Tuesday 24 December 2019

आज मदर-इंडिया का जन्मदिन है...


मेरी मदर-इंडिया डॉक्टर उषा रानी सिंह का आज जन्मदिन है। लखनऊ वाले आवास पर माँ ने जिद कर शमी का पौधा लगवाया था। एक सितम्बर 2014 को मदर-इंडिया हमें छोड़ कर चली गईं... जब मैं खोखला होकर पटना से वापस लखनऊ लौटा तो शमी के पौधे में यह फूल उगा था। चटख रंग के साथ ऐसा फूल बस एक ही बार खिला... शमी के पौधे ने भी माँ को जैसे अपनी आखिरी श्रद्धांजलि दी थी। मैंने उस फूल की फोटो खींच कर उसे माँ को अर्पित कर दिया। माँ फूल तोड़ने के सख्त खिलाफ थीं। शमी का पौधा अब भी है। पर उसमें अब फूल नहीं खिलते... शमी अब भी है, पर उसमें वह खिलखिलाहट नहीं... माँ के जाने के बाद शमी जैसे मेरे जीवन की ही असलियत खोलता हो... क्या कहूं इसके आगे..! मेरा अस्तित्व, मेरी शब्द-आराधना और मेरी कठोर नैतिक शक्ति सब उन्हीं परम् विदुषी देवी सरस्वती सरीखी माँ डॉक्टर उषा रानी सिंह के कारण है...
तुम्हारी अस्थियों के साथ मैं भी बह गया दरिया समद में,
खो गया अस्तित्व, कुछ रह नहीं मेरा गया बाकी सनद में...
- प्रभात रंजन दीन

राजनीतिक इतिहास का अटल व्यक्तित्व


प्रभात रंजन दीन
सत्य का संघर्ष सत्ता से / न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है / किरण अंतिम अस्त होती है…
अटल जी की कविता की ये चार पंक्तियां देश की उत्तर-आजादी-काल की राजनीतिक-सामाजिक वास्तविकता का परिचय देने के लिए काफी हैं। वाकई, यह शिद्दत से महसूस होता है कि अटल बिहारी वाजपेयी के जाने से भारतवर्ष में नैतिक, ईमानदार, मानवीय, दंभहीन, विनम्र और विद्वान राजनीतिक शख्सियत की आखिरी किरण भी अस्त हो गई। संत कबीर कहते हैं कि वे हद और अनहद के बीच खड़े हैं... अटल जी के व्यक्तित्व पर समग्र दृष्टि डालें तो आपको साफ-साफ दिखेगा कि अटल भी हद और अनहद के बीच ही खड़े रहे! अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस तरह विराट हृदय वाली राजनीति की धारा चलाई, उस पर चलना या उसका अनुकरण करना बड़ी तपस्या और अटल की कवित्व-भाषा में दधीचि की हड्डियां गलाने जैसे त्याग से ही संभव है। कहने से थोड़े ही होता है कि ‘मैं अटल जी के रास्ते पर चल रहा हूं’, उस तरह बनने का योग और जतन करना पड़ता है। 25 दिसम्बर को अटल जी की जयंती है, फिर सुनिएगा नेताओं की बड़ी-बड़ी बातें और अटल-प्रतिबद्धता के लंबे-लंबे व्याख्यान... और थाह लीजिएगा कथनी और करनी का गहरा फर्क।
देखिए, शब्द-ब्रह्म और शब्द-व्यायाम में मौलिक फर्क है, जिसे अटल जी का व्यक्तित्व रेखांकित करता है। मेधा, ज्ञान और तपस्या के सुंदर समन्वय से ही शब्द-ब्रह्म प्रकट होता है। यह प्रकृति का उपहार है। शब्द-व्यायाम तो भौतिक कसरत है, उसमें आत्मा नहीं होती। अटल जी के शब्दों में ब्रह्म की झलक प्रकृति के उसी अनमोल उपहार की अभिव्यक्ति थी। दो विपरीत छोर वाली राजनीतिक धारा के बीच अटल जी संतुलन-सेतु की तरह काम करते थे। दोनों के बीच ‘बैलेंसिंग-बीम’ बनने में स्वार्थ नहीं बल्कि सौहार्द समाहित था। दक्षिणपंथी और वामपंथी राजनीतिक विचारधाराओं के बीच समझदार सेतु के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी अटल खड़े रहे, ठीक वैसे ही जैसे संत कबीर हद और अनहद के बीच निर्लिप्त और निस्पृह भाव से खड़े रहते हैं। ऐसे ही व्यक्तित्व के लिए दुश्मन देश का प्रधानमंत्री भी कह उठता है, ‘अटल जी पाकिस्तान में भी इतने पसंद किए जाते हैं कि वे यहां भी चुनाव लड़ें तो जीत जाएं।’ शांति का संदेश लेकर 19 फरवरी 1999 को बस से लाहौर गए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के पाकिस्तान में हुए अभूतपूर्व स्वागत और अटल जी के प्रति पाकिस्तानियों का प्रेम देख कर तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा था, 'वाजपेयी साहब, आप पाकिस्‍तान में भी चुनाव जीत सकते हैं।'
आपने देखा ही है कि कश्मीर के आम लोग, नेता और यहां तक कि अलगाववादी विचारधारा रखने वाले लोग भी अटल जी को कितना पसंद करते थे। यह दुर्लभ बात है कि भारतीय जनता पार्टी के धुर (एक्सट्रीम) विरोधी भी अटल जी के प्रशंसक थे और उनसे जुड़ा महसूस करते थे। कोई तो हो जो आलोचना करे..! ऐसा कोई नहीं मिलता... न राजनीतिक जीवन में रहते हुए और न जीवन से मुक्त होने के बाद। हिंदूवादी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की कट्टर मुस्लिम जमातें हों या धुर वामपंथी या विपक्षी दल, सब में अटल जी की स्वीकार्यता अटल जी को महापुरुषों की श्रेणी में खड़ा करती है।
खुर्राट वामपंथी ईएमएस नम्बूदरीपाद रहे हों या वामपंथी पुरोधा ज्योति बसु या ईके नयनार, सब अटल बिहारी वाजपेयी के प्रशंसक थे। वामपंथी नेताओं से अटल जी की निकटता को अखबार वाले कभी-कभार संदेहास्पद भी बना देते थे। एक बार तो बंगाल में अखबार वालों ने यह भी लिख डाला कि ज्योति बसु अटल बिहारी वाजपेयी से ‘गुपचुप’ मिलते रहते हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाले ‘जन मोर्चा’ का विजयोत्सव जब वामराज वाले पश्चिम बंगाल में मनाया गया तो अटल जी उसमें शरीक हुए थे। कलकत्ता के शहीद मीनार मैदान में आयोजित उस विजयोत्सव में वीपी सिंह, ज्योति बसु के साथ बैठे अटल जी की वह पुरानी तस्वीर आप भी देखें और यह जानते चलें कि इसी तस्वीर को लेकर कांग्रेस और बाद में तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा और वाम दलों के बीच ‘खिचड़ी पकने’ का आरोप लगा कर निकृष्ट सियासत की थी। वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब ‘माई लाइफ, माई कंट्री’ में लिखा है कि वाम दलों और भाजपा के सहयोग से केंद्र में बनी नेशनल फ्रंट की सरकार के दौरान अटल जी और ज्योति बसु की गोपनीय मीटिंग हुई थी, जिसमें आडवाणी खुद भी शामिल थे। यह बैठक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने बीरेन साहा के आवास पर हुई थी। ज्योति बसु ने भी ऐसी दो गोपनीय बैठकों के बारे में स्वीकारोक्ति दी थी, इसमें एक बैठक लालकृष्ण आडवाणी के घर पर हुई थी। ज्योति बसु ने कहा था कि आडवाणी की रथ-यात्रा रोकने के लिए वह बैठक हुई थी, राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए बैठक नहीं हुई थी। वाजपेयी जी की केरल के धुरंधर कम्युनिस्ट नेता ईके नयनार से भी खूब अंतरंगता थी। निकटता का यह आलम था कि एक बार केरल हवाई अड्डे पर प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों ने मजाक में अटल जी से पूछ दिया था कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में क्या ईके नयनार भी शामिल होंगे? अटल हंसने लगे थे और नयनार किनारे बैठे केरल भाजपा के अध्यक्ष ओ राजगोपाला की तरफ उंगली से इशारा कर रहे थे, जैसे कह रहे हों, ‘मैं नहीं, वो बनेंगे...’
अटल का ज्ञान और उनकी भाषण-शैली में झलकने वाली ओजस्विता ने उन्हें विश्व के पटल पर शीर्ष स्थान दिया है। 80 के दशक में ही ‘टाइम’ मैगजिन ने आचार्य रजनीश और अटल बिहारी वाजपेयी को सबसे प्रभावशाली वक्ताओं में शुमार किया था। उनकी ओजस्विता और उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि महज एक वोट से राजनीतिक कुचक्र का शिकार हुए अटल अगले ही चुनाव में कांग्रेस जैसी उस समय की सशक्त पार्टी को धकेल कर केंद्र की सत्ता पर आरूढ़ हुए और पूरे पांच वर्ष देश को स्थिर सरकार दी। भारतीय जनता पार्टी को अटल के चेहरे का भरोसा रहा... तब भी और अब भी। अटल की जब भी उपेक्षा हुई भाजपा चुनाव हारी। अटल उपेक्षा से विचलित नहीं होते, राजनीतिक बयानबाजी नहीं करते, किसी तिकड़म में नहीं उतरते... बस कविता लिख कर रख लेते, ‘अपनी ही छाया से बैर / गले लगने लगे हैं गैर / कलेजे में कटार गड़ गई / दूध में दरार पड़ गई...’ अटल जी की कविताएं बहुत कुछ कहती हैं, ‘कौरव कौन, कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है / दोनों ओर शकुनि का फैला कूटजाल है…’ अटल जी और देश के अन्य नेताओं में मर्यादा का यही फर्क है। यह विशाल फर्क है। अपने विद्वत और मधुर अंदाज में अटल जी की चुटकियां और मुस्कुराहट विरोधियों को भी भीतर तक बेध जाती थीं। विरोधियों पर अमर्यादित टिप्पणियां करने और आत्मप्रशंसा में लगे नेताओं को अब भी अटल जी से सीख लेनी चाहिए। चाहे वह भाजपा के नेता हों या किसी अन्य राजनीतिक दल के। इसी अटल व्यक्तित्व की तो सीख थी कि प्रधानमंत्री रहते हुए अटल जी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, ‘शासक के लिए प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता, न जन्म के आधार पर, न जाति के आधार पर और न सम्प्रदाय के आधार पर… मुझे विश्वास है कि नरेंद्र भाई यही कर रहे हैं।’ उस समय नरेंद्र मोदी भी अटल जी के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद थे।
अटल जी के विशाल व्यक्तित्व का वह पहलू बार-बार ध्यान में आता है। वर्ष 2001 में लखनऊ के राजभवन में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित थी। राजभवन का सभा कक्ष पत्रकारों से भरा था। अटल जी आए। अभी प्रेस कॉन्फ्रेंस शुरू भी नहीं हुई थी कि मैंने अटल जी से पूछा कि दो दिन पहले गुजरात में आए भूकंप में तकरीबन एक लाख लोग मरे, अधिकांश बच्चों की मौत हुई जो गणतंत्र दिवस समारोह मनाने स्कूल गए थे, क्या हजारों बच्चों की मौत पर राष्ट्रीय शोक की घोषणा नहीं होनी चाहिए थी..? क्या राष्ट्रीय शोक पर केवल नेताओं का एकाधिकार है..? मेरे इस सवाल पर सामने बैठे कुछ ‘गरिष्ठ’ पत्रकार हंस पड़े थे। अटल जी ने चुटकी लेने वाले अंदाज में कहा, ‘आपसे मुलाकात नहीं हुई, नहीं तो घोषणा हो जाती।’ हास में बात को विलीन करने के अटल जी के इस प्रयास पर कुछ ‘विद्वत’ पत्रकार फिर हंसे। मैंने पूछा, ‘प्रधानमंत्री जी, क्या यह विषय मजाक का है..?’ मेरे यह कहने पर अटल जी की मुख-मुद्रा अचानक गंभीर हो गई थी, उन्होंने बड़ी गंभीरता से बस इतना ही कहा, ‘चूक तो हो गई।’ देश के प्रधानमंत्री के बतौर अटल जी ने बहुत बड़ी बात कही, लेकिन न तो नेताओं ने इसे गंभीरता से लिया और न पत्रकारों ने। खैर, आप यह सोचें कि अटल जी की इस एक पंक्ति की स्वीकारोक्ति उन्हें कहां से कहां ऊपर उठा कर रख देती है। आज कोई प्रधानमंत्री इस तरह क्या अपनी गलती सार्वजनिक रूप से कबूल कर सकता है..? आज तो स्थिति यह है कि ऐसे सवाल पूछने वाले पत्रकार को धक्के मार कर कक्ष से बाहर निकाल दिया जाएगा। उसे गिरफ्तार करने की स्थिति भी आ सकती है। यह अटल के राजनीतिक युग और वर्तमान युग के बीच का चारित्रिक-संस्कारिक फर्क है। अटल जी का ऐसा ही ऊंचा चरित्र और संस्कार था जो जनता पार्टी की सरकार के धराशाई होने के बाद लोकनायक जयप्रकाश से माफी मांगने से नहीं हिचकता। अटल जी ने लिखा था, ‘क्षमा करो बापू तुम हमको, वचन भंग के हम अपराधी / राजघाट को किया अपावन, मंज़िल भूले, यात्रा आधी / जयप्रकाश जी! रखो भरोसा, टूटे सपनों को जोड़ेंगे / चिताभस्म की चिंगारी से, अंधकार के गढ़ तोड़ेंगे।’
परमाणु परीक्षण से लेकर करगिल युद्ध का इतिहास अटल के योद्धा चरित्र की सनद देता है। एक तरफ विनम्रता तो दूसरी तरफ शौर्य, इन दो विलक्षण पहलुओं का सम्मिश्रण थे अटल जी। वे अटल ही थे जो एक तरफ कहते थे, ‘धमकी, जेहाद के नारों से, हथियारों से कश्मीर कभी हथिया लोगे, यह मत समझो / हमलों से, अत्याचारों से, संहारों से भारत का भाल झुका लोगे, यह मत समझो…’ दूसरी तरफ अटल ही थे जो ‘इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ की पुरजोर हिमायत करते थे। अटल जी के ये तीन शब्द कश्मीरियों के दिल में बसते हैं और पूरी दुनिया इन तीन शब्दों को ही ‘अटल डॉक्टरिन’ की संज्ञा देती है। 

कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने भाजपाई अटल के जरिए बचाई थी देश की इज्जत

तब देश में नरसिम्हा राव की सरकार थी। अटल बिहारी वाजपेयी विपक्ष के नेता था। कांग्रेस सरकार के प्रस्ताव पर अटल जी ने पार्टी लाइन से ऊपर उठकर कश्मीर मसले पर फंसी नरसिम्हा राव सरकार का साथ दिया और उन्हें उबारा। नरसिम्हा राव ने अटल जी को संयुक्त राष्ट्र भेजे गए प्रतिनिधिमंडल में न केवल शामिल किया बल्कि उसे नेतृत्व करने का दायित्व सौंपा। तब पाकिस्‍तान ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ मानवाधिकार उल्‍लंघन का आरोप लगाया था। पाकिस्तान ने ‘ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन’ (ओआईसी) के जरिए प्रस्ताव रखवाया और भारत के खिलाफ कुचक्र रचा। अटल जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व ने सारे विरोधियों का पटाक्षेप कर दिया। अटल जी ने इस मसले पर उदार इस्लामिक देशों से सम्पर्क स्थापित किया और अपनी मुहिम में कामयाब हुए। कामयाबी भी ऐसी हासिल हुई कि पाकिस्तान के प्रस्‍ताव पर संयुक्त राष्ट्र में इस्लामी देशों ने भारत का साथ दिया और पाकिस्‍तान को समर्थन देने वाले मुस्लिम देशों ने प्रस्‍ताव के पक्ष में मतदान करने से इन्कार कर दिया। इंडोनेशिया और लीबिया ने ओआईसी के प्रस्ताव से ही खुद को अलग कर लिया। सीरिया ने भी पाकिस्तान के प्रस्ताव से दूरी बना ली और ईरान ने प्रस्ताव को संशोधित करने को कह दिया। तब चीन ने भी भारत का साथ दिया था। आखिरकार विवश होकर पाकिस्तान को वह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। 

Monday 23 December 2019

किसी मुगालते में न रहें मुसलमान..!


