी और कर्मचारी आउट ऑफ प्रमोशन से वंचित कर दिए गए जिन्होंने उदाहरणीय शौर्य और पराक्रम दिखाया, लेकिन वे भ्रष्ट, चाटुकार और व्यक्तिपूजक नहीं थे. ऐसे जांबाज पुलिसकर्मियों की सूची भी ‘चौथी दुनिया’ के पास है, लेकिन उनके नाम हम प्रकाशित नहीं कर रहे हैं, क्योंकि धंधेबाज नेता-नौकरशाह उनका जीना हराम कर देंगे.

पुलिसकर्मियों के रुटीन प्रमोशन पर कभी ध्यान ही नहीं दिया
अपने चाटुकारों और समर्थकों को आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की आपाधापी मचाने वाले सपाई सत्ताधारियों ने पुलिसकर्मियों के सालाना रुटीन प्रमोशन पर कभी ध्यान नहीं दिया. इस तरफ बसपा सरकार ने भी कभी ध्यान नहीं दिया. आप आश्चर्य करेंगे कि 1980-81, 81-82 और 82-83 बैच के उप निरीक्षकों की सालाना तरक्की के लिए आज तक केवल तीन बार डीपीसी हुई. पिछले 37 वर्षों में उप निरीक्षकों (दारोगाओं) के प्रमोशन के लिए महज तीन बार डिपार्टमेंटल प्रमोशन कमेटी (डीपीसी) की बैठक का होना, सरकारों की घनघोर अराजकता की सनद है. 1982 बैच के उप निरीक्षकों के रुटीन प्रमोशन के लिए 15 साल बाद 1997 में डीपीसी हुई. उसके आठ साल बाद वर्ष 2005 में डीपीसी बैठी और फिर आठ साल बाद वर्ष 2013 में डीपीसी हुई. सत्ता के शीर्ष आसनों पर बैठे नेता तरक्की की दुकान खोले बैठे रहे और घूस लेकर तरक्कियां बेचते रहे. विडंबना यह है कि 80-81 और 81-82 बैच के उप निरीक्षक-निरीक्षकों को वर्ष 2007 और 2008 से एडिशनल एसपी का वेतन मिल रहा है, लेकिन सरकार ने उन्हें उनका रुटीन प्रमोशन नहीं होने दिया. रुटीन प्रमोशन से वंचित ऐसे अधिकारियों की संख्या तकरीबन दो हजार है.

जब डीजीपी जैन ने लौटा दिया था शासन का प्रस्ताव
उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रहे एके जैन ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के अंगरक्षकों की टोली के 42 पुलिसकर्मियों को आउट ऑफ टर्न प्रमोशन देने के शासन के प्रस्ताव को नियमावली का हवाला देकर वापस लौटा दिया था. सपा सरकार के तत्कालीन मंत्री और विधान परिषद में नेता सदन अहमद हसन ने भी डीजीपी को अलग से पत्र लिख कर आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के आधार पर उन 42 पुलिसकर्मियों का वरिष्ठता क्रम निर्धारित करने के लिए दबाव डाला था. तत्कालीन पुलिस महानिदेशक ने गृह विभाग के प्रमुख सचिव को बाकायदा पत्र (संख्याः डीजी-चार- 119 (11) 2014 दिनांकः 22 मई 2015) लिख कर बताया था कि आउट ऑफ टर्न प्रमोशन संवर्गीय (कैडर) पद के रिक्त स्थान पर ही किया जा सकता है. उस प्रमोशन को नियमानुसार निःसंवर्गीय (एक्स-कैडर) माना जाएगा और वरिष्ठता निर्धारण में उसका लाभ नहीं मिलेगा. जैन ने नियमों का हवाला देते हुए शासन को आधिकारिक तौर पर यह भी जानकारी दी थी कि आउट ऑफ टर्न प्रमोशन दिए जाने के बावजूद सम्बद्ध पुलिसकर्मी की वरिष्ठता का क्रम उसके मूल पद से ही निर्धारित होता है और उसका नियमित (रुटीन) प्रमोशन भी उसी मूल पद के मुताबिक होता है न कि आउट ऑफ टर्न प्रमोशन वाले पद से. डीजीपी ने कहा था कि आउट ऑफ टर्न प्रमोशन को आधार बना कर वरिष्ठता-क्रम का निर्धारण करने की शासन की कई कोशिशें हाईकोर्ट के निर्देश पर पहले भी खारिज की जा चुकी हैं, लिहाजा हाईकोर्ट के निर्देश और निर्धारित प्रावधानों के आलोक में ही संदर्भित पुलिसकर्मियों की वरिष्ठता का निर्धारण किया जाना उचित होगा. पुलिस महानिदेशक एके जैन के इस पत्र से अखिलेश सरकार सकते में आ गई. सरकार को यह एहसास हो गया कि इस मसले में सरकार ने कोई हरकत की तो डीजीपी का वैधानिक डंडा इस प्रयास को आगे नहीं बढ़ने देगा. लिहाजा, अखिलेश सरकार ने जैन के जाने तक इंतजार करना ही बेहतर समझा. 30 जून 2015 को एके जैन के रिटायर होते ही सरकार फिर से हरकत में आ गई. चोर दरवाजे से रास्ता तलाशा जाने लगा और जैन के रिटायर हुए एक महीना भी नहीं बीता था कि 23 जुलाई 2015 को 990 पुलिसकर्मियों के आउट ऑफ टर्न प्रमोशन और वन-टाइम वरिष्ठता निर्धारण का गैर-कानूनी फरमान जारी कर दिया गया. फिर करीब साल भर बाद 11 जुलाई 2016 को अखिलेश सरकार ने 94 इन्सपेक्टरों को तरक्की देकर डीएसपी बनाए जाने की ‘विज्ञप्ति’ जारी कर कर दी. सरकार की इन हरकतों से सरकार का अपराध-भाव स्पष्ट हो गया. अखिलेश यादव ने अपने बेजा आदेश को बिना किसी व्यवधान के लागू कराने के लिए एके जैन के जाने के बाद विवादास्पद जगमोहन यादव को डीजीपी बनाया. जगमोहन यादव एक जुलाई 2015 को डीजीपी बने और 23 जुलाई 2015 को शासन का विवादास्पद आदेश जारी हो गया.

सियासत से नहीं, पुलिस का मनोबल मजबूत करने से रुकेगा अपराध
सपा और बसपा दोनों ने ही यूपी पुलिस को अपने-अपने राजनीतिक रंग में रंगने की कोशिश की. इसमें सपा अधिक तेज निकली, जिसने भर्तियां करके और तरक्कियां देकर पुलिस में अपनी ‘कतार’ खड़ी की. बसपा ने भी ऐसा किया, लेकिन कम किया. 2012 के विधानसभा चुनाव के पहले पुलिस में राजनीतिक-पक्षपात भरने के इरादे से सपा ने सारे पुलिसकर्मियों को उनके गृह जनपदों के नजदीक के जिले में तैनात करने का वादा किया था. सपा ने सरकार बनते ही यह वादा पूरा भी किया, लेकिन बंदायू बलात्कार कांड के कारण इस नियम को निलंबित करना पड़ा. इससे पुलिस में नाराजगी भी फैली. खैर, इस वर्ष के विधानसभा चुनाव के दरम्यान बसपा नेता मायावती ने वही वादा दोहराया और कहा कि बसपा की सरकार बनी तो पुलिसकर्मियों को उनके गृह जिले में तैनाती मिलेगी. इसके अलावा मायावती ने त्यौहारों पर ड्यूटी करने करने वाले पुलिसकर्मियों के लिए अलग से नगद भुगतान की व्यवस्था लागू करने की बात भी कही थी. दूसरी तरफ भाजपा पुलिस के राजनीतिकरण के खिलाफ बोल रही थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो यूपी पुलिस के थानों को सपा का कार्यालय तक कह दिया था. मोदी ने यह भी कहा था कि इसमें पुलिस वालों की गलती नहीं, बल्कि सत्ता का दबाव है. अब प्रदेश में भाजपा की सरकार है. प्रदेश के पुलिसकर्मियों के साथ हुई सत्ताई नाइंसाफियों को दूर करने और उनकी सुविधाओं का ख्याल करने की कोई चिंता इस सरकार में भी नहीं दिख रही है. उत्तर प्रदेश की लचर कानून व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की चिंता वाजिब तो है, लेकिन पुलिस का मनोबल मजबूत किए बगैर कानून व्यवस्था मजबूत थोड़े ही हो सकती है!

ऑउट ऑफ टर्न प्रमोशन के बदले विशेष भत्ता देने की योजना पर ग्रहण
ऑउट ऑफ टर्न प्रमोशन पर पाबंदी लगाने के बाद उत्तर प्रदेश के जांबाज पुलिसकर्मियों को विशेष भत्ता देकर पुरस्कृत करने की योजना बनी थी, लेकिन सरकार के विवादास्पद फरमान से यूपी पुलिस की इस विशेष योजना पर ग्रहण लग गया. योजना बनी थी कि साहस और शौर्य दिखाने वाले जांबाज पुलिसकर्मियों को एक हजार रुपए प्रतिमाह का विशेष भत्ता सेवा की अवधि तक दिया जाता रहेगा. इसके साथ ही हर साल 10 पुलिसकर्मियों को विशेष सम्मान के लिए चुन कर उन्हें मुख्यमंत्री प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित किए जाने की योजना थी. सराहनीय काम करने वाले 25 पुलिसकर्मियों में से प्रत्येक को 25 हजार रुपए का इनाम दिए जाने की भी योजना बनी थी. लेकिन सारी योजनाएं प्रमोशन के विवादास्पद आदेश के कारण छाया-क्षेत्र में चली गईं.

सब एक-दूसरे का पाप धोने और छुपाने में लगे हैं
जैसा ऊपर कहा कि भ्रष्टाचार के मसले पर सारे राजनीतिक दलों के बीच समझदारी है. जो सत्ता में आता है वह खाता है और पहले खाकर जा चुके को बचाता है. बसपा जब सत्ता में आई तब लोगों को लगा था कि मायावती तो मुलायम को किसी भी हाल में नहीं छोड़ेंगी. सपा के विरोध की तल्खी ने ही 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाया था. बसपा ने जो आश्वासन दिए थे उस अनुरूप कार्रवाई की उम्मीद थी, लेकिन मायावती ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया. मुलायम काल के ऐतिहासिक खाद्यान्न घोटाले का आखिरकार सत्यानाश ही हो गया. हालांकि मायावती ने 35 हजार करोड़ के खाद्यान्न घोटाले की सीबीआई जांच की सिफारिश की थी, लेकिन उसकी लीपापोती का भी उन्होंने ही रास्ता बना दिया. मुलायम के खाद्यान्न घोटाले को 2-जी स्कैम से बड़ा घोटाला बताया गया था, लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला. इसी तरह मुलायम के शासन काल में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण घोटाला हुआ था. मायावती सत्ता पर आईं तो तकरीबन डेढ़ सौ करोड़ के उस विद्युत घोटाले को दबा कर बैठ गईं. मुलायम काल में हुए पुलिस भर्ती घोटाले की भी जांच और कार्रवाई की तमाम औपचारिकताओं का मायावती ने प्रहसन खेला, लेकिन मुलायम के शासनकाल का बहुचर्चित पुलिस भर्ती घोटाला भी ढाक के तीन पात ही साबित हुआ.
वर्ष 2012 में जब समाजवादी पार्टी की सरकार आई तब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बसपाई उपकारों को याद रखा और बुआ के तमाम घोटालों पर पानी डाल दिया. चुनाव के पहले सपा नेता मायावती के तमाम घोटालों को जनता के बीच बेचते रहे, लेकिन सत्ता में आए तो खुद को बेच डालना श्रेयस्कर समझा. मायावती का स्मारक घोटाला, पत्थर घोटाला, पांच हजार करोड़ से भी अधिक का ऊर्जा घोटाला, ताज गलियारा घोटाला, जेपी समूह को हजारों करोड़ का बेजा फायदा पहुंचाने का प्रकरण सब का सब अखिलेश सरकार ने हजम कर लिया.
अब भाजपा की सरकार आई तो उसने समाजवादी पार्टी के तमाम घोटालों के साथ ही पांच साल काटने की प्रैक्टिस शुरू कर दी है. मुलायम कालीन पुलिस भर्ती घोटाला उजागर करने वाले पुलिस अधिकारी सुलखान सिंह को डीजीपी बना कर भी भाजपा उन्हें पंगु बनाए हुई है. वर्ष 2007 से पहले मुलायम सिंह के शासनकाल में जो कांस्टेबल भर्ती घोटाला हुआ था, उसके तार सीधे-सीधे शिवपाल यादव से जुड़े थे. रिश्वत लेकर जाति विशेष के अभ्यर्थियों को पुलिस की नौकरी दिए जाने की शिकायतों का अंबार लग गया था. 2007 में सत्ता में आई बसपा सरकार की मुखिया मायावती ने जांच कराने और हड़कंप मचाने के बावजूद पुलिस भर्ती घोटाले को कानूनी अंजाम तक नहीं पहुंचने दिया. भाजपा को भी घपले-घोटालों की पुरानी फाइलें खोलने में कोई रुचि नहीं है.

Thursday 14 September 2017

सेना को बर्बाद करने पर तुले हैं मोदी...

