Wednesday 26 February 2014

मैंने चाहा था कि मस्जिद नहीं टूटे... तो क्या मैं गलत था?

खास बातचीत में मुलायम सिंह यादव बोले
प्रभात रंजन दीन
चुनाव का समय हो, राजनीतिक खींचतान गरम हो और सब तरफ समीकरणों पर ही बहस हो, ऐसे समय मुलायम सिंह यादव जैसा कद्दावर नेता राष्ट्र, राज्य, पीढिय़ां, संस्कार और भविष्य जैसे मसलों पर बातचीत करता हो, अपनी चिंता जताता हो, तो राजनीतिक शामियाने में सामाजिक सरोकार के सुगबुगाने की नायाब घटना घटती हुई दिखती है। मुलायम के लखनऊ स्थित आवास में सोमवार की दोपहर टीवी चैनल वालों और अखबार वालों का जमावड़ा लगा रहता है, सब अपने क्रम से अंदर जाते हैं, तय समय सीमा में विद्वत राजनीतिक प्रश्न-प्रतिप्रश्न और उत्तर-प्रतिउत्तर बटोर कर सब अपने-अपने दफ्तर की तरफ दौड़ते हैं...
अचानक सारे क्रम टूट जाते हैं। समय की सीमा 'सीलिंग' से बाहर चली जाती है। राजनीतिक प्रश्नों पर आधारित साक्षात्कार का अनुत्पादक बोझिल माहौल धीरे-धीरे छंटने लगता है। देश-समाज के प्रति उत्पादक चिंता मुलायम के उस कक्ष में अपनी जगह बना लेती है। इस बातचीत में न कहीं मोदी होते हैं और न वोट। घंटेभर से अधिक समय तक मुलायम बात करते हैं, कभी भावुक हो जाते हैं, कभी प्रसन्न, कभी तल्ख तो कभी फ्लैशबैक में खोने लगते हैं। मुलायम सिंह यादव से यह बातचीत लोकतांत्रिक भावनाओं के आत्मिक स्पर्श से भरा संग्रहणीय संस्मरण है। उसकी कुछ झलक आपके लिए भी...
मुलायम के कक्ष से अभी-अभी कुछ पत्रकार उनका इंटरव्यू करके बाहर निकले हैं। कक्ष में एसआरएस यादव नेताजी को किसी कार्यक्रम के बारे में समझा रहे हैं। नेताजी के बगल वाले सोफे पर टेलीफोन विराजमान है। दायीं तरफ पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ नेता किरणमय नंदा और बायीं तरफ रंजना वाजपेयी बैठी हैं। सामने कुछ और नेता बैठे हैं। नेताजी के बगल वाले सोफे से टेलीफोन उठा कर मैंने सामने वाले टेबुल पर रख दिया और साधिकार उनके बगल में जा बैठा। नेताजी मुस्कुराए, हाथ पर हाथ से छुआ और मेरे उस अधिकार-भाव को जैसे मान्यता दे दी। बात भी यहीं से शुरू हुई... यह आत्मिक छुअन का भाव नेताओं से क्यों गायब हो गया है? क्यों आप इन लोकतांत्रिक मूल्यों के आखिरी वाहक राजनेता साबित हो रहे हैं?
नेताजी अचानक दूसरी ही धारा में आ जाते हैं। कहते हैं, 'नेताओं में सहृदयता का बिल्कुल अभाव हो गया है। नेताओं में देशभक्ति की भावना कम हो रही है। यह घनघोर चिंता की बात है।' ऐसा कहते हुए मुलायम धारा में बहने लगते हैं। 'किसी को समाज की चिंता ही नहीं रही। पढ़ाई-लिखाई से भी राष्ट्रभक्ति, संस्कार, महापुरुष सब विलुप्त हो गए। मैं करहल में टीचर था। विधायक भी था तब भी बच्चों को पढ़ाता था। एक बार प्रिंसिपल ने औचक निरीक्षण किया। मुझसे पूछा कि विषय से अलग हट कर बच्चों को क्या पढ़ा रहे थे? मैंने कहा कि बच्चों को सम्पूर्ण शिक्षा की जरूरत है। ऐसी शिक्षा जो बच्चों को शिक्षित भी करे और संस्कारित भी करे। उसे सम्पूर्ण व्यक्तित्व से भरा नागरिक बनाए। तभी तो समाज समृद्ध हो सकेगा! प्रिंसिपल ने तब मुंह बनाया था। बाद में महाकवि दिनकर कॉलेज के एक समारोह में आए। दिनकर जी ने कहा बच्चों को सम्पूर्ण शिक्षा की जरूरत है, जो व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाए। तब जाकर मेरे प्रिंसिपल को एहसास हुआ कि मैं क्या कह रहा था उस दिन। शिक्षक वही है जो बच्चों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण के लिए चिंतित रहता हो।'
पूरा प्रदेश अखिलेश यादव को भी मुलायम होता हुआ देखना चाहता है। मुलायम की तरह का आदर्श और मुलायम की तरह का इंसान, जिसके व्यक्तित्व पर पद का भार या दंभ रत्तीभर भी न दिखता हो। ऐसे छोटे मुलायम के निर्माण के लिए एक शिक्षक मुलायम क्या करते हैं?