प्रभात रंजन दीन
‘मित्रों के चेहरे वाली किताब’ (फेसबुक) में शामिल मेरे एक दोस्त हैं शाहनवाज हसन... मेरे लेख ‘मुसलमानों को आप नासमझ समझते हैं क्या?’ पर ये अकेले मुस्लिम साथी हैं, जिनकी थोड़ी सी सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली। शाहनवाज भाई को मेरे कुछ शब्दों पर आपत्ति थी और उन्हें इस बात पर भी आपत्ति थी कि मैंने राहुल गांधी पर निशाना क्यों साधा। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि राहुल से उनकी कोई सहानुभूति नहीं है। शाहनवाज हसन भारतीय हैं, भारतीय की तरह सोचते हैं और एक भारतीय की तरह ही उनमें भी देश में चल रही बेमानी हिंसा को लेकर पीड़ा है। शाहनवाज हसन उन हिन्दुओं से बहुत बेहतर हैं जो हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसी समुदाय के लोगों के हित की बात करने वाले को संघी या भाजपाई करार देने लगते हैं और मुस्लिम-हित की बात करने वाले को धर्म-निरपेक्ष। ऐसा करके वे खुद को ‘प्रगतिशील’ समझने का ‘आत्मरत्यानंद’ लेते रहते हैं। यह शब्द भारी लगेगा, लेकिन इसका संधि-विच्छेद (आत्म-रति-आनंद) कर लें तो इसका अर्थ स्पष्ट हो जाएगा। ऐसे ‘धर्म-निरपेक्ष’ और ‘प्रगतिशील’ बेहूदा लोगों को बेहूदा न कहा जाए तो क्या कहा जाए शाहनवाज भाई..? इन्हें बेहूदा शब्द क्यों बुरा लगता है..? इन्होंने तो ‘इश्क कमीना’, ‘भाग बोस डीके’, ‘पप्पू कांट डांस साला’, ‘चोली के पीछे क्या है’, ‘हलकट जवानी’ जैसे तमाम बेहूदे गीतों के दु-र्बुद्धिजीवी रचनाकारों और उस पर फिल्में बनाने वाले विकृत लोगों को बौद्धिक-आइकॉन पहले से बना रखा है। जो रचनाकार ‘गंदी बात गंदी बात’ से अपनी रचना शुरू करे ऐसे लोगों की जमात से आप ‘अच्छी बात’ की उम्मीद कैसे कर सकते हैं..? ऐसों को बेहूदा न कहें तो क्या कहें..? ऐसे ही दु-र्बुद्धिजीवी लोग पुरस्कार भी लौटाते हैं और प्रधानमंत्री को नैतिकता की सीख देने वाला पत्र भी लिखते हैं। इन्हें शर्म भी नहीं आती ऐसा करते हुए।
खैर, शाहनवाज हसन की कुछ जिज्ञासाओं का जवाब, जवाब के निर्धारित खाने में समा नहीं रहा था, इसलिए इसे अलग किया, लेकिन यह हम सब लोगों के लिए पढ़ने और मंथन करने के लिए है, खास कर मुसलमान साथियों के लिए। शाहनवाज भाई, आपकी बातें मुझे भावुक करती हैं। मेरे जिन शब्दों पर आपको आपत्ति है, वे शब्द थोड़े सख्त जरूर हैं, लेकिन आप जैसे सदाशय, संवेदनशील, समझदार और सरल लोगों के लिए थोड़े ही हैं। वे शब्द तो उन लोगों के लिए हैं जो बेमानी हिंसा कर रहे हैं, जो बेमानी हिंसा करा रहे हैं और जो बेमानी हिंसा को जन-आंदोलन और छात्र-आंदोलन की परिभाषा के फ्रेम में कसने का बौद्धिक-षडयंत्र कर रहे हैं। शाहनवाज भाई, आप believe करें, नागरिकता संशोधन कानून पर मेरे दो लेख आने के बाद मेरे चारों फेसबुक अकाउंट पर ढेर सारे मुस्लिम साथियों और बहनों के फ्रेंड्स रिक्वेस्ट आए हैं। उन सब को मैं अलग-अलग अकाउंट्स में समायोजित कर रहा हूं। मेरे मुसलमान मित्रों की एक लंबी कतार है... और आपसे बातें करते हुए मुझे इतना सुकून मिल रहा है कि आपसे क्या कहूं... मुझे रौशनी दिखाई दे रही है। फ्रेंड्स रिक्वेस्ट आ रहे थे, तब मुझे अच्छा तो लग रहा था लेकिन इस प्रायोजित हिंसा के खिलाफ कोई मुखर होकर सामने नहीं आ रहा था। धर्म तो सच बोलने की हिम्मत देता है न शाहनवाज भाई..! धर्म का गलत-सलत इंटरप्रेटेशन करके लोगों को मानसिक तौर पर पंगु बनाया जा रहा है। सभी धर्मों में ऐसे 'एक्सट्रीमिस्ट-इंटरप्रेटरिस्ट' अपनी बेहूदा हकरतें करते रहते हैं, लेकिन ऐसे तत्वों को हमें अपने ऊपर हावी नहीं होने देना है, बल्कि हमें उन पर हावी होना है। इसीलिए तो मैंने बिल्कुल सोच-समझ कर लिखा कि मुझे जिस दिन लगा कि हिन्दू धर्म में ऐसे 'एक्सट्रीमिस्ट-इंटरप्रेटरिस्ट' तत्व निर्णायक तौर पर हावी हो रहे हैं, उसी दिन मैं हिन्दू धर्म त्याग कर अलग हो जाऊंगा। मैं एक व्यक्ति के रूप में धरती पर आया हूं... धार्मिक के रूप में नहीं। धर्म को व्यक्ति ने बनाया है, व्यक्ति को धर्म ने नहीं बनाया है। जबतक धर्म, व्यक्तित्व (personality) बनाने में सहायक हो, तभी तक धर्म को स्वीकार करिए, अन्यथा नहीं।
मेरे लेख में आपको मेरे कुछ शब्दों पर आपत्ति है... आपसे आग्रह है कि आप उसे एक बार फिर पढ़ें... इस बार मुस्लिम होकर नहीं पढ़ें। जैसे आपने एक सच्चे भारतीय की तरह अपनी भावना मुखर होकर व्यक्त की... वैसे ही। जहां तक राहुल पर टार्गेट करने का प्रसंग है, मैं यह कह दूं कि राहुल-सोनिया तो सिम्बॉलिक-नेम हैं। जैसा आपको लेख में भी बताया कि राहुल गांधी ब्रिटिश नागरिक हैं। ब्रिटिश कंपनी ‘बैकोप्स लिमिटेड’ के डायरेक्टर के रूप में उन्होंने जो रिटर्न दाखिल किया उसमें राहुल ने खुद को ब्रिटिश नागरिक बताया है। कंपनी के निदेशक से हटने के लिए उन्होंने जो आवेदन दिया, उसमें भी खुद को उन्होंने ब्रिटिश नागरिक ही बताया है। ब्रिटेन, इटली, स्वीडन के साथ-साथ कई अन्य देशों में राहुल गांधी की अकूत सम्पत्तियां हैं, उनका पूरा ब्यौरा ईडी के पास आ चुका है। ब्रिटिश नागरिकता के सवाल पर केंद्र सरकार द्वारा दी गई नोटिस पर अब राहुल गांधी के जवाब का इंतजार है। जैसा आपको बताया कि उनकी ब्रिटिश नागरिकता के सवाल पर संसद की एथिक्स कमेटी वर्ष 2016 में ही उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी कर चुकी है, जिसका भी जवाब राहुल ने नहीं दिया है। राहुल ने जवाब दिया तो ताश के पत्ते से सजी ऊंची मीनार भरभरा कर गिर जाएगी। राहुल को यह तय करना होगा कि वे कहां के नागरिक हैं... फिर उन्हें यह भी बताना होगा कि विदेशों में अर्जित अकूत सम्पत्ति उन्होंने आय के किन स्रोतों से हासिल की। ऐसे तमाम नेताओं की लंबी लिस्ट है, जिनके विदेशों में फैले धंधे और घर का भेद अब खुलने ही वाला है, वे तो चाहेंगे ही कि हिंसा फसाद हो और वे किसी तरह बच पाएं। यह जो सड़क पर प्रायोजित हिंसा दिख रही है, उसके पीछे किन नेताओं की क्या मंशा है, उसे तो बताना ही पड़ेगा न शाहनवाज भाई..! आपने अपनी प्रतिक्रिया की शुरुआत में ही कहा कि आपकी राहुल गांधी से कोई सहानुभूति नहीं है। मैं भी तो यही कहता हूं कि मैं जब हिन्दू-सिख-जैन-पारसी-ईसाई-बौद्ध हित की बात करता हूं तो मैं भाजपाई या संघी नहीं होता। मैं जब मुस्लिम-हित की बात लिखता हूं तब मैं मुस्लिम-लीग का सदस्य नहीं होता। एक स्वतंत्र दिमाग वाले व्यक्ति को जिस तरह सोचना चाहिए उस तरह सोचता हूं, उसी तरह लिखता हूं और बोलता हूं। मैं किसी भी राजनीतिक दल या धार्मिक संस्था का न तो सदस्य हूं और न दलाल। और बेबाकी से लिखने-बोलने में यह मनोवैज्ञानिक भय भी नहीं रखता कि कोई मुझे संघी कह देगा कि अकाली दल का सदस्य या लीगी... मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसी मनोवैज्ञानिक भय के कारण तो पूरा समाज पिछले सत्तर साल से बेहूदे-प्रगतिशीलों और मक्कार-धर्मनिरपेक्षों के षडयंत्र का शिकार होता रहा... कि मुझे कोई क्या कह देगा। इसी आभासी डर की दुनिया से तो बाहर निकलना है और छद्मी परिभाषाएं गढ़ने वाले षडयंत्रकारियों के खिलाफ समवेत रूप से वैचारिक लोहा लेना है। इस लड़ाई में हिन्दू-मुसलमान समेत उन सभी धर्मावलंबियों को शामिल होना होगा, जो अपने धर्म को मानवधर्म से जोड़ कर देखते हैं, पीड़ा का धार्मिक-विभाजन नहीं करते और रक्तपात को हिकारत की नजर से देखते हैं, धार्मिक-पुण्य के भाव से नहीं...
शाहनवाज भाई, आपने लिखा कि मुसलमानों को CAA एवं NRC के नाम पर भयभीत कर राजनीतिक रोटी सेंकी जा रही है। ज़रूरत है मुसलमानों से संवाद क़ायम कर भ्रांतियों को दूर किया जाए। आपने यह भी लिखा कि जाने-अनजाने मेरा लेख उन तत्वों को ही ईंधन देने का कार्य करेगा।
भाई, मैं एक स्वाभाविक लेखक हूं, बनावटी लेखक नहीं हूं... मैं आपसे विनम्र असहमति रखता हूं कि मुसलमानों को भयभीत कर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। उग्र हिंसा, भय का परिचायक थोड़े ही होती है। सरकारी-गैर सरकारी वाहनों में आग लगाना, तोड़-फोड़ मचाना, शहीद स्मारक ध्वस्त करना, महापुरुषों की मूर्तियां तोड़ना, पुलिस पर हिंसक हमला करना, मीडिया वालों के साथ हिंसक बर्ताव करना क्या मुसलमानों के भय का परिचायक है। अगर यह भय है तो फिर आपराधिक-दुस्साहस क्या होता है..? भय जानना हो तो मुस्लिम बहुल इलाकों में रह रहे गैर-मुस्लिमों से पूछिए और सुख जानना हो तो हिन्दू बहुल इलाकों में रहने वाले मुसलमानों से पूछिए। धर्म के नाम पर बने इस्लामिक देशों में जो भीषण अंदरूनी मारकाट मची हुई है, वह क्या भय या डर के कारण है..? ऐसा नहीं है। हमारे तवे पर कोई रोटी तभी सेंक पाएगा जब हम इसकी इजाजत देंगे और हमारा तवा गर्म होगा। मैं इसीलिए बार-बार कहता हूं कि नागरिकता संशोधन कानून तो महज एक बहाना है... लक्ष्य है राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लागू नहीं होने देना, क्योंकि एनआरसी लागू हो गया तो भारत में घुस कर अवैध रूप से रह रहे करोड़ों बांग्लादेशियों, पाकिस्तानियों और रोहिंगियाओं की आधिकारिक तौर पर शिनाख्त हो जाएगी। भारत का अधिसंख्य मुसलमान धर्म के नाम पर उन्हें बचाने का अधर्म रच रहा है। अगर धार्मिक आबादी का गुणा-गणित छोड़ कर विचार करें तो पाएंगे कि बांग्लादेश, पाकिस्तान और रोहिंगिया आबादी मुसलमानों के लिए ही भारी पड़ने वाली है। संख्या-बल के बूते धर्म के नाम पर देश बांट लेने के कबीलाई चरित्र से कब उबरेगा मुसलमान..? फिर पाकिस्तान और बांग्लादेश लेकर क्यों नहीं निश्चिंत हो गए..? फिर क्यों भागने लगे भारत की ही तरफ..? क्या धर्म के नाम पर देश बांट कर दरिद्रता और भिक्षा का पात्र बनना ही धार्मिक उपलब्धि और जेहाद है..? किस दुनिया में जी रहे हैं मुसलमान..? इनके दिमाग का ढक्कन कौन खोलेगा..? दकियानूसी बंद दिमाग की खिड़कियां खुलें और खुली ताजा हवा आ-जा सके इसके लिए शाहनवाज हसन जैसे लोगों को ही आगे आना होगा न। कब तक मुल्लों-मौलवियों और बहकाने वाले धार्मिक तत्वों के चक्कर में रहेंगे..? जब मुसलमानों में ही चिंगारी भड़काने वाले तत्वों की भरमार लगी हो तो मेरे लेख पर क्यों कहते हैं कि यह ईंधन देने का कार्य करेगा..? इस सोच से बाज आना होगा कि हम जो भी बेजा हरकतें करें उसे ठीक बताएं और उसके खिलाफ यदि कोई अपना विचार दे तो उसे आग में ईंधन देने वाला कह दें। सच यह है शाहनवाज भाई कि तीन तलाक पर पाबंदी लगने, अनुच्छेद-370 हटने और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता खुलने से जो गुस्सा मुसलमानों के अंदर-अंदर दहक रहा था, नागरिकता संशोधन कानून के बहाने वह फूट पड़ा। दरअसल, ईंधन वहीं था, जहां आग लगी थी।
इसलिए कोई भय-वय नहीं है मुसलमानों में। केवल गुस्सा है... वह भी धार्मिक अंधता की वजह से। नागरिकता संशोधन कानून भारत के मुसलमानों के लिए नहीं है, यह बात देश के अनपढ़ गंवार लोगों को भी पता है। सबको पता है कि यह कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा सताए गए वहां के अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता देने से सम्बन्धित है। सबको पता है कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में उन्हीं लोगों का नाम दर्ज होगा जो भारत के वास्तविक नागरिक हैं। जो भारत का नागरिक है, उसे यदि एनआरसी से भय हो तो इस भय के पीछे कोई खास वजह है। बांग्लादेशी-पाकिस्तानी-रोहिंगियाई मुसलमानों के निकाले जाने का भय भारत के अधिसंख्य भारतीय मुसलमानों को सता रहा है। शाहनवाज भाई जैसे मुसलमान भारतीयों को ही आगे आना होगा मुसलमानों के दिमाग से आबादी के लाभ-लोभ वाली सड़ियल ‘थ्योरी’ को निकालने के लिए... अब आबादी के बूते धर्म के नाम पर देश को कोई बांट नहीं पाएगा, किसी मुगालते में न रहें मुसलमान। भारत के नागरिक की तरह रहें और मौज करें... 

Saturday 21 December 2019

मुसलमानों को नासमझ समझते हैं क्या..?