प्रभात रंजन दीन
सेना में बदलाव के बहाने केंद्र सरकार सेना की 25 हजार एकड़ बेशकीमती जमीन हथिया रही है. यह बड़े पूंजी-घरानों को दी जाएगी. जमीन छीनने के लिए सेना का मिलिट्री फार्म्स जैसा उपयोगी कोर बंद किया जा रहा है. मिलिट्री फार्म्स से सेना को बड़े पैमाने पर अनाज और लाखों लीटर शुद्ध दूध प्राप्त होता था. सैनिकों को मुफ्त मिलने वाला राशन बंद करने के बाद अब दूध भी बंद किया जा रहा है. राष्ट्रवाद बेचने वाली भाजपा सरकार इन्हीं तौर-तरीकों से भारतीय सेना को मजबूत बना रही है.
मोदी सरकार ने देश की सेना को तीसरे दर्जे का बना कर रख दिया है. सेना के पास गोला-बारूद की भारी कमी है. स्तरीय हथियार नहीं हैं. युद्ध उपकरण नहीं हैं. सीधा युद्ध हुआ तो 10 दिन से अधिक लड़ने की आयुध-औकात नहीं है, जो आयुध हैं भी उसका रख-रखाव अत्यंत फूहड़ है जो पुलगांव हादसे की तरह कभी भी भीषण विध्वंस में बदल सकता है, इसकी लगातार आपराधिक-उपेक्षा करने वाली केंद्र सरकार कहती है कि ढांचागत बदलाव करके सेना की युद्धक-क्षमता बढ़ाएंगे. 30 अगस्त की घोषणा केंद्र सरकार का सफेद झूठ है. दरअसल भाजपा नेताओं की निगाह भारतीय सेना के अधिकार क्षेत्र की करीब 25 हजार एकड़ भूमि पर है. हजारों एकड़ बेशकीमती जमीन छीनने के लिए सरकार ने सेना के ढांचागत परिवर्तन की पैंतरेबाजी की है. सेना से बहुमूल्य जमीन छीन कर उसे बड़े उद्योगपतियों और धनपतियों को दिए जाने की तैयारी है. इसका खुलासा होने में भी अब अधिक देर नहीं है. बुधवार 30 अगस्त को रक्षा मंत्री (जो अब पूर्व हो चुके) अरुण जेटली ने उसी दिन हुई केंद्रीय कैबिनेट की बैठक का हवाला देते हुए मीडिया से कहा कि सेना में ढांचागत बदलाव को लेकर लेफ्टिनेंट जनरल डीबी शेकतकर कमेटी की सिफारिशें मंजूर कर ली गई हैं. इस फैसले की धुरि में सेना के 39 कृषि फार्मों (मिलिट्री फार्म्स) की करीब 25 हजार एकड़ जमीन का अधिग्रहण करने की नीयत छुपी है. मिलिट्री फार्म्स की हजारों एकड़ बेशकीमती जमीन छीन कर सेना की युद्धक क्षमता कैसे बढ़ाएंगे? इस सवाल पर अगर आप मंथन करें तो इसके पीछे की पूंजीगत-साजिशों के तार साफ-साफ दिखने लगेंगे. आप इसी से समझ लें कि केंद्रीय कैबिनेट 30 अगस्त को निर्णय लेती है और उसी दिन जेटली इसका ऐलान करते हैं, जबकि पर्दे के पीछे की असलियत यह है कि मिलिट्री फार्म्स की जमीनों को जब्त करने की कार्रवाई कई महीने पहले शुरू कर दी गई थी. मिलिट्री डेयरियों की गायों को नीलाम करने की प्रक्रिया कई महीने पहले से शुरू थी. सेनाध्यक्ष को पहले ही बता दिया गया था. सरकार के फैसले की आधिकारिक घोषणा के पहले ही मिलिट्री फार्म्स की जमीनें जब्त करने की कार्रवाइयां शुरू हो गई थीं. ऐसी क्या जल्दीबाजी थी अरुण जेटली जी! मिलिट्री फार्म्स की जमीनें लेकर और सैनिकों को मिलने वाला लाखों लीटर दूध छीनकर आप भारतीय सेना की युद्धक क्षमता बढ़ा रहे थे या कोई और ‘असैनिक-क्षमता’ विकसित करने की आपाधापी में लगे थे! कहीं इसी आपाधापी और जल्दीबाजी के कारण तो नहीं आपका रक्षा मंत्री का पद हाथ से निकल गया! खैर, देश के 39 मिलिट्री फार्म्स में जो उन्नत नस्ल की हजारों गायें पलती हैं, उन्हें धड़ाधड़ नीलाम करने की प्रक्रिया चल रही है. गौरक्षा के नाम पर देशभर में माहौल खराब करने वाली पार्टी के सत्ता अलमबरदार यह बता दें कि सेना की उन्नत नस्लों की गायों को नीलाम कर उन्हें किन सक्षम हाथों में देंगे और उन गायों की जहालत के लिए कौन जिम्मेदार होगा? केंद्र सरकार इस सवाल का जवाब नहीं देगी और गौरक्षक भी अपनी सरकार से यह सवाल नहीं पूछेंगे. भाजपाई राष्ट्रवाद और गोरक्षा की यही कुरूप असलियत है.
शेकतकर कमेटी की सिफारिशों का सबसे विवादास्पद पहलू है सेना के 39 मिलिट्री फार्म्स को बंद कर देने का सुझाव और उस पर केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली त्वरित मंजूरी. उससे भी अधिक संदेहास्पद है सरकारी मंजूरी के पहले ही जमीन जब्ती की कार्रवाई का गुपचुप तरीके से शुरू हो जाना. केंद्र के इस फैसले का बहुत बुरा खामियाजा भारतीय सेना को आने वाले समय में भुगतना पड़ेगा. भारतीय सेना के कृषि फार्म्स अहमदनगर, ग्वालियर, जबलपुर, सिकंदराबाद, बेलगावी, महू, झांसी, दीमापुर, गुवाहाटी, जोरहाट, पानागढ़, कोलकाता, अम्बाला, जलंधर, आगरा, पठानकोट, इलाहाबाद, लखनऊ, सीतापुर, कानपुर, रानीखेत, जम्मू, श्रीनगर, करगिल और ऊधमपुर समेत देश के कई हिस्सों में हैं. 25 हजार एकड़ वाले कुल 39 मिलिट्री फार्म्स में करीब 50 हजार उच्च नस्ल की दुधारू गायों के अलावा हजारों अन्य पशु पलते हैं. इसी में सेना के डेयरी फार्म भी हैं जो सैनिकों के लिए दूध एवं अन्य दुग्ध सामग्रियां उपलब्ध कराते हैं. मिलिट्री फार्म्स की देखरेख में करीब तीन सौ करोड़ का खर्च आता है, जबकि उससे कई गुणा अधिक कमाई मिलिट्री फार्म्स में होने वाली खेती से होती है. विडंबना यह है कि शेकतकर कमेटी की सिफारिशों को मंजूरी देने की कैबिनेटी-नौटंकी अगस्त महीने की आखिरी तारीख में हुई, जबकि उसके काफी पहले ही मिलिट्री फार्म्स को बंद करने की कार्रवाई शुरू कर दी गई थी. 15 अगस्त के पहले ही देश के 12 मिलिट्री फार्म्स बंद किए जा चुके थे. शेष 27 मिलिट्री फार्म्स को बंद करने की प्रक्रिया सरकारी मंजूरी के प्रहसन के पहले से ही शुरू है. केंद्र सरकार की नैतिकता का क्या स्तर है यह इस तथ्य से ही समझ में आ जाएगा कि देश में उन्नत नस्ल की फ्रीसवाल गायें विकसित करने का श्रेय मिलिट्री फार्म्स महकमे को जाता है. मिलिट्री फार्म्स महकमे के वेटनरी विशेषज्ञों ने नीदरलैंड की होल्सटीन-फ्रीसियन गायों और साहीवाल गायों के मेल से उन्नत किस्म की गायें विकसित की थीं, जिन पर दुनियाभर के पशु-विशेषज्ञों को हैरत हुई थी. बेहतरीन डेयरी मैनेजमेंट करने और सेना को शुद्ध दूध मुहैया करने की सुनियोजित व्यवस्था के लिए संयुक्त राष्ट्र भारतीय सेना की प्रशंसा कर चुका है. ऐसे ही गौरवशाली और ऐतिहासिक महकमे को केवल जमीन हथियाने की गरज से बंद किया जा रहा है. सैनिकों को फ्री-राशन की व्यवस्था बंद करने के बाद राष्ट्रवादी भाजपा सरकार ने सैनिकों को मिलने वाले शुद्ध दूध का रास्ता भी बंद कर दिया है. मिलिट्री डेयरी फार्मों से सालाना करीब पांच सौ लाख किलो दूध का उत्पादन हो रहा था.
उल्लेखनीय है कि भारतीय सेना का सबसे पहला मिलिट्री फार्म वर्ष 1889 में यूपी के इलाहाबाद में स्थापित किया गया था. इसके बाद यह देश के अन्य हिस्सों में विस्तृत हुआ. इलाहाबाद मिलिट्री फार्म की डेयरी में फ्रीसवाल प्रजाति की करीब हजार गायें हैं, जिनकी कीमत करीब साढ़े तीन सौ करोड़ रुपए है. दो सौ से अधिक कर्मचारी और मजदूर इस डेयरी में गायों की देखरेख करते हैं. यही इनकी आजीविका का साधन भी है. इलाहाबाद का मिलिट्री फार्म और डेयरी करीब 700 एकड़ जमीन पर फैला है. अकेले इलाहाबाद की डेयरी से प्रतिवर्ष करीब 15 लाख लीटर से अधिक दूध का उत्पादन होता है. डेयरी बंद करने के केंद्र सरकार के आदेश से कर्मचारियों में काफी गुस्सा है. सरकार के इस फैसले के खिलाफ अगस्त महीने में ही कर्मचारियों ने सड़क पर उतर कर प्रदर्शन भी किया था.
उधर, कर्नाटक में भी केंद्र के इस फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया है. बंगलुरू में श्रीराम सेना नामक संगठन ने आंदोलन का बिगुल फूंका और जोरदार प्रदर्शन से इसकी शुरुआत की. बेलगावी के मिलिट्री फार्म को बंद करने के फैसले के खिलाफ व्यापक जन-आंदोलन की मुनादी की गई. श्रीराम सेना के अध्यक्ष प्रमोद मुतालिक ने कहा कि केंद्र सरकार का यह फैसला देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है, सैनिकों को दूध से वंचित करने का अपराध राष्ट्रद्रोह जैसा गंभीर अपराध है. प्रदर्शनकारियों ने रक्षा मंत्री (अब पूर्व) अरुण जेटली के खिलाफ जोरदार नारे लगाए और उन पर भूमाफियाओं के इशारे पर काम करने का आरोप लगाया. बेलगावी का मिलिट्री फार्म डेढ़ सौ एकड़ में विस्तृत है. वहां उन्नत नस्ल की सात सौ गायें हैं. तीन हजार लीटर दूध रोजाना निकलता है जो मराठा लाइट इन्फैंट्री रेजिमेंटल सेंटर में ट्रेनिंग प्राप्त करने वाले सैनिकों को मुहैया होता है.

