Saturday 20 July 2019

हम अगर मिल जाएं तो, कलम को परचम बना दें...

प्रिय साथियो..!
अखबारनवीस हूं तो देश, दुनिया, समाज को उसी ‘प्रिज़्म’ से देखने की प्रकृति बन गई है। हमारे आपके इर्द-गिर्द जो कुछ भी हो रहा है, हमारे आपके सरोकारों को प्रभावित करने वाली जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं और उन घटनाओं पर जिस तरह का हमें नकारात्मक सत्ताई-लालफीताई ‘रेस्पॉन्स’ मिल रहा है उसके खिलाफ कोई लोकतांत्रिक प्रतिरोध क्या आप सुन रहे हैं, पढ़ रहे हैं या देख रहे हैं..? मैं राजनीतिक-प्रतिरोध की बात नहीं कर रहा। राजनीतिक-प्रतिरोध नैतिक और पवित्र होता तो विपक्ष की ऐसी दुर्दशा थोड़े ही होती। मैं राजनीतिकों की बात नहीं कर रहा। वे इस लायक बचे ही नहीं हैं कि हम नेताओं की बात करें या उस जमात को गंभीरता से लें। लोकतांत्रिक-प्रतिरोध अखबार, रेडियो और समाचार चैनलों की तरफ से होना चाहिए। तभी तो सम्पूर्ण समाज एकजुट प्रतिरोध के लिए खड़ा होने का साहस जुटा पाता है..! लेकिन देखिए, चारों तरफ सन्नाटा है। इस सन्नाटे को तोड़ रहे हैं केवल भांड। पत्रकारों के वेश में भांडों की भीड़ अब मीडिया कहला रही है। ये ही भांड हर तरफ छाए हुए हैं और सत्ता का चारण-गायन परोस रहे हैं। हम आप किसी संदेह या भ्रम में न रहें... कुछ लोग जो ‘ईश’-निंदा करते नजर आते हैं, वे भी भांडों की ही ‘इनडायरेक्ट’ जमात के हैं। इनकी निंदा भी कुछ खास-खास ‘मठों’ से प्रायोजित हैं, ठीक उसी तरह, जैसे भांड-गायन ‘सत्ता-मठ’ से प्रायोजित हो रहे हैं। दोनों किस्म के भांडों का अर्थ-सामर्थ्य देखेंगे तो आप चक्करघिन्नी हो जाएंगे। आप इनकी आलीशान जिंदगी में झांक कर तो देखिए..! ज़रा कायदे से छानबीन तो करिए..! 
खैर, अलग-अलग नस्लों के भांडों की भीड़ में जो अहम सवाल धक्के खा रहा है और जिसकी शातिराना-उपेक्षा की जा रही है वह यह है कि क्या स्वस्थ-प्रशंसा और स्वस्थ-आलोचना का नैतिक संस्कार भारतीय लोकतंत्र से बिल्कुल ही खत्म हो गया है..? क्या अब यह मान लिया जाए कि प्रायोजित-प्रशंसा और प्रायोजित-निंदा ने उसका स्थान छीन लिया है और हम चुप बैठ जाएं..? स्वस्थ-आलोचना और स्वस्थ-प्रशंसा वही कर सकता है जिसने धन-पद के लिए अपनी नैतिकता नहीं बेची हो। नैतिकता किसी भी मनुष्य के लिए उसकी मां-बहन-बेटी जैसी ही तो पवित्र और महत्वपूर्ण होती है..! हम सब खुद को इस कसौटी पर कस कर देखें और परिणाम की स्व-समीक्षा कर लें। इस कसौटी पर कस कर, घिस कर, निखर कर सामने आने वाले लोगों की कमी नहीं है। कमी यह है कि निखरे हुए लोग इतने बिखरे हुए हैं कि ‘बेचुओं’ की एकजुट जमात ने इन पर ग्रहण लगा रखा है। आप संस्थागत दृष्टि से देखें, सामाजिक दृष्टि से देखें या राजनीतिक दृष्टि से देखें... आप किसी भी एंगल से देखें, आपको यही दिखेगा। ...इसका ताकतवर प्रतिरोध जरूरी है। नैतिकता की प्राकृतिक-धारा पर चलने वाले निखरे स्वच्छ लोगों को इसके लिए आगे आना ही होगा। अब नहीं तो कब?
हम ऐसे निखरे लोगों का लखनऊ में जल्दी ही एक जमावड़ा जुटाने के बारे में सोच रहे हैं... केवल पत्रकार नहीं, समाज के अलग-अलग क्षेत्रों, विधाओं के लोग जुटें... विचार करें कि मीडिया समाज में जो जहर फैला रहा है, लोगों को दिग्भ्रमित कर रहा है, बहका रहा है, ले जाना है कहीं और लेकिन कहीं और ही लिए चला जा रहा है, शातिर सत्ता और मक्कार नेताओं के साजिशी-निर्देशन में समाज को भटका रहा... आखिर इसका विकल्प क्या हो..! आखिर इस नियोजित षडयंत्र की काट कैसे निकले..! आखिर समाज के लोग क्या चाहते हैं; किस तरह का प्रिंट-मीडिया हो, किस तरह का टीवी-मीडिया हो, किस तरह का रेडियो-मीडिया हो..! केवल सोचें नहीं, बल्कि उस विकल्प को जमीन पर उतारने और कारगर करने की ओर भी उन्मुख हों। ऐसा होगा तभी तो अगले क्रम में समाज यह तय कर सकेगा कि किस तरह का नेता हो, किस तरह का अफसर हो, किस तरह का जज हो और किस तरह का नागरिक हो..!
जो साथी यह मानते हों कि उनके लिए नैतिकता पूजा और प्रार्थना है, जिनके लिए देश-समाज प्राथमिक है और जिनके लिए कर्म-योग सर्वोत्कृष्ट है... वे अपना विचार भेजें, लखनऊ आने के बारे में मन बनाएं और उसके आगे का रास्ता तय करने के लिए अपनी दृढ़ता जताएं। जुटने की तारीख हमलोग बाद के क्रम में तय कर लेंगे। समवेत साथ चलने की समय की मांग को हम समझें अन्यथा मेरे इस विचार या पहल को आप पागलपन, यूटोपियन, साइको या ऐसी ही किसी ‘बीमारी से ग्रस्त’ समझ कर खारिज भी कर सकते हैं... निर्णय आप पर है...
आप सबको हृदय से शुभकामनाएं देता हूं... प्रभात रंजन दीन

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