Tuesday 18 February 2014

तो आएं हम सब एक दूसरे पर थूकें...


प्रभात रंजन दीन
आओ आसमान पर थूकें... पुरानी कहावत है ये, लेकिन अब पूरी शिद्दत से लागू हो रही है। भारतीय समाज पर तो खूब ही चलन है इसका। हम अपना ये जो चेहरा बदनुमा बनाए हुए घूम रहे हैं, यह हमारा ही तो है जो हमने आसमान पर फेंका था और वापस हमारे ही चेहरे पर आ गिरा और स्थाई भाव से चस्पा हो गया! जिसे देखो वही आसमान पर थूक रहा है और खुद को आसमान से ऊंचा समझ रहा है। एक विचित्र मनोविज्ञान घर कर गया है दिमाग में कि ऊंचे पर थूको और ऊंचे हो जाओ। ऊंचाई का ऐसा स्खलन शायद कभी किसी और दौर में पहले न हुआ हो। 1947 से लगातार थूकते चले आ रहे हैं। उसके पहले भी थूकते ही रहे, तभी तो मुगलों के गुलाम रहे और फिर अंग्रेजों के दास हो गए! अपने सरोकारों पर थूकते, अपने चरित्र पर थूकते, अपनी संस्कृति पर थूकते हुए हम आगे बढ़े हैं। हमें अपने थूकने की मेधा पर गौरव है। इसी योग्यता के कायल होकर मुगलों ने हमारे देश, समाज और घर की ऐसी-तैसी की और उसके बाद अंग्रेजों ने बाकी की कसर पूरी की। हम इतना थूके कि अब पूरी दुनिया हम पर थूकने लगी। अब तो दुनिया घूम आएं, थूकने का आमंत्रण आपको भारतवर्ष में ही देखने को मिलेगा। गलियों और चौबारे थूक और पीक से सने तो मिलेंगे ही, आपको यत्र-तत्र-सर्वत्र ऐसे आदेश-आग्रह-मनुहार से भरे पोस्टर दरो-दीवार पर चस्पा नजर आएंगे जिसमें आपको बुलाया जाता है कि 'कृपया यहीं आकर थूकें'। लेकिन फिर भी हम यह मनुहार नहीं सुनते और कहते हैं कि हम तो अपने पर थूक ही रहे हैं, वहां आकर क्यों थूकें? अंग्रेजों के गए हुए भी अर्सा हो गया। जिन अंग्रेजों ने भारत पर राज किया उनकी संततियों ने सोचा कि अपने पुरखों के कब्जे में रहे देश का हाल देख कर आया जाए। तो कुछ फिरंगी भारत आए। सुबह पहुंचे और शाम होते-होते बेहाल हो गए। किसी ने पूछा कि यह बेहाली क्यों? उन्होंने कहा कि सुबह से शाम तक वे थूकते-थूकते परेशान हो गए। अब तो गला सूख गया है। अब तो थूक ही नहीं निकल रहा। तब पता चला कि माजरा क्या है। दरअसल वे जहां जाते, हर जगह लिखा मिलता 'कृपया यहां थूकें'। अब इतना मनुहार, तो वे कैसे नहीं थूकते। आधुनिक अंग्रेजों ने भी सोचा कि भारत की आधुनिक संस्कृति यही होगी। 'थूको संस्कृति'... तो थूको यत्र-तत्र-सर्वत्र। थूकते-थूकते गला दुख गया तो शाम को ही वे वापस इंग्लैंड रवाना हो गए, यह कहते हुए कि 'तुम्हें मुबारक तुम्हारा थूक।' ऐसे ही वाकयों के बाद शायद पूरी दुनिया में भारत के प्रति थू-थू बढ़ गई है। कहीं पढ़ रहा था कि भारत से कुछ लोग इसी एशियाई क्षेत्र के एक देश सिंगापुर घूमने गए। घूमने क्या गए, थूकने को तरस गए। कहां तो आदत थी सब तरफ थूकने की, और वहां सख्ती थी, कहीं नहीं थूकना है। तो जैसे अंग्रेज थूकने से आजिज होकर लौट गए थे, वैसे ही भारतीय नहीं थूकने से आजिज होकर वापस भारत लौट आए। जैसे ही भारत में एयरपोर्ट पर पग धरा... पच्च...। बड़ी राहत मिली। थूक मुंह से पिचकारी की तरह निकला और उसके बाद मुंह से ध्वनि उच्चरित हुई 'आह'। ऐसी राहत क्या कहीं और मिल सकती है! एशियाई देश में थूक से इतना परहेज तो अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय देशों में क्या होता होगा! कई देशों में थूको तो जुर्माना भरो। लेकिन अपना देश 'आह' और 'वाह' दोनों ही। यहां तो नहीं थूके तो आगे जुर्माना भरना होगा। नेता तो संसद और विधानसभा तक में थूकते हैं। थूको संस्कृति के कारण ही भारत में थूक पर कहावतें भी खूब गढ़ी गईं। मसलन, आसमान पर थूकना, थूक कर चाटना, हथेली पर थूकना, थाली में थूकना, उपकार पर थूकना, पैसे पर थूकना, खून थूकना, गुस्सा थूकना, थूक निगलना, थुक्कम फजीहत कराना वगैरह वगैरह...। तो आएं हम सब एक दूसरे पर थूकें, थोड़ा मुंह उठा कर थूकें और खुद को महान समझने का भाव भर लें और उसे भी किसी के व्यक्तित्व पर थूक दें...

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