Saturday 29 March 2014

हलफनामा : एक भी खबर 'पेड न्यूज़' साबित हुई तो प्रेस काउंसिल मान ले सम्पादक का इस्तीफा

मीडिया में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' की तरफ से व्यापक जन-अभियान छेडऩे का ऐलान
हम जमीर और खबरें नहीं बेचते!
प्रभात रंजन दीन
कुलीनपन के ज्वर से पीडि़त कई लिपे-पुते चेहरों को देखा है हजरतगंज या ऐसे ही किसी शॉपिंग या मॉलिंग वाले इलाके में भिखमंगों को देख कर कड़वा सा मुंह बनाते हुए। आपने भी देखा ही होगा। भीख मांगने वालों को देख कर जहरीला हाव-भाव दिखाने वाले लोगों में 'गरिष्ठ' पत्रकार और मीडिया संस्थानों के 'बलिष्ठ' मालिकान भी होते हैं। ये ऐसे पत्रकार और मीडिया मालिक होते हैं जो भिखमंगों के अठन्नी-चवन्नी मांगने पर तीता चेहरा बनाते हैं लेकिन नेताओं से चवन्नी मांगने में इन्हें शर्म नहीं आती और चेहरे का भाव भी नहीं बदलता। अब लोकसभा चुनाव सामने है। इस मौसम में मीडियाई भिखमंगों की चल निकली है। मीडिया की इस भिखमंगी जमात को 'पेड न्यूज़' के कारण हो रहे 'डेड न्यूज़' की कोई फिक्र नहीं। इन्हें खबरों की लाश बेच कर अठन्न्नी-चवन्नी कमाने की फिक्र है। इनकी प्राथमिकता नेताओं को अखबार के पन्ने बेचना और भोले पाठकों के समक्ष नैतिकता की झूठी दुहाइयां परोसना रह गई है।
'पेड न्यूज़' के कारण देश-दुनिया में भारतीय मीडिया की जो छीछालेदर हुई है, उसे सब लोगों ने देखा है, जाना है। लेकिन इतनी सर्वत्र भत्र्सना और व्यापक निंदा प्रस्तावों के बावजूद किसी भी मीडिया संस्थान या 'गरिष्ठ' पत्रकार ने खबरें बेच कर नेताओं से पैसा लेने के दारिद्रिक-आचरण के खिलाफ कभी कोई कारगर बात नहीं कही। कोई विश्वसनीय मनाही नहीं की। कोई नैतिक खंडन नहीं किया। ऐसे अनैतिक आचरण से वर्जना रखने की किसी सार्थक घोषणा की तो बात ही दूर रही। चुनाव चला जाएगा, तब फिर से नैतिक और सच्ची खबरों पर विद्वत बहसें होंगी। अभी तो सारे 'गरिष्ठ' मिल कर 'उच्छिष्ठ' खाने में लगे हुए हैं।
चुनाव-बाद की फर्जी नैतिक बहसों में मुब्तिला होने से परहेज करते हुए हम व्यक्तिगत रूप से भी और संस्थानिक रूप से भी 'पेड न्यूज़' के जरिए हो रहे मीडियाई-भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की घोषणा कर रहे हैं। हमें नैतिक-अर्थ से परहेज नहीं। अनैतिक-अर्थ से हमारा इन्कार है। 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' खुद एक मीडिया संस्थान है, लेकिन कई नामी-गिरामी मीडिया संस्थानों द्वारा खबरों के साथ किए जा रहे व्यभिचार के खिलाफ व्यापक, सक्रिय और सकारात्मक अभियान के लिए खुद को आगे करने का ऐलान करता है। यह आंदोलन वोट के लिए नहीं है। यह आंदोलन मीडिया की कथनी और करनी के फर्क पर चोट करने के लिए है। यह आंदोलन किसी मेगासायसाय जैसे एनजीओआई-पुरस्कार के लिए नहीं, बल्कि खबरों की पवित्र हवा सांय-सांय चले, इसके लिए चले और कारगर परिणाम तक पहुंचे।
कोई भी नैतिक आंदोलन व्यक्ति से होकर ही समष्टि तक पहुंचता है। ...तो व्यक्तिगत से लेकर संस्थागत स्तर तक 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' के हम सब ध्यानी-पत्रकार (मेडिटेटिंग जर्नलिस्ट) और प्रबंधकीय साथी खबरों को बेचने के धंधे के खिलाफ खड़े होने की शपथ लेते हैं। हमारे इस शपथ में संस्थान के स्वामी भी बराबर से शरीक हैं। हम मीडिया के समानविचारधर्मी साथियों से इस भ्रष्टाचार के खिलाफ तन कर खड़े होने की पुकार देते हैं। हम नेताओं से भी कहते हैं कि पत्रकारों को भ्रष्ट न करें। पत्रकारों को जीवन में स्थायीभाव से खड़ा होने की कानूनी-विधायी ताकत दें। खबरों का स्थान खरीद कर अपना 'ढिंढोरा' न छपवाएं, न दिखवाएं। मीडिया स्वामियों से भी अपनी रीढ़ बचाए रखने का जतन करने की हम हिदायत देते हैं। अपने जगत की सर्वोच्च अदालत प्रेस परिषद के समक्ष हम अपनी यह घोषणा प्रेषित करते हैं और विनम्रतापूर्वक यह चुनौती रखते हैं कि चुनाव-काल क्या, चुनाव के बाद तक भी यदि एक खबर भी 'पेड न्यूज़' साबित हो गई तो यह घोषणा लिखने वाले सम्पादक का इस्तीफा नैतिकता के आधार पर स्वीकृत मान लिया जाए। प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू इसे हमारा हलफनामा समझें। चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस सम्पत और उत्तर प्रदेश के मुख्य चुनाव अधिकारी उमेश सिन्हा से यह अपेक्षा है कि वे इस ऐतिहासिक घोषणा के साक्षी बनें और हमारी कथनी और करनी पर सतर्क निगरानी रखें। ...और प्रकृति से यह प्रार्थना करते हैं कि वह हमें हमारी नैतिक स्थापना के दृढ़-निश्चय को परिणामी शक्ति दे या बलिदानी शक्ति दे... 

Friday 28 March 2014

उत्तर प्रदेश के नेता के राज्याभिषेक के लिए कामाख्या में गुपचुप हो रहा है यज्ञ!

प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश के कौन ऐसे नेता हैं जिन्हें लोकसभा चुनाव के बाद अपने राज्याभिषेक की कामना है और वह राज्याभिषेक के रास्ते में आने वाली सारी बाधाएं दूर करना चाहते हैं? असम की कामाख्या सिद्ध पीठ में पिछले डेढ़ महीने से किन राजनेता का महाविद्या-अनुष्ठान चल रहा है? मनोरथ सिद्धि के लिए हो रहा तांत्रिक अनुष्ठान इसलिए तो नहीं हो रहा कि 'चुनाव के दरम्यान कमाए कोई और, और चुनाव के बाद खाए कोई और'? यह सवाल कामाख्या सिद्ध पीठ पर बड़े ही गोपनीय तरीके से चल रहे यज्ञ की आहुति से उठ रहे धुंए की तरह गहरा रहा है।
अब आप कुछ पल के लिए राजनीति की धारा से अध्यात्म-लोक में चलें। महाविद्या अनुष्ठान दस विद्याओं की दस देवियों को प्रसन्न कर मनोरथ पूरा होने की गारंटी पाने का तांत्रिक अनुष्ठान होता है। महाविद्या अनुष्ठान में अरिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, इसित्व, वशित्व, काम-वशित्व और महालक्ष्मी जैसी दस सिद्धियों की देवी काली, तारा देवी, ललिता-त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, घूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला को खुश करने के लिए सवा करोड़ मंत्रों का जाप और पुनश्चरण होता है। इस यज्ञ में लहू और बलि का भी विधान है। इस यज्ञ में प्रत्येक विद्या के सवा-सवा लाख मंत्रों का जाप किया जाता है। इस तरह कुल सवा करोड़ मंत्रों का जाप होता है और प्रत्येक विद्या का दस-दस पुनश्चरण होता है। एक मंत्र को सिद्ध होने तक की मनोदशा प्राप्त होने की प्रक्रिया को पुनश्चरण कहा जाता है। यह कठिनतम अनुष्ठान माना जाता है और जानकार मानते हैं कि विघ्न-बाधा के बगैर अनुष्ठान पूरा होने पर सफलता की गारंटी सौ फीसदी है। यानी, कमाने वाले के बजाय खाने वाले के पास थाली सरकने की गारंटी। कामाख्या शक्तिपीठ की पुरोहित कमेटी के एक वरिष्ठ सदस्य ने इस यज्ञ की पुष्टि की। पुरोहित जी ने नेता का नाम भी बताया, लेकिन कहा कि 'यज्ञ मेरे पौरोहित्य में नहीं हो रहा है'
कामाख्या शक्ति पीठ से जुड़े एक अन्य पुरोहित ने बताया कि पंडित विंध्यवासिनी पांडेय नामक पुरोहित की अगुवाई में यज्ञ हो रहा है। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि वह महाविद्या अनुष्ठान नहीं बल्कि बगलामुखी यज्ञ कराया जा रहा है। दस महाविद्याओं में देवी बगलामुखी को प्रथम स्थान प्राप्त है। इनकी आराधना से शत्रु से रक्षा और राज्यकृपा (राजयोग) की प्राप्ति होती है। भोग और मोक्ष दोनों देने वाली महाशक्ति देवी की उपासना से दुर्लभ से दुर्लभ हित-लक्ष्य बेधा जा सकता है। राम-रावण युद्ध में जब रावण के बड़े-बड़े राक्षस-योद्धा मारे जा चुके थे, तब रावण के पुत्र मेघनाद ने खुद रणभूमि में उतरने से पहले शत्रु दमन के लिए और अपने पिता रावण की जीत सुनिश्चित करने के लिए देवी बगलामुखी का अनुष्ठान शुरू किया। इस अनुष्ठान के निर्विघ्न पूरा होने के लिए सभी प्रमुख दानवों को तैनात कर दिया गया था। उन्हें आदेश था कि जो इस यज्ञ को हानि पहुंचाने की कोशिश करे उसका वध कर दिया जाए। राम को इसका आभास हो गया कि अगर माता बगलामुखी इस यज्ञ के बाद जाग्रत हो उठीं तो वह काली का रूप धारण करके वानर सेना का विनाश कर देंगी। उन्होंने भक्त हनुमान, बाली पुत्र अंगद वगैरह को यज्ञ भंग कर देने की आज्ञा दी। महापराक्रमी इंद्रजीत का अनुष्ठान पूरा होने से पहले ही उसे भंग कर दिया गया। अगर मेघनाद का वह यज्ञ पूरा हो जाता तो श्री राम का लंका पर विजय पाना कठिन हो जाता। कामाख्या सिद्ध पीठ के एक वरिष्ठ पुरोहित ने बताया कि चुनाव जीतने के लिए कई नेता यह यज्ञ कराते हैं। अधिकतर नेता दस महाविद्याओं में से एक महाविद्या मां बगलामुखी का अनुष्ठान कर स्वयं की जीत पक्की कर लेना चाहते हैं। पुरोहित ने कहा कि मां बगलामुखी के उपासक के आगे समस्त सृष्टि नतमस्तक हो जाती है। अनुष्ठान अत्यंत प्रभावशाली होता है। अनुष्ठान करवाने वाले का नाम किसी को भी नहीं बताया जाता। अनुष्ठान की विशेषता है कि इसे जितना ही गुप्त रखा जाता है, उतना ही फलदायी होता है। यह अनुष्ठान सात से 36 दिनों तक चलता है। इसे प्रगाढ़ करने के लिए इसकी अवधि बढ़ाए जाने का भी प्रावधान है।
कामाख्या में पंडित विध्यवासिनी पांडेय के पौरोहित्य में जिस राजनीतिक हस्ती के लिए अनुष्ठान हो रहा है, वे राम का ही नाम लेने वाली जमात के हैं। लेकिन मैं उनका नाम नहीं लिख रहा। इसके पीछे मुझे वध की चिंता नहीं, पर विघ्न का अपयश नहीं लेना चाहता। मैं उनके राज्याभिषेक की कामना तो नहीं करता, पर उनकी व्यक्तिगत जीत की कामना जरूर करता हूं... 