एक तरफ आयुध की कमी, दूसरी तरफ तबाही को न्यौत रहे आयुध डीपो
अभी हाल ही सेना पर महालेखाकार (कैग) की रिपोर्ट संसद के पटल पर रखी गई थी. यह ऑडिट रिपोर्ट नहीं, भारतीय सेना की असलियत उजागर करने वाली खौफनाक स्टेटस-रिपोर्ट है. सेना की जमीनों पर नजर गड़ाए सत्ताधीशों ने कैग की रिपोर्ट को तवज्जो नहीं दी. सरकार ने महत्व नहीं दिया तो मीडिया ने भी थोड़ी-थोड़ी खबर छापकर, दिखाकर औपचारिकता पूरी कर ली. आप तसल्ली से पूरी रिपोर्ट पढ़ें तो आपका दिमाग खराब हो जाएगा कि किन सड़ी हुई विषम स्थितियों में हमारे सैनिक सेना की नौकरी कर रहे हैं! पूरी सेना भीषण आंतरिक विस्फोट के दहाने पर बैठी है. यह बात संकेत में नहीं, बल्कि सीधे और स्पष्ट तौर पर कही जा रही है कि सैनिकों को सीमा पर शत्रु सैनिकों से उतना खतरा नहीं, जितना अंदरूनी खतरों से है. पुलगांव (महाराष्ट्र) स्थित भारतीय सेना के सबसे बड़े आयुध डिपो में 31 मई 2016 को भीषण विस्फोट के कारण हुए भयावह अग्निकांड में दो आला सेनाधिकारियों समेत 20 फौजियों की दर्दनाक मौत के बाद भी रक्षा मंत्रालय की आंख नहीं खुल रही. पुलगांव में सेंट्रल ऑर्डनेंस डिपो हादसे में डेढ़ सौ टन से अधिक गोला-बारूद स्वाहा हो गया. 71 सौ एकड़ में फैले पुलगांव आयुध डिपो हथियारों के लिहाज से सेना का सबसे संवेदनशील केंद्र है, जहां साधारण गोलियों से लेकर हर तरह के गोला-बारूद और ब्रह्मोस मिसाइलें तक रखी हैं. पुलगांव से ही देशभर में फैले 14 सैन्य डिपो को आयुध की सप्लाई होती है. लेकिन पुलगांव समेत किसी भी आयुध डिपो में सुरक्षा मानकों का पालन नहीं होता. तिरपाल से ढंके शेड में खतरनाक आयुध रखे हुए हैं. सेना आज भी साधारण वाहनों से गोला-बारूद ढो रही है.
सेना के शीर्ष कमांड से लेकर रक्षा मंत्रालय तक को बार-बार आगाह किया जा रहा है कि सेना की बड़ी संरचनाएं किसी भी समय भयंकर हादसे का शिकार होकर ध्वस्त हो सकती हैं. ऐसा तब है जब गोला-बारूद की भारी कमी से भारतीय सेना जूझ रही है और दो शत्रु देशों से तनातनी चल रही है. सैन्य नियम के मुताबिक सेना के पास हर समय इतना गोला-बारूद होना चाहिए कि लड़ाई छिड़ने की हालत में औसतन 40 दिन तक काम चलता रहे. लेकिन सीएजी की रिपोर्ट आधिकारिक तौर पर यह खुलासा करती है कि सेना के पास ‘न्यूनतम स्वीकार्य जोखिम स्तर’ तक का गोला-बारूद नहीं है. बस इतना है कि युद्ध होने पर उसे किसी तरह मारक तौर पर 10 दिन और खींचतान कर 20 दिन तक ले जाया जा सकता है. दुखद तथ्य यह है कि गोला-बारूद रिजर्व का यह न्यूनतम स्तर भी लगातार बना कर नहीं रखा जा रहा है. सरकार इस तरफ देख ही नहीं रही. सेना के शीर्ष कमांडर नेतागीरी में मस्त हैं और सत्ता पर बैठे शीर्ष नेता सेना की जमीनें छीनने की तिकड़म रचने में व्यस्त हैं. भीषण खतरनाक स्थितियों में सेना के काम करने की स्थिति शेकतकर कमेटी के अध्ययन में भी कहीं शामिल नहीं है.
शेकतकर कमेटी की सिफारिशें और उसकी सरकारी मंजूरी दोनों ही दुखद हैं. मिलिट्री फार्म्स की जमीनें छीन कर वहां काम करने वाले सैन्य कर्मचारियों को अब युद्धक इकाइयों में भेजा जाएगा. ऐसे अप्रशिक्षत सैन्यकर्मी ‘कॉम्बैट फोर्स’ का मनोबल बढ़ाएंगे या वहां भीड़ बढ़ाएंगे! लेफ्टिनेंट जनरल शेकतकर कमेटी की रिपोर्ट ऐसे कई गंभीर सवालों के घेरे में है. कमेटी ने सेना में सुधार को लेकर जो सिफारिशें की हैं उसमें सेना आयुध कोर के नाकारेपन को दूर करने को लेकर कोई सुझाव नहीं है. रक्षा खरीद नीति में सम्पूर्ण बदलाव की जरूरत कमेटी की सिफारिशों में कहीं शामिल नहीं है. सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि रक्षा खरीद बोर्ड की अध्यक्षता सेना के तीनों अंगों के अध्यक्षों को करनी चाहिए, न कि रक्षा सचिव को. बेवकूफाना रक्षा खरीद नीति के कारण ही रक्षा खरीद में तमाम व्यवधान खड़े होते हैं. शेकतकर कमेटी ने युद्ध के लिए जरूरी वार-वेस्ट-रिजर्व बढ़ाने और उसे पुख्ता रखने का भी कोई सुझाव नहीं दिया है. स्थिति यह है कि वार-वेस्ट-रिजर्व बढ़ने के बजाय तेजी से घट रहा है.
भारतीय सेना की मौजूदा युद्धक क्षमता संख्याबल के हिसाब से काफी कमजोर है. शेकतकर कमेटी की सिफारिशों का हास्यास्पद पहलू है कि गैर-लड़ाकू महकमों में काम कर रहे सैन्यकर्मियों को लड़ाकू महकमों में तैनात करने का प्रस्ताव दे दिया गया और उसे सरकार ने मंजूर भी कर लिया. जो सैनिक पहले से लड़ाकू महकमों में तैनात हैं, उनके पास स्तरीय हथियार और जरूरी गोला-बारूद नहीं हैं, उन्हें मिलिट्री-स्टैंडर्ड के मुताबिक सशस्त्र करने के बजाय अलग से गैर ऑपरेशनल भीड़ को लड़ाकू दस्तों के साथ ‘खोंसने’ का बेवकूफाना सुझाव देकर शेकतकर कमेटी ने भारतीय सेना को हास्यास्पद स्थिति में डाल दिया है. अनिवार्य शस्त्र-सज्जा के बगैर सैनिकों को लाइन ऑफ कंट्रोल पर बिठा दिया जाए तो वह क्या उखाड़ लेंगे? इस स्वाभाविक सवाल पर न तो शेकतकर कमेटी ने ध्यान दिया और न केंद्र सरकार को इस तरफ ध्यान देने की कोई चिंता है. लेफ्टिनेंट जनरल शेकतकर ने जवानों से अफसरों की बेगारी कराए जाने के ‘चलन’ को समाप्त करने का सुझाव क्यों नहीं दिया? ‘नॉन-कॉम्बैट’ ड्यूटी से निकाल कर 57 हजार सैन्यकर्मियों को ‘कॉम्बैट’ ड्यूटी में झोंक कर 25 हजार करोड़ रुपए बचाने की जुगत बताने वाले लेफ्टिनेंट जनरल शेकतकर बैट-मैन (आम बोलचाल की भाषा में कमीशंड अफसरों के घरेलू नौकर) के काम में लगे हजारों फौजियों को ‘नरक’ से मुक्त करने की सिफारिश नहीं करते.
लेफ्टिनेंट जनरल शेकतकर एक शीर्ष सेनाधिकारी के नजरिए से भारतीय सेना में सुधार के उपायों का अध्ययन नहीं कर रहे थे, बल्कि उनकी रिपोर्ट देखें तो साफ लगेगा कि वे एक ऑडिटर की तरह काम कर रहे थे. शेकतकर कमेटी ने 188 सिफारिशें (रिकोमेंडेशंस) की हैं. ये सब की सब सैन्य दृष्टिकोण से खारिज करने योग्य हैं. केंद्र सरकार ने इनमें से 99 सिफारिशें मान लीं. इन 99 सिफारिशों में थलसेना, वायुसेना और नौसेना तीनों में सुधार के बेमानी मसले शामिल हैं. इनमें से 65 सिफारिशों पर आनन-फानन काम शुरू हो चुका. रक्षा मंत्री अरुण जेटली चालाक व्यक्ति हैं. उन्होंने रक्षा मंत्रालय के ढांचे को पुनर्गठित किए जाने की शेकतकर कमेटी की सिफारिश पर कोई ध्यान नहीं दिया. शेकतकर कमेटी ने सेना में रिसर्च एंड डेवलपमेंट में सुधार और आवश्यक ढांचागत फेरबदल के महत्वपूर्ण आयाम की तरफ ध्यान नहीं दिया, जबकि यह क्षेत्र सेना की ‘कॉम्बैट’ क्षमता मजबूत करने के लिए सबसे जरूरी है. ‘कॉम्बैट’ क्षमता का मतलब ही होता है शत्रु के मुकाबिल समानान्तर खड़े होने, उसे चुनौती देने और उससे युद्ध लड़ने में सक्षम होना. ‘नॉन-कॉम्बैट’ महकमों में तैनात सैन्यकर्मियों की ‘कॉम्बैट’ क्षमता क्या होगी उसकी हम अभी ही कल्पना कर सकते हैं. हमारे जो सैनिक ‘कॉम्बैट’ इकाइयों में तैनात हैं, उनके पास हमारी सरकार ने कौन से हथियार दे रखे हैं! हमारे सैनिकों के पास मुश्किल से एक किलोमीटर मार करने वाली थकी हुई ‘इन्सास’ राइफलें हैं. जबकि शत्रुओं के पास कम से कम दो किलोमीटर की मारक क्षमता वाली ‘कॉम्बैट-रेडी’ राइफलें हैं. देश को दो तरफ से घेरने वाली शत्रु सेनाएं अन-आर्म्ड व्हेकिल्स (यूएवी), एम-4 असॉल्ट राइफल्स, अत्याधुनिक ग्लॉक मॉडल-19 की पिस्तौलें, सिरैमिक प्लेटों वाली अभेद्य बुलेट प्रूफ जैकेट्स, बॉडी आर्मर, सैटेलाइट फोन्स, जीपीएस ट्रैकर्स समेत कई अन्य अत्याधुनिक साजो-सामान से लैस हैं. भारतीय सेना को इन जरूरतों से हीन रखा गया है. लड़ाकू सेना की यह पहली आधारभूत अनिवार्यता है, लेकिन इस पर रक्षा मंत्रालय कोई ध्यान नहीं दे रहा. शेकतकर कमेटी ने भी इस तरफ आंखें मूंदे रखीं. नाकारा रक्षा मंत्रालय ने देश की आयुध फैक्ट्रियों के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया. नतीजतन आज यह स्थिति है कि हम अपने लिए जरूरी गोला-बारूद भी नहीं बना पा रहे. अत्याधुनिक शस्त्रों की तो बात ही छोड़िए. सैन्य उपकरणों के उत्पादन की भी बात छोड़िए, जो उपकरण हमारे पास हैं, उनके रख-रखाव का हाल यह है कि ऑर्डनेंस डिपो कूड़े और मलबे का ढेर बन चुके हैं. आयुध महकमा भीषण भ्रष्टाचार का अड्डा बना हुआ है. घोर अराजकता है, अयोग्यता है और गैर-जिम्मेवारी है, लेकिन रक्षा मंत्रालय मस्त है. आयुध फैक्ट्रियां अरबों रुपए का नुकसान कर रही हैं, लेकिन यह शेकतकर को नहीं दिखता. देश की आयुध फैक्ट्रियां भारतीय सेना की ‘कॉम्बैट’ क्षमता को घुन की तरह खाकर खोखला कर रही हैं, फिर भी सरकार के साथ-साथ हमारे सेनाध्यक्ष बयान देते रहते हैं कि हम एक साथ चीन से भी भिड़ लेंगे और पाकिस्तान से भी. देश की सुरक्षा का इन लोगों ने मजाक बना रखा है.
करगिल युद्ध के बाद भी केंद्र सरकार ने सुब्रमण्यम कमेटी का गठन किया था, लेकिन उनकी सिफारिशें कूड़े के डिब्बे में डाल दी गईं. फिर भाजपा सरकार ने शेकतकर कमेटी का गठन किया, लेकिन उसकी भी सिफारिशों से अपने मतलब का हिस्सा चुनकर उसे कूड़े के डिब्बे में डाल दिया. आईएएस अफसरों और नेताओं के कुप्रभाव से जब तक रक्षा मंत्रालय मुक्त नहीं होगा, भारतीय सेना का तबतक कोई सुधार नहीं हो सकता. लेफ्टिनेंट जनरल शेकतकर के मन में जनरल नहीं बन पाने का मलाल है. कदाचित इसीलिए उन्होंने सेनाध्यक्षों का मान कम करने वाली सिफारिशें कीं और केंद्र को सुझाव दे डाला कि सेना के तीनों अंगों से जुड़े मसलों पर रक्षा मंत्रालय में बैठे असैनिक नौकरशाहों (आईएएस) नेताओं और तीनों सेनाध्यक्षों से समन्वय स्थापित करने के लिए चार सितारा जनरल का अलग से पद कायम किया जाए. यानि, चार सितारा जनरल सारे निर्णय तय करने लगें तो बाकी तीन सेनाध्यक्ष अपने आप ही ढक्कन हो जाएंगे. सैन्य विशेषज्ञ कहते हैं कि शेकतकर कमेटी की रिपोर्ट सैन्य ढांचे में बदलाव की नहीं, बल्कि असैनिक और अप्रशिक्षित तत्वों की घुसपैठ का रास्ता खोलने वाली रिपोर्ट है.

जो गोला-बारूद मिल रहे हैं वे भी घटिया स्तर के...
भारतीय सेना एक तरफ गोला-बारूद की भारी कमी से जूझ रही है तो दूसरी तरफ उसे जो गोला-बारूद मिल रहे हैं वह भी घटिया स्तर के हैं. यह आधिकारिक तथ्य है. देश के आयुध फैक्ट्री बोर्ड की तरफ से मिलने वाले घटिया गोला-बारूद को ठीक करने के बारे में वर्ष 2013 से लगातार लिखा जा रहा है, लेकिन इसमें कोई सुधार नहीं किया गया. सेना की जरूरत के मुताबिक गोला-बारूद का उत्पादन भी नहीं किया जा रहा. अधिकांश गोला-बारूद और उपकरण खारिज कर वापस भेज दिए जा रहे हैं, लेकिन उन्हें भी सुधार कर वापस नहीं भेजा जा रहा है. यह स्थिति आज तक (खबर लिखे जाने तक) कायम है. आयुध भंडारों की स्थिति सोमालिया जैसे अराजक देशों की अराजक स्थिति की याद दिलाती है. ये कभी भी धमाकों में तब्दील हो सकते हैं. पुलगांव स्थित देश का सबसे बड़ा आयुध डिपो 2016 में तबाह हो चुका है. पिछले ही साल मार्च महीने में जबलपुर के निकट खमरिया आर्डनेंस फैक्ट्री में डंप पड़े 20 साल पुराने गोला-बारूद में भी आग लगने से सिलसिलेवार धमाके हुए और डिपो जल कर खाक हो गया. करीब तीन दर्जन धमाके हुए थे जिसमें कई इमारतें जल कर नष्ट हो गई थीं. चार किलोमीटर तक के दायरे में नुकसान हुआ था.
इस हादसे के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी खतरनाक सैन्य आयुधों के बेजा रखरखाव पर चिंता जाहिर की थी और रक्षा मंत्रालय से जवाब-तलब किया था. आयोग ने रक्षा मंत्रालय से कहा था कि खमरिया डिपो में भारी मात्रा में अनुपयोगी और अस्वीकृत आयुधों के डंप होने से पूरे जबलपुर शहर को खतरा है. खमरिया ऑर्डनेंस फैक्ट्री में पहले भी कई बार विस्फोट हो चुके हैं. लेकिन आयोग के इस सरोकार का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा और अब भी सब वैसा ही चल रहा है. पुलगांव सेंट्रल ऑर्डनेंस डिपो वर्ष 2005 में भी भीषण अग्निकांड का शिकार हुआ था. ऐसे हादसों की कतार लगी है. वर्ष 2000 में भरतपुर के आयुध डिपो में भयंकर आग लगी थी. एक साल बाद ही वर्ष 2001 में पठानकोट और गंगानगर के आयुध डिपो में करोड़ों का गोला-बारूद जलकर खाक हो गया. फिर अगले साल 2002 में दप्पर और जोधपुर के आयुध डिपो में आग लगी. वर्ष 2007 में कुंदरू के आयुध डिपो और 2010 में पानागढ़ के आयुध डिपो में भीषण अग्निकांड हुआ. 8 दिसम्बर 2015 को विशाखापत्तनम में नौसेना के हथियार डिपो में भीषण आग लगी थी. सेना के विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्ष 2000 से देशभर के हथियार डिपो में हुए धमाकों और अग्निकांडों की वजह से पांच हजार करोड़ से अधिक का नुकसान हो चुका है. अफसर और जवानों की मौत का नुकसान उसके अतिरिक्त है. इन हादसों से रक्षा मंत्रालय ने कोई सीख नहीं ली और आयुध डिपो आज तक वैसे ही लचर हालत में पड़े हैं. देश का केंद्रीय गोला-बारूद डिपो पुलगांव में है. इसके अलावा बठिंडा, डप्पर और भरतपुर में तीन बड़े गोला-बारूद डिपो हैं. देश में छह आयुध फैक्ट्रियां चांदा, बडमल, खमरिया, देहू रोड, किरकी और वारंगांव में हैं. इसके अलावा गोला-बारूद भरने और अन्य रक्षा उत्पाद बनाने वाली ऑड्रनेंस फैक्ट्रियां अम्बाझारी, काशीपुर, कानपुर, कटनी और इटारसी में हैं. आयुध डिपो और आयुध फैक्ट्रियों की देखरेख की जिम्मेदारी आयुध निर्माणी बोर्ड (ओएफबी) की है. उत्पाद की गुणवत्ता (क्वालिटी) की निगरानी किरकी स्थित गुणवत्ता आश्वासन नियंत्रणालय करता है. इस व्यवस्था के बावजूद सब कुछ लचर और अराजक स्थिति में है. पुलगांव सेंट्रल ऑर्डनेंस डिपो की खराब हालत और हादसे की आशंका के बारे में रक्षा मंत्रालय को बार-बार आगाह किया जा रहा था. इसमें खतरनाक बात यह थी कि डिपो में रखी उच्च विस्फोटक बारूदी सुरंगों (माइन्स) से ट्राइनाइट्रोटोल्यून (टीएनटी) जैसा खतरनाक रसायन लगातार रिस रहा था. इस तरफ रक्षा मंत्रालय का बार-बार ध्यान दिलाया जा रहा था. रक्षा मंत्रालय पुलगांव हादसे में मारे गए दो अफसरों समेत 20 फौजियों की ‘हत्या का दोषी’ है, क्योंकि मास्टर जनरल ऑफ ऑर्डनेंस ने भी रक्षा सचिव को इस खतरे के बारे में जुलाई 2011 को ही आधिकारिक तौर पर सूचित करते हुए अविलंब एहतियाती बंदोबस्त करने के लिए कहा था. लेकिन रक्षा सचिव (आईएएस अफसर) उस फाइल पर कुंडली मारे बैठे रह गए और 2016 में भीषण हादसा हो गया. 31 मई 2016 को दुर्घटना होने तक रक्षा मंत्रालय खतरनाक आयुधों के अनुरक्षण का कोई उपाय नहीं कर सका था और वही स्थिति आज भी बनी हुई है.

