सहारा ने उलझा दी 24 हजार करोड़ रुपए की गुत्थी
प्रभात रंजन दीन
सहारा समूह के निवेशकों
को 24 हजार करोड़ रुपए लौटाने का मसला सहारा-सेबी-सुप्रीमकोर्ट के बीच फंसा हुआ है।
लम्बे अरसे से तमाम पेचीदगियों में उलझा सहारा प्रकरण अब सहारा प्रमुख सुब्रत राय सहारा
और सहारा समूह के तीन निदेशकों वंदना भार्गव, अशोक रायचौधरी व रविशंकर दुबे को व्यक्तिगत तौर पर 26 फरवरी को शीर्ष अदालत
में हाजिर होने के सख्त निर्देश पर पहुंचा है। सुप्रीम कोर्ट ने सफाई देने के लिए सहारा
समूह के अभिभावक समेत इन चार अलमबरदारों को कोर्ट में तलब किया है, लेकिन आप उस विषम स्थिति की कल्पना करें जब दस लाख से भी अधिक लोगों को कोर्ट
में बुला कर सफाई लेने की वीभत्स परिणति पर इस मामले को ले जाया जाएगा। सहारा प्रबंधन
इसी कोशिश में लगा है। सहारा समूह ने अपने दस लाख से अधिक कर्मचारियों-कार्यकर्ताओं
को विवादास्पद प्रकरण में घसीटने का उपक्रम शुरू कर दिया है। सहारा समूह के अंदर ही
अंदर यह तैयारी तीव्र गति से चल रही है। आनन-फानन सारे कर्मचारियों से पुरानी तिथियों
में निवेश के फॉर्म भरवाए गए हैं। कर्मचारियों को निवेशक बनाने की आपाधापी में सहारा
प्रबंधन अपने ही कर्मचारियों को 15 प्रतिशत का प्रतिमाह रिटर्न देने की गारंटी पर तीन-तीन
लाख रुपए वसूल रहा है। सारी अद्यतन स्थितियों से सुब्रत राय सहारा को अवगत भी कराया
जा रहा है और सहाराश्री खुद इसकी निगरानी भी रख रहे हैं।
सहारा के कर्मचारियों को
यह भी समझाया जा रहा है कि 'किसी भी
एजेंसी द्वारा कार्यकर्ता से पूछे जाने पर कि संस्था में एडवांस के रूप में आपने धनराशि
क्यों दी, तो कार्यकर्ता को यह कहना होगा कि विगत काफी समय से
वह संस्था से जुड़े हैं और उनके परिवार का जीविकोपार्जन यहां से अर्जित आय पर ही निर्भर
है। अत: अपने परिवार की बेहतरी के लिए एडवांस में धनराशि देकर संस्था की भावी योजनाओं
के लिए सहयोग दिया है।' इस तरह की तमाम पेशबंदियां सहारा समूह में युद्ध-स्तर
पर चल रही हैं। ...'किसी भी
एजेंसी द्वारा कार्यकर्ता से पूछे जाने पर'... का संकेत ही यही है कि सहारा समूह को अंदेशा है कि यह
मामला सीबीआई या किसी अन्य केंद्रीय जांच एजेंसी को छानबीन के लिए दे दिया जाएगा। लिहाजा, उससे निपटने की तैयारियां पहले से रखी
जा रही हैं।
जो कर्मचारी मई 2012 के
पहले सहारा समूह में नियुक्त हो चुके थे, उनसे ही निवेश के फॉर्म भरवाए जा रहे हैं। निवेश के लिए कार्यकर्ताओं का सहारा
क्रेडिट कोऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड का मई 2012 के पहले का सदस्य होना जरूरी है। लेकिन
सहारा प्रबंधन ने यह भी जुगाड़ लगाया है कि जो कार्यकर्ता मई 2012 के पहले के सदस्य
नहीं हैं उन्हें भी निवेशक बना लिया जाए। इसके लिए उन्हें यह सख्त निर्देश दिया गया
है कि वे नॉमिनल मेम्बरशिप फॉर्म भरते समय दिनांक का उल्लेख न करें। साफ है कि उस पर
बाद में अनुकूल तारीख भर ली जाएगी। सहारा ने अपने कार्यकर्ताओं को यह भी निर्देश दिया
है कि एडवांस में उनसे राशि लिए जाने के लिए 'सहारा यू गोल्डन
फॉर्म' भरा जाएगा लेकिन उसमें
भी दिनांक का जिक्र नहीं किया जाएगा।
सहारा पैराबैंकिंग के एक्जेक्यूटिव
डायरेक्टर वर्कर डीके श्रीवास्तव ने सहारा के सारे कर्मचारियों और फील्ड वर्करों को
निवेशक के रूप में जोडऩे का बीड़ा उठाया है। सहारा प्रबंधन फूंक-फूंक कर कदम उठा रहा
है और निर्देश जारी कर रहा है। डीके श्रीवास्तव की ओर से भेजे गए निर्देश के पहले उन्हीं
