Saturday 27 July 2019

बामुलाहिजा! ये बुद्धिजीवी और प्रगतिशील हैं

जब कुछ कहने को नहीं रहा, जब कुछ ढंकने को नहीं रहा,
कीचड़ उछालना करम रहा, बचने का कुछ तो भरम रहा..! 
इन चार पंक्तियों से अपनी बात शुरू करता हूं। ‘मित्रों के चेहरे वाली किताब’ के लिए मैंने कठोर तथ्यों (हार्ड फैक्ट्स) पर आधारित एक लेख लिखा... प्रकरण था हिंदूवादी नारे और ‘लिंचिंग’ को मुद्दा बना कर कुछ तथाकथित कलाकारों-बुद्धिजीवियों द्वारा प्रधानमंत्री को पत्र लिखना। पत्र लिखने वाली जमात कुछ जगह जबरन हिंदूवादी नारे लगवाए जाने और कुछ जगह मुसलमानों की ‘लिंचिंग’ (हत्या) किए जाने की घटनाओं पर उद्वेलित थी। पत्र लिखने वाले व्हाट्सऐप-प्रेरित तथाकथित कलाकारों-बुद्धिजीवियों ने ‘देश के बिगड़ते माहौल’ पर चिंता जताई, लेकिन आरोप को पुष्ट करने वाले ठोस उदाहरण पेश नहीं किए। पेश क्या किया..! नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आधिकारिक आंकड़ों के नाम पर सफेद-झूठ चस्पा कर दिया। अंधत्व के शिकार मीडिया ने इसकी पड़ताल भी नहीं की। पीएम को लिखा पत्र आपने देखा है..? आप उसे देखें, वह सार्वजनिक फोरम पर उपलब्ध है, उसमें पत्र-लेखकों ने एनसीआरबी के आधिकारिक आंकड़ों का हवाला देते हुए वर्ष 2009 से वर्ष 2018 तक के अपराध के आंकड़ों का हवाला दिया है। आपको यह पता ही होगा... और आप इसे अद्यतन (अपडेट) भी कर लें कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का सालाना आंकड़ा छपने का क्रम काफी विलंबित गति से होता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का वर्ष 2016 के अपराध का आंकड़ा अभी-अभी करीब हफ्ता-पंद्रह दिन पहले प्रकाशित होकर विभिन्न राज्यों के गृह विभागों, पुलिस मुख्यालयों, जेल मुख्यालयों और सम्बद्ध विभागों तक पहुंचा है। एनसीआरबी के वर्ष 2017 के अपराध का आंकड़ा अभी छपने के लिए गया है। उसमें थोड़ा वक्त लगेगा। अब आप सोचें कि पत्र-लेखक गिरोह ने एनसीआरबी का वर्ष 2018 का अपराध का आंकड़ा कहां से जुटा लिया..? क्या इस आपराधिक झूठ की जांच नहीं होनी चाहिए..? पत्र-लेखकों की फेहरिस्त में शामिल एक व्यक्ति ने सार्वजनिक बयान देकर कहा है कि उनका फर्जी हस्ताक्षर कर उनके नाम का इस्तेमाल किया गया है। वह शख्स हैं मशहूर फिल्म निर्देशक मणिरत्नम। मणिरत्नम ने पीएम को लिखी गई चिट्ठी को खारिज करते हुए कहा है कि उन्होंने ऐसी किसी चिट्ठी पर न तो हस्ताक्षर किया है और न ही ऐसी कोई चिट्ठी उनके सामने ‘सपोर्ट’ के लिए प्रस्तुत की गई थी। फिल्म निर्देशक मणिरत्नम का फर्जी हस्ताक्षर किए जाने के नियोजित ‘फ्रॉड’ की क्या जांच नहीं होनी चाहिए..?