प्रभात रंजन दीन 
तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का शहर लखनऊ... अरे छोड़िए सब बेकार बातें हैं। देश, संविधान और शहर का जब अपने स्वार्थ में इस्तेमाल करना हो तो सारे अच्छे-अच्छे शब्द और संबोधन... लेकिन जब स्वार्थ नहीं सधे, तब देखिए लखनऊ को बदतमीजी और असभ्यता का शहर बनाने में थोड़ी भी देर नहीं लगती। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हिंसा के जरिए देश को जिस विद्रूप स्थिति में बदलने की कोशिशें हो रही हैं, उसके लिए विकृत-दिग्भ्रमित मानसिकता का मुसलमान, मक्कार दिमाग के नेता, एकपक्षीय-धर्मनिरपेक्षता की मनोवैज्ञानिक आत्मरति के लती (एडिक्ट) लोग और मूर्ख-मीडिया जिम्मेदार है। मैं पूरी जिम्मेदारी, जानकारी, अनुभव और हिंसा फैलाने वाली भीड़ में घुस कर उनकी आपसी बातें सुन-समझ कर लिख रहा हूं। इसमें मैं धर्मनिरपेक्षता की आत्मरति के ‘एडिक्ट’ लोगों को थोड़ा अलग इसलिए रखता हूं, क्योंकि ये बीमार हैं, रोग-ग्रस्त हैं, ‘हैलूसिनेशन’ (hallucination) में जीने वाले लोग हैं... ये अलग एक ‘मेडिकल-केस’ हैं। इन्हें पता ही नहीं कि ये देश-समाज का कितना नुकसान कर रहे हैं। इन्हें न पढ़ने से मतलब है न समझने से। इनसे बातें करिए, इनकी प्रतिक्रियाएं देखिए, आपको साफ-साफ लगेगा कि इनकी अपनी कोई मौलिकता नहीं है। इनकी आंख बस देख रही है... देखने का इनके दिमाग से कोई लेना-देना नहीं। दृश्य को सामने रख कर उसे समझने और उसका सिरा और छोर तलाशने की इनकी क्षमता नष्ट हो चुकी है। छद्म धर्मनिरपेक्ष, छद्म प्रगतिशील, छद्म बुद्धिजीवी और छद्म मानवाधिकारवादी जमात असलियत में आदमखोरों (Cannibal Apocalypse) की जमात में तब्दील हो चुकी है। यह मानसिक तौर पर बीमार और विकृत लोगों की भीड़ है जो अपने ही देश को खा रही है। यह प्रजाति खुद को राजनीति से अलग बताती है, लेकिन एक खास राजनीतिक दिशा में ही जाती दिखती है। ‘धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील-बुद्धिजीवी-कलाकार’ जैसी शब्दावलियां रच कर राजनीतिक दलों के मक्कार नेता 70 साल से अपने हित में इनका इस्तेमाल कर रहे हैं। Zombies का यह जत्था एक खास राजनीतिक दिशा की तरफ जाता दिखता है... लेकिन यह केवल जाता हुआ दिखता है। इनके विचार नहीं होते। विचार से ये वामपंथी दिखने की कोशिश करते हैं, लेकिन असल में ये होते हैं पोंगापंथी जो कभी कांग्रेस तो कभी समाजवादियों के झुंड में भी दिख जाते हैं। आप बताइए न कौन सा वामपंथी देश है जिसने बेहूदा (रैडिकल) तत्वों के लिए अपने देश को बिखरने दिया..? चीन इसका सबसे तगड़ा उदाहरण है। चीन के नाम पर हमारे देश में माओवादी-परजीवी-बुद्धिजीवी पलते हैं और जंगल से लेकर शहर तक वैचारिक प्रदूषण फैलाते हैं। जिस चीन का तमगा टांग कर अति-वामपंथी या वामपंथी अपनी दुकान चला रहे हैं, उस चीन ने अपने देश में बेहूदा धार्मिक तत्वों और बेहूदा धर्मनिरपेक्षों की हरकतें क्या चलने दीं..? चीन के शिनजियांग प्रांत में क्या उइगुर मुसलमानों की अलगाववादी-आतंकवादी गतिविधियां चलने दी गईं..? बेहूदा धार्मिक और बेहूदा धर्मनिरपेक्षी तत्वों ने अलग-अलग देशों से चीन पर भारी दबाव डालने की कोशिश की, लेकिन क्या वे सफल हुए..? चीन में उइगुर मुसलमानों की अलगाववादी-आतंकवादी हरकतों को सख्ती से कुचले जाने पर क्या भारत के किसी वामपंथी नेता ने कभी आवाज उठाई..? एक भी वामपंथी नेता का नाम बताएं जिसने चीन के मुसलमानों की धार्मिक गतिविधियों को घर की चारदीवारी के अंदर पाबंद कर दिए जाने के खिलाफ एक शब्द भी बोला हो..? ये नेता जब कश्मीरी पंडितों और लद्दाखी बौद्धों पर हुए अत्याचार पर कुछ नहीं बोले तो अपने फंडदाता आका चीन के खिलाफ मुंह खोलने की उनकी क्या औकात है..! पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में वहां के अल्पसंख्यकों पर हुए सिलसिलेवार अत्याचार पर इन तथाकथित वामपंथियों ने आज तक एक शब्द नहीं बोला। ऐसे ही दोगले नेता आज भारत में हिंसा फैलाने वाले मुसलमानों के पीछे खड़े हैं और उन्हें उकसा रहे हैं। या फिर सोनिया गांधी या राहुल गांधी जैसे नेता इनके पीछे हैं जिनकी खुद की नागरिकता सवालों के घेरे में है। वे यह जानते हैं कि एनआरसी से सबसे अधिक खतरा उन्हें ही है। ...तो क्यों न मुसलमानों को भड़काया जाए..! आपको स्मरण दिलाता चलूं कि इसी साल अप्रैल महीने में गृह मंत्रालय ने राहुल गांधी को नोटिस जारी कर उनसे उनकी नागरिकता पूछी थी। आठ महीने पहले जारी हुई नोटिस का राहुल गांधी ने अब तक कोई जवाब नहीं दिया है। अब राहुल क्या जवाब देंगे..! क्या वे बता देंगे कि वे ब्रिटेन के नागरिक हैं..? तब उनकी राजनीतिक दुकान का क्या होगा..? वास्तविकता यही है कि राहुल गांधी ब्रिटिश कंपनी ‘बैकोप्स लिमिटेड’ के डायरेक्टर हैं और कंपनी के वर्ष 2006 के एनुअल रिटर्न में राहुल गांधी ने खुद को ब्रिटिश नागरिक बता रखा है। वर्ष 2009 में राहुल ने ‘बैकोप्स लिमिटेड’ के निदेशक पद से खुद को अलग करने का आवेदन दिया, उस आवेदन में भी उन्होंने खुद को ब्रिटिश नागरिक ही बताया। वैसे, आपको यह भी बता दूं कि संसद की आचार-समिति (एथिक्स कमेटी) ब्रिटिश नागरिकता के सवाल पर वर्ष 2016 में ही राहुल गांधी को नोटिस जारी कर चुकी है। राहुल ने अब तक कोई जवाब नहीं दिया है। संसद की ‘एथिक्स कमेटी’ के समक्ष दो ही मामले लंबित हैं... एक राहुल गांधी का और दूसरा विजय माल्या का। है न रोचक तथ्य..! अब राहुल अधर में हैं कि भारत की नागरिकता बताई तो विदेश की अकूत सम्पत्ति हाथ से गई। अगर विदेश की नागरिकता बताई तो राजनीति और सांसदी गई। इसके अलावा राहुल को यह भी बताना होगा कि विदेश का धन उन्होंने किन स्रोतों से हासिल किया..? अब ये दोनों तरफ से गए। राहुल और सोनिया की सांस इसी कानूनी नुक्ते पर अंटकी हुई है... इसका एक ही समाधान इन्हें दिखता है, वह है ‘केऑस’... पूरा देश भीषण अराजकता में घिर जाए, देश रसातल में चला जाए, किसी तरह से वे बचे रहें। ...और भारत के बेहूदा रैडिकल तत्व पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और बर्मा (म्यांमार) से यहां आकर गैर कानूनी रूप से रह रहे करोड़ों मुसलमानों को बचाने के लिए इस अराजकता का फायदा उठाना चाह रहे हैं। मुसलमानों का लक्ष्य नागरिकता संशोधन कानून उतना नहीं, जितना राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस) है। नागरिकता संशोधन कानून तो बस एक जरिया है। इस पर इतना बवाल कर दो कि एनआरसी का मसला अपने आप शिथिल हो जाए।
दरअसल, विक्षिप्त मुसलमानों के कंधे पर बंदूक रख कर एक साथ कई निशाने साधे जा रहे हैं। राहुल-सोनिया की बेचैनी के बारे में आपको बताया। आप जानते ही हैं कि पी. चिदम्बरम को दिल्ली हाईकोर्ट मनी लॉन्ड्रिंग के धंधे का सरगना बता चुकी है। इसके अलावा कई वामपंथी नेताओं ने विदेश की दहलीज थाम रखी है। हवाला और मनी लॉन्ड्रिंग के जरिए कई वामपंथी नेताओं के बड़े-बड़े बिजनेस में पैसे लगे हैं। उनके बच्चे दक्षिणपंथी पूंजीपति देशों में आलीशान खर्चीले शिक्षण संस्थानों में पढ़ रहे हैं या नौकरी कर रहे हैं। कश्मीर के अलगाववादी नेताओं का भी यही हाल है। कई बड़े चैनल कांग्रेस-वाम नेताओं के संदेहास्पद धन-स्रोतों से चल रहे हैं। कई चैनलों में धनी इस्लामिक देशों का पैसा लगा है। इस ‘कला’ में कांग्रेसी और वामपंथी माहिर हैं, उनका सत्तर सालाना अनुभव है। इन सब नेताओं को अपने बचने की फिक्र है। समाजवादी पार्टी भी इन्हीं पार्टियों का ‘बगलबच्चा’ है। परिवार-केंद्रित और स्वार्थ-केंद्रित पार्टी का स्वयंभू अध्यक्ष अपने घर की टोटियां तक उखाड़ ले जाता हो, कभी कांग्रेस की गोद तो कभी बसपा की गोद तलाशता हो, भ्रष्टाचार के मामलों में कानूनी कार्रवाई से बचे रहें इसके लिए अपने पिता से भाजपाई सत्ताधीशों की खुशामदें कराता हो, तो ऐसे विचारहीन अवसरवादी नेता से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वह जनता के व्यापक हितों के प्रति संवेदनशील और भावुक होगा..? ऐसा नेता समाजवाद के सिद्धांतों के बारे में कोई गंभीर और सार्थक समझ रखता होगा..? इसे लेकर मुसलमान भी किसी गलतफहमी में नहीं हैं। एक-दूसरे के कंधे का इस्तेमाल कर दोनों अपना-अपना फायदा उठाने की जुगत में हैं। इसीलिए मुसलमानों और सपाइयों के प्रभाव वाले इलाकों में हिंसा फैलाने का साझा कार्यक्रम चल रहा है। आप जरा गौर तो करिए..!
आप मूर्ख-मीडिया के चक्कर में न पड़ें। आप यह कतई न समझें कि मुसलमान नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) का फर्क नहीं जानता। वह बिना समझे-बूझे हिंसा पर उतारू है। ऐसा नहीं है। वह ‘इन्नोसेंट’ नहीं है। वह ‘सीएए’ और ‘एनआरसी’ का फर्क बखूबी जानता है। मुसलमान यह बखूबी जानता है कि ‘सीएए’ भारत के लोगों के लिए नहीं बल्कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में सताए गए अल्पसंख्यकों मसलन; हिन्दू, सिख, बौद्ध, पारसी, ईसाई और जैनियों को नागरिकता देने से सम्बन्धित है। आप इस गलतफहमी में न रहें कि नागरिकता संशोधन कानून के जरिए महज 31,313 गैर-मुस्लिमों को भारत की नागरिकता दिए जाने से मुसलमान बौखलाए हुए हैं। मुसलमान यह अच्छी तरह जानते हैं कि इससे कहीं अधिक, बहुत बड़ी तादाद में पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, अफगानी और रोहिंगिया मुसलमान भारतवर्ष में रह रहे हैं। आधिकारिक तथ्यों पर गौर फरमाते चलें, ताकि आपको सारी स्थिति साफ-साफ दिखने लगे। वर्ष 2011 की जनगणना में यह तथ्य आधिकारिक तौर पर सामने आया कि 55 लाख बांग्लादेशी और पाकिस्तानी भारत में रह रहे हैं। इस संख्या का 42 प्रतिशत हिस्सा बांग्लादेशी मुसलमानों का है और 12.7 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तानी मुसलमानों का। शेष अफगानिस्तान के मुसलमान हैं। यह आधिकारिक संख्या उन पाकिस्तानियों और बांग्लादेशियों की है, जो वर्ष 2011 के थोड़ा पहले भारत में दाखिल हुए। सिर्फ 2011 में बांग्लादेश के करीब 25 हजार लोग भारत में घुसे और पाकिस्तान से करीब 10 हजार लोग भारत में घुसे। यह तो बात हुई आधिकारिक आंकड़े की। जबकि जमीनी वास्तविकता यह है कि अनधिकृत तौर पर करोड़ों बांग्लादेशी और पाकिस्तानी मुसलमान भारत में अवैध रूप से रह रहे हैं। वर्ष 2000 में ही यह आकलन था कि भारत में 12.5 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए रह रहे हैं। हर साल तीन लाख बांग्लादेशियों की देश में आमद हो रही थी। घुसपैठियों को धड़ल्ले से वोटर बनाया जा रहा था। बंगाल में सत्ताधारी वामपंथी दल कर रहे थे और शेष भारत में कांग्रेस। कांग्रेस शासन के समय 14 जुलाई 2004 को तत्कालीन गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने संसद में बयान दिया था कि भारत में दो करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए अवैध रूप से रह रहे हैं, जिसमें 50 लाख 70 हजार बांग्लादेशी अकेले पश्चिम बंगाल में रह रहे हैं। जब केंद्र में भाजपा की सरकार आई तब केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने संसद में कहा कि अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की तादाद दो करोड़ 40 लाख है। यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है। आधिकारिक तथ्य है कि वर्ष 2001 की जनगणना में 30 लाख, 84 हजार 826 अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों के भारत में रहने की जानकारी मिली थी। आप हैरत करेंगे कि 1981-1991 के दशक का इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट का पुराना आधिकारिक रिकॉर्ड है कि उन 10 वर्षों में हर साल करीब एक लाख बांग्लादेशी घुसपैठिए भारत में दाखिल होते रहे। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश के निर्माण के दरम्यान जिन एक करोड़ बांग्लादेशियों को भारतवर्ष में घुसने दिया गया, वह संख्या इसके अलग है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आज इनकी संख्या कहां पहुंच चुकी होगी और यह भारत की मूल आबादी में कितना इजाफा कर रही होगी। इस संख्या में अवैध पाकिस्तानियों, अफगानियों और रोहिंगियाओं की तादाद भी जोड़ कर देखें तो आपको भयावह दृश्य दिखेगा...
बर्मा से भाग कर आए रोहिंगिया मुसलमानों को भी भारतवर्ष में मुसलमानों ने घुसाया। जहां-जहां घनी मुस्लिम आबादी है, आप वहां जाकर देखें आपको बांग्लादेशी और रोहिंगिया मुसलमान मिलेंगे। धीरे-धीरे रोहिंगिया मुसलमान कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैल गए। कश्मीर में तो संवेदनशील सीमा क्षेत्र में पूरी रणनीति से रोहिंगियाओं को बसाया गया है, ताकि समय पर ये पाकिस्तान की मदद में खड़े हो सकें। देश के बड़े-बड़े शहरों में रोहिंगिया मुसलमान रिक्शा चला रहे हैं, मजदूरी कर रहे हैं, कूड़ा-कचरा बीन रहे हैं, उनकी महिलाएं घरों में नौकरानी का काम कर रही हैं और सड़कों-चौराहों पर बच्चा टांगे भीख भी मांग रही हैं। यह सब खुलेआम हो रहा है, लेकिन प्रशासन चुप है। हम-आप भी चुप हैं... हमें घर में काम करने के लिए नौकरानी मिल गई है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में ही करीब 10 लाख अवैध बांग्लादेशियों और रोहिंगियाओं के रहने की शिनाख्त हुई है। यही रोहिंगिया चोरी-चकारी से लेकर नशीली दवाओं के धंधे के पेडलर का काम कर रहे हैं और आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हैं। रोहिंगिया महिलाएं दूसरे जरायम धंधों में भी खूब मुब्तिला हैं। दि सेंटर फॉर वोमेन एंड चिल्ड्रेन स्टडीज़ की रिपोर्ट है कि भारतवर्ष में वेश्यावृत्ति का धंधा करने वाली 10 फीसदी महिलाएं बांग्लादेशी घुसपैठिया हैं। सीईडीएडब्लू की रिपोर्ट है कि अकेले कोलकाता में 27 प्रतिशत वेश्याएं बांग्लादेशी घुसपैठिया हैं। इस धंधे में रोहिंगियाओं के शामिल हो जाने से यह प्रतिशत और बढ़ गया है। ऐसे रोहिंगियाओं को भारतवर्ष में आधार-कार्ड, वोटर आइडेंटिटि कार्ड और पासपोर्ट तक दिलवा दिया गया है। भारतवर्ष के मुसलमान रोहिंगियाओं को पाल-पोस रहे हैं और उन्हें संरक्षण दे रहा है प्रशासन और पुलिस। नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपनी राजनीति में लगे रहें। प्रशासन और पुलिस पैसे के लिए वेश्या बन चुकी है। यह एक कठोर असलियत है। पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों में कोई गैरत नहीं। धन चाहे देश को तबाह करने के लिए मिल रहा हो, प्रशासन और पुलिस को धन मिलना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या इस तरह गेट खोल कर अपने देश में घुसपैठियों को घुसाया जाता..? आप सोचिए कि उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के नगर निगम में हजारों सफाई कर्मी अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं। इस बारे में यूपी के एंटी टेररिस्ट स्क्वैड (एटीएस) ने बाकायदा नगर निगम से पूछा, लेकिन एटीएस की चिट्ठी भी भारतवर्ष की भ्रष्टाचार की मुख्यधारा में कहीं बह गई। जबकि इसी साल यूपी पुलिस के मुखिया डीजीपी ओपी सिंह अवैध बांग्लादेशियों और रोहिंगियाओं को आने वाले दिनों का बड़ा खतरा बता चुके हैं। लखनऊ के पॉश इलाके गोमती नगर में बांग्लादेशी और रोहिंगिया घुसपैठियों ने कई भीषण डकैतियां डालीं। यह तथ्य ऑन-रिकॉर्ड हैं, लेकिन कुछ नहीं हुआ। लखनऊ नगर निगम को सफाईकर्मी मुहैया कराने वाले ठेकेदार सस्ते में बांग्लादेशी घुसपैठियों से काम कराते हैं और इसके लिए सरकार से मिलने वाले धन का बड़ा हिस्सा खुद खा जाते हैं। इन्हें एहसास ही नहीं कि वे धन नहीं, देश खा रहे हैं। मुसलमान इसके लिए चिंतित नहीं हैं कि आप किसे नागरिक बनाने जा रहे हैं। मुसलमान इसलिए आग बबूला हैं कि करोड़ों अवैध मुसलमान भारत से बेदखल न हो जाएं। उनके लिए देश कोई प्राथमिकता नहीं। उन्हें धर्म के नाम पर बढ़ती कीड़े-मकोड़ों की संख्या से मतलब है, जिसके बूते वे फिर देश को तोड़ने का तानाबाना बुन रहे हैं। हैरत होती है कि भारत में घुसे रोहिंगियाओं को अवैध बताने पर सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल हो जाती है। मोहम्मद सलीमुल्ला याचिका दाखिल कर अदालत से कहता है, रोहिंगियाओं को वापस न भेजा जाए। कहां बर्मा में रोहिंगियाओं पर अत्याचार हुआ तो भारत में मुसलमानों ने मुंबई में शहीद स्मारक तोड़ डाला और लखनऊ में भगवान महावीर की मूर्ति ध्वस्त कर दी। वही मुसलमान जम्मू कश्मीर में कश्मीरी पंडितों और लद्दाखी बौद्धों के नरसंहार पर चुप्पी साध कर धार्मिक-पुण्य का मनोवैज्ञानिक-सुख लेता है और पड़ोसी देशों में वहां के अल्पसंख्यकों पर हो रहे जुल्म पर शातिराना चुप्पी साधे रहता है। उन लोगों को जब भारत में राहत देने की बात होती है तो यह बिलबिला उठता है और सड़क पर उत्पात मचाने लगता है। बेहूदा बुद्धिजीवी और फर्जी धर्मनिरपेक्ष तत्व इस नियोजित उत्पात को छात्र आंदोलन और जन आंदोलन करार देने का शातिराना षडयंत्र करता है। अब ताजा फैशन आया है बॉलीवुड के कुछ कलाकारों के भी ऐसी हरकतों में शामिल होने का। पिछली बार ‘लिंचिंग’ पर प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर सुर्खियां बटोर लीं और इस बार देशभर की सड़कों पर हो रहे मुसलमानों द्वारा किए जा रहे उत्पात पर फिर गोलबंद होकर पुलिस को ही उल्टा अत्याचारी साबित करने लगे। कभी सम्मान लौटाने तो कभी पत्र लिखने वाले लफंगे लोग ‘लिंचिंग’ पर ‘लिम्पिंग’ करते हैं, लेकिन उन्हें कश्मीर में सुरक्षा बलों की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती। उन्हें पश्चिम बंगाल की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती, उन्हें केरल, तमिलनाडु या देश के अन्य हिस्सों में इतर-धर्मियों की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती। उन्हें कभी कश्मीरी पंडितों और लद्दाखी बौद्धों की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखी। आप सोचिए कैसे दोगले हैं ये... मूर्ख मीडिया जिन्हें कलाकार या बुद्धिजीवी कह कर ‘परोसता’ रहता है, उनका नाम लेना भी अधःपतन है। एक फिल्म निदेशक अपराध और क्रिमिनल गैंग्स पर फिल्में बना-बना कर अपनी असली मनोवृत्ति अभिव्यक्त करता रहता है। फिल्मों में ऐसी गालियां इस्तेमाल करता है, जिसे आम जिंदगी में लोग मुंह पर लाने से हिचकते हैं। ऐसा आदमी कलाकार और बुद्धिजीवी..! और मीडिया द्वारा महिमामंडित..! ऐसे कलाकार जिनकी पिछली जिंदगी में झांकें तो आपको यौन-उत्तेजना भड़काने वाले उनके फिल्मी और गैर-फिल्मी कृत्यों की भरमार दिखेगी, मीडिया उसे समाज का आईकॉन बना कर पेश करता है। ऐसे इतिहासकार जिन्होंने जीवनभर भारतीय इतिहास के अध्यायों पर कालिख पोतने का काम किया, ऐसे समाजविरोधी-देशविरोधी तत्व मीडिया की निगाह में ‘इंटलेक्चुअल’ होते हैं। इन्हें ‘स्यूडो-इंटलेक्चुअल’ या छद्मी-बुद्धिजीवी कहना भी उचित नहीं। ये असलियत में समाज के सफेदपोश अपराधी (व्हाइट कॉलर्ड क्रिमिनल्स) हैं।
यह मूल बात समझ में नहीं आती कि क्या मानवीय करुणा धर्म का भेद करके आती है..? सिखों पर बर्बरता और दोगलेपन की देश में इंतिहा कर दी गई। किस ‘लफंगे-बौद्धिक‘ ने अपना अवॉर्ड लौटाया या प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी..? तत्कालीन कश्मीर के हिन्दुओं-सिखों-बौद्धों का कत्लेआम मचाया गया और उन्हें अपने ही घर से भगाया गया, इसके खिलाफ किस ‘प्रगतिशील-लफंगे’ ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी..? कश्मीरी पंडितों को उनके घर वापस दिए जाएं, इसके लिए किस ‘प्रायोजित-प्रगतिशील-जमात’ ने प्रधानमंत्री से गुहार लगाई..? पूर्वोत्तर राज्यों में बांग्लादेशियों द्वारा मचाए गए हिंसक-उत्पात के खिलाफ किस ‘कलाकार-बुद्धिजीवी’ ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा या सार्वजनिक रुदाली की..? इन ‘लफंगों’ की आंखों पर केवल एक चश्मा लगा है... इस चश्मे को उतारें तो इसमें आपको अरब की आंख दिखेगी, आपको चीन की आंख दिखेगी, आपको पाकिस्तान की आंख दिखेगी। आपको उन ताकतों की आंख दिखेगी जो भारतवर्ष में अस्थिरता (unrest) का भयानक मंजर खड़ा करना चाहते हैं। इनकी जेबों में देखें, आपको उन्हीं देशों और उन्हीं ताकतों का धन मिलेगा। जरा झांकिए तो, किन ताकतों के बूते बॉलीवुड चलता है और उन ताकतों के आगे किस तरह फिल्मी कलाकार भड़ुए बने फिरते हैं। जरा झांकिए तो, पाकिस्तानी आईएसआई का धन किस तरह भारत के वर्णसंकरों को पाकिस्तान-परस्त बना रहा है। जरा झांकिए तो, अरब का धन किस तरह पढ़े-अधपढ़े लोगों को ‘अति-इस्लामिक-व्याख्यावादी’ (Extremist-Islamist-Interpreterist) जमात में कनवर्ट कर रहा है। जरा झांकिए तो, चीन का धन किस तरह भारत में ‘कुलीनतावादी-माओवादी’ (एलिटिस्ट-माओइस्ट) पैदा कर रहा है, जो भोले-भाले अनपढ़ खेतिहर और शहरी मजदूरों के बीच ‘सर्वहारा के अधिनायकवाद’ का प्रवचन ठेलता है, समाज में जहर फैलाता है, अपने बच्चों को पश्चिमी देशों में आलीशान पूंजीवादी शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में पढ़वाता है और वसूला गया धन विदेश के चोर-बैंकों में जमा कराता है। कश्मीरी अलगाववादियों की असलियत तो आप जान चुके हैं। उनके अकूत धन के स्रोत वही पश्चिमी देश हैं, जहां उनके बच्चे पढ़ते हैं या नौकरी करते हैं और उन्हीं देशों में वे बम फोड़ने की साजिश भी करते हैं।
भारत को भारत के लोगों ने ही सड़ाया है। इसका क्रमिक विश्लेषण हम जरूर करेंगे, इतिहास के पन्नों से होते हुए हम आपस में विचार-विमर्श करेंगे। हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन या पारसी हित की बात कहने वाले को संघी बता कर उसे खारिज करने और मुस्लिम हित की बात कहने वाले को धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील बताने के बेहूदा चलन के खिलाफ समवेत खड़ा होना होगा। जो मुस्लिम-हित की बात करता है वह मुस्लिम लीग का सदस्य क्यों नहीं..? तो Alienation की ऐसी टैक्टिस अपनाने या किसी को दरकिनार कर मतलब साधने की धूर्तता से बाज आएं। सभी धर्म-सम्प्रदाय का हित हो, तभी समेकित रूप से देश का हित होगा। धर्म और राजनीतिक-वैचारिक पूर्वाग्रह से अलग होकर भारत के एक सामान्य नागरिक की तरह सोचें, फौरन महसूस होगा कि संविधान का अनुच्छेद 370 देश के लिए कितना घातक था, बांग्लादेश-पाकिस्तान-अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों में वहां के अल्पसंख्यकों पर हो रहे त्रासद अत्याचार के खिलाफ खड़ा होना मानवीय दृष्टिकोण से कितना जरूरी था और बांग्लादेशी-पाकिस्तानी-रोहिंगियाई घुसपैठियों की भारी भीड़ से मुक्त होना अपने देश और समाज के लिए कितना जरूरी है... 

Tuesday 17 December 2019

इस बौखलाहट की आहट सुनें..!