का एक 'कवरिंग लेटर' सहारा के सारे फ्रेंचाइजी, सेवा केंद्रों, सेक्टर, रीजन, एरिया और मंडल प्रमुखों
के पासदौड़ा। सहारा प्रबंधन की ओर से बरती जा रही अतिरिक्त सतर्कता डीके श्रीवास्तव
के 'कवरिंग लेटर' से उजागर होती है। आप भी उसकी बानगी देखिए... 'आपको अवगत कराना है कि कमांड कार्यालय
में इंटरनेट व्यवस्था बाधित होने के कारण इस पत्र के साथ-साथ दो पन्ने का संलग्नक किसी
व्यक्तिगत मेल द्वारा भेजा जा रहा है, जिसके अनुसार अग्रिम कार्यवाही
सुनिश्चित करें। मेल की प्रामाणिकता हेतु आप हमसे दूरभाष से सम्पर्क कर सकते हैं। मेल
में दिए गए (w) के आकार की मुहर
अविलम्ब तैयार कराएं और किसी भी फॉर्म पर मुहर लगाना न भूलें।' आपका ध्यान दिलाते चलें कि दो पेजों के संलग्नक में भी
सारे गोपनीय निर्देशों के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्द (w) जैसी
आकृति की मुहर लगाने की विशेष ताकीद की गई है।
सहारा समूह के सूत्रों
ने बताया कि सहारा के कर्मचारियों और फील्ड वर्करों को निवेशक बनाने वाले फॉर्म भरवाकर
जमा भी हो गए हैं। 26 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में हाजिर होने तक यह प्रक्रिया बिल्कुल
फिट कर ली जाएगी। दस लाख से अधिक कर्मचारियों को निवेशक बनाने की प्रक्रिया में भारतीय
रिजर्व बैंक के प्रावधानों का पालन किया गया कि नहीं, 49 हजार रुपए से अधिक के सारे
'ट्रांजैक्शन' चेक के जरिए हुए कि नहीं, नॉमिनल मेम्बरशिप फॉर्म पर 'अनुकूल तारीख' भरते समय आयकर की तत्कालीन सूचनाओं का ख्याल रखा गया
कि नहीं..? जैसे कई सवाल सामने आएंगे। इन सवालों का संतोषजनक जवाब
नहीं मिलने पर सहारा के उन सारे कर्मचारियों पर कर चोरी के अलावा षडयंत्र में शामिल
होने (धारा 120-बी) का मामला भी बन सकता है।
गहरे वित्तीय विवादों में
घिरे सहारा समूह के शीर्ष प्रबंधन की बौखलाहट अंदरूनी औपचारिक पत्र-व्यवहार से भी अभिव्यक्त
होने लगी है। सहारा प्रबंधन यह भी एहतियात नहीं बरत रहा कि पत्र की भाषा देश की सर्वोच्च
अदालत का मान-मर्दन करने वाली न हो। सहारा पैरा बैंकिंग के एक्जेक्यूटिव डायरेक्टर
वर्कर जैसे शीर्ष पद पर आसीन डीके श्रीवास्तव अपने कर्मचारियों का हौसला बनाए रखने
के लिए जो औपचारिक पत्र लिखते हैं, वह सर्वोच्च न्यायालय की मर्यादा का कितना मखौल उड़ा रहा है, उसकी एक बानगी देखिए... 'जैसा कि आप सभी को विदित है
कि उच्चतम न्यायालय में सहारा-सेबी प्रकरण की जो सुनवाई चल रही है उसमें संस्था द्वारा
वास्तविक तथ्यों के साथ तार्किक रूप से अपने पक्ष को प्रस्तुत किया जा रहा है। इसी
क्रम में इस बार नौ जनवरी को सहारा के वकील सीए सुंदरम, जो बहुत
ऊंचे कद के वकील हैं, ने न्यायाधीशों को खुल कर दोषारोपित किया
कि हम आपके रवैये से बहुत ही अचम्भित और बहुत ही असंतुष्ट हैं। यह उल्लेखनीय है कि
कोई भी वकील अमूमन न्यायालय में न्यायाधीश के समक्ष इस तरह की बात नहीं करते हैं...'। आप यह समझ सकते हैं कि खुदमुख्तारी की यह भाषा अदालत
की मर्यादा का कितना हनन करती है। मीडिया के बारे में भी सहारा प्रबंधन की यही राय
है। डीके श्रीवास्तव अपने उसी पत्र में कहते हैं, 'जहां तक मीडिया का सवाल है, वे पूरी
तौर से दिग्भ्रमित हैं और केवल किसी बात को जबरदस्त बतंगड़ बना कर पेश करने पर ही इनको
स्वांत: सुखाय होता है। दरअसल मीडिया देश का दुश्मन बन गया है...'। सहारा खुद भी मीडिया हाउस का मालिक है, लेकिन मीडियाकर्मियों के लिए उसकी इतनी