जो पढ़े-लिखे समझदार लोग हैं उन्हें पता है कि क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा श्रेणीबद्ध किए गए अपराध में ‘जयश्री-राम’ या ‘अल्लाह हू अकबर’ के नारे जबरन लगवाए जाने की घटना का कोई ‘हेड’ नहीं है और न ही ‘लिंचिंग’ नाम से कोई ‘हेड’ है। भारतीय दंड विधान (इंडियन पेनल कोड) के तहत आने वाले अपराधों की कुल 55 श्रेणियां (कैटेगरी) निर्धारित हैं। इसमें कहीं भी जबरन धार्मिक नारे का अपराध या ‘लिंचिंग’ का अपराध अलग से रेखांकित नहीं है। हां, ‘लोक शांति भंग’ (ऑफेंस अगेंस्ट पब्लिक ट्रैन्क्विलिटी) के तहत श्रेणीबद्ध अपराध में दंगा (जातीय, धार्मिक, नस्ली, गुटीय सभी तरह के दंगे) और साम्प्रदायिक-जातीय-गुटीय-नस्लीय विद्वेष फैलाने की घटनाएं पारिभाषित हैं।
बहरहाल, मैंने जो लेख लिखा, उसमें तथाकथित कलाकारों-बुद्धिजीवियों, नासमझ मीडियामूर्धन्यों और ‘हिपोक्रिट’ (आडम्बरी) प्रगतिशीलों द्वारा समाज में फैलाए जा रहे विषाक्त माहौल पर गहरी चिंता है। इस पत्र-प्रकरण को सामान्य तौर पर न लें, यह गहरी साजिश है, इसे आप समझते चलें। इसकी गहराई से पड़ताल होनी चाहिए और इसके पीछे बैठी सूत्रधार-ताकतों का चेहरा उजागर होना चाहिए। इस प्राथमिक दायित्व से देश का मीडिया मुंह चुरा रहा है और कुछ इस षडयंत्र में खुद शरीक हैं। मेरे पूर्व के लेख को आपने पढ़ा है। यदि नहीं पढ़ा तो कृपया उसे पढ़ लें... तभी इस दूसरे क्रम की प्रासंगिकता और तारतम्यता समझ में आएगी। लब्बोलुबाव यह है कि देश में पिछले करीब तीन दशक से कश्मीर से लेकर केरल तक और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में जिस हैवानियत के साथ इस्लामिक कट्टरता पसरी है, उसे लेकर देश के कलाकार और बुद्धिजीवी शातिराना मौन साधे रहे हैं। जैसे कश्मीरी पंडित और कश्मीर के इतर-धर्मी क्या हमारे अपने नहीं थे कि इनके साथ हुए अमानुषिक दुर्व्यवहार, जबरन धर्मांतरण, बहू-बेटियों के साथ हुए सामूहिक बलात्कार, सामूहिक हत्याएं और नरसंहार पर शातिराना चुप्पी साध ली गई? खुद को कलाकार, बुद्धिजीवी, प्रगतिशील, मानवाधिकारवादी कहने वाले लुच्चे-लफंगे इस पर क्यों नहीं बोलते? इसी तरह केरल में धार्मिक अत्याचार, लव-जेहाद के नाम पर फैलाया गया इस्लामिक-मवाद, जबरन धर्मांतरण, नृशंस सार्वजनिक हत्याएं और संत्रास बौद्धिक-लफंगों को क्यों नहीं दिखता? पूर्वोत्तर को बांग्लादेश बनाने का अति-इस्लामवाद, अत्याचार और नरसंहार इन्हें क्यों नहीं दिखता? इन्हें और इनकी हिमायत करने वाली मानवता-विरोधी जमात को क्या कह कर संबोधित किया जाए? मैंने अपने पहले लेख में भी कहा कि कुछ अप्रिय शब्द-संबोधनों का इस्तेमाल करने के लिए मेरे मन में अफसोस का भाव है, लेकिन अप्रिय-कृत्य के दोषियों को अप्रिय शब्द से संबोधित करना अनुचित नहीं होता, उन्हें यह समझ में आना चाहिए। मैंने अपने लेख में दर्जनों प्रामाणिक घटनाओं का हवाला देते हुए चुनौती सामने रखी है। मैंने यह भी लिखा है कि मेरे पास इस्लामिक उन्माद के सैकड़ों जघन्य और बर्बर मामले दस्तावेजों के साथ उपलब्ध हैं, जिन्हें एक साथ लिखना किताब लिखने जैसा हो जाएगा। मेरे लिखे पर बौद्धिक-लफंगों या उनके चट्टे-बट्टों को कुछ कहना है तो प्रामाणिक तथ्यों और तर्कों के साथ खंडन प्रस्तुत करें। फेसबुक या ऐसे सोशल-मीडिया फोरम का व्यभिचारिक इस्तेमाल से वे बाज आएं। ‘हिपोक्रिट’ (आडम्बरी) प्रगतिशीलों..! निंदा के शब्द नहीं, तर्क और तथ्य लेकर सोशल-फोरम पर आओ, लेकिन आने से पहले उन तथ्यों को लेकर आईने में अपनी सूरत और सीरत देखो कि तुमने भारतीय समाज के साथ किस तरह का दुर्व्यवहार और आपराधिक-षडयंत्र किया है।