प्रभात रंजन दीन
नागरिकता संशोधन अधिनियम पर जिस तरह का व्याकुल शोर व्याप्त है, उसके निहितार्थ लोगों की समझ में आते हैं। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम- 2019 भारतीय संसद से पारित होते ही और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद उसके कानून बनते ही जो बेचैनियां सड़क पर अभिव्यक्त होने लगीं, उसे वास्तविक देशवासी फौरी और आकस्मिक समझने की भूल नहीं कर रहे हैं। वास्तविक देशवासी यह समझ रहे हैं कि हिंसक बौखलाहटें क्यों हैं। यह देश को किसी खास विद्रूप दिशा में ले जाने का षडयंत्र है। ऐसा ही षडयंत्र 1947 में हुआ था, जब धर्म के नाम पर देश तोड़ डाला गया था। ये जो समवेत हुआं-हुआं में संविधान की धारा-14, धर्मनिरपेक्षता, मानवतावाद, रोहिंगियावाद और सहिष्णुतावाद जैसी तमाम शब्दावलियां सुनाई पड़ रही हैं, वही जमातें जहां-जहां खुद को थोड़ा मजबूत समझती हैं, वहां-वहां हिंसा का रास्ता अख्तियार कर देश को चुनौतियां भी दे रही हैं। संविधान की धारा-14 में ‘विधि के समक्ष समता’ का प्रावधान है। यह धारा कहती है, ‘राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।’ इस संवैधानिक प्रावधान को अंग्रेजी में कहते हैं... ‘The State shall not deny to any person equality before the law or the equal protection of the laws within the territory of India.’
नागरिकता (संशोधन) अधिनियम पर रुदाली करने वाले लोगों को अपने ही देश के राज्यक्षेत्र (territory of India) में रहने वाले कश्मीरी पंडितों और लद्दाखियों के लिए संविधान की धारा-14 का औचित्य कभी नहीं समझ में आया। कश्मीरी पंडितों को सरेआम काटते, पीटते और कश्मीरी महिलाओं के साथ सरेआम बलात्कार करते समय जाहिल-जमातों को यह ख्याल नहीं रहा कि कश्मीरी पंडितों, सिखों, बौद्धों और वहां के अन्य अल्पसंख्यकों के भी समानता के अधिकार हैं। उनकी सम्पत्तियों पर कब्जा करके और उन्हें अपनी ही जमीन से भगाने वाली जमातें संविधानवादी थीं, धर्म-निरपेक्ष थीं, मानवतावादी थीं, सहिष्णुतावादी थीं और प्रगतिशील थीं..? क्या थी वह जमात..? उसी वहशियाना बद-दिमाग जमात के आज अलमबरदार बने बैठे हैं कई लोग जो 90 के दशक में अपने ही देश के निवासियों पर कहर ढा रहे थे। कश्मीरी पंडितों और लद्दाखियों को धर्म बदलने या ऐसा नहीं करने पर अपना स्थान छोड़ देने पर मजबूर कर रहे थे। यह करना क्या धर्म था..? फिर अधर्म क्या है..? जाहिल जमातों के साथ खड़े अपने ही देश के वर्णसंकर बुद्धिजीवियों और विकृत-चित्त (perverted) इतिहासकारों से पूछिए... उन करतूतों के वक्त क्यों नहीं पुरस्कार लौटाए थे और क्यों नहीं चिट्ठियां लिखी थीं..? ऐसे बुद्धिजीवी... और ऐसे इतिहासकार... धिक्कार है...
खुद की आबादी बढ़ाने की पशु-प्रतियोगिता में लगे लोग यह नहीं सोचते कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यक हिन्दुओं, सिखों, ईसाईयों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और चकमाइयों की तादाद कम से कमतर क्यों होती चली गई..? इन समुदायों का वहां कत्लेआम क्यों हुआ..? इन समुदायों की महिलाओं की इज्जत वहां क्यों तार-तार की गई..? रोहिंगियाओं पर रोने वाले लोगों को पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों पर रोना क्यों नहीं आता..? एक आवाज नहीं उठी आज तक..! पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों पर पिछले सात दशकों से हो रहे बर्बर अत्याचार के खिलाफ मुसलमानों की तरफ से एक आवाज नहीं उठी। आज जब उन देशों के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने की बात उठी तो चिल्ला पड़े। यह कैसी निहायत घटिया, बेईमान और अधर्मी सोच है..? इस घोर नीचता का कोई कारण समझ में आता है आपको..? धर्म तलवार नहीं जो आंखों में घुस जाए और अंधा कर दे। धर्म वह सीख नहीं देता जो मानवतावाद को उन्मादवाद में बदल दे। धर्म जानवर नहीं बनाता। धर्म इंसान बनने का आत्मिक माध्यम है। मैं यह लिख रहा हूं और पूरे आत्मबल से कहता हूं कि जिस दिन मेरा हिन्दू धर्म; मानव-सम्मान, स्त्री-सम्मान, प्राण-सम्मान और राष्ट्र-सम्मान की सनातन संस्कारिक परम्परा से विरत होकर सकल-धर्म-समभाव के बजाय एकल-धर्म के एंगल से देखने की सीख देगा, ऐसी सीख देने वाले हिन्दू धार्मिकों को धिक्कार भेज कर उसी दिन मैं हिन्दू धर्म से अलग हो जाऊंगा। क्या किसी मुसलमान साथी में है ऐसा आत्मबल..? क्या आपको आपके धर्म ने इतना आत्मबल सिखाया है..? अगर आपके धर्म ने आत्मबल और नैतिक-बल दिया होता तो अपने देश के जम्मू-कश्मीर में रहने वाले हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों और ईसाईयों पर जुल्म देख कर क्या आप चुप बैठते..? पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में वहां के अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार पर क्या आप चुप बैठते..? आप असलियत में धर्मनिरपेक्ष और इंसानियत से लबरेज होते तो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों के जख्म पर मरहम लगाए जाने से क्या चिढ़ते..? इतनी घृणा क्यों भरी हुई है आपमें..? यह कैसा धर्म है जो हृदय में प्रेम के बजाय घृणा भरता है..? कभी सोचा-विचारा है आपने..? आप में सद्-विचार की शक्ति होती तो क्या किसी दुखी-पीड़ित को मिलने जा रहे अर्ध-न्याय पर आपका कलेजा फटता..? केवल इसलिए कि वे मुसलमान नहीं हैं..? क्या सब कुछ आपको ही मिले..? एक बार तो ले ही लिया धर्म के नाम पर देश। सत्तर साल से तो ले ही रहे हैं धर्म के नाम पर रियायतों का दान। क्या चाहते हैं कि देश बार-बार बंटे..? आपके नाम पर लिख दिया जाए देश..? फिर हम सबको आप काटें या तलवार के बल पर मुसलमान बनने पर विवश करें..? मुसलमान बना कर क्या आप अपनी घृणा और हिंसा का भाव त्याग देते हैं..? यह सवाल खुद से पूछिए और जिस पाकिस्तान को आपने धर्म के नाम पर हासिल किया उसे सामने रख कर इस सवाल का जवाब पाइए। ...और पाकिस्तान क्या, धर्म के नाम पर स्थापित किसी भी देश को उठाइए और देखिए कि आप कितने मानवतावादी हैं। अपने धर्म का देश बना लिया और फिर अपने ही धर्म के लोगों को लगे काटने। यह कैसी धार्मिकता है भाई..? धर्म के नाम पर सब कुछ हासिल करने की कुत्सित लोलुपता क्यों नहीं त्यागते..? क्या हासिल कर लिया धर्म के नाम पर देश बांट कर..? हिंसा, नफरत, भिखमंगी और दरिद्रता को ही क्या आपकी जमात धार्मिक उपलब्धि मानती है..? कट्टर धार्मिक अहमन्यता से भरी सोच-समझ वाली जमात में यदि कुछ लोग फिर भी खुद को मानते हैं कि वे वास्तविक इंसान हैं, मानवतावादी हैं, धर्मनिरपेक्ष हैं तो सार्वजनिक फोरम से धिक्कार भेजिए उन लोगों के लिए जो नागरिकता संशोधन अधिनियम के बहाने देश में अराजकता फैलाने के सुनियोजित कुचक्र में लगे हैं। अगर आप में पढ़े-लिखे होने की निशानी बची है और आपने इस अधिनियम को थोड़ा पढ़ा समझा है तो अपनी जमात को थोड़ा शिक्षित-प्रशिक्षित कीजिए। उन्हें बताइये कि नागरिकता (संशोधन) अधिनियम- 2019, जिसे अंग्रेजी में Citizenship (Amendment) Act- 2019 कहते हैं, वह क्या है। यह भारत की संसद द्वारा पारित अधिनियम है, जिसके जरिए 1955 के नागरिकता कानून को संशोधित करके यह प्रावधान किया गया है कि 31 दिसम्बर 2014 के पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आए हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जाएगी। यह अधिनियम उक्त तीन पड़ोसी देशों के उन अल्पसंख्यकों के लिए लाया गया है, जो वहां धार्मिक प्रताड़नाओं के शिकार हुए हैं या हो रहे हैं। इस अधिनियम का वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के जो मुसलमान भारत की नागरिकता चाहते हैं, उन्हें जैसे पहले नागरिकता मिलती थी, वैसे ही अब भी मिलेगी। यह बुद्धि में क्यों नहीं घुस रहा..? नागरिकता संशोधन अधिनियम अब संविधान का हिस्सा है। संविधान की एक धारा आपको आपके मुफीद लगती है तो उसका सम्मान है... पूरा संविधान आपके अनुकूल नहीं लगता तो उसका सरेआम अपमान है। यह कैसी शिक्षा है और कैसा संस्कार है..!
नागरिकता संशोधन अधिनियम के बहाने देश में हिंसक माहौल बनाने वाली जमात और उसके पीछे के सूत्रधार राजनीतिकों की बुद्धि में सब कुछ घुस रहा है... दरअसल, सत्तर साल की लंबी अवधि के दरम्यान भारत में आकर बस चुके पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और अफगानिस्तानी मुसलमानों को राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण (एनआरसी) से बचाने के लिए यह सब उपक्रम हो रहा है। नागरिकता संशोधन अधिनियम पर विरोध और हिंसा असलियत में एनआरसी से बचने की पेशबंदी है। जिन लोगों का अस्तित्व ही अनैतिक और गैर-कानूनी जमीन पर खड़ा है, उन्हें आज समानता का अधिकार सूझ रहा है। जबकि समानता के कानून से उन्हें नफरत रही है, यह सत्तर साल से हम देख रहे हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के मुसलमान बहुत बड़ी संख्या में भारत की मुस्लिम आबादी में घुल-मिल कर रह रहे हैं। यह अवैध लोग यहां के वैध नागरिकों के रिश्तेदार बने बैठे हैं। यह अवैध लोग भारत में बाकायदा वोटर बन चुके हैं। कुछ राजनीतिक दल सत्तर साल से संजोया अपना वोट-बैंक जाता हुआ देख कर तिलमिलाए हैं। इसीलिए वे मुसलमानों को भड़काने में लगे हैं। अवैध रूप से भारत में रह रहे मुसलमानों को अब अपने पहचाने जाने और निकाले जाने का भय सताने लगा है। ‘देश में गृह युद्ध होगा’... कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं ने कुछ अर्सा पहले इस तरह के जो बयान दिए थे, उसे याद करते चलें और यह समझते चलें कि ऐसा माहौल सृजित करने की उनकी तैयारी कब से चल रही है। मुसलमान फिर उनके उपकरण (टूल) बन रहे हैं, क्योंकि इसमें उन्हें अपना हित दिखाई दे रहा है। धर्म के नाम पर अपने रिश्तेदारों को बचाने के लिए लोग देश को आग में झोंकने पर आमादा हैं। इसीलिए बहुत सोच-समझ कर नागरिकता संशोधन अधिनियम पर विरोध हो रहा है, ताकि राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण (National Register of Citizens; NRC) अभियान को ध्वस्त किया जा सके। आपको यह बता दें कि ऊपर-ऊपर विरोध प्रदर्शन और हिंसक हरकतें चल रही हैं तो दूसरी तरफ भीतर-भीतर मुसलमानों में एक कैम्पेन बहुत ही तेजी से चलाया जा रहा है। यह मैं आधिकारिक प्रमाण के साथ कह रहा हूं। इस कैम्पेन को ‘एनआरसी बेदारी मुहिम’ नाम दिया गया है। ‘एनआरसी बेदारी मुहिम’ के जरिए मुसलमानों के बीच यह संदेश तेज गति से चलाया जा रहा है कि वे खुद को भारत का पक्का नागरिक साबित करने वाले सारे दस्तावेज तैयार करके रख लें। दस्तावेज हासिल करने के लिए भारत की घूसखोर प्रशासनिक-धारा का खुल कर इस्तेमाल करने की अंदरूनी मौखिक सलाहें दी जा रही हैं, ताकि पैसे देकर पक्के कागजात हासिल कर लिए जाएं। आप ऊपर-ऊपर देखते होंगे कि मुसलमानों से एनआरसी का बायकॉट करने और कोई फॉर्म वगैरह नहीं भरने की बातें कही जा रही हैं, लेकिन यह छद्म है, असलियत यह है कि पक्के दस्तावेज बनवाने का काम अंदर-अंदर तीव्र गति से हो रहा है।
भारतवर्ष के अधिसंख्य मुसलमान परिवर्तित धर्मावलंबी हैं... यह मुसलमान जानते हैं। किसी धर्म का स्वीकारण किसी भी व्यक्ति का अधिकार और विवेक होता है, वशर्ते वह अपने स्व-विवेक और स्व-अधिकार से यह निर्णय ले। भारतवर्ष में तलवार की नोक पर धर्मांतरण की कुप्रथा कैसे आई और इसके पालन में इतर धर्मावलंबियों और उनके आस्था-केंद्रों के साथ किस तरह की वहशियाना कार्रवाइयों का सिलसिलेवार दौर साल दर साल चला और उस वहशियाना दौर के प्रति-उत्पाद किस तरह उसी नक्शेकदम पर चल रहे हैं, इस पर हम क्रमशः बात करेंगे। अभी इतना जरूर कहते चलें...
जब भीड़ फैसले लेती हो, तब बुद्धि कहां फिर चलती है?
द्वेष भरा हो नस-नस में, तब बुद्ध कहां फिर टिकता है?
झुंड बना कर फिरते हैं जो, इंसान नहीं, बस गिनती हैं वो,
सिर्फ गणन हो जहां कहीं भी, गुणन कहां फिर टिकता है..?
आंखों पर छाया हो मद, तो सत्य कहां फिर दिखता है?

Wednesday 2 October 2019

गांधी प्रासंगिक हैं या सियासत..!