Sunday 16 March 2014

हम अजीबोगरीब तो हैं ही!

प्रभात रंजन दीन
झोली में सिमटी है होली, होली तो बस हवन है अपना
फाग की मस्ती ऐसे भागी, भाग गया जैसे सब सपना
आया कहां बसंत इधर है? तुम्हें हुआ है धोखा!
इधर बचा बस भरम अनोखा, उधर है चोखा-चोखा...
होली का खुमार नेताजी की आंखों पर है। हमारा बुखार हमारे मगज पर है। यह बुखार हमारे शरीर से उतर कर नेताजी के हाथ के जरिए उनकी पूरी जमात तक पहुंचे, यही कामना है। उनका खुमार होली का है। हमारा बुखार भी होली का है। उनके लिए होली ठिठोली है। हमारे लिए होली फटी हुई झोली है। उनकी इसी ठिठोली के वक्त चुनाव का मौसम भी है। वोट मांगना उनके लिए बोली है। वोट देना हमारे लिए गोली है। लोकतंत्र ने हमें यही तो सिखाया था कि वोट का सहेज कर गोली की तरह इस्तेमाल करना। छूटेगी तो वापस लौट कर नहीं आएगी। पांच साल के भ्रम में मत रहना। पांच साल बाद बीता हुआ कोई भी पांच साल वापस नहीं लौटता। पिछले 62 साल से यही गोली 'बैक-फायर' कर रही है। होली तो है, पर इधर जाने कितनी होलियों से रंगों का रिश्ता टूटता सा दिख रहा है और होलिका दहन की आग भीतर चटख-चटख कर दहक रही है। होलिका दहन के बाद नेता जो होली के नाम पर सड़े-सौहार्द की खींसे चमकाते हुए जिस बुझी राख को रौंदता हुआ हमसे आपसे सबसे वोट मांगेगा, उसका भ्रम हर बार की तरह इस बार भी न बना रहे कि बगैर किसी कफन के जले सपनों की राख बुझी हुई ही होती है। जब ऐसा वक्त आएगा कि नेताओं के मुंह पर जले हुए सपनों की राख मली जाएगी, तो उसका ताप तब भी उसका मुंह झुलसाएगा और उसकी खुशबू खुशनुमा-स्वप्न के दाह-कुचक्र की उसे याद दिलाएगी। जब नेता गांवों में वोट मांगने निकले तो बिन जुते खेतों में दफ्न अनाज की लाशें अचानक एक साथ उठ खड़ी हों और जले हुए गन्ने की आत्माएं एक साथ अचानक चीत्कार कर उठें कि नेता राजनीति ही नहीं अपनी नस्ल तक भूल जाए।
है तो बहुत ही अजीब मेरा यह सोचना। लेकिन बहुत ही वाजिब और सटीक है। चूकी यह बहुत ही वाजिब और सटीक है, इसीलिए तो अजीबोगरीब है। ...कि मैं मरे हुए गन्ने की लाशें ढो रहा हूं, कि मैं सियासत के गंदले पैरों से कुचली गई खेतों की मेड़ों को गंगा जल से धोने का जतन कर रहा हूं, कि मैं उन खेतों में नाखून से हल चला कर लोकतंत्र के बीज बोने की कोशिश कर रहा हूं। अजीब तो हूं ही मैं। ...कि मेरी भृकुटियां बगावत करती हैं, कि मेरे नथुने राष्ट्र-समाज को नष्ट करने वाले नेताओं को देख कर फड़कने लगते हैं, कि मेरे पैने नाखून खेत कोड़ना छोड़ कर मुंह नोचने के लिए उद्धत होने लगते हैं। कि पर्व-त्यौहार भी मेरी आंखों के आगे जादू नहीं जगाते, असली और खौफनाक दिखते हैं। कि होली-दीवाली-ईद-बकरीद पर अपनी ही कुर्बानी के खिलाफ मैं आंदोलन के लिए निकल पड़ता हूं। अजीबोगरीब तो हूं ही मैं।
मेरे उपजाए गन्ने से तेरे जीवन में शक्कर की सुरसुराहट हो! मेरे खेत की सब्जियां कौडिय़ों में उखड़ जाएं और तुम्हारी बेशकीमती प्लेटों में वेश्या की तरह सज जाएं! मेरे खेत का अनाज तुम्हारे दलाल-स्टोरेज में बंधक बन जाए और तुम्हारी कमाई और हमारी गंवाई का जरिया बन जाए! हमारी फसलें तुम्हारे पेट में पकें और हमारे पेट लोहार की धधकती भट्ठी की तरह तपें! हमारे पशुओं का दूध तुम्हारी नस्लों को सुधारे और हमारी नस्लें स्वर्ग सिधारे! हम अपनी कसी मुट्ठियों में बंद वोट के बारूद से कब फाड़ेंगे छद्म-लोकतंत्र का फर्जी अंतरिक्ष! कब पूरा होगा अपनी जगती आंखों का सपना, तमाशबीन बन कर होगा कब तक यूं ही सब तकना..?

Saturday 15 March 2014

यह क्षुद्र बुद्धि समझती क्यों नहीं!