यह किस तरह की मनोवैज्ञानिक विकृति है..! इन आडम्बरियों को यह मूल बात समझ में नहीं आती कि मानवीय करुणा हिंदू-मुसलमान-सिख देख कर नहीं आती। सिखों पर बर्बरता और दोगलेपन की देश में इंतिहा कर दी गई। किस ‘लफंगे-बौद्धिक‘ ने अपना अवॉर्ड लौटाया या प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी..? कश्मीर के हिन्दुओं का कत्लेआम मचाया गया और उन्हें अपने ही घर से भगाया गया, इसके खिलाफ किस ‘प्रगतिशील-लफंगे’ ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी..? कश्मीरी पंडितों को उनके घर वापस दिए जाएं, इसके लिए किस ‘प्रायोजित-प्रगतिशील-जमात’ ने प्रधानमंत्री से गुहार लगाई..? पूर्वोत्तर राज्यों में बांग्लादेशियों द्वारा मचाए गए हिंसक-उत्पात के खिलाफ किस ‘कलाकार-बुद्धिजीवी’ ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा या सार्वजनिक रुदाली की..? इन ‘लफंगों’ की आंखों पर केवल एक चश्मा लगा है... इस चश्मे को उतारें तो इसमें आपको अरब की आंख दिखेगी, आपको चीन की आंख दिखेगी, आपको पाकिस्तान की आंख दिखेगी। आपको उन ताकतों की आंख दिखेगी जो भारतवर्ष में अस्थिरता (unrest) का भयानक मंजर खड़ा करना चाहते हैं। ...इनकी जेबों में देखें, आपको उन्हीं देशों और उन्हीं ताकतों का धन मिलेगा। जरा झांकिए तो, किन ताकतों के बूते बॉलीवुड चलता है और उन ताकतों के आगे किस तरह फिल्मी कलाकार भड़ुए बने फिरते हैं। जरा झांकिए तो, पाकिस्तानी आईएसआई का धन किस तरह भारत के वर्णसंकरों को पाकिस्तान-परस्त बना रहा है। जरा झांकिए तो, अरब का धन किस तरह पढ़े-अधपढ़े लोगों को ‘अति-इस्लामिक-व्याख्यावादी’ (extremist-islamist-interpreterist) जमात में कनवर्ट कर रहा है। जरा झांकिए तो, चीन का धन किस तरह भारत में ‘कुलीनतावादी-माओवादी’ (एलिटिस्ट-माओइस्ट) पैदा कर रहा है, जो भोले-भाले अनपढ़ खेतिहर और शहरी मजदूरों के बीच ‘सर्वहारा के अधिनायकवाद’ का प्रवचन ठेलता है, समाज में जहर फैलाता है, अपने बच्चों को पश्चिमी देशों में आलीशान पूंजीवादी शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में पढ़वाता है और वसूला गया धन विदेश के चोर-बैंकों में जमा कराता है। कश्मीरी अलगाववादियों की असलियत तो आप जान चुके हैं। उनके अकूत धन के स्रोत और उनके बच्चों की उन्हीं पश्चिमी देशों में पढ़ाई-लिखाई जिन देशों में वे बम फोड़ने की साजिश भी करते हैं, इसका आधिकारिक खूलासा हो चुका है। ऐसे दोगलों के चाटुकार मेरे लेख पर तार्किक जवाब देने के बजाय आरोप लगाते हैं। मैं भाजपाई हो गया... मैं संघी हो गया... मुझको भाजपा सरकार कोई पद दे देगी... वगैरह, वगैरह। इस तरह कीचड़ उछालने वाले लोग समाज के अवांछित तत्व हैं, जिन्हें अंग्रेजी में ‘un-wanted elements’ कहते हैं। ये भी मुझे अच्छी तरह से जानते हैं। ये जानते हैं कि मैं जो भी लिखता हूं, उसके पहले खुद को आइने में देख लेता हूं, फूहड़-फक्कड़ जरूर हूं, पर उन जैसा आडम्बरी नहीं। सच लिखने-बोलने से मुझे कोई आडम्बर या भय रोक नहीं सकता। मुझे धन-पद का लोभ रहता तो 36 साल से घर फूंक कर