नदारद है मिसाइल सक्रिय करने वाला फ्यूज, रक्षा मंत्रालय कन्फ्यूज
भारतीय सेना के बख्तरबंद लड़ाकू वाहनों (एएफबी) और आर्टिलरी (तोपखाना) के इस्तेमाल आने वाले उच्च क्षमता के गोला-बारूदों की उपलब्धता तो न्यूनतम स्वीकृत जोखिम स्तर (मिनिमम एक्सेप्टेबल रिस्क लेवल) तक का भी नहीं है. उच्च क्षमता वाले 170 प्रकार के गोला-बारूदों में 125 प्रकार के गोला-बारूदों की उपलब्धता न्यूनतम स्वीकृत जोखिम स्तर के काफी नीचे है. यानि, भारतीय सेना में उच्च स्तर के गोला-बारूदों की 74 प्रतिशत कमी है, जो 10 दिन के युद्ध के लिए भी कम है. सैन्य मानक के मुताबिक 10 दिनों से कम के गोला-बारूद की उपलब्धता चिंताजनक मानी जाती है. विचित्र बात यह है कि तोपखानों और टैंकों में इस्तेमाल आने वाले उच्च क्षमता वाले गोला-बारूदों को एक्टिवेट करने वाले फ्यूज की सप्लाई भी जरूरत के मुताबिक नहीं हो रही है. सेना के आर्टिलरी रेजिमेंट में तोपखानों में लगने वाले फ्यूज की कमी 89 प्रतिशत पाई गई. कैग ने भी इसे चिंताजनक कहा है. फ्यूज के बिना गोले और मिसाइलें फायर ही नहीं हो सकतीं. फ्यूज की कमी की मुख्य वजह यह भी है कि अहमक अधिकारियों ने फ्यूज की उपलब्धता सुनिश्चित किए बगैर मेकैनिकल फ्यूज की जगह इलेक्ट्रॉनिक फ्यूज इस्तेमाल करने का फरमान जारी कर दिया. भारतीय इलेक्ट्रॉनिक निगम लिमिटेड (ईसीआईएल) इसकी सप्लाई नहीं कर पाया. इस बीच अगर युद्ध छिड़ जाए तो तोपखाने केवल डंडी दिखाते नजर आएंगे. फ्यूज की उपलब्धता नहीं होने के कारण 83 प्रतिशत उच्च क्षमता वाले गोला-बारूद सेना के इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं. सेना के प्रशिक्षण में काम आने वाले गोला-बारूद की भी भारी कमी है. आपको यह जानकर हैरत होगी कि इस कमी के कारण सैनिकों की गोला-बारूद की ट्रेनिंग वर्षों से बंद पड़ी हुई है. सेना की विशेषज्ञता पर इसका बहुत बुरा असर पड़ रहा है. देश की आयुध फैक्ट्रियां गोला-बारूद का उत्पादन नहीं कर पा रहीं और रक्षा मंत्रालय पर काबिज नौकरशाह गोला-बारूद आयात करने की प्रक्रिया में अड़ंगे डाले रहते हैं. सेना के दस्तावेज बताते हैं कि गोला-बारूद की कमी के बावजूद इसे आयात कर कमी को पूरा नहीं किया गया. वर्ष 2013 से लेकर आज तक गोला-बारूद आयात नहीं किया गया. जबकि सरकार लगातार यह कहती रही है कि सेना की जरूरतें पूरी की जा रही हैं.

उपयोगी गोला-बारूद नदारद, खारिज आयुधों का जमा हो रहा पहाड़
भारत सरकार की अजीबोगरीब चाल है. देश की सेना को गोला-बारूद और जरूरी सैन्य साजो-सामान मुहैया नहीं कराए जा रहे हैं, लेकिन आयुध भंडारों में खारिज गोला-बारूद और आयुधों का पहाड़ जमा होता जा रहा है. यही आयुध विध्वंसक घटनाओं की वजह बनते हैं, लेकिन सरकार इसके निपटारे का कोई उपाय नहीं करती. इसके बजाय तू-तू-मैं-मैं और एक-दूसरे के सिर टोपी डालने की ओछी हरकतों में लगी रहती है. सेना के आधिकारिक दस्तावेज बताते हैं कि देश के विभिन्न आयुध डिपो में 1617.94 करोड़ के गोला-बारूद डंप पड़े हैं जिन्हें तकनीकी त्रुटियों के कारण अस्वीकृत कर दिया गया था. इन खारिज गोला-बारूदों में 13 किस्म के खतरनाक आयुध हैं. रक्षा मंत्रालय न इनकी तकनीकी खामियां ठीक करा रहा है और न इसे निपटा रहा है. जो अस्वीकृत गोला-बारूद मरम्मत के लायक हैं उसे भी बनाने में वर्षों से टाल-मटोल हो रहा है. सरकार का शोहदापन देखिए कि वर्ष 2009 से आज तक से गोला-बारूद और आयुध डंप पड़े हुए हैं. इसी प्रसंग में 7.62 एमएम बेल्टेड एम्युनिशन की साढ़े चार करोड़ गोलियों (राउंड्स) के डंप होने का एक ऐसा मामला उजागर हुआ है जो काम के लायक था, लेकिन उसे निर्धारित अवधि के पहले ही खारिज कर किनारे कर दिया गया. उन गोलियों का उत्पादन वर्ष 2009 से 2011 के बीच वारंगांव आयुध फैक्ट्री में हुआ था. इनकी कीमत उस वक्त ही 129.26 करोड़ रुपए थी. उसकी सक्रियता 18 वर्ष निर्धारित थी, लेकिन निर्धारित ‘लाइफ’ के काफी पहले ही उसे डी-ग्रेड कर खारिज कर दिया गया जिससे करोड़ों का नुकसान हुआ. ऐसे गोला-बारूद भारी मात्रा में देश के विभिन्न आयुध डिपो में डंप पड़े हुए हैं, जो कभी भी हमारे ही विध्वंस का कारण बन सकते हैं.

एक जनरल ने असली राष्ट्रभक्ति दिखाई तो उसे कितना बेजार किया!
देश के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने राष्ट्र की चिंता में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आयुधों और सैन्य उपकरणों की कमी के बारे में आगाह करते हुए पत्र लिख दिया तो नेताओं, नौकरशाहों और पत्रकारों ने गिरोह बना कर उनका विरोध किया और उन्हें बेजार करके रख दिया. लेकिन आखिरकार आधिकारिक तौर पर वही साबित हुआ जिसकी चिंता में जनरल वीके सिंह ने पीएम को पत्र लिखा था. आप फिर से याद करते चलें कि तत्कालीन थलसेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कहा था कि सेना में गोला-बारूद की भारी कमी है. टैंक रेजीमेंट और आर्टिलरी (तोपखाना रेजिमेंट) बेहद जरूरी गोला-बारूद की कमी से जूझ रहा है. पैदल सेना के पास हथियारों की भीषण कमी है. वायुसेना के साजो-समान अपनी ताकत खो चुके हैं. जरूरत वाले सारे प्रमुख हथियारों और उपकरणों की हालत बहुत खस्ता है. इनमें मैकेनाइज्ड सेना, तोपखाने, हवाई सुरक्षा, पैदल सेना और स्पेशल सेना के साथ ही इंजीनियर्स और सिग्नल्स भी शामिल हैं. हवाई सुरक्षा के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाले 97 फीसदी हथियार और उपकरण पुराने पड़ चुके हैं. आर्मी की एलीट स्पेशल फोर्स के पास जरूरी हथियारों की कमी है. थलसेना के जवानों के पास हथियारों की कमी के साथ-साथ उनके पास रात में दुश्मन से लड़ने की क्षमता नहीं है. एंटी टैंक गाइडेड मिसाइल्स की मौजूदा उत्पादन क्षमता और उपलब्धता बेहद कम है. लंबी दूरी तक मार करने वाले तोपखाने में पिनाका और स्मर्च रॉकेट सिस्टम का खतरनाक अभाव है. जनरल सिंह ने गोला-बारूद की कमी के साथ-साथ भंडारण की लचर व्यवस्था के बारे में भी प्रधानमंत्री को सूचित किया था. उन्होंने लिखा था कि सेना की हालत संतोषजनक स्थिति से काफी दूर है. पड़ोस के दो शत्रु देशों का खतरा है और दो देशों की सुरक्षा का दायित्व भी भारतीय सेना के कंधे पर है, ऐसे में सेना की खामियों को तत्काल प्रभाव से दूर करने की जरूरत है. जनरल सिंह ने सुझाव दिया था कि चीन सीमा पर तैनात इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी) के संचालन का अधिकार सेना को मिलना चाहिए और सेना में हवाई बेड़े की जरूरतों को अविलंब पूरा किया जाना चाहिए. लेकिन तत्कालीन केंद्र सरकार जनरल वीके सिंह की चिट्ठी पर बौखला गई और सेना को सुधारने के बजाय जनरल सिंह को ही ‘सुधारने’ में लग गई थी.