प्रभात रंजन दीन
आज पूरा देश महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है। भाजपा कुछ अधिक ही उत्साही है। भाजपा शासित केंद्र सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारें गांधी के लिए ऐसे फिदा हैं, जैसे गांधी के साथ उनका कालजयी नाता रहा है। बेचारे कांग्रेसी ही अब हाशिए पर चले गए हैं। कांग्रेसी एक बार फिर अपनी जानकारियों और दस्तावेजों को खंगाल रहे हैं कि महात्मा गांधी उनके थे या भाजपाइयों के...
पूरी दुनिया में गांधी पर बात हो रही है... लेकिन भारत में जो गांधी पर बात हो रही है, वह अलग है... दोनों में कोई साम्य नहीं है। यह फर्क स्पष्ट तौर पर समझ में आना चाहिए। दुनिया के अन्य देशों में गांधी पर चर्चा का मतलब है हिंदुस्तान की अहिंसावादी, सत्यवादी और प्रेमवादी पुरातन शाश्वत संस्कृति की स्वीकारोक्ति... गांधी के जरिए बुद्ध कबीर नानक विवेकानंद जैसे तमाम संतों की स्वीकारोक्ति... लेकिन भारतवर्ष में गांधी पर न्यौछावर होने का जो सत्ताई प्रहसन चल रहा है, वह बड़ी बुद्धिमानी, चालाकी और कूटनीति से गांधी को स्थायी तौर पर हथियाने की कुटिल सियासत है। असली गांधी भाजपा की तरफ और नकली गांधी कांग्रेस की तरफ... इसकी स्थायी स्थापना की गहरी सियासत है भाजपा के गांधी-प्रेम की जड़ में... गांधी गुजरात के, पटेल गुजरात के, मोदी गुजरात के, शाह गुजरात के... इसकी स्थापना हो रही है, सनद रहे। खैर, अभी गुजरात का ‘एकात्म-महानतावाद’ विचार-प्रसंग में नहीं है, अभी तो हम गांधी पर मची आंधी के प्रसंग में बात कर रहे हैं। हम तो मुक्तचिंतक जमात वाले हैं... अपने ही कबीले के एक साथी ने बड़ा अच्छा कहा कि अहिंसा का ‘अ’ सत्य के साथ जोड़ कर गांधी‘नाम’वादी सियासत जोर-शोर से चल रही है... न अहिंसा रही, न सत्य रहा...
महात्मा गांधी की 150वीं जयंती का पूरे देश-संसार में जबसे ढोल बजाया जा रहा है तब से, और आज जब उस ढोल-ध्वनि की पूर्णाहुति का सत्ताई-ढोंग सज रहा है और सब तरफ गांधी दर्शन के गूढ़ घोंटवाए जा रहे हैं, मेरा दिमाग और मन देश के विभाजन पर चुप्पी का गांधी-दर्शन तलाश रहा है... मेरी आत्मा विभाजनकालीन भीषण रक्तपात के दरम्यान गांधी के संदेहास्पद मौन का अहिंसा-दर्शन ढूंढ़ रही है... मेरा हृदय सरदार भगत सिंह को फांसी की सजा से बचाने के लिए गांधी द्वारा वायसराय को लिखी गई चिट्ठी के शब्द-भ्रम का जलेबी-दर्शन समझने की कोशिश कर रहा है, जिसका न ओर पता चलता है न छोर।
मैं उस आम आदमी की तरह सोचता हूं... जो भेड़ों की भीड़ का हिस्सा बनने के लिए कतई तैयार नहीं। वह उस प्रायोजित-आस्था का हिस्सा नहीं कि सत्ता जो कहे उसमें मत्था-टेक भाव से शामिल हो जाए। अपनी चेतना की कसौटी पर कस कर देखना और तब उसे अपनी विचार-प्रक्रिया में शामिल करना ही स्वाभाविक है, नैसर्गिक है और नैतिक है... कोई पिता अपने जिंदा रहते हुए घर के विभाजन की बेटों की मांग नहीं सुनता। बाप के जिंदा रहते हुए बेटे घर के विभाजन की मांग भी नहीं करते। पिता की यही दृढ़ता और बेटों की यही मर्यादा हमारी संस्कृति का आधार और परिवारों की एक्यबद्धता का मूल रही है... महात्मा गांधी को पूरा देश पिता मान चुका था... फिर उन्होंने अपने दो अमर्यादित बेटों की घर-विभाजन की मांग को सिरे से ठुकराने की दृढ़ता क्यों नहीं दिखाई..? देश विभाजन के इस गांधी-दर्शन का कोई मतलब समझा दे..! बड़े-बड़े विद्वान गांधी के नाम पर बड़ा-बड़ा ‘हउंकने’ में लगे हैं लेकिन गांधी के विभाजन-दर्शन के गूढ़ पर विमूढ़ बने रहते हैं।
विचित्र बात है..! देश को दो टुकड़ों में बांटने का फैसला हो चुका था। दो सत्ता-लोलुप अमर्यादित बेटे नेहरू और जिन्ना माउंटबेटन को ‘पंच’ बना कर घर का दो हिस्सा करने का प्रपंच रच रहे थे, या कहें उस दिशा में निर्णायक तौर पर आगे बढ़ चुके थे। क्या आप समझते हैं कि गांधी को इसके बारे में नहीं पता था..? अगर आप ऐसा समझते हैं तो अपने दिमाग पर पड़े जाले को साफ कर लें। नेहरू और जिन्ना के कुत्सित प्रयास के बारे में पूरा देश जानता था। तभी तो उस पार के हिंदू सिख अपना घर-बार अपनी जमीन-जायदाद बेच कर व्यापक तादाद में इस पार आने की तैयारी कर रहे थे..! तभी मई 1947 में गांधी का एक बयान जारी हुआ... ‘अगर विभाजन होगा तो वह मेरे शव पर होगा…’ गांधी के बयान की इतनी साख थी और इतना असर था कि उस पार के हिंदुओं और सिखों ने राहत की सांस ली कि अब तो विभाजन नहीं ही होगा। गांधी के उस बयान से पूरा देश आश्वस्त हो गया कि अब तो देश नहीं बंटेगा। लेकिन देश बंटा, घर का दो हिस्सों में विभाजन हुआ और उन सारे हिंदुओं और सिखों को काट डाला गया जो उस पार गांधी के भरोसे निश्चिंत बैठे थे... जब माउंटबेटन के पंचत्व में विभाजन के दस्तावेज पर नेहरू और जिन्ना हस्ताक्षर बना रहे थे, तब गांधी मौन क्यों धारण किए हुए थे..? रक्तपात पर मौन थे या झेंप में चुप थे..? एक स्वाभिमानी पिता ने तभी आत्महत्या कर लेने का फैसला क्यों नहीं कर लिया था..? या खुल कर देश के सामने आ गए होते और मुनादी की होती कि वे विभाजन नहीं मानते और देश का आह्वान करते कि ऐसी खंडित आजादी कतई स्वीकार नहीं... फिर आप सोचते हैं, क्या हुआ होता..? देश का विभाजन किसी भी कीमत पर नहीं हुआ होता और देश को अपनी बपौती मान कर उसे बांट कर खाने पर आमादा कुपुत्र नेहरू और जिन्ना कालखंड के बिल में घुस गए होते, जन-घृणा के घटाटोप में विलुप्त हो गए होते... लेकिन गांधी ने ऐसा नहीं किया। क्यों..? पूरे देश को इस रहस्यमय गांधी-दर्शन के बारे में समझने-जानने का हक है। इस पर कोई ज्यादा सिद्धांत न पिलाए... ठोस जमीनी बात करे। ‘अगर विभाजन होगा तो वह मेरे शव पर होगा…’ ऐसा बयान देने वाले गांधी ने फिर ‘लाहौर-संकल्प’ को क्यों स्वीकार किया था और जिन्ना को यह सुझाव क्यों दिया था, ‘यदि विभाजन होना ही है, तो वैसा हो, जैसे दो भाइयों के बीच होता है…’? गांधी दर्शन का यह वीभत्स-विरोधाभास क्यों..?
एक और बात मुझे बहुत तकलीफ पहुंचाती है कि पांच मार्च 1931 को महात्मा गांधी और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच हुए समझौते में गांधी ने सरदार भगत सिंह की रिहाई की शर्त क्यों नहीं रखी थी..? कोई तड़ाक से बोलेगा कि गांधी-इरविन समझौते में ‘हिंसा के आरोपियों को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने’ पर करार हुआ था। लेकिन इतिहासकारिक षडयंत्रों से अलग होकर हमें यह समझने की जरूरत है कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बम केवल सांकेतिक तौर पर फेंका था, हिंसा के इरादे से नहीं फेंका था। असेम्बली के खाली स्थान पर बम फेंका गया था और उसमें केवल तेज धमाके की कूवत थी, वह बम घातक नहीं था। हिंसा के इरादे से बम फेंका जाता तो लोग मरते और भगत सिंह और उनके साथी वहीं बैठे नहीं रहते... उस धमाके में कोई जख्मी भी नहीं हुआ था, केवल धमाका हुआ और असेम्बली हॉल धुएं से भर गया था। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के खिलाफ लाए जा रहे दो खतरनाक बिल, ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ के सांकेतिक विरोध में वह बम फेंका गया था... साथ में एक पर्चा भी था, जिस पर लिखा था, ‘यह धमाका केवल बहरों को आवाज सुनाने के लिए है’। आज गांधी होते तो उनसे मैं पूछता कि इसमें उन्हें हिंसा कहां दिख रही थी..?  अंग्रेजों की बर्बर हिंसा पर बोलने के बजाय गांधी यह क्यों बोल रहे थे, ‘इरविन अच्छा आदमी है और वह भारत का भला कर रहा है’..? यह विचित्र है किन्तु सत्य है...
भगत सिंह को माफी देने के लिए गांधी ने वायसराय ‘अच्छे आदमी’ लॉर्ड इरविन को जो चिट्ठी लिखी थी, वह महज औपचारिकता थी। आप उस चिट्ठी की भाषा देखें तो आप समझ ही नहीं पाएंगे कि वह किस बात के लिए लिखी गई थी..! आप भी उस शब्द-जाल में घुसें और कुछ समझने की कोशिश करें... ‘प्रिय मित्र, आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता बरतने जैसा लगता है, पर शांति के लिए अंतिम अपील करना आवश्यक है। यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगत सिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सजा में कोई रियायत किये जाने की आशा नहीं है, फिर भी यदि इस पर पुन: विचार करने की कोई गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं कि देश का जनमत, वह सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है। ...मैं आपको यह सूचित कर सकता हूं कि क्रांतिकारी दल ने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों की जान बख्श दी जाए तो यह दल अपनी कार्रवाइयां बंद कर देगा। यह देखते हुए मेरी राय में मौत की सजा को क्रांतिकारियों द्वारा होनेवाली हत्याएं जब तक बंद रहती हैं, तब तक के लिए मुल्तवी कर देना एक लाजमी फर्ज बन जाता है।’
कुछ समझ में आया कि इस पत्र के जरिए गांधी क्या कहना चाहते थे..! भगत सिंह को माफी के लिए वायसराय को लिखी गई गांधी की चिट्ठी से उनकी ही कुछ पंक्तियां निकाल कर मैं आपके समक्ष रख देता हूं... आप देखें कि ये पंक्तियां आपको गंभीर सवाल की तरह चुभती हैं कि नहीं... (1) ‘आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता बरतने जैसा लगता है।’ (2) ‘यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगत सिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सजा में कोई रियायत किए जाने की आशा नहीं है।’ (3) ‘देश का जनमत, वह सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है।’ (4) ‘क्रांतिकारी दल ने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों की जान बख्श दी जाए तो यह दल अपनी कार्रवाइयां बंद कर देगा। यह देखते हुए मेरी राय में मौत की सजा को क्रांतिकारियों द्वारा होनेवाली हत्याएं जब तक बंद रहती हैं, तब तक के लिए मुल्तवी कर देना एक लाजमी फर्ज बन जाता है।’ आप इन पंक्तियों के निहितार्थ समझिए...
गांधी-इरविन समझौते में भगत सिंह की रिहाई की अनिवार्य शर्त डाली जा सकती थी, क्योंकि भगत सिंह द्वारा की गई असेम्बली की घटना हिंसा के दायरे में नहीं आती... अगर आती तो एक ही अपराध के लिए भगत सिंह को फांसी और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा क्यों दी गई..? गांधी चाहते तो भगत सिंह को फांसी नहीं होती... गांधी चाहते तो देश का विभाजन नहीं होता...

Tuesday 6 August 2019

#नरेंद्रमोदी #अमितशाह... आधुनिक भारतीय इतिहास के अद्वितीय नायक


प्रभात रंजन दीन
72 साल बाद भारत माता की खंडित जख्मी आत्मा थोड़ा आराम महसूस कर रही होगी। देश की खंडित आजादी के 72 साल बाद देश के लोग राहत महसूस कर रहे हैं। नेहरू के हिस्से की आजादी के 72 साल बाद देश को नरेंद्र मोदी और अमित शाह के रूप में सक्रिय राजनीति के मैदान के दो योद्धा, दो हीरो, दो मीर नजर आए... देश के लोगों को बाकी सारे नेताओं का बौना कद प्रामाणिक तौर पर समझ में आ गया। बाबा साहब अंबेडकर की आत्मा भी शांति में होगी, जो देश के साजिशी विभाजन और कश्मीर को लेकर की गई निहायत निकृष्ट कोटि की दोगली सियासत से दुखी और विचलित होकर महानिर्वाण कर गई थी। भारतवर्ष के स्वाभिमान पर चस्पा किए गए अनुच्छेद-370 के ‘अस्थाई-अपमान’ को सियासत की गंदी संततियों ने स्थाई बनाने की सारी हदें लांघीं और यह लगने लगा था कि अनुच्छेद-370 का बदनुमा दाग शायद ही देश के माथे से धुल पाए... लेकिन प्रकृति ने दृढ़ इच्छाशक्ति से भरे नरेंद्र मोदी और अमित शाह को भारत का आत्मसम्मान वापस लाने और ‘अस्थाई-अपमान’ को स्थाई-प्रतिष्ठा का मार्ग प्रशस्त करने का माध्यम चुना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नायकत्व में पांच अगस्त 2019 को लिया गया देश का यह निर्णय एक नए अध्याय, एक नई आजादी, एक नई स्वाभिमान-यात्रा के प्रारंभ की तारीख बन गई। आधुनिक भारतीय राजनीति क्या, विश्व राजनीति के अध्याय में पांच अगस्त 2019 एक ऐतिहासिक तारीख के रूप में दर्ज हो गई। कुछ लोग जो गांधी-नेहरू-जिन्ना-माउंटबेटन जनित खंडित-आजादी का काल देख चुके हैं, वे यह मानते हैं कि पांच अगस्त 2019 की उद्घोषणा 15 अगस्त 1947 की घोषणा से कहीं अधिक सम्मानजनक और सार्थक है। बाद की वे पीढ़ियां जो देश को बांट कर सत्तासुख चाटने वालों की हरकतों और उनके षडयंत्रों को पढ़ा-समझा है, वे भी पांच अगस्त 2019 की उद्घोषणा को देशहित और व्यापक जनहित की मुनादी मानती हैं। जो भी व्यक्ति अनुच्छेद-370 हटाए जाने और जम्मू-कश्मीर से लद्दाख को अलग किए जाने के फैसले की निंदा करता नजर आए, आप समझ लें कि उसके मूल में खोट है। देशहित के खिलाफ कोई विरोध दर्ज करे और प्रति-तर्क उपस्थित करे, उसे अब कतई बर्दाश्त नहीं करने का समय है। आपकी जो भी विचारधारा हो, अगर उसमें राष्ट्रहित का भाव नहीं है तो आप अपनी विचार-प्रणाली में संशोधन कर लें... अब ‘टुकड़े-टुकड़े’ का दुर्बुद्धिजीवी-भाव त्याग दें, एक की हत्या पर दुष्टतापूर्ण मौन और दूसरे की हत्या पर समवेत हुआं-हुआं करना छोड़ दें, छद्मी-प्रगतिशीलता और छद्मी-बुद्धजीविता से बाज आएं... अब छद्मता (hypocrisy) का अंतकाल आ गया समझें। स्वाभाविक मानवतावादी हों और असली राष्ट्रवादी हों। आप किसी भी विचारधारा के हों, आप किसी भी धर्म के हों, किसी भी जाति के हों, मानवता और करुणा में धर्म और जाति का एंगल तलाशना और दुकान चलाना छोड़ दें। कोई भी देश एक राष्ट्र और एक संविधान से शक्तिशाली होता है, इसे समझना शुरू कर दें... 70-72 साल समझने और realize करने के लिए बहुत होता है। अब और वक्त नहीं है और न उत्तर-आजादी काल की पीढ़ियों के पास इतना धैर्य बचा है। बहुत पिला लिया दोगली-तिगली विचारधारा का जहर... अब और नहीं। अब उस लत (एडिक्शन) के शिकार लोगों के ‘विड्रॉल-सिम्पटम’ (नशेड़ियों का नशा रोक दिया जाए तो वे जिस तरह की विक्षिप्त हरकतें करते हैं) का कारगर इलाज करने की अनिवार्यता है।
आरोपित आजादी के 72 साल बाद भी अगर हमें एक राष्ट्र और एक संविधान की अनिवार्यता पर बहस करनी पड़े और लोगों को समझाने-बुझाने का प्रयास करना पड़े तो ऐसे समझदार और जागरूक लोकतांत्रिक भारत पर गर्व करने का कोई भी कारण नहीं दिखता। आजादी की षडयंत्रिक-आपाधापी में खंडित भारत, पाखंडी राजनीतिकों के हाथों जख्मी हुआ। नेताओं की पीढ़ियां दर पीढ़ियां राजनीति और सत्ता पर प्रकट होती आईं, लेकिन वे सब राष्ट्र के हित-चिंतन में हीन और राजनीतिक स्वार्थ में लीन रहीं। उन सबने संविधान को अपनी राजनीतिक लोलुपता का जरिया बनाया, मनमाने तरीके से संविधान संशोधन किए और अपने हित साधे। खंडित भारत के नीति नियंताओं को देश की चिंता नहीं थी, ज्यादा से ज्यादा पाने की हवस थी। देश तोड़ने के बाद कश्मीर को भी देश से अलग करने की साजिश की गई। इसके लिए संविधान को जरिया बनाया गया। अनुच्छेद-370 और 35-ए का नत्थीपत्र इसी सत्ता-हवस की साजिशों का परिणाम है। इसी सत्ता हवस की पुश्तैनी बीमारी ने पूरे देश को ग्रसित करने का काम किया। लेकिन प्रकृति ने उसके समापन का काल तय कर रखा था।