तमाशा थोड़े ही देख रहा होता..! मैंने मुस्लिम इश्यूज़ पर खूब लिखा। मुस्लिमों को लेकर बनी तमाम योजनाएं आम मुसलमानों तक नहीं पहुंचतीं, इसे उजागर किया। मदरसों में लड़कियों के साथ अश्लील धंधे की खबरें ब्रेक कीं। निर्दोष मुसलमानों को आतंकी ‘फ्रेम’ में कसने की साजिशों का पर्दाफाश किया। सिख मसलों पर खूब लिखा। दलितों और पिछड़ों के उत्पीड़न पर खूब लिखा। मुस्लिमों के लिए लिखा, तब मैं बहुत अच्छा था। सिखों के लिए लिखा, तब मैं बहुत अच्छा था। दलितों-पिछड़ों के लिए लिखा, तब मैं बहुत अच्छा था। मेरे निरंतर लिखने से कई दलित और पिछड़े बड़े-बड़े नेता बन गए। मेरी इस लेखन-शैली पर पूरा समाज और पूरा पत्रकार समुदाय इस बात की तफ्तीश करता रहा कि मैं किस जाति का हूं। मुझे दलित कहा गया, मुझे पिछड़ा कहा गया, मैं पग्गड़ नहीं बांधता लेकिन लोगों ने मुझे मोना-सिख भी कहा। लेकिन आज हिन्दुओं के लिए लिखा तो अचानक मैं खराब हो गया। किसी अहमक को मैं ठाकुर दिखने लगा तो किसी को ब्राह्मण... किसी बदरंग दिमाग के व्यक्ति ने मुझे रंगा-सियार तक कहा। इसी तरह के कुछ अन्य लोगों ने भी अपनी मूल-नस्ल के मुताबिक मेरी निंदा का प्रस्ताव जारी किया... लेकिन किसी ने भी मेरे लेख में दिए गए तथ्यों के बरक्स कोई तार्किक बात नहीं की। यह आप समझ लें कि इस तरह किसी पर भी कीचड़ उछालने वाले लोग बड़े शातिर और मक्कार होते हैं। साथ ही यह भी कहता चलूं कि तर्क के बजाय जब बौखलाहट अभिव्यक्त हो तो समझें सटीक लक्ष्य पर तीर धंसा है। एक अंग्रेज दार्शनिक के कथन का जिक्र यहां जरूरी है। वे कहते हैं, ‘If somebody praises me, I feel little happy, but when somebody abuses me without giving any logic, I feel, I have hit the target.’ आप समझ गए न...
मेरे लिखे को प्राध्यापक आलोक चान्टिया ने आगे बढ़ाते हुए लिखा है कि वे वर्ष 2006 में कश्मीर गए थे। कश्मीर के दर्जी कुआं इलाके में गए जो कश्मीरी पंडितों का गढ़ रहा है। चान्टिया ने लिखा है कि वहां कैसे कश्मीरी पंडितों के सिर दीवारों में टकरा-टकरा कर फोड़े गए थे और उन्हें बेरहमी से मारा गया था। लहू के निशान आज तक मिटे नहीं हैं। चान्टिया ने उसकी फोटोग्राफ्स भी लीं। मेरे लेख पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए वे लिखते हैं कि दुर्बुद्धिजीवियों और मीडियामूर्खों को वहां जाकर देखना चाहिए, कहीं उनकी आंखों के आगे का गाढ़ा प्रायोजित चश्मा हट पाए। प्राध्यापक आलोक चान्टिया कहते हैं कि दर्द इस बात का है कि भारतवासी कश्मीरी पंडितों के लिए हम आवाज नहीं बन सकते, पर बुद्धिजीवीपन और प्रगतिशीलता के निकृष्ट दावे जरूर करते हैं..! प्रखर पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ल लिखते हैं, ‘आप जब उनके एजेंडे के लिहाज से नहीं लिखेंगे तो वो भड़केंगे, आपको कोसेंगे, आप पर संघी-भक्त का लेबल चस्पा करेंगे, दरअसल उन्होंने खुद को बुद्धिजीविता का स्वयंभू मसीहा मान लिया है, अपनी ही अदालत तैयार कर ली है। मजाल है कोई उनके एजेंडे के खिलाफ एक लफ्ज भी बोले..? तुरंत कार्यवाही चालू करके आपके खिलाफ फरमान जारी कर देते हैं। आपके सच के समर्थक इसलिए मौन साध लेते हैं क्योंकि उन्हें आशंका रहती है कि सच को सच कहा या साथ दिया तो तथाकथित बुद्धिजीवियों और प्रगतिशीलों का गैंग उन्हें भी निशाने पर ले लेगा। इस चुप्पी के परिणामस्वरूप गैंग का झूठ और आरोप आपके खालिस-सच पर ग्रहण लगाने का प्रयास करता रहता है।’ ज्ञानेंद्र शुक्ल की बातों के गहरे निहितार्थ हैं... हम सच इसलिए न बोलें कि संगठित बदमाशों का गिरोह हमारे ऊपर पता नहीं क्या कीचड़ उछाल देगा? ऐसे कुत्सित समय, ऐसे कुत्सित विचार और ऐसी कुत्सित जमात को वैचारिक धरातल पर देश-समाज के सामने नंगा करने का समय आ गया है।
