प्रभात रंजन दीन
निवेशकों का पैसा लौटाने के मामले
में सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख देखते हुए लग रहा है कि सहारा समूह की मुश्किलों का
दौर गहराने वाला है। 24 हजार करोड़ रुपए की देनदारी से उबरने के लिए सहारा प्रबंधन
ने खूब गुत्थियां उलझाईं और खुद ही उन गुत्थियों में फंस गया। कई लोग इसे सहारा की
प्रतिष्ठा का मसला बताते हैं। लेकिन जो लोग भी इसे सहारा की प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखते
या बोलते हैं, वे शून्य
के सन्नाटे में सम्मान का सेमिनार करते हैं। जिनको प्रतिष्ठा की आत्मिक चिंता रहती
है वे खुद को ऐसी स्थिति में नहीं डालते। सहारा का मामला प्रतिष्ठा की गर्म खोखली हवा
से जुड़ा है। सहारा प्रकरण प्रतिष्ठा के 'इन्फ्लेशन' से जुड़ा है। प्रतिष्ठा का गुब्बारा वास्तविकता से इतना अधिक फुला लिया कि
फूटा तो गए और उडऩे लायक तो रहे नहीं। अपने दस लाख से अधिक कर्मचारियों को आनन-फानन
निवेशक बनाने का जो तरीका अख्तियार किया गया, उसने दुनिया को बताया कि सहारा
के पास असल में पैसा नहीं है, अब वह कर्मचारियों से पैसे जुटा
रहा है। कर्मचारियों को निवेशक बनाने के पीछे सहारा प्रबंधन का इरादा चाहे जो भी रहा
हो, पर उसने सहारा की आपाधापी और बेचैनी तो जाहिर की ही है।
यह बेचैनी आखिर क्यों है? यह भी हो सकता है कि दस लाख से
अधिक लोगों को कोर्ट में बुला कर उनसे सफाई मांगने या उन्हें गिरफ्तार करने का भगदड़-मनोविज्ञान
बनाने की रणनीति भी इसके पीछे रही हो। लेकिन इन तिकड़मों पर सहारा प्रबंधन को उतरना
ही क्यों पड़ा? सहारा समूह के लाखों कर्मचारी
इन सवालों का जवाब तलाश कर रहे हैं और खुद को अधर में फंसा पा रहे हैं। आप सब याद करते
चलें कि कर्मचारियों को निवेशक बनाने के लिए सहारा प्रबंधन ने 15 प्रतिशत प्रतिमाह
के रिटर्न की गारंटी पर तीन-तीन लाख रुपए वसूले। अगर सहारा प्रबंधन के मन में कोई तीन-पांच
नहीं रहता तो कर्मचारियों को यह हिदायत क्यों दी जाती कि कोई एजेंसी पूछताछ करे तो
क्या कहना है? सहारा पैराबैंकिंग के एक्जेक्यूटिव डायरेक्टर वर्कर डीके
श्रीवास्तव ने बाकायदा अंदरूनी पत्र लिख कर कर्मचारियों को इस बारे में खास तौर पर
सतर्क किया था। इस निर्देश ने सहारा के कर्मचारियों को और मानसिक संकट में डाल दिया
है। निवेशक का फॉर्म भरने में तारीख और सूचनाओं को लेकर जो खाली स्थान छोड़े गए उससे
कर्मचारियों को अब यह डर सता रहा है कि उन खाली स्थानों में पता नहीं क्या-क्या सूचनाएं
भरी गई होंगी और जब मामले की छानबीन होगी तो वे कहीं बेमतलब न फंस जाएं और अभियुक्तों
की सूची में उनका नाम न शुमार हो जाए। सहारा के कर्मचारियों को भी अब यह लगने लगा है
कि गहरे वित्तीय विवादों में घिरे सहारा समूह काशीर्ष प्रबंधन बौखला गया है। इसी बौखलाहट
में सहारा प्रबंधन सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले शब्दों
का इस्तेमाल कर रहा है और मीडिया को तो देश का दुश्मन बता ही रहा है। सहारा प्रकरण
देश के तमाम ऐसे पूंजी प्रतिष्ठानों के लिए चेतावनी का संदेश है जो समाज में कुकुरमुत्ते
की तरह फैल कर आमजन से पैसे वसूलते हैं और उस बूते पर खुद को शहंशाह समझने लगते हैं।
शादियों, विवाह वार्षिकोत्सवों, जन्म दिवसों
और बेमानी के समारोहों में जो चकाचौंधी खर्च किए जाते हैं, वे रुपए कहां से आते हैं? सहारा ने अगर इस मूल धन-स्त्रोत
को 'छप्पर फटा खजाना' नहीं समझा होता तो ये दिन थोड़े
ही देखने पड़ते! सहारा समूह के साथ जिस तरह की फजीहतें सरेआम हो रही हैं, उससे इनकी कौन सी प्रतिष्ठा कायम हो रही है? फिल्मी कलाकारों का जमावड़ा, सियासी
चेहरों की चकल्लस, पूंजी-बिचौलियों की बैठकबाजी
में नाच-गान और ठुमका... क्या यही प्रतिष्ठा है? क्या जनता
इन्हीं बेजा हरकतों के लिए अपने खून-पसीने की कमाई का पैसा जमा करती है? ऐसे पूंजी प्रतिष्ठान उस बृहत्तर समुदाय का पैसा चाटते हैं जो
दो मुट्ठी भात से दो पैसा बचा कर भविष्य बचाने के लिए सहारा जैसे पूंजी प्रतिष्ठानों
में पैसा जमा करते हैं। दो पैसा जमा करने वाले की क्या मांग होती है? यही न कि उसे समय पर पैसा मिले! उसकी बिटिया की शादी के समय जमा
पैसा इस्तेमाल में आए! समय पर बच्चे की पढ़ाई का खर्चा जमा हो जाए! यही है न निम्नवर्गीय-मध्यमवर्गीय
निवेशकों की मांग? उनकी यह मांग जब भद्दे अश्लील
नृत्य आयोजनों के मंच-प्रांतर पर जलती-फुंकती है तब आमजन के जीवन में और हृदय में आग
लग जाती है, और इसका परिणाम आखिरकार सहारा जैसे पूंजी प्रतिष्ठानों
को भुगतना ही पड़ता है...
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