प्रभात रंजन दीन
हर दिन शब्दों की बुनावट, हर दिन शब्दों की काटपीट, हर दिन शब्दों का संपादन, हर दिन मन में संपादक होने का भाव... यह क्षुद्र बुद्धि इन सबसे उबरती ही नहीं। मुझे नहीं मालूम कि क्या लिखता हूं, क्या होता है, कुछ होता भी नहीं, फिर भी मन पता नहीं किस संसार में जीता है, लगता है कि लिखने से बहुत कुछ होता है। मुझे नहीं मालूम कि लिखने का किसी के मन पर कोई असर भी होता है। खुद पर ही असर होने का संशय बना होता है, दूसरों की क्या ठेकेदारी लेगा! हर दिन सुबह से रात और उतनी देर रात तक जो तकनीकी तौर पर सुबह हो जाती है, लिखता ही रहता हूं, काटता ही रहता हूं शब्द दर शब्द, फिर भी कोई काम नहीं करता, फिर भी कोई काम नहीं होता, फिर भी कुछ भौतिक नहीं बदलता। कुछ आत्मिक बदलता है, इसका पता नहीं चलता। सारे सरोकार भी पत्थर के बुत की मानिंद दिखते हैं। फिर क्या लिखते रहते हैं! कुछ असर पड़ता तो जिंदा लोग पत्थर थोड़े ही दिखते! सुबह से लेकर सुबह तक, इसमें रातें समाहित हैं या विलीन हो चुकी हैं, शब्द ही शब्द, गलत के खिलाफ हर रोज नए सच की तलाश, इतनी ढेर सारी यात्रा, इतनी सारी पार हो चुकी दहलीज, फिर भी उलझ गया हूं कि सत्य क्या है, सही क्या है, बही क्या है, जो सही को सही बताए, गलत को गलत बताए और उसे स्थापित कर दे! ढेर सारा लिखने, बहुत सारा लिखने, पूरा संसार लिखने में इस्तेमाल आने वाली सियाही ही घोंट चुका हूं, कंठ तो नहीं, पर मुंह नीला पड़ गया है, नाखून नीले पड़ गए हैं, मन नीला पड़ गया है। आखिर कितनी चोट सहे कि नीला न पड़े! यह क्षुद्र बुद्धि इसे समझती क्यों नहीं! यह शब्द या यह भाव, या पता नहीं क्या, कब मेरे जीवन के दरवाजे से अंदर घुस कर अलग-अलग दीवारों पर चस्पा हो गया और जीवन तबाह कर गया। मैं भी कहीं रहता क्लर्क, दिनभर बही-खातों में उलझता, शाम होते ही सुलझता, ड्यूटी का टाइम पूरा होते ही सुलझता, सब्जी साइकिल पर लटका कर लौटता, सीलन भरे कमरे की सांकल खटखटाता, जिंदगी सार्थक हो जाती, जीता तो पता नहीं चलता कि जी गया और मरता तो कोई जानता भी नहीं कि कोई क्लर्क मर गया। वह शब्द ही हैं जो मेरे जीवन की दीवारों पर चिपके मेरे जेहन को चकाचौंध करते हैं या कि तबाह करते हैं, समझ नहीं पाता, लेकिन यह शब्द अब मेरी हवस है, यह शब्द अब मेरी वासना है, यह शब्द अब मेरी लत है... कोई मानता ही नहीं कि यह शब्द नहीं मेरा ध्यान है, यह शब्द नहीं मेरी पूजा है, यह शब्द नहीं मेरी इबादत है, इस ध्यान के आगे मेरा सब कुछ कुर्बान है। कोई मानता ही नहीं। इस शब्द ने क्या दिया केवल इसी का सबको ध्यान है। मुझे तो अब दिखने लगा है कि समय के इस बियाबान पड़ाव पर मेरे ही शब्द मुझसे गुस्साने लगे हैं, मैं संवेदनशील हो जाऊं या कि चिंताग्रस्त या कि नाराज, मेरी क्षुद्र बुद्धि मुझे समझाती क्यों नहीं... मुझे क्यों नहीं रास्ता दिखाती! अब शब्द ही मुझसे बोलने लगे, 'मैंने तो कभी नहीं कहा था कि तुम मुझे अपना सम्बल बना लो! आंसुओं को क्यों नुकसान करते हो मुझ पर!' यह शब्द-जाल नहीं है, यह जीवन का व्यूह-जाल है, इसमें फंसना है, और फंसना है, फंसते ही जाना है, क्षुद्र बुद्धि यह समझती क्यों नहीं! यह कैसी बुद्धि है जिसने जीवन को भोले-भाले विश्वास सा समझ लिया। सब कुछ सरलता और सहजता से भरा हुआ आत्मिक समझ लिया! बेअकली मैंने की और दोष अपने ध्यान को दे दिया, अपनी इबादत पर आरोप मढ़ दिया! इस आदर्शवादी और सिद्धांतवादी मनोविज्ञान ने शब्दगोपाल बन कर इतना नचाया कि फिरकी बना दिया। यही तो जीवन की परीक्षा है, क्षुद्र बुद्धि समझती क्यों नहीं..!

राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में हो रहा है उत्तर प्रदेश के सरकारी विमानों का इस्तेमाल!

सच को झूठ और झूठ को सच बताती रहती है यूपी सरकार
प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश सरकार के विमान और हेलीकॉप्टरों की शहंशाहाना उड़ानों, मेला-महोत्सवों में टैक्सी की तरह अतिथियों को ढोने और विमानों को मद में उड़ा कर क्षतिग्रस्त करने की तमाम खबरें-शिकायतें तो आपने सुनी होंगी। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार के विमानों का इस्तेमाल जासूसी के लिए होता हो, संदेहास्पद महिलाओं का उससे आना-जाना होता हो, विदेशी महिलाओं को हेलीकॉप्टर से सीमा पार कराया जाता हो और इन घटनाओं को लेकर सरकार आधिकारिक तौर पर झूठी सूचना दर्ज कराती हो... यह आम तौर पर नहीं सुना जाता।
उत्तर प्रदेश के नागरिक उड्डयन महानिदेशालय के समक्ष जो शिकायत आई थी, उसे दोबारा याद करते चलें। शिकायत थी कि सरकारी विमान से जासूसी के इरादे से कानपुर सैन्य क्षेत्र की वीडियो रिकॉर्डिंग की गई। उड्डयन महानिदेशालय के फोन से लगातार पाकिस्तान कॉल होते रहे और बातें होती रहीं। लॉग बुक में औपचारिक इंट्री किए बगैर संदेहास्पद महिलाओं को विमान द्वारा लखनऊ लाया गया और दिल्ली ले जाया गया। डॉल्फिन हेलीकॉप्टर से विदेशी महिला को नेपाल सीमा तक पहुंचाया गया और विमानों की खरीद में विदेशी कम्पनी के साथ मिल कर खूब घोटाला किया गया। इन शिकायतों के परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश सरकार ने बाकायदा यह कह दिया कि जांच कमेटी गठित हुई, जांच हुई और शिकायतें फर्जी पाई गईं। लेकिन सत्य यह है कि सरकार का यह बयान ही फर्जी है। सरकार अपना ही झूठ भूल गई और सत्य सरकार के जरिए ही उद्घाटित हो गया।
अब जबकि सरकार का झूठ खुद ब खुद सामने आ गया तो यह सवाल भी सामने आया कि इतनी गम्भीर शिकायतों को छिपाने या दबाने की प्रदेश सरकार ने कोशिश क्यों की थी? राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में कहीं बड़े नेता और बड़े नौकरशाह तो शामिल नहीं? जब शिकायतों की जांच ही नहीं हुई तो शिकायतें बेबुनियाद बता कर खारिज कैसे की जा सकती हैं? यानी, उन शिकायतों में दम है कि उत्तर प्रदेश सरकार के विमानों का बेजा इस्तेमाल होता है। चाहे वे राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के लिए होता हो या ऐशो-आराम के लिए। उत्तर प्रदेश सरकार ने औपचारिक रूप से कहा था कि इन शिकायतों की बाकायदा तीन सदस्यीय जांच समिति ने छानबीन की और उसे निराधार पाया। लेकिन कुछ ही अंतराल के बाद सरकार अपना ही जवाब भूल गई। जब दोबारा सरकार से उन शिकायतों का हवाला देते हुए जांच समिति गठित होने का ब्यौरा मांगा गया तो सरकार ने सीधे कहा कि इन शिकायतों की जांच के लिए कोई समिति गठित नहीं की गई थी। लिहाजा, सरकार के इस जवाब से वे सारे सवाल आधारहीन साबित हो गए कि किसके आदेश से जांच समिति गठित हुई, समिति के अध्यक्ष और सदस्य कौन थे और जांच की रिपोर्ट क्या है, वगैरह-वगैरह।
ऐशो-आराम और मौज-मस्ती में सरकारी विमानों के इस्तेमाल का मामला अभी ही सैफई महोत्व के समय भी उठा। मुख्यमंत्री अखिलेश इस पर खूब नाराज भी हुए लेकिन सैफई महोत्सव समाप्त होने के बाद ही उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की जरूरत समझी। जब तक महोत्सव चला तब तक सरकार ठुमके देखने में मस्त रही और जमीनी लोग अपने नेताओं, अफसरों, उनके परिवार के सदस्यों और फिल्मी हस्तियों को लाने-ले जाने में मिनट-मिनट पर आसमान में घर्र-घों कर रहे सरकारी विमान और हेलीकॉप्टरों को देख-देख कर निहाल होते रहे। तब उड़ान-ईंधन पर हुए खर्च को लेकर भी सवाल उठे। सरकार के जवाब से यह भी पता चला कि उत्तर प्रदेश सरकार के पास काफी 'फ्यूल इफिशिएंट' विमान और हेलीकॉप्टर हैं। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर 'सच-सच' बताया था कि महोत्सव पर कुल खर्च पांच-छह करोड़ रुपए से अधिक नहीं आए। हालांकि यह आंकड़ा हर बयान के साथ इधर-उधर खिसकता रहा। जब पूरे महोत्सव पर कुल खर्च पांच-छह करोड़ ही आया तो उसी 'फ्रेम' से विमानों हेलीकॉप्टरों की चकरघिन्नियों पर आए खर्च का आकलन भी किया जा सकता है। सरकार यही चाहती थी। सैफई महोत्सव के दरम्यान सरकारी विमान-हेलीकॉप्टर की उड़ानों पर कितना खर्च आया, सरकार ने नहीं ही बताया। सरकार एक जनवरी 2013 से 31 दिसम्बर 2013 के बीच सरकारी विमानों के ईंधन पर मात्र चार करोड़, 21 लाख, 26 हजार, 448 रुपए का खर्च आने की बात बता कर कन्नी काट गई। यह भी वैसा ही सच है जिसे कुछ अरसे बाद सरकार खुद ही झूठ बता देगी और एक नया सच रच लेगी।
सच आखिर कैसे बाहर निकले? इसे बाहर निकालने के जो तौर-तरीके थे उस पर भी सरकार कुंडली मार कर बैठ गई है। सूचना के अधिकार को सरकार ने ही पंगु बना कर रख दिया है। विमानों और हेलीकॉप्टरों के आने-जाने का ब्यौरा रखने वाले लॉग बुक और जरनी लॉग बुक को सरकार ने पाइलटों और विमान इंजीनियरों की निजी सम्पत्ति घोषित कर दिया है। सरकार खुद कहती है कि वायुयान और हेलीकॉप्टरों की कहां-कहां यात्रा हुई और कहां-कहां रि-फ्यूलिंग हुई उसका विवरण परिचालन इकाई द्वारा संकलित ही नहीं किया जाता।
दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि बेवकूफाना तरीके से उड़ाने के कारण जो बेशकीमती विमान दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं, उनका ब्यौरा भी आम नागरिक को नहीं मिल पाता। बस इतना ही मिल पाता है कि तीन हवाई जहाज और तीन हेलीकॉप्टर उड़ान के लायक हैं और तीन विमान और एक हेलीकॉप्टर उड़ान के लायक नहीं रहे। उड़ान के लायक क्यों नहीं रहे? इसका कोई जवाब नहीं मिलता। प्रदेश का उड्डयन महकमा प्रदेश के पारदर्शी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के ही अधीन है। 

