Tuesday 18 February 2014

मेले का मोह त्यागें और अकेले चल पड़ें...

प्रभात रंजन दीन
जीवन में कुछ भी आखिरी नहीं होता और न जीवन में कुछ प्रारम्भ होता है। ये अंत और प्रारम्भ, सब मनोवैज्ञानिक झमेला है। प्रकृति का चक्र इतना भरमाता है कि कभी अंत और प्रारम्भ का अंतर दिखता है तो कभी अंत और प्रारम्भ एक-दूसरे में विलीन हो जाता है। यही कभी मेला लगता है तो कभी झमेला। 1950 में एक फिल्म आई थी 'मेला'। बाद की पीढिय़ों ने भी वह फिल्म देखी और उस फिल्म का गीत सबकी जुबान पर रहा, 'ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे'। दरअसल संगीतकार नौशाद अथक संघर्षों के बाद जब मुम्बई की फिल्मी दुनिया में स्थापित हो गए तब वे अपने घर लखनऊ लौटे तो उनका पुराना लखनऊ उन्हें गायब मिला। यहां तक कि जिस मेले को देख-देख कर नौशाद बड़े हुए थे, वह मेला भी गायब था। किसी ने उन्हें बताया कि अब मेला नहीं लगता। उन्हें बेहद अफसोस हुआ। तब उन्होंने 'मेला' फिल्म के लिए खास तौर पर वह गीत चुना और उसकी धुन बनाई। फिल्म में मेले के दृश्य में एक गरीब इकतारा बेचने वाले के मुंह से वह गीत गवाया...'ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे'। 'मेला' फिल्म की कथा भी नौशाद ने ही लिखी थी, जो उन्होंने अपनी जिंदगी के अनुभवों और संस्मरणों की स्याही से लिखी थी। ...अब वे तो नौशाद साहब थे, महान संगीतकार। संगीत में तो ईश्वर बसता है, वे तो उस पहुंच के व्यक्तित्व थे। लेकिन फिल्मों को तो बाजार में चलाना होता है, लिहाजा उसका भौतिक पक्ष होता है। फिल्मों को बिकना होता है। इसलिए बाजार में बिकने के लिए खड़े किसी उत्पाद को यह तो कहना ही पड़ेगा कि जिंदगी के मेले दुनिया में ऐसे ही चकाचौंध चलते रहें और नई पीढिय़ों को उन रौशन मेलों में शरीक रहने का उत्साह बढ़ाते रहें। लेकिन असली सीख तो यही है न कि हम मेले में मुब्तिला ही न हों कि हमें कोई अफसोस हो! कि उस चकाचौंध में खुद के नहीं होने पर अफसोस जताने की नौबत ही न आए। आप दुनिया पर नजर डालें। अलग-अलग, किस्म-किस्म के मेले ही तो चल रहे हैं हर तरफ। वोट का मेला, नोट का मेला, चोट का मेला, खोट का मेला... क्या आप या कोई भी, इन मेलों में खुद को लिप्त करना चाहेंगे? जो सत्य के पक्ष में खड़ा होगा, वह इन मेलों से दूर खड़ा होगा। तो वह भला क्यों रोएगा 'अफसोस हम न होंगे'? आप सोचें तो मेला और भीड़ आपको एक जैसा ही लगेगा। भीड़ के बिना मेला नहीं और मेले में भीड़ नहीं तो मेला क्या! इससे कुछ भी सार्थक नहीं पाया जा सकता। इससे बस राजनीति पाई जा सकती है। पॉकेटमारी पाई जा सकती है। पैसा पाया जा सकता है। दुकान चलाई जा सकती है। हमारे नेता से लेकर हमारे पूंजी प्रतिष्ठान और हमारा समाज तक चाहता है कि हम सब मेले में लिप्त रहें। हम अपनी अलग पगडंडी न बनाएं। जो अकेला चलता है तो बाकी सब उससे नाराज हो जाते हैं। सब भेड़-बकरियों को पसंद करते हैं क्योंकि भेड़-बकरियों पर आसानी से कब्जा हो जाता है। सिंह अकेला चलता है। उस पर कोई स्वाभाविक नियंत्रण नहीं कर सकता। सिंह पर नियंत्रण करने के लिए सिंहत्व आवश्यक होता है। अपने पथ पर अकेले चलने वाले सिंहों-शेरों को यह थोड़े ही महसूस होता है कि हाय मेरा मेला छूट गया, कि हाय मुझे इसका अफसोस है! जे कृष्णमूर्ति का नाम तो आप सबने सुना ही होगा। उन्होंने कहा था, 'असत्य को असत्य जान लेना सत्य को जानने की भूमिका पैदा कर लेना होता है।' हम मेले का असत्य जान लें तो अफसोस से उबरने का सत्य पैदा होने लगता है, लेकिन इस काम में मुश्किल बहुत है। यूनान में एक बड़े चित्रकार-मूर्तिकार थे। बड़े कमाल के कलाकार थे। उनकी कृतियां असली को मात देती थीं। उन्होंने सुन रखा था कि मौत आती है तो कोई यम आकर उठा कर ले जाता है। तो उन्होंने अपनी ही दस मूर्तियां और बना लीं। कोई फर्क नहीं कर सकता था कि कौन असली कौन नकली। मौत आई। पर असली मूर्तिकार कौन, पहचान नहीं पाई। सब एक जैसे थे। कौन असली है, पता करना मुश्किल था। मौत लौट गई। परमात्मा को जाकर कहा कि बहुत मुश्किल है। ग्यारह आदमी एक जैसे हैं। हे ईश्वर आपने तो कभी एक जैसे दो आदमी नहीं बनाए। लेकिन वहां तो ग्यारह लोग एक ही जैसे हैं। परमात्मा हंसे और मौत के कान में एक सूत्र बुदबुदाए। मौत वापस लौटी। वह आकर कमरे में खड़ी हुई। उसने चारों तरफ नजर डाली और बोली, सब तो ठीक है, पर एक भूल रह गई। मूर्तिकार बोल उठा, 'कौन सी'? बस, मौत ने कहा, 'यही कि तुम अभी अपने आप को नहीं भूले हो। चलो अब बाहर निकलो और मेरे साथ चलो।' ...हम अगर मिट जाने का बोध ले आएं तो हमें मौत भी झांसा नहीं दे पाएगी। हम मेले में रहें कि झांसे में, एक ही बात है। मेले का मोह त्यागें और जीवन पथ को अकेले रौंदने के लिए बस चल पड़ें...

No comments:

Post a Comment