संविधान का अनुच्छेद-370... ‘जम्मू-कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अस्थाई उपबंध’ की पंक्ति को रेखांकित करता हुआ शुरू होता है। महाराजा हरि सिंह से खार खाए और शेख अब्दुल्ला से अतिरिक्त नेह लगाए बैठे जवाहर लाल नेहरू ने भी धारा-370 के प्रसंग में कहा था कि यह समय के साथ घिसकर खत्म हो जाएगी। लेकिन कांग्रेस ने इसके घिसकर खत्म होने के बजाय इसे स्थाई घाव बना कर रखा और साम्प्रदायिक-मवाद को हमेशा रिसते रहने के लिए छोड़ दिया। अनुच्छेद-370 के बारे में आप सब जानते हैं कि भारतीय संविधान में इसे कैसे साजिश करके शामिल किया गया और कैसे इसमें 35-ए का नत्थीपत्र चस्पा करने के लिए राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के साथ आपराधिक आचरण किया गया। यह धारा भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक नैतिकता, दोनों पर गहरे सवाल की तरह आरूढ़ रही है। नेहरू ने कश्मीर के मसले को क्यों उलझाया..? क्या शेख अब्दुल्ला परिवार से उनकी कोई रिश्तेदारी थी, जिसे निभाने के लिए उन्होंने अनुच्छेद-370 के जरिए कश्मीर को विशेष दर्जा दे दिया..? जब कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय पर महाराजा हरि सिंह की औपचारिक स्वीकृति मिल चुकी थी, तब नेहरू ने ऐसा क्यों किया..? नेहरू ऐसे दुर्लभ राष्ट्रभक्त राजनेता और दूरद्रष्टा निकले जिन्होंने एक ही देश में दो संविधान, दो झंडा और दो विचारधारा की व्यवस्था लागू कर दी। उस पूर्व-नियोजित-भूल (pre-planned error) को पूरा देश भुगतता रहा। इस संवैधानिक-विशेषाधिकार का ही नतीजा था कि कश्मीरी पंडितों के जीवन जीने के मौलिक अधिकार के साथ-साथ उनके सारे नागरिकीय-संवैधानिक अधिकार सार्वजनिक रूप से छीन लिए गए। जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला के संवैधानिक-षडयंत्र के कारण ही कश्मीर के इस्लामी उन्मादियों और अलगाववादियों ने कश्मीरी पंडितों और गैर मुस्लिमों की प्रतिष्ठा और सम्पत्तियां लूटीं, उनकी सार्वजनिक-सामूहिक हत्याएं कीं और जो बचे उन्हें कश्मीर से खदेड़ भगाया। भीषण त्रासदी का यह सिलसिला लगातार जारी रहा। यह विडंबना रही कि सेना और सुरक्षा बलों को उस राज्य में आतंकवादियों और पाकिस्तानियों से जूझने के लिए झोंक दिया गया। जबकि दूसरी तरफ शेख अब्दुल्ला से लेकर फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला तक, गुलाम मुहम्मद शाह से लेकर मुहम्मद इरफान शाह तक और मुफ्ती मुहम्मद सईद से लेकर महबूबा मुफ्ती तक भारत के खिलाफ आग भी उगलते रहे और सियासत की रोटियां भी सेंकते रहे। इन परिवारों ने कश्मीर को लूटने-खाने का अपने नाम पट्टा बनवा लिया। अलगाववादियों को भी पालते-पोसते रहे और कश्मीरी अवाम के सामने भी टुकड़े फेंक-फेंक कर उन्हें धर्मांध-हिंसक-पशुओं की जमात में तब्दील करने का कुचक्र किया। कश्मीर को अस्थिर बना कर लूटपाट का स्थिर एजेंडा चलता रहा।
बाबा साहब अम्बेडकर ने 370 के प्रस्ताव पर कड़ी आपत्ति जताई थी। यहां तक कि कांग्रेसियों ने भी धारा-370 का विरोध किया था। अम्बेडकर का विरोध देख कर नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को उनके पास वार्ता के लिए भेजा। बाबा साहब ने कश्मीर को विशेष दर्जा देने के औचित्य पर शेख से सवाल पूछे और उनसे कहा, ‘एक तरफ आप चाहते हैं कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, कश्मीरियों को खिलाए-पिलाए, उनके विकास और उन्नति के लिए प्रयास करे और कश्मीरियों को भारत के सभी प्रांतों से अधिक सुविधाएं और अधिकार दे, लेकिन दूसरी तरफ भारत के अन्य प्रांतों को कश्मीर जैसी सुविधाओं और अधिकारों से वंचित कर दिया जाए?’ अम्बेडकर ने शेख से कहा था, ‘मैं देश से गद्दारी नहीं कर सकता।’ अम्बेडकर ने शेख को फटकार कर अपने कक्ष से भगा दिया था। इसके बाद ही नेहरू ने शेख अब्दुल्ला, सरदार पटेल और गोपाल स्वामी अयंगार के साथ मिल कर धारा-370 की व्यूह-रचना की। कांग्रेस पार्टी का विरोध देख कर जवाहर लाल नेहरू संविधान में धारा-370 जोड़ने का ‘बड़ा-दायित्व’ सरदार वल्लभ भाई पटेल को देकर खुद अमेरिका सरक लिए। नेहरू की अनुपस्थिति में सरदार पटेल ने नेहरू की प्रतिष्ठा का हवाला देकर बड़ी मशक्कत से कांग्रेस पार्टी को राजी किया। कश्मीर को विशेष दर्जा देने का प्रस्ताव कानून मंत्री बाबा साहब अम्बेडकर से न रखवाकर गोपाल स्वामी अयंगार से रखवाया और अम्बेडकर को इस विषय पर संसद में बोलने तक नहीं दिया। इस तरह संविधान-सभा में धारा-370 स्वीकृत कराई गई। सरदार पटेल के मिशन-370 का पूरा वर्णन पटेल के निजी सचिव रहे और पटेल के पत्रों के संकलन के संपादक वी. शंकर ने किया है। वी. शंकर कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में सरदार पटेल की उल्लेखनीय सिद्धि (उपलब्धि) रही कि उन्होंने भारत के संविधान में अनुच्छेद-370 जुड़वाया।
अनुच्छेद-370 हटाने की कभी कोशिश क्यों नहीं की गई? इसे जानने से पहले इस सवाल का जवाब जानना अधिक जरूरी है कि धारा-370 लागू ही क्यों की गई? दरअसल, नेहरू-अब्दुल्ला की साजिश पाकिस्तान और भारत के बीच कश्मीर को बफर स्टेट बनाने की थी। जबकि माउंट बेटन कश्मीर का पाकिस्तान में विलय चाहता था। महाराजा हरी सिंह ने इन षडयंत्रों को भांपते हुए ‘एनेक्सेशन-एक्ट’ पर हस्ताक्षर कर दिया। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला की कुटिल चालों, धार्मिक कट्टरता और अलगाववादी विचार को समझते थे। वे यह भी जानते थे कि ‘क्विट-कश्मीर मूवमेंट’ के जरिए शेख अब्दुल्ला उन्हें हटाकर, स्वयं शासन संभालने के तिकड़म में लगा है और नेहरू उसका साथ दे रहे हैं। नेहरू भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री बन गए थे, तब शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर में एक अधिवेशन आयोजित किया और उसमें नेहरू को आमंत्रित किया। अधिवेशन में कश्मीर के महाराजा को हटाने का प्रस्ताव रखा जाने वाला था। महाराजा हरि सिंह ने नेहरू से इस कांफ्रेस में शरीक न होने का आग्रह किया। लेकिन नेहरू नहीं माने और दिल्ली से श्रीनगर के लिए चल पड़े। आखिरकार महाराजा की सेना ने नेहरू को जम्मू सीमा पर रोक लिया और उन्हें वापस लौटने पर विवश कर दिया। नेहरू ने इसे अपना व्यक्तिगत अपमान समझा और हरि सिंह को सबक सिखाने का अवसर तलाशते रहे। यही वजह है कि कबायलियों के वेश में पाकिस्तानी सेना द्वारा कश्मीर में रक्तपात मचाए जाने के बावजूद नेहरू ने सेना नहीं भेजी। आजाद होने के बाद भी भारत का गवर्नर जनरल बने बैठे लॉर्ड माउंटबेटन ने भी सेना भेजने से नेहरू को मना किया। जम्मू-कश्मीर आर्मी के ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को वर्दी पहनने तक का समय नहीं मिला। सिविल कपड़ों में ही ढाई सौ जवानों के साथ लड़ते हुए वे सब शहीद हो गए। महाराजा को सबक सिखाने के लिए नेहरू ने पूरे देश को दांव पर रख दिया। आखिरकार सरदार पटेल के सख्त विरोध और हस्तक्षेप के बाद भारतीय सेना कश्मीर भेजी गई। वहां पहुंचते ही भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को खदेड़ भगाया और पाकिस्तान के अंदर बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया। भारतीय सेना ने पाकिस्तानी क्षेत्र पर जैसे ही कब्जा जमाया, वैसे ही नेहरू ने एकतरफा युद्धविराम लागू कर दिया। नेहरू ने भारतीय सेना को जीता हुआ क्षेत्र छोड़ कर वापस लौटने का फरमान जारी कर दिया। नतीजा यह हुआ कि कश्मीर का एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलगित वगैरह शामिल थे, दुबारा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया, जिसे पाकिस्तानी आजाद-कश्मीर कहते हैं और हम पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) कहते हैं। इतना ही नहीं, नेहरू ने उसी समय कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में पेश करने का शातिराना कदम भी उठाया, ताकि भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर के स्वतंत्र राष्ट्र (बफर स्टेट) बनने का रास्ता सरल हो जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। तब अनुच्छेद-370 का तिकड़म रचा गया।
कश्मीर को पाकिस्तान के साथ विलय कराने के लिए माउंटबेटन ने महाराजा हरि सिंह पर काफी दबाव डाला था। यहां तक कि माउंटबेटन श्रीनगर में डेरा डाल कर बैठ गया था और महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री मेहरचन्द महाजन के जरिए महाराजा पर यह दबाव डलवाता रहा कि ‘भौगोलिक स्थिति’ को देखते हुए कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनना उचित है। लेकिन महाराजा ने माउंट बेटन की एक नहीं सुनी। इसी बीच सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर से इस सिलसिले में मदद मांगी और उन्हें महाराजा हरि सिंह से बात करने के लिए कश्मीर भेजा। इस वार्ता के बाद महाराजा हरि सिंह भारत में कश्मीर के विलय पर राजी हुए।
ये बातें अब इतिहास के पिछले पन्नों में चली गई हैं। उत्तर-आजादी काल की सियासी संततियों ने अपने राजनीतिक पुरखों द्वारा किए गए राष्ट्रविरोधी गंभीर अपराध (उस अपराध को भूल कह कर सरलीकृत नहीं कर सकते) से कोई सीख नहीं ली और उस पर कोई कार्रवाई नहीं की। ...लेकिन कोई था जो इस गंभीर आपराधिक कृत्य को पढ़ रहा था, समझ रहा था और कारगर कार्रवाई के लिए समय का इंतजार कर रहा था। समय ने उन व्यक्तित्वों को माकूल समय पर देश के सामने ला खड़ा किया। अभी बहुत काम बाकी है... कश्मीर घाटी में धार्मिक समरसता की स्थापना होनी है, कश्मीरी पंडितों को अपने घर वापस जाना है, शेष भारत के लोगों को कश्मीर घाटी में बसना है, वहां नौकरी करनी है जैसे अन्य राज्यों में करते हैं। घाटी को अंधकूप से निकाल कर उसे भारत के छद्मियों से नहीं, बल्कि भारत की मौलिकता से आत्मसात कराना है। पाकिस्तान के कब्जे से कश्मीर के शेष हिस्से को निकालना है। चीन के कब्जे से अक्सई-चिन को वापस लेना है। अभी काम बहुत बाकी है...
कश्मीर से धारा-370 हटने के बाद प्रगतिशील और बुद्धिजीवी होने का ढोंग करने वाले छद्मजीवी विचित्र-विचित्र किस्म के तर्क देने लगे हैं। बौखला उठे हैं। कहते हैं कि इस फैसले से पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत का दावा कमजोर हो गया और इस फैसले से संविधान का उल्लंघन हुआ। छद्मजीवियों की रुदाली यह भी है कि कश्मीरियों की इच्छा और उनकी संस्कृति रौंद डाली गई। वगैरह, वगैरह... जिसने संविधान को सूक्ष्मता से पढ़ा और समझा, उसने संविधान के अनुरूप फैसला लेकर एक झटके में धारा-370 का खात्मा कर दिया। जिन नासमझों ने संविधान पढ़ा ही नहीं, उसके पास अल्ल-बल्ल बोलने के सिवा बचा ही क्या है..! अरे छद्मियों..! कश्मीरियों की इच्छा और कश्मीर की संस्कृति क्या कश्मीरी पंडितों की नहीं थी..? जब घाटी में कश्मीरी पंडितों और गैर मुस्लिमों को मारा जा रहा था, उनकी बहनों-बेटियों के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहे थे, मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से सारे गैर-मुस्लिमों को घाटी से चले जाने की धमकियां एनाउंस की जा रही थीं, तब कश्मीरियों की इच्छा और कश्मीर की संस्कृति कहां थी छद्मियों..? जब लेह-लद्दाख में लव-जेहाद का धार्मिक-प्रदूषण फैलाया जा रहा था, तब भोले-भाले लद्दाखी बौद्धों की रौंदी जाती संस्कृति की चिंता किसने की थी छद्मियों..? लद्दाख के लोग तो अर्से से यह मांग कर रहे थे कि लद्दाख को अलग कर उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाए। तब लद्दाखियों की इच्छा के सम्मान की चिंता छद्मियों में क्यों नहीं दिखी..? आज देखिए, सारे छद्मियों की एक ही जुबान है। कहते मिलेंगे कि पीछे की बात याद दिलाना वर्तमान की सच्चाई की उपेक्षा करना है। इन छद्मी-बुद्धिजीवियों का यह अजीब मूर्खों जैसा तर्क है। घाटी में गैर मुस्लिमों को मारे जाने का सिलसिला लगातार चलता रहा है और अब भी जारी है। आप तथ्यों में जाएं तो कश्मीर घाटी में सामूहिक बर्बर हत्याकांडों के नृशंस कृत्यों का सिलसिलेवार क्रम आपके दिमाग में तेजाब भर देगा। इन घटनाओं से बेहूदा-बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार के दुकानदारों को पीड़ा नहीं होती। 20 मार्च 2000 को श्रीनगर से महज 70 किलोमीटर दूर अनंतनाग जिले के छत्तीसिंह पुरा गांव के 36 सिखों को लाइन में खड़ा करके उन्हें गोलियों से भून दिया गया था। 30 अप्रैल 2006 को कश्मीर के डोडा में 35 हिन्दुओं को लाइन में खड़ा करके गोलियों से भून दिया गया था। उस लाइन में तीन साल की बच्ची भी शामिल थी। मारे गए सिखों और हिन्दुओं के रिश्तेदार आपको आज भी राजधानी दिल्ली के सत्ता गलियारों में न्याय के लिए भटकते मिल जाएंगे। यह तो मैंने महज दो उदाहरण सामने रखे। ऐसे अनगिनत पीड़ितों की कतारें आपको यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखेंगी। इन्हें देख कर क्या यह नहीं लगता कि पीछे की घटनाएं वर्तमान की सच्चाई से जुड़ी होती हैं..? अपने ही देश में कश्मीरी पंडित शरणार्थी हैं। इन्हें देख कर क्या यह कहना उचित है कि पीछे की बात याद दिलाने से वर्तमान की सच्चाई की उपेक्षा होती है..? छद्मी कहते हैं कि हम छत्तीसिंह पुरा या डोडा नरसंहार जैसी घटनाएं याद न करें, इससे वर्तमान की सच्चाई की उपेक्षा होती है... फिर हम जलियांवाला बाग गोलीकांड क्यों याद करते हैं और इसे याद करने से वर्तमान की कौन सी सच्चाई उपेक्षित होती है..? छद्मियों की बेगैरत जमात छत्तीसिंह पुरा या डोडा पर खतरनाक चुप्पी साधे रहती है। जबकि यह सवाल हर वक्त पूछा जाना चाहिए कि क्यों मारे गए थे वे निर्दोष लोग..? तब पुरस्कार क्यों नहीं लौटाया गया था और तब क्यों नहीं लिखी गई थी प्रधानमंत्री को चिट्ठी..?
बहुत सारी बातें हैं, जो क्रम से लिखी जाएंगी... कही जाएंगी। अभी सामाजिक माध्यमों (सोशल-मीडिया) के जरिए आप तक अपनी बात रख रहा हूं। कई मित्र सहमत होते हैं... कई मित्र असहमत भी होते हैं, लेकिन उनकी असहमति के स्वस्थ तर्क होते हैं। तार्किक सहमति और तार्किक असहमति, दोनों ही लोकतांत्रिक चरित्र की शोभा और संतुलन हैं। लेकिन कुछ लोगों के पास न तथ्य होते हैं और न तर्क... उनके पास केवल कीचड़ होता है, जिसमें वे रहते हैं और उसे ही दूसरों पर उछालते हैं। यह भी ठीक है, आप छद्मियों को सामने से पहचान तो लेते हैं..! हम बहुत जल्दी एक अखबार के जरिए भी आपसे मिलेंगे... सच बोलना-लिखना नहीं छोड़ेंगे... जो अच्छा होगा या अच्छा करेगा, उसकी सराहना करेंगे। जो गलत होगा या गलत करेगा, उसका पोस्टमॉर्टम करेंगे; धर्म, जाति, राजनीति और वर्ण का भेद किए बगैर... 