Friday 14 March 2014

दंगे पर दगा, दिल्ली से यूपी तक कोई नहीं सगा

मुजफ्फरनगर दंगे से जुड़े सवालों पर केंद्र से लेकर प्रदेश सरकार तक देती रही झांसा, परोसे झूठ ही झूठ
प्रभात रंजन दीन
मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर खूब सियासत हुई। उत्तर प्रदेश सरकार और उसकी समाजवादी पार्टी व केंद्र सरकार और उसकी कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों की हितैषी दिखाने की सारी हदें लांघीं। लेकिन साबित यही हुआ कि आम नागरिक कभी किसी सत्ता का प्रिय नहीं होता। नागरिकों के सरोकार कभी राजनीतिक दलों की प्राथमिकता पर नहीं रहते। दंगों पर सियासत हो सकती है, वोट झटके जा सकते हैं, पर कार्रवाई नहीं हो सकती। चलिए, मुजफ्फरनगर दंगों के लेकर हम आपको कुछ चुटकुले सुनाते हैं। सरकारें, पार्टियां, नौकरशाही, आयोग और अदालतों ने दंगों को लेकर इतना फूहड़ हास्य सृजित किया कि हास्य की विधा को भी शर्म आने लगे। दंगों को लेकर हुए पाखंड को हम खंड-खंड आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं। दंगों को लेकर की गई कार्रवाई, राहत की व्यवस्थाएं, एहतियात जैसे सामान्य जिज्ञासा के सवालों का जवाब देने में भी देश से लेकर प्रदेश तक शासन-प्रशासन तंत्र ने कितनी बदमिजाजी दिखाई, उसे आप देखें तो आपको लोकतंत्र समझ में आ जाए। सूचना के अधिकार के तहत सलीम बेग ने सवाल पूछे थे। उनके नायाब जवाब आए। आप भी देखिए...
उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री कार्यालय :  मुख्यमत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव डॉ. नंदलाल ने कहा कि पूछे गए सवाल गृह विभाग से सम्बद्ध हैं। गृह विभाग के प्रमुख सचिव को निर्देशित किया जाता है कि वे संदर्भित सूचनाएं प्रदान करें अन्यथा सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 5 (5) के तहत उत्तरदायी माने जाएंगे।
अल्पसंख्यक कल्याण एवं वक्फ अनुभाग : मुजफ्फरनगर में हुए साम्प्रदायिक दंगों से प्रभावित अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण एवं जांच दलों द्वारा की गई कार्रवाई से सम्बन्धित कार्य अल्पसंख्यक कल्याण विभाग में व्यवहृत नहीं किया जाता है, बल्कि गृह विभाग में व्यवहृत होता है।
उत्तर प्रदेश सरकार का गृह विभाग : अल्पसंख्यक कल्याण से संदर्भित पत्र में पूछे गए सवालों का गृह विभाग से कोई सम्बन्ध नहीं है।
उत्तर प्रदेश पुलिस महानिदेशक मुख्यालय : सूचना प्राप्त करने के लिए लेखाधिकारी पुलिस महानिदेशक के नाम से 10 रुपए का पोस्टल ऑर्डर भेजा, जबकि उसे जनसूचना अधिकारी, पुलिस मुख्यालय के नाम से भेजना चाहिए था। लिहाजा, सूचना नहीं दी जा सकती।
उत्तर प्रदेश राज्य मानवाधिकार आयोग : प्रश्नगत प्रकरण में कतिपय शिकायतें (आठ) प्राप्त हुई हैं। प्रश्नगत अवधि में आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों के पद रिक्त चल रहे थे। वर्तमान में अध्यक्ष और सदस्य पदभार ग्रहण कर चुके हैं। प्रकरण आयोग के अवलोकनार्थ अभी विचाराधीन है। आयोग के निर्णयोपरांत अग्रेतर कार्यवाही से यथासमय अवगत करा दिया जाएगा।
उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग : उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग में मुजफ्फरनगर दंगे से सम्बन्धित कोई शिकायती पत्र प्राप्त नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग का गठन अभी नहीं हुआ है। अत: कोई जांच दल नहीं भेजा गया है। अत: किसी कार्यवाही का प्रश्न ही नहीं है।
...आपने देखा न, मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार और अल्पसंख्यक हित देखने वाले आयोग कितने संजीदा हैं! ये सारे आधिकारिक जवाब उत्तर प्रदेश सरकार की संजीदगी के आडम्बर का पर्दाफाश हैं। विडम्बना यह है कि राज्य अल्पसंख्यक आयोग के सचिव मोहम्मद मारूफ सलीम बेग को लिखे जवाब में एक नम्बर बिंदु से लेकर छह नम्बर तक एक ही बात का रट्टा लगाए हैं कि आयोग में कोई शिकायत नहीं आई है। आयोग का गठन नहीं हुआ है। आयोग ने कोई जांच नहीं की, न कोई दल भेजा और न कोई कार्यवाही की। अल्पसंख्यक आयोग के ये सचिव महोदय आधिकारिक तौर पर भी झूठ बोलने के विशेषज्ञ हैं। आरटीआई योद्धा सलीम बेग का जवाब देते हुए मोहम्मद मारूफ ने यह नहीं सोचा कि उन्होंने सहारनपुर मंडल के आयुक्त को पत्र लिख कर दंगों की जो अद्यतन रिपोर्ट तलब की थी, वह इस संवाददाता के भी हाथ लग सकती है। सहारनपुर के मंडलायुक्त ने सचिव को क्या जवाब भेजा और उस जवाब को सार्वजनिक  क्यों नहीं किया गया, इसकी प्रभावकारी वजह के बारे में तो मोहम्मद मारूफ ही बता सकते हैं।
अब देखिए राज्य मानवाधिकार आयोग का हाल। आयोग के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी एमएल बाजपेयी एक तरफ कहते हैं कि मुजफ्फरनगर दंगे से सम्बन्धित कतिपय शिकायतें प्राप्त हुई हैं। फिर कहते हैं कि आयोग के अध्यक्ष और सदस्य का पद खाली है। फिर कहते हैं कि अध्यक्ष और सदस्य आ गए। इसके बावजूद दंगा प्रकरण आयोग के अवलोकनार्थ भी नहीं आया। अब ऐसे आयोग के लिए आह निकले या वाह! ऐसे निरर्थक आयोगों के लिए आह और वाह दोनों शब्द माकूल हैं। उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक कार्यालय को दंगे जैसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील मसले पर सूचना देने से अधिक प्रिय 10 रुपए का पोस्टल ऑर्डर है। पोस्टल ऑर्डर भेजा भी गया लेकिन उस पर लेखाधिकारी पुलिस मुख्यालय लिख गया तो उसे लौटा दिया गया। अधिनियम कहता है कि पोस्टल ऑर्डर के लिए सूचना रोकना गैर कानूनी है। अब आइए राज्य के अल्पसंख्यक कल्याण  विभाग और प्रदेश के गृह विभाग के निर्लज्ज जवाब पर। अल्पसंख्यक कल्याण विभाग को दंगों से जुड़े किसी भी सवाल से कोई लेना-देना नहीं है। उस विभाग के अनु सचिव मनी राम कहते हैं कि यह मामला गृह विभाग से सम्बद्ध है। इस पर गृह विभाग आगे बढ़ कर जवाबी बल्लेबाजी करता हुआ कहता है कि दंगे से जुड़े सवाल गृह विभाग से सम्बद्ध नहीं हैं। गृह विभाग ऐसा जवाब देकर न केवल अल्पसंख्यक कल्याण विभाग बल्कि मुख्यमंत्री कार्यालय को करारा तमाचा लगाता है। इस तमाचे की अनुगूंज दुनिया तो सुनती है, पर मुख्यमंत्री दफ्तर नहीं सुनता।
अब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और राष्ट्रीय आयोगों का हाल सुनिए...
राष्ट्रपति भवन के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी सौरभ विजय कहते हैं कि मुजफ्फरनगर दंगे से सम्बद्ध सूचनाएं राष्ट्रपति सचिवालय में उपलब्ध नहीं हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय के निदेशक एवं अपीलीय अधिकारी कृष्ण कुमार ने अपने जवाब में कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी को 15 दिनों के अंदर सूचना मुहैया कराने के लिए निर्देशित किया जाता है। कृष्ण कुमार ने तीन फरवरी को पत्र लिखा और 15 दिन का इंतजार किए बगैर उसी दिन मामला निस्तारित भी कर दिया। सूचना अब तक नहीं आई। निर्देशों का उल्लंघन करने वाले अधिकारी पर कार्रवाई कौन करे? इस सवाल पर आम आदमी झूलता रहे।
केंद्र का अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय आधिकारिक तौर पर कहता है कि मंत्री के. रहमान खान व अफसरों का दल मुजफ्फरनगर दंगे के प्रभावित क्षेत्रों और राहत शिविरों के दौरे पर गया था। फिर यह भी कहता है कि मंत्रालय ने कोई टीम नहीं भेजी। विचित्र यह है कि मुजफ्फरनगर दंगे से जुड़े सवालों को जवाब के लिए पहले मंत्रालय के 'मल्टी सेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोग्राम' वाले महकमे में भेज दिया गया था। काफी धक्के खाने के बाद मंत्रालय पहुंचने पर यह जवाब आया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मुजफ्फनगर दंगे से सम्बद्ध कार्रवाइयों के बारे में पूछे गए सवाल का जवाब देने के बजाय 10 रुपए के पोस्टल ऑर्डर का मसला उठाया। आयोग ने कहा कि अस्पष्ट तारीख वाले पोस्टल ऑर्डर पर जवाब नहीं भेजा जाएगा। उस पोस्टल ऑर्डर की कॉपी इस संवाददाता के पास है, जो आयोग के सफेद झूठ का सफेद सबूत है।
अब राष्ट्रीय महिला आयोग का हाल भी देखते चलें। महिला आयोग ने जांच दल गठित की और उसे दस दिन के भीतर जांच रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया। यह 18 सितम्बर 2013 का ही आदेश है। 177 दिन हो चुके। फिर जांच रिपोर्ट देने में कोताही क्यों? इसलिए कि दंगों पर उठे सवालों का जवाब देने से वोट नहीं मिलता। जख्म कुरेदते रहने से वोट मिलता है। सपा और कांग्रेस दोनों को इसमें विशेषज्ञता हासिल है...