राष्ट्रभक्तों! सैन्यशक्ति से ही बढ़ती है राष्ट्र की शक्ति
केंद्रीय सत्ता पर बैठी भाजपा सरकार राष्ट्रभक्ति की वैसे ही मार्केटिंग करती है जैसे आम आदमी पार्टी ईमानदारी की मार्केटिंग करती हुई कामयाब हो गई. एक पार्टी की ‘राष्ट्रभक्ति’ और दूसरी पार्टी की ‘ईमानदारी’ में कोई फर्क नहीं है. राष्ट्रभक्ति की नौटंकी करने वाले सत्ताधीशों को यह समझ में नहीं आता कि सेना की शक्ति जितनी ही बढ़ेगी देश की शक्ति उतनी ही बढ़ेगी. लेकिन सरकार ठीक उल्टा कर रही है. भाजपा सरकार ने देश की सैन्यशक्ति को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है. चीन की सैन्यशक्ति के सामने भारतीय सैन्यशक्ति बौनी है, इस सत्य को टालना देशभक्ति नहीं, बल्कि इसे स्वीकार करना और अपनी सैन्यशक्ति को मजबूत करने की कवायद में जुट जाना असली राष्ट्रभक्ति है. यहां तक कि पाकिस्तान भी तेजी से अपने हथियारों का जखीरा बढ़ा रहा है, लेकिन हम राष्ट्रभक्ति का नाटक मंचित करने की सियासत में मगन हैं. सत्ता के चाटुकारों की बात पर मत जाइए, चीन के साथ चला डोकलाम विवाद थमा नहीं है, अभी लंबित हुआ है. अभी चीन अपने आर्थिक मसले तय कर रहा है. चीन का ढेर सारा पैसा भारतवर्ष में लगा है, उसे दुरुस्त करने के लिए अभी उसने अपने नाखून अंदर किए हैं. आप इतना समझ लें कि बिना किसी आपसी समझदारी और सहमति के न मोदी चीन जाते और न चीन जाने के ऐन पहले रक्षा मंत्री हटते. आप समझ रहे हैं न!
बहरहाल, देश की सैन्यशक्ति बढ़ाने और उसे मजबूत करने में केंद्र सरकार की कितनी दिलचस्पी है, यह गोला-बारूदों, सैन्य उपकरणों और हथियारों की कमी के आधिकारिक दस्तावेजों से लिए गए उपरोक्त तथ्यों से साफ है. सेना की युद्ध क्षमता बढ़ाने के उपायों पर अध्ययन करने के लिए बनाई गई शेकतकर कमेटी के 11 सदस्यों ने पता नहीं क्या अध्ययन किया कि वो सारी जरूरी बातें छूट गईं, जिनसे भारतीय सेना मजबूत होती. शेकतकर कमेटी ने वे सारे सुझाव दिए जिससे नेता मजबूत होता है और सियासत मजबूत होती है. तभी तो हजारों एकड़ में फैले मिलिट्री फार्म्स जब्त कर लेने का नेक सुझाव दिया गया! इस कमेटी को चीन से कारगर युद्ध लड़ने के लिए जरूरी माउंटेन स्ट्राइक कोर के शीघ्र गठन की जरूरत महसूस नहीं हुई, जबकि इस तरफ भारत सरकार की बेरुखी सेना के लिए खतरनाक साबित हो रही है. शेकतकर ने केंद्र सरकार के उस फरेब की तरफ भी ध्यान नहीं दिलाया कि सेना का 2.47 लाख करोड़ का बजट केवल कहने के लिए है, क्योंकि सैन्य बजट का 70 फीसदी हिस्सा सेना के वेतन और अनुरक्षण पर खर्च हो जाता है. सैन्य बजट का मात्र 20 प्रतिशत हिस्सा सैन्य उपकरणों की खरीद के लिए बचता है. सेना को हर साल केवल उपकरणों की खरीद के लिए कम से कम 10 हजार करोड़ रुपए की जरूरत रहती है, जबकि उसके पास बचते हैं मात्र 15 सौ करोड़ रुपए. भारतीय सेना के लिए राइफलें, वाहन, मिसाइलें, तोपें और हेलीकॉप्टर खरीदने की अनिवार्यता चार लाख करोड़ रुपए के लिए लंबित पड़ी हुई है. जबकि सेना की युद्ध क्षमता को विश्व मानक पर दुरुस्त रखने के लिए यह काम निहायत जरूरी है. रक्षा सेवाओं से जुड़े लोग ही पूछते हैं कि भारत की सरकार सेना के साथ ऐसा क्यों कर रही है? साउथ ब्लॉक (रक्षा मंत्रालय) में आसीन एक वरिष्ठ सेनाधिकारी ने ‘चौथी दुनिया’ से कहा कि केंद्र सरकार नौकरशाही के चंगुल में है. आईएएस अफसर जो चाहते हैं, सरकार वही करती है. आईएएस अफसरों का ‘गिरोह’ नहीं चाहता कि सेना को सुविधाएं मिले और सेना के अफसर उनके समानान्तर बैठें. ऐसे ही घटिया सोच वाले नौकरशाहों की चौकड़ी ने सेना को मिलने वाली तमाम सुविधाएं और भत्ते कटवा दिए. यहां तक कि सेना को सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन देने में भी फजीहत कर दी गई. सैनिकों को मिलने वाला मुफ्त राशन बंद करा दिया और अब दूध भी मुहाल कर दिया. ऐसे कैसे होगा अपना राष्ट्र शक्तिशाली..!

गोरखपुर हादसाः हवा में डंडा भांज रहे योगी

प्रभात रंजन दीन
जिस सड़े हुए सिस्टम के कारण गोरखपुर और फर्रुखाबाद या किसी अन्य जिले में मासूम बच्चों की मौत की अमानुषिक घटनाएं घट रही हैं, उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार उस सिस्टम को दुरुस्त करने के बजाय उसे पाल-पोस रही है. यूपी की शासनिक-प्रशासनिक और स्वास्थ्य-व्यवस्था (सिस्टम) को समाजवादी पार्टी और बसपा की सरकारों ने सड़ाया, योगी सरकार उसे खाद-पानी दे रही है. योगी सरकार की घोषणाएं, जांचें, कार्रवाइयां और गिरफ्तारियां सब सत्ता की नौटंकियां हैं.
गोरखपुर के बाबा राघव दास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से पांच दर्जन से अधिक बच्चों की मौत के मामले में मेडिकल कॉलेज के निलंबित प्रिंसिपल डॉ. राजीव मिश्र, उसकी पत्नी पूर्णिमा शुक्ला और बीआरडी मेडिकल कॉलेज के इंसेफ्लाइटिस विभाग के चीफ नोडल अफसर और परचेज़ कमेटी के सदस्य रहे डॉ. कफील अहमद खान को गिरफ्तार कर लिया गया है. अभियुक्त और हैं, लिहाजा गिरफ्तारियां अभी और होंगी. लेकिन इन गिरफ्तारियों से मासूम बच्चों की मौत का सिलसिला नहीं रुक रहा. गोरखपुर में बच्चों का मरना लगातार जारी है. उसके बाद फर्रुखाबाद में भी 49 बच्चों के मरने की खबर सामने आ गई.
‘चौथी दुनिया’ ने पूर्व के अंक में भी आपको बताया था कि अखिलेश सरकार ने गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल समेत अन्य कई अस्पतालों में ऑक्सीजन की सप्लाई का ठेका किस तरह रिश्वत और उपकार के प्रभाव में दिया था और किस तरह सपा सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) का यूपी में कबाड़ा निकाला. पूर्वांचल के जिन जिलों में तथाकथित जापानी इंसेफ्लाइटिस या एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम बीमारी फैली है, वहां-वहां वेंटिलेटर सुविधा स्थापित करने और संचालित करने के लिए बजट मुहैया कराने और उनके रख-रखाव की जिम्मेदारी एनएचएम पर ही है. गोरखपुर हादसे के नजरिए से देखें तो एनएचएम सारी गड़बड़ियों का स्रोत है, लेकिन उस पर लोगों का ध्यान नहीं है, ‘कमाई का स्रोत’ होने के कारण सरकार भी उस तरफ से आंख मूंदे हुई है. ऊपर-ऊपर कार्रवाइयां जारी हैं और अंदर-अंदर करतूतें जारी हैं.
बीआरडी मेडिकल कॉलेज के तत्कालीन प्रिंसिपल डॉ. राजीव मिश्र, उनकी पत्नी डॉ. पूर्णिमा शुक्ला और डॉ. कफील खान की गिरफ्तारी और अन्य छह लोगों की संभावित गिरफ्तारियां क्या बच्चों की मौतों का सिलसिला रुकने की गारंटी हैं? इसका जवाब सब जानते हैं. योगी सरकार पेड़ की सड़ी हुई जड़ में दवा डालने के बजाय पेड़ के कुछ खराब पत्तों का ‘ट्रीटमेंट’ करने का दिखावा कर रही है. जिन मूल वजहों से ऐसी घटनाएं हो रही हैं, वे वजहें अब भी यथावत हैं. एनएचएम भ्रष्टाचार की कबड्डी का मैदान बना हुआ है. सरकार अब भी वही कर रही है, जो सपा चाह रही है, या अखिलेश के संरक्षक रामगोपाल यादव चाह रहे हैं. इसका हम आगे विस्तार से खुलासा करेंगे.
फिलहाल यह बताते चलें कि गोरखपुर त्रासदी के बाद सरकार की ओर से दर्ज कराई गई एफआईआर में ऑक्सीजन सप्लायर फर्म पुष्पा सेल्स के संचालक, प्रिंसिपल डॉ. राजीव मिश्र मिश्र, डॉ. पूर्णिमा शुक्ला समेत नौ लोग नामजद अभियुक्त हैं. गोरखपुर हादसे के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुख्य सचिव राजीव कुमार की अध्यक्षता में जांच समिति गठित की थी. ‘चौथी दुनिया’ ने तभी बताया था कि जांच समिति में वह अधिकारी भी शरीक है, जिसने सपाई सरकार के संरक्षण में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन को भ्रष्टाचार और सियासत का अड्डा बना कर रख दिया. ऐसे ही लोगों की करतूतों की वजह से गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज जैसा हादसा हुआ. एनएचएम के मिशन निदेशक आलोक कुमार भी जांच समिति में शरीक थे. समाजवादी पार्टी की सरकार में मुख्य सचिव आलोक रंजन के स्टाफ अफसर रहे आलोक कुमार को एनएचएम का मिशन निदेशक इसीलिए बनाया गया था, ताकि सपा नेताओं का ‘खेल’ निर्बाध चलता रहे. ऐसी ही विवादास्पद ‘उच्च-स्तरीय’ जांच समिति की रिपोर्ट के आधार पर चिकित्सा शिक्षा की अपर मुख्य सचिव अनीता भटनागर जैन हटाई गईं और अन्य लोगों की गिरफ्तारियां हो रही हैं. जांच समिति ने एनएचएम के मिशन निदेशक (अब पूर्व) आलोक कुमार व अन्य संदिग्ध अफसरों की भूमिका की तरफ ध्यान ही नहीं दिया.
अब देखिए भाजपाई मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार पर सपाई प्रभाव किस तरह सिर चढ़ कर बोल रहा है. निवर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार को रामगोपाल यादव ही चलाते रहे और अब योगी सरकार में भी रामगोपाल-प्रभाव कम नहीं हुआ है. रामगोपाल यादव ने अपने खास आईएएस अधिकारी हीरालाल की गायनोकोलॉजिस्ट डॉक्टर पत्नी उषा गंगवार को एनएचएम में लेवल-2 का होने के बावजूद ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचवा दिया था. आज डॉ. उषा गंगवार राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन में महाप्रबंधक के पद पर सुशोभित हैं. योगी सरकार ने अभी हाल में फरमान जारी किया था कि एक ही जनपद में लम्बे अर्से से काबिज विशेषज्ञ चिकित्साधिकारियों को अन्य जिलों में स्थानान्तरित किया जाए. लेकिन रामगोपाल-प्रभाव के कारण योगी सरकार का फरमान उन पर लागू नहीं हुआ. विचित्र किंतु सत्य यह है कि डॉ. उषा गंगवार की प्रतिनियुक्ति के अधिकतम पांच साल भी पूरे हो चुके हैं, लेकिन रामगोपाल यादव के प्रभाव के कारण योगी सरकार उनका तबादला नहीं कर रही है.
अब देखिए, योगी सरकार पर रामगोपाल-प्रभाव का दूसरा उदाहरण. मथुरा के जवाहरबाग कांड के खिलाफ तब भाजपाइयों ने खूब आग उगला था. योगी आदित्यनाथ भी उस हादसे के खिलाफ जमकर बरसे थे. लेकिन सत्ता पर आते ही योगी का बरसना सूख गया. मथुरा के जवाहरबाग-कांड के जिम्मेदार जिलाधिकारी राजेश कुमार को सपा सरकार ने उत्तर प्रदेश राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का अपर मिशन निदेशक बना दिया था. राजेश कुमार सपा नेता प्रो. रामगोपाल यादव के खास आदमी हैं. योगी सरकार ने जवाहरबाग कांड के उसी ‘हीरो’ को संरक्षण दिया और उसे मोदी सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं में से एक ‘कौशल विकास मिशन’ का निदेशक बना कर बैठा दिया. राजेश कुमार ‘कौशल विकास मिशन’ के जरिए रामगोपाल समर्थकों की स्वयं सेवी संस्थाओं (एनजीओ) का विकास करने के मिशन में मगन हैं.
योगी सरकार पर सपाई प्रभाव का सिलसिला यहीं नहीं रुक रहा. बात अभी गोरखपुर हादसे के प्रसंग में हो रही है. गोरखपुर हादसे के बाद बनी उच्च स्तरीय जांच समिति में एनएचएम के मिशन निदेशक आलोक कुमार शामिल रहे. जब बात खुलने लगी और हादसे के छींटे आलोक कुमार पर भी आने लगे तब सरकार ने आनन-फानन आलोक कुमार को हटा कर पंकज कुमार यादव को एनएचएम का मिशन निदेशक बना दिया. सपा सरकार में खास रहे आलोक कुमार हटे तो उस पद पर सीधे-सीधे रामगोपाल यादव के खास पंकज यादव की तैनाती कर दी गई. पंकज यादव विशेष सचिव स्तर के आईएएस हैं, जबकि एनएचएम निदेशक का पद सचिव स्तर के वरिष्ठ अधिकारी के लिए निर्धारित है. सपाई प्रभाव के कारण योगी सरकार ने वह मर्यादा भी ताक पर रख दी. रामगोपाल यादव की विशेष कृपा से 2002 बैच के आईएएस अधिकारी पंकज यादव समाजवादी पार्टी की सरकार के कार्यकाल में मैनपुरी, बलिया, बस्ती, देवरिया, आगरा, मथुरा और मेरठ के जिलाधिकारी रहे. एनएचएम का मिशन निदेशक बनाए जाने से पूर्व तक वे गृह विभाग में विशेष सचिव के पद पर तैनात थे. पंकज कुमार अकूत धन-स्रोत वाले एनएचएम में क्या करने आए हैं, यह जगजाहिर है. बांदा जनपद के मूल निवासी पंकज कुमार यादव के पिता मूलचंद यादव भी प्रमोटेड आईएएस रहे हैं जिन्हें आईएएस कैडर मिलते ही रामगोपाल की सिफारिश पर सीधे मंडलायुक्त बना दिया गया था, जबकि सर्विस-रूल्स के मुताबिक कमिश्नर बनने के पहले संदर्भित अधिकारी का कुछ वर्षों तक डीएम बनना जरूरी होता है.