Saturday 27 July 2019

बामुलाहिजा! ये बुद्धिजीवी और प्रगतिशील हैं

जब कुछ कहने को नहीं रहा, जब कुछ ढंकने को नहीं रहा,
कीचड़ उछालना करम रहा, बचने का कुछ तो भरम रहा..! 
इन चार पंक्तियों से अपनी बात शुरू करता हूं। ‘मित्रों के चेहरे वाली किताब’ के लिए मैंने कठोर तथ्यों (हार्ड फैक्ट्स) पर आधारित एक लेख लिखा... प्रकरण था हिंदूवादी नारे और ‘लिंचिंग’ को मुद्दा बना कर कुछ तथाकथित कलाकारों-बुद्धिजीवियों द्वारा प्रधानमंत्री को पत्र लिखना। पत्र लिखने वाली जमात कुछ जगह जबरन हिंदूवादी नारे लगवाए जाने और कुछ जगह मुसलमानों की ‘लिंचिंग’ (हत्या) किए जाने की घटनाओं पर उद्वेलित थी। पत्र लिखने वाले व्हाट्सऐप-प्रेरित तथाकथित कलाकारों-बुद्धिजीवियों ने ‘देश के बिगड़ते माहौल’ पर चिंता जताई, लेकिन आरोप को पुष्ट करने वाले ठोस उदाहरण पेश नहीं किए। पेश क्या किया..! नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आधिकारिक आंकड़ों के नाम पर सफेद-झूठ चस्पा कर दिया। अंधत्व के शिकार मीडिया ने इसकी पड़ताल भी नहीं की। पीएम को लिखा पत्र आपने देखा है..? आप उसे देखें, वह सार्वजनिक फोरम पर उपलब्ध है, उसमें पत्र-लेखकों ने एनसीआरबी के आधिकारिक आंकड़ों का हवाला देते हुए वर्ष 2009 से वर्ष 2018 तक के अपराध के आंकड़ों का हवाला दिया है। आपको यह पता ही होगा... और आप इसे अद्यतन (अपडेट) भी कर लें कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का सालाना आंकड़ा छपने का क्रम काफी विलंबित गति से होता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का वर्ष 2016 के अपराध का आंकड़ा अभी-अभी करीब हफ्ता-पंद्रह दिन पहले प्रकाशित होकर विभिन्न राज्यों के गृह विभागों, पुलिस मुख्यालयों, जेल मुख्यालयों और सम्बद्ध विभागों तक पहुंचा है। एनसीआरबी के वर्ष 2017 के अपराध का आंकड़ा अभी छपने के लिए गया है। उसमें थोड़ा वक्त लगेगा। अब आप सोचें कि पत्र-लेखक गिरोह ने एनसीआरबी का वर्ष 2018 का अपराध का आंकड़ा कहां से जुटा लिया..? क्या इस आपराधिक झूठ की जांच नहीं होनी चाहिए..? पत्र-लेखकों की फेहरिस्त में शामिल एक व्यक्ति ने सार्वजनिक बयान देकर कहा है कि उनका फर्जी हस्ताक्षर कर उनके नाम का इस्तेमाल किया गया है। वह शख्स हैं मशहूर फिल्म निर्देशक मणिरत्नम। मणिरत्नम ने पीएम को लिखी गई चिट्ठी को खारिज करते हुए कहा है कि उन्होंने ऐसी किसी चिट्ठी पर न तो हस्ताक्षर किया है और न ही ऐसी कोई चिट्ठी उनके सामने ‘सपोर्ट’ के लिए प्रस्तुत की गई थी। फिल्म निर्देशक मणिरत्नम का फर्जी हस्ताक्षर किए जाने के नियोजित ‘फ्रॉड’ की क्या जांच नहीं होनी चाहिए..?
जो पढ़े-लिखे समझदार लोग हैं उन्हें पता है कि क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा श्रेणीबद्ध किए गए अपराध में ‘जयश्री-राम’ या ‘अल्लाह हू अकबर’ के नारे जबरन लगवाए जाने की घटना का कोई ‘हेड’ नहीं है और न ही ‘लिंचिंग’ नाम से कोई ‘हेड’ है। भारतीय दंड विधान (इंडियन पेनल कोड) के तहत आने वाले अपराधों की कुल 55 श्रेणियां (कैटेगरी) निर्धारित हैं। इसमें कहीं भी जबरन धार्मिक नारे का अपराध या ‘लिंचिंग’ का अपराध अलग से रेखांकित नहीं है। हां, ‘लोक शांति भंग’ (ऑफेंस अगेंस्ट पब्लिक ट्रैन्क्विलिटी) के तहत श्रेणीबद्ध अपराध में दंगा (जातीय, धार्मिक, नस्ली, गुटीय सभी तरह के दंगे) और साम्प्रदायिक-जातीय-गुटीय-नस्लीय विद्वेष फैलाने की घटनाएं पारिभाषित हैं।
बहरहाल, मैंने जो लेख लिखा, उसमें तथाकथित कलाकारों-बुद्धिजीवियों, नासमझ मीडियामूर्धन्यों और ‘हिपोक्रिट’ (आडम्बरी) प्रगतिशीलों द्वारा समाज में फैलाए जा रहे विषाक्त माहौल पर गहरी चिंता है। इस पत्र-प्रकरण को सामान्य तौर पर न लें, यह गहरी साजिश है, इसे आप समझते चलें। इसकी गहराई से पड़ताल होनी चाहिए और इसके पीछे बैठी सूत्रधार-ताकतों का चेहरा उजागर होना चाहिए। इस प्राथमिक दायित्व से देश का मीडिया मुंह चुरा रहा है और कुछ इस षडयंत्र में खुद शरीक हैं। मेरे पूर्व के लेख को आपने पढ़ा है। यदि नहीं पढ़ा तो कृपया उसे पढ़ लें... तभी इस दूसरे क्रम की प्रासंगिकता और तारतम्यता समझ में आएगी। लब्बोलुबाव यह है कि देश में पिछले करीब तीन दशक से कश्मीर से लेकर केरल तक और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में जिस हैवानियत के साथ इस्लामिक कट्टरता पसरी है, उसे लेकर देश के कलाकार और बुद्धिजीवी शातिराना मौन साधे रहे हैं। जैसे कश्मीरी पंडित और कश्मीर के इतर-धर्मी क्या हमारे अपने नहीं थे कि इनके साथ हुए अमानुषिक दुर्व्यवहार, जबरन धर्मांतरण, बहू-बेटियों के साथ हुए सामूहिक बलात्कार, सामूहिक हत्याएं और नरसंहार पर शातिराना चुप्पी साध ली गई? खुद को कलाकार, बुद्धिजीवी, प्रगतिशील, मानवाधिकारवादी कहने वाले लुच्चे-लफंगे इस पर क्यों नहीं बोलते? इसी तरह केरल में धार्मिक अत्याचार, लव-जेहाद के नाम पर फैलाया गया इस्लामिक-मवाद, जबरन धर्मांतरण, नृशंस सार्वजनिक हत्याएं और संत्रास बौद्धिक-लफंगों को क्यों नहीं दिखता? पूर्वोत्तर को बांग्लादेश बनाने का अति-इस्लामवाद, अत्याचार और नरसंहार इन्हें क्यों नहीं दिखता? इन्हें और इनकी हिमायत करने वाली मानवता-विरोधी जमात को क्या कह कर संबोधित किया जाए? मैंने अपने पहले लेख में भी कहा कि कुछ अप्रिय शब्द-संबोधनों का इस्तेमाल करने के लिए मेरे मन में अफसोस का भाव है, लेकिन अप्रिय-कृत्य के दोषियों को अप्रिय शब्द से संबोधित करना अनुचित नहीं होता, उन्हें यह समझ में आना चाहिए। मैंने अपने लेख में दर्जनों प्रामाणिक घटनाओं का हवाला देते हुए चुनौती सामने रखी है। मैंने यह भी लिखा है कि मेरे पास इस्लामिक उन्माद के सैकड़ों जघन्य और बर्बर मामले दस्तावेजों के साथ उपलब्ध हैं, जिन्हें एक साथ लिखना किताब लिखने जैसा हो जाएगा। मेरे लिखे पर बौद्धिक-लफंगों या उनके चट्टे-बट्टों को कुछ कहना है तो प्रामाणिक तथ्यों और तर्कों के साथ खंडन प्रस्तुत करें। फेसबुक या ऐसे सोशल-मीडिया फोरम का व्यभिचारिक इस्तेमाल से वे बाज आएं। ‘हिपोक्रिट’ (आडम्बरी) प्रगतिशीलों..! निंदा के शब्द नहीं, तर्क और तथ्य लेकर सोशल-फोरम पर आओ, लेकिन आने से पहले उन तथ्यों को लेकर आईने में अपनी सूरत और सीरत देखो कि तुमने भारतीय समाज के साथ किस तरह का दुर्व्यवहार और आपराधिक-षडयंत्र किया है।
यह किस तरह की मनोवैज्ञानिक विकृति है..! इन आडम्बरियों को यह मूल बात समझ में नहीं आती कि मानवीय करुणा हिंदू-मुसलमान-सिख देख कर नहीं आती। सिखों पर बर्बरता और दोगलेपन की देश में इंतिहा कर दी गई। किस ‘लफंगे-बौद्धिक‘ ने अपना अवॉर्ड लौटाया या प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी..? कश्मीर के हिन्दुओं का कत्लेआम मचाया गया और उन्हें अपने ही घर से भगाया गया, इसके खिलाफ किस ‘प्रगतिशील-लफंगे’ ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी..? कश्मीरी पंडितों को उनके घर वापस दिए जाएं, इसके लिए किस ‘प्रायोजित-प्रगतिशील-जमात’ ने प्रधानमंत्री से गुहार लगाई..? पूर्वोत्तर राज्यों में बांग्लादेशियों द्वारा मचाए गए हिंसक-उत्पात के खिलाफ किस ‘कलाकार-बुद्धिजीवी’ ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा या सार्वजनिक रुदाली की..? इन ‘लफंगों’ की आंखों पर केवल एक चश्मा लगा है... इस चश्मे को उतारें तो इसमें आपको अरब की आंख दिखेगी, आपको चीन की आंख दिखेगी, आपको पाकिस्तान की आंख दिखेगी। आपको उन ताकतों की आंख दिखेगी जो भारतवर्ष में अस्थिरता (unrest) का भयानक मंजर खड़ा करना चाहते हैं। ...इनकी जेबों में देखें, आपको उन्हीं देशों और उन्हीं ताकतों का धन मिलेगा। जरा झांकिए तो, किन ताकतों के बूते बॉलीवुड चलता है और उन ताकतों के आगे किस तरह फिल्मी कलाकार भड़ुए बने फिरते हैं। जरा झांकिए तो, पाकिस्तानी आईएसआई का धन किस तरह भारत के वर्णसंकरों को पाकिस्तान-परस्त बना रहा है। जरा झांकिए तो, अरब का धन किस तरह पढ़े-अधपढ़े लोगों को ‘अति-इस्लामिक-व्याख्यावादी’ (extremist-islamist-interpreterist) जमात में कनवर्ट कर रहा है। जरा झांकिए तो, चीन का धन किस तरह भारत में ‘कुलीनतावादी-माओवादी’ (एलिटिस्ट-माओइस्ट) पैदा कर रहा है, जो भोले-भाले अनपढ़ खेतिहर और शहरी मजदूरों के बीच ‘सर्वहारा के अधिनायकवाद’ का प्रवचन ठेलता है, समाज में जहर फैलाता है, अपने बच्चों को पश्चिमी देशों में आलीशान पूंजीवादी शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में पढ़वाता है और वसूला गया धन विदेश के चोर-बैंकों में जमा कराता है। कश्मीरी अलगाववादियों की असलियत तो आप जान चुके हैं। उनके अकूत धन के स्रोत और उनके बच्चों की उन्हीं पश्चिमी देशों में पढ़ाई-लिखाई जिन देशों में वे बम फोड़ने की साजिश भी करते हैं, इसका आधिकारिक खूलासा हो चुका है। ऐसे दोगलों के चाटुकार मेरे लेख पर तार्किक जवाब देने के बजाय आरोप लगाते हैं। मैं भाजपाई हो गया... मैं संघी हो गया... मुझको भाजपा सरकार कोई पद दे देगी... वगैरह, वगैरह। इस तरह कीचड़ उछालने वाले लोग समाज के अवांछित तत्व हैं, जिन्हें अंग्रेजी में ‘un-wanted elements’ कहते हैं। ये भी मुझे अच्छी तरह से जानते हैं। ये जानते हैं कि मैं जो भी लिखता हूं, उसके पहले खुद को आइने में देख लेता हूं, फूहड़-फक्कड़ जरूर हूं, पर उन जैसा आडम्बरी नहीं। सच लिखने-बोलने से मुझे कोई आडम्बर या भय रोक नहीं सकता। मुझे धन-पद का लोभ रहता तो 36 साल से घर फूंक कर तमाशा थोड़े ही देख रहा होता..! मैंने मुस्लिम इश्यूज़ पर खूब लिखा। मुस्लिमों को लेकर बनी तमाम योजनाएं आम मुसलमानों तक नहीं पहुंचतीं, इसे उजागर किया। मदरसों में लड़कियों के साथ अश्लील धंधे की खबरें ब्रेक कीं। निर्दोष मुसलमानों को आतंकी ‘फ्रेम’ में कसने की साजिशों का पर्दाफाश किया। सिख मसलों पर खूब लिखा। दलितों और पिछड़ों के उत्पीड़न पर खूब लिखा। मुस्लिमों के लिए लिखा, तब मैं बहुत अच्छा था। सिखों के लिए लिखा, तब मैं बहुत अच्छा था। दलितों-पिछड़ों के लिए लिखा, तब मैं बहुत अच्छा था। मेरे निरंतर लिखने से कई दलित और पिछड़े बड़े-बड़े नेता बन गए। मेरी इस लेखन-शैली पर पूरा समाज और पूरा पत्रकार समुदाय इस बात की तफ्तीश करता रहा कि मैं किस जाति का हूं। मुझे दलित कहा गया, मुझे पिछड़ा कहा गया, मैं पग्गड़ नहीं बांधता लेकिन लोगों ने मुझे मोना-सिख भी कहा। लेकिन आज हिन्दुओं के लिए लिखा तो अचानक मैं खराब हो गया। किसी अहमक को मैं ठाकुर दिखने लगा तो किसी को ब्राह्मण... किसी बदरंग दिमाग के व्यक्ति ने मुझे रंगा-सियार तक कहा। इसी तरह के कुछ अन्य लोगों ने भी अपनी मूल-नस्ल के मुताबिक मेरी निंदा का प्रस्ताव जारी किया... लेकिन किसी ने भी मेरे लेख में दिए गए तथ्यों के बरक्स कोई तार्किक बात नहीं की। यह आप समझ लें कि इस तरह किसी पर भी कीचड़ उछालने वाले लोग बड़े शातिर और मक्कार होते हैं। साथ ही यह भी कहता चलूं कि तर्क के बजाय जब बौखलाहट अभिव्यक्त हो तो समझें सटीक लक्ष्य पर तीर धंसा है। एक अंग्रेज दार्शनिक के कथन का जिक्र यहां जरूरी है। वे कहते हैं, ‘If somebody praises me, I feel little happy, but when somebody abuses me without giving any logic, I feel, I have hit the target.’ आप समझ गए न...
मेरे लिखे को प्राध्यापक आलोक चान्टिया ने आगे बढ़ाते हुए लिखा है कि वे वर्ष 2006 में कश्मीर गए थे। कश्मीर के दर्जी कुआं इलाके में गए जो कश्मीरी पंडितों का गढ़ रहा है। चान्टिया ने लिखा है कि वहां कैसे कश्मीरी पंडितों के सिर दीवारों में टकरा-टकरा कर फोड़े गए थे और उन्हें बेरहमी से मारा गया था। लहू के निशान आज तक मिटे नहीं हैं। चान्टिया ने उसकी फोटोग्राफ्स भी लीं। मेरे लेख पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए वे लिखते हैं कि दुर्बुद्धिजीवियों और मीडियामूर्खों को वहां जाकर देखना चाहिए, कहीं उनकी आंखों के आगे का गाढ़ा प्रायोजित चश्मा हट पाए। प्राध्यापक आलोक चान्टिया कहते हैं कि दर्द इस बात का है कि भारतवासी कश्मीरी पंडितों के लिए हम आवाज नहीं बन सकते, पर बुद्धिजीवीपन और प्रगतिशीलता के निकृष्ट दावे जरूर करते हैं..! प्रखर पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ल लिखते हैं, ‘आप जब उनके एजेंडे के लिहाज से नहीं लिखेंगे तो वो भड़केंगे, आपको कोसेंगे, आप पर संघी-भक्त का लेबल चस्पा करेंगे, दरअसल उन्होंने खुद को बुद्धिजीविता का स्वयंभू मसीहा मान लिया है, अपनी ही अदालत तैयार कर ली है। मजाल है कोई उनके एजेंडे के खिलाफ एक लफ्ज भी बोले..? तुरंत कार्यवाही चालू करके आपके खिलाफ फरमान जारी कर देते हैं। आपके सच के समर्थक इसलिए मौन साध लेते हैं क्योंकि उन्हें आशंका रहती है कि सच को सच कहा या साथ दिया तो तथाकथित बुद्धिजीवियों और प्रगतिशीलों का गैंग उन्हें भी निशाने पर ले लेगा। इस चुप्पी के परिणामस्वरूप गैंग का झूठ और आरोप आपके खालिस-सच पर ग्रहण लगाने का प्रयास करता रहता है।’ ज्ञानेंद्र शुक्ल की बातों के गहरे निहितार्थ हैं... हम सच इसलिए न बोलें कि संगठित बदमाशों का गिरोह हमारे ऊपर पता नहीं क्या कीचड़ उछाल देगा? ऐसे कुत्सित समय, ऐसे कुत्सित विचार और ऐसी कुत्सित जमात को वैचारिक धरातल पर देश-समाज के सामने नंगा करने का समय आ गया है।
आप यह सोचें कि इस देश में किस तरह का मस्तिष्क-शोधित (ब्रेन-वॉश्ड) विचार पिरोया गया कि मुसलमान मुसलमानों के हित की बात करे तो वह धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील। लेकिन हिन्दू हिन्दुओं के हित की बात करे तो वह दकियानूसी और कट्टर साम्प्रदायिक! इस विचार को ऐसे इन्जेक्ट किया गया कि उसने व्यापक जमात को वैचारिक तौर पर लकवाग्रस्त कर दिया, पंगु बना दिया। उनमें इतनी भी अंतरदृष्टि नहीं बची कि वे मानव को मानव के नजरिए से देख सकें। कश्मीरी पंडित उन्हें मानव नहीं दिखते। केरल के हिन्दू उन्हें मानव नहीं दिखते। पूर्वोत्तर के हिन्दुओं में उन्हें मानव नहीं दिखता। देश के किसी भी हिन्दू को वे मनुष्य नहीं मानते, क्योंकि ऐसा मानने से लक्ष्य धुंधलाता है, ‘डाइल्यूट’ होता है। इसीलिए वे लक्ष्य साध कर हिन्दुओं से दलित को अलग करके देखते-दिखाते हैं और मनोवैज्ञानिक-आनंद लेते हैं कि हिन्दू धर्म कमजोर हो रहा है। इसलिए नहीं कि वे दलितों का कोई व्यापक हित सधता हुआ देखना चाहते हैं। कुछ विकृत मनोवृत्ति के मुसलमानों के कारण इस्लाम पूरी दुनिया में बदनाम, कट्टरवाद के कोढ़ से ग्रस्त और हिंसा-पसंद धर्म माना जाने लगा और कुछ अर्थ-लती दिमाग-दास (corrupt & brain-slave) हिन्दुओं के कारण हिन्दू समुदाय समझ और विचार के नाम पर ‘डस्टबिन’ माना जाने लगा। सोच-विचार में कोई स्पष्टता नहीं... केवल छद्म और नासमझ अनुकरण।
देश-समाज नासमझ विचारों से आगे नहीं बढ़ता। दिमाग की खिड़कियां खोल कर खुली हवा का झोंका आने से बढ़ता है। रक्तपात, बलात्कार और धर्मांतरण धर्म नहीं है। इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं... यह भेड़िया-चरित्र है। परमशक्ति की समझ व्यक्ति को परम-उदार बनाती है, परम-दयावान बनाती है। वह एक समुदाय के लिए दयावान होने और दूसरे समुदाय के प्रति निर्दयी और क्रूर होने के भेद भरे भाव को समाप्त करती है। यही परम-धर्म है। मैं यह कहता हूं, कहता क्या हूं, घोषणा करता हूं कि मैं किसी भी मानव-निर्मित धर्म-जाति का नहीं हूं... आप भी तो कहें..! लेकिन अंतर-आत्मा से ऐसा कहने और आत्मसात करने के लिए मजबूत नैतिक-बल चाहिए। नैतिक बल होता तो हमारे-आपके बीच बुद्धिजीवियत और प्रगतिशीलता के नाम पर शैतानियत अपनी जगह थोड़े ही बना पाती..! इस शैतानियत का खात्मा उन्मुक्त-ईमानदार विचारधारा से होगा... पंगु, छद्मी और शातिर विचार-प्रसारकों के खिलाफ खुल कर खड़े होने से होगा। ...हम खुलें, आगे बढ़ें और अपने देश-समाज को नरक (hell) नहीं, बल्कि नैसर्गिक-धार्मिकों का देश-समाज बनाने का जतन करें। देश-समाज को नरक बना कर जन्नत पाने की बातें शैतान करते हैं और मूर्ख इसे सच समझते हैं... आप सबको हार्दिक शुभकामनाएं... मित्रों को भी और निंदकों को भी। आप सब इसे अपनी-अपनी समझदारी और चेतना से स्वीकार करें... आपका, प्रभात रंजन दीन

Thursday 25 July 2019

ये बुद्धिजीवी हैं या षडयंत्रकारी..!