Thursday 13 March 2014

सेना का धंधा बहुत ही गंदा

मध्य कमान क्षेत्र में चल रहा है कोठियों की खरीद-बिक्री का गैरकानूनी कारोबार
प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने कैंट का आलीशान बंगला बेच डाला और रातो-रात ट्रकों का काफिला कोठी से सामान उठा कर चलता बना, लेकिन सेना की खुफिया शाखा, सेना पुलिस और सेना की अन्य निगरानी व्यवस्था को कानो-कान खबर नहीं लगी। यह सेना की लापरवाही है या मिलीभगत? मध्य कमान मुख्यालय इस लापरवाही या साठगांठ का फर्क तलाशने में लगा है। सेना के सूत्र इसे मिलीभगत का परिणाम बताते हैं। उनका कहना है कि छावनी में कोठी के सामान ट्रकों पर लादे जाते रहे, ट्रक रवाना होते रहे और इसका पता न चले यह नामुमकिन है। नियम है कि कोठी खाली होते वक्त भी सेना को इसकी सूचना होनी चाहिए। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सेना के कई आला अधिकारी इसे सैन्य परिसर की सुरक्षा में गम्भीर खामी बताते हैं।
उल्लेखनीय है कि 'वॉयस ऑफ मूवमेंट' ने बुधवार को यह खबर प्रकाशित की थी कि छावनी के नेहरू रोड स्थित दो नम्बर वाला बंगला मायावती ने गुपचुप तरीके से बेच डाला और रातो-रात उसे खाली भी कर दिया। देर रात ट्रकों का काफिला आया, आनन-फानन सारे सामान लदे और पूरा बंगला कुछ ही देर में खाली हो गया। यहां तक कि मायावती की नेमप्लेट तक उखाड़ ली गई। कोठी बेचने में अत्यधिक गोपनीयता बरती गई लेकिन दिलचस्प यह है कि इस संदेहास्पद खरीद-बिक्री में मध्य कमान छावनी परिषद की तरफ से 'नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट' भी जारी हो गया।
मुद्दा यह नहीं कि किसने बंगला बेचा और किसने खरीदा। मसला यह है कि सेना के संवेदनशील क्षेत्र में बाहरी लोगों को बिना किसी छानबीन के कोठियां कैसे मिल रही हैं? कौन बेच रहा है? सेना कैसे अनापत्ति प्रमाण पत्र दिए चली जा रही है? या बिना 'एनओसी' प्राप्त किए बाहरी लोग छावनी की कोठियों पर कैसे काबिज हैं? सैन्य क्षेत्र में घुसपैठ के कारण कोई गम्भीर हादसा हो तो उसका जिम्मेदार कौन होगा? सेना की ही रिपोर्ट बताती है कि सेना की गतिविधियों पर निगरानी रखी जा रही है और जासूसी हो रही है। सेना क्षेत्र बाहरी अवांछित तत्वों का 'दलदल' बन गया है, जो चाहे आए और 'धंस' जाए। सेना के लोगों ने ही बाहरी तत्वों को बसाने का धंधा चला रखा है। इन लोगों ने मध्य कमान की अचल सम्पत्ति का कबाड़ा कर दिया है। मध्य कमान मुख्यालय के पास 13 कैम्पिंग ग्राउंड थे। अब केवल सात कैम्पिंग ग्राउंड रह गए हैं। बाकी के छह कैम्पिंग ग्राउंड लापता हो गए! मध्य कमान मुख्यालय क्षेत्र में मायावती हों या बसपा नेता डॉ. अखिलेश दास, कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी, उनके समधी बृजेश मिश्र, एनएचआरएम घोटाले के अभियुक्त आईएएस स्वनामधन्य प्रदीप शुक्ला, उनकी पत्नी आराधना शुक्ला, उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भइया, कभी बसपा में तो कभी कांग्रेस में तो कभी भाजपा में फिरने वाले नेता एवं व्यापारी सुधीर हलवासिया समेत कई अन्य नेताओं, नौकरशाहों और दलालों को कैंट की बड़ी-बड़ी कोठियां और कोठियों के साथ जमीन के भव्य हिस्से कैसे मिल गए, इसका जवाब तो सेना को ही देना चाहिए। सेना के किस कानून के तहत बाहरी लोगों को सैन्य क्षेत्र की ओल्ड ग्रांट जमीन पर बनी आलीशान कोठियां हासिल हुईं? इसका जवाब न किसी के पास है और न कोई इसका जवाब देने की स्थिति में है। अब तो बसपा नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी तक ने सैन्य क्षेत्र की विवादास्पद कोठी पर कब्जा जमा लिया है। कैंट इलाके के थिमैया रोड पर 12 नम्बर की घोर विवादास्पद कोठी को औने-पौने भाव में खरीद कर नसीमुद्दीन सिद्दीकी उसमें फिट हो गए हैं। शालीमार बिल्डर्स के खालिद मसूद की थिमैया रोड पर ही और संजय सेठ की महात्मा गांधी रोड पर कोठियां हैं। लेकिन सेना के 'नो-ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट' के बगैर ही ये लोग कोठी पर काबिज हैं। सेना को यह देखने की फुर्सत नहीं है। पान मसाला बेचने वाली कम्पनी के मालिक की भी महात्मा गांधी रोड पर कोठी है। विवादास्पद है। छापामारी के बाद और भी विवादास्पद हो गई है। छापे के बाद से कोठी खाली पड़ी है, अंदर में सामान पड़े हैं। इस पर सेना का ध्यान तभी जाएगा जब कोई बड़ा हादसा होगा।
वैसे, आप जहां कहीं देखें, सेना की जमीन पर अवैध कब्जा दिखेगा। केवल लखनऊ ही नहीं, कानपुर, गोरखपुर, मेरठ, वाराणसी, फैजाबाद, इलाहाबाद सब तरफ सेना की जमीनों पर नेता, माफिया, दलाल और धनपशु काबिज है। सेना की जमीन पर बिल्डिंग्स, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स खड़े हैं। सेना के अंदरूनी क्षेत्र में कोठियों की लूट मची है। लखनऊ में सेना के पास ट्रांस गोमती राइफल रेंज में 195 एकड़, अमौसी सेना क्षेत्र में 185 एकड़, कुकरैल राइफल रेंज में सौ एकड़, बख्शी का तालाब में 40 एकड़ और मोहनलालगंज क्षेत्र में 22 एकड़ जमीन है, लेकिन यह आंकड़ा केवल सेना के दस्तावेजों तक ही सीमित है। जमीनी असलियत भयावह है। इनमें से अधिकांश जमीनों पर अवैध कब्जा है। सेना कहती है कि कब्जा है। जबकि यह सेना का भ्रष्टाचार है। लखनऊ में सुल्तानपुर रोड पर सेना की फायरिंग रेंज के बड़े हिस्से की प्लॉटिंग हो गई और जमीनें बिक गईं। आवास विकास परिषद ने गोसाईंगंज थाने में प्रॉपर्टी डीलरों के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज कराया था, लेकिन दुस्साहस यह है कि जमीन से आवास विकास परिषद के उस बोर्ड को उखाड़ फेंका गया, जिस पर लिखा था कि यह सेना की फायरिंग रेंज की जमीन है। ट्रांस गोमती राइफल रेंज की 90 एकड़ जमीन और अमौसी में पांच एकड़ जमीन पर भूमाफियाओं का कब्जा है। कुकरैल में तो सेना की 23 एकड़ जमीन पर बाकायदा बड़ी इमारतें और दुकानें बन चुकी हैं। छावनी से बाहर सेना की करीब छह सौ एकड़ जमीन प्रदेश सरकार से विवाद में फंसी हुई है। कहीं पर आवास विकास परिषद से लफड़ा है तो कहीं सीधे सरकार से कानूनी भिड़ंत चल रही है। कानपुर में सेना की जमीन पर अलग-अलग इलाकों में छह बस्तियां बसी हुई हैं। कानपुर शहर के वार्ड नम्बर एक में भज्जीपुरवा, लालकुर्ती, गोलाघाट, पचई का पुरवा जैसी कई बस्तियां बसी हैं। बंगला नम्बर 16 और बंगला नम्बर 17 की ओर जाने वाले दो इलाकों में अवैध बस्तियां बसी हुई हैं, लेकिन उन्हें हटाने की किसी को फुर्सत नहीं है। कानपुर छावनी क्षेत्र में बना आलीशान स्टेटस क्लब सैन्य सम्पत्ति की अनियमितताओं का गवाह है। स्टेटस क्लब का 'स्टेटस' भव्य होटल की तरह है। पंच सितारा सुविधाओं वाले दो दर्जन से अधिक कमरे, विशाल वातानुकूलित हॉल और क्लब के मालिक की इससे हो रही अंधाधुंध कमाई किसके बूते पर हो रही है? सैन्य क्षेत्र में यह क्लब कैसे अस्तित्व में आया और इस एवज में किसने क्या-क्या पाया, इसका जवाब कौन देगा? गोरखपुर में गगहा बाजार स्थित सेना के कैंपिंग ग्राउंड की 33 एकड़ जमीन में से करीब दस एकड़ जमीन पर कब्जा हो चुका है। गोरखपुर के ही सहजनवा, महराजगंज जिले के पास रनियापुर और नौतनवां में सेना की जमीनों पर अवैध कब्जे हैं। इलाहाबाद शहर में सेना के परेड ग्राउंड की करीब 50 एकड़ जमीन कब्जे में है। यहां अवैध बस्तियां आबाद हैं। 32 चैथम लाइंस, 6 चैथम लाइंस और न्यू कैंट में भी सेना की जमीन पर अवैध कब्जा है। मेरठ छावनी क्षेत्र तो मॉल, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स एवं सिविल कॉलोनी में तब्दील हो चुका है। सेना के मध्य कमान क्षेत्र की यह भयावह स्थिति आपने देखी। देश की सडिय़ल राजनीतिक-प्रशासनिक स्थिति का असर सेना पर भी है, लेकिन सेना सड़ी तो देश सड़ जाएगा...