ऊंची धारणा, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए इस्तेमाल
किए गए ऊंचे शब्दों से काफी सामंजस्य रखती है।
हम एक बार फिर से याद करते
चलें कि सुप्रीम कोर्ट ने अदालत की अवमानना करने के मामले में सहारा प्रमुख सुब्रत
राय सहारा के खिलाफ समन जारी कर 26 फरवरी को अदालत में पेश होने के आदेश दिया है। सहारा
के तीन निदेशकों को भी पेश होने का निर्देश दिया गया है। न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन
और न्यायमूर्ति जेएस केहर की खंडपीठ ने सुब्रत राय सहारा के साथ ही सहारा इंडिया रियल
इस्टेट कारपोरेशन लिमिटेड और सहारा इंडिया हाउसिंग इन्वेस्टमेन्ट कारपोरेशन लिमिटेड
के निदेशक रवि शंकर दुबे, अशोक रायचौधरी
और वंदना भार्गव को भी 26 फरवरी को न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से हाजिर रहने को कहा
है। सहारा ने यह दावा किया था कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक उसने निवेशकों
के 24 हजार करोड़ रुपए में से 90 फीसदी रकम वापस कर दिए हैं। सेबी के पास सहारा समूह
के 5,120 करोड़ रुपए पहले से जमा हैं। निवेशकों को किए गए भुगतान
का सहारा से ब्यौरा देने को कहा गया तो उसने कहा कि सारा भुगतान नकद किया गया। इतनी
बड़ी राशि के नकद भुगतान पर सवाल उठने पर सहारा ने कहा था कि उसकी शाखाओं के विशाल
नेटवर्क की वजह से इतने बड़े पैमाने पर नकदी का लेनदेन सम्भव हो सका। सहारा समूह का
कहना था कि शाखाओं व बैंकों के बीच धन ले जाते समय उसके कर्मचारियों के साथ छिनैती,
लूट, चोट और यहां तक कि हत्या के सैकड़ों घटनाओं
के सामने आने के बाद सहारा ने नकदी की नीति बनाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने सेबी से यह पता
लगाने के लिए भी कहा है कि कम्पनी कानून और भारतीय रिजर्व बैंक के दिशा-निर्देशों के
तहत क्या इतनी बड़ी रकम का नकद लेन-देन किया जा सकता है? खैर,
इतनी विशाल रकम को बचाने-पचाने-चुकाने की गुत्थियां इस कदर उलझा दी गई
हैं कि अब न सेबी को ठीक से याद आता है कि उसने क्या-क्या ब्यौरा लिया और समझा और न
अदालत ही इस पेचोखम से बाहर निकल पा रही है। यह सहारा की सोची-समझी रणनीति हो सकती
है। इस गुत्थी को और उलझा देने के लिए ही अब उसने दस लाख से अधिक कर्मचारियों को अपने
निवेशकों की फौज में खड़ा कर लिया है। आखिर कितने लोगों को समन करेंगे और कितने लोगों
को गिरफ्तार करेंगे, यह बड़ा कानूनी सवाल सुप्रीम कोर्ट के समक्ष
खड़ा होने ही वाला है। धन की व्यवस्था के बारे में सहारा प्रबंधन का तर्क 'इस घर का माल उस घर में और उस घर का माल इस घर में' के नियोजित घालमेल पर टिका हुआ है। सहारा रियल इस्टेट
को सहारा क्रेडिट के हाथों बेच कर 16637 करोड़ रुपए पा लिए कि सहारा इंडिया हाउसिंग
को सहारा क्यू शॉप को बेच कर 3228 करोड़ रुपए हासिल कर लिए, या कर्मचारी-निवेशकों से बड़ी धनराशि
जुटा ली, यह उतना अहम नहीं है। अब यह भी महत्वपूर्ण नहीं रहा
कि भुगतान की रकम दिखाने में यह कभी 24 हजार करोड़ रुपए हो जा रही है कि कभी 39 हजार
करोड़ रुपए। ताजा स्थितियों में अब अहम है इन सारे ट्रांजैक्शन (लेन-देन) का ठोस कानूनी
ब्यौरा जिसे लेन-देन के समय रिजर्व बैंक और रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज़ को देना अनिवार्य
होता है। सुप्रीम कोर्ट भी यही जानना चाहती है, यही जांचना चाहती
है...
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