कुछ लोगों ने गिरोह बना कर प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिखी है। शैतानों का गिरोह बहुत जल्दी बन जाता है। अच्छे लोग एकजुट नहीं हो पाते। इन शातिर-शैतानों ने हिन्दू-धार्मिक नारे लगवाने की एक-दो घटनाएं उठा लीं और ‘लिंचिंग’ शब्द उठा लिया और पीएम को पत्र लिख मारा। हालांकि चिट्ठी-गिरोह में शामिल एक व्यक्ति ने बाद में यह भी बयान दिया कि उनका फर्जी हस्ताक्षर करके उनके नाम का इस्तेमाल किया गया। पत्र-प्रकरण को मीडिया ने खूब उछाला। अखबारों ने सुर्खियों में छापा। सारे चैनेलों ने ‘ब्रेकिंग-न्यूज़’ दिखाया। मीडिया ने पत्र लिखने वालों को कलाकार और बुद्धिजीवी बताया। मीडिया के एक हिस्से ने पत्र-प्रकरण पर सरकार को कोसा और ‘कलाकारों-बुद्धिजीवियों’ की पीठ ठोकी तो मीडिया के दूसरे हिस्से ने सरकार का बचाव किया और ‘पत्र-लेखकों’ को कठघरे में खड़ा किया। लेकिन देश के सभी अखबारों और चैनलों ने ‘पत्र-लेखकों’ को कलाकार और बुद्धिजीवी ही बताया। किसी भी अखबार या चैनल में पत्र-प्रकरण की स्वस्थ-ईमानदार-समीक्षा न छपी, न दिखी। किसी भी अखबार या चैनल ने पत्रकारीय-पड़ताल नहीं की कि इस पत्र-प्रकरण के पीछे कौन लोग हैं, क्या मंशा है, क्या साजिश है, किसका पैसा है और देश का सामाजिक तानाबाना छिन्न-भिन्न करने का माहौल बनाने से इन्हें क्या हासिल होने वाला है? इन तथाकथित कलाकारों-बुद्धिजीवियों की पत्र-हरकत के पीछे कौन सी शक्तियां काम कर रही हैं? इसकी पड़ताल कौन करेगा और कब करेगा? पत्र-प्रकरण की स्वस्थ समालोचना कौन करेगा और कब करेगा? समाज के समक्ष क्या हूबहू वही रख देगा जिसे कोई पृष्ठ-शक्ति चाहेगी, या अपना विवेक इस्तेमाल करने की मीडिया की क्षमता बिल्कुल ही जाती रही? जिस शख्स ने कहा कि उनका फर्जी हस्ताक्षर लिया गया है, उनसे ही बात कर लेते, इसकी पड़ताल कर लेते तो थोड़ा पत्रकारीय-दायित्व निभता... लेकिन ये तो उससे भी गए। मीडिया ने जिन्हें ‘कलाकार और बुद्धिजीवी’ बताया, उस जमात के लिए मैं कुछ अप्रिय शब्द-संबोधनों का इस्तेमाल करूंगा। इसके लिए मेरे मन में अफसोस का भाव तो है, लेकिन अप्रिय-कृत्य के दोषियों को अप्रिय शब्द से संबोधित करना अनुचित नहीं होता, उन्हें यह समझ में आना चाहिए। 
दुर्बुद्धिप्रिय मीडिया देश और समाज को किस अंधकार की तरफ ले जा रहा है, इसके परिणाम की कल्पना ही भयावह एहसास देती है। भारतीय मीडिया को नासमझों की भीड़ नियंत्रित कर रही है, इसलिए उससे समझदारी, दूरदृष्टि और चैतन्यता की उम्मीद करना व्यर्थ है। खास तौर पर भारत का पत्रकार खुद को बुद्धिजीवी समझने की आत्मरति के आनंद में लस्त रहता है और समाज का एक विनम्र प्रतिनिधि होने की समझ संजोने के बजाय खुद को ‘एलिटिस्ट-इंटलेक्चुअलिस्ट’ समझने की भीषण मनोवैज्ञानिक बीमारी से ग्रस्त हो जाता है। उसे कोई भी ऐरा-गैरा-नत्थूखैरा-बेसिरपैरा व्यक्ति ‘इंटलेक्चुअल’ दिखने लगता है... समाज विरोधी बातें करे, उल्टी-सीधी हरकतें करे, बेहूदा साहित्य और फिल्में रचे, समलैंगिकता की मनोवैज्ञानिक-विकृति का समर्थन करे, हिंसा-बलात्कार की घटनाओं में जाति-धर्म का अमानुषिक फर्क करे, कश्मीरी पंडितों के साथ हुई घृणास्पद ज्यादतियों पर घिनौनी चुप्पी साधे रखे, सामाजिक भेद की खाई को और गहरा करने की बातें लिखे-बोले, देश के इतिहास को विद्रूप करे और उसकी सकारात्मकता को नकारात्मक साबित करने का कुप्रयास करे... तो वह मीडिया की नजर में ‘इंटलेक्चुअल’ है। ...और ऐसे बेहूदा-बुद्धिजीवियों को सुर्खियां देना ही पत्रकारिता का काम रह गया है। समीक्षा की समझ ही जैसे मीडिया से खत्म हो गई। ऐसे ‘इंटलेक्चुअल’ और ऐसे ‘इंटलेक्चुअलिस्ट’ से मुक्ति मिलेगी, तभी देश-समाज से विभेद का भाव खत्म होगा।
जिन ऐरे-गैरे लोगों को मीडिया बुद्धिजीवी बता कर हमारे आपके समक्ष पेश कर रहा है, लोक-भाषा में कहें तो वे असल में लुच्चे-लफंगे हैं। ये ऐसे ही लोग हैं जो झुंड बना कर निकलते हैं और जहां ऊंचा ठीहा दिखा, वहीं टांगें उठा कर अपना मूल-चरित्र बहाने लगते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कोई बेहूदा भीड़ सड़क पर निकलती है और शहीद स्मारक तोड़ डालती है और बुद्ध महावीर की प्रतिमाएं खंडित कर देती है। ऐसी भीड़ के कुछ चालाक-मक्कार-शातिर सूत्रधार होते हैं, जो बाबा साहब अंबेडकर के नाम पर तो आंसू बहाते हैं, पर बुद्ध-महावीर की मूर्तियां तोड़वाते हैं। कभी सम्मान लौटाने तो कभी पत्र लिखने वाले लफंगे लोग ‘लिंचिंग’ की षडयंत्रिक-शब्दावली पर रुदाली करते हैं, लेकिन उन्हें कश्मीर में सुरक्षा बलों की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती। उन्हें पश्चिम बंगाल की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती, उन्हें केरल, तमिलनाडु या देश के अन्य हिस्सों में इतर-धर्मियों की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती। कैसे दोगले हैं ये..?
मीडिया जिन्हें कलाकार या बुद्धिजीवी कह कर ‘परोस’ रहा है, उनका नाम लेना भी मैं अधःपतन समझता हूं। एक फिल्म निदेशक अपराध और क्रिमिनल गैंग्स पर फिल्में बना-बना कर अपनी असली मनोवृत्ति अभिव्यक्त करता रहता है। फिल्मों में ऐसी गालियां इस्तेमाल करता है, जिसे आम जिंदगी में लोग मुंह पर लाने से हिचकते हैं। ऐसा आदमी कलाकार और बुद्धिजीवी..! और मीडिया द्वारा महिमामंडित..! ऐसे कलाकार जिनकी पिछली जिंदगी में झांकें तो आपको यौन-उत्तेजना भड़काने वाले उनके फिल्मी और गैर-फिल्मी कृत्यों की भरमार दिखेगी, उसे मीडिया समाज का आईकॉन बना कर पेश करता है। ऐसे इतिहासकार जिन्होंने जीवनभर भारतीय इतिहास के अध्यायों पर कालिख पोतने का काम किया, ऐसे समाजविरोधी-देशविरोधी तत्व मीडिया की निगाह में ‘इंटलेक्चुअल’ होते हैं। इन्हें ‘स्यूडो-इंटलेक्चुअल’ या छद्मी-बुद्धिजीवी कहना भी उचित नहीं। ये असलियत में समाज के सफेदपोश अपराधी (व्हाइट कॉलर्ड क्रिमिनल्स) हैं।
कुछ उदाहरण आपके समक्ष रखता हूं... इन घटनाओं पर इन फर्जी-बुद्धिजीवियों की चुप्पी क्यों सधी रही और मीडिया ने इसे सुर्खियां क्यों नहीं बनाई..! हमारे अनुज और प्रिय मित्र पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ल ने कश्मीर के कुछ उदाहरण सामने रखे। उसे रेखांकित करते हुए कहता हूं कि जब चार जनवरी 1990 को कश्मीर के अखबार ‘आफताब’ और ‘अलसफा’ ने कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ देने का अल्टिमेटम छापा और वहां की मस्जिदों के लाउड-स्पीकरों से कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ देने की धमकियां जोर-जोर से प्रसारित की गईं, तब यह नस्लदूषित-मीडिया और वर्णसंकर-बुद्धिजीवी कहां थे? तब कहां किस बिल में दुबके थे जब कश्मीर के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ टीका लाल टपलू की सरेआम हत्या कर दी गई थी? तब कहां थे जब रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू की हत्या कर उनकी पत्नी का अपहरण कर लिया गया था? आज तक जज साहब की पत्नी का पता नहीं चला। यह मैड-मेन और मीडिया का संगत तब कहां था जब श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र के निदेशक लास्सा कौल की हत्या कर दी गई थी? तब कहां थे जब शिक्षिका गिरजा टिक्कू जैसी सैकड़ों कश्मीरी पंडित महिलाओं का सार्वजनिक सामूहिक बलात्कार हुआ और उनके सामने उनके पतियों-भाइयों-बेटों का कत्ल हुआ? गिरजा टिक्कू को जीवित ही आरे से काट डाला गया था। तब कहां थे ये दोगले-बुद्धिजीवी? लाखों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में विस्थापित कर दिए गए, तब क्यों नहीं सुनाई पड़ीं दोगले-बुद्धिजीवियों की रुदालियां? अपने ही देश में शरणार्थी बने कश्मीरी पंडितों की अपने घर वापसी हो, क्यों नहीं प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हैं ये फर्जी कलाकार-बुद्धिजीवी और इसे क्यों नहीं हाईलाइट करता है देश का सड़ियल मीडिया?
उदाहरणों का सिलसिला जारी है... अभी तो आपने केवल कश्मीर पर ‘मीडिया और उनके बुद्धिजीवियों’ का शातिराना रवैया देखा। अभी आपको कुछ और बताता चलूं... अमेरिका की फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) ने ‘कश्मीरी अमेरिकन काउंसिल’ नामकी संस्था चलाने वाले गुलाम नबी फई को गिरफ्तार किया था। एफबीआई की रिपोर्ट कहती है कि गुलाम नबी फई पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के पैसे से कश्मीर के नाम पर भारत विरोधी गतिविधियां चलाता था और भारत के उन सभी ‘दोगले’ बुद्धिजीवियों को अमेरिका और विश्व के अन्य देशों में अय्याशियां कराता था जो कश्मीर की आजादी या अलगाववादीयत का समर्थन करते थे। आश्चर्य यह है कि इनमें वे ‘बुद्धिजीवी’ और ‘पत्रकार’ भी शामिल थे, जिन्हें भारत सरकार ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए वार्ताकार (इंटरलोक्यूटर्स) नियुक्त कर रखा था। गुलाम नबी फई की गिरफ्तारी के बाद जब आईएसआई के धन पर भारतीय ‘बुद्धिजीवियों’ की अय्याशियों के अध्याय खुले, तब भारतीय मीडिया और ‘बुद्धिजीवियों’ की ये प्रायोजित-रुदालियां करने वाली जमात ने चुप्पी क्यों साधे रखी थी?
कश्मीर के बाद केरल चलते हैं... भारत का केरल राज्य अरब देश का उपनिवेश बनता जा रहा है। केरल की चर्चा न मीडिया वाले करते हैं और न तथाकथित बुद्धिजीवी। जिन कुछ घटनाओं को लेकर अवार्ड वापसी से लेकर प्रधानमंत्री को पत्र लिखने तक का प्रहसन हुआ, वैसी ही अन्य घटनाओं पर मीडिया और दुर्बुद्धिजीवियों का गिरोह मौन साधे रहता है। गाजियाबाद के दादरी में अखलाक के मारे जाने पर अवार्ड वापसी की नौटंकी रची गई। अखलाक के नाबालिग हत्यारोपी को जेल में ‘लिंच’ कर मारा गया, लेकिन उस पर कोई चर्चा नहीं हुई। 22 फरवरी 2018 को केरल में आदिवासी युवक मधु को सार्वजनिक तरीके से बर्बरता से मारा गया, उसकी पिटाई से लेकर हत्या तक की वीडियो रिकॉर्डिंग की गई, लेकिन मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी चुप रहा। विडंबना यह है कि मधु की पहले पिटाई की गई, लेकिन जब पता चला कि वह हिंदू है तो उसकी नृशंस हत्या की गई। इससे पहले 12 नवंबर 2017 को त्रिचूर में आईटीआई कॉलेज से लौटते समय आनंदन को बेरहमी से पीटा गया। अस्पताल में उसकी मौत हो गई। यह ‘लिंचिंग’ की घटना नहीं थी तो क्या थी? इस पर ‘दोगले-बुद्धिजीवी’ और ‘त्रिगले-पत्रकार’ चुप क्यों रहे? ऐसी जाने कितनी घटनाएं भरी पड़ी हैं, जिनकी मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवियों की तरफ से आपराधिक उपेक्षा की गई। 29 जुलाई 2017 को कन्नूर में ई. राजेश की सरेआम हत्या कर दी गई थी। कन्नूर में ही 18 जनवरी 2017 की रात को संतोष को उसके घर में घुस कर चाकुओं से गोद कर मारा गया था। 28 दिसंबर 2016 को कोझिकोड के पलक्कड़ में 44 वर्षीय सी. राधाकृष्णन को उनके घर में ही जिंदा जला डाला गया था। इस साल यानि 2019 के फरवरी महीने में तमिलनाडु के तंजावुर के कुम्भकोणम में पट्टाली मक्कल काची पार्टी के नेता 42 वर्षीय रामालिंगम के दोनों हाथ काट डाले गए। अत्यधिक खून बहने से उनकी मौत हो गई। उन्होंने मुस्लिम समुदाय द्वारा कराए जा रहे धर्मांतरण का विरोध किया था, इसलिए उनकी हत्या कर दी गई। यह क्या ‘लिंचिंग’ की घटना नहीं थी? इस तरह की घटनाओं की लंबी श्रृंखला है और यह सिलसिला आज भी लगातार जारी है। इन पर मीडिया और बुद्धिजीवियों की चुप्पी भी लगातार जारी है। केरल में धार्मिक विद्वेष और जबरन धर्मांतरण जैसी घटनाएं लगातार हो रही हैं। अखिला को जबरन हादिया बनाने जैसी घटनाएं आम हैं, लेकिन इस पर शातिराना चुप्पी सधी है। जबकि आधिकारिक (केरल विधानसभा में प्रस्तुत) आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक से भी कम अवधि में 2667 युवतियों का धर्मांतरण करा कर उन्हें जबरन मुस्लिम बनाया गया। कुछ गैर सरकारी संस्थाएं इस संख्या को पांच हजार से अधिक बताती हैं। कर्नाटक की एक संस्था की रिपोर्ट है कि वहां 30 हजार से अधिक लड़कियां लव-जिहाद का शिकार हुई हैं। पत्रकारों को भी यह पता है कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया और कैंपस फ्रंट जैसे संगठन दूसरे धर्मों की लड़कियों को बहका कर उनकी शादियां कराते हैं और उन्हें इस्लाम कबूल करने पर विवश करते हैं। यह भी उजागर हो चुका है कि कोझीकोड लॉ कॉलेज के जहांगीर रज्जाक नामके युवक ने कई मुस्लिम लड़कों का गिरोह बना कर 42 लड़कियों को फंसाया और उन्हें ब्लैकमेल करके सेक्स-रैकेट चलाने लगा। उन लड़कियों में दिल्ली की गीता भी थी। गीता को जैसे ही यह पता चला कि उसका प्रेमी विशाल असलियत में मोहम्मद एजाज है, तो उसने आत्महत्या कर ली। इस पर क्यों नहीं बोलते नौटंकी-प्रेमी बुद्धिजीवी..?
ममता बनर्जी को ‘कवर’ देने के लिए प्रधानमंत्री को प्रेम-पत्र लिखने वाले ‘बुद्धिजीवी’ और उनकी तरफदारी करने ‘पत्रकार’ इस बात पर क्यों चुप हैं कि पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के नलहाटी में हिंदुओं को दुर्गा पूजा मनाने की इजाजत नहीं है। स्थानीय लोग दुर्गा पूजा के आयोजन की प्रशासन से बार-बार इजाजत मांग रहे हैं, लेकिन प्रशासन यह कह कर दुर्गा पूजा मनाने की इजाजत नहीं दे रहा है कि इससे गांव में साम्प्रदायिक तनाव फैल जाएगा। अब आप सोचिए, इस ‘बौद्धिक-षडयंत्र’ के पीछे कौन लोग हैं।
उत्तर प्रदेश के बरेली में जिला मुख्यालय से महज 70 किलोमीटर दूर स्थित मिलक-पिछौड़ा गांव में हिंदुओं के पूजा-पाठ पर एक लंबे अर्से से प्रतिबंध है। इस गांव में डेढ़ सौ घर हिन्दुओं के हैं और सात सौ घर मुसलमानों के। ...इस पर ‘मीडिया और उसके चहेते बुद्धिजीवी’ क्यों चुप हैं? अभी तक पीएम मोदी या सीएम योगी को पत्र क्यों नहीं लिखा और अब तक अखबारों और चैनलों पर यह खबर सुर्खियां क्यों नहीं बनी? यूपी के ही लखीमपुर जिले के बड़ा गांव इलाके में शिव पूजा के लिए फूल तोड़ रहे 12 साल के बच्चे निहाल शर्मा को घसीट कर अतरिया मदरसे ले जाया गया और वहां मदरसे के मौलाना और मदरसे के छात्रों ने निहाल को हैवानों की तरह पीटा। जख्मी बच्चे को गंभीर हालत में बरामद किया गया... लेकिन लिंचिंग की इस जघन्य घटना पर ‘मीडिया और उसके चहेते बुद्धिजीवी’ क्यों चुप रहे? राजधानी लखनऊ के काकोरी इलाके में पारा थाने के सदरौना गांव निवासी धर्मेंद्र रावत का परिवार पिछले एक दशक से गांव से निष्कासित है। रावत परिवार ने अपराध किया था कि घर में रामायण का पाठ आयोजित करा लिया। रामायण पाठ के दरम्यान ही उनके घर पर हमला किया गया। तोड़फोड़ की गई और पवित्र धार्मिक ग्रंथ रामायण जला दिया गया। रावत को गांव से बाहर निकाल दिया गया। पुलिस ने कुछ नहीं किया। धर्मेंद्र रावत खानाबदोश की तरह कभी इस मंदिर में तो कभी उस आश्रम में रह रहे हैं। यहां तक कि वे लंबे अर्से तक गोरखधाम में भी रहे। योगी आदित्यनाथ सारा प्रकरण जानते हैं, लेकिन तब भी कुछ नहीं किया जब वे मठाधीश थे। आज भी कुछ नहीं कर रहे, जब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। लेकिन आज का हमारा प्रसंग यह नहीं है। आज का प्रसंग यह है कि इन घटनाओं पर मीडिया और विशेष खाल वाले बुद्धिजीवी चुप क्यों हैं..?
सोशल मीडिया और ‘व्हाट्सएप’ पर भी कई ग्रुप चल रहे हैं... कई इस्लामिक और कई छद्मी (भ्रम पैदा करने वाले) नामों से चल रहे ‘व्हाट्सएप-ग्रुप्स’ के जरिए यह संदेश फैलाया जा रहा है कि अरब देशों, मलेशिया, इंडोनेशिया और यहां तक कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी हिन्दू बहुत मौज से रह रहे हैं। जबकि भारत में मुसलमानों से हिंदूवादी धार्मिक नारे लगवाए जा रहे हैं। उन्हीं ‘व्हाट्सएप-ग्रुप्स’ में हिन्दुओं की धार्मिक आस्था पर गंभीर आघात पहुंचाने वाले भौंडे शेर और कविताएं चल रही हैं... साथ-साथ इन संदेशों को अधिक से अधिक फैलाने का आह्वान भी किया जा रहा है। इन ग्रुपों को संचालित कर रहे हैं कई स्वयंभू पत्रकार और कई स्वयंभू विद्वान मौलाना। ये विद्वान मौलाना या विद्वान पत्रकार पाकिस्तान या बांग्लादेश में हिन्दुओं के साथ हो रही घोर ज्यादतियों के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते... कश्मीर में हिन्दुओं के साथ हुई ज्यादतियों को लेकर एक शब्द नहीं बोलते... यह भी नहीं बोलते कि भारत में मुसलमान लोकतांत्रिक अधिकारों को कितना ‘इन्जॉय’ कर रहे हैं। ईमानदारी से यह तो स्वीकार करना ही चाहिए। एक-दो आपराधिक घटनाओं का हवाला देकर अपने ही वतन को गालियां देने का चलन और तौर-तरीका अब सख्ती से बंद करना होगा। यह देश सबका है, यह किसी एक समुदाय की बपौती नहीं है। लेकिन यह बात कश्मीर और केरल में भी लागू होती है। कश्मीर और केरल किसी एक समुदाय की बपौती नहीं है। यह देश के मीडिया के लिए ‘इश्यू’ नहीं है और न तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिए विचार-विमर्श और चिंतन का कोई मुद्दा है। कुछ मौलाना चारित्रिक विवाद में फंसे होने के कारण मुद्दे को कहीं और ले जाना चाहते हैं... इसी शातिराना इरादे से वे मुसलमानों को हथियारबंद करने की बात जोर-शोर से कर रहे हैं। जब चारित्रिक मामला नहीं था तब ये मौलाना देशभर में शांति-दूत बने फिरते थे और ‘सूफीवाद’ की वकालत किया करते थे।
ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जिन पर मीडिया और मीडियापसंद बुद्धिजीवियों की चुप्पी इसके पीछे खतरनाक षडयंत्रकारी दिमाग की तरफ इशारा करती है। तीन जनवरी 2016 को पश्चिम बंगाल के कालीयाचक में हुए दंगे की ये चर्चा नहीं करते, जिसमें ‘अंजुमन अहले सुन्नत उल जमात’ संगठन के लाखों मुसलमानों ने सड़क पर उत्पात मचाया था। तोड़फोड़, आगजनी और सार्वजनिक सम्पत्ति को भीषण नुकसान पहुंचाया गया था। हिंसा में तीन दर्जन से अधिक लोग गंभीर रूप से जख्मी हुए थे। इसी तरह पश्चिम बंगाल के ही धूलागढ़ में 12 दिसंबर 2016 को मुसलमानों ने जिद करके ईद मिलादुन्नबी का जुलूस एक दिन पहले ही निकाल दिया। उस दिन हिन्दू समुदाय मार्ग शीर्ष पूर्णिमा का पर्व मना रहा था। मुसलमानों के जुलूस में जोर से बजाए जा रहे लाउड स्पीकर की आवाज कम करने के लिए कहा गया तो हिन्दुओं के घर जला डाले गए और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए गए। तब मीडिया और बुद्धिजीवियों ने क्यों चुप्पी साध ली थी?
दलितों के प्रेमी और हिमायती बन कर हिन्दू समुदाय को कमजोर करने का कुचक्र कर रहे मुसलमानों को तमिलनाडु की घटना पर कोई दलित-प्रेम नहीं जागा, जब थेनी जिले में दलित महिला की शवयात्रा मुसलमानों को बर्दाश्त नहीं हुई और उन्होंने जम कर हिंसा की। यही हाल 21 जुलाई 2018 को राजस्थान के बाड़मेड़ जिले में हुआ जहां मुस्लिम लड़की से प्रेम करने के जुर्म में एक दलित युवक को मुसलमानों ने पीट-पीट कर मार डाला। यूपी के सिद्धार्थनगर में एक शादी समारोह के दरम्यान मुस्लिम लड़कों ने दलित युवती से छेड़छाड़ की और विरोध करने पर दलित समुदाय के लोगों पर कातिलाना हमला बोल दिया। यह घटना पिछले ही साल मई महीने की है। तथाकथित दलित-प्रेमी मुसलमानों ने आगरा में आरओ प्लांट से पानी लेने के सवाल पर एक दलित युवक को बुरी तरह पीटा। इसके बाद भी मन नहीं भरा तो दलितों के घर पर हमला बोल दिया। जबरदस्त हिंसा हुई। अंधाधुंध फायरिंग भी हुई जिसमें कई लोग घायल हुए। फरवरी 2019 में हुई इस घटना पर आपने क्या कोई ‘बुद्धिजीवीय-प्रतिक्रिया’ देखी या सुनी? इस साल अप्रैल महीने में यूपी के देवरिया में दलित समुदाय की एक युवती के यौन शोषण का विरोध करने वाले दलितों पर रहमत अली की अगुवाई में मुसलमानों ने हमला बोल दिया, दलितों को पीटा और बाबा साहब की मूर्ति तोड़ डाली। इसी तरह इस साल मई महीने में मध्यप्रदेश के देवास जिले में मुस्लिमों ने दलितों की बारात पर हमला बोल दिया। मुसलमानों को नाराजगी इस बात पर थी कि दलितों ने मस्जिद के सामने से बारात निकालने की हिमाकत कैसे की। इस हमले में एक दलित युवक धर्मेद्र सिंधे की मौत हो गई और दर्जनों दलित बुरी तरह जख्मी हुए। इसी साल जनवरी महीने में यूपी के प्रतापगढ़ में मुस्लिमों ने मंदिर का ताला तोड़ कर वहां स्थापित हनुमान जी की मूर्ति तोड़ डाली। उसी जगह नमाज पढ़ी और अल्लाह हू अकबर के नारे लगाए। यह नारे मीडिया को और मीडिया को चंदा देकर बुद्धिजीवी या कलाकार बने लोगों को सुनाई नहीं देते।
मेरे पास सौ से अधिक ऐसे मामले हैं जिसमें मुस्लिम लड़की से शादी करने पर हिन्दू युवक और उसके परिवार के लोगों को बेरहमी से मारा गया। हिन्दू युवक से शादी करने पर मुस्लिम लड़की को बुरी तरह मारा गया। यहां तक कि बुलंदशहर की एक ऐसी भी घटना के दस्तावेज मेरे सामने हैं, जिसमें गुलावटी-रामनगर के इरफान और रिजवान ने हिन्दू लड़के से प्रेम करने वाली अपनी ही बहन सलमा के मुंह पर घातक तेजाब की पूरी बोतल उड़ेल दी और छटपटाती हालत में ही उसे कोट-नहर में फेंक कर चले गए। बहुत बुरी मौत मरी सलमा। लेकिन ‘लिंचिंग’ पर ललकारते लुच्चों को सलमा की मौत कोई स्पंदन नहीं देती। कितना लिखें..! इतने तथ्य और इतनी सूचनाएं हैं कि पूरी किताब लिख जाए... इन तथ्यों और दस्तावेजों से गुजरते हुए मैं साथ-साथ इस बात की भी छानबीन करता रहा कि इनमें से कितनी घटनाएं मीडिया ने प्रमुखता से उठाईं... एक भी नहीं। आपने क्या यह खबरें अखबारों की या चैनलों की सुर्खियां बनते देखीं..? क्या आपने सुना किसी ‘बुद्धिजीवी’ ने इस पर प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को पत्र लिखा हो..? अब बंद करता हूं लेखन... पर, चिंतन नहीं..! चिंतन-धारा रुकनी नहीं चाहिए... आप भी शरीक हों...
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भारत का इतिहास ऐसे ही ‘छद्म-बौद्धिकों’ से लिखा हुआ,
भारत का वर्तमान ऐसे ही मक्कार बुद्धि से छला हुआ,
भारत का आवाम लहू-लुहान, घनघोर विपद में हांफ रहा,
उम्मीदें सारी कत्ल हुईं, फिर भी वह आस में ताक रहा।
शासक नहीं, लुटेरों से शासित-शापित यह देश रहा,
धर्म-छद्म पर व्यभिचारों का यहां हुआ आखेट रहा,
वतन यहां, पर वफा नहीं, नस्लों का ऐसा फेंट रहा।
चील-गिद्ध की तरह खबरियों की है कैसी छीना झपटी,
मुंह पर अक्षर लीपे-पोते, बुद्धिजीवी झूठे और कपटी।
नई कलम से नई नस्ल को नया वतन अब रचना होगा,
बुद्धि चेतना और विवेक से शत्रु-मित्र परखना होगा।
मशाल लिए हम चल पड़े सफर पर...
तुम भी आओ, तुम भी आओ...
सपने को सच करना होगा...
नया वतन अब रचना होगा।।
 - प्रभात रंजन दीन...