Wednesday 12 March 2014

मायावती ने गुपचुप बेच दी कैंट की कोठी!

'सीक्रेट ऑपरेशन' कर एक रात में ही खाली कर दिया बंगला
प्रभात रंजन दीन
मायावती ने कैंट का आलीशान बंगला किसको बेचा? कोठी के बेचने और खरीदने में सियासी पेचोखम क्या हैं? क्या-क्या बचाने के लिए क्या-क्या तिकड़म रचे गए और इससे होने वाला फायदा एकल है या साझा? कोठी की बिक्री का यह आर्थिक पक्ष है जिससे जुड़े सवाल का जवाब तलाशने में छावनी परिषद, सेना की खुफिया एजेंसी और प्रवर्तन निदेशालय के अफसर लगे हुए हैं। लेकिन लब्बोलुबाव यही है कि मायावती की कैंट की कोठी बिक गई। ...और वह भी इतनी गोपनीयता से कि देर रात ट्रकों का काफिला आया, आनन-फानन सारे सामान लदे और भरा-पूरा बंगला कुछ ही देर में पूरा-पूरा खाली। यहां तक कि नेमप्लेट तक उखाड़ ली गई। सेना की सतर्कता भी नायाब है कि उसे भी अगले दिन ही पता चल पाया। अब इस खाली कोठी का वीराना दृश्य देखें और वह भी तस्वीर देखें जब बंगले में समृद्धि के जलवे सजा करते थे।
क्या इसी दिन के लिए छावनी परिषद के सदस्य राजकुमार शुक्ला ने शहादत दी थी? छावनी परिषद के कई लोग आज यह बोल भी रहे हैं, तब तो मुंह से आवाज नहीं निकलती थी।
खैर, मायावती के बहुचर्चित बंगले के बिकने की कहानी के सूत्र एक तरफ भाजपा से जुड़े हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस से। कोठी का नया मालिक किस राजनीतिक-आर्थिक धारा का है, यह पता चलने में अधिक वक्त नहीं है। कोठी बेचनी ही थी तो मायावती ने इतनी गोपनीयता क्यों बरती! यह सवाल इसलिए भी अधिक कौंधता है कि उन्होंने पहले एक बसपाई महेश प्रसाद के नाम पर बंगला ट्रांसफर किया और महेश प्रसाद ने नए खरीदार को बेच डाला। मध्य कमान छावनी परिषद की तरफ से 'नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट' हासिल भी हो गया। लखनऊ छावनी के नेहरू रोड स्थित मायावती के बिके हुए आलीशान बंगले के नए मालिक कहीं ऐसे अर्थसम्पन्न राजनीतिक तो नहीं हैं, जो बहन जी को प्रसन्न कर राज्यसभा में सीट सुरक्षित रखने के लिए अपेक्षित उपकार कर रहे हों!
छावनी के नेहरू रोड का दो नम्बर बंगला भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के बहनोई गुल्लू थडानी का था। गुल्लू थडानी की मौत के बाद उनकी पत्नी यानी लालकृष्ण आडवाणी की बहन ने अपनी कोठी कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी के समधी बृजेश मिश्र को बेच दी। बृजेश मिश्र ने वही कोठी मायावती के हाथों बेच डाली। संवेदनशील छावनी क्षेत्र में बाहरी घुसपैठ और छावनी की सम्पत्ति के बाजारीकरण का छावनी परिषद के सदस्य राजकुमार शुक्ला ने जबरदस्त विरोध किया। मायावती के पक्ष में तमाम नौकरशाह कूद पड़े। राजकुमार शुक्ला ने आरटीआई और जनहित याचिका का भी सहारा लिया। लेकिन अचानक राजकुमार शुक्ल की संदेहास्पद स्थितियों में मौत हो गई। जिस कोठी के लिए शहादत हुई वही कोठी फिर से बिक गई।
छावनी क्षेत्र रियल-इस्टेट के धंधे का केंद्र बना हुआ है। मध्य कमान के लखनऊ मुख्यालय में रक्षा संपत्ति सेवा में तैनात अधिकारी जमीन हड़पने (लैंड ग्रैबिंग) के धंधे में लगे हैं। सैन्य क्षेत्र नेताओं, दलालों और संदेहास्पद लोगों को लीज़ पर दिया जा रहा है। सेना के क्षेत्र में मॉल बन चुके हैं और असैनिक इमारतें बन रही हैं। यहां तक कि सैन्य क्षेत्र की प्लॉटिंग कर उसे आम लोगों के हाथों बेचा जा रहा है। सैन्य क्षेत्र की एक और विवादास्पद कोठी को मुख्यमंत्री मायावती के जन्मदिन पर गिफ्ट देने की तैयारियां थीं, लेकिन शोर-शराबे के डर से ऐसा नहीं हो पाया। थिमैया रोड की 12 नम्बर की वह कोठी नसीमुद्दीन सिद्दीकी के कब्जे में है। उसके पहले मायावती ने मुख्यमंत्री बनने के फौरन बाद नेहरू रोड की दो नम्बर कोठी पर कब्जा जमा लिया था। नेहरू रोड स्थित दो नम्बर कोठी को आलीशान बनाने के लिए सेना की इजाजत लिए बगैर सैन्य क्षेत्र के कानूनी प्रावधान को ताक पर रखकर हरे पेड़ काटने, पत्थर लगवाने और अवैध निर्माण कराने के मामले में छावनी परिषद को मायावती के खिलाफ कानून का दरवाजा तक खटखटाना पड़ा। लेकिन कोठी की बिक्री भी हो गई और केस वहीं का वहीं रह गया। इस घटना ने सेना की निगरानी व्यवस्था पर गम्भीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव सामने आ रहा है, मायावती के तो पौ बारह हैं। अभी हाल ही केंद्र सरकार ने दिल्ली के गुरुद्वारा रकाबगंज रोड जैसे बेशकीमती इलाके में कोठी नम्बर 12, 14 और 16 को एक साथ मिला कर आलीशान हवेली में तब्दील करने की मंजूरी दी। इस कृत्य को खुद केंद्र सरकार के सीपीडब्लूडी ने विभाग ने गैरकानूनी बताया। इसी बंगले के साथ पुराना बंगला भी मिला दिया गया। पांच सौ से अधिक सांसदों को समाहित करने वाली संसद से छह गुणा अधिक बड़े क्षेत्र के आलीशान महल में मायावती रह रही हैं। आपको याद ही होगा कि लखनऊ में 13-माल एवेन्यू स्थित मायावती के बंगले के रखरखाव पर सौ करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। समाजवादी पार्टी की सरकार मायावती का नाम लेकर राजनीति तो करेगी, लेकिन करतूतों पर कार्रवाई में उसकी रुचि नहीं।

Tuesday 4 March 2014

प्रोफसर साहब! नेताजी अभी जिंदा हैं...

