Tuesday 18 February 2014

संत और संसद! वाह-वाह...

प्रभात रंजन दीन
संत थप्पड़ चलाए और संसद महापुरुषों का असम्मान करे... यह भारतवर्ष में ही हो सकता है। हम तो संस्कृति संस्कारों वाले देश के हैं, इसीलिए हमारे संत नुक्कड़छाप हरकतें करते हैं और हमारी संसद देश का खुलेआम अपमान करती है। स्वरूपानंद सरस्वती खुद को शंकराचार्य कहते हैं लेकिन उनके आचरण अभद्राचार्य वाले हैं। ऐसे लोगों के नाम के साथ सरस्वती का जुड़ा होना भी अनुचित है, लिहाजा ऐसे लोगों का चारित्रिक रूप जैसा हो उसे वैसा ही सम्बोधन मिलना चाहिए। अभद्राचार्य स्वरूपानंद। ऐसे संत के लिए अलग शब्दावली बननी चाहिए। 'फंत' शब्द ठीक रहेगा। अभद्राचार्य फंत स्वरूपानंद को गुस्सा क्यों आया! नरेंद्र मोदी का नाम लेते ही उनका गुस्सा फट पड़ा। किसी पत्रकार ने उनसे सवाल पूछ लिया तो उस पर थप्पड़ चला दिया! अभद्राचार्य स्वरूपानंद के रक्त में सोनिया के प्रति चाटुकारभाव इतना भर गया है कि उन्हें नरेंद्र मोदी का नाम सुनते ही गुस्सा आने लगता है। ऐसे फंतों का मर्यादा से लेना-देना होता तो ये क्या सत्ता के भांड होते! संतों का सत्ता से क्या लेना देना? फूहड़ आचरण रखने वाला, बात-बात पर गुस्साने वाला, भौतिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रहने वाला, मठों-मंदिरों पर कब्जा कराने वाला, नुक्कड़छाप आचार-विचार रखने वाला व्यक्ति अगर संत हो जाए तो फिर माफियाओं को क्या कहा जाए! ऐसे संत राष्ट्र और राष्ट्र की संस्कृति का अपमान हैं, वे चाहे जिस भी धर्म के संत हों। फंत के थप्पड़ प्रकरण का मजेदार पहलू देखिए। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने फौरन ही अभद्राचार्य स्वरूपानंद के समर्थन में अपना मुखारबिंद खोलना शुरू कर दिया। एक तरफ स्वरूपानंद तो दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह। रामायण में कहा गया, 'को बड़ छोट कहत अपराधू, सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू॥ देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ज्ञान नहिं नाम बिहीना... इनका भावार्थ भी समझते चलें, 'इनमें कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुणों का तारतम्य सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेंगे। रूप नाम के अधीन ही देखे जाते हैं, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता॥' ...तो साधु पुरुषो! असाधुजनों के कृत्य देखते हुए आप भी यह तय नहीं कर पा रहे होंगे कि इनमें कौन बड़ा है और कौन छोटा। नाम, रूप और कर्म का क्या अंतरसम्बन्ध है, इस पर ऊपर चर्चा हो ही चुकी है। तो इतिश्री फंत कथा...
दूसरी कथा भी कम वेदनागाथा नहीं है। गुरुवार को ही महान क्रांतिकारी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर पूरा देश नतमस्तक था, उन्हें नमन कर रहा था। लेकिन राष्ट्र की शीर्ष संवैधानिक पीठ संसद में आसीन होने वाले सांसदों को इससे कोई लेना-देना नहीं था। संसद में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर कार्यक्रम आयोजित था, लेकिन इस कार्यक्रम में एकमात्र सांसद लालकृष्ण आडवाणी मौजूद थे। आडवाणी के अतिरिक्त तीन पूर्व सांसद इस कार्यक्रम में शरीक हुए। पूर्व सांसदों के मन में नेताजी के प्रति सम्मान का भाव इतना था कि वे संसद पहुंचे लेकिन देश के 774 सांसद इस कार्यक्रम से नदारद रहे। जो सांसद नदारद थे, वे देश का क्या काम कर रहे थे? एक भी सांसद अगर यह बता दे कि वह सुभाषचंद्र बोस के प्रति सम्मान जताने से अधिक कोई सार्थक काम कर रहा था तो फिर आगे लिखने से परहेज की मुनादी कर दी जाए। लेकिन जनप्रतिनिधियों के कृत्य सब जानते-समझते हैं। आप खुद ही यह समझ सकते हैं कि सांसदों-विधायकों की इस देश में क्या उत्पादकता रह गई है। राजनीति, तिकड़म और बटमारी से फुर्सत मिले तब तो नेताजी याद आएं! इसीलिए तो इस देश से सारे महापुरुष तिरोहित होते चले गए। सारा गौरवबोध विलुप्त होता चला गया। अब देश को ही विलुप्त करने की तैयारी है। अब तो हम सब मिल कर यही जपें, 'संत और संसद! वाह-वाह'...

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