सरकार खुलेआम कर रही धोखाधड़ी!
आपको ऊपर बताया कि गोरखपुर हादसे को लेकर हुई घोषणाएं, कार्रवाइयां और गिरफ्तारियां सब आम जनता के साथ धोखा हैं. जिस जड़ पर प्रहार होना चाहिए, वहां और खाद-पानी पहुंचाया जा रहा है. जहां मूल स्रोत में दीमक लगे हुए हैं, वहां जहर डालने के बजाय योगी सरकार और मिठास डाल रही है. इसी क्रम और प्रसंग में योगी सरकार के नौकरशाहों की एक और नायाब धोखाधड़ी का हम संज्ञान लेते चलें. आप जानते हैं कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) की राज्य कार्यक्रम प्रबंधन इकाई में अपर मिशन निदेशक का एक पद स्वीकृत है, जिसे प्रतिनियुक्ति के आधार पर भरे जाने का प्रावधान है. अपर मिशन निदेशक के पद पर तैनात किए जाने वाले व्यक्ति को विशेष सचिव स्तर का आईएएस अधिकारी होना चाहिए. गोरखपुर हादसे के बाद तक मिशन निदेशक रहे आलोक कुमार ने रिटायर्ड आईएएस अफसर को अपर मिशन निदेशक के पद पर नियुक्त करने का एक विज्ञापन 12 जुलाई को जारी किया था. विज्ञापन के अनुसार आवेदन की अंतिम तारीख 27 जुलाई तय थी. प्रकाशित विज्ञापन में शर्त यह थी कि आवेदक ऐसा पूर्व आईएएस हो जो कभी जिलाधिकारी के रूप में जिला स्वास्थ्य समिति का अध्यक्ष रहा हो या स्वास्थ्य के क्षेत्र में उसका महत्वपूर्ण योगदान रहा हो. लेकिन सरकार ने ऐसे व्यक्ति को अपर मिशन निदेशक नियुक्त कर दिया, जो 31 जुलाई को रिटायर ही हुआ था. जबकि विज्ञापन में शर्त थी कि रिटायरमेंट 27 जुलाई के पहले की तारीख में हो. सरकार को अपना ही नियम तोड़ने में कोई संकोच नहीं हुआ और प्रमोटी आईएएस निखिलचंद्र शुक्ल एनएचएम के अपर मिशन निदेशक बना दिए गए. दिलचस्प यह है कि शुक्ल रिटायरमेंट के पहले भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की राज्य कार्यक्रम प्रबंधन इकाई में अपर मिशन निदेशक के पद पर कार्यरत थे और उनके रिटायर होते ही सरकार ने फर्जीवाड़ा करके उनका उसी जगह पुनर्वास कर दिया. प्रकाशित विज्ञापन की अंतिम तिथि 27 जुलाई की अनिवार्य शर्त को ठोकर पर रख कर निखिलचंद्र शुक्ल ने आवेदन दिया और 31 जुलाई को रिटायर होने के बाद उसी पद पर फिर से चुन लिए गए. चयन करने वालों ने उनसे यह नहीं पूछा कि 27 जुलाई के पहले दाखिल आवेदन में उन्होंने अपने रिटायरमेंट की तारीख क्या लिखी थी? अपनी नियुक्ति के दौरान नए पद के लिए नया आवेदन दाखिल करने के लिए क्या उन्होंने सरकार से औपचारिक अनुमति ली थी? इस फर्जीवाड़े के बारे में कोई क्या पूछता, सब उसमें बराबर के लिप्त थे. अगर उन्होंने रिटायर होने के बाद आवेदन पत्र दाखिल किया तो उसे शासन में बैठे नौकरशाहों ने स्वीकार कैसे कर लिया? यह ऐसे सवाल हैं, जिनका वाजिब जवाब सरकार नहीं दे सकती. यह तो कुछ बानगियां हैं जिन्हें आपके समक्ष रखा गया. अगर पिछले तीन साल में प्रदेशभर में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में संविदा के पदों पर की गई भर्तियों की निष्पक्ष जांच हो तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे. भ्रष्टाचार की रफ्तार थमने का नाम नहीं ले रही है, जबकि घोटालों की सीबीआई जांच की वजह से मिशन की काफी बदनामी पहले ही हो चुकी है.

पहले से तैयार हो रहा था गोरखपुर हादसे का स्टेज
गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में एक साथ 60 से अधिक बच्चों की मौत तकलीफदेह घटना रही. आपने देखा कि इस हादसे का मंच निवर्तमान सपा सरकार के समय से कैसे तैयार हो रहा था. इसके लिए मूल रूप से दोषी समाजवादी पार्टी की तत्कालीन सरकार है, योगी सरकार का दोष यह है कि वह आम लोगों के सरोकारों के प्रति कतई गंभीर नहीं है. वर्ष 2013 में समाजवादी सरकार के चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री अहमद हसन के चहेते चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण महानिदेशक डॉ. बलजीत सिंह अरोरा ने जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम से प्रभावित जिलों में इंसेफ्लाइटिस ट्रीटमेंट सेंटर के निर्माण के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) को प्रस्ताव भेजा था और टर्न-की प्रॉसेस पर अहमद हसन की चहेती कंपनी ‘पुष्पा सेल्स’ को काम दे दिया था. बजाज स्कूटर बेचने वाली इस कंपनी को स्वास्थ्य से सम्बन्धित करोड़ों का काम देने का तब विरोध भी हुआ था, लेकिन अहमद हसन और डॉ. बलजीत सिंह अरोरा पर इसका कोई असर नहीं पड़ा. इस कंपनी को गोरखपुर स्थित बीआरडी मेडिकल कालेज में सौ वेंटिलेटर लगाने और मरीजों के इलाज में सुविधा देने के लिए टेक्नीशियन मुहैया कराने की जिम्मेदारी दी गई थी. वर्ष 2014 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तत्कालीन निदेशक अमित कुमार घोष ने ‘पुष्पा सेल्स’ के काम की समीक्षा कराई थी और ‘पुष्पा सेल्स’ की खराब सेवाओं को आधिकारिक तौर पर उजागर किया था. सेंट्रल ऑक्सीजन यूनिट को बिजली की हाई-टेंशन लाइन के नीचे स्थापित करने और पुरानी पाइप-लाइन से ऑक्सीजन सप्लाई करने का मामला भी शासन के समक्ष लाया गया था. लेकिन सपा सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा, उल्टा मंत्री अहमद हसन के खास डॉ. बलजीत सिंह अरोरा को रिटायरमेंट के बाद भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का प्रधान सलाहकार बना दिया गया. अरोरा ने ‘पुष्पा सेल्स’ पर कोई कार्रवाई नहीं होने दी. ‘पुष्पा सेल्स’ कंपनी ने जैसे-तैसे मनचाहे तरीके से इंसेफ्लाइटिस ट्रीटमेंट सेंटर्स स्थापित किए और अयोग्य एवं अक्षम कर्मचारियों को भर कर जानलेवा तरीके से पीडियाट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट चलाया. कंपनी जो भी बिल भेजती महानिदेशालय के जरिए एनएचएम उसका आंख बंद करके भुगतान करता जाता.
अहमद हसन ने अपनी सरकार के आखिरी महीनों में डॉ. विजय लक्ष्मी को चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग का महानिदेशक बना दिया था और सपा सरकार के आखिरी समय तक लूटपाट वाली व्यवस्था जारी रही. हाईकोर्ट ने उस दरम्यान डेंगू, मलेरिया, जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम से बेतहाशा हो रही मौतों पर राज्य सरकार को कड़ी चेतावनी दी थी. जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम सहित सभी संचारी रोगों के कार्यक्रम के संचालन और नियोजन की जिम्मेदारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के ‘राष्ट्रीय कार्यक्रम’ अनुभाग के पास ही है. एनएचएम के तत्कालीन निदेशक अमित कुमार घोष ने डॉ. विजय लक्ष्मी के दबाव में एनएचएम के ‘राष्ट्रीय कार्यक्रम’ के महाप्रबंधक डॉ. अनिल कुमार मिश्र को हटा कर डॉ. मनीराम गौतम को महाप्रबंधक बना दिया था. दिसम्बर 2015 में डॉ. विजय लक्ष्मी भी डॉ. बलजीत सिंह अरोरा की तरह ही एनएचएम में ऊंचे वेतन पर चोर-रास्ते से मिशन निदेशक के वरिष्ठ सलाहकार के गैर-सृजित पद पर काबिज हो गईं. उन्हें एनएचएम में ‘राष्ट्रीय कार्यक्रम’ सहित कई महत्वपूर्ण अनुभागों का नोडल अधिकारी बना दिया गया था.
समाजवादी पार्टी सरकार में मुख्य सचिव आलोक रंजन के स्टाफ अफसर रहे आलोक कुमार को अप्रैल 2016 में एनएचएम का मिशन निदेशक बनाया गया. उनके आने के बाद डॉ. बलजीत सिंह अरोरा और डॉ. विजय लक्ष्मी की और तूती बोलने लगी. वर्ष 2016 के जुलाई महीने में डॉ. मनीराम गौतम के रिटायर होने के बाद डॉ. विजय लक्ष्मी ने अपने दूसरे खास व्यक्ति अस्थि रोग के सर्जन और संचारी रोग के वर्तमान संयुक्त निदेशक डॉ. एके पांडेय को एनएचएम में ‘राष्ट्रीय कार्यक्रम’ का महाप्रबंधक बनवा दिया. डॉ. पांडेय को सप्ताह के तीन दिन एनएचएम और दो दिन महानिदेशालय में काम करने का अजीबोगरीब आदेश जारी कराने में डॉ. विजय लक्ष्मी का विशेष हाथ था. दूसरी तरफ रिटायर डॉ. मनीराम गौतम को उन्होंने इंसेफ्लाइटिस उन्मूलन में सहयोग देने के लिए गैर-सरकारी संगठन ‘पाथ’ में विशेषज्ञ के रूप में चयनित करवा दिया. मिशन निदेशक आलोक कुमार ने इस अति महत्वपूर्ण अनुभाग को बेहद हल्के से लिया. हद तो यह है कि एनएचएम के अनुश्रवण और मूल्यांकन विभाग ने डॉ. एके पांडेय को ही गोरखपुर मंडल का प्रभारी भी बनाया. डॉ. पांडेय ने गोरखपुर मंडल के जिलों में जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम से बचाव के लिए क्या-क्या कदम उठाए? पांडेय की सलाह पर नोडल अधिकारी डॉ. विजय लक्ष्मी ने क्या कार्रवाई की? उनसे सरकार ने इन सवालों का जवाब कभी नहीं मांगा. एनएचएम के मिशन निदेशक आलोक कुमार ने पॉलिटेक्निक से कम्यूटर शिक्षा प्राप्त सिफ्सा के कर्मचारी बीके जैन को मूल्यांकन और अनुश्रवण (रख-रखाव) का महानिदेशक बना कर इतने ढेर सारे बच्चों की तकलीफदेह मौत की पूरी पृष्ठभूमि रच दी थी. इसके बावजूद महामूर्धन्य योगी सरकार ने इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया और उन्हें ही जांच समिति का सदस्य भी बना दिया था. हादसे के लिए जो लोग दोषी हैं, वही जांच करेंगे तो पकड़ा कौन जाएगा? इन स्वाभाविक सवालों से प्रदेश सरकार को कोई वास्ता नहीं है.