आप यह सोचें कि इस देश में किस तरह का मस्तिष्क-शोधित (ब्रेन-वॉश्ड) विचार पिरोया गया कि मुसलमान मुसलमानों के हित की बात करे तो वह धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील। लेकिन हिन्दू हिन्दुओं के हित की बात करे तो वह दकियानूसी और कट्टर साम्प्रदायिक! इस विचार को ऐसे इन्जेक्ट किया गया कि उसने व्यापक जमात को वैचारिक तौर पर लकवाग्रस्त कर दिया, पंगु बना दिया। उनमें इतनी भी अंतरदृष्टि नहीं बची कि वे मानव को मानव के नजरिए से देख सकें। कश्मीरी पंडित उन्हें मानव नहीं दिखते। केरल के हिन्दू उन्हें मानव नहीं दिखते। पूर्वोत्तर के हिन्दुओं में उन्हें मानव नहीं दिखता। देश के किसी भी हिन्दू को वे मनुष्य नहीं मानते, क्योंकि ऐसा मानने से लक्ष्य धुंधलाता है, ‘डाइल्यूट’ होता है। इसीलिए वे लक्ष्य साध कर हिन्दुओं से दलित को अलग करके देखते-दिखाते हैं और मनोवैज्ञानिक-आनंद लेते हैं कि हिन्दू धर्म कमजोर हो रहा है। इसलिए नहीं कि वे दलितों का कोई व्यापक हित सधता हुआ देखना चाहते हैं। कुछ विकृत मनोवृत्ति के मुसलमानों के कारण इस्लाम पूरी दुनिया में बदनाम, कट्टरवाद के कोढ़ से ग्रस्त और हिंसा-पसंद धर्म माना जाने लगा और कुछ अर्थ-लती दिमाग-दास (corrupt & brain-slave) हिन्दुओं के कारण हिन्दू समुदाय समझ और विचार के नाम पर ‘डस्टबिन’ माना जाने लगा। सोच-विचार में कोई स्पष्टता नहीं... केवल छद्म और नासमझ अनुकरण।
देश-समाज नासमझ विचारों से आगे नहीं बढ़ता। दिमाग की खिड़कियां खोल कर खुली हवा का झोंका आने से बढ़ता है। रक्तपात, बलात्कार और धर्मांतरण धर्म नहीं है। इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं... यह भेड़िया-चरित्र है। परमशक्ति की समझ व्यक्ति को परम-उदार बनाती है, परम-दयावान बनाती है। वह एक समुदाय के लिए दयावान होने और दूसरे समुदाय के प्रति निर्दयी और क्रूर होने के भेद भरे भाव को समाप्त करती है। यही परम-धर्म है। मैं यह कहता हूं, कहता क्या हूं, घोषणा करता हूं कि मैं किसी भी मानव-निर्मित धर्म-जाति का नहीं हूं... आप भी तो कहें..! लेकिन अंतर-आत्मा से ऐसा कहने और आत्मसात करने के लिए मजबूत नैतिक-बल चाहिए। नैतिक बल होता तो हमारे-आपके बीच बुद्धिजीवियत और प्रगतिशीलता के नाम पर शैतानियत अपनी जगह थोड़े ही बना पाती..! इस शैतानियत का खात्मा उन्मुक्त-ईमानदार विचारधारा से होगा... पंगु, छद्मी और शातिर विचार-प्रसारकों के खिलाफ खुल कर खड़े होने से होगा। ...हम खुलें, आगे बढ़ें और अपने देश-समाज को नरक (hell) नहीं, बल्कि नैसर्गिक-धार्मिकों का देश-समाज बनाने का जतन करें। देश-समाज को नरक बना कर जन्नत पाने की बातें शैतान करते हैं और मूर्ख इसे सच समझते हैं... आप सबको हार्दिक शुभकामनाएं... मित्रों को भी और निंदकों को भी। आप सब इसे अपनी-अपनी समझदारी और चेतना से स्वीकार करें... आपका, प्रभात रंजन दीन

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