बातचीत में से ही निकल आए इस अत्यंत प्रासंगिक सवाल पर नेताजी मेरी तरफ गहरी नजर से देखते हैं, फिर उनकी नजरें शून्य में टिक जाती हैं, जैसे कहीं किसी पृष्ठभूमि से उत्तर निकाल रही हों। मुलायम कहना शुरू करते हैं, 'शिक्षण-प्रशिक्षण तो एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। चलती ही रहती है। एक पिता के नाते और पार्टी के अभिभावक के नेता मेरा दायित्व चलता रहता है। एक बेटे के नाते और एक मुख्यमंत्री के नाते अखिलेश अपने दायित्व पूरी करते रहते हैं, सीखते भी रहते हैं। पूर्ववर्ती शासनकाल की अराजकताओं और कुशासन के बीच संघर्षशील नेता के रूप में परिपक्व होते हुए भी मैंने अखिलेश को देखा है और सबको साथ लेकर चलने वाले लीडर को भी अखिलेश में शक्ल लेते हुए देखा है। यह शिक्षण-प्रशिक्षण की निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया का ही तो प्रतिफल है! इन्हीं समेकित-सामूहिक संस्कारों का ही तो नतीजा है विधानसभा चुनाव की अभूतपूर्व सफलता!'
देश-समाज के प्रति संजीदगी और सदाशयता का भाव रखने वाले मुलायम के बारे में कभी जातिवादी तो कभी तुष्टीकरणवादी जैसी संज्ञायें क्यों दी जाती हैं? ये सम्बोधन कभी आपको दुखी करते हैं कि नहीं..?
इस सवाल पर नेताजी थोड़ा तल्ख होते हैं। कहते हैं, 'बताइये, मैं अगर किसी पीडि़त व्यक्ति या पीडि़त समुदाय की मदद के लिए मानवीयता के आधार पर आगे आता हूं तो क्या गलती करता हूं? मैंने ब्राह्मण समुदाय के लोगों की आगे बढ़ कर मदद की। मैंने राजपूत समुदाय के लोगों के लिए किया। मैंने दलितों-पिछड़ों के लिए क्या-क्या नहीं किया। उसे लोग क्यों नहीं याद रखते? मैंने मुस्लिम समुदाय के भी दुखी-पीडि़त लोगों की मदद के लिए हाथ बढ़ाया तो तुष्टीकरण कहा जाने लगा! मैंने तो चाहा था कि बाबरी मस्जिद नहीं टूटे। क्या गलत चाह लिया था? अयोध्या से मेरे पास फोन आ रहे थे। एसपी पूछ रहे थे, क्या करें। मैंने कहा कि गोली चलाओ। गुम्बद तोड़ रहा एक युवक पुलिस की गोली से मारा गया तो आप ही लोगों में से एक अखबार ने लिख दिया कि सौ लोग मारे। खून की नदियां बहा दीं। सरयू नदी लाल हो गई। जहां अन्याय हुआ मैं वहां खड़ा हुआ। लेकिन ये साजिश करने वाले लोग हैं जो इस तरह की फालतू बातें करते रहते हैं।'
नेताजी, आपके ऐसे विचार के बरक्स मुजफ्फरनगर दंगे का जो विरोधाभास सामने आया, उसने भी तो लोगों को कहने या ताना देने का मौका दिया?
'हां, मौका दिया। लेकिन लोग तो सरकार और सरकार चलाने वाली पार्टी की मंशा और कार्रवाई देखेंगे न! केंद्र मुजफ्फरनगर को लेकर राजनीति तो करता रहा, लेकिन दंगा पीडि़तों की मदद में क्यों पीछे रह गया? उत्तर प्रदेश सरकार ने जो रुपए-पैसे और बंदोबस्त के जरिए लोगों की मदद की उसकी तुलना में केंद्र कहीं नहीं टिका। यह तो आधिकारिक तथ्य है। इसका पता लगा लीजिए। मैं तो कहता हूं कि मुजफ्फरनगर की घटना दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन राजनीति ने इसे और भी दुर्भाग्यपूर्ण बना दिया। अब धीरे-धीरे वहां के लोग यह महसूस कर रहे हैं। मिलजुल कर रहने की भावना फिर से कायम हो रही है। जो पीडि़त हुए उन्हें सरकार ने भरपूर मदद दी। सरकार यही तो कर सकती है। सरकार दोषियों पर कार्रवाई ही तो कर सकती है। वह कर रही है।'
खैर, तेलंगाना को लेकर आपका स्टैंड सबके सामने आया। आपने और आपकी पार्टी ने आंध्र प्रदेश के विभाजन पर विरोध जताया। लेकिन उत्तर प्रदेश भी तो बंटा था? उत्तर प्रदेश को और कई टुकड़ों में बांटने का षडयंत्र भी तो चल रहा है? मायावती इसके लिए आमादा हैं। यह क्या दुर्भाग्यपूर्ण नहीं होगा?