बच्चों की मौत पर आज तक केवल सियासत होती रही
पूर्वांचल में हर साल हो रही सैकड़ों बच्चों की मौत पर केवल सियासत ही होती रही, इसका कोई उपाय नहीं ढूंढ़ा गया. योगी ने विपक्ष में रहते हुए इस पर खूब सियासत की, लेकिन आज जब वे खुद मुख्यमंत्री हैं तो उनके मंत्री इन मौतों पर अमानुषिक बहाने गढ़ते हैं. गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज में हुए हादसे पर स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने सरकारी लापरवाही पर पर्दा डालने के लिए बड़े ही अमानवीय लहजे में कहा था कि इस मौसम में तो बच्चे इंसेफ्लाइटिस से मरते ही रहते हैं. यह एक मंत्री का कितना बेजा बयान है. यह बच्चों की नहीं, बल्कि सरकार के मृत होने की घोषणा है. बच्चों की मौत पर इस तरह का निर्मम बहाना सरकारों के रोगग्रस्त होने की सनद है. पूर्वांचल में दशकों से बच्चों की जान जा रही है और सरकार बेशर्मी से कहती है कि इस मौसम में बच्चे मरते ही हैं! आधिकारिक आंकड़ा है कि बारिश के मौसम में अकेले गोरखपुर बीआरडी अस्पताल में दो हजार से ढाई हजार बच्चे भर्ती होते हैं और करीब पांच सौ बच्चे मर जाते हैं. यूपी के गोरखपुर समेत पूरब के 12 जिलों के एक लाख से अधिक बच्चों की पिछले कुछ दशक में मौत हो चुकी है. वर्ष 2016 में इंसेफ्लाइटिस से होने वाली मौतों की संख्या 15 फीसदी बढ़कर 514 हो गई. यह आंकड़ा सिर्फ गोरखपुर मेडिकल कॉलेज का है. बच्चे मर रहे हैं लेकिन इसका कोई उपाय नहीं किया जा रहा है. सरकारें इसे जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम का नाम देती रहीं, लेकिन बेशर्म सरकारों को इस बात पर तनिक भी झेंप नहीं आई कि जापान ने इस बीमारी पर 1958 में ही कारगर तरीके से काबू पा लिया था पर हम अब भी लाचार हैं. पूर्वांचल में पिछले चार दशक से जापानी इंसेफ्लाइटिस से बच्चे लगातार मर रहे हैं. पूरब के जिलों के अधिकांश मरीज बच्चे गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में ही भर्ती होते हैं. इस अस्पताल में न केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों से बल्कि पश्चिमी बिहार और नेपाल के मरीज भी भर्ती होते हैं. अत्यधिक दबाव के कारण मेडिकल कॉलेज को दवाइयों, डाक्टरों, पैरा मेडिकल स्टाफ, वेंटिलेटर, ऑक्सीजन व अन्य जरूरतों के लिए काफी जद्दोहद करनी पड़ती है. इंसेफ्लाइटिस की दवाओं, चिकित्सकों, पैरामेडिकल स्टाफ, उपकरणों की खरीद, मरम्मत और उनके रखरखाव के लिए अलग से कोई बजट का प्रबंध नहीं है. गोरखपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में सौ बेड का इंसेफ्लाइटिस वार्ड बन जाने के बावजूद मरीजों के लिए बेड व अन्य संसाधानों की भारी कमी है. मेडिकल कॉलेज में इलाज के लिए आने वाले इंसेफ्लाइटिस मरीजों में आधे से अधिक अर्ध बेहोशी के शिकार होते हैं और उन्हें तुरन्त वेंटिलेटर उपलब्ध कराने की जरूरत रहती है. इस अस्पताल में पीडियाट्रिक (बाल रोग) आईसीयू में 50 बेड उपलब्ध हैं. वार्ड संख्या 12 में कुछ वेंटिलेटर हैं. बच्चों की मौत पर मर्सिया पढ़ने वाले प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर केंद्र के मंत्री तक गोरखपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में मरीजों के इलाज के लिए धन की कमी नहीं होने देने की बातें करते हैं, लेकिन असलियत यही है कि बीआरडी मेडिकल कॉलेज की तरफ से पिछले चार-पांच वर्षों के दौरान केंद्र और प्रदेश सरकार को जो भी प्रस्ताव भेजे गए, वे मंजूर नहीं हुए. इन प्रस्तावों में यह भी शामिल था कि इंसेफ्लाइटिस के मरीजों के इलाज में लगे चिकित्सकों, नर्स, वार्ड ब्वॉय और अन्य कर्मचारियों का वेतन, मरीजों की दवाइयां और उनके इलाज के काम आने वाले उपयोगी उपकरणों की मरम्मत के लिए एकमुश्त बजट आवंटित किया जाए. यह बजट सालाना करीब 40 करोड़ आता है, लेकिन इस प्रस्ताव को न तत्कालीन अखिलेश सरकार ने सुना और न केंद्र सरकार ने. यह आधिकारिक तथ्य है कि 14 फरवरी 2016 को गोरखपुर मेडिकल कॉलेज प्रबंधन ने चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक से इंसेफ्लाइटिस के इलाज के मद में 37.99 करोड़ मांगे थे. महानिदेशक ने इस पत्र को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के निदेशक को भेज कर अपनी ड्युटी निभा ली और एनएचएम को भ्रष्टाचार से फुर्सत नहीं मिली.
दुखद तथ्य यह भी है कि जापानी इंसेफ्लाइटिस से जो बच्चे उबर जाते हैं उनमें से भी अधिकांश बच्चे विकलांग होकर ही वापस लौटते हैं. अनधिकृत रिपोर्ट है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के 10 जिलों में जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम बीमारी के कारण मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग हुए बच्चों की संख्या 50 हजार से कम नहीं है. जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम बीमारी में एक तिहाई बच्चे मानसिक और शारीरिक विकलांगता का शिकार हो जाते हैं. बाल आयोग ने कई बार प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम बीमारी से विकलांग हुए बच्चों की वास्तविक संख्या का पता लगाने के लिए सर्वेक्षण कराए और उनके इलाज, शिक्षा और पुनर्वास के लिए ठोस काम हो, लेकिन यह काम सरकारों की रुचि के दायरे में नहीं आता, क्योंकि विकलांग बच्चों से नेताओं को वोट नहीं मिलता. सर्वेक्षण का काम सरकार नहीं करा पाई और गैर सरकारी संस्थाओं ने भी इस सर्वेक्षण के काम में रुचि नहीं ली. विडंबना यह है कि गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज अस्पताल में इस साल मरने वाले बच्चों की तादाद तकरीबन 15 सौ पर पहुंच चुकी है. जनवरी से लेकर सितम्बर तक हर महीने सौ-डेढ़ सौ बच्चों की मौत का औसत बना हुआ था. अगस्त महीने में तो साढ़े तीन सौ बच्चों की मौत हो गई.

जांच समिति ने इन्हें पाया दोषी, बाकी ‘क्लीन’!
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आदेश पर मुख्य सचिव राजीव कुमार की अध्यक्षता में गठित जांच समिति हादसे की तह में जाती तो अन्य अधिकारियों की गहरी भूमिका उजागर हो पाती, लेकिन समिति ने एनएचएम के अलमबरदारों की संदेहास्पद भूमिका को अपनी जांच के दायरे में रखा ही नहीं. जांच समिति की रिपोर्ट के आधार पर बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल रहे राजीव मिश्र, होम्योपैथिक चिकित्साधिकारी डॉ. पूर्णिमा शुक्ला, बाल रोग विभाग के प्रमुख डॉ. कफील खान, खरीदारी विभाग और अनेस्थेसिया विभाग के प्रमुख डॉ. सतीश पांडेय, मेडिकल कालेज के चीफ फार्मासिस्ट गजानन जायसवाल, ऑक्सीजन सप्लायर फर्म पुष्पा सेल्स के प्रबंध निदेशक (एमडी) मनीष भंडारी के साथ-साथ अकाउंट क्लर्क उदय प्रताप शर्मा, सहायक क्लर्क संजय कुमार त्र‍िपाठी और सुधीर कुमार पांडेय के खिलाफ भारतीय दंड विधान की धारा 409 (लोकसेवक द्वारा आपराधिक कार्य में शामिल होने), 308 (गैर इरादतन हत्या), 120-बी (आपराधिक साजिश करने) के अलावा भ्रष्टाचार अधिनियम की धारा 8, आईटी एक्ट-2000 की धारा 66 और इंडियन मेडिकल काउंसिल एक्ट की धारा 15 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया र गिरफ्तारियां हो रही हैं.
जांच रिपोर्ट में पुष्पा सेल्स के एमडी मनीष भंडारी को लिक्विड ऑक्सीजन की आपूर्ति का दायित्व पूरा नहीं करने, तत्कालीन प्रिंसिपल डॉ. राजीव मिश्र को घूस के लालच में 2016-17 का ढाई करोड़ रुपए लैप्स कराने और घूस के लिए भुगतान रोकने व ऑक्सीजन की कमी होने पर बगैर किसी को सूचना दिए गायब हो जाने, अनेस्थेसिया विभाग के प्रमुख डॉ. सतीश पांडेय को ऑक्सीजन बाधित होने पर बच्चों की जान बचाने के बजाय विभाग और मुख्यालय छोड़कर चले जाने, बाल रोग विभाग के प्रमुख डॉ. कफील खान को अपनी पत्नी के अवैध नर्सिंग होम को अनुचित लाभ पहुंचाने, प्राइवेट प्रैक्टिस करने और बीआरडी के ऑक्सीजन सिलिंडरों को अपने नर्सिंग होम में इस्तेमाल करने, डॉ. पूर्णिमा शुक्ला को अपने पति राजीव मिश्र के भ्रष्ट आचरणों में योगदान देने और लेखा विभाग से कमीशन वसूलने, चीफ फार्मासिस्ट गजानंद जायसवाल को डॉ. पूर्णिमा शुक्ला के साथ साठगांठ कर फर्मों से कमीशन वसूलने, अकाउंट क्लर्क उदय प्रताप शर्मा, सहायक क्लर्क संजय त्रिपाठी और सुधीर पांडेय को प्र‍िंसिपल राजीव मिश्र के कुकृत्यों में लिप्त रहने का दोषी करार दिया गया है.

फर्रुखाबाद में 49 बच्चों की मौत पर सरकार बोल रही झूठ पर झूठ
गोरखपुर में बच्चों की धड़ाधड़ हो रही मौत पर प्रदेश सदमे में है, ऐसे ही समय फर्रुखाबाद में भी 49 बच्चों की मौत की खबर से सनसनी फैल गई. फर्रुखाबाद के जिलाधिकारी रवींद्र कुमार ने प्राथमिक जांच में पाया कि राम मनोहर लोहिया जिला अस्पताल में ऑक्सीजन नहीं होने के कारण बच्चों की मौत हुई. डीएम ने फौरन जिले के सीएमओ डॉ. उमाकांत और सीएमएस डॉ. अखिलेश अग्रवाल के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी और कार्रवाई शुरू कर दी. डीएम के त्वरित एक्शन से योगी सरकार को गुस्सा आ गया. सरकार ने जिलाधिकारी का तत्काल तबादला कर दिया और जनता के समक्ष झूठ परोसने में लग गई. सरकार ने सीएमओ और सीएमएस के खिलाफ दर्ज कराई गई एफआईआर पर कार्रवाई भी रोक दी. घिसा-पिटा सरकारी डायलॉग सामने आया कि बच्चों की मौत ऑक्सीजन की कमी के कारण नहीं हुई. सरकार ने अपने ही अधिकारी को बेसाख्ता झूठा करार दिया और खुद को सच्चाई का प्रतीक मानने की खुशफहमी पाल ली.
तथ्य यह है कि फर्रुखाबाद के राम मनोहर लोहिया जिला अस्पताल में 20 जुलाई से 21 अगस्त के बीच 49 बच्चों की मौत हुई. नाराज डीएम रवींद्र कुमार ने इस पर मजिस्ट्रेट से जांच का आदेश दे दिया. जिले के सीएमओ और सीएमएस ने जिला अस्पताल में मरने वाले बच्चों के बारे में गलत और भ्रामक तथ्य जिलाधिकारी के समक्ष पेश किए. जबकि मरने वाले बच्चों की मां और रिश्तेदारों ने बताया कि डॉक्टरों ने जरूरत पड़ने पर बच्चों को ऑक्सीजन की पाइप नहीं लगाई और कोई दवा नहीं दी. साफ है कि बच्चों की मौत ऑक्सीजन नहीं मिलने के कारण हुई. ऑक्सीजन की कमी के बारे में जिलाधिकारी को भी अंधेरे में रखा गया. वास्तविक स्थिति का पता लगते ही जिलाधिकारी ने सीएमओ, सीएमएस और अस्पताल में नवजात शिशु देखभाल यूनिट के इंचार्ज डॉ. कैलाश के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर आवश्यक कार्रवाई करने का आदेश जारी कर दिया.
योगी सरकार ने त्वरित एक्शन लेने वाले जिलाधिकारी की प्रशंसा करने की नैतिक जिम्मेदारी निभाने के बजाय डीएम को झूठा साबित करने की हरकतें करनी शुरू कर दीं. सरकार की सींघ इसमें फंसी कि डीएम ने खुद कैसे मान लिया कि बच्चों की मौत ऑक्सीजन की कमी से हुई. बौखलाई सरकार ने डीएम को झूठा ठहराया और अपना नियोजित झूठ परोसने के लिए दो वरिष्ठ आईएएस अफसरों को लगाया. सूचना विभाग के प्रमुख सचिव अवनीश अवस्थी और स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव प्रशांत त्रिवेदी ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला कर सरकारी झूठ प्रसारित किया. इस झूठ में जिलाधिकारी पर यह भी कीचड़ उछाला गया कि डीएम की सीएमओ से नहीं पटती थी, इसलिए बदला लेने के लिए ऐसा किया गया. सरकार ऐसे घटिया स्तर पर उतर आई है.

