प्रभात रंजन दीन
हर दिन शब्दों की बुनावट, हर दिन शब्दों की काटपीट, हर दिन शब्दों का संपादन, हर दिन मन में संपादक होने का
भाव... यह क्षुद्र बुद्धि इन सबसे उबरती ही नहीं। मुझे नहीं मालूम कि क्या लिखता हूं, क्या होता है, कुछ होता भी नहीं, फिर भी मन पता नहीं किस संसार
में जीता है, लगता
है कि लिखने से बहुत कुछ होता है। मुझे नहीं मालूम कि लिखने का किसी के मन पर कोई असर
भी होता है। खुद पर ही असर होने का संशय बना होता है, दूसरों की क्या ठेकेदारी लेगा!
हर दिन सुबह से रात और उतनी देर रात तक जो तकनीकी तौर पर सुबह हो जाती है, लिखता ही रहता हूं, काटता ही रहता हूं शब्द दर शब्द, फिर भी कोई काम नहीं करता, फिर भी कोई काम नहीं होता, फिर भी कुछ भौतिक नहीं बदलता।
कुछ आत्मिक बदलता है, इसका पता नहीं चलता। सारे सरोकार भी पत्थर के बुत की मानिंद दिखते
हैं। फिर क्या लिखते रहते हैं! कुछ असर पड़ता तो जिंदा लोग पत्थर थोड़े ही दिखते! सुबह
से लेकर सुबह तक, इसमें रातें समाहित हैं या विलीन हो चुकी हैं, शब्द ही शब्द, गलत के खिलाफ हर रोज नए सच की
तलाश, इतनी
ढेर सारी यात्रा, इतनी सारी पार हो चुकी दहलीज, फिर भी उलझ गया हूं कि सत्य क्या है, सही क्या है, बही क्या है, जो सही को सही बताए, गलत को गलत बताए और उसे स्थापित
कर दे! ढेर सारा लिखने, बहुत सारा लिखने, पूरा संसार लिखने में इस्तेमाल आने वाली
सियाही ही घोंट चुका हूं, कंठ तो नहीं, पर मुंह नीला पड़ गया है, नाखून नीले पड़ गए हैं, मन नीला पड़ गया है। आखिर कितनी
चोट सहे कि नीला न पड़े! यह क्षुद्र बुद्धि इसे समझती क्यों नहीं! यह शब्द या यह भाव, या पता नहीं क्या, कब मेरे जीवन के दरवाजे से अंदर
घुस कर अलग-अलग दीवारों पर चस्पा हो गया और जीवन तबाह कर गया। मैं भी कहीं रहता क्लर्क, दिनभर बही-खातों में उलझता, शाम होते ही सुलझता, ड्यूटी का टाइम पूरा होते ही
सुलझता, सब्जी
साइकिल पर लटका कर लौटता, सीलन भरे कमरे की सांकल खटखटाता, जिंदगी सार्थक हो जाती, जीता तो पता नहीं चलता कि जी
गया और मरता तो कोई जानता भी नहीं कि कोई क्लर्क मर गया। वह शब्द ही हैं जो मेरे जीवन
की दीवारों पर चिपके मेरे जेहन को चकाचौंध करते हैं या कि तबाह करते हैं, समझ नहीं पाता, लेकिन यह शब्द अब मेरी हवस है, यह शब्द अब मेरी वासना है, यह शब्द अब मेरी लत है... कोई
मानता ही नहीं कि यह शब्द नहीं मेरा ध्यान है, यह शब्द नहीं मेरी पूजा है, यह शब्द नहीं मेरी इबादत है, इस ध्यान के आगे मेरा सब कुछ
कुर्बान है। कोई मानता ही नहीं। इस शब्द ने क्या दिया केवल इसी का सबको ध्यान है। मुझे
तो अब दिखने लगा है कि समय के इस बियाबान पड़ाव पर मेरे ही शब्द मुझसे गुस्साने लगे
हैं, मैं संवेदनशील
हो जाऊं या कि चिंताग्रस्त या कि नाराज, मेरी क्षुद्र बुद्धि मुझे समझाती क्यों
नहीं... मुझे क्यों नहीं रास्ता दिखाती! अब शब्द ही मुझसे बोलने लगे, 'मैंने तो कभी नहीं कहा था कि
तुम मुझे अपना सम्बल बना लो! आंसुओं को क्यों नुकसान करते हो मुझ पर!' यह शब्द-जाल नहीं है, यह जीवन का व्यूह-जाल है, इसमें फंसना है, और फंसना है, फंसते ही जाना है, क्षुद्र बुद्धि यह समझती क्यों नहीं! यह कैसी बुद्धि है जिसने
जीवन को भोले-भाले विश्वास सा समझ लिया। सब कुछ सरलता और सहजता से भरा हुआ आत्मिक समझ
लिया! बेअकली मैंने की और दोष अपने ध्यान को दे दिया, अपनी इबादत पर आरोप मढ़ दिया!
इस आदर्शवादी और सिद्धांतवादी मनोविज्ञान ने शब्दगोपाल बन कर इतना नचाया कि फिरकी बना
दिया। यही तो जीवन की परीक्षा है, क्षुद्र बुद्धि समझती क्यों नहीं..!
बहुत कुछ लिख दिया है आपने।नमन है
ReplyDelete