सवाल अब खालिस सामाजिक सरोकारों की धुरि से हट कर सामाजिक-राजनीतिक होने लगा। नेताजी ने कहा, 'हम हमेशा से बड़े राज्यों के पक्षधर रहे हैं। छोटे-छोटे राज्य बना कर क्या हासिल हो गया? उत्तराखंड बना, छत्तीसगढ़ बना, झारखंड बना। राजनीतिक फायदा तो उठा लिया गया लेकिन विकास में ये छोटे राज्य और पीछे ही चलते चले गए। हमने आंध्र प्रदेश के विभाजन का विरोध किया। राज्यों का विभाजन जनता में क्लेश पैदा करता है। तेलंगाना में ही देखिए क्या हो रहा है। अभी राज्य बना नहीं लेकिन अभी ही वहां से लोगों को खदेड़ा जाने लगा। नौकरियां छीनी जाने लगीं। आंध्र प्रदेश राज्य को कितने अमानवीय परिणाम पर पहुंचा दिया विभाजन की राजनीति करने वालों ने! जहां तक उत्तर प्रदेश को और विभाजित करने का प्रश्न है, ऐसा हमलोग कभी नहीं होने देंगे। मायावती के कहने से या उनके चाहने से यूपी थोड़े ही टुकड़ों में बंट जाएगा! इसे एक रखना हम सब लोगों का परम कर्तव्य है। यह देशभक्ति जैसा ही मसला है।'
कई मुद्दों पर असहमतियों के बावजूद केंद्र में कांग्रेस पार्टी को सरकार बनाए रखने में आप मदद करते रहे। कभी सोनिया से आपकी तल्खी भी लोगों ने देखी है तो राजीव गांधी से आपके सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध भी याद रहते हैं। इसे थोड़ा साफ करें, ताकि पहेली जैसा न रहे।
इस सवाल पर नेताजी बोले, 'देखिए कांग्रेस को समर्थन देने में कोई पहेली नहीं है। मेरा विरोध और समर्थन मुद्दों पर होता है। सबसे बड़ा मुद्दा है देश में साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता तक पहुंचने से रोकना। देश में प्रेम और सौहार्द बनाए रखने के लिए यह अत्यंत जरूरी है। इसके आगे सारी प्राथमिकताएं गौण हैं। कांग्रेस का समर्थन इसी सोच और सिद्धांत पर टिका रहा है। राजीव गांधी से मेरे सम्बन्ध अच्छे रहे हैं। यहां तक कि चंद्रशेखर जी के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद भी मैंने राजीव जी से कहा था कि देश के लिए अभी चंद्रशेखर की सरकार का रहना जरूरी है। तो राजीव जी ने मुझसे वादा किया था कि चंद्रशेखर जी से इस्तीफा वापसी की घोषणा करा दें, उनकी सरकार को कांग्रेस का समर्थन जारी रहेगा और मैं मतभेद समाप्त होने की घोषणा कर दूंगा। मैं चंद्रशेखर जी के पास गया, लेकिन वे इस्तीफा वापस लेने को तैयार नहीं हुए और उनकी सरकार जाती रही। मेरे हृदय में ऐसी जाने कितनी बातें दफ्न हैं जिसे दुनिया नहीं जानती।'
इसे आप लिखें या आप विस्तार से बताएं तो हम लोग लिखें! इस पर मुलायम ने कहा, 'मैंने एक बार मधु लिमये से भी कहा था कि मैं अपने इन सारे संस्मरणों को किताब की शक्ल में लिखना चाहता हूं। तब लिमये जी ने मुझे किताब लिखने से रोक दिया था। कहा था कि अभी आपको लम्बे समय तक राजनीति में रहना है। किताब लिख दिया तो कई साथ वाले ही दुश्मन हो जाएंगे। मधु लिमये की सलाह पर मैंने फिर किताब लिखने का ध्यान त्याग दिया।' तो क्या तीसरे मोर्चे के निर्माण की पहल या प्रक्रिया में वो 'दुश्मन' भी शरीक होंगे..? नेताजी मुस्कुराए, फिर बोले, 'सारी दुश्मनी और मतभेद भुलाकर गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई दल तीसरा मोर्चा बनाएंगे। हम मजबूत सत्ता विकल्प तैयार करने की तरफ अग्रसर हैं।'
इतना समय देने के लिए आभार जताते हुए जाने की इजाजत मांगी तो नेताजी खुद उठे, पोर्टिको तक आए, अपने कर्मचारियों के प्रति थोड़ी नाराजगी भी दिखाई कि गाड़ी पोर्टिको तक क्यों नहीं आई? ...ऐसा सद्व्यवहार नेताजी को कहां छोटा बना गया? मैं, छायाकार सुरेश वर्मा और रितेश सिंह उनसे विदा लेते हुए पोर्टिको से बाहर आ गए। लेकिन उनके व्यक्तित्व के विशाल अभिभावकीय पक्ष की परिधि से हम कभी बाहर नहीं आ पाएंगे...

No comments:

Post a Comment