समाजवादी पार्टी को बेध रहे अराजक फैसले
प्रभात रंजन दीन
समाजवादी पार्टी में वर्चस्व की लड़ाई ने अपना स्तर खो दिया है। बड़े और छोटे का भेद बहुत नीचे स्तर पर आ गया है। अखिलेश के प्रति प्रेम दिखाने पर रामगोपाल यादव अपनी वरिष्ठता का ध्यान छोड़ कर युवा नेता तक को अपनी औकात दिखाने लग रहे हैं। रामगोपाल यादव को इस स्तर पर उतरता देख कर उनके गुर्गे और उत्साहित होकर आपराधिक धमकियां देने पर उतारू हो रहे हैं। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अमर सिंह से फोन पर बात कैसे कर ली या अमर सिंह की किसी पार्टी में शिवपाल सिंह यादव क्यों शरीक होने चले गए, या पार्टी का कोई युवा नेता अमर सिंह के प्रति वफादारी के शब्द कैसे बोलने लगा... इन बातों पर रामगोपाल यादव को गुस्सा कुछ अधिक ही आने लगा है।
मुलायम सिंह, अखिलेश यादव या अमर सिंह के प्रति भक्ति दिखाने पर दी गई आपराधिक धमकियों पर इटावा नगर पालिका परिषद के अध्यक्ष संतू गुप्ता और मैनपुरी के करहल ब्लॉक के प्रमुख अरविंद यादव के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने की तैयारी हो रही है। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव के समक्ष भी औपचारिक रूप से शिकायत दर्ज कराई गई है।
समाजवादी पार्टी को अमर सिंह की जरूरत है या नहीं, इसे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह को तय करना है। लेकिन पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव ऐसे तमाम मसलों पर अपना एकाधिकार प्रदर्शित कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव सामने है तो पार्टी की जरूरतें भी ज्यादा हैं। लेकिन निजी हित इतने प्रभावी हैं कि पार्टी का हित गौण हो गया है। निजी हित में पार्टी के सिद्धान्त ताक पर रख दिए गए हैं। जिस पार्टी से लड़ कर सत्ता में आए उसी पार्टी से अठखेलियां कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के नेता अगर गेस्ट हाउस प्रकरण पर खेद जताने लगें और मायावती की मूर्ति तोडऩे की घटना को खारिज करने लगें तो आप 'कन्फर्म' हो लें कि समाजवादी पार्टी वैचारिकी के अकाल से गुजर रही है। यह समाजवादी पार्टी के पुरोधा मुलायम सिंह यादव के लिए निश्चित तौर पर चिंता का विषय बन रहा होगा। पार्टी को सेंध लग रही है। भविष्य में पार्टी पर वर्चस्व किसका होगा, इस पर अभी से बिसात बिछने लगी है और डोर अपने हाथ में कसने का अभ्यास किया जाने लगा है। सपा फिर से अमर सिंह के बारे में न सोचे। इसके लिए सारे उपाय किए जा रहे हैं। यहां तक कि जिनके अमर सिंह से व्यक्तिगत सम्बन्ध हैं उन्हें भी पार्टी से खारिज करने और उन्हें धमकियां देने की हरकतें हो रही हैं। सपा और बसपा में विरोधी रिश्ते न रहें। इसके उपक्रम किए जा रहे हैं। पार्टी के कई फैसले एकाधिकारपूर्वक बदले जा रहे हैं। पार्टी में अंदरूनी मतभेद और कलह एक दूसरे के पूरक हो रहे हैं और चुनाव पर गहरा असर डालने वाले हैं। यह पूरी कहानी का लब्बोलुबाव है। अब इसकी तफसील में आते हैं...
28 फरवरी को एक अखबार के आगरा संस्करण में प्रकाशित छोटी सी खबर ने पार्टी के अंदर चल रही पार्टी विरोधी बड़ी सेंधमारी की परतें उघाडऩे का रास्ता खोला है। सपा के महासचिव प्रोफेसर रामगोपाल यादव का बयान छपा,'मायावती की मूर्ति तोडऩे वाले अमित जानी से सपा ने किनारा कर लिया है। उनसे सपा का कोई लेना-देना नहीं है।' सपा के शीर्ष नेताओं में से एक रामगोपाल यादव का दो लाइन का बयान अमित जानी के लिए जारी हो तो आप निश्चित मानें कि इन दो लाइनों की तासीर बड़ी गहरी होगी। ये वही अमित जानी हैं जिन्होंने लखनऊ में मायावती की मूर्ति पर हथौड़ा चला कर देशभर की राजनीति को स्तब्ध कर दिया था। समाजवादी पार्टी खास तौर पर स्तब्ध और उहापोह में थी कि मूर्तिभंजक डॉ. राम मनोहर लोहिया के सिद्धान्तों पर चलते हुए हथौड़ा-कार्रवाई को मान्यता दे या मायावती की खुशामद में खेद जताए। पार्टी ने खेद भी जताया और मायावती की नई मूर्ति भी लगवा दी। लेकिन सपा को यह अपराधबोध सालता रहा। इस बोध से उबरते हुए सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इसी 23 फरवरी को दिल्ली के जंतर-मंतर से निकल रही साइकिल यात्रा के मौके पर अमित जानी का हाथ थामा और यह घोषणा की, 'अब तुम सपा के और सपा तुम्हारी'। पार्टी के प्रदेश नेतृत्व का यह बयान रामगोपाल यादव को इतना चुभा कि चार दिन बाद ही बोल गए कि अमित जानी से सपा का कोई लेना-देना नहीं है। राष्ट्रीय महासचिव का यह बयान प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा के बाद आया। ...और इस बयान पर जब अखिलेश ने यह कहा कि वे रामगोपाल जी से बात कर लेंगे, इसका मतलब साफ है कि रामगोपाल ने अपना बयान जारी करने के पहले प्रदेश नेतृत्व से बात करने की जरूरत नहीं समझी थी।
यह जरूरत तो रामगोपाल किसी प्रत्याशी का टिकट काटते और टिकट जोड़ते हुए भी नहीं समझते। फर्रुखाबाद से सचिन यादव का टिकट काट दिया। सचिन प्रदेश सरकार के मंत्री नरेंद्र यादव के पुत्र हैं। अखिलेश की पसंद हैं। लेकिन प्रदेश नेतृत्व से इस बारे में पूछा भी नहीं गया। सचिन यादव का टिकट काट कर आपराधिक छवि के स्वनामधन्य रामेश्वर सिंह यादव को ले आए। इन्हीं के बूते समाजवादी पार्टी सलमान खुर्शीद जैसे कद्दावर नेताओं से चुनाव लड़ेगी। इसी तरह अपराधी अतीक अहमद को पार्टी में ले आए। प्रदेश नेतृत्व से पूछा भी नहीं। रामगोपाल अतीक को ऐसे लाए जैसे डीपी यादव वाले प्रकरण का अखिलेश से बदला ले रहे हों। बांदा से श्यामाचरण गुप्ता का टिकट काट कर कुख्यात डकैत ददुआ के भाई बालकुमार पटेल को दे दिया। किसी से पूछा भी नहीं। सम्भल लोकसभा सीट के लिए रामगोपाल यादव ने प्रदेश के वरिष्ठ मंत्री आजम खान की पसंद का भी सम्मान नहीं किया। इसी तरह रामगोपाल ने बिजनौर, जालौन, जौनपुर, सुल्तानपुर, कैसरगंज, गोंडा समेत कई जगह टिकट का मसला फंसाया। लोकसभा चुनाव में अधिक से अधिक प्रत्याशी रामगोपाल के हों, कोशिश और जोड़तोड़ इसी बात की है। जोड़तोड़ का दायरा इतना तंग भी है कि एक बिल्डर की शिकायत पर समाजवादी युवजन सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय लाठर को हटा दिया जाता है। सपा के तीनों यूथ विंग के राष्ट्रीय अध्यक्ष 'विलुप्त' हैं। इसी विलोप में पार्टी लोकसभा का चुनाव लड़ेगी। ऐसी हरकतों से नाराज नेताओं की लम्बी सूची है। इनमें कई वरिष्ठ नेता हैं। रामगोपाल से कम वरिष्ठ नहीं हैं। किनका-किनका नाम छापें और किनका-किनका छोड़ें... पार्टी नेतृत्व को उन नेताओं के बारे में अच्छी तरह पता है। रामआसरे कुशवाहा, शाहिद सिद्दीकी, कमाल फारूकी, अमर सिंह जैसे कई नेता इसी तिकड़म का तो शिकार हो चुके हैं! आजम खान भी हाल ही इसी गृह-सियासत का शिकार होते-होते बचे हैं!
बहरहाल, इस कहानी में अभी और परतें हैं। घटनाक्रम तेजी से शक्ल भी ले रहा है और शक्ल लेकर बदल भी जा रहा है। सात फरवरी को अखिलेश यादव अमर सिंह से फोन पर बात करते हैं। इस बातचीत की आधिकारिक पुष्टि हो चुकी है। नौ फरवरी को अमर सिंह द्वारा आयोजित पार्टी में उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ मंत्री शिवपाल सिंह यादव शरीक होते हैं। इसके बाद अमर सिंह के बयान की तल्खी जाती रहती है। 23 फरवरी को अखिलेश अमित जानी के सपाई रिश्ते की जंतर-मंतर पर सनद देते हैं और 28 फरवरी को रामगोपाल अपना संक्षिप्त बयान जारी कर बड़ा शामियाना सजाने के प्रयासों में व्यवधान डाल देते हैं। इस विघ्न-कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हैं उनके गुर्गे जो एक-दो मार्च से 'धमकी-ऑपरेशन' शुरू कर देते हैं। पूछने पर अमित जानी परिपक्व राजनीतिक की तरह कहते हैं, 'मुझे जो कुछ भी कहना होगा, वह राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रदेश अध्यक्ष से कहूंगा। हां मुझे धमकी जरूर दी गई, इसकी मैं शिकायत भी करूंगा और एफआईआर भी दर्ज कराऊंगा। मैंने अपनी शिकायत मुख्यमंत्री जी को भेज भी दी है। मैं अपनी निष्ठा नहीं बदल सकता। मेरी प्रतिबद्धता अखिलेश यादव जी के प्रति है और मेरे पारिवारिक रिश्ते अमर सिंह जी से हैं। राजनीति के लिए मैं प्रतिबद्धता और रिश्ते नहीं छोड़ सकता।'
इस गाथा के अभी और कई आयाम बाकी हैं। मायावती के अनुज अकूत धनस्वामी आनंद कुमार और सपा नेता के कारोबारी रिश्तों वाले रोचक हिस्से अभी बाकी हैं। उसे हम आगे के अंकों में प्रस्तुत करेंगे...

Saturday 1 March 2014

धारिणी को दरिद्र मत बनाओ!

प्रभात रंजन दीन
सहारा समूह के अभिभावक सुब्रत राय आखिरकार गिरफ्तार हो गए। निवेशकों को पैसा लौटाने का मामला इतनी हील-हुज्जतों के बाद इस परिणाम पर पहुंचा है। परिणति तो अभी शेष है। अब सुब्रत राय को सुप्रीम कोर्ट में पुलिस पेश करेगी। लखनऊ पुलिस की कृपा पर वे चार दिन काटेंगे और चार मार्च को न्याय की सर्वोच्च पीठ के समक्ष प्रस्तुत किए जाएंगे। यही पीठ बड़े सम्मान से उन्हें बुला रही थी। हाजिर होकर अपनी बात रखने का मौका दे रही थी। अपने सम्मान का ख्याल रखते हुए खुद ही पेश हो गए होते तो यह दिन तो नहीं देखने पड़ते! अंग्रेजी में एक बड़ी पुरानी कहावत है। सब जानते हैं। फिर भी बार-बार बोलने-सुनने से बात अवचेतन में अपनी पैठ बना लेती है और कर्मों को प्रभावित करती है। कहावत है, 'अ मैन इज़ नोन बाइ द कम्पनी ही कीप्स'... (आदमी जैसी संगत रखता है, उसी से जाना जाता है)। सुब्रत राय के लिए यह कहावत बिल्कुल सटीक है। लेकिन उन्होंने शायद यह कहावत कभी सुनी नहीं होगी या उसे अपने अवचेतन में स्थापित करने के पहले ही झटक दिया होगा। अगर उन्होंने यह कहावत सुनी और गुनी होती तो आज यह गुणा-भाग नहीं होता, साथी-सिपहसालार सच्चे होते तो आज नतीजे भी अच्छे होते। सुब्रत राय विज्ञापन दे-देकर, छपवा-छपवा कर बार-बार यह स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि वे ईमानदार हैं, राष्ट्रभक्त हैं, कर्तव्ययोगी हैं, सच्चे रास्ते पर चलते हैं, निवेशकों का धन शानो-शौकत पर खर्च नहीं करते हैं। ...फिर विज्ञापन क्यों देते हैं? फिर अपनी नेकनीयती की मुनादियां क्यों पिटवाते हैं? फिर ढिंढोरा पीटने पर इतना भारी खर्च क्यों करते हैं और किसके बूते करते हैं? सीधे-सच्चे को विज्ञापन देने की जरूरत नहीं पड़ती। सच्चाई के रास्ते पर चलने वाले सच्चाई की मार्केटिंग करने पर नहीं उतरते। ...और सुब्रत राय विज्ञापन भी कहां छपवाते-दिखवाते हैं? उसी मीडिया में, जिसे धिक्कारते हैं और लिखित तौर पर देश का दुश्मन बताते हैं। निवेशकों का धन हड़पने के आरोपों से सने सुब्रत राय मीडिया की संवेदनशीलता मापने का थर्मामीटर भी हैं और जज भी हैं, जो बाकायदा प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कुछ पत्रकारों पर जहर उगलने और अमानवीय होने का 'वरडिक्ट' (न्यायिक फैसला) भी सुनाते हैं। बच्चा चाहे अपराधी हो चाहे योद्धा, सब जगह से हिकारत पाने के बाद या युद्ध हारने के बाद मां के आंचल में सिर छिपाता है, रोता है। लेकिन अपराधी और योद्धा में एक मौलिक फर्क होता है। योद्धा मां की गोद में सिर रख कर फिर से युद्ध जीतने का संस्कार लेता है, ऊर्जस्वित होता है, बचाव के खोखले तर्क नहीं गढ़ता, जबकि अपराधी अपने बचाव में कभी अपने साथ के लोगों को आगे कर देता है तो कभी धारिणी को आगे कर देता है। तब मां के मन में कुछ ऐसे ही भाव आते हैं... कितना धन लूटोगे / कितना सत उड़ाओगे / कितनी जड़ें उखाड़ोगे / कितने दुर्ग बनाओगे / मैं मौन / तुम्हारी प्रहरी / अब तुम सांसें ले लो गहरी / मेरे हृदय की छांह में छुपने वाले / मैं जीती जाती हूं तुम्हारे लिए / पर मेरी भी मर्यादा है / मेरे भी धैर्य की सीमा है / रोना न पड़े तुम्हें अपनी गलती पर / पछतावा न हो अपने कृत्यों पर / आगाह करती हूं तुम्हें / अपनी धारिणी को दरिद्र मत बनाओ / मेरे दर्द को समझो / अब भी सम्भलो / सिक्कों की इमारत से नहीं / मुझे नैतिकता के फूलों से सत्कार दे दो / मेरी धार्यता को संकुचन नहीं विस्तार दे दो...

अब अपने कर्मों के फल का ही सहारा...

प्रभात रंजन दीन
निवेशकों का पैसा लौटाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख देखते हुए लग रहा है कि सहारा समूह की मुश्किलों का दौर गहराने वाला है। 24 हजार करोड़ रुपए की देनदारी से उबरने के लिए सहारा प्रबंधन ने खूब गुत्थियां उलझाईं और खुद ही उन गुत्थियों में फंस गया। कई लोग इसे सहारा की प्रतिष्ठा का मसला बताते हैं। लेकिन जो लोग भी इसे सहारा की प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखते या बोलते हैं, वे शून्य के सन्नाटे में सम्मान का सेमिनार करते हैं। जिनको प्रतिष्ठा की आत्मिक चिंता रहती है वे खुद को ऐसी स्थिति में नहीं डालते। सहारा का मामला प्रतिष्ठा की गर्म खोखली हवा से जुड़ा है। सहारा प्रकरण प्रतिष्ठा के 'इन्फ्लेशन' से जुड़ा है। प्रतिष्ठा का गुब्बारा वास्तविकता से इतना अधिक फुला लिया कि फूटा तो गए और उडऩे लायक तो रहे नहीं। अपने दस लाख से अधिक कर्मचारियों को आनन-फानन निवेशक बनाने का जो तरीका अख्तियार किया गया, उसने दुनिया को बताया कि सहारा के पास असल में पैसा नहीं है, अब वह कर्मचारियों से पैसे जुटा रहा है। कर्मचारियों को निवेशक बनाने के पीछे सहारा प्रबंधन का इरादा चाहे जो भी रहा हो, पर उसने सहारा की आपाधापी और बेचैनी तो जाहिर की ही है। यह बेचैनी आखिर क्यों है? यह भी हो सकता है कि दस लाख से अधिक लोगों को कोर्ट में बुला कर उनसे सफाई मांगने या उन्हें गिरफ्तार करने का भगदड़-मनोविज्ञान बनाने की रणनीति भी इसके पीछे रही हो। लेकिन इन तिकड़मों पर सहारा प्रबंधन को उतरना ही क्यों पड़ा? सहारा समूह के लाखों कर्मचारी इन सवालों का जवाब तलाश कर रहे हैं और खुद को अधर में फंसा पा रहे हैं। आप सब याद करते चलें कि कर्मचारियों को निवेशक बनाने के लिए सहारा प्रबंधन ने 15 प्रतिशत प्रतिमाह के रिटर्न की गारंटी पर तीन-तीन लाख रुपए वसूले। अगर सहारा प्रबंधन के मन में कोई तीन-पांच नहीं रहता तो कर्मचारियों को यह हिदायत क्यों दी जाती कि कोई एजेंसी पूछताछ करे तो क्या कहना है? सहारा पैराबैंकिंग के एक्जेक्यूटिव डायरेक्टर वर्कर डीके श्रीवास्तव ने बाकायदा अंदरूनी पत्र लिख कर कर्मचारियों को इस बारे में खास तौर पर सतर्क किया था। इस निर्देश ने सहारा के कर्मचारियों को और मानसिक संकट में डाल दिया है। निवेशक का फॉर्म भरने में तारीख और सूचनाओं को लेकर जो खाली स्थान छोड़े गए उससे कर्मचारियों को अब यह डर सता रहा है कि उन खाली स्थानों में पता नहीं क्या-क्या सूचनाएं भरी गई होंगी और जब मामले की छानबीन होगी तो वे कहीं बेमतलब न फंस जाएं और अभियुक्तों की सूची में उनका नाम न शुमार हो जाए। सहारा के कर्मचारियों को भी अब यह लगने लगा है कि गहरे वित्तीय विवादों में घिरे सहारा समूह काशीर्ष प्रबंधन बौखला गया है। इसी बौखलाहट में सहारा प्रबंधन सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है और मीडिया को तो देश का दुश्मन बता ही रहा है। सहारा प्रकरण देश के तमाम ऐसे पूंजी प्रतिष्ठानों के लिए चेतावनी का संदेश है जो समाज में कुकुरमुत्ते की तरह फैल कर आमजन से पैसे वसूलते हैं और उस बूते पर खुद को शहंशाह समझने लगते हैं। शादियों, विवाह वार्षिकोत्सवों, जन्म दिवसों और बेमानी के समारोहों में जो चकाचौंधी खर्च किए जाते हैं, वे रुपए कहां से आते हैं? सहारा ने अगर इस मूल धन-स्त्रोत को 'छप्पर फटा खजाना' नहीं समझा होता तो ये दिन थोड़े ही देखने पड़ते! सहारा समूह के साथ जिस तरह की फजीहतें सरेआम हो रही हैं, उससे इनकी कौन सी प्रतिष्ठा कायम हो रही है? फिल्मी कलाकारों का जमावड़ा, सियासी चेहरों की चकल्लस, पूंजी-बिचौलियों की बैठकबाजी में नाच-गान और ठुमका... क्या यही प्रतिष्ठा है? क्या जनता इन्हीं बेजा हरकतों के लिए अपने खून-पसीने की कमाई का पैसा जमा करती है? ऐसे पूंजी प्रतिष्ठान उस बृहत्तर समुदाय का पैसा चाटते हैं जो दो मुट्ठी भात से दो पैसा बचा कर भविष्य बचाने के लिए सहारा जैसे पूंजी प्रतिष्ठानों में पैसा जमा करते हैं। दो पैसा जमा करने वाले की क्या मांग होती है? यही न कि उसे समय पर पैसा मिले! उसकी बिटिया की शादी के समय जमा पैसा इस्तेमाल में आए! समय पर बच्चे की पढ़ाई का खर्चा जमा हो जाए! यही है न निम्नवर्गीय-मध्यमवर्गीय निवेशकों की मांग? उनकी यह मांग जब भद्दे अश्लील नृत्य आयोजनों के मंच-प्रांतर पर जलती-फुंकती है तब आमजन के जीवन में और हृदय में आग लग जाती है, और इसका परिणाम आखिरकार सहारा जैसे पूंजी प्रतिष्ठानों को भुगतना ही पड़ता है...