Friday 8 September 2017

मोईन कुरैशी की गिरफ्तारी से छटपटाए नेता-नौकरशाह

प्रभात रंजन दीन
काले धन को सफेद करने वाला अंतरराष्ट्रीय धंधेबाज मोईन अख्तर कुरैशी आखिरकार गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के बाद हुई पूछताछ में कुरैशी ने वे सारे तथ्य उगल दिए जो अभी तक सीबीआई या इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट की छानबीन का हिस्सा थे. ‘चौथी दुनिया’ के 31 जुलाई 2017 के अंक में मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला धंधे के सरगना मोईन कुरैशी की दमकती तिलस्मी दुनिया की खीलें बिखेरी थीं, जिनमें नेता, नौकरशाह, फिल्मकार और संवैधानिक कुर्सी पर धंसने वाले राज्यपाल तक के नाम सार्वजनिक स्तर पर छितरा गए थे. मोईन कुरैशी की गिरफ्तारी के बाद अब सब लोग बताने, दिखाने और छापने लगे कि हवाला सरगना को संरक्षण देने और उसकी मदद से काला धन पचाने में केंद्र से लेकर यूपी तक के बड़े नेता और सीबीआई से लेकर यूपी पुलिस तक के बड़े अधिकारी लिप्त रहे हैं. लेकिन नाम बताने से वे अब भी परहेज कर रहे हैं. ‘चौथी दुनिया’ उन सबके नाम दो महीने पहले छाप चुका है.
मीट कारोबार के बहाने हवाला और मनी लॉन्ड्रिंग का धंधा दुनियाभर में फैलाने वाले मोईन कुरैशी को पिछले दिनों प्रवर्तन निदेशालय (इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट) ने गिरफ्तार किया. कुरैशी ने हवाला कारोबार के जरिए दुनिया के कई देशों में अकूत काला धन भेजा. यह धन नेताओं, नौकरशाहों और व्यापारिक हस्तियों के थे. इससे कुरैशी ने भी जबरदस्त कमाई की. प्रवर्तन निदेशालय ने वर्ष 2015 में ही कुरैशी के खिलाफ विदेशी विनिमय प्रबंध कानून (फेमा) के तहत जांच शुरू की थी. आयकर विभाग द्वारा उपलब्ध कराए गए दस्तावेजों के आधार पर यह जांच शुरू हुई थी. इन दस्तावेजों में कुरैशी और उसकी पचासों कंपनियों के हवाला कारोबार में लिप्त होने और फेमा कानून का उल्लंघन करने के सबूत मिले थे. इस बात के भी सबूत मिले थे कि देश की नामचीन हस्तियां हवाला सरगना मोईन कुरैशी के इशारे पर नाचती हैं.
मोईन कुरैशी की गिरफ्तारी के बाद अब जल्दी ही सीबीआई के एक और पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के खिलाफ चार्जशीट दाखिल होने वाली है. मोईन कुरैशी और रंजीत सिन्हा के गहरे सम्बन्ध रहे हैं. इसी मामले में सीबीआई के एक और पूर्व निदेशक एपी सिंह के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हो चुकी है. जांच के दायरे में सीबीआई के तत्कालीन संयुक्त निदेशक व यूपी कैडर के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जावीद अहमद, समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान, प्रसिद्ध फिल्मकार मुजफ्फर अली और इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट (ईडी) के ही एक आला अधिकारी राजेश्वर सिंह भी हैं, जिनके मोईन कुरैशी से जुड़े होने की पृष्ठभूमि सामने आई है. मोईन से जुड़े कांग्रेसी नेताओं की तो लंबी फेहरिस्त है. इन सबकी जांच हो रही है. कुरैशी के मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला के धंधे के तार इतने फैले हैं कि दिल्ली, मुंबई, यूपी, कोलकाता, कर्नाटक, सीबीआई, ईडी से लेकर इंटरपोल तक जाकर जुड़ते हैं. कुरैशी के पाकिस्तान समेत दुनिया के कई देशों में गहरे लिंक हैं. सीबीआई के संयुक्त निदेशक (पॉलिसी) रहे जावीद अहमद भी जांच के दायरे में हैं, क्योंकि उनके समय में ही मोईन कुरैशी के धंधे की जांच का मसला सीबीआई के सामने आया था और पहले झटके में टाल दिया गया था. यही वजह है कि सीबीआई में जावीद की प्रमोशन और एक्सटेंशन गृह मंत्रालय के ‘ऑब्जेक्शन’ के कारण रुक गया और उन्हें यूपी कैडर में वापस भेज दिया गया. सीबीआई के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा और मोईन कुरैशी के सम्बन्ध इतने गहरे रहे हैं कि 15 महीने में दोनों की 90 मुलाकातें आधिकारिक रिकॉर्ड में दर्ज हैं. पूर्व निदेशक एपी सिंह से भी कुरैशी की ऐसी ही अंतरंग मुलाकातें सीबीआई और ईडी की छानबीन में दर्ज हैं. सीबीआई निदेशक रहते हुए रंजीत सिन्हा ने सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज़ (सीबीडीटी) पर दबाव डाल कर मोईन कुरैशी के खिलाफ हो रही छानबीन का ब्यौरा जानने और छानबीन की प्रक्रिया को बाधित करने की कोशिश की थी. सीबीडीटी के पास रंजीत सिन्हा का वह पत्र भी है जिसके जरिए उन्होंने छानबीन का ब्यौरा उपलब्ध कराने का औपचारिक दबाव डाला था. बाद में वित्त मंत्री बने अरुण जेटली ने सीबीडीटी को ऐसा करने से मना किया था. एपी सिंह और कुरैशी की अंतरंगता इतनी थी कि सिंह के घर के बेसमेंट से कुरैशी का एक दफ्तर चलता था. एपी सिंह और कुरैशी के बीच ब्लैक-बेरी-मैसेज के आदान-प्रदान की कथा सार्वजनिक हो चुकी है. सीबीआई के दूसरे निदेशक रंजीत सिन्हा के प्रसंग में सीबीआई के दस्तावेज बताते हैं कि मोईन कुरैशी अपनी कार (डीएल-12-सीसी-1138) से कई बार सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा से मिलने उनके घर गया. कुरैशी की पत्नी नसरीन कुरैशी भी अपनी कार (डीएल-7-सीजी-3436) से कम से कम पांच बार सिन्हा से मिलने गई. कुरैशी दम्पति की दोनों कारें उनकी कंपनी एएमक्यू फ्रोजेन फूड प्राइवेट लिमिटेड के नाम और सी-134, ग्राउंड फ्लोर, डीफेंस कॉलोनी, नई दिल्ली के पते से रजिस्टर्ड हैं. यह दोनों कारें कई बार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आवास पर भी जाती रही हैं, जिनमें मोईन अपनी पत्नी के साथ रहा है. मोईन कुरैशी की बेटी परनिया कुरैशी की शादी कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद के रिश्तेदार अर्जुन प्रसाद से हुई है.
अमेरिका के पेंसिलवानिया में अरबों रुपए की जालसाजी करने वाला जाफर नईम सादिक के कोलकाता के रवींद्र सरणी इलाके में पकड़े जाने के बाद यह रहस्य खुला था कि वह मोईन कुरैशी का ही आदमी है. इंटरपोल की नोटिस पर जाफर नईम भी पकड़ा गया था. बाद में रहस्य खुला कि इंटरपोल की वांटेड-लिस्ट और रेड-कॉर्नर नोटिस से जाफर नईम, दुबई के विनोद करनन और सिराज अब्दुल रज्जाक का नाम हटाने के लिए कुरैशी ने इंटरपोल के तत्कालीन प्रमुख रोनाल्ड के. नोबल से सिफारिश की थी. नोबल ने यह आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया था कि उसके मोईन कुरैशी परिवार और सीबीआई के तत्कालीन निदेशक एपी सिंह से नजदीकी सम्बन्ध रहे हैं. कुरैशी की सिफारिश को नकारने का दावा करने वाले इंटरपोल प्रमुख रोनाल्ड के. नोबल के भाई जेम्स एल. नोबल जूनियर और भारत से फरार स्वनामधन्य ललित मोदी बिजनेस-पार्टनर हैं. अमेरिका में दोनों का साझा धंधा चलता है.
केंद्रीय खुफिया एजेंसी काले धन की आमद-रफ्त का पूरा नेटवर्क जानने की कोशिश में लगी है. मोईन कुरैशी से जुड़े उन तमाम लोगों के लिंक खंगाले जा रहे हैं, जिनके कभी न कभी मोईन कुरैशी से सम्बन्ध रहे हैं या मोईन कुरैशी का धन उनके धंधे में लगा है. इनमें नेता, अफसर, व्यापारी और फिल्मकारों से लेकर माफिया सरगना तक शामिल हैं. कुरैशी के नजदीकी सम्बन्ध समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान से रहे हैं. आजम खान की बनाई मोहम्मद अली जौहर युनिवर्सिटी के उद्घाटन के मौके पर मोईन कुरैशी चार्टर हेलीकॉप्टर से रामपुर आया था. सीबीआई गलियारे में चर्चा थी कि आजम खान की युनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय की मान्यता दिलाने में मोईन कुरैशी ने यूपी के अल्पकालिक कार्यकारी राज्यपाल अजीज कुरैशी से सिफारिश की थी. स्वाभाविक है कि इसकी आधिकारिक पुष्टि छानबीन से ही होगी. लेकिन इतना याद करते चलें कि उत्तर प्रदेश के दो निवर्तमान राज्यपालों क्रमशः टीवी राजेस्वर और बीएल जोशी ने मौलाना जौहर अली युनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा देने के विधेयक पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया था. जोशी के जाने के बाद और राम नाईक के राज्यपाल बन कर आने के बीच में महज एक महीने के लिए यूपी के कार्यकारी राज्यपाल बनाए गए अजीज कुरैशी ने आनन-फानन मौलाना अली जौहर युनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय की मान्यता के विधेयक पर हस्ताक्षर कर दिए. कुरैशी 17 जून 2014 को यूपी आए, 17 जुलाई 2014 को जौहर विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय की मान्यता दी और 21 जुलाई 2014 को वापस देहरादून चले गए.
मनी लॉन्ड्रिंग सरगना मोईन कुरैशी ने फिल्मकार मुजफ्फर अली की फिल्म ‘जानिसार’ में पैसा लगाया था और उस फिल्म में मोईन की बेटी परनिया कुरैशी हिरोइन थी. ‘जानिसार’ फिल्म के प्रोड्यूसर के बतौर मीरा अली का नाम दिखाया गया, लेकिन सब जानते हैं कि फिल्म में मोईन कुरैशी ने पैसा लगाया था. मोईन के अंतरंगों और उपकृतों की लिस्ट में ऐसे और कई नाम हैं. कांग्रेसियों के नाम तो भरे पड़े हैं. सोनिया गांधी का नाम इनमें शीर्ष पर है. पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद तो मोईन कुरैशी के रिश्तेदार ही हैं. वरिष्ठ कांग्रेस नेता अहमद पटेल, कमलनाथ, आरपीएन सिंह, मोहम्मद अजहरुद्दीन जैसे कई नेता इस सूची में शुमार हैं. ये उन नेताओं के नाम हैं जो मोईन कुरैशी के घर पर नियमित उठने-बैठने वाले रहे हैं. सोनिया के घर पर मोईन परिवार नियमित तौर पर उठता-बैठता रहा है. आयकर विभाग की खुफिया शाखा ने मोईन कुरैशी की विभिन्न हस्तियों से होने वाली टेलीफोनिक बातचीत टेप की थी. यह तकरीबन साढ़े पांच सौ घंटे की रिकॉर्डिंग है. आईटी इंटेलिजेंस के सूत्र जो बताते हैं उससे लगता है कि कुरैशी का मनी लॉन्ड्रिंग का तंत्र सरकारी सिस्टम को अब भी समानान्तर चुनौती देता रहा है. फोन टैपिंग में केंद्र सरकार के कई मंत्री, यूपी समेत कई राज्य सरकारों के मंत्री, विभिन्न राजनीतिक दलों के कद्दावर नेता, सीबीआई के अधिकारी, बड़े कॉरपोरेट घरानों के अलमबरदार और कई फिल्मी हस्तियां शामिल हैं. इनमें भाजपा के भी कई नेताओं के नाम हैं. एक वरिष्ठ भाजपा नेता की बेटी का नाम भी है और उस भाजपा नेता का भी नाम है जो मोईन कुरैशी के भाई को रामपुर से टिकट दिलाने की कोशिश कर रहा था.
अपनी बचाने के लिए कुरैशी को बचाना जरूरी
हवाला सरगना मोईन कुरैशी की ऊंची पहुंच का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उसकी गिरफ्तारी पर पूरा तंत्र प्रवर्तन निदेशालय के पीछे पड़ गया. कहा जाने लगा कि कुरैशी को अवैध तरीके से हिरासत में रखा गया है. आर्थिक अपराध करने वाले व्यक्ति के बचाव में सारे संवैधानिक अधिकार और मानवाधिकार धड़ाधड़ सामने रखे जाने लगे. कहा जाने लगा कि किसी भी व्यक्ति को कारण बताए बगैर और प्रभावी कानूनी सहायता दिए बगैर हिरासत में नहीं लिया जा सकता. दिल्ली हाईकोर्ट ने तो कुरैशी की गिरफ्तारी पर प्रवर्तन निदेशालय से जवाब-तलब तक कर लिया. यही संरक्षण देश के आम नागरिक को भी मिल पाता, तो देश की यह दशा नहीं होती. प्रवर्तन निदेशालय ने कहा है कि मोईन के लिंक कई बड़े लोगों और हवाला कारोबारियों से हैं.
प्रवर्तन निदेशालय के सूत्र कहते हैं कि मोईन कुरैशी के मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला धंधे की चपेट में यूपीए शासनकाल के दो मंत्री सीधे तौर पर फंस रहे हैं. आयकर विभाग ने इन नेताओं और कुरैशी के साथ बड़ी धनराशि के लेनदेन के लिंक पकड़े हैं. इन दोनों मंत्रियों के हवाला रैकेट में शामिल होने के सबूत मिले हैं. यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुए 2-जी स्कैम में फंसी एक बड़ी कंपनी से ली गई 1,500 करोड़ रुपए की रिश्वत की रकम मोईन कुरैशी ने ही हवाला के जरिए बाहर भेजी थी. पैसे का लेनदेन हांगकांग में हुआ था. छानबीन में यह बात भी सामने आई है कि मोईन कुरैशी ने हवाला के काम में केंद्रीय खुफिया एजेंसी के अधिकारी के रिश्तेदारों के हांगकांग के बैंक अकाउंट्स का भी इस्तेमाल किया था. आयकर विभाग को उन ट्रांजैक्शंस के ‘ट्रेल’ उपलब्ध हो चुके हैं. जांच में कई और पूर्व मंत्रियों के भी नाम सामने आने की उम्मीद है. मोईन कुरैशी शीर्ष सत्ता गलियारे में दलाली का नेटवर्क फैला कर मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला का कारोबार चमका रहा था. सीबीआई के सूत्र कहते हैं कि मोईन कुरैशी के राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में भी संलग्न रहने की आशंका है, जिसकी गहराई से छानबीन चल रही है. कुरैशी के पाकिस्तान से गहरे लिंक पाए गए हैं, जो खुफिया एजेंसियों की रडार पर हैं. प्रवर्तन निदेशालय ने अदालत से कहा है कि मोईन कुरैशी छानबीन में सहयोग नहीं कर रहा है. उसकी जो कुछ अवैध सम्पत्तियां बरामद की गई हैं, वह उसकी अकूत सम्पत्ति के सामने कुछ भी नहीं है. कुरैशी की कई देशों में आलीशान कोठियां हैं. मोईन कुरैशी का लंदन में साउथ ऑडले स्ट्रीट के चैस्टरफील्ड हाउस में फ्लैट नंबर-4, लंदन में ही पोर्टमैन स्क्वायर पर फिट्जर डिंगे हाउस में फ्लैट नंबर-6, दुबई में शेख जायद रोड पर पारामाउंट में 29वीं मंजिल पर पेंट हाउस (नंबर-2902), दुबई के मरीना में आलीशान फ्लैट और दुबई के विश्वविख्यात बुर्ज खलीफा में आलीशान बेशकीमती फ्लैट, न्यूयॉर्क में सेकंड एवेन्यु अपार्टमेंट में 265 नंबर फ्लैट और सोलो बिल्डिंग अपार्टमेंट में फ्लैट, सिंगापुर में बोलेवार्ड और सनटेक टावर में दो आलीशान फ्लैट्